सतरंगी सपनों की दुनिया: तुम सर्दी की धूप: / शिवजी श्रीवास्तव

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अनेक विधाओं पर समान रूप से अधिकारपूर्वक लेखन करने वाले, सतत सक्रिय रचनाकार श्री रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' का नवीन कविता संग्रह "तुम सर्दी की धूप" मूलतः प्रेम के उदात्त भाव को व्यक्त करने वाली रचनाओं का संग्रह है, इसके साथ ही संग्रह की अनेक कविताएँ सामाजिक सरोकारों की चिंताओं से जूझती हुई बेहतर मानव समाज के निर्माण की दिशा में कृत संकल्प दिखती हैं। यदि शिल्पगत रूप में देखें तो इस संकलन में काव्य के भारतीय एवम् पश्चिमी अनेक प्रचलित रूपों को अभिव्यक्ति हेतु चुना गया है, संकलन में 314 दोहे, 74 मुक्तक, 38 क्षणिकाएँ, 28 तुकांत / अतुकांत कविताएँ, 48 हाइकु, 12 ताँका, 15 माहिया के साथ ही फूल-पाँखुरी और रजत कण शीर्षक से भी कुछ छंदोबद्ध भावाभिव्यक्तियाँ हैं। छंदों का यह वैविध्य इस बात का संकेत है कि कवि की दृष्टि में कविता में भावों की अभिव्यक्ति महत्त्वपूर्ण है, छंद / शिल्प गौण है, कवि को अपनी भावाभिव्यक्ति हेतु छंद / शिल्प का जो रूप अनुकूल प्रतीत होता है वह उसका चयन करता है। इसीलिये कवि ने कविता के दोहा, मुक्तक, क्षणिकाएँ, हाइकु, ताँका, माहिया, तथा अतुकांत रूपों में अपनी भावनाओ को अभिव्यक्ति प्रदान की है, वस्तुतः यह संकलन अनेक भावों एवम् विधाओं का एक खूबसूरत गुलदस्ता है जिसमे कवि के सतरंगी सपनों की दुनिया के रंगों की दीप्ति विद्यमान है।

भावों के वर्ण्य विषय में कवि का प्रिय विषय प्रेम है, संकलन में प्रेम की रचनाएँ ही अधिक है, काम्बोज जी ने सर्वत्र प्रेम के पावन एवम उदात्त स्वरूप को चित्रित किया है, उनकी रचनाओं में कहीं पर प्रेम छायावादी भाव बोध से अनुप्राणित प्रिय की मंगल कामना से ओतप्रोत है, कहीं रहस्यवादियों की तरह गूढ़ है और कहीं सूफियों की तरह अलौकिक सत्ता के भाव का अभिव्यंजक है। प्रेम के करुण और कोमल भाव में डूबे मन के लिये देह गौण है हृदय के भाव प्रमुख हैं, प्रेम की सत्ता स्त्री-पुरुष के भेद से परे है-

" नर-नारी के भेद से, ऊपर होता प्यार।

भोर-साँझ सब एक हैं, उजियारे के द्वार॥"

कवि ने प्रेम के उस उदात्त भाव का चित्रण किया है, जहाँ प्रेमी प्रिय के समस्त दुखों को स्वयं ले लेना चाहता है, वह एक ऐसा याचक है जो याचना में प्रिय से प्रिय के सारे दुःख माँग रहा है—

" मुझको इतना चाहिये, आकर तेरे द्वार।

अपने सब दुख दान दो, मेरी यही पुकार।

इसी प्रकार—

" विनती की भगवान से, मन है बहुत अधीर।

आँचल में दे दो मुझे, प्रियवर की सब पीर॥"

प्रेम में आकंठ डूबे प्रेमी की एक ही आकांक्षा है कि उसके प्रिय के मार्ग में फूल ही फूल हों, काँटा एक भी न हो वह अपने प्रिय के मार्ग में दुःख के सारे काँटे स्वयं चुन लेना चाहता है, इस भाव को एक दोहे में देखिये—

" तेरे पग जिस मग में चलें, बिछें वहाँ पर फूल।

आगे आगे मैं चलूँ, चुनता सारे शूल॥"

प्रिय के हित की यह कामना कई स्थलों पर व्यक्त हुई है, एक मुक्तक देखिये-" मेरे मन में चाह यही है, सारे सुख प्रियवर को देना,

जितने भी काँटे राहों में, प्रभुवर! उनको तुम हर लेना।

पीड़ा के सागर पीकर भी, नीर नहीं घटता क्यों खारा,

मैं हर आँसू पी लूँ उनका, बीच भँवर में नैया खेना॥"

उदात्त भाव वाले इस प्रेमी के जीवन में संयोग के सुखद क्षण भी हैं और विरह की मार्मिक अनुभूतियाँ भी हैं। संयोग के मधुर क्षणों की कोमल अनुभूति को अनेक रचनाओं में-में अत्यंत भावपूर्ण ढंग से अभिव्यक्ति मिली है, उदाहरण स्वरूप "मेंहदी रचे दो पाँव" कविता में इस भावुक तरलता का अनुभव किया जा सकता है।

' धर लिये थे गोद मे

मेंहदी रचे दो पाँव

नीर नयनो में बहा

और मन पावन हो गया। "

प्रेम करना और प्रेम में होना दो अलग स्थितियाँ हैं, जहाँ प्रेम करना किसी से दैहिक और मानसिक रूप से सम्बद्ध होना है वहीं प्रेम में होना स्वयम को खो देना है, अपनी सत्ता को प्रिय में विलीन कर देना है, दर्शन में यही अद्वैत की स्थिति है, कवि का प्रेम भी प्रेम में होने की स्थिति है जहाँ प्रिय से अलग कोई सत्ता नहीं है-

" प्रेम क्या है

मुझको नहीं पता

तेरे न होने का मतलब

प्राण लापता है

इतना जानता हूँ। "

जब व्यक्ति प्रेम में होता है तो उसे सर्वत्र अपने प्रिय की प्रतिच्छाया दृष्टिगोचर होती है, यह प्रेम की सर्वोच्च स्थिति होती है, काम्बोज जी की अनेक रचनाएँ प्रकृति में प्रिय के रूप का दर्शन कर रही हैं, उनकी छोटी रचना 'तुम सर्दी की धूप' में इस भाव को अत्यंत सहज अभिव्यक्ति मिली है—

" पर्वत के शिखरों पर उतरी

तुम सर्दी की धूप

परस तुम्हारा पाकर निखरा

शीतल हिम का रूप

शुभ्र चाँदनी तुम आँगन की

हँसते तुमसे द्वार

तरुवर की तुम लता सुहानी

लिपटी बनकर प्यार। "

जीवन में प्रेम उपस्थित होने पर संसार की समस्त रीति-नीति, पूजा-पाठ निस्सार प्रतीत होते हैं, प्रेम और पूजा में कोई भेद नहीं रहता।काम्बोज जी ने इस अनुभूति को भी शब्द दिए हैं, —

" मन्दिर मैं जाता नहीं, निभा न पाता रीत।

पूजा-सी पावन लगे, मुझको तेरी प्रीत॥"

इसी प्रकार एक और दोहा—

" जहाँ-जहाँ मुझको मिली, तेरे तन की छाँव।

देवालय समझा उसे, ठिठके मेरे पाँव॥"

इसी भाव को एक माहिया में देखिये-

" तुमको जब पाऊँगा

पूजा क्या करना

मन्दिर क्यों जाऊँगा। "

सामान्य व्यक्ति मन्दिर जाता है ईश आराधन हेतु, किन्तु सच्चे प्रेमी को प्रिय में ही ईश्वर के स्वरूप के दर्शन हो जाते हैं-

" जब-जब सुमिरन किया ईश का, रूप तुम्हारा मन पर छाया,

मन भीगा यूँ नेह परस से, कोई तेरे सिवा न भाया।

माना कोई ईश्वर होगा, रूप धरा उसने मानव का,

उस मानव में तुमको पाकर, मैंने तो ईश्वर को पाया। "

प्रेम की इस उदात्त भाव भूमि पर पहुँचे हुए व्यक्ति के प्रेम की अनुभति ', गूंगे के गुड़' , की भाँति होती है, उसे शब्दों में अभिव्यक्त करने में भाषा समर्थ नहीं होती है-

" दरिया उमड़ा प्रेम का, शब्द हुए हैं मूक।

कहना था जो कब कहा, भाषा जाती चूक। "

प्रेम में मिलन के साथ वियोग अनिवार्य नियति है, संयोग के साथ वियोग भी जुड़ा हुआ है, सूफी काव्य में विरह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, विरह की वेदना प्रिय की स्मृतियों से संयुक्त होने के कारण विरह में प्रेम प्रिय से अभेद की स्थिति रहती है, विरह का भाव आत्मा का परिमार्जन करता है, अश्रुजल से समस्त कलुष धुलते हैं, काम्बोज जी की कविताओं में भी विरह महत्त्वपूर्ण होकर चित्रित हुआ है, प्रिय से क्षणिक मिलन के साथ ही ये आशंका बलवती रहती है कि कहीं यह मिलन वियोग में न बदल जाए, मिलन के उस क्षण में भी बस आँसू ही सम्बल हैं, इस कोमल अनुभूति को बहुत ही मार्मिक अभिव्यक्ति मिली है-

" गले लगे फिर रो पड़े, दोनों ही इक साथ।

मन में डर था बस यही, छूट न जाए साथ। "

विरह स्थायी है, मिलन क्षणिक है, प्रिय के वियोग में हर पल त्रासद है, सब कुछ निस्सार है-

" तुम बिन बैरी रात है, तुम बिन व्यर्थ विहान।

छुवन तुम्हारी जब मिले, पूरे तब अरमान॥"

विरह की स्थिति में प्रेमी प्रिय की प्रतीक्षा में व्याकुल है, उसके स्वागत की प्रतीक्षा में आंसुओ के जल से द्वार को धोया है किंतु प्रिय का आगमन होता नहीं है-

" अँसुवन जल से सींचकर, पूजे आँगन द्वार।

परदेसी आया नहीं, खोले रहे किवार॥"

वस्तुतः यह व्याकुलता सूफियों की व्याकुलता है, ये व्याकुलता आत्मा की व्याकुलता है, ये विरह चिर-विरह है यहाँ प्रिय पास होकर भी बहुत दूर है, जहाँ मिलन का कोई मार्ग नहीं दिखता—

" तुम पर्वत का उच्च शिखर हो, मैं हूँ सागर की गहराई,

तुममे मुझमें भेद यही है, तुम उषा हो, मैं हूँ परछाईं।

बहुत कठिन लगता है मिलना, तुझसे मुझ तक मीलों दूरी,

काँटो के जंगल हैं फैले, बाट एक भी नज़र न आई॥

निःसंदेह काम्बोज जी की कविताओं में प्रेम के अनेक रंग है, सूफियों की-सी विरह-व्याकुलता है, मिलन की उत्कट लालसा है, कहीं लौकिक प्रेम की किशोर सुलभ भावाकुलता है जहाँ, उनकी कविताओं प्रेम एक पवित्र भाव के रूप में, एक पूजा के भाव से उपस्थित है जहाँ देना ही देना है, लेना कुछ नहीं, जहाँ वासना लेश मात्र भी नहीं है, जहाँ प्रीत में कष्ट सहकर भी प्रिय को सुख देने की लालसा है, एक अत्यंत सुंदर और कल्पना के संसार में कवि विचरण करता है—

" फूलों पर तितली कभी, तनिक न होती भार।

लेकर चल दूँ मैं तुम्हें, सीमाओं के पार॥"

एक हाइकु में कवि की लालसा इस प्रकार प्रकट हुई है-

" जैसे हो तुम

काश ऐसा ही होता

सारा जीवन। "

ये छोटा-सा हाइकु गहन अर्थ का अभिव्यंजक है, यहाँ 'तुम' अत्यंत प्रतीकात्मक है; विराट अर्थ का बोधक है। ये तुम लौकिक से अलौकिक की ओर ले जाने वाला है। संकलन की प्रेम कविताओं में स्थान-स्थान पर यह प्रतीकात्मकता दृष्टिगोचर होती है। निःसन्देह कवि का भावुक मन सारे संसार को प्रेम से परिपूर्ण देखना चाहता है, सारे संसार में प्रिय की छाया का दर्शन चाहता है। वस्तुतः'तुम सर्दी की धूप' की कविताओं में प्रेम कविताओं का ही प्राधान्य है, इन कविताओं के माध्यम से कवि के संवेदनशील और चिंतक हृदय के एक साथ दर्शन किये जा सकते हैं। प्रेम की कविताओं के साथ ही संकलन में के अन्य विषयों की कविताएँ भी हैं, इनमे संसार की निस्सारता, सामाजिक विषमता, राजनेताओं की निर्लज्जता, सम्बन्धो में व्याप्त स्वार्थपरता को भी देखा जा सकता है।

लोकतांत्रिक व्यवस्था जिस प्रकार अराजक और निर्मम हो गई है वह कवि के संवेदनशील मन को आहत करती है, राजनीति में अपराधियों के बढ़ते वर्चस्व ने लोकतंत्र को कलंकित तो किया ही है साथ ही सीधे-सच्चे, ईमानदार लोगों को आहत किया है, उनका जीवन सहज नहीं रहा, उसका जीवन दिन प्रति दिन बदतर होता जा रहा है, आम जन की इस पीड़ा को काम्बोज जी ने अनेक स्थलों पर अभिव्यक्त किया है, उदाहरण के तौर पर इस पीड़ा को इन दोहों में देखा जा सकता है-

" गुंडो के बल पर चला, राजनीति का खेल

भले आदमी रो पड़े, ऐसी पड़ी नकेल। "

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रात-अँधेरी घिर गई, मुश्किल इसकी भोर।

भाग्य विधाता बन गए, डाकू, लम्पट, चोर। '

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" बाती कौए ले उड़े, चील पी गई तेल।

बाज देश में खेलते, लुकाछिपी का खेल। "

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" जनता की गर्दन सहे, झटका और हलाल।

जनसेवक जी खा रहे, रोज-रोज तर माल॥"

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" जनता का जीना हुआ, दो पल भी दुश्वार।

गर्दन उनके हाथ में, जिनके हाथ कटार॥"

इस व्यवस्था ने सबसे अधिक शोषण आम आदमी का किया है, उसे अनेक लुभावने स्वप्न दिखाकर उसे ठगने का कार्य कमोबेश हर राजनीतिक दल ने किया है, आम आदमी की इस नियति को काम्बोज जी की लंबी कविता 'आम आदमी'

में देखा जा सकता है—

" आम आदमी

जुलूस में झण्डा उठाकर

आगे-आगे चलता है

डण्डे खाकर बीच सड़क पर गिरता है

सुखद भविष्य का सपना सँजोए

सदा बेमौत मरता है। "

...

राजनीतिक दुर्व्यवस्था और नेताओं के कुत्सित चरित्र के साथ ही कवि को एक बात और बहुत पीड़ा देती है वह है युग की स्वार्थपरता। समाज में ऐसे लोगों की प्रधानता है जो सम्बन्धो का दोहन करते हैं, उनके लिए सम्बन्धो में भावुकता और समर्पण का कोई मूल्य नहीं होता, उनके सम्बन्धो का आधार स्वार्थ होता है, स्वार्थ सिद्धि हेतु वे किसी भी प्रकार का छल कर सकते हैं, कवि का पग-पग पर ऐसे छली लोगों से सामना होता ही रहता है-

" सभी मोड़ पर हमको छलिया, जाने कितनी बार मिले,

बात कहें क्या दो चार की, हमको कई हज़ार मिले।

जितना हमने किया भरोसा, उतनी चोटें हमे मिलीं,

दुश्मन होते दुख न होता, हमको ये सब यार मिले॥"

क़ करता है और बार-बार धोखा खाता रहता है। भावुक मन की इस पीड़ा को कवि ने कई स्थलों पर अत्यंत तीक्ष्ण व्यंजनात्मक अभिव्यक्ति प्रदान की है-यथा-

" मित्रों में हमने लिखा, जबसे उनका नाम।

धोखा खाने का किया, खुद एक इंतजाम॥"

इसी प्रकार—

" छल करने का लग सके, जरा न तन पर दाग।

आस्तीन में रहा करो, बन कर काला नाग॥"

सामाजिक सम्बन्धो के साथ ही आत्मीय रिश्तों से भी अपनापन दूर हो रहा है, रिश्तों में प्रेम की वह ऊष्मा नहीं रही जो व्यक्ति जो कुछ पल का सुख दे सके-

" रिश्ते कोहरे हो गए, रस्ते हुए कुरूप।

सर्दी में मिलती नहीं, जरा प्यार की धूप॥"

इसके विपरीत सारे सगे सम्बन्धी दुख देने का ही उद्यम करते हैं-

" रिश्तों की जंजीर भी, आज बनी अभिशाप।

जो भी जितने पास है, देते उतना ताप॥'

कवि की पीड़ा यह है कि जिन्हें अपना समझा, उन्होंने ही पीठ पर वार किये, पर इसके लिये भी कवि स्वयम को ही दोषी मानता है—

" अपनों ने हम पर किये, सदा पीठ पर वार।

दोष भला देते किसे, हम थे ज़िम्मेदार॥"

युग की विडम्बना यह है कि सम्वेदनशील, परहित हेतु तत्पर व्यक्ति को यहाँ

उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता है-

"दर्द किसी का पूछना, वे समझे हैं पाप।

उनको भाता है सदा, देना सबको शाप। "

संकलन की कविताओं में भावों के इतने रंग हैं, जिन्हें एक संक्षिप्त आलेख में अभिव्यक्त कर सकना सम्भव नहीं है, प्रत्येक विधा अपने शिल्पगत सौंदर्य के साथ ही विविध रसों की छटा बिखेर रही है, प्रत्येक कविता अलग ढंग से प्रभावित करती है, संकलन की प्रत्येक कविता स्वतन्त्र समीक्षा की माँग करती है, यूँ तो प्रत्येक कविता महत्त्वपूर्ण है किंतु कुछ लम्बी कविताओं ने मुझे विशेष रूप से प्रभावित किया है, वे हैं—अपने और सपने, लिख दूँ मैं बीजमन्त्र, आत्मा की प्यास तुम हो, शब्द, मेंहदी रचे दो पाँव, निशान, थिरकन, पत्थर और दुःख की चादर।

इन कविताओं के साथ ही क्षणिकाएँ, ताँका, हाइकु, और दोहे स्वयं में पूर्ण भाव के अभिव्यंजक है। निःसन्देह यह विविध भावों की कविताओं का एक मोहक गुलदस्ता है, जिसमे कवि के सपनो की महक है, जो प्रत्येक सहृदय को अभिनव भाव-लोक में ले जाने में समर्थ है।