सती / कमलेश पुण्यार्क

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सुमति सती हो गयी -- सुनते ही कलेजा धक्क से हो गया। क्षणभर के लिए लगा कि रगों में दौड़ता सोणित जम सा गया अचानक। हृदय का लुपडुप स्वर किसी वीरान घाटी में किसी अल्हड़ चट्टान से टकराकर किसी भँवर-वर्तुल में गुम हो गया। सांस रूक सी गयी। अट्टहास करता विकराल काल टांग घसीट कर सैंकड़ों बर्ष पुराने अंधकूप में ढकेल दिया। राजा राममोहन राय का रूआंसा चेहरा आँखों तले नांच उठा। याद आया - इतिहास का बह दिन,जब राजाजी की प्यारी विधवा भाभी को घसीट कर परिवार वाले श्मशान ले जा रहे थे। राजाजी ने उसका सख्त विरोध किया, और उसी दिन संकल्प लिया इस घोर अनर्थकारी कुप्रथा के उन्मूलन का। किन्तु आज भरे-पटे उस पुराने गड्ढे को फिर से खोद डाला गया,जिसे ‘भगीरथ प्रयत्न’ से उन्होंने पाटा था। हम फिर वहीं चले आये जीर्ण जर्जर ऐतिहासिक घाटी में। सुनहरे भविष्य की जगमगाती ज्योति एकाएक बुझ गयी, और घोर अंधकार छा गया।

दिल के अरमान तड़प कर चित्कार करने लगे। हाय सुमति! तूने यह क्या कर डाला? मृत पति की धधकती चिता में कूद कर तूने इक्कीसवीं सदी के गौरवपूर्ण मुख पर कालिख पोत दी। आने वाला इतिहास तुझे कतई क्षमा नहीं करेगा....,बड़बड़ाता हुआ दौड़ पड़ा बगल के गाँव में,जहाँ सती मैया की गुहार हो रही थी। जो सुनता वही फूल,माला,प्रसाद,नारियल लेकर दौड़ पड़ता। बम गोले की तरह चिता में नारियल फूट रहे थे। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि लोग यह सब कर क्या रहे हैं?

कुछ पल यूँहीं पत्थर की प्रतिमा की तरह अचल,मूक खड़ा रहा चिता के समीप ही। तेज हवा के झोंके में चिता की लाल ज्वाला खून की प्यासी राक्षसी की जीभ की तरह लपलपा रही थी। मैं बुत बना अपलक निहारे जा रहा था। अचानक किसी ने मेरी बांह पकड़ कर जोरदार झटका दिया, ‘पागल हो गये हो क्या? इतनी तेज लपट है,बाँस भर भी दूर खड़ा होना मुश्किल है। ’

मैं मानो नींद से जगा दिया गया। सपना टूट गया अचानक। सुमति के अतीत की छवि एकाएक धुँधली पड़ गयी। लोगों की तुकी-बेतुकी बातें कानों में जबरन घुसने लगी।

सुमति से मेरा पुराना परिचय है, ‘था’ कहना अब अघिक अच्छा होगा; क्योंकि जब सुमति ही न रही फिर उसके परिचय का क्या? दो साल पहले उसके पिता मेरे यहाँ आये थे,सुमति के लिए मेरा हांथ मांगने। दौलत के भूखे मेरे पिता ने उन्हें कोरा जवाब दिया था- ‘कैसे हिम्मत हो गयी आपकी मेरे दरवाजे पर आने की? मेरे बेटे ने ‘वैमानिकी’ की उच्चतम डिग्री हासिल की है। लाखों नगद देने वाले दिन-रात पैरेड कर रहे हैं....आपके छप्पर पर एक लाख खपरैल भी न होंगे...। ’

जी चाहता है,उस डिग्री को फाड़कर फेंक दूँ,जिसके कारण न सुमति मिली और न नौकरी। सुमति के पिता उस दिन आँखें पोछते चले गये थे। बगल के गांव में एक लड़के का पता लगा,जिसकी पत्नी हाल में ही गुजर गयी थी। दूसरी शादी के लिए दहेज की उतनी भूख न थी। थोड़ा बहुत उतार चढ़ाव के बाद शादी तय हो गयी।

बेटी की शादी कर बाप ने चैन की सांस ली,मगर क्या चैन पाया अभागे ने? महीने भर बाद सुमति की विदाई के लिए गये तो रंग बदरंग नजर आया। समधी की बात सुन माथा ठनका- ‘हमें तो कोई बात नहीं,मगर घर-परिवार सबके कुछ शौक अरमान होते हैं...आपने तो ‘दोआह’ लड़का नीलामी का माल समझ लिया...हमने खुल कर कुछ मांगा नहीं,तो आप भी अपने कर्तव्य का जरा भी ख्याल न रखे...लूट लिए सिर्फ बीस हजार में...। ’ लम्बे व्याख्यान के बाद बाबू के मामाश्री ने अध्यक्षीय टिप्पणी दी- ‘अब तो हम सब एक परिवार हो गये, आपकी स्थिति हमसे छिपी नहीं है। और कुछ विशेष फरमाइश नहीं,बस एक अच्छा सा रंगीन टी.वी. भिजवा दीजिये। ’

सुमति का सुख चैन टी.वी. की रंगीनी में उलझ कर रह गया। टी.वी. के सामने बीबी महत्वहीन हो गयी। सुमति में अब सिर्फ खामियाँ ही खमियाँ नजर आने लगी। पढ़ी-लिखी कम है,सांवली लगती है,नाक लंबी है,बाल बकरी के पूंछ जैसे हैं, आवाज तो हारमोनियम के रीड से बाहर है...आदि-आदि। और इन सभी ‘वायरल डिजीज’ की एकमात्र दवा है--रंगीन टी.वी.,जो गरीब बाप के लिए असम्भव प्राय है। मकान पहले ही बंधक रखा जा चुका है। थोड़ी सी पेंशन से भोजन तो मुहाल है। नतीजा यह हुआ कि विदाई न हो सकी। पिता यह सोच कर लौट आये कि इनका परिवार है,रखें या भेजें।

इधर पिता लौटे,उधर सुमति पर अत्याचारों का पहाड़ टूट पड़ा। सारा दिन काम में कोल्हू के बैल की तरह जुती रहती,उपर से सास-ननद का व्यंग्य बाण बेध कर रख देता, ‘गांव-घर से नाक कटा कर रख दिया तेरे बाप ने...नौ महीने कंगारू की तरह पेट में ढोयी हूँ,एक भी शौक पूरा न हुआ। आज के जमाने में टी.वी.तो घसियारे के घर में भी होता है...। ’

कुढ़ती-कलपती सुमती का समय कटने लगा। कई बार पिता बिदाई कराने आये,पर विदाई न हुई। ससुराल वालों का दुर्व्यवहार दिनोंदिन बढ़ता ही गया। शुरु में पति जरा दबा सा रहा,किन्तु बाद में वह भी दुष्ट दुःशासन बन गया। व्यंग्य उलाहनों तक तो बेचारी बरदास्त कर लेती,पर जब सास के हाथों का झाड़ू और ननद का चिमटा बेलन पीठ पर टूटने लगा तो असह्य हो उठा। किन्तु परवश मूक मवेशी की तरह सिर्फ चित्कार कर पाती,कभी उससे भी असमर्थ कर दी जाती। खलिहान में अनाज खाने वाले पशु के मुंह पर ‘जाब’ लगा दिया जाता है; मार खाकर शोर मचानेवाली बहु के लिए भी वही उपाय अपनाया जाता। एक दिन माँ-बेटी दोनों मिलकर मुंह बांध,कमरे में बन्द कर बेरहमी से पिटाई करने लगे। संयोगवश पड़ोसन आ धमकी। सुमति की जान बच गयी,अन्यथा पास पड़ा किरासन तेल उढेला ही जाने वाला था, और खाना बनाती जलने वाली बहुओं में एक संख्या की बढ़ोत्तरी हो गयी रहती।

घर के झमेले से उब कर पति ने बाहर का रास्ता लिया। बाहर का रास्ता कितना उबड़-खाबड़ होता है,चलने पर ही पता चलता है। मगर कदम एक बार उठ गये बहक कर, फिर वापस लौटना भी मुश्किल ही होता है। शरीर की भूख ‘कोठे’ तक खींच लायी,और मन की प्यास मदिरालय तक। इसी कंटीली पगड़डी पर एक दिन यूरिया मिली जहरीली शराब उतर गयी हलक में। जिंदादिल दोस्तों की टोली कंधे पर टांगकर ले आयी घर में। कै-दस्त,ऐंठन-पिड़री प्रारम्भ हुयी तो तारे नजर आने लगे। माँ-बहन ने सेवा-सुश्रुषा को पीछे छोड़ पहले सुमति से निवटना ही जरूरी समझा- ‘इस नागिन ने ही डस लिया मेरे फूल से लाल को...। ’

इधर बहु पर बेलन बरस रहा था,उधर बेटा तड़प रहा था। मार-मूर कर जब दिल ठण्ढा हुआ तब याद आयी डॉक्टर की। परन्तु निरे देहात में डॉक्टर कहाँ? पढ़े-लिखे अंग्रेजी खाँ डॉक्टरों ने तो गांव के कीचड़ लगने के डर से पक्की सड़क का रास्ता पकड़ लिया है। देहाती झोलाछाप सिविल सर्जन क्या सम्हाल सकेगा जटिल रोगों को? सवेरा होने से पहले ही सुमति की सुहाग की बाती फफक कर बुझ गयी।


सुमति सति हो गयी आज। हो क्या गयी शौक से? सास-ननद ने अधमरा कर बाहर फेंक दिया। आस पड़ोस माटी की मूरत बना तमाशा देखता रहा। उन्हीं तमाशबीनों में एक ने बतलाया कि बाहर फेंक कर जब सास-ननद चली गयी,तो कुछ देर बाद वह खुद ही पागलों सी दौड़ती हुयी आयी और धधकती चिता में कूद पड़ी। जो मूक द्रष्टा पीटते-पिटाते देखने का आदी था,उसने चिता में कूदते और झुलसते भी देख लिया। मूक द्रष्टा को सिर्फ आँखें चाहिये,और कुछ से क्या वास्ता,और आँखें तो बेजुबान होती हैं।

सुमति चिता में कूद गयी। सोचने के लिए छोड़ गयी जाहिल समाज को। वह चिता उसके पति की थी या उसके अरमानों की? सास-ननद के प्रताड़नाओं की धधकती भट्ठी थी या दहेज दानव के पेट की ज्वाला? नारी की नारी पर किये जा रहे अत्याचार है या धर्म की पुकार? सिसकते प्रेम की मिलमिलाती बाती थी या धधकते वैधव्य की प्रचण्ड ज्वाला?

सुमति जल रही थी,निरन्तर तिल-तिल। आज एकाएक फफक कर जल उठी। किन्तु यह आग कब तक जलती रहेगी? ये चितायें कब तक धधकती रहेंगी? मानवता की चिता,धर्म और ईमान की चिता,प्रेम और सौहार्द की चिता और जलती रहेंगी बहुएँ,कांपती रहेंगी बेटियाँ? कौन बुझायेगा इस आग को? सरकार? समाज? कानून? धर्म?

सरकार का कानून बड़ी-बड़ी आलमारियों में पटा पड़ा है---सती प्रथा के खिलाफ,दहेज प्रथा के खिलाफ, सम्प्रदायिकता और जातिवाद के खिलाफ। राष्ट्रवादिता के पक्ष में,मानवता और विश्वकल्याण के पक्ष में। किन्तु सरकार हमारा मुंह देख रही है,हम सरकार का। कानून पर कानून बनते रहे,कमीशन पर कमीशन बैठते रहे,किन्तु सच्चाई की जाँच हो तो कैसे? चोर भीतर मन में बैठा है,सिपाही बाहर डण्डे पटक रहा है। व्यक्तित्व हाथी का दांत बन चुका है। भीतर कुछ,बाहर कुछ। मंच पर जो ठीक है,मंच के नीचे फिजूल। ‘दहेज उन्मूलन महासभा’ में लच्छेदार भाषण घंटों दिये और सुने जा सकते हैं। परन्तु घर आते हैं ढाक के तीन पात। देने के दिन हम उन्मूलक हो जाते हैं,और लेने के दिन तो बात ही कुछ और हो जाती है। फिर कैसे होगा साम्य,कौन करेगा?कोई लेता है तभी तो कोई देने को भी विवश है। आज जो हाथ उपर है,नीचे भी आयेगा कभी,यह दुनियाँ का दस्तूर है। आज की बेटी कल बहु बनेगी,और फिर सास। ननद जो है आज,भाभी भी बनेगी कभी,और उसकी भी कोई ननद होगी। किन्तु

कहने से क्या होगा? इसे करना होगा। किन्तु करेगा कौन,कब करेगा,कैसे करेगा?

सोये हुए को जगाया जा सकता है। मगर मुंह ढांपे जगे पड़े को कौन जगाये? जाग,जाग रे इनसान!आँखें खोल,देख दुनियाँ को। सुन- कान खोल कर,सुमति की धधकती चिता की चिड़चिड़ करती चिनगारियों से अनवरत आवाज आ रही है-

‘जहाँ सुमति तँह सम्पति नाना,जहाँ कुमति तँह विपति निधाना...। ’