सत्ताईस साल की साँवली लड़की / दीपक श्रीवास्तव
दो-तीन दिनों से घर की सुगबुगाहट से लग रहा था कि किस्सा वही पुराना है। माँ की बड़बड़ाहट बढ़ गई थी, पापा की चुप्पी भी! फोन किए जा रहे थे। मामा के फोन, मकान-मालिक कपूर अंकल के यहाँ आ रहे थे। माँ का बेवजह का दुलार, उनका आकर सर पर हाथ फेरना भी दिन में कई बार हो रहा था। मामा के फोन से लग रहा था कि इस बार का वेन्यू इलाहाबाद होना चाहिए।
यदि इस बार मैं दिखाई जाती हूँ, तो मेरे शादी डाटा-बेस फाइल की यह सत्रहवीं इंट्री होगी।
जब हमें कंप्यूटर डिप्लोमा में पहली बार डाटा बेस मैनेजमेंट सिस्टम, अमित सर या अमित ने पढ़ाया और उसकी लैब मे अपने मन से कोई डेटा बेस फाइल बनाने को कहा गया, तब मैंने अपनी शादी डाटा बेस फाइल ही बनाई। जिसकी फील्ड्स थीं, देखने वाले लड़कों के नाम, उनकी नौकरी, देखने वाली जगह, आए हुए रिश्तेदारों की संख्या, माँगा गया दहेज तथा आखिरी फील्ड रिर्माक थी। रिर्माक का कालम सबमें खाली था।
अमित और मेरे परिचय की वजह भी यही फाइल थी। मैने जब पहली बार यह फाइल बनाई तब उसमें ग्यारह रिकार्डस थे। अब अपेंड (बढ़कर) होकर सोलह हो गए हैं। घर की गतिविधियों से लगता है कि सत्रहवाँ रिकार्ड भी जल्द ही बढ़ाया जाने वाला है।
सत्ताईस साल की साँवली लड़की सत्रह बार तो दिखाई दी जा सकती है।
मुझे मानसिक रूप से तैयार करने की प्रक्रिया चल रही थी। माँ मेरे आस-पास घूम रहीं थीं। पापा दूर से ही मेरी प्रतिक्रिया पर नजर रख रहे थे। मैं जानती थी क्या कहा जाने वाला है - हर बार मुझे दिखाए जाने से पहले इन चीजों की पुनरावृत्ति होती है। माँ-पापा दोनों यही डरते हैं कि दिखाए जाने के विरोध में कही मैं 'ना' न कर दूँ। यह चिंता उनके व्यवहार में मुझे दिखती है।
इसके पीछे एक घटना है। जब आठवीं बार दिखाए जाने का प्रस्ताव मेरे पास आया, तब मैंने स्पष्ट रुप से इनकार कर दिया। पिछली हर बार से 'शायद अगली बार तय हो जाए' की प्रस्तावना पर मुझे तैयार किया जा रहा था।
शनिवार का दिन था। पापा छुट्टी लेकर घर पर ही थे। उनके ही किसी दोस्त के परिचित के यहाँ बात चल रही थी। मेरे इनकार कर देने पर घर में सन्नाटा छा गया। माँ-पापा किसी ने मुझसे कुछ नहीं कहा। शाम के तीन बजे थे। पापा के दोस्त के यहाँ शाम सात बजे सत्यनारायण भगवान की पूजा में मेरे दर्शन का सुख लोग लेने वाले थे।
मै अपने कमरे में जाकर लेट गई। माँ कुछ देर खटर-पटर करती रहीं फिर बगल के मिश्राइन आंटी के यहाँ चली गई। पापा दूसरे कमरे में खामोश बैठे रहे। मुझे समझाने कोई नहीं आया।
पाँच बजे किचन से कुछ बर्तन की आवाजें आई। मैं वहाँ गई। पापा चाय बनाने की तैयारी कर रहे थे।
मैंने उनसे कहा, 'लाइए, पापा मैं बना दूँ।'
वो घूमें और मुझसे नजर बचा कर चले गए। उनकी आखें सूजी थीं और अभी भी डबडबाईं थीं।
अट्ठावन साल का आदमी अपनी बेटी, समाज, शादी की व्यवस्था, और उनके अंतर्विरोधों से तालमेल नहीं बैठा पाने की विवशता से रो रहा था। उसकी कोई गलती नहीं थी।
मुझे शादी की पूरी व्यवस्था से ही नफरत हो गई। अपनी शादी को लेकर पहली और आखिरी बार उस दिन किचन में मैं फूट-फूट कर रोई। चाय बनाकर पापा को देने बाहर आई और जाने की सहमति मैंने दे दी।
पापा को कोई खुशी नहीं हुई।
उसके बाद, मैने कभी 'ना' नहीं किया।
दिखाए जाने के बाद का घटनाक्रम निराशाजनक होता है। लड़के वालों का जब जवाब आ जाता है, तब पापा मुझसे मुँह छिपाए घूमते हैं। हमेशा बोलती रहने वाली माँ भी कुछ दिन चुप रहतीं हैं।
उन दिनों, मेरी अपनी दुनिया में दखल देने वाला कोई नहीं होता है। जब कभी आइने के सामने खड़ी होती हूँ, सामने खड़ी लड़की को देखती हूँ। साँवला-सा गोल चेहरा, छोटी-सी नाक, नाक और माथे पर पसीने की बूँद, औसत आखें, साधारण से गाल, छोटी सी ठोढ़ी, उस पर एक काला तिल और माथे पर ढेर सारे प्रश्नवाचक चिह्न। जया भाभी कहती है कि तुम्हारी स्किन आयली है। इसलिए उस पर मेकअप करना कठिन है। अब आयली स्किन तो आयली ही रहेगी। उसमें मैं क्या कर सकती हूँ।
पसंद नहीं किए जाने से पहले मुझे बहुत कष्ट होता था। अंदर कुछ मर जाता था। आँसू पसीजते जरुर थे, लेकिन मैं उन्हें आँखों की बजाय गले से उतारती थी। हालाँकि, मेरा सौंदर्य, मेरी शादी तय न होने का एकमात्र कारण नहीं है। लेकिन, बार-बार की अस्वीकृति मेरे अंसुदर होने के बोध को कुरेदती है।
अब मुझे कोई चोट नहीं पहुचती है। मैं सबको माफ भी कर देती हूँ। उन सभी लड़को को जो मुझे देखने आते हैं। उनके माँ-बाप, भाई-बहन, बहनोई, चाचा-चाची, बुआ-फूफा, मौसा-मौसी, लड़के के दोस्त, भाइयों के दोस्त, बहनों के दोस्त, दोस्तों के दोस्त। सभी को, मैं माफ कर देती हूँ।
ईश्वर से भी उनको माफी दिलवा देती हूँ। ईश्वर में, मेरी अब कोई निजी श्रद्धा तो नहीं है। फिर भी उन लोगों के पास उनका अपना ईश्वर तो होगा।
माँ दोपहर में मेरे पास आई।
बिना किसी भूमिका के उन्होंने कहा, 'राजिंदर ने इलाहाबाद में एक लड़का देखा है। लड़के वाले तुम्हें देखना चाहते हैं, रविवार को इलाहाबाद चलना है।'
थोड़ी देर बैठी रहीं। फिर मेरे बाल सहलाने लगीं। मै माँ के कष्ट को समझती हूँ। मेरी माँ समझौते कम ही करती हैं। हम लोगों के लखनऊ में बसने का निर्णय उनका ही था। गाँव के खेत बेचने का निर्णय भी उन्ही का था। चाचा इससे नाराज भी हो गए और गाँव से हमारे संबंध खत्म हो गए। माँ ने किसी की परवाह नहीं की थी। मेरी शादी ही मेरी माँ के लिए अविजित लक्ष्य बन गया है। माँ ने तो अब आस-पड़ोस और रिश्तेदारियों में जाना भी कम कर दिया है। जहाँ भी जाती है, लोग, मेरी शादी की चर्चा छेड़ देते है। कुछ लोग जानकारी के लिए और कुछ लोग जानबूझ कर।
शाम तक जया भाभी भी आ गई। वो मेरी सौंदर्य विशेषज्ञा हैं। माँ ऐसी किसी जरूरत में उन्हें बुला लेती है। मेकअप के कुछ टोटके वह मेरे साथ करती हैं। पिछली कई बार से उनकी मुख्य सलाह यही थी कि मैं अपने लंबे और काले बाल कटवा लूँ। उनके अनुसार इससे मेरा चेहरा और निखर जाएगा। मैने इसके लिए 'ना' कर दिया। सौंदर्य प्रतिमान में आनेवाले एकमात्र घटक से अपने आपको मैं कैसे वंचित कर सकती हूँ?
सुबह नींद जल्दी खुल गई। आज अमित से भी मिलना है। पापा कमरे पर बैठे चाय पी रहे थे। वह बहुत सुबह ही उठते है। टहलने जाते है, और उधर से दूध लेकर आते है। माँ देर से उठती है। सुबह की चाय पापा ही बनाते हैं। पापा के लिए सबसे बड़ा मनोरंजन, छज्जे पर बैठ कर चाय पीना और अखबार पढ़ना है। अखबार अभी आया नहीं था।
पापा खाना खाकर नौ बजे साइकिल से दफ्तर निकल जाते हैं। पापा अभी साइकिल से ही चलते हैं। उसका कारण मेरी शादी है। पिछले दस वर्षो में मेरे घर में कोई पूँजी निवेश नहीं किया गया। मेरे घर में अभी भी ब्लेक एंड व्हाइट टीवी है। केबल कनेक्शन तक नहीं है। पिछले दस वर्षो से हर खर्च इसलिए रोका गया कि रज्जो की शादी के बाद ही कोई नया सामान घर में आएगा।
पापा दो साल बाद रिटायर हो जाएँगे। पापा मत्स्य विभाग में लिपिक है। उनके जीपीएफ एकाउंट में पिछले महीने तक तीन लाख सत्ताईस हजार आठ सौ चालीस रुपए है। मेरे अर्थात कुमारी सविता उर्फ रज्जो की शादी के लिए खोले एकाउंट में दो लाख चौबीस हजार तीन सौ बयालिस रुपए है। यही, मेरे परिवार की कुल जमा पूँजी है। गाँव से आने के बाद हम पिछले बाईस साल से इसी किराए के मकान में रह रहे हैं। मेरी शादी के बाद ही किसी मकान के बारे में मेरे घर वाले सोच सकते हैं।
मैं पापा के करीब आ गई। पापा दूर आकाश में देख रहे थे। मेरी शादी की असफलता के लिए पापा अपने-आपको दोषी मानते हैं। उन्हें लगता है कि अगर उनके पास ज्यादा पैसा रहता तो मेरी शादी हो जाती। लड़के वालो की माँग जब उनकी सीमा में नहीं रहती तब बेबस हो जाते हैं। अपना सब कुछ दे देने के लिए तैयार होने के बावजूद लड़के वालों की माँग की भूख खत्म नहीं होती है !
पापा पिछले दस सालों से या शायद मेरे पैदा होने से ही सिर्फ और सिर्फ मेरी शादी के बारे में सोच रहे हैं। उनके जीवन की धुरी मेरी शादी के इर्द-गिर्द ही घूम रही है।
पापा मुझे बेहद प्यार करते हैं शायद भैया से भी ज्यादा। पापा ने आज तक मुझे किसी काम के लिए मना नहीं किया। कंप्यूटर डिप्लोमा के लिए भी नहीं, हालाँकि, उसमें बीस हजार रुपए लगे। मेरी शक्ल पापा से मिलती है। कहते है, जिन लड़कियों की शक्ल उनके पिता से मिलती है, वो अपने पिता के लिए भाग्यशाली होती हैं। मैं उनके लिए भाग्यशाली नहीं रही हेूँ। अभी भी दुख दे रही हूँ।
पापा को देखते हुए मेरे भीतर प्यार, दया, सहानुभूति और ममता का मिला जुला भाव उमड़ने लगा।
मैं उठी और मैंने पापा के गाल को चूम लिया। बड़ी दाढ़ी की चुभन महसूस हुई। मुझे लगा कि मेरे इस लाड़ से पापा को आश्चर्य होगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वो मेरी तरफ देख कर मुस्कराने लगे। एक निष्क्लांत मुस्कान।
कितना सहते हैं, मेरे पापा। घर में भी सभी उन्ही को दोषी बनाते है। अभी, पिछले महीने भैया आए थे। भैया मुझसे दस साल बड़े हैं और दिल्ली में नौकरी करते है। भैया चालाक हैं। वो आते ही पापा पर मेरी शादी को लेकर आक्रामक मुद्रा में चढ़ बैठे। कहने लगे कि उन्होंने दिल्ली में कई जगह मेरी शादी की बात चलाई है। मुझे हँसी आई, क्योंकि, फोटो तो वो मेरी एक ही ले गए थे।
देर तक छज्जे पर बैठ कर मैं और पापा फिल्मों की बाते करते रहे।
दस बजे मैं तैयार होकर घर से निकली। युनिर्वसिटी भी जाना था। मैने इंग्लिश में प्रथम श्रेणी में एमए किया है। अब सोच रही थी कि पीएचडी कर लूँ। डिपार्टमेंट गई लेकिन प्रोफेसर सेन से मुलाकात नहीं हो सकी।
अमित से भी 'ग्रीनहट' में मिलना तय था। इन्स्टिट्यूट गई। अमित अभी क्लास ले रहा था। मै लाईब्रेरी में बैठ गई। उससे मिलने की यह मेरी दूसरी पसंदीदा जगह है। वहाँ पता लगा कि उसको अभी दो क्लास और पढ़ाना है। इसलिए मैं घर आ गई ।
उसने कंप्यूटर विज्ञान में बीटेक कर रखा है। वह यहाँ पिछले दो सालों से पढ़ा रहा है। हालाँकि मेरा डिप्लोमा खत्म हुए सात महीने हो गए, लेकिन मेरी मुलाकात अमित से बनी रही।
अमित कुछ ही दिनों में विदेश चला जाएगा। यूएसए का वीसा मिलना अब कठिन है, इसलिए उसके पापा प्रयास कर रहे हैं कि कनाडा का वीसा मिल जाए। कनाडा का वीसा मिलना आसान है। उसमें एक स्पांसर की जरूरत रहती है। अमित के मौसा उसे स्पांसर कर देगें। उसके पापा ओर मौसा पैसे का लेन-देन आपस में कर लेंगे। अमित के पापा सिंचाई विभाग में बड़े पद पर है।
देखने में सुंदर है, अमित। गोरा चेहरा, उँचा मस्तक, सुंदर ग्रीवा, जैसे पात्र शिवानी की कहानियों में आते हैं। उसकी रुचि मुझमें क्यों हुई। यह मैं नहीं जानती। वो मुझे पढ़ाता था। मेरी शादी की डाटा बेस फाइल जब उसने देखी तो बहुत देर तक देखता पढ़ता रहा था। उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं की। वैसे भी उसकी प्रतिक्रिया को पढ़ पाना मुश्किल होता है। हमारी घनिष्ठता उसके बाद बढ़ती गई। हम रेस्तराँ में चाय पीते या फिर लाइब्रेरी मे मिलते। हम बाहर भी कार्यक्रमों, आयोजनों, बुक-फेयर, पुष्प-प्रर्दशनियों में भी साथ जाते रहते। इस शहर में कुछ न कुछ ऐसा होता ही रहता है। अमित के साथ होने पर ज्यादा मैं ही बोलती हूँ। उसके दोस्त इस शहर में नहीं के बराबर हैं। उसकी पढ़ाई लगातार इस शहर के बाहर हुई, शायद, इसीलिए।
अमित के साथ अपने रिश्ते को मैं कभी पारिभाषित नहीं कर पाई। अमित का साथ मुझे अच्छा लगता है, जितनी देर मैं उसके साथ रहती हूँ जीवन के वो पल जीवंत लगते है। घर पर भी कभी-कभी उसकी याद आती है। सपनों में भी वह आता है। लेकिन अपने भुलक्कड़पन से मुझे यह याद नहीं रहता था कि वाकई उन सपनों में होता क्या था?
अमित ने कभी जाहिर नहीं होने दिया कि उसके मन में क्या है? कभी-कभी बैठे हुए या फिल्म देखते समय उसका हाथ मेरे हाथ पर आता जरूर था। एक-दो बार सिनेमाहाल में अँधेरे में उसके उँगलियों की पकड़ को अपने पोरों पर मैंने महसूस किया। मैंने भी अपना हाथ वहीं रहने दिया था। वह पकड़ पूरे फिल्म भर कसती और ढीली होती रही। बात उससे आगे कभी नहीं बढ़ी, उजाले के बाद सब कुछ खो जाता था।
ऐसा नहीं था कि मैं अपने शरीर और उसके अनुभवों से अनभिज्ञ थी। यह पुरुष समाज, सत्ताईस साल की लड़की को, भले ही वह साँवली क्यों न हो, सभी शारीरिक व इंद्रिय अनुभूतियों से परिचित करा ही देता है।
मैने कभी प्रेम नहीं किया था। प्रेम के अनुभवों से मै अनभिज्ञ थी। आज तक मुझे किसी ने 'आई लव यू' का प्रचलित डायलाग भी नहीं कहा है। फिल्मों में मैने देखा था और किस्से कहानियों में पढ़ा था कि नायक-नायिका एक दूसरे की स्वीकृति के बाद ही प्रेम संबंधी गतिविधियों में संलग्न होते हैं।
अमित की तरफ से ऐसी कोई स्वीकृति नहीं आई थी।
अमित मेरी शादी की समस्या से वाकिफ था। उसका कहना था कि शादी करना कोई जरूरी तो नहीं है। मै उसे समझा नहीं सकती थी कि जिस समाज में मै रहती हूँ, वहाँ शादी करना कितनी बड़ी बाध्यता है !
एक दिन उसने पूछा कि लड़के वाले किस तरह के सवाल करते हैं?
मैने उसे तरह-तरह के सवालों के बारे में बताया। वैसे भी इस क्षेत्र में, मै काफी अनुभवी हूँ।
तब उसने कहा कि जब कोई लड़का ज्यादा सवाल करे तो थोड़ी देर बाद तुम कहना, 'जरा आप खड़े होइए।'
वह कहेगा, 'क्यों?'
तब तुम कहना, 'आपके पीछे दुम है क्या? अभी मुझे हिलती हुई नजर आई थी।'
मुझे बहुत हँसी आई।
आज अमित से मैं मिल भी नहीं पाई। मैं उसे बता भी नहीं पाई कि कल मुझे इलाहाबाद जाना है अपने सत्रहवें अभियान पर।
हम सुबह की गाड़ी से इलाहाबाद पहुँच गए। मै, माँ और पापा। मामा, माँ से काफी छोटे है। मामा-मामी माँ की इज्जत करते है। मामी, माँ के सामने बैठती तक नहीं है।
मुझे दिखाने का कार्यक्रम शाम पाँच बजे सिविल लाइन वाले हनुमान मंदिर पर था। मैं यहाँ दूसरी बार दिखाई जा रही थी। मंदिर के जगुराफिये से मैं वाकिफ थी। मुख्य मंदिर के पीछे एक पार्कनुमा जगह है, यहाँ लोग बैठते है। हम लोग शाम को यथासमय पहुँच गए। करीब आधा घंटा बाद वो लोग दिखे।
मामाजी और पापा उन्हें ससम्मान बुला कर लाए। लड़का क्या, वो आदमी जैसा था। मै ही कौन सी षोडसी थी। उसके साथ उसके माँ, पिता, भाई, शादी शुदा बहन और उसका पति था। औपचारिक बातचीत होने लगी।
मैने हल्के फिरोजी रंग का सूट पहना था और अधिकांश समय मेरी गर्दन नीचे ही थी। लड़के का पिता बेवजह ठहाके लगा कर हँस रहा था। कुछ देर बाद लड़के की बहन, माँ के पास आकर फुसफुसाई। लड़का अकेले में मुझसे मिलना चाहता था।
माँ ने कहा, 'जाओ बेटा टहल आओ।'
मैं उठी और चल दी।
लड़के के पिता ने फिर जोरदार ठहाका लगाया ओर कहा, 'हमारे जमाने में तो यह आनंद नहीं था।'
मैं उन लोगों से दूर जाकर एक बेंच पर बैठ गई। पीछे-पीछे राजकुमार साहब भी आ गए और बगल में बैठ गए। मेरी आँखें अभी भी नीचे थी। उसने नीले रंग की शर्ट और क्रीम रंग की पैंट पहन रखी थी।
एकाएक मुझे अमित की दुम वाली बात याद आ गई । मुझे हँसी आने लगी। मेरी इच्छा हुई कि देखें इसके पास दुम है या नहीं !
मैने सर उठा कर उसे ध्यान से देखा। उसने अपने कपड़े और चेहरे पर अच्छी मेहनत कर रखी थी। कुल मिला कर ठीकठाक ही था। मै जब उसका जायजा ले रही थी, तो, कमर के पास नजर पहुँचने पर मुझे फिर दुम वाली बात याद आ गई और रोकते-रोकते भी मुझे हँसी आ गई।
अभी तक वह कुछ बोला भी नहीं था। मेरी इस अप्रत्याशित हँसी पर उसे आश्चर्य हुआ।
वह कसमसाया और फिर बोला, 'लखनऊ तो बड़ा शहर है। आप वहाँ कहाँ-कहाँ घूमी हैं?'
पहले ही सवाल से बजरिए स्वछंदता, चरित्र की जाँच पड़ताल मेरे लिए नया अनुभव नहीं था।
मैने कहा, 'जी, मैं अकेले कहीं नहीं जाती। किसी के साथ ही जाती हूँ, इसलिए रास्ते की पहचान मुझे नहीं है। पापा को मेरा अकेले आना-जाना पसंद नहीं है।'
उसने फिर पूछा, 'आपने एमए किया है?'
मैं पहले चुप रही फिर धीरे से कहा, 'जी हाँ, अंग्रेजी विषय में।'
उसने कहा, 'आगे क्या करेंगी?'
मैने हास्य के पुट के साथ कहा, 'जी, जैसा आप लोग चाहेंगे, वही करूँगी।
वह थोड़ा भ्रम की स्थिति में आ रहा था, उसे शायद लग रहा था कि मैं गंभीर नहीं हूँ।
उसने फिर पूछा, 'आपकी हाबीज क्या है?'
मैं आज कोई मौका छोड़ना नहीं चाहती थी।
मैने कहा, 'जी मुझे घर का कामकाज करना अच्छा लगता है। बुजुर्गों की सेवा करना अच्छा लगता है और खाली समय में सिलाई-कढ़ाई करती हूँ। समय मिलने पर भगवान के भजन सुनती हूँ।'
मेरी आवाज की तल्खी को अब वह समझ चुका था।
मेरी बहुत इच्छा हुई कि मैं उससे पूछूँ, 'क्या आपके पास दुम है?'
जज्ब कर गई।
मैने कहा, 'आप अपने बारे में बताइए?'
घबराहट उसके चेहरे पर नमूदार हो रही थी। तभी उसकी बहन आती दिखाई दी।
हम वापस उसी मजमे में पहुँचे। मामा जी की लाई मिठाई और समोसे लोग खा चुके थे। वहाँ भी सारी बातचीत के विषय चुक ही गए थे। वो लोग बाद में बात करने को कह विदा हो लिए।
मुझे ही परिणाम के बारे में पता था।
मैं मामा-मामी को जबरदस्ती सिविल लाइंस ले गई। वहाँ मैने दोसा और आइसक्रीम खाया। सब लोग मेरी खुशी को देखकर खुश हुए।
सुबह तीन बजे खटपट से मेरी नींद खुली। मामी, किचन में कुछ कर रहीं थीं। हम लोगों की ट्रेन छह बजे की थी। मैं किचेन में गई। मामी मेरे लिए सत्तू भर कर छानने वाली लिट्टी बना रही थीं। मुझे लिट्टी बेहद पसंद है। सब्जी बन चुकी थी।
मामी ने पूछा, 'बच्ची चाय पिएगी।' मामी मुझे बच्ची कहती हैं।
मैने 'नहीं' कहा और मामी की लिट्टी हटाकर छानने लगी।
मामी ने लाड़ से मुझसे कहा, 'मेरी सुंदर बच्ची की शादी तो राजकुमार से होगी।' मैं हँसने लगी।
लखनऊ पहुँच मैं कर दिन भर सोई। मैने सोचा कि कल युनिवर्सटी में प्रोफेसर सेन से मुलाकात भी करूँगी और अमित से तो अवश्य मिलना है। उसे इलाहाबाद का हाल भी सुनाना है।
अगले दिन युनिवर्सिटी गई। डिपार्टमेंट में प्रोफेसर सेन से मुलाकात हुई। रिसर्च में रजिस्ट्रेशन की बात करने पर उन्होंने मुश्किलें बताई। काफी अनुनय करने पर एक महीने के बाद आने को कहा। उन्हें विदेश जाना था। उनका लड़का वहीं पर है।
मैं इन्स्टिट्यूट गई। अमित लैब में प्रैक्टीकल करा रहा था। उसने मुझे इशारा कर रेस्तराँ में बैठने को कहा। वहाँ वह आधा घंटे बाद पहुँचा।
मैं उससे पाँच दिन बाद मिली थी। मुझे उससे बहुत कुछ बताना था।
आते ही उसने कहा, 'सुनो सविता, मेरा वीसा आ गया है। मैं एक हफ्ते में दिल्ली जा रहा हूँ। वहाँ पाँच हफ्ते का एडवान्स कंप्यूटर कोर्स कर, वहीं से अगले महीने की बाईस तारीख को मेरी फ्लाइट टोरंटो के लिए है। पापा ने सारा इंतजाम करा लिया है। आय यम वेरी हैप्पी, रियली हैप्पियर दैन हैप्पी।'
मैं उसे और उसकी खुशी देख रही थी। वो अब जा रहा है। मेरी जिंदगी से हमेशा के लिए, बहुत दूर। मैंने लड़कों की तरह हाथ मिला कर उसे शुभकामनाएँ दी। वह वाकई बहुत खुश था। उसने कॉफी का आर्डर दिया। हमेशा कम बोलने वाला अमित आज अनवरत बोले जा रहा था। ज्यादा बोलने वाली मैं, आज चुप थी। वह मुझे कनाडा के बारे में बता रहा था। उसने कहा कि छह महीने में वह कनाडा से यूएसए पहुँच जाएगा, उसके सपनों के देश में। उसके सारे सपने अब पूरे होने वाले थे।
अपनी खुशियों के इजहार से जब वह उबरा, तब, उसने मेरी तरफ ध्यान दिया। हम लोग कॉफी पी चुके थे।
उसने मेरे दोनों हाथ अपने हाथों में लिए ओर मेरी तरफ देख कर कहा, 'सविता, हम लोग अच्छे दोस्त रहे, हम लोगों ने अच्छा समय, साथ बिताया।'
उसके मजबूत गोरे हाथों में मेरे साँवली और छोटी-छोटी हथेलियाँ समा गई थी। मुझे लगा, आज रेस्तराँ में ज्यादा ही भीड़ और शोर है, या अमित की बात मुझे साफ नहीं सुनाई दे रही है। उसने शायद कुछ और कहा हो और शोर की वजह से, मुझे साफ-साफ सुनाई नहीं दिया हो। अमित को जाने की जल्दी थी। उसे बहुत सी तैयारियाँ करनी थी। उसने पैसा चुकाया और हम रेस्तराँ के बाहर आ गए। अमित ने मोटरसाइकिल र्स्टाट की, मुझे बाय कहा और चला गया।
टाइम्स आफ इंडिया के दफ्तर तक उसकी मोटरसाइकिल मुझे दिखाई दी। मैं उसकी मोटर साइकिल पर बहुत घूमी हूँ। कभी-कभी मुझे यह आशंका रहती थी कि अगर किसी परिचित ने देख लिया तो परेशानी हो सकती है। अब ऐसी कोई आशंका नहीं थी।
उसे तो जाना ही था, आज नहीं तो कल। मुझे उसके जाने का कोई दुख नहीं था।
शायद, मैं उससे भी दुम के बारे में पूछना चाहती थी।
बाहर तेज धूप थी। तेज धूप में भी मैं धूप का चश्मा नहीं लगाती हूँ, क्योंकि सारे धूप वाले चश्मे काले होते हैं और मेरा रंग भी साँवला है।
मैं घर नहीं गई, बगल में ही मेरी दोस्त नीरजा रहती है। उसके पति इस समय आफिस में रहते हैं। उसकी तीन साल की लड़की सोनू है। उसके लिए मैं बड़ा चाकलेट लेकर गई। फिर, वह मेरे पीछे मौसी-मौसी कह कर घूमती रही। मैं उसके साथ दोपहर भर खेली, बेगम अख्तर के गाने सुने और नीरजा से नूडल्स बनवा कर खाया।
दो दिन बिना कुछ किए बीत गए।
दोपहर में जब मै सो रही थी तभी माँ ने झकझोर कर जगाया। बाहर डाकिया आया था। उसके हाथ में मेरे नाम की रजिस्ट्री थी। रजिस्ट्री भारत सरकार सेवार्थ और दिल्ली कस्टम आफिस से थी। मैने डाकिए से प्राप्ति पर हस्ताक्षर किए। पत्र को पढ़ा, एडीशनल कमिश्नर कस्टम ने एसएससी की चयन प्रक्रिया से सफल होने पर मुझे यूडीसी पद के लिए नियुक्ति पत्र भेजा था। मुझे पंद्रह दिन में ज्वाइन करना था।
घबराहट से मुझे, सब धुँधला दिख रहा था। मैने माँ को नियुक्ति के बारे में बताया। डाकिया अभी भी खड़ा था। माँ ने उसे तीस रुपए दिए। यह परिणाम तो समाचार पत्र में पहले आ गया होगा। मैं देख नहीं पाई थी।
माँ भगवान की आलमारी की तरफ गई। वहीं उन्होंने दीपक जलाया और कुछ नहीं मिला तो गुड़ ही चढ़ा दिया। माँ के मैने पैर छुए, उन्होंने मुझे अँकवार में लिया और खुशी से रोने लगीं।
उन्हीं हिचकियों के बीच उन्होंने कहा, 'मेरी बेटी ने बहुत दुख सहे हैं।'
मैं दौड़ कर बाहर पीसीओ पर गई और पापा को फोन किया। पापा खुशी से फोन पर ही मुझे आशीर्वाद देने लगे। वो तुरंत घर आ रहे थे। मैंने भैया को दिल्ली फोन कर दिया।
अब मुझे किसे बताना था?
मुझे अमित के घर का नंबर जबानी याद था। मैने कभी उसके घर फोन नहीं किया था। मैने उसका नंबर मिलाया। फोन पर उसकी माँ आईं।
मैने उनसे कहा, 'आंटी! मैं सविता बोल रही हूँ, अमित को बुला दीजिए।'
अमित के पदचाप की आवाज मुझे अब फोन पर सुनाई दे रही थी।
आखिर उसे बताना जरूरी था कि जिसके साथ वह समय काट रहा था, अब उसे किसी की जरूरत नहीं रही, किसी की भी नहीं, न अमित जैसों की न ही, किसी राजकुमार से शादी की।