सती धनुकाइन / राजकमल चौधरी
“नाम कितना शानदार है, सत्ती। जैसे सच में सीता-सावित्री की तरह सती और पतिव्रता हो। क्यों ललित भाई!“ रंग का गुलाम पटकता हुआ रामू बोला।
“और हां, देखो न, काम कैसा करती है। अपने शरीर की कमाई से शौहर को खिलाती है। न समाज की चिंता है, न धर्म का भय। दिन-दहाड़े गांव के आवारा लड़कों के साथ रंग करती फिरती है,“ गुलाम पर एक्का फेंकते हुए महेश काका ने उत्तर दिया। महेश काका के कुएं की जगत पर ताश जमा हुआ था। मैं था, केंद्र के एक मात्र होमियोपैथिक डॉक्टर थे, ललित ठाकुर थे, शिवदत्त पहलवान का लड़का रामू था और थे महेश काका, गांव के चाणक्य, गांव के शकुनि, गांव के शुक्राचार्य।
और रतना धानुक की नवविवाहिता गृहिणी सती कुएं पर अलसाए मन से पानी खींच रही थी। भांग की गोली की तरह चिकनी देह, पुराने तांबे की तरह शरीर का रंग, जल की बंधी हुई धारा जैसा उन्मत्त यौवन, और मिथिला की साधारण निम्नवर्गीय युवती की तरह नाक-नक्श। वह चांद न हो, सूखे हुए तालाब के अवशेष जल में पड़ती हुई चंद्रमा की छाया अवश्य थी।
भरे हुए घड़े की ही तरह दिखाई देती, सती कमर पर पानी का घड़ा रखे ताश की महफिल के पास आई और ओठों पर मुस्कान लाती हुई बोली, “मालिक बाबू, आपलोगों का भी रंग करने का जी करता है?“
इतना कहकर, मुस्कुराहट फेंकती हुई, बार-बार घूमकर हमलोगों की तरफ देखती हुई सती अपने मकान के गलियारे में समा गई। महेश काका खीजते हुए बोले, “सुन लिया न सतिया की बोली? इसी को कहते हैं, चोरी और सीनाजोरी।“
ताश की महफिल समाप्त हो गई। पर मेरे मन में ताश की बीवी, नहीं-नहीं, रतना धानुक की औरत हिलोरें मारती रही। मैं गांव का युवक हूं, चालीस-पचास बिगहा खेत-पथार है, मन में रस है, रस-पिपासा भी पर्याप्त मात्रा में है।
पत्नी मैके में थी, रसोई-पानी विधवा भाभी करती थीं। शाम को घूम-फिरकर घर लौटा, तो कहा, “भाभी, आपको बहुत कष्ट होता है। क्यों नहीं चौका-बासन के लिए कमकरी को रख लेतीं?“
अंधा चाहता है दो आंखें। भाभी तो यही चाहती थीं।
चार ही दिनों के पश्चात सत्ती मेरे यहां काम पर जाने लगी। भाभी बोलीं, “जबसे चन्द्रमुखी (मेरी पत्नी) गई, मेरा पूजा-पाठ छूट गया था। अब सत्ती आ गई है, तो दो क्षण छुट्टी मिलेगी।“
सती ने कहा, “आप बेफिकर रहिए मालकिन, मैं छोटी मालकिन का सब काम संभाल लूंगी। छोटे मालिक को कोई भी तकलीफ नहीं रहेगी।“
मैंने कहा, “कैसी मुंहफट हो तुम? बात करने की तमीज नहीं। जो मन में आता है, बक देती हो। भाभी क्या सोचेंगी?“ भाभी नाक तक घूंघट काढ़कर कुएं की तरफ चली गई और मुस्कुराती हुई सती आंगन बुहारने लगी।
इसी तरह तीन-चार दिन और बीत गए। भाभी अपने पूजा-पाठ और रसोई में व्यस्त। सती बरतन मलने और अपना आंचल संभालने में व्यस्त। मैं सती के अंग-प्रदर्शन, अशिष्ट मुस्कान, अभद्र बातों और मत्त हथिनी जैसी भंगिमा में व्यस्त। ...तब रहा नहीं गया।
उस दिन भाभी महेश काका के आंगन गई थी। तुरन्त लौट आने की कोई आशा नहीं थी।
बरसात की सांस। आकाश में काले-काले मेघ, आज बरसेगा, अभी बरसेगा। मन में भी मेघ। सती रसोई घर में चूल्हा जलाने का प्रयत्न कर रही थी।
मैं भी रसोई घर में गया, तो घूमकर उसने मेरी ओर देखा, फिर मुस्कुराई, फिर बोली, “छोटे मालिक, मैं इस गांव की बहू ही नहीं, इसी गांव की बेटी भी हूं। वैसे तो कहार-धानुकों की औरतें सारे गांव की भाभी होती हैं, मैं तो आपकी बहन भी लगूंगी। मगर इससे क्या? आप साफ-साफ कहिए, क्या चाहते हैं?“
क्रोध नहीं हुआ, आश्चर्य हुआ। ललित ने कहा था, धत्त सती की बात क्या करते हो? एक अठन्नी... बस।
रामू ने बताया था, उस दिन शाम को मैंने देखा था। सती और महेश काका जंगल की तरफ जा रहे थे।
महेश काका ने बताया था, क्या करे बेचारी। रतना एक पैसा भी नहीं कमाता। रात-दिन ताड़ी पीता है और आवारागर्दी करता फिरता है।
मगर इस वक्त, शाम में घने अंधेरे में, रसोई घर में अकेली बैठी सती बोली, “छोटे मालिक, यह देह तो रतना का है। उसका धन आपको कैसे दे दूं? और आप जो कहिए करूंगी। आपकी नौकरानी हूं? मगर यह देह तो रतना का ही है।“ मुझे कोई उत्तर नहीं सूझा। चुपचाप दरवाजे की तरफ चला गया।
इस घटना को कुछ दिन बीत गए। तब, एक दिन सुना, रतना किसी मल्लाहिन युवती के साथ कलकत्ता भाग गया है। बड़ी खुशी हुई। अब सती रानी क्या करे।
शाम को अपने काम पर सती आई। विस्मय भाव से बोली, “मालिक, रतना तो जैमंगला मल्लाह की लड़की के साथ भाग गया।“ और इतना कहकर हंसने लगी।
भाभी पूजा-गृह से निकलकर कहने लगी। “कितनी निर्लज्ज है, सतिया। स्वामी भाग गया है, फिर भी ठहाका मारकर हंस रही है।“ सती चुप होकर लालटेन साफ करने लगी। कुछ देर बाद चाय लेकर मेरे पास आई, तो मैंने पूछा, “अब तुम क्या करोगी, शरीर का मालिक तो गायब हो गया।“
चाय का गिलास थमाती हुई बोली, “वह मल्लाहिन क्या रतना को संभाल सकेगी? वह लड़की उसे कमाकर खिला सकेगी? साल में दो जोड़े धोती पहना सकेगी? नित्य ताड़ी के लिए चवन्नी-अठन्नी दे सकेगी? आप देख लीजिएगा छोटे मालिक, आठ ही दिन के बाद रतना आकर मेरे पैरों पर गिर पड़ेगा।“
अपूर्व स्वाभिमान से सती की बड़ी-बड़ी आंखें चमकने लगीं, श्रम का स्वाभिमान। सर्वहारा विश्वास का स्वाभिमान। मगर, तुरंत ही सती की आंखें नम हो गईं, और वहीं धरती पर बैठकर सिसकने लगी। वह सिसकती हुई ही बोली, “मगर, मालिक, आठ दिन भी क्या अपना यह शरीर मैं उसके लिए संभालकर रख सकूंगी? नहीं रख सकूंगी। समूचा गांव, राक्षसों का गांव है मालिक, रात-भर गांव की ऊंची जात के आवारा लड़के दरवाजा पीटते रहते हैं। कभी-न-कभी तो दरवाजा टूट ही जाएगा। फिर क्या अपना शरीर बचा सकूंगी? आज सुबह कुएं पर पानी लाने गई थी, तो राम बाबू ने आंचल पकड़ लिया। अगर आज रतना गांव में रहता, तो मालिक, कुएं पर ही लाशें गिर जातीं।“
मगर रतना किसी मल्लाहिन के साथ कलकत्ता भाग चुका है, और सारा गांव सती धनुकाइन के लिए राक्षसों का गांव है। रावण के राज में सीता...
कहानी, मार्च, 1958