सत्ता गलियारों की प्रेत बाधाएं / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सत्ता गलियारों की प्रेत बाधाएं

प्रकाशन तिथि : 08 जनवरी 2011

'आमिर' नामक संवेदनशील फिल्म के निर्देशक राजकुमार गुप्ता ने विद्या बालन और रानी मुखर्जी अभिनीत 'नो वन किल्ड जेसिका' को बहुत ईमानदारी और भावना की तीव्रता के साथ बनाया है। इसमें सत्य घटना के साथ कुछ कल्पना को मिलाकर बहुत सशक्त फिल्म बनाई गई है। इसमें प्रस्तुत सत्य प्रखर है और कल्पना में इतनी कमाल की धार है कि दर्शक मंत्रमुग्ध होकर फिल्म देखता है। इसमें कल्पना वाले अंश सत्य से आलोकित हैं और प्रस्तुत सत्य को इसकी कल्पना आभामंडित करती है, मसलन फिल्म में प्रस्तुत जांच करने वाला पुलिस अफसर न्याय के साथ हुए मखौल के कारण पूरी फिल्म में अपराधबोध से ग्रस्त है। उसकी बेचैनी को कलाकार ने प्रभावोत्पादक ढंग से प्रस्तुत किया है। उसके अबोध पुत्र और पत्नी के चेहरे पर उसका अंतद्र्वंद्व साफ नजर आता है। वह अपने पास छुपाकर रखे रिकॉर्डेड टेप को न्याय की गुहार मचाने वाली पत्रकार के घर गुमनाम ढंग से पहुंचाता है।

जेसिका की बहन का पात्र यथार्थ से लिया गया तो खोजी पत्रकार का पात्र काल्पनिक है और दोनों के सम्मिलित प्रयास व्यवस्था की सड़ांध को प्रकट करते हैं। पूरी फिल्म ही अन्याय के नीचे दबे मनुष्य की आत्मा से निकली चीख की तरह है। इसमें हमारे सुख विलास में डूबे श्रेष्ठि वर्ग के पाखंड और उदासीनता को बखूबी प्रस्तुत किया गया है। एक छोटा सा दृश्य उस साधन-संपन्न वर्ग की संवेदनहीनता और व्यवहार में दोगलेपन को उजागर करता है। जेसिका की बहन रेस्त्रां की मालकिन से मिलने जाती है, जिसके जेसिका के साथ अच्छे संबंध थे। मालकिन मौत पर अफसोस जताकर आंसू टपकाते हुए अपनी चॉकलेट खाना नहीं भूलती। आंख में आंसू और मुंह में चॉकलेट उस श्रेष्ठि वर्ग के प्रति जुगुप्सा जगाता है। फिल्म में इसी तरह का प्रभाव पैदा करने वाले कई दृश्य हैं।

नेताजी की पत्नी प्राय: दरवाजे पर आकर कहती है कि उसे उसका मुन्ना चाहिए। नेताओं के परिवार में कई बार इस तरह के लोग होते हैं। आंखों पर पट्टी बांधे गांधारी और अन्याय करने वाले धृतराष्ट्र। फिल्मकार छोटे दृश्य और सटीक संवाद से महत्वपूर्ण बातें कहता है। जेसिका लाल हत्याकांड को पुनर्जीवित करने का श्रेय मीडिया को जाता है। देश में अनेक शहरों में प्रकट किया गया विरोध युवा लोगों ने संगठित किया था। इस सड़ांध भरी व्यवस्था को बदलने का काम युवा वर्ग ही कर सकता है।

फिल्म में कारगिल और कंधार का जिक्र है। सारी व्यवस्था की आमूल सफाई का संकेत रानी मुखर्जी का पात्र कमाल का गढ़ा गया है। उसका प्राय: गालियां देते रहना भी उसके आक्रोश की ही अभिव्यक्ति है। वह अनौपचारिक है, जिद्दी है और अन्याय से लडऩे का उसमें माद्दा भी है। दरअसल वह हर किस्म के पाखंड के खिलाफ है। प्राय: काबिल लोगों में धैर्य की कमी होती है और चरित्र की इन तमाम बारीकियों को अनुभवी रानी मुखर्जी ने बखूबी प्रस्तुत किया है। यह फिल्म देखकर शिद्दत से अहसास होता है कि सांस लेने में कष्ट प्रदूषण के कारण नहीं, वरन व्यवस्था के टूटने के कारण हो रहा है।