सत्तर के दशक की शुरूआत / नीलाभ

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पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा और एक लम्बी मैत्री की दास्तान


ज्ञानरंजन के बहाने - ६


आज लगभग चालीस साल बाद जब मैं उस प्रसंग पर सोचता हूँ तो मुझे ऐसे तमाम संयोगों पर हैरत भी होती है और दुख भी। क्या कारण है कि अक्सर हमें उन्हीं लोगों से आघात पहुँचते हैं, जिनसे हम गहरे भावनात्मक रेशों से जुड़े होते हैं ? कहीं ऐसा तो नहीं है कि हमीं अपने निकटस्थ व्यक्तियों से कुछ अधिक अपेक्षाएँ रखने लगते हैं ? यहाँ इस प्रकरण के सम्बन्ध में एक छोटा-सा विषयान्तर करते हुए इतना और जोड़ना है कि मुझे उस समय भी और आज लगभग चालीस वर्ष बाद भी उस सब को याद करते हुए आश्चर्य कालिया पर नहीं, ज्ञान पर था। कारण यह था कि कालिया का स्वभाव ‘आधार’ वाले प्रसंग के बाद बहुत जल्द ही मेरे सामने साफ़ हो गया था। व्यावसायिक पत्रिकाओं के अपने तमाम विरोध के बावजूद उसने उधर की तरफ़ एक चोर दरवाज़ा हमेशा खुला रखा था। ममता को कभी उसने व्यावसायिक पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित करने से नहीं बरजा। चलिए, मान लेते हैं कि ममता का अपना स्वतन्त्र व्यक्तित्व था, लेकिन बाद में कालिया ने ‘सत्यकथा’ और ‘मनोहर कहानियाँ’ छापने वाले मित्र-बन्धुओं में से एक के साथ गठबन्धन करके कैंची-गोद मार्का पत्रिका ‘गंगा-जमुना’ निकाली जो ‘धर्मयुग’ और ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ के बुरे-से-बुरे रूपों से भी गयी-बीती थी और अब कालिया बरास्ता ‘वागर्थ’ जैनियों के उसी संस्थान में जा पहुँचा है जिसे वह चालीस साल पहले छोड़ आया था। जालन्धर की ज़बान में कहें तो ‘जित्थों दी खोत्ती, ओत्थे जा खलोत्ती,’ यानी ‘पहुँची वहीं पे ख़ाक जहाँ का ख़मीर था।’ इलाहाबाद में दरबार लगाने की परम्परा कभी नहीं रही। लेकिन कालिया दरबार लगाने का कायल था। उसे कॉफ़ी हाउस के लोकतान्त्रिक माहौल की बजाय 370, रानी मण्डी में बैठना पसन्द था। उसे पसन्द था कि प्रेस के बाहर वाले कमरे में लोग उसे घेरे बैठे रहें। शुरू-शुरू में तो पालियाँ बँधी हुई थीं। कौन-सी पाली में साहित्यकार होंगे, कौन-सी पाली में उसके ग़ैर-साहित्यिक पिट्ठू। फिर धीरे-धीरे साहित्यकार छँटते चले गये और यही दूसरे क़िस्म के लोग रह गये। कभी पी.डब्ल्यू.डी. या ऐसे ही किसी सरकारी विभाग का कोई इंजीनियर होता, कभी कोई चालू क़िस्म का डॉक्टर, कभी दिलीप कुमार के फ़िल्मी लिबास बनाने वाला नाई-उपन्यासकार, कभी कोई उपरफट्टू क़िस्म का नेता तो कभी पुलिस का कोई अधिकारी। कुछ समय तक हरनाम दास सहराई ने भी इस दश्त की सैयाही की थी जब कालिया ने उसके उपन्यास को पंजाबी से हिन्दी करके छापा था, शायद ‘रचना प्रकाशन’ के लिए। इलाहाबाद दंग हो कर कालिया के करतब देख रहा था। कालिया ने भी सत्ता का ख़ूब आनन्द लिया। लेकिन दरबारों का एक तर्क होता है। जो लोग दरबार लगाते हैं, वे कई बार किसी और जगह दरबारीलाल बने मुसाहिबगीरी करते रहते हैं। चूँकि इलाहाबाद में ऐसा न कोई व्यक्तित्व था, न माहौल, सो कालिया ने अमेठी का रास्ता लिया। सारे ब्योरे तो मुझे मालूम नहीं हैं, क्योंकि ‘आधार’ प्रसंग के बाद मैं धीरे-धीरे कालिया से दूर हटता चला गया और 1972 के बाद तो पन्द्रह साल उसके घर नहीं गया, और यूँ भी वह पुरानी गर्मजोशी दोनों तरफ़ से ख़त्म हो चुकी थी, लेकिन इतना मुझे ज़रूर पता है कि कालिया अमेठी के डॉ. जगदीश पीयूष के ज़रिये अमेठी के राजा संजय सिंह के दरबार में पहुँचा और उनकी मार्फ़त संजय गाँधी के दरबार में। अपनी पुरानी प्रगतिशील प्रतिबद्धताओं को ताक में रख कर वह कांग्रेस के साथ हो लिया। उसके यहाँ सन्दिग्ध क़िस्म के लोगों का जमावड़ा लगने लगा। दिलचस्प बात यह थी कि जब 1981 में संजय गाँधी की मृत्यु हुई तो कालिया ने पलटी मार कर राजीव गान्धी का साथ कर लिया, यहाँ तक कि चुनावों के दौरान मेनका गान्धी का चरित्र हनन करते हुए - कि कैसे वह शराब पीती है, सिगरेट पीती है, उच्छृंखल है, आदि, आदि - एक पुस्तिका भी बँटवायी। यह तब जब ममता बराबर नारी-अधिकारों की हिमायत करती थी। बहरहाल, यह सब कालिया के देखने की चीज़ें हैं - उसकी अन्तरात्मा, उसके ज़मीर और उसके आदर्शों की। शराब पी कर भी वह कैसी-कैसी अभद्रताएँ करता रहा है, इसके कुछ प्रसंग तो मेरे भी देखे हुए हैं, हालाँकि अपने रणछोड़दास स्वभाव के चलते उसने ‘ग़ालिब छुटी शराब’ में ऐसे प्रसंगों का कोई ज़िक्र नहीं किया है। लेकिन मुझे ज्ञान पर ज़रूर आश्चर्य होता रहा है कि उसकी नज़र से यह सब कैसे छिपा रहा और अगर छिपा नहीं रहा तो उसने इस सब के साथ निभाया कैसे। ज्ञान की यादें ताज़ा करते हुए मैंने एक बार फिर ‘कबाड़ख़ाना’ वह पत्र पढ़ा है जो उसने ‘हंस’ में काशीनाथ सिंह का संस्मरण छपने के बाद उसे लिखा था - कालिया की हिमायत में। मुझे फिर एक बार हैरत हुई। मित्र तो वह जो ग़ालिब के शब्दों में ‘रोक लो गर ग़लत करे कोई’ पर चलने वाला हो। मुझे ऐसे भी मित्र मिले हैं। हाल के दिनों तक तो ख़ैर, मेरे जीवन के एक व्यक्तिगत प्रसंग की वजह से आनन्दस्वरूप वर्मा के साथ लगभग दस साल से मेरा अबोला चल रहा था, लेकिन लगभग बीस-बाईस बरस पहले 1989 की बात है, मैंने ‘न्यू डेल्ही टाइम्स’ के निर्देशक रमेश शर्मा के लिए वृत्तचित्रों के एक धारावाहिक ‘कसौटी’ पर काम किया था। इस धारावाहिक के ख़त्म होने के कुछ महीने बाद मैं पाकिस्तान चला गया। वहाँ से लौटा तो रमेश ने मुझसे आग्रह किया कि मैं उसके लिए दो वृत्तचित्रों के लिए आलेख लिख दूँ और स्वर भी दे दूँ। विषय था इन्दिरा गाँधी और धर्म निरपेक्षता। रमेश की कुछ राजनैतिक महत्वाकांक्षाएँ थीं, वह कई कारणों से कांग्रेस से जुड़ गया था, और ये फ़िल्में उसके लिए एक सी़ढ़ी का काम कर सकती थीं। मैं डॉक्यूमेंट्री बना कर अण्डमान चला गया। वहाँ से लौटा तो आनन्द स्वरूप वर्मा से मुलाकात हुई। उसने छूटते ही कहा कि तुमने यह काम ठीक नहीं किया; हम लोग बराबर इन्दिरा गाँधी की निरंकुशता का, आपात काल का, इन्दिरा गाँधी और कांग्रेस की नीतियों का विरोध करते रहे; ऐसे में फ़िल्म चाहे किसी दृष्टि से इन्दिरा गाँधी को ले कर बनायी गयी हो, हमें और हमारी प्रतिबद्धता को सन्दिग्ध बना देगी। शब्द तो ठीक-ठीक ये नहीं थे, पर आशय यही था। मुझे भी तत्काल अपनी चूक का एहसास हुआ। मैंने आनन्द का शुक्रिया अदा किया कि उसने सचमुच दोस्ती का फ़र्ज़ निभाया है। ग़लती तो मुझसे हो गयी थी और तीर वापस न आ सकता था, लेकिन मैंने उससे वादा किया कि अब दोबारा ऐसी ग़लती मैं नहीं करूँगा। मैं आज भी आनन्द स्वरूप वर्मा का कृतज्ञ हूँ कि उसने बेकार का लिहाज़ न बरत कर मुझे टोक दिया था। ‘कबा़ड़ख़ाना’ वाले पत्र के सिलसिले में इतना ही कि ज्ञान ने काशीनाथ सिंह को तो बरजा, लेकिन जब कन्हैयालाल नन्दन ‘सण्डे मेल’ का सम्पादक बना और सैयाँ के कोतवाल बनने पर कालिया ने हमेशा की तरह दोस्ती का लाभ उठा कर पीत पत्रिका मार्का संस्मरण लिखे-छपाये तब ज्ञान ने उसे नहीं बरजा। अलबत्ता, जब काशी ने प्रतिक्रिया में दो-चार बनारसी घिस्से दिये तो कालिया के बिलबिलाने पर ज्ञान द्रवित हो गया! ख़ैर। 0 बहरहाल, ‘आधार’ का यह प्रसंग भी बीत गया। मैत्री और दूसरे तमाम सामाजिक सम्बन्ध जो हम ख़ुद बनाते-रचते हैं, कहीं-न-कहीं हमारे वयस्क होते जाने, परिपक्व होते जाने में भी चाहे-अनचाहे, जाने-अजाने अपनी भूमिका अदा करते हैं। मेरे ज़ख़्मों पर खुरण्ड चढ़ने में हालाँकि थोड़ा वक़्त लगा, मगर वह कहा है न कि वक़्त सब कुछ... 0 उन दिनों पटना से नन्द किशोर नवल ‘सिर्फ़’ नाम की एक लघु पत्रिका का सम्पादन-प्रकाशन कर रहे थे। ‘आधार’ के द्वार से धकियाये जाने पर जब मैंने अपनी लम्बी कविता ‘अपने आप से बहुत लम्बी, बहुत लम्बी बातचीत’ एक पुस्तिका की शक्ल में प्रकाशित की तो उसे नवल जी को भेज दिया। पुस्तिका मैंने अशोक वाजपेयी और रवीन्द्र कालिया को समर्पित की थी। अशोक के नाम इसलिए कि उन्होंने हिन्दी के आम वतीरे से हलग हट कर, यानी अश्क जी के साथ अपने और अपने निकट के अन्य लोगों के सम्बन्धों को ख़ातिर में न लाते हुए, मेरे पहले कविता-संग्रह ‘संस्मरणारम्भ’ की अच्छी समीक्षा की थी - शायद ‘धर्मयुग’ में। अच्छी इस मानी में कि वह आज की ‘अच्छी’ समीक्षाओं की तरह न तो अहो-अहोवादी थी, न पंजीरी-बाँटू। उसमें सम्भावनाओं की तरफ़ इशारा करने और उत्साह दिलाने की भावना थी। रवीन्द्र कालिया को मैंने कविता इसलिए समर्पित की, क्योंकि जिन दिनों वह लिखी जा रही थी, कालिया हमारे ही घर पर मुकीम था, कविता के पहले दो-तीन प्रारूप उसने सुने थे, सराहे थे, कुछ ज़रूरी सुझाव दिये थे। फिर, तब तक उसका वह रूप सामने नहीं आया था जिससे मुझे वितृष्णा हुई थी। ‘आधार’ वाले प्रसंग में भी मुझे ज्ञान से ज़्यादा शिकायत थी। (‘आधार’ की पृष्ठ संख्या पर कालिया के नियन्त्रण के कारण ज्ञान के हाथ बँधे हुए थे, यह बात बाद में साफ़ हुई जब ज्ञान ने मेरी ही नहीं, अन्य लेखकों की भी लम्बी रचनाएँ ‘पहल’ में छापीं जहाँ सब कुछ उसके हाथ में था। यही नहीं, बल्कि जिन्हें विशेष रूप से प्रस्तुत करना था, उन रचनाओं को पुस्तिकाओं की शक्ल में ‘पहल’ की ओर से प्रकाशित किया। जब कि ‘आधार’ से अपना काम सध जाने के बाद कालिया ने ‘आधार’ को डम्प कर दिया और वह अंक एक तरह से ‘आधार’ का समाधि-लेख साबित हुआ। हालाँकि उसके बाद ‘आधार’ के दो-एक अंक निकले, पर वे मृत्यु के बाद मांस के फड़कने की मानिन्द थे।) मेरी कविता-पुस्तिका के ब्लर्ब पर पन्त जी की एक भूमिका थी। यह भी उन दिनों के साहित्यिक माहौल का आम चलन था कि हम जैसे नौसिखुए कवि, पन्त जी जैसे तपे हुए वरिष्ठ कवियों के साथ अदब से, मगर बराबरी की भावना से, संगत करते थे। मैं उन दिनों अक्सर पन्त जी के यहाँ जाता था। एक दिन उन्होंने कहलवाया कि उन्हें पता चला है मैंने नयी कविता लिखी है, वे सुनना चाहते हैं। पन्त जी के आग्रह पर जब मैंने उन्हें कविता सुनायी और ‘आधार’ वाला प्रकरण बताते हुए यह कहा कि अब मैं इसे पुस्तिका के रूप में छापने की सोच रहा हूँ तो उन्होंने बड़े सहज भाव से प्रस्ताव रखा कि वे उसकी भूमिका लिखना चाहेंगे। मैं थोड़ा हिचकिचाया था। हालाँकि लीलाधर जगूड़ी की तरह मैंने पन्त जी की कविताओं के अकवितावादी ‘अनुवाद’ करके ख़ुद को क्रान्तिकारी साबित करने की कोशिश नहीं की थी, लेकिन मैं पन्त जी को महत्वपूर्ण कवि मानते हुए भी, उनकी अपेक्षा निराला-शमशेर-मुक्तिबोध को अपने ज़्यादा करीब पाता था। लेकिन जब मुझसे कहा गया कि इतने वरिष्ठ कवि का यह प्रस्ताव एक सम्मान की बात है तो मैंने कहा ठीक है, भैये, करा लेते हैं सम्मान, अपनों ने तो हमारी औक़ात हमें जता ही दी है, कविता में कुछ होगा तो रहेगी, वरना डूब जायेगी - पन्त जी की भूमिका समेत। लगे हाथों मैंने कविता से पहले उसकी रचना-प्रक्रिया, वग़ैरा, वग़ैरा पर अपनी तरफ़ से भी दो-तीन पन्ने ख़ासी ऊँचाई से लिख मारे। फ़रवरी 1970 में पुस्तिका प्रकाशित हुई और कुछ महीने बाद ‘सिर्फ़’ में नन्द किशोर नवल ने कविता पर वाचस्पति उपाध्याय की ख़ासी लम्बी समीक्षा प्रकाशित की, जिसमें कविता को, इलाहाबादी शब्दावली में कहें तो, ‘धो कर रख दिया गया था।’ मैंने वह समीक्षा पढ़ी और ऐलान किया कि बनारसी कवि को अपना आसन डोलता नज़र आ रहा है। बनारसी कवि से आशय धूमिल से था, जिनके साथ-साथ वाचस्पति उन दिनों छाया की तरह लगे रहते थे। (आज, लेकिन, मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि वाचस्पति की समीक्षा से मुझे बहुत फ़ायदा हुआ। बाईस-तेईस साल की कच्ची उमर में लिखी गयी वह लम्बी कविता भले ही पुस्तिका के रूप में छप गयी थी, लेकिन मैंने बाद में भी उसे सुधारना-सँवारना जारी रखा था और इस काम में वाचस्पति की समीक्षा से मुझे काफ़ी मदद मिली और उसे मैंने बाद में ‘वयस्क होते हुए’ के शीर्षक से अपने कविता संग्रह ‘जंगल ख़ामोश है’ में संकलित किया। चूँकि तुलसीदास की उक्ति के अनुसार मुझे भी ‘निज कवित्त’ को ले कर एक मोह रहता ही है, इसलिए यह तो नहीं कह सकता कि कविता इन संशोधनों के बाद निर्दोष हो गयी - यूँ भी उसका एक बुनियादी ख़ाका तो बन ही चुका था - अलबत्ता, यह ज़रूर हुआ कि वह पहले से काफ़ी बेहतर हो गयी। इस नाते मैं वाचस्पति का बहुत कृतज्ञ हूँ।)


ज्ञानरंजन के बहाने - ७


‘सिर्फ़’ के उसी अंक के साथ या उसके कुछ दिन बाद मुझे नवल जी का एक पत्र मिला कि वे दिसम्बर 1970 में एक युवा लेखक सम्मेलन कर रहे हैं। लेखक सम्मेलन के परिपत्र और आमन्त्रण के साथ भेजी गयी इस चिट्ठी में नवल जी ने लिखा था कि वे सम्मेलन को बड़े पैमाने पर करने की सोच रहे हैं और उन्होंने मुझसे पटना आने का आग्रह किया था। इसके साथ-साथ नवल जी ने यह भी लिखा था कि अगर मैं चाहूँ और ठीक समझूँ तो अपने संग कुछ और युवा साथियों को भी लेता आऊँ। वे तीसरे-दर्जे का आने-जाने का रेल भाड़ा देंगे और रहने-खाने की भी व्यवस्था करेंगे।

आज का कोई लेखक अव्वल तो अपना पैसा ख़र्च करके दूसरे शहर जा कर लेखक-मित्रों से मिलने की नहीं सोचता और अगर किसी आयोजन में जाना हो तो ए.सी. टू टियर या ए.सी. थ्री टियर से नीचे बात नहीं करता और उम्मीद करता है कि उसे किसी अच्छे होटल में ठहराया जायेगा, लेकिन उन दिनों बात दूसरी थी। लोग धड़ल्ले से यात्राएँ करते थे, अक्सर निष्प्रयोजन, सिर्फ़ मित्रों से मिलने के लिए, और मित्रों के यहाँ ही टिकते थे। कोई सम्मेलन वग़ैरा होता तो किसी बड़े-से हॉल में फ़र्श पर गद्दे डाल कर सो जाया जाता। तीसरे दर्जे का यात्रा-व्यय ख़ुशी-ख़ुशी स्वीकार कर लिया जाता। यों बीच की बात यह है कि अनेक लेखक आज भी सफ़र तीसरे दर्जे में करते हैं, हाँ, ऊपर के पैसे जेब में डाल लेते हैं। इसमें कोई बुराई भी नहीं है, अगर आयोजक देने की स्थिति में हो, जैसा कि सरकारी या अर्द्ध सरकारी संस्थानों के साथ होता है। लेकिन जहाँ ऐसी स्थिति न हो, वहाँ अपनी तरफ़ से ख़र्च करके जाने भी कोई हानि नहीं है। जिन बड़े आयोजनों को हम याद करते हैं, मसलन, 1952 में इलाहाबाद का प्रगतिशील लेखक संघ का सम्मेलन या इलाहाबाद ही में 1957 का लेखक सम्मेलन, वे सब ऐसे ही हुए थे। इसीलिए चलन बदलने के साथ ऐसे जमावड़े भी - कम-से-कम साहित्यिक संस्थाओं की ओर से - आयोजित होने बन्द हो गये हैं। सच तो यह है कि साहित्यिक संस्थाएँ भी दुकान बढ़ा कर चलती बनी हैं। 1970 का पटना सम्मेलन इस कड़ी का आख़िरी बड़ा सम्मेलन था।

नवल जी का पत्र आने पर मैंने दरियाफ़्त किया तो पता चला कि इलाहाबाद से ज्ञान, दूधनाथ, कालिया, ममता, ज्ञान प्रकाश, अरविन्द कृष्ण मेहरोत्रा और उसकी पत्नी, अजय सिंह और सतीश जमाली जा रहे थे। मैंने सोचा, कण्टिंजेण्ट में कुछ और लोगों को शामिल कर लिया जाय। 0 ज्ञान के जबलपुर चले जाने के बाद उन दिनों मेरा समय दो लोगों के साथ बड़ी कसरत से गुज़रता था। एक तो थे वीरेन डंगवाल, जो आज बड़े ही महत्वपूर्ण कवि हो गये हैं और जिनके प्रशंसकों-प्रेमियों की संख्या भारतीय फ़ौज को भी शर्मिन्दा करने के लिए काफ़ी हैं। दूसरे सज्जन, जिनकी संगत में मैं ज्ञान की ग़ैर-हाज़िरी को भुलाये रखता था, रमेन्द्र त्रिपाठी थे, जो इन दिनों प्रशासनिक सेवाओं में शामिल हो कर उत्तर प्रदेश जैसे परम भ्रष्ट राज्य में अपनी आकबत बचाये रखने के फेर में इतने मुब्तिला रहते हैं कि कविता से केवल पढ़ने का रिश्ता रखते हैं। उन दिनों रमेन्द्र एम.ए. कर रहा था। इरादा प्रशासनिक सेवाओं में जाने का था। चूँकि रामचन्द्र शुक्ल के परिवार से था, इसलिए हम लोग रमेन्द्र को ‘रामचन्द्र शुक्ल का नाती’ कह कर भी बुलाते थे।

वीरेन से मेरी मुलाक़ात अजय सिंह ने करायी थी जो हॉलैण्ड हॉल छात्रावास में प्रकुबम (यानी प्रणव कुमार बंद्योपध्याय) और गिरधर राठी के साथ रहता था। अजय का एकांकी ‘कुहनी की हड्डी’ 1966 में ‘ज्ञानोदय’ के उसी ‘नयी कलम अंक’ में छपा था जिसमें मेरी भी कविता छपी थी, और वह राजनीति शास्त्र में एम.ए. न करने की कोशिश कर रहा था, जिस कोशिश में वह अन्ततः सफल हो ही गया था। मैं एम.ए. करके हिन्दी विभाग से निकल आया था, मगर चूँकि मैंने शोध के लिए आवेदन दे रखा था और वह स्वीकृत भी हो गया था इसलिए जब तक ज्ञान की तरह मैंने भी शोध न करने फ़ैसला न कर लिया, मैं कुछ महीनों के लिए हर दूसरे-तीसरे विभाग का चक्कर लगा आता था।

तभी एक दिन विभाग के गलियारे में अजय सिंह मझोले क़द के दुबले-पतले बेढंगे-से युवक के साथ मिला जिसकी आँखों में कुछ ‘लुक हियर सी देयर’ वाला भाव था। अजय ने परिचय कराते हुए कहा कि यह वीरेन डंगवाल है, इसकी कहानियाँ ‘सरिता’ में छप चुकी हैं। ‘सरिता में!’ मुझे एक धक्का-सा लगा क्योंकि 1966 में भले ही रंगीन, चिकनी व्यावसायिक पत्रिकाओं के ख़िलाफ़ वह झूठा जिहाद शुरू नहीं हुआ था, जिसका ज़िक्र मैंने कालिया के सिलसिले में किया, तो भी कोई गम्भीर लेखक ‘सरिता’ में छपने की बात अपने परिचय में कहना या कहलवाना चाहेगा, यह मुझे अटपटा ही लगता था; हालाँकि एम.ए. करने के दौरान मैं दो बार गर्मियों की छुट्टियाँ दिल्ली बिता आया था और जानता था कि ‘सरिता’ कई लेखकों की पनाहगाह रही है, मसलन, भीमसेन त्यागी, कंचन कुमार, सुदर्शन चोपड़ा वग़ैरा की। ज़ाहिर है, मैंने सरसरी नज़र डाल कर उस युवक को ख़ारिज कर दिया था। लेकिन चूँकि उन दिनों इलाहाबाद में बहुत गहमा-गहमी थी, लेखकों के बीच बहुत मिलना-मिलाना था, इसलिए वीरेन से मिलना-जुलना बढ़ता चला गया। वैसे, वीरेन से खिंचे-खिंचे रहने का भाव सिर्फ़ मेरे ही मन में नहीं था। बाद में पता चला कि वीरेन को भी मुझसे शिकायत है, क्योंकि मैंने एक बार बटरोही से कॉफ़ी हाउस में बुरा व्यवहार किया था।


आज तो लक्ष्मण सिंह बटरोही नैनीताल में हिन्दी विभागाध्यक्ष के पद पर आसीन है और गाहे-बगाहे लेखादि लिख कर अपने लेखक होने की आबरू बचाये हुए है, पर उन दिनों वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय में रिसर्च करता था और शैलेश मटियानी ने अपनी स्वाभाविक उदारता और पर्वत-पुत्रों के प्रति प्रेम के कारण उसे अपने घर में आसरा दे रखा था। जैसा कि उन्होंने पहाड़ से आये चित्रकार-कवि सईद को दे रखा था। बटरोही गंगा प्रसाद विमल जैसे सातवें दशक के बरबाद कथाकारों के प्रभाव में कहानियाँ लिखता था जिनका किसी भी तरह की वैचारिकता से या ज़िन्दगी से कोई नाता न होता और लगे हाथ ‘विकल्प’ के सम्पादन में शैलेश मटियानी की मदद करता था। लेकिन जिस क़िस्से का वीरेन को मलाल है, वह इससे पहले का है जब बटरोही इलाहाबाद की टोह लगाने के लिए आया था।

हुआ यों कि उन्हीं दिनों कमलेश्वर ने बटरोही को ‘डिस्कवर’ किया और उसकी कहानी ‘नई कहानियाँ’ में छापी। यहाँ तक कोई एतराज़ की बात नहीं थी। लेकिन कमलेश्वर ने कहानी के साथ जो प्रशस्ति गा रखी थी, उससे कुछ ऐसी गन्ध आती थी मानो वे एक नया चेला तैयार कर रहे हैं। हो सकता है, इसमें खेल कमलेश्वर ही का रहा हो, पर बटरोही ने उस यात्रा में एक ओर जिस तरह उस कहानी के छपने को भुनाने की कोशिश की और दूसरी ओर इलाहाबाद से साहित्यकारों से ‘चिपकने’ की, उसका कोई बहुत अच्छा असर नहीं पड़ा था। ऐसे ही में एक दिन जब ज्ञान, प्रभात, मैं और एकाध कोई और दोपहर बाद कॉफ़ी हाउस में बैठे गप लड़ा रहे थे तो बटरोही नमूदार हुआ। उसके साथ एक युवक भी था। एक ख़ुशामदी-सी हँसी हँसते हुए बटरोही आ कर हमारी ही मेज़ पर बैठ गया। उस ज़माने में कॉफ़ी हाउस के कई क़िस्म के दस्तूर थे। पहला दस्तूर ‘परिमल’ वालों और ‘शनिवारी समाज’ का था। एक में साही, रघुवंश, रामस्वरूप चतुर्वेदी आदि थे, दूसरे में भैरव जी और उनके साथी। ये सब अपनी-अपनी कॉफ़ी के पैसे ख़ुद चुकाते थे। दूसरा दस्तूर हम लोगों का था। जिसके पास पैसे हुए, उसने चुका दिये या फिर अपनी-अपनी क्षमता से सबने कम-ज़्यादा योग दे दिया। ज्ञान के साथ यह था कि अक्सर पैसे वही देता था। जब वह नहीं होता था तो कई बार प्रभात के पैसे मैं देता था। या फिर चार-छै दिन बाद जब मुझे लगता था कि ज्ञान को यह न महसूस हो कि वही अकेला चाय-कॉफ़ी के लिए ज़िम्मेदार है तो मैं बिल चुका देता था। एक अघोषित नियम यह था कि जो कॉफ़ी के लिए कहेगा, वही पैसे भी देगा। हम लोग शायद कॉफ़ी के लिए कह चुके थे, या शायद कॉफ़ी अभी-अभी आयी थी जब बटरोही आया, पूरा ब्योरा तो अब याद नहीं, पर बटरोही ने आते ही बैरे को दो कॉफ़ी लाने के लिए कहा। गप-शप चलती रही। कॉफ़ी पी गयी। जब उठने का समय आया तो मैंने बटरोही की तरफ़ देखा। ज़ाहिर है, कॉफ़ी के पैसे चुकाने थे, मगर बटरोही इस बात को अनदेखा कर रहा था। वह इस फेर में था कि हमीं में से कोई उनके पैसे भी चुका दे। मुझे बुरा इस बात का लगा कि एक तो वह हम रोज़ के उठने-बैठने वालों में से नहीं था, दूसरे उसने आते ही इस बात का इन्तज़ार भी नहीं किया था कि कोई कॉफ़ी के लिए पूछे और बड़े इत्मीनान से कॉफ़ी मँगवा ली थी, फिर वह हम पर लदने की कोशिश कर रहा था। जो युवक नैनीताल से एक और बन्दे को अपने साथ लिये-लिये इलाहाबाद आ सकता है, वह इतना ‘खुक्ख’ होगा कि कॉफ़ी के पैसे न दे सके, यह यक़ीन करने को जी न चाहता था। अगर वह सीधे-सीधे भी कह देता तो भी एक बात थी, पर वह तो एक दयनीय काइयाँपने से दुबका बैठा था। कुछ पल बाद वातावरण बड़ा बोझिल होने लगा। शायद मैंने बिल के बारे में कुछ कहा भी। पर तभी ज्ञान ने उठते हुए बैरे को बुलाया और पैसे अदा कर दिये।

मैं यह क़िस्सा भूल भी गया था, लेकिन वीरेन को याद था, क्योंकि बटरोही के साथ उस दिन वही था। तो भी इस प्रसंग को काफ़ी समय बीत गया था और इस पहले सफ़र के बाद बटरोही की असलियत से वीरेन वाकिफ़ हो चुका था, इसलिए हम दोनों ही इस किस्से को किनारे करके निकट आते चले गये।

उन दिनों ये दोनों, वीरेन और रमेन्द्र, गंगानाथ झा छात्रावास के एक ही कमरे में रह कर गाँजा पीने, कविता करने, बाहर से आये लोगों (मसलन पंकज सिंह) को इलाहाबाद ‘दिखाने,’ यदा-कदा दारू पीने, मेरी जावा मोटरसाइकिल पर तीन सवारी आवारागर्दी करने, दुनिया को अंग विशेष पर रखने और बचे हुए समय में प्रेम की सम्भावनाएँ तलाशने और मजाज़ की नज़्म ‘ऐ ग़मे दिल क्या करूँ’ को ऊँची आवाज़ और सुर-बेसुर में गाने में अपने जीवन का सदुपयोग करते थे। चूँकि शैलेश मटियानी गंगानाथ झा छात्रावास के नज़दीक कटरा में रहते थे और ‘विकल्प’ के नाम से हिन्दी की पहली भीमकाय ‘लघु पत्रिका’ निकाल रहे थे, लिहाज़ा हम लोग कभी-कभी वहाँ चले जाते। मैं इनमें से एकमात्र शादी-शुदा था। लेकिन तब तक मुझ पर ज्ञान रंजन का गाढ़ा रंग चढ़ा हुआ था। इसलिए जिस तरह शादी करने और कालिया की संगत करने पर भी ज्ञान अपनी मलंगई नहीं छोड़ पाया था, वैसे ही मैं अपने ज्ञान साईं के नक्शे-कदम पर चलते हुए अपना ठाठ फ़कीरी कायम किये हुए था।

चुनांचे मैंने वीरेन और रमेन्द्र को भी ‘युवा लेखक सम्मेलन’ में पटना चलने के लिए राज़ी कर लिया और नवल जी को लिख दिया कि मेरे साथ इन दोनों के यात्रा-व्यय और रिहाइश की भी व्यवस्था कर दें। 0 1970 का ‘युवा लेखक सम्मेलन’ जैसा हुआ, वह आज अकल्पनीय लगता है। न सिर्फ़ शिरकत और उसमें उठी बहसों के लिहाज़ से, बल्कि उस प्रबल और दीर्घकालीन प्रभाव के चलते भी जो उसने आगे के लेखन पर छोड़ा। इसी सम्मेलन के दौरान मुझे ज्ञान के चरित्र के कुछ अन्य पहलू नज़र आये जिन्होंने मुझे चकित कर दिया।


ज्ञानरंजन के बहाने - ८

अधूरी लड़ाइयों के पार


लड़ाइयाँ अधूरी रह जाती हैं अक्सर, बाद में पूरी होने के लिए किसी और युग में किन्हीं और हथियारों से

                   --असद ज़ैदी, 1857: सामान की तलाश

पटना में 27-28 दिसम्बर 1970 को आयोजित युवा लेखक सम्मेलन में क्या-कुछ हुआ, क्या-क्या नज़ारे देखने को मिले, कैसी-कैसी थिगलियाँ साहित्य के नभ-मण्डल में लगायी गयीं, और जिसे अंग्रेज़ी में ‘फ़्रोम द सब्लाइम टू द रिडिक्युलस’ कहते हैं, यानी अगर मनोहर श्यामिया सुख़नगोई से काम लेते हुए कहें कि ‘उदात्त से चौत्य’ तक कैसी उठा-पटक रही, इसे आज 35-40 वर्ष बाद, स्मृतियों के कबाड़ख़ाने से उबार कर, तमाम गर्द-ग़ुबार झाड़ कर पेश करना ख़ासा मुश्किल है। लेकिन पीछे मुड़ कर उस दौर को याद करते हुए, इतना यकीनी तौर पर कहा जा सकता है कि 1970 का वह सम्मेलन कई अर्थों में ऐतिहासिक था। एक तो इसलिए कि वह लेखकों के जम्बूरी-नुमा सम्मेलनों की शृंखला में आख़िरी बड़ा जमावड़ा था।

जिस तरह से 70 पार कर आये लेखक आज भी ‘वो झाड़ियाँ चमन की, वो मेरा आशियाना’ के अन्दाज़ में 1957 के लेखक सम्मेलन को याद करते हैं, वैसे ही 60 के पाँच वर्ष इधर या उधर के लेखकों की आँखें 1970 के युवा लेखक सम्मेलन के ज़िक्र से चमक उठती हैं। इस सम्मेलन में शायद सबसे कम उम्र वाले लेखकों में वीरेन डंगवाल और पंकज सिंह थे, 21-22 की दहलीज़ पर और शायद सबसे ज़्यादा उम्र रेणु जी की थी। ज़्यादातर साहित्यकार इन दोनों छोरों के दरमियान थे - 30-35 के पेटे में। कुछ मेरे जैसे 25 वर्ष के थे तो कुछ, मसलन नामवर जी, महज़ 42-43 वर्ष के, और यह तो हम सभी लोग अपने भारतीय अनुभव से जानते ही हैं कि जिस तरह नेतागण अपनी अर्द्ध-शती मनाने के बाद भी अपने राजनैतिक दल के युवा संगठन के महासचिव और अध्यक्ष वग़ैरह बने रहते हैं, उसी तरह लेखक भी सिर के आधे बाल पक जाने के बावजूद युवा लेखक बने रहते हैं। उम्र वाले इस पहलू का ज़िक्र शुरू में ही इसलिए किया है ताकि उस सम्मेलन में जो कुछ हुआ, उसकी संगति-असंगति-विसंगति के बारे में हैरत न हो।

बहरहाल, ऐसा जमावड़ा कभी देखा नहीं गया - न उससे पहले, न उसके बाद। गो, दो साल बाद बाँदा में भी एक हंगामाख़ेज़ सम्मेलन आयोजित हुआ था, लेकिन वह न तो इतने बड़े पैमाने पर था, न उसमें इतने भिन्न-भिन्न विचारों के लेखक शामिल थे और न वहाँ उस तरह के दृश्य देखने को मिले जो पटना में देखने को मिले थे, इस बात के बावजूद कि बाँदा में वैचारिक ढिशुम-ढिशुम एक समय तो ऐसी भौतिक समीक्षा की दिशा में बढ़ चली थी कि पुराने मुजाहिद मन्मथनाथ गुप्त और नये मरजीवड़े सुधीश पचौरी के बीच डब्ल्यू.डब्ल्यू.ए. जैसा कुछ घटित होने को था। दूसरी तरफ़ धूमिल, ऐसा बताया जाता है कि, एक भण्टा कुर्ते की जेब में डाले उसे बम बताते हुए ठेठ बनारसी लण्ठई और लनतरानी का मुज़ाहिरा करता घूम रहा था। इस सब को देखते हुए कुल मिला कर बड़े सुरक्षित ढंग से यह कहा जा सकता है कि बाँदा वाला सम्मेलन इसी 1970 वाले युवा लेखक सम्मेलन का, ग़ालिबन, उत्तरकाण्ड था। 0 वैसे, हिन्दी में बड़े-बड़े साहित्यकार सम्मेलनों की परम्परा कभी नहीं रही। कुछ संस्थाएँ ज़रूर अपने अधिवेशनों में साहित्यकार जुटाया करती थीं, जैसे इलाहाबाद का हिन्दी साहित्य सम्मेलन या बनारस की नागरी प्रचारिणी सभा या फिर बिहार राष्ट्रभाषा परिषद आदि, लेकिन वहाँ साहित्य गौण और दूसरी चीज़ें ज़्यादा महत्वपूर्ण होती थीं। एक लम्बे अर्से तक तो इन संस्थाओं में हिन्दी की राजनीति की ही पटफेराबाज़ी होती रही, जिसका सम्बन्ध हिन्दी भाषा और हिन्दी साहित्य से कम और राजनीति से अधिक था। कई किस्म के जुगाड़ और गुन्ताड़े इन अधिवेशनों में भिड़ाये जाते। फिर, इनमें सभी साहित्यकार आमन्त्रित भी नहीं होते थे।

हिन्दी में यूँ भी पंगतपरक सम्मेलनों की परम्परा रही है। यानी अपनी पंगत, अपना एजेण्डा, अपने लोग। ऐसे सम्मेलन बिरले ही देखे गये हैं जिनमें हर जाति-प्रजाति के साहित्यकार, अपने-अपने मतभेदों को किनारे रख कर या फिर उन्हें झण्डों की तरह लहराते हुए, शामिल हुए हों। इस लिहाज़ से भी 1970 का युवा लेखक सम्मेलन अपने आप में अनोखा था, क्योंकि उसमें लगभग एक प्रतिशोध-भरे आग्रह, या कहें कि पूर्वाग्रह, से हर नस्ल के युवा लेखक जुटाये गये थे - किंचित युवा, कतिपय युवा, लगभग युवा, हत युवा, गत युवा, आहत युवा, आगत युवा, आदि - और जिनमें सुविद्रोहियों के साथ-साथ अविद्रोहियों और कुविद्रोहियों की भी अच्छी-ख़ासी भरमार थी।

इससे पहले, 1957 में जो दो बड़े सम्मेलन इलाहाबाद में हुए थे, उनमें जो ख़ेमेबन्दियाँ थीं, वे साफ़-साफ़ नज़र आती थीं। जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, नामवर जी ने अपने किसी आत्म-चरित में साहित्यकारों के जमावड़ों की एक लम्बी फ़ेहरिस्त गिनायी थी, लेकिन न तो वे इतने बड़े पैमाने पर आयोजित हुए थे और न उनमें परस्पर विरोधी विचारों के लेखकों ने शिरकत ही की थी। कुल मिला कर वे ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ ही की जम्बूरियाँ थीं।

1957 के सम्मेलन भी - हालाँकि उनमें से एक ‘परिमल’ ने आयोजित किया था और दूसरा ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ ने - जहाँ तक दायरे और सरोकारों का सवाल है - पहले के सभी सम्मेलनों से भिन्न थे। इनमें से दूसरे सम्मेलन को बड़े भाव-भीने ढंग से याद करते हुए कवि अशोक वाजपेयी ने एकाधिक बार कहा है कि वे उस सम्मेलन में शामिल होने वाले सबसे कमसिन साहित्यकार थे और ग़ालिबन उनकी उम्र उस वक्त 17 बरस की थी। मुझे इतना और याद पड़ता है कि मेरी उम्र उस समय बारह की रही होगी और मैं उस सम्मेलन के लिए चन्दा जुटाने वाले और आव-भगत करने वाले दस्ते में शामिल था और इस मुहिम पर किसी के साथ कानपुर भी गया था।

अब 1970 के युवा लेखक सम्मेलन को याद करते हुए पीछे मुड़ कर देखते समय, 1957 के इन सम्मेलनों के बारे में कुछ और बातें भी दिमाग़ में कौंधती हैं। मिसाल के लिए यह कि 1957 में इलाहाबाद में आयोजित दोनों साहित्यकार सम्मेलनों पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से 1956 में दिल्ली में आयोजित पहली ऐफ़्रो एशियन राइटर्स कॉनफ़रेन्स की छाया मँडरा रही थी, जिसमें तमाम हिन्दी-उर्दू और अन्य भारतीय, एशियाई और अफ़्रीकी देशों के साहित्यकार शामिल हुए थे। ऐफ़्रो एशियन रॉइटर्स कॉन्फ़रेन्स को प्रकट ही ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ और सोवियत संघ का समर्थन प्राप्त था। जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, उसमें ऐसे लोग भी बड़ी तादाद में शामिल हुए थे जो भले ही सोवियत समर्थक या ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ अथवा कम्यूनिस्ट पार्टी के सदस्य न रहे हों, मगर सामाजिक रूप से प्रतिबद्ध थे। लेकिन कुल-मिला कर उसकी मूल प्रेरणा वामपन्थी ही थी। वह समय भी ख़ासी उथल-पुथल का था। स्टालिन युग समाप्त हुआ ही हुआ था, ख़्रुश्चेव ने नयी-नयी सत्ता सँभाली थी और भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी, जो बाद में ‘इस दिल के टुकड़े हज़ार हुए’ की तर्ज़ पर कई-कई खण्डों और उपखण्डों में बँटी, उस समय तक एक थी। यह बात दीगर है कि उसी दौर में कम्यूनिस्ट पार्टी से जुड़े लेखक या प्रगतिशील साहित्यकार अनेक विषयों पर तीखे अन्दरूनी मतभेद का शिकार थे - चाहे वह हिन्दी-उर्दू का मसला हो या फिर पार्टी लाइन का। पी.सी.जोशी और उनके उदार प्रगतिवादी दौर को पीछे छोड़ कर एक ऐसा कट्टरतावादी गुट कम्यूनिस्ट पार्टी और ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ में उभर आया था जिसने राहुल सांकृत्यायन से ले कर यशपाल, अश्क, रांगेय राघव, शिवदान सिंह चौहान, अमृत राय आदि पुराने प्रगतिशीलों के ख़िलाफ़ तालिबानी अन्दाज़ में जिहाद बोल दिया था।

दूसरी ओर, यह भी कहने की बात नहीं है कि वह शीतयुद्ध का ज़माना था। हीरोशिमा और नागासाकी पर अमरीकी युद्धोन्माद ने जो तबाही बरपा की थी, उसकी स्मृति ताज़ा बेखुरण्ड ज़ख़्म की तरह थी। इन्हीं नीतियों को आगे बढ़ाते हुए अमरीका ने मार्शल प्लान चालू किया था, इसलिए एक बड़े पैमाने पर दुनिया भर में वामपन्थी, जनवादी और कम्यूनिस्ट लेखकों का हरकतज़दा होना अमरीका के कान खड़े कर देने के लिए काफ़ी था। इस सब की सांस्कृतिक पेशबन्दी के तौर पर अमरीका परस्त संस्था ‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ की स्थापना हो चुकी थी जिसके मानद अध्यक्षों में बेनेदेत्तो क्रोचे, कार्ल जास्पर्स और बरट्रेण्ड रसेल के साथ हिन्दुस्तानी समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण भी शामिल थे। ‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ के रंगून सम्मेलन के अध्यक्षों में डॉ. सम्पूर्णानन्द जैसे काँग्रेसी-समाजवादी बहैसियत मुख्यमन्त्री, उत्तर प्रदेश सरकार शिरकत कर रहे थे।

‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ ने ‘एनकाउण्टर’ के नाम से एक पत्रिका भी प्रकाशित करनी शुरू की थी, जिसके सम्पादक थे पुराने वामपन्थी स्टीफ़न स्पेण्डर। हालाँकि तब तक ‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ को सी.आई.ए. से मिलने वाले आर्थिक अनुदान की बात और इस भण्डाफोड़ से उठे कौआरोर के चलते ‘एनकाउण्टर’ से स्टीफ़न स्पेण्डर के इस्तीफ़े की घटना में अभी दस बरस की देरी थी, लेकिन यह बात राजनैतिक रूप से सचेत सभी लेखक जानते थे कि ‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ की असलियत क्या है और स्टीफ़न स्पेण्डर जैसे घोषित वामपन्थी इसी बिना पर ‘एनकाउण्टर’ के सम्पादक बन भी सके हैं, क्योंकि उन्होंने 1949 में प्रकाशित पुस्तक ‘द गॉड दैट फ़ेल्ड’ में लिखे गये अपने लेख में, उसी पुस्तक के सहयोगी लेखक आर्थर केस्लर के सुर-में-सुर मिलाते हुए, साम्यवाद और साम्यवादी विचारधारा से किनाराकशी कर ली थी। अगर यह बात इतनी प्रकट और प्रत्यक्ष नहीं भी थी, तो भी स्टीफ़न स्पेण्डर के राजनैतिक स्खलन के साथ ‘एनकाउण्टर’ में उनके सम्पादक बनने को जोड़ कर लोग इतना तो जान ही रहे थे कि ‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ एक अमरीका-परस्त और अमरीकी पैसों से चलने वाली संस्था है।

यों, जैसा कि शीत युद्ध की तकनीक है, दोनों पक्ष एक-दूसरे पर नज़र रख कर चलते थे। यही वजह है कि 1956 के ऐफ़्रो एशियन लेखक सम्मेलन में अनेक ग़ैर-वामपन्थी लेखक तो गये ही थे, ‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ के एशियाई मामलों के सचिव प्रभाकर पाध्ये भी गये थे। ऐफ़्रो एशियन लेखक सम्मेलन की सफलता, ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के बढ़ते हुए प्रभाव और अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर हो रहे परिवर्तनों ने जहाँ ‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ जैसी संस्था को अपनी गतिविधियाँ तेज़ करने के लिए उकसाया, वहीं कम्यूनिस्ट जगत में होने वाली तब्दीलियों और प्रगतिशील लेखकों की बिरादरी के आपसी मतभेदों ने ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ को एक बड़ा साहित्यकार सम्मेलन करने की प्रेरणा दी। चूँकि ‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ एक दाग़ी संस्था थी, तकरीबन वैसी ही, जैसी पच्चीस-तीस वर्ष बाद ‘फ़ोर्ड फ़ाउण्डेशन’ बनी, और उसके काम करने का ढंग लुका-छिपी वाला था, जिसे अंग्रेज़ी में ‘क्लोक ऐण्ड डैगर’ वाला तरीका कहते हैं, इसलिए उसने अपने मंसूबों के लिए प्रगतिशील लेखक संघ की घोषित विरोधी संस्था ‘परिमल’ को चुना और ‘परिमल’ ने ‘साहित्य और राज्याश्रय’ के सवाल पर एक लेखक सम्मेलन आयोजित किया।

उधर, ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ पहले ही से एक सम्मेलन की सोच रहा था। अब, इसे संयोग ही कहा जायेगा कि दोनों सम्मेलन 1957 में हुए और दोनों इलाहाबाद में हुए। ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ में मतभेद चाहे कितने रहे हों, लेकिन कोई दुराव-छिपाव तो था नहीं। उससे जुड़े लेखकों की राजनैतिक प्रतिबद्धताएँ सबको मालूम थीं। लेकिन ‘परिमल’ के मुखौटे के पीछे असली चेहरा किसका था, यह उस समय उजागर हो गया जब ‘परिमल’ वाले सम्मेलन के बाद धन्यवाद-ज्ञापन के पत्र ‘परिमल’ के पदाधिकारियों की ओर से जारी न हो कर ‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ के एशियाई मामलों के सचिव, प्रभाकर पाध्ये की ओर से लेखकों को भेजे गये। चूँकि इलाहाबाद की पुरानी परम्परा के अनुसार सम्मेलनों में सभी तरह के साहित्यकार न्योते जाते थे, इसलिए ‘परिमल’ वाले समेलन में अज्ञेय, ताराशंकर बन्द्योपाध्याय, शिवराम कारन्त, समरेश बसु, फ़ादर कामिल बुल्के आदि के साथ-साथ यशपाल और उपेन्द्र नाथ अश्क जैसे प्रगतिशील साहित्यकार भी शामिल हुए। और चूँकि प्रगतिशीलों की आपसी कशमकश भी कोई छिपी हुई चीज़ नहीं थी, इसलिए भी किसी बाहरी व्यक्ति को किसी साहित्यकार विशेष की प्रतिबद्धता के बारे में भ्रम हो सकता था जो प्रभाकर पाध्ये को भी हुआ होगा, क्योंकि उन्होंने धन्यवाद ज्ञापन के जो पत्र भेजे, उनमें से एक पत्र ऐसे ही प्रगतिशील लेखक के नाम था जिन्होंने वह पत्र अमृत राय को सौंप दिया और इलाहाबाद से निकलने वाली ‘कहानी’ पत्रिका के जुलाई 1957 के अंक में अमृत राय ने इस तोड़क-फोड़क गतिविधि का भाँडा ऐन बीच चौराहे फोड़ दिया।


ज्ञानरंजन के बहाने - ९

अधूरी लड़ाइयों के पार-२

‘साहित्य और राज्याश्रय’ का प्रश्न कोई नया प्रश्न नहीं था। शायद हर युग में लेखकों को अपने साहित्यिक कर्म के लिए इस प्रश्न को और इसके उत्तर को परिभाषित करना पड़ता रहा है। ‘सन्तन कौ कहा सीकरी सों काम’ की रट लेखक हर युग में लगाते आये हैं। इसलिए ‘साहित्य और राज्याश्रय’ के विषय पर एक परिगोष्ठी आयोजित करना बहुत उपयुक्त हो सकता था। लेकिन जब यह पता चले कि लेखकीय स्वाधीनता का बिगुल फूंकने वालों के पीछे एक ऐसी सत्ता का हाथ है, जो लगातार लेखकीय स्वाधीनता का हनन करती रही है, तब ज़रूर इस तरह के उपक्रम एक ‘सिनिस्टर’ शक्ल अख़्तियार कर लेते हैं।

यहाँ अमरीका में मैकार्थी युग की पाबन्दियों और ख़ुफ़ियागीरी की याद दिलाने की ज़रूरत नहीं, न इस बात की कि दूसरे महायुद्ध के ख़त्म होने के बाद अमरीका में लेखकों और विचारकों के सिलसिले में सन्देह और दबाव का जो वातावरण था, उसी के चलते पॉल रोबसन जैसे नीग्रो गायक को प्रतिबन्धों का सामना करना पड़ा था और हावर्ड फ़ास्ट के विश्व प्रसिद्ध उपन्यास ‘स्पार्टाकस’ को कोई प्रकाशक छापने को तैयार नहीं हुआ था। नतीजतन फ़ास्ट को यह उपन्यास अपने संसाधनों से प्रकाशित और वितरित करना पड़ा था। अमरीकी सेनेट की ‘हाउस अन-अमेरिकन ऐक्टिविटीज़ कमेटी’ अपने ‘डायन खोजू अभियान’ मे जिस-तिस लेखक या संस्कृतिकर्मी को दाग़ी घोषित करके, उसे मध्ययुगीन धार्मिक न्यायाधिकरणों जैसी पूछ-ताछ का सामना करने पर विवश कर रही थी।

बहरहाल, किस्से को आगे बढ़ायें तो ‘परिमल’ की इस राष्ट्रीय परिगोष्ठी के बाद उसी वर्ष इलाहाबाद में 15-17 दिसम्बर 1957 को ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ की ओर से एक साहित्यकार सम्मेलन आहूत हुआ। विषय रखा गया ‘स्वाधीन भारत और लेखक।’ चूँकि उन दिनों धड़ेबन्दी ज़ोरों पर थी और ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ और ‘परिमल’ के बीच एक रस्साकशी बराबर चल रही थी, इसलिए ज़ाहिरा तौर पर इस दूसरे साहित्यकार सम्मेलन को ले कर आरोपों-प्रत्यारोपों, अफ़वाहों, अनुमानों और अटकलों का बाज़ार गर्म हो गया।

कुछ पुराने प्रगतिशील जो धीरे-धीरे इतने पुराने पड़ चुके थे कि ‘परिमल’ के नज़दीक जा पहुँचे थे, इस सम्मेलन को ले कर तरह-तरह की शंकाएँ प्रकट करने लगे। नेमिचन्द्र जैन ने ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में नसीहत-भरा एक लेख भी लिखा और अमृत राय ने ‘कहानी’ के नवम्बर 1957 के अंक में उसका एक लम्बा जवाब भी दिया। ‘परिमल’ की परिगोष्ठी की मुख्य चिन्ता अगर लेखक और राज्य का आपसी सम्बन्ध और उसका स्वरूप थी तो ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ वाले सम्मेलन का केन्द्र बिन्दु खुद अमृत राय के शब्दों में कुछ इस तरह का था :

"यह सम्मेलन ‘साहित्यकार को अपनी राजनीतिक विचारधारा निश्चित करने के लिए एकत्र होने का आमन्त्रण’ नहीं, युग और समाज और देश और समाज और देश और स्वयं अपने प्रति, अपनी कला के सबल-सुन्दर विकास के प्रति, अपने साहित्यिक, सांस्कृतिक दायित्व की निश्चित करने के लिए एकत्र होने का आमन्त्रण है, जो कि थ¨ड़ा-बहुत हमारे कार्यक्रम से भी परिलक्षित होता है, जिसकी रूपरेखा नीचे दी जाती है:

उद्घाटन और समापन अधिवेशनों के अलावा सम्मेलन में तीन गोष्ठियाँ होंगी, (1) सह-चिन्तन (2) रचना की प्रक्रिया और (3) आलोचना के मान।

‘सह-चिन्तन’ गोष्ठी में चार प्रश्नों पर विचार होगा, स्वाधीनता का अर्थ, राष्ट्र-निर्माण और लेखक, प्रगति और परम्परा (जिसके अन्तर्गत हम मुख्यतः नयी और पुरानी पीढ़ी के लेखकों के बीच सामंजस्य स्थापित करने के प्रश्न पर विचार करना चाहते हैं) तथा यथार्थवाद की समस्याएँ।

‘रचना की प्रक्रिया’ गोष्ठी में हम रचनाकार की ॰ष्टि से साहित्य की मुख्य विधाओं, कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक की रचना से सम्बद्ध सभी प्रश्नों पर विचार करेंगे।

‘आलोचना के मान’ शीर्षक गोष्ठी में विचारणीय विषय होंगे, आलोचना के मान, नये साहित्य के मूल्यांकन की समस्या, सामान्य पाठक व आलोचक तथा कलात्मक अभिरुचि।"

चूँकि इस सम्मेलन पर सवाल खड़े करने वालों में कुछ तत्कालीन और पूर्व प्रगतिशील भी थे, इसलिए अमृत राय को इतना ज़रूर स्वीकार करना पड़ा कि प्रगतिशील लेखकों के ‘आन्दोलन ने एक समय बड़ी संकीर्णतावादी भूलें कीं। उन्हीं भूलों का एक प्रतिफलन था साहित्य में राजनीति का अपच, और सो भी जीवन से निःसृत, जीवन से निसर्गतः सम्पृक्त राजनीति नहीं, ऊपर से थोपी हुई निष्प्राण राजनीति अर्थात विशुद्ध राजनीतिक वाग्जाल।’

किसी बड़ी कथा में पिरोयी गयी उपकथा की तरह इस लम्बे विषयान्तर में एक छोटा विषयान्तर और करते हुए एक और बात की याद दिलाना ज़रूरी है। उन दिनों ज़्यादातर साहित्यकार जब प्रगतिशील साहित्य और वामपन्थी सांस्कृतिक आन्दोलन की चर्चा करते थे तो उनकी मुराद ऐसे साहित्य और ऐसी संस्कृति से होती थी, जिसे कम्यूनिस्ट पार्टी का और यों सोवियत संघ का समर्थन हासिल हो या जो इनसे सम्बद्ध हो, हालाँकि 1949 में चीनी क्रान्ति हो चुकी थी और 1955 में बाण्डुंग सम्मेलन के मंच पर चीन अपनी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज करा चुका था। मार्क्सवाद और कम्यूनिज़्म पर सिर्फ़ सोवियत संघ का ही एकाधिकार नहीं रह गया था, बल्कि एशिया और अफ़्रीका के अनेक देश मुक्तिकामी विचारों के लिए चीन की ओर भी देखने लगे थे। कहीं-न-कहीं इसका असर भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी पर भी पड़ रहा था और यह अकारण नहीं है कि वह पार्टी जो 1925 में अपनी स्थापना के समय से चार दशकों तक तमाम तरह के दमन, प्रतिबन्ध, अफ़वाहों और आपसी मतभेदों के बावजूद बिखरी नहीं थी, वह अपनी चालीसवीं सालगिरह के आस-पास एक नहीं, दो-दो बार विभाजित हुई और आगे विभाजित होती ही चली गयी।

ज़ाहिर है, इन विभाजनों के बीज इससे पहले के दौर में ही छिपे हुए थे और इनका असर साहित्य पर भी पड़ रहा था। ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ की आपसी खींचा-तानी का नतीजा यह हुआ कि पहले से चली आ रही प्रगतिवादी धारा धीरे-धीरे मन्द होने लगी। ग़ैर-वामपन्थी साहित्यकारों ने तो ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ और कम्यूनिस्ट पार्टी तथा सोवियत संघ के गठजोड़ को स्थायी सम्बन्ध मान ही रखा था, स्वयं प्रगतिशील लेखक भी इस भ्रम के शिकार थे। नतीजे के तौर पर ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ ने चीन, क्यूबा, पूर्वी यूरोप और वियतनाम, आदि से नयी प्रेरणा और नया उत्साह ग्रहण करने की बजाय, स्तालिन युग के बाद की वैचारिक दलदल में फंस कर, ग़ैर-प्रगतिशील सांस्कृतिक प्रवृत्तियों के आगे घुटने टेक दिये। पहले दौर में अगर नयी कहानी और नयी कविता ने प्रगतिवादी धारा को अपदस्थ किया तो दूसरे दौर में अराजकता और मोहभंग एक विचार-शून्य भगदड़ की शक्ल में सामने आयी। अकविता, अकहानी, भूखी पीढ़ी, नंगी पीढ़ी और इसी तरह के आन्दोलन कुकुरमुत्तों की तरह उगे और फ़िज़ा को धुँधलाते चले गये। नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, रांगेय राघव, शिवदान सिंह चौहान, राहुल सांकृत्यायन जैसे साहित्यकार इस दौर में विस्मृत या अर्ध-विस्मृत कर दिये गये। साहित्य और संस्कृति के केन्द्रीय सवालों में जहाँ ‘राज्य और लेखक’ और ‘लेखक और स्वाधीनता’ जैसे विषय शामिल रहते थे, वहीं अपने अन्तिम दौर में सवाल ‘साहित्य क्यों’ की बुनियादी चिन्ता पर केन्द्रित हो गया, जैसा कि ‘परिमल’ के रजत पर्व (1970) में देखने को आया। इस समय तक प्रगतिशील आन्दोलन का बण्टाढार तो हो ही चुका था, ‘परिमल’ ने भी अपना रजत पर्व मनाने के बाद दुकान बढ़ा दी।


ज्ञानरंजन के बहाने - १०


अधूरी लड़ाइयों के पार- ३


आज यह देखना बहुत दिलचस्प जान पड़ता है कि ‘परिमल’ नाम की जो संस्था कला, मानव-मूल्यों, आन्तरिक प्रेरणा और पूर्ण स्वतन्त्रता की बातें करती थी, उसने एक ऐसा सम्मेलन आयोजित किया जिसके पहले वाक्य से ले कर समापन की घोषणा तक राजनीति प्रधान थी। 1970 के आरम्भ में ‘परिमल’ के रजत पर्व पर आयोजित सम्मेलन में ‘परिमल’ के संयोजकों की तरफ़ से एक विस्तृत लेखा-जोखा पेश किया गया था जो एक तरह से इस संस्था का समाधि-लेख भी साबित हुआ, क्योंकि उसके बाद ‘परिमल’ का - देसी ज़बान में कहें तो - ‘भट्ठा ही बैठ गया।’ यह भी हो सकता है कि यह संस्था तब तक जितना नुकसान कर सकती थी, कर चुकी थी। (आख़िर इस रजत पर्व में ‘परिमल’ के संयोजक साहित्य के सवालों को ‘साहित्य क्यों ?’ तक तो ले ही आये थे) इसलिए आगे इसकी उपयोगिता न रही। जो भी हो, यह देखने लायक है कि ‘परिमल’ का मूल मन्त्र क्या था। उसी के परिपत्र का उद्धरण दिया जाय तो -

‘परिमल साहित्य एवं साहित्यकार के किसी भी प्रकार के राजनैतिक, सांस्कृतिक, प्रशासनिक या वैयक्तिक प्रतिबन्ध को उस पर आरोपित करने का विरोधी है। वह मानता है कि लेखक का व्यक्तित्व उसकी रचनात्मक दृष्टि, उसकी सृजन-शक्ति, उसकी अपनी आन्तरिक अनुभूतियों का पुंजीभूत रूप है। सृजनात्मक क्षणों में उसके साथ उसकी अपनी नियति होती है और होता है उसका अपना निजी संकल्प। नियति का निर्माता वही होता है और संकल्प का स्वामित्व भी उसके अपने निजी अनुशासन से प्रजनित होता है। उसका नियन्ता न तो कोई बाह्य तन्त्र हो सकता है और न कोई अन्य सत्ता या शक्ति हो सकती है। वह स्वयम ही साक्षी होता है और साक्ष्य भी होता है। उसकी प्रामाणिकता न तो राजसत्ता से उद्भूत होती है और न वह पुरोहितवाद से अनुशासित होती है। न तो उसका कोई अतीत होता है और न भविष्य, न वर्तमान। लेखक अपनी अनुभूति के गहनतम क्षणों में काल की सीमा को भी लाँघ जाता है और ईश्वर की परिधि के आगे सम्पूर्ण सृष्टि की अनन्तता का नागरिक होता है और तब उसकी इस अनन्तता और विशालता में देश-काल भी वह देश-काल नहीं रह जाता तो केवल स्थूल रूप में नितान्त ख़ानों में बँटा दिखता है।’

‘परिमल’ की इस घोषणा पर अलग से कोई टिप्पणी करने की ज़रूरत नहीं। उसका वैचारिक संभ्रम, घाल-मेल और समाज की दुहाई देने के बाद भी उसकी समाज-विमुख आत्मपरकता आईने की तरह साफ़ है। इसी वैचारिक घाल-मेल का नतीजा है कि कला और मनुष्य पर तमाम बल देने के बावजूद ‘परिमल’ से जुड़े साहित्यकारों की निगाह बराबर राजनीति और साहित्येतर चीज़ों पर ही टिकी रही। 1957 में ‘साहित्य और राज्याश्रय’ पर आयोजित लेखक परिगोष्ठी में भी सारी चिन्ता राज्य-संरक्षण, सरकारी पुरस्कारों, सरकारी अकादमियों, राजकीय सेवाओं, विदेश जाने वाले शिष्ट मण्डलों पर ही केन्द्रित थी। राज्य यानी सत्ता और कला का आपसी सम्बन्ध कला की प्रैक्टिस यानी कला-कर्म को, विषय, शैली-शिल्प और कथ्य तथा सम्वेदना के लिहाज़ से कितना और किस तरह प्रभावित करता है, कर सकता है, इसके बुनियादी पहलू पर विचार नहीं हुआ।

उधर, ‘परिमल’ की इस राष्ट्रीय परिगोष्ठी के बाद उसी वर्ष इलाहाबाद में 15-17 दिसम्बर 1957 को ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ की ओर से जो साहित्यकार सम्मेलन आहूत हुआ, उस में इसका विलोम देखने को मिला। हालाँकि चिन्ता ‘स्वाधीन भारत और लेखक’ ही की थी, लेकिन उसमें बल ‘सहचिन्तन, रचना की प्रक्रिया और आलोचना के मान’ पर था। यह बात मुझे आज दिलचस्प लगती है कि जो संगठन राजनीति और कला के बीच एक अटूट सम्बन्ध मानता था, वह तो कला के प्रश्नों को उठा रहा था और जो संस्था कला की स्वायत्तता की बातें करती थी, वह राजनीति से आक्रान्त थी। इस सिलसिले में आयोजन की रूपरेखा स्पष्ट करते हुए, अमृत राय ने ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में छपी नेमिचन्द्र जैन के ‘चेतावनी भरे’ लेख के उत्तर में कहा था - "सम्मेलन के आवाहक खुले मन से सभी साहित्यकारों को आमन्त्रित करना चाहते हैं और कर रहे हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि मुझे इस बात का पता नहीं है कि साहित्यकारों में कई प्रश्नों पर बहुत मतभेद है, और न इसका यही मतलब है कि किसी एक विचारधारा के लोगों को बटोर लिया जाय। जहाँ तक मैं समझता हूँ, ऐसा करना सम्मेलन की सफलता नहीं, विफलता होगी।"

उन दिनों, जैसा कि मैंने कहा धड़ेबन्दी ज़ोरों पर थी और ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ और ‘परिमल’ के बीच बराबर एक रस्साकशी चल रही थी, इसलिए ज़ाहिरा तौर पर ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के सम्मेलन को ‘परिमल’ वाले लेखक सम्मेलन का जवाब समझा गया। नेमि जी ने भी ऐसी ही शंका प्रकट की थी जिसका जवाब देते हुए अमृत राय ने अपने काउण्टर-ऐफ़िडैविट के अन्त में लिखा था - "मुझे खेद है कि बन्धुवर नेमिचन्द्र ने प्रस्तावित सम्मेलन के विषय में अपने उद्गार व्यक्त करने में जो अतिरिक्त तत्परता दिखलायी है, वही तत्परता यदि उन्होंने आवश्यक तथ्यों की जानकारी प्राप्त करने में दिखायी होती, तो उनका लेख अधिक संगत होता और तब शायद उनको ऐसा भी न लगता कि यह प्रस्तावित साहित्यकार सम्मेलन उस ‘अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन’ का जवाब है, ‘जो कुछ मास पहले प्रयाग की एक अन्य सुप्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था ने किया था।’ इस विषय में मैं और कुछ न कह कर केवल इतना कहूँगा कि वह सम्मेलन केवल साहित्यकार और राज्याश्रय के प्रश्न को ले कर आहूत हुआ था और हमारे प्रस्तावित सम्मेलन की कार्य-सूची को ऊपर दी हुई रूप-रेखा से मिलान करने पर दोनों का अन्तर स्पष्ट हो जाता है।"

बीच की बात यह थी कि ‘परिमल’ वाला सम्मेलन भले ही किसी हद तक ’ऐफ़्रो एशियन लेखक सम्मेलन’ के बाद एक जवाबी कार्रवाई के तौर पर हुआ था, लेकिन ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ द्वारा आयोजित सम्मेलन प्रगतिवादी धारा के अन्दरूनी अन्तर्विरोधों के चलते बुलाया गया था। यों, व्यापक धरातल पर ये दोनों सम्मेलन उस युग की अपनी समस्याओं के चलते आयोजित हुए थे। ‘परिमल’ के रजत पर्व के अवसर पर प्रस्तुत आकलन में संयोजकों ने साफ़-साफ़ यह स्वीकार किया था कि -

"1936 से 1944 तक का समूचा साहित्यिक आन्दोलन या तो एक प्रकार की प्रतिबद्धता की माँग करता था या फिर छायावाद और रहस्यवाद के उस धूप-छाँव का आश्रय लेता था जिसमें शब्द, अर्थ, भाव-भंगिमा - सब कुछ एक निरर्थकता की सीमा पर पहचानहीन हो गये थे। ‘परिमल’ इन दोनों स्थितियों के विरोध के बीच जन्मा और उसने इन दोनों सीमाओं के बाहर एक नयी क्रान्ति को स्वर देना चाहा और क्रान्ति थी लेखक के मुक्त व्यक्तित्व की।"

लेकिन यह स्पष्ट स्वीकारोक्ति तो ‘परिमल’ के रजत पर्व पर की गयी। अघोषित रूप से ‘परिमलियन’ और ‘प्रगतिशील’ दोनों ख़ेमों के साहित्यकार शुरू ही से जानते थे कि ‘परिमल’ की स्थापना ही ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के बढ़ते हुए वर्चस्व को कम करने के लिए की गयी थी। इसलिए जहाँ प्रगतिशीलों का सम्मेलन अपने ही आन्दोलन के भीतर कट्टरपन्थियों और उदारवादियों की कशमकश का परिणाम था, वहीं ‘परिमल’ वाला सम्मेलन ’ऐफ़्रो एशियन लेखक सम्मेलन’ के रूप में प्रगतिवादियों की ताज़ातरीन हलचल की प्रतिक्रिया थी। और अब तो यह इतिहास की बात हो चुकी है कि अपने अन्तर्विरोधों को ख़ातिर-ख़्वाह ढंग से सुलटा न पाने के कारण प्रगतिशील लेखक आन्दोलन में आयी मन्दी को 1957 का वह यादगार सम्मेलन रोक नहीं पाया था। अगले बारह-तेरह वर्ष प्रगतिशील लेखक आन्दोलन के बिखराव के वर्ष थे। इस दौर के पहले हिस्से में नयी कविता और नयी कहानी के शोर-शराबे में पुराने साहित्यिक मूल्य ही नहीं, अनेक पुराने साहित्यकार भी किनारे पर दिये गये, समाज और साहित्यकार के आपसी रिश्ते पर आन्तरिक प्रेरणा और आत्मा के रहस्य की छानबीन को तरजीह दी जाने लगी और व्यक्तिवादी प्रवृत्तियों ने पहले की समाजोन्मुखी धारा को किनारे कर दिया। 1970 के आरम्भ में ‘परिमल’ का रजत पर्व इस पुराने युग का समापन माना जा सकता है।

ज्ञानरंजन के बहाने - ११


अधूरी लड़ाइयों के पार- ४


प्रगतिशील धारा के बिखराव और व्यक्तिवादी प्रवृत्तियों के उभार के पसमंज़र में ही 1970 का युवा लेखक सम्मेलन हो रहा था। चूँकि यह सम्मेलन ’सिर्फ़’ नामक पत्रिका की ओर से आयोजित था, इसलिए उसके पीछे उस ज़माने की सारी अराजकता, दिशाहीनता और वैचारिक विभ्रम तो था ही, ’सिर्फ़’ का वैचारिक ढुलमुलपन भी था।

’सिर्फ़’ के कुल जमा छै अंक निकले जिनमें से सिर्फ़ दो ऐसे थे जो युवा लेखक सम्मेलन के बाद प्रकाशित हुए थे। ये दो अंक भी न निकलते, अगर ’सिर्फ़’ के सम्पादक और सम्मेलन के प्रमुख आयोजक नन्द किशोर नवल को सम्मेलन की रपटें और लेखकों की प्रतिक्रियाएँ न छापनी होतीं और सम्मेलन के हुड़दंग, अराजकता, अव्यवस्था और असप लता पर एक लम्बी सफ़ाई न पेश करनी होती। यूँ भी नवल जी अल्पश्वासी व्यक्ति रहे हैं। स्वभाव से चिड़चिड़े, तुनुकमिज़ाज लेकिन अकृत्रिम सदाशयता से भरे हुए। वैचारिक स्पष्टता कभी उनका प्रमुख गुण नहीं रहा, जैसा कि उनके द्वारा सम्पादित पत्रिकाओं को देख कर लगता है। वे लम्बी दौड़ के घोड़े न हो कर गहरेबाज़ी के तुरंग रहे हैं। ’सिर्फ़’ से पहले वे शायद ‘ध्वजभंग’ से जुड़े थे, जिसके नाम ही से एक विद्रोही तेवर वाली पत्रिका का आभास मिलता था। हक़ीक़त यह थी कि उस ज़माने के और बहुत-से सम्पादकों की तरह ‘ध्वजभंग’ के सम्पादकों के भी दिमाग़ में इस विद्रोह नामक गतिविधि की कोई साफ़ तसवीर नहीं थी। बस एक अराजक और थोथा चना था जो घना-घना बज रहा था। लेकिन इसमें नवल जी का दोष क्या, हम में से बहुतों का यही हाल था। रहा ’सिर्फ़’ तो उसके सिर्फ़ छै अंक निकले और उसके बाद जब हालात साज़गार हुए तो नवल जी ने ‘कसौटी’ का सम्पादन किया - पहले ही से घोषणा करके कि वे उसके गिने हुए अंक ही निकालेंगे। यों, अंकों की संख्या किसी पत्रिका की उत्कृष्टता का कोई कसौटी नहीं है। चन्द्रभूषण तिवारी ने आरा जैसी जगह और अपने सीमित साधनों के बल पर ‘वाम’ के केवल तीन अंक निकाले जो आज तक अपनी वैचारिक प्रखरता के कारण संग्रहणीय बने हुए हैं। लेकिन जहाँ तक ’सिर्फ़’ का ताल्लुक है उसमें एक विलक्षण गपड़चौथी अस्पष्टता छायी हुई थी।

यही अस्पष्टता और अन्तर्विरोध उस परिपत्र में भी झलकता था, जो उन्होंने 1970 के युवा लेखक सम्मेलन के सिलसिले में जारी किया था। लगभग चार दशक बाद उस पर नज़र डालना दिलचस्प साबित हो सकता है -


युवा लेखक सम्मेलन (‘सिर्फ’ द्वारा आयोजित) 27 और 28 दिसम्बर, ’70 पटना

बंधुवर, सम्मेलन के आयोजन के मूल में निम्नलिखित तीन बातें हैं :

देश की वर्तमान परिस्थिति में युवा लेखक न केवल अपनी भूमिका स्पष्ट करें, बल्कि विद्रोह और परिवर्तन की लड़ाई में वे अपनी हिस्सेदारी का वह तरीका निश्चित करें, जो एक ओर उन्हें व्यापक जन-समुदाय से जोड़ता हो और दूसरी ओर उनके लेखन को अधिक-से-अधिक सार्थक बनाता हो। विचार और रचना के स्तर पर चलने वाले उस संघर्ष में, जो युवा और युवतर पीढ़ियों में एक बार फिर दिखलायी पड़ने लगा है, सच्चाई की खोज की जाए। बदले हुए सन्दर्भ में कविता, कहानी और आलोचना - जैसी विधाओं के ‘स्वरूप’ पर पुनर्विचार हो।

इस सम्मेलन में तीन प्रकार के लेखक भाग ले रहे हैं : वैसे लेखक, जो किसी-न-किसी रूप में युवा-लेखन से गहरे स्तर पर जुड़े रहे हैं; वैसे लेखक, जो स्वीकृत और स्थापित युवा लेखक हैं और वैसे लेखक, जो आज नहीं, कल के युवा लेखक हैं और जिन्होंने युवालेखन की रूढ़ियों को तोड़ कर नये क्षितिज उद्घाटित करने का दायित्व स्वीकार किया है। अनुभव और रचना के स्तर पर इन तीनों प्रकार के लेखकों का आपसी संवाद हमारा लक्ष्य है। इससे हम किसी निष्कर्ष पर भले न पहुँचें (शायद वह अभीष्ट भी नहीं है) पर अपनी समस्या को अवश्य ‘पहचान’ सकेंगे।

युवा पीढ़ी में प्रतिबद्ध और अप्रतिबद्ध रूप में कई प्रकार के लेखक सक्रिय हैं। उनमें परस्पर विरोधी विचार भी देखने को मिलते हैं। हमने यह मान कर कि अनुभव और रचना के स्तर पर विभिन्न विचारों के लेखकों में भी ‘एकता’ या ‘समानता’ है, इस सम्मेलन में हर प्रकार के लेखक को आमन्त्रित किया है। हम विद्रोह करने वाले लेखक को तो विद्रोही लेखक मानते ही हैं, केवल ऊब, या खीझ या निराशा, या विरक्ति व्यक्त करने वाले लेखक को भी विद्रोही लेखक मानते हैं। इसका कारण हमारा सही और ग़लत के फ़र्क को मिटा देने वाला उदारतावाद नहीं, बल्कि रचना की वह ‘विशेषता’ है, जो उसे विचारों से अलग कर एक दूसरे बिन्दु पर टिकाती है। यह बात दूसरी है कि जिस तरह ‘विद्रोही’ लेखक ग़लत होता है, उसी तरह ‘ऊबा हुआ’ या ‘निराश’ लेखक भी। इसके अलावा जिस प्रकार विद्रोह, केवल विद्रोह नहीं, बल्कि कहीं सृजन भी है, उसी प्रकार निषेध भी कहीं स्वीकार है। लेखन की इस जटिलता या रहस्यमयता को समझे बग़ैर युवा लेखकों के पक्षपातरहित मंच का निर्माण सम्भव नहीं था। हमने हर प्रकार के दुराग्रह से अपने को मुक्त रख कर सम्मेलन के अवसर को अधिक-से-अधिक सही और उपयोगी बनाने का प्रयत्न किया है।

युवा लेखकों के सामने आज बड़े-बड़े सवाल हैं। जो सवाल सबसे अहम है, वह यह कि आज लेखन की सार्थकता पर ही प्रश्नचिह्न लग गया है। ‘साहित्य क्यों ?’ का सवाल इसी प्रसंग में उठाया गया है और साहित्य को छोड़ कर ‘मुनासिब कार्रवाई’ की बात इसी प्रसंग में की गयी है। ‘युवा लेखकों की रण-नीति’ पर आयोजित गोष्ठी में यही विचारणीय है कि वर्तमान सन्दर्भ में लेखक अपने अस्तित्व को कैसे सार्थकता प्रदान कर सकता है, किस मोर्चे पर लड़ कर और यदि वह विभिन्न मोर्चों पर लड़ता है, तो उनमें परस्पर कैसा सम्बन्ध बना कर। यह स्पष्ट है कि उसे अब, केवल सोचना ही नहीं, बल्कि करना है। उस करने की दिशा और पद्धति क्या हो, ‘रण-नीति’ का यही अर्थ है।

साहित्य में सारा व्यापार भाषा के माध्यम से चलता है। इस भाषा का सर्वाधिक रचनात्मक रूप कविता में देखने को मिलता है, इसलिए कविता हमेशा उस भाषा की तलाश में रहती है, जो कि चीज़ों को ठीक-ठीक आख्यायित कर सके। ‘कविता: सही भाषा की तलाश’ इस विषय पर चिन्तन करके कविता के सही स्वरूप की ओर बढ़ा जा सकता है। इसी प्रकार कहानी केन्द्रीय विधा हो या नहीं, वह ऐसी विधा ज़रूर है जो वास्तविकता - वह वस्तु हो, या पात्र - को अधिक सही रूप में परिभाषित करती है। कविता में हम उसे ‘पहचानते’ हैं और कहानी में उसे सूक्ष्मता और ब्योरे में जा कर जानते हैं। कविता और कहानी दोनों के सामने आज नया सबक है, इसलिए उनकी इन दोनों विशेषताओं पर गम्भीरतापूर्वक सोचना फिर से ज़रूरी हो गया है।

आलोचना की हालत साहित्य में सबसे नाज़ुक है। यह एक तरफ़ रचना को जानने के लिए ही नहीं, बल्कि उसे पूर्णता प्रदान करने के लिए महत्वपूर्ण साधन है और दूसरी तरफ़ रचना के प्रसंग में एक फ़ालतू या बाहरी चीज़ है। ऐसी स्थिति में यदि साहित्य के किसी नये रूप का अस्तित्व ख़तरे में है, तो वह आलोचना का। हम चाहते हैं कि ‘आलोचना क्यों ?’ पर विचार करने के माध्यम से लेखक और आलोचक नये साहित्य द्वारा आलोचना के अस्तित्व को दी गयी चुनौती का सामना करें और उसकी सार्थकता या निरर्थकता से सम्बन्धित महत्वपूर्ण विचार सामने लायें। निश्चय ही कविता, कहानी और आलोचना से सम्बन्धित सभी चर्चाएँ समकालीन साहित्य के सन्दर्भ में होंगी, वर्ना उन्हें सनातन प्रश्न-चर्चा बना देने से कुछ नहीं मिलने वाला है।

शिवशंकर सिंह नन्दकिशोर नवल, ज्ञानेन्द्रपति अध्यक्ष शिवदेव मंत्री, आयोजन-समिति

इतने वर्षों बाद इस परिपत्र को दोबारा पढ़ते हुए बेसाख़्ता हँसी आती है और आश्चर्य होता है कि 1970 में हिन्दी के लेखकों ने इस परिपत्र को गम्भीरता से लिया था। ०० जहाँ तक 1957 के दो लेखक सम्मेलनों और 1970 के ‘परिमल रजत पर्व’ से सम्बन्धित परिपत्रों का सवाल है, उनसे सहमत या असहमत होने के बावजूद एक चीज़ बिलकुल साफ़ थी - कि आयोजक इन सम्मेलनों को किस उद्देश्य से कर रहे हैं और इसमें भाग लेने वाले लेखकों को क्या सोच कर आमन्त्रित कर रहे हैं। लेकिन ’सिर्फ़’ द्वारा जारी इस परिपत्र का घालमेल एकदम साफ़ नज़र आता है। आज तो और भी।

इसके पहले जो सम्मेलन हुए, उनमें कहीं भी यह नहीं कहा गया था कि ‘अनुभव और रचना के स्तर पर विभिन्न विचारों के लेखकों में भी एकता या समानता है।’ विचारों में अलगाव को स्वीकार करते हुए लेखकों को आमन्त्रित किया गया था। लेकिन अगर ’सिर्फ़’ उस पुरानी लीक से हट कर इस ‘एकता’ और ‘समानता’ पर बल न देता तो मनोहर श्याम जोशी के शब्द उधार ले कर कहें तो नवल जी का ‘वीरबालकवाद’ कैसे चरितार्थ होता। वे विद्रोह करने वाले लेखक को तो विद्रोही लेखक मान ही रहे थे। यह उनकी महती कृपा थी। इससे भी बड़ा औदार्य वे ‘केवल ऊब या खीझ या निराशा या विरक्ति व्यक्त करने वाले लेखक को भी विद्रोही लेखक’ मान कर प्रदर्शित कर रहे थे। और इसका कारण भी उन्होंने हाथ-के-हाथ बता देना मुनासिब समझा कि यह उनकी ओर से ‘सही और ग़लत के फ़र्क को मिटा देने वाला उदारतावाद’ नहीं है बल्कि ‘रचना की वह विशेषता है’ जो उसे ‘विचारों से अलग कर’ एक दूसरे बिन्दु पर टिकाती है। किस बिन्दु पर ? इसे स्पष्ट करते हुए नवल जी परिपत्र के आरम्भ में की गयी ‘रणनीति’ की चर्चा को भूल कर दार्शनिक प्रपत्तियों में चले गये। आश्चर्यलोक में ऐलिस की मानिन्द, तार्किक जगत से अचानक एक ऐसे संसार में जहाँ कुछ भी तर्कसिद्ध नहीं था । - और नवल जी की नज़र में यह बिन्दु क्या था ? जिस प्रकार विद्रोह विद्रोह नहीं, बल्कि कहीं सृजन भी है, उसी प्रकार निषेध भी कहीं स्वीकार है। और इस जटिलता या रहस्यमता को समझे बग़ैर ‘युवा लेखकों के पक्षपात रहित मंच का निर्माण सम्भव नहीं था।’

यानी कुल मिला कर यह जैनेन्द्र जी की उलटबाँसियों से भी ज़्यादा गूढ़ कुछ ऐसी दार्शनिक प्रपत्ति थी जो शेर और बकरी को एक ही घाट पर लाने की मुहिम में संलग्न थी, जो काम कि इससे पहले के किसी संगठन या आन्दोलन ने नहीं किया था।

इसी क्रम में चूँकि परिमल के रजत पर्व में ‘साहित्य क्यों ?’ का प्रश्न उठ चुका था, इसलिए ’सिर्फ़’ के इस युवा लेखक सम्मेलन में उसे भी शामिल कर लिया गया - यह कहते हुए कि आज लेखन की सार्थकता पर ही प्रश्न चिन्ह लग गया है। साहित्य को छोड़ कर ‘मुनासिब कार्रवाई’ की बात इसी प्रसंग में की भी गयी। यानी अगर लेखकों की संसद यह तय करे कि लेखन की अब कोई सार्थकता नहीं रह गयी है तो फिर दूसरे कुछ उपाय किये जा सकते हैं। चूँकि परिपत्र में इन उपायों की कोई बहुत स्पष्ट रूप-रेखा नहीं प्रस्तुत की गयी थी, इसलिए लेखकों को यह पूरी छूट थी कि वे अपने-अपने ढंग से इस ‘मुनासिब कार्रवाई’ को परिभाषित करें और अमल में लायें, जो काम कि उन्होंने सम्मेलन के दो दिनों में पूरी निष्ठा के साथ किया भी, जिसका ज़िक्र आगे होगा। यह अलग बात है कि इसी ‘मुनासिब कार्रवाई’ को ले कर बाद में तरह-तरह के प्रवाद-विवाद उठते रहे। 0 इस परिपत्र के साथ एक छोटा-सा पत्र और भी भेजा गया था जिसमें एक साप्ताहिक के प्रकाशन की भी योजना थी - बंधुवर, आगामी जनवरी, ’71 से हम एक साप्ताहिक का प्रकाशन करने जा रहे हैं। यह साप्ताहिक समाचार और विचार-साप्ताहिक होगा। इसका लक्ष्य होगा - वर्तमान राजनीति में जनता के पक्ष का समर्थन और विभिन्न पक्षों में उलझी हुई सच्चाइयों की खोज। यह जन-विरोधी राजनीति का हर प्रकार से मुकाबला करेगा और उन लोगों पर प्रहार करने से कभी नहीं चूकेगा, जो कि अनेक रूपों में जनता के साथ धोखाधड़ी करते हैं। समाजवाद एक अमूर्त चीज़ होती जा रही है। यह साप्ताहिक उसकी ठ¨स शकल उभार कर लोगों के सामने रखेगा और इसकी कोशिश करेगा कि उसकी पहचान कार्यों के द्वारा हो, शब्दों के द्वारा नहीं। कार्य ही वह कसौटी होगी जिस पर वह विभिन्न राजनीतिक दलों के चरित्र की परीक्षा करेगा। राजनीति के अलावा साहित्य और कला - इन क्षेत्रों की गतिविधियों से भी यह साप्ताहिक पूरा सरोकार रखेगा, ताकि राजनीतिक और वैचारिक आयामों के साथ-साथ यह देश की चेतना को सही सांस्कृतिक आयाम भी दे सके। आपसे अनुरोध है कि आप युवा लेखक सम्मेलन में पटना आवें तो प्रस्तावित साप्ताहिक के सम्बन्ध में अपने निश्चित सुझाव अपने साथ लाएँ। आप युवा लेखकों के सहयोग से ही उक्त साप्ताहिक का प्रकाशन सम्भव है। तभी वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है, अन्यथा नहीं। धन्यवाद। निवेदक

शिवशंकर सिंह नन्दकिशोर नवल, ज्ञानेन्द्र पति, शिवदेव अध्यक्ष मंत्री, आयोजन-समिति युवा लेखक सम्मेलन, पटना

जैसा कि अमूमन होता है, परिपत्रों को बहुत कम लोग ध्यान से पढ़ते हैं और मुझे यकीन है कि हमारी तरह सम्मेलन में भाग लेने वाले लगभग 90-95 प्रतिशत लोगों ने भी सिर्फ़ सरसरी नज़र से युवा लेखक सम्मेलन के परिपत्र को और उसके साथ संलग्न पत्र को देखा था। मेरे ख़याल में शायद उन्हीं 9-10 लोगों ने इस परिपत्र को ध्यान से पढ़ा होगा जिन्हें इस सम्मेलन के चार सत्रों में निबन्ध पाठ करने थे और जिनका उस प्रस्तावित साप्ताहिक से कुछ वास्ता था। बाकी तो सभी लोग हमेशा की तरह इस तर्क के आधार पर आये थे कि लेखक के वक्तव्य की तैयारी तो मंच पर आसीन होने के बाद शुरू होती है। और सम्मेलन में शामिल होने वाले दिग्गज आलोचक नामवर जी के बारे में तो यह मशहूर था कि उनके वक्तव्य का अथ ही तभी लिखा जाता है जब उनसे पहले का वक्ता इति करने के बाद लौट कर अपने स्थान पर जा रहा होता है। यों, सम्मेलनों का एक वतीरा है कि जिसको जो कहना होता है, वह वही कहता है, उसे इसकी फ़िक्र नहीं होती कि उसके पहले किसने क्या कहा है और उसके बाद कौन क्या कहेगा। वह मंच पर आता है, अपने पैंतरे दिखाता है, और फिर तपे हुए पटेबाज़ों की तरह अखाड़े की मुँडेर पर जा बैठता है - यह देखने के लिए कि दूसरे पट्ठे अब कौन-सा पैंतरा दिखाते हैं। 1970 के युवा लेखक सम्मेलन में भी कुल मिला कर यही हुआ। लेकिन इसकी चर्चा आगे अपने क्रम में।


ज्ञानरंजन के बहाने - १२


अधूरी लड़ाइयों के पार- ५


40 वर्ष बीत गये हैं, स्मृति ने समय के साथ मिल कर जाने कैसी अबूझ प्रक्रिया से ऐसे जाले बुन दिये हैं जिन्हें भेद कर उस पार के दृश्य को देखना मुश्किल होता चला गया है। भादों की अँधेरी रात में बिजली की कौंध की तरह कुछ दृश्य अनायास चमक उठते हैं और अपने पीछे पहले से भी गहरा अँधेरा छोड़ जाते हैं। कभी-कभी कोई दृश्य या प्रसंग लम्बे समय तक टिका रहता है, मानो बिजली की एक कौंध दूसरी कई शाखाओं को शुरू करती हुई आकाश के एक सिरे से दूसरे सिरे तक तड़पती, थरथराती चली जाय। कई बार मैंने सोचा है कि उस दौर को जीवित, या कहा जाय कि पुनर्जीवित, करने का प्रयास काफ़ी कुछ ईसा मसीह द्वारा लज़ारस को पुनर्जीवित करने के प्रयत्न सरीखा है। कौन जाने कब्र से उठ कर जो कफ़न में लिपटा चला आयेगा, वह किस हालत में होगा ? इतने दिनों तक दफ़्न रहने के दौरान वक्त और कुदरत ने उसकी देह के साथ क्या कुछ नहीं कर दिया होगा। ज़मीन में गाड़े जाने और उस पार की दुनिया का नज़ारा कर लेने के बाद क्या वह दोबारा इस तरफ़ की दुनिया की ताब ला पायेगा या इधर आना भी चाहेगा ? स्मृतियों के साथ यही दिक्कत है। जिन्हें आप अक्सर याद करते हैं और दूसरों को बताना चाहते हैं, वे ठीक बताने के समय ग़ायब हो जाती हैं। कई बार ढेर सारी ऐसी स्मृतियाँ मस्तिष्क के थिर पानी पर भूसे के तिनकों की तरह उतराने लगती हैं, जिनका कोई ख़ास मतलब नहीं होता। शायद इसीलिए अनेक लोग स्मृतियों के बारे में एक बिलकुल ही अलग विचार रखते हैं। ज्ञान ने एक जगह लिखा है - ’स्मृति ज्यों-त्यों इतिहास नहीं है। वह लगातार विकृति की ओर बढ़ते-बढ़ते एक नये अजूबा संसार में पहुँच जाती है। स्मृति चमकाती और मुग्ध भी करती है और अवसाद भी देती है। कुछ, इसीलिए, मैं प्रारम्भ में ही इससे अलग-थलग रहा। एक साक्षात्कार में कथाकार बोर्खेस ने कहा है कि पहली बार किसी को याद करना उसको बदलना है, दूसरी बार, तीसरी बार याद करना काफ़ी बदलना है। जिस तरह कोई अनुवाद, उसका दूसरी और तीसरी भाषाओं में अनुवाद, और इसी तरह के सिलसिले।’

ज्ञान के व्यक्तित्व को देखते हुए, ख़ास तौर पर अपनी उम्र के जिस दौर के सिलसिले में उसने ये पंक्तियाँ लिखीं हैं, इन पर मुझे आश्चर्य नहीं होता। वे उसके व्यक्तित्व के अनुरूप ही हैं। या कहा जाय कि उस समय जो उसका व्यक्तित्व था, उसके अनुरूप ठहरती हैं। मगर ज्ञान अब क्या महसूस करता है, यह मैं नहीं जानता। उसकी पुस्तक ‘कबाड़ख़ाना’ में शामिल कई टुकड़ों को देखूं तो उनमें स्मृति की झिलमिलाहट जगह-जगह नज़र आती हैं। कुछ तो ज्ञान के लाजवाब गद्य का कमाल है, लेकिन कोरा गद्य भी अन्तर की ऊष्मा के बिना सम्भव नहीं है। और ज्ञान के गद्य में तो एक अनोखी गरमाहट और चमक रहती है। इसलिए स्मृति का एक अपना महत्व तो है ही। स्मृति को ले कर दूसरा नज़रिया ज्ञान के साथी दूधनाथ का है। दूधनाथ के संस्मरणनुमा गद्य के कई टुकड़े मैंने उसके मुँह से सुने हैं और फिर उन्हें छपा हुआ पढ़ा है। मुझे हमेशा दूधनाथ के संस्मरणों में ’फ़िक्शन’ यानी ’गल्प’ का तत्व प्रचुर मात्रा में नज़र आया है। कई बार तबियत होती है कि ’लौट आ ओ धार’ पर पुराने ज़माने के उपन्यासों की तरह यह छपा होता तो अच्छा था कि - ‘इस पुस्तक के सभी पात्र और प्रसंग काल्पनिक हैं और किसी जीवित या मृत व्यक्ति से उनका साम्य संयोग माना जाये।’

जब मैंने यह बात ’लौट आ ओ धार’ के सन्दर्भ में कह दी थी तो दूधनाथ नाराज़ हो गया था। ख़ासा नाराज़। सवाल यह नहीं है कि आप एक फ़ोटोग्राफ़र की तरह बीते हुए दिनों के दृश्य पेश करते चले जायें और तभी वह मुकम्मल संस्मरण कहलाये। लेकिन दूधनाथ के संस्मरणों में, ख़ास तौर पर ‘लौट आ ओ धार’ वाले संस्मरणों में, समस्या दूसरी है। एक तो वहाँ अपने को बचाने या महिमा-मण्डित करने की कोशिश है, जो प्रवृत्ति ‘सुखान्त’ या ‘नमो अन्धकारम’ जैसी उसकी कहानियों में भी नज़र आती है। दूसरे, बहुत कुछ दबाया-छिपाया भी गया है। ऐसा, जो ख़ुद दूधनाथ को मालूम है, मगर वह कह नहीं रहा। मसलन, शमशेर जी के प्रेम-प्रसंग का एक लम्बा वृत्तान्त है जिसमें जगह-जगह एक ‘लड़की’ का ज़िक्र आता है। कभी उसे ‘लड़की’ कहा गया है, कभी ‘वह लड़की’ कभी ‘उस लड़की।’ लेकिन उसका नाम कहीं भी नहीं लिया गया है। कारण तो शायद दूधनाथ ही जानता होगा, मगर सभी लोग जो शमशेर जी और इलाहाबाद से परिचित हैं, उन्हें पता है कि यह ‘लड़की’ और कोई नहीं, स्वयं दूधनाथ की बड़ी साली प्रेमलता वर्मा थीं। इसी प्रसंग में आगे वात्स्यायन जी का भी ज़िक्र आया है और यह संकेत दिया गया है कि प्रेमलता का कुछ लगाव वात्स्यायन जी से भी था और इसी वजह से शमशेर जी और वात्स्यायन जी के बीच कुछ तनाव भी रहा। इस पूरे प्रसंग में प्रेमलता वर्मा का उल्लेख ख़ासे निगेटिव और अनचैरिटेबल भाव से किया गया है। दूधनाथ के सामने शायद दिक्कत यह भी रही होगी कि प्रेमलता का नाम लेने पर उसकी पत्नी के घरवालों पर भी कुछ छींटे पड़ने की सम्भावना थी, क्योंकि यह इलाहाबाद में सभी लोग जानते थे कि दूधनाथ के साले मलयज के घर पर साहित्यकारों का अच्छा-ख़ासा जमावड़ा रहता था। मलयज ‘परिमल’ के संयोजकों में थे, इसलिए ‘परिमल’ से जुड़े साहित्यकारों के साथ-साथ उनके घर शमशेर, प्रभात, दूधनाथ सिंह और इलाहाबाद प्रवास के दौरान वात्स्यायन आदि भी जाते रहते थे। कारण जो भी रहा हो, लेकिन दूधनाथ का ऐसा करना उस संस्मरण में वर्णित तथ्यों से भी ज़्यादा दूधनाथ के मोटिव को सन्दिग्ध बना देता है।

यह हम सब जानते हैं कि वक्त के साथ स्मृति भी धूमिल पड़ती है। कई बार उसमें कुछ जुड़-घट भी जाता है। कभी-कभी उसके साथ कुछ अद्भुत भी घटित होता है। लोग कहते हैं कि भाई, हम भी तो वहाँ थे, यह घटना ऐसे नहीं ऐसे हुई थी। हुई होगी। हो सकती है। मुझे इससे इनकार नहीं। लेकिन जो मैं बयान कर रहा हूँ, वह मेरा बयान है, मेरी आँखों से देखा हुआ, मेरी स्मृति में सँजोया हुआ और वह मेरे लिए महत्वपूर्ण है। और अगर मेरे लिए महत्वपूर्ण है - इतना महत्वपूर्ण कि मैं उसे याद करूँ तो इससे क्या फ़र्क पड़ता है कि उसमें कुछ ब्योरे दायें-बायें हो गये हों। आख़िर दूसरे लोग उन्हें सही नहीं कर देंगे भला। भूल जाने से तो बेहतर है, जैसा भी याद हो उसे दर्ज कर देना। 1970 का लेखक सम्मेलन ऐसा ही स्मृतियों का ढेर है। कुछ चीज़ें सिलसिलेवार ढंग से याद हैं, कुछ छोटे-छोटे दृश्यों की शक्ल में और कुछ महज़ मन पर पड़ी छापों की तरह। प्रकट ही इन्हें इसी तरह पेश करने की कोशिश की जा सकती है। यों ’सिर्फ़’ पत्रिका के दो अंक मौजूद हैं, जिनमें सम्मेलन की रपटें और भाग लेने वाले लेखकों के पत्रांश छपे थे, उनसे कुछ चीज़ों की तसदीक तो की ही जा सकती है। 0 40 बरस बीत गये हैं। दिल्ली से आ कर पटना होते हुए कलकत्ता जाने वाली अपर इण्डिया एक्सप्रेस अब रद्द कर दी गयी है। अनेक नयी रेलगाड़ियों ने उसे रेल यात्रा के स्मृति-लोक में धकेल दिया है। मगर उस ज़माने में, जब बंगलादेश की लड़ाई नहीं हुई थी, जब ग़रीबी हटाओ का नारा बुलन्द नहीं हुआ था, जब बैंकों के राष्ट्रीयकरण ने पूँजी के पहले-पहले संकट की दस्तकें नहीं दी थीं, जब हरित क्रान्ति ने पंजाब के किसानों के लिए पतन के द्वार नहीं खोले थे, और जब बंगाल के एक गुमनाम-से गाँव का नाम धीरे-धीरे क्रान्ति की तीर्थस्थलियों में दर्ज होता जा रहा था, इलाहाबाद से पटना जाने के लिए यही एक सुविधाजनक गाड़ी थी। दूसरी गाड़ियाँ या तो गया होते हुए कलकत्ते का रुख़ करती थीं, या फिर रात के ऐसे प्रहरों में इलाहाबाद से हो कर गुज़रती थीं, जब किताबों या किसी और चीज़ के एजेण्ट या सफ़री सेल्समैन तो गाड़ी में सवार होने की सोच सकते थे ताकि अगली सुबह समय से ही ‘नया स्टेशन कर सकें,’ मगर लेखकों के लिए, और ख़ास तौर पर ऐसे लेखकों के लिए जो युवा लेखक सम्मेलन में शामिल होने पटना जा रहे हों, ऐसी ज़हमत और फ़ज़ीहत मोल लेना एक नितान्त असाहित्यिक उपक्रम माना जा सकता था। चुनांचे एक अघोषित-से फ़ैसले के तहत इलाहाबाद के जत्थे ने यही तय किया था कि सुबह अपर इण्डिया एक्सप्रेस पकड़ कर दोपहर के 2-2.30 बजे तक पटना पहुँचा जायेगा। इलाहाबाद से काफ़ी लोग पटना जा रहे थे - ज्ञानरंजन, रवीन्द्र कालिया, ममता, दूधनाथ, सतीश जमाली, ज्ञान प्रकाश, अरविन्द कृष्ण मेहरोत्रा और उसकी पत्नी वन्दना, अजय सिंह, और हम तीन तिलंगे - मैं, वीरेन और रमेन्द्र त्रिपाठी! जत्था क्या था, एक पूरी-की-पूरी बटालियन थी।