सतराम आर्य की कहानियाँ / मुकेश मानस
लगभग डेढ़ साल पहले डाक्टर संतराम जी ने मुझे फोन पर बताया कि उनकी कहानियों की किताब "उधार की जिन्दगी" छपकर आ गई है। मैंने उनको बधाई दी और कहा-
"यह सुनकर मुझे कितनी खुशी हो रही है, मैं आपको बता नहीं सकता।"
जाने क्यों वह मेरी बात सुनकर कुछ देर के लिए खामोश हो गए। अपनी किताब छपने पर हरेक लेखक को खुशी होती है। उनको भी होगी। फोन पर उनकी आवाज् में खुशी के साथ मैंने एक नमी को भी महसूस किया। अपनी उम्र की ढलान पर पहली किताब का आना वाकई किसी बड़ी उपलब्धि से कम नहीं है।
कोई दस-ग्यारह साल पहले मैं दक्षिणी दिल्ली की एक पुनर्वास कालोनी दक्षिण पुरी में रहता था। एक दिन दलित कवि श्री दिलीप ‘अश्क’ ने मेरा उनसे परिचय करवाया। संतराम जी से पहली मुलाकात से पहले दिलीप जी ने उनका जो परिचय दिया था, उससे उनकी छवि कुछ इस तरह की बनी थी... एक आर.एम.पी डॉक्टर हैं। थोड़े राजनीतिक कार्यकर्ता भी रहे हैं... पहले कांग्रेस में थे, अब कहीं नहीं हैं। अब बुढ़ापे मे लिखने का शौक चर्राया है। कुछ कविता-कहानी लिख लेते हैं। वैसे उन्हें अभी ठीक से लिखना नहीं आता और साहित्य-दृष्टि भी गड़बड़ है। दिलीप जी कह रहे थे और मैं मन ही मन हंस रहा था। मेरे लिए ये बातें नई नहीं हैं। साहित्य-लेखन भी कई मायनों में एक वर्चस्व की स्थिति पैदा करता है। हम लेखक लोग अपने आस-पास वर्चस्व का घेरा बना लेते हैं और उसमें नए लेखक को आने देने से कतराते हैं कि कहीं हमारे वर्चस्व का घेरा टूट ना जाए। दलित लेखकों के लिए यह एक नया अनुभव है और वे भी इसका अपवाद नहीं हैं।
बहरहाल, सन्तरामजी से मिलना-मिलाना शुरू हुआ। शुरू में उम्र के फासले के कारण झिझक बनी रही। धीरे-धीरे सब औपचारिकताएं छूटती गईं और हम मित्र बन गए। फिर उनका व्यक्तित्व खुलकर सामने आने लगा। इमरजैंसी के दौरान यह पुनर्वास कालोनी जब यहां बसाई गई थी तब से वह यहां रह रहे हैं। उनका अपना क्लीनिक है। अपने पेशे के अनुभव और अपने स्वभाव की उदारता और सहजता के कारण वह यहां काफी लोकप्रिय हैं। हर गली, हर मकान में उनके प्रति कृतज्ञ उनके मरीज हैं। असंख्य ऐसे लोग हैं जिनकी जिंदगी की ‘निजता’ में उनका प्रवेश है, जिनके सुख-दुख में वह बिल्कुल सगे की तरह शामिल होते हैं। इन लोगों के जीवन की वस्तुगत सच्चाइयों को वह काफी करीब से और गहराई से जानते-समझते हैं और यही लोग, इनका जीवन और जीवन-स्थितियां सन्तरामजी की कहानियों की विषयवस्तु है।
एक दिन उन्होंने मुझे अपना एक पुराना उपन्यास ‘शांति’ दिखाया जो उन्होंने खुद ही प्रकाशित कराया था। उपन्यास पढ़कर मुझे उनमें छिपी लेखकीय संभावना का पता चला। उपन्यास की कथा एक चलताऊ किस्म की थी जिसका विस्तार बहुत ही नाटकीय ढंग से किया गया था। उपन्यास किसी हद तक लगभग अपरिपक्व उपन्यास-शैली और आदर्शवादी दृष्टिकोण का नमूना था। लेकिन उसमें कुछ मामूली सुधार कर दिए जाने पर वह एक अच्छा उपन्यास साबित हो सकता था। खास बात ये है कि यह उपन्यास उन्होंने तब लिखा था जब दलित साहित्य में शायद एकाध उपन्यास ही आया था।
कुछ दिनों बाद उन्होंने मुझे अपनी पहली कहानी दिखाई। शीर्षक था- "क्या करे सतीशा?" इसमें उन्होंने एक दलित लड़के की वस्तुगत सच्चाइयों से टकराती उसकी पे्रम-संबंधी रोमानियत को उभारा है। सतीश पढ़ाई बीच में छोड़कर अपने घर के सूअर चराने और उनकी देखभाल का काम करने लगता है। शुरू में थोड़ा हिचकता है लेकिन इस काम से होने वाली आमदनी उसे इस हिचक से उबार लेती है। इसी दौरान उसे अपने मुहल्ले की एक लड़की से प्रेम हो जाता है... एकतरफा और प्लेटॉनिक किस्म का प्यार। वह उस लड़की से अपने मन की बात कहने की बहुत कोशिश करता है पर अपनी अंदरूनी विश्वासहीनता के आगे वह हार जाता है जो सही मायनों में उसके परिवेश की देन है। लड़की की शादी हो जाती है और वह देखता रह जाता है। एक अद्भुत दलित कहानी है ये, जो दलित लड़कों के आत्मविश्वासहीनता और हीनताबोध से उनके मानसिक संघर्ष को उनकी वस्तुगत परिस्थितियों की विभिन्न परतों में उजागर करती है।
उस कहानी को हमने कई बार साथ-साथ पढ़ा। हर बार उसे पढ़ते हुए हम कुछ न कुछ ऐसा खोज लेते जिसे कहानी में जोड़ा-घटाया जा सकता था। यह उनके धैर्य की परीक्षा थी। मगर गजब का धैर्य था उनमें। ऐसा धैर्य नए लेखकों में बमुशिकल ही देखने को मिलता है। उम्र में तो वह वृद्ध हैं मगर लेखक एकदम नए। अंतत: कहानी का एक अंतिम रूप निर्धारित हुआ। हमने उसका नया शीर्षक रखा-"प्रेम दिवाना, सूअर चराए।" ये कहानी इस संग्रह में इसी शीर्षक से संकलित है। इस कहानी के बाद वह एक के बाद दूसरी कहानी लिखते चले गए। हर कहानी पर फिर नई बहस और बहस के बाद कहानी में किए जाने वाले सुधार... कहानी के नए रूप पर फिर बहस!!! अब तो उनका कहानी-संग्रह ही आ गया है। लेकिन आज भी उनकी पहली कहानी का प्रभाव मुझ पर बना हुआ है। दलित युवाओं के यथार्थ और उनके आंतरिक द्वंद्वों की इतनी सशक्त अभिव्यक्ति शायद वह अपनी किसी और कहानी में नहीं कर पाए। इस कहानी का सर्वाधिक रोचक पहलू ये हैं कि दलित युवाओं के अंतर्मन के द्वंद्व पर एक वृद्ध व्यक्ति ने कहानी लिखी है।
इस संग्रह की एक और कहानी है जो मुझे बेहद प्रिय है। यह कहानी है-"माया की दुनिया।" यह हरियाणा के एक गांव में रहने वाली एक दलित लड़की माया की कहानी है जो गांव के एक जाट द्वारा बलात्कार की शिकार हो जाती है। हरियाणा दलितों के शोषण के मामले में बहुत आगे है। जाटों के वर्चस्व और दलित समाज की बद्तर स्थिति माया और उसके पिता को गांव छोड़ने पर मजबूर कर देती है। अनुभव पुराना है मगर उसको उन्होंने नए समय में प्रासंगिक बना दिया है। यह वो समय था जब देश के शहरी इलाकों में महिलाओं के साथ बलात्कार की ऐसी-ऐसी घटनाएं हो रही थीं जो उनके अंतर्मन को झंकझोर रही थी। जब शहर में बलात्कार की शिकार महिलाओं को न्याय नहीं मिल रहा है तो गांव की दलित लड़की की व्यथा कौ्न सुने। गाँव की घटना गाँव में ही दबकर रह जाती है। कहीं कोई आवाजनहीं, कहीं कोई सुनवाई नहीं। गांव की पृष्ठभूमि पर यह उनकी एकमात्र कहानी है जो दलित महिलाओं की अभिशप्त स्थिति को सामने लाती है।
गांव में दलित लड़की और उसका पिता गांव छोड़ने को अभिशप्त हो सकते हैं मगर शहर में...??? शहर में दलित महिलाएं उतनी अभिशप्त नहीं हैं। वे पढ़ी-लिखी भले ही न हो मगर साहसी और जागरूक हैं मगर उनके भीतर अपने समाज के पुरुषों की मानसिकता को लेकर ज़द्दोज़हद जरूर है। यह ज़द्दोज़हद शहर में दलित महिला संगठन के अभाव और संघर्ष के नतीजे को लेकर है। ‘उधार की जिंदगी’ कहानी में पति के मरने के बाद रामदेई स्कूल में आया का करती है और अपने बच्चे पालती है। स्कूल का एक मास्टर उससे बलात्कार करने की कोशिश करता है। वह साहस के साथ उसका मुकाबला करती है और बच जाती है। वह मास्टर की शिकायत करने की बात सोचती है। मगर रामदेई अपने समाज के लोगों और उनकी मानसिकता को अच्छी तरह से जानती है। यह बात उसे एक अजीब कशमकश में डाल देती है कि बात खुलने पर उनका रवैया क्या होगा? रामदेई की इसी कशमकश पर कहानी का समापन होता है। रामदेई की यह कशमकश दलित पुरुषों के उस आयाम को खोलती है जहां वह सिर्फ पुरुष हैं और एक स्त्री के प्रति उनकी सोच आमतौर पर सवर्णो की सोच से ज्यादा भिन्न नहीं है।
दलित साहित्य का सृजनात्मक वृत्त खुल रहा है। अभी तक दलित साहित्य में दलित व्यक्ति की सामाजिक समस्याओं पर ज्यादा ध्यान दिया जाता रहा है लेकिन अब दलित व्यक्ति का आंतरिक संसार भी अभिव्यक्ति पाने में लगा है। दलित व्यक्ति जितना समाज में है उतना ही वह उसके खुद के भीतर भी है। उसके संघर्ष का एक आयाम यह भी है जिसमें वह किसी जातिग्रस्त सवर्ण समाज से नहीं, बल्कि अपने परिवार और खुद अपने भीतर मौजूद अंतरविरोध से लड़ता है। संतरामजी ने दो कहानियां दलित समाज के वृद्ध व्यक्तियों की दशा पर भी लिखी हैं जो दलित परिवारों में वृद्धों की उपेक्षा और उनके अकेलेपन की स्थितियों को उजागर करती हैं। दलित साहित्य में अभी तक इस समस्या पर शायद ही कोई कहानी लिखी गई हो।
‘परिपाटी’ और ‘उमर की ढलान पर’ दो ऐसे स्त्री-पुरुष वृद्धों की कहानियां हैं जिन्होंने अपने बच्चों को पालने-पोसने, उन्हें शिक्षित बनाने में न जाने कितनी मुसीबतें झेली हैं परंतु उनकी विडम्बना ये है कि बड़े होने पर उनके बच्चे उनके समस्त योगदान को भुलाकर उन्हें कोई फालतू चीज मानकर दरकिनार कर देते हैं। पति के मर जाने के बाद दिन-रात सिलाई का काम करके ‘परिपाटी’ की गंगा अपने दो बेटों की परवरिश के लिए अपनी तमाम इच्छाओं को स्वाहा कर देती है। उनको पढ़ाती-लिखाती है, उनकी शादियां करती है। लेकिन बहुओं के आने के बाद वह घर में फालतू हो जाती है और अंतत: ठंड में छत पर सोने के लिए मजबूर कर दिए जाने पर मरणासन्न हो जाती है। उसके अपने ही घर में उसके लिए कोई जगह नहीं बचती है। ‘उमर की ढलान पर’ के डॉ. वर्मा अपने बेटों के घर बसाने के बाद अपने ही घर में उपेक्षा का शिकार होते चले जाते हैं। बहुएं उनके खाने-पीने का भी ध्यान नहीं रखती हैं। ऐसे में वो एक दिन अपनी ही उम्र की एक औरत के साथ घर बसाने की बात सोचते हैं तो ह्ड़कम्प मच जात है। और ये तब है जबकि वो ऐसा सोचते है, करते नहीं। अगर करते तो क्या होता? यह कहानी एक आत्मनिर्भर दलित वृद्ध की अकेलेपन और उपेक्षा की समस्या के अपनी ही तरह के समाधान और उससे उठने वाले अंतरद्वंद्व को रेखांकित करती है।
भ्रष्टाचार आज के नागरी जीवन की बड़ी समस्या है। पूरी की पूरी प्रशासन व्यवस्था इतनी भ्रष्ट हो चुकी है। कि इसमें किसी भी ओहदे पर बैठा किसी भी वर्ग, जाति या धर्म का हर अधिकारी भ्रष्ट हो चुका है और हम इसके आदी हो चुके है। दलित समाज व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार को दोहरे रूप में झेलता है। यह संतराम जी की तेज नज़र का ही कमाल है कि वह इस भष्टाचार की विद्रूपता को वहां से उजागर करते है जहां आपने इसकी कल्पना भी न की होगी। कारगिल युद्ध में पहली बार यह समस्या अपनी भयानक और विद्रूपतम रूम में सामने आई। ‘रिकार्ड’ कहानी में भारतीय फौज में एक दलित सिपाही की मुलाकात अपनी छुट्टियों के दौरान एक ऐसी विधवा स्त्री से होती है जो भारत-चीन युद्ध में शहीद हुए एक वीर सैनिक राघव की पत्नी है। उसे ये जानकर बड़ा अचंभा होता है कि देश पर अपनी जान कुर्बान करने वाले वीर सैनिक राघव की पत्नी को अभी पेंशन तक नहीं मिला है। उसे बहुत दु:ख होता है कि राघव जैसे देशभक्त की पत्नी भयानक कष्टों में दिन गुजार रही है। अगली छुट्टियों में वह राघव की पत्नी के साथ सैनिक पेंशन दफतर जाता है तो पता चलता है कि उसका वहां रिकार्ड ही गायब हैं इसी बीच कारगिल की लड़ाई शुरू हो जाती है और उसे युद्धभूमि में जाना पड़ता है। मगर वहां जाते हुए वह सोचता है कि उसके बूढ़े पिता का क्या होगा? उसकी घरवाली का क्या होगा? अगर हम इस कहानी की तथ्यगत कमजोरियों को दरकिनार कर दें तो यह एक बेहद प्रासंगिक और व्यापक परिपे्रक्ष्य वाली कहानी है।
‘गटर का ढक्कन’ इस संग्रह की एक ऐसी कहानी है जो अपने आपमें बड़ी अद्भुत और बेहद मार्मिक है। यह संतराम जी की जन-जीवन के प्रति संवेदनशीलता का नतीजा है कि उन्होंने दलित जीवन की उन पीड़ाओं को भी अपनी कहानियों में उठाया है जिनकी तरफ दलित लेखकों की नजर ज़रा कम ही जाती है। अजय और कृष्णा एक निम्न मध्यवर्गीय दंपति है। शादी के कुछ सालों बाद जब चाहने पर भी उन्हें संतान की प्राप्ति नहीं होती तो उनकी चिंता बढ़ जाती है। बहुत मंनत-मनौतियों और एक लम्बे इलाज के बाद उनके संतान होती है। पुत्र पाकर मानो उनका जीवन खिल उठता है। ये बच्चा उनके जीवन में खुशियों का दूत बनकर आता है वह बच्चे के साथ ही जीते, हंसते खाते-पीते दिन गुजारते है। मगर यह खुशी ज्यादा दिन नहीं रहती। एक दिन एक बम धमाके में अजय मारा जाता है। कृष्णा पर मानो दु:ख का पहाड़ टूटा पड़ता है मगर वह अपने बच्चे की खातिर जीती है। एक दिन अपने बच्चे का हाथ पकड़े कृष्णा मदर डेरी से दूध लेने जा रही होती है। एक जगह सड़क पर गटर का ढक्कन खुला पड़ा होता है। तभी पीछे से आती एक कार के तेज हॉर्न की आवाजसे डरकर बच्चा गटर में गिर जाता है। भीड़ जमा हो जाती है मगर किसी में इतनी हिम्मत नहीं कि गटर में उतर कर बच्चे को बचा ले। अंतत: बच्चा मर जाता है। बहुत छोटी सी कहानी है मगर है बहुत मार्मिक। यह हमारे आधुनिक जीवन के यथार्थ के नए पहलुओं को उठाती है। यह कहानी दिखाती है कि लगातार बढ़ता आतंकवाद, शासन व्यवस्था की छोटी-छोटी लापरवाहियां और आधुनिक जीवन-शैली के कारण लगातार बढ़ती संवेदनशीलता किस कदर समाज को भीतर से खोखला बनाती जा रही हैं। ये कहानी संतराम जी की सूक्ष्मदृष्टि का अद्भुत नमूना है।
संतराम जी के इस कहानी-संग्रह उधार की जिंदगी’ में उनकी सत्रह कहानियां संग्रहीत है। सभी कहानियां प्रासंगिक और पठनीय है। अपने इस कहानी-संग्रह में लेखक ने दलित जीवन की पीड़ाओं और समस्याओं के नए-नए आयाम खोले हैं। यह बात अलग है कि उनकी कुछेक कहानियों को छोड़कर बाकी कहानियां शिल्प के स्तर पर थोड़ी कमजोर और लचर हैं। लेकिन जिस तरह से उन्होंने दलित जीवन की उन वास्तविक सच्चाइयों को उठाया है जिनमें वो जीने-मरने को अभिशप्त हैं, वह ‘तरह’ काबिले तारीफ है। और शायद यह ‘तरह’ ही उनकी कहानियों की जान है। कहना न होगा कि संतराम जी ने अपनी इन कहानियों के जरिए दलित लेखन को उसकी मध्यवर्गीय संकीर्णता और जड़ता से निकालकर उसे दलित जीवन की वास्तविक पीड़ाओं से जोड़कर उसे एक व्यापक परिप्रेक्ष्य प्रदान किया है। दलित साहित्य आंदोलन में हम लेखन में नए मगर जीवनानुभव में बुजुर्ग साहित्यकार का स्वागत करते हैं।
अपेक्षा के जुलाई-सितम्बर 2006 अंक में प्रकाशित संतराम आर्य की कहानियों के बारे में लिखा गया यह लेख मूलत: उनकी कहानियों की एकमात्र किताब “उधार की ज़िन्दगी” की कविताओं पर आधारित है।