सत्ता रस / राजेन्द्र वर्मा

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कविता में तो एक ज़माने से नौ रस (वात्सल्य और भक्ति मिलाकर ग्यारह) अपनी धाक जमाये हुए हैं, पर गद्य में अब तक एक ही रस प्रचलित हो पाया है और वह है—सत्ता-रस। यह लेखक, पाठक और मीडिया—तीनों में समान रूप से लोकप्रिय है और इसकी डिमांड दिनोदिन बढ़ती जा रही है। सत्ता-रस, काव्य के वीर, रौद्र, हास्य, अद्भुत और भयानक रसों के मिश्रण से बना है। इसलिए इसे पंचारिष्ट भी कह सकते हैं। नेता बनने को उद्यत मनुष्य के भीतर उत्पन्न होने वाली पाँच बाधाओं का एक साथ शमन करता है नैतिकता, संवेदनशीलता, सत्यवादिता, शुचिता और जनपक्षधरता।

जीवन की उत्पत्ति से लेकर उसके रणक्षेत्र में पञ्च की विशिष्ट भूमिका है। पंचतत्व से बना आदमी जब सत्ता-रस के पान के योग्य बनता है, तो वह पलक झपकते पंच 'मकार' को डकार कर सिद्ध साधक बन जाता है। किसी का पंचतत्व भले ही बिखर जाएँ और प्राण शून्य में विलीन हो जाए, पर संसार ज्यों-का-त्यों बना रहता है। सांसारिक सत्ता तो सृष्टि के साथ ही जन्मी है और वह प्रलय तक विद्यमान रहेगी। इसलिए जब तक पृथ्वी पर जीवन-रस है, तब तक सत्ता-रस है। यों सत्ता रस विभिन्न सत्ताओं, जैसे-धार्मिक, सामजिक, आर्थिक, से प्राप्त होता है, परन्तु राजनीतिक सत्ता से जो रस प्राप्त होता है, वह सभी सत्ताओं के अर्क से बनता है, इसलिए यही वास्तविक 'सत्ता रस' है।

सत्ता-रस का निर्माण उन्हीं तत्त्वों से होता है, जो कविता के किसी रस के होते हैं, अर्थात्— (1) स्थायी भाव, (2) आश्रय, (3) आलम्बन तथा उद्दीपन विभाव, (4) अनुभाव और (5) संचारी भाव।

राजनीति सत्ता रस का 'स्थायी भाव' है। 'नेता' , जिसे आजकल जनसेवक के नाम से जाना जाता है, इसका 'आश्रय' है। प्रजा, जनता या लोक (जिसे जो भी पद पसंद हो, वह चुन ले) , इसका 'आलम्बन विभाव' है। चुनाव की घोषणा, विपक्षी दलों में आपसी टकराव, पूँजीपतियों के कालेधन की चमक, बाहुबलियों, की धमक, भ्रष्टाचारियों की भभक, बुद्धिजीवियों की लहक, मीडिया की लपक, बॉलीवुड के सितारों की बहक, चाय की दुकानों पर दफ्तर के बाबुओं की बमक आदि 'उद्दीपन विभाव' की चादर में टँगे सलमा-सितारे हैं।

लोक के स्तर पर लोकतन्त्र को जीवित रखने वाले जितने भी कारक हैं, वे आलम्बन की चेष्टाएँ हैं, जैसे—जनता को अपना नेता चुनने की उत्कंठा और मंगलाशा से परिपूर्ण लोकतंत्र में आस्था, भेड़ों की भाँति समूहबद्ध रैली में उपस्थिति होकर धैर्यपूर्वक आश्रय के आश्वासन-भाषण सुनना और उन्हें हृदय से गुनना, मतदान वाले दिन पंक्तिबद्ध होकर किसी-न-किसी रंगे सियार के पक्ष में वोट डालना और उसके जीतने पर मिठाई बाँटना, ढोल-ताशे बजाना, भांगड़ा करना, स्वांग रचाना, अखबारों में बधाई-सन्देश छपवाना।

उद्दीपन विभाव की तरह, इसके 'अनुभाव' का दायरा बहुत बड़ा है, क्योंकि यह आश्रय की चेष्टाओं पर निर्भर है, जैसे करना—ग़रीब देश में लाखों रुपयों से तैयार मंच पर नेता का पानी पी-पी भाषण झाड़ना, विरोधियों का ज़िक्र आने पर बाहें समेटना या अपनी ही एक हथेली को विपक्षी का चेहरा समझ उस पर दूसरी हथेली मारकर चांटे मारने जैसा आनन्द प्राप्त करना, बात-बेबात आक्रोशित होना, क्रोध करना, हुंकार भरना, उत्साह प्रदर्शित करना, आश्वासन के बताशे बाँटना, जीवन में कभी न पूरे होने वाले वायदे करना, आसमान सिर पर उठाना, उन्माद प्रदर्शित करना, मुंगेरीलाल के हसीन सपने दिखाते हुए अपने भाषण को विराम देना और बदले में मंच के सामने किराये की लाखों (अब करोड़ से भी अधिक आँकी जाने लगी है) की भीड़ से देर तक तालियाँ पिटवाना, चलते-चलते मंच से गेंदे और गुलाबों की दसियों मालाओं को भीड़ पर फेंककर उनका धन्यवाद ज्ञापित करना।

प्रभुता, सत्ता-रस का 'संचारी भाव' है। हर नेता 'प्रभु' बनना चाहता है, पर ब्रह्मा के पास प्रभुता सीमित मात्रा में है, इसलिए उन्होंने उसे एक मटकी में बन्द कर पृथ्वी और आकाश के मध्य एक अदृश्य शिकहर पर टाँग रखा है। जो दावेदार लपककर, उचककर, उछलकर या जनता के कन्धों के पिरामिड पर चढ़कर प्रभुता की मटकी फोड़ सकता है; वही उसके नवनीत का सेवन कर सकता है।

सत्ता-रस के दावेदार जनता के मज़बूत कन्धों की तलाश में चल पड़े हैं ताकि वे उनके पिरामिड पर चढ़कर प्रभुता की मटकी फोढ़ें और उसका रस चख सकें। ... जनता को तय करना है कि वह अपने कन्धे इस्तेमाल होने देगी या नहीं!