सत्यजीत राय : मानवीय करुणा का गायक / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 02 मई 2019
सत्यजीत राय का जन्म 2 मई 1921 को हुआ और 23 अप्रैल 1992 को वे दुनिया से विदा हुए। वे विश्व के एकमात्र फिल्मकार हैं, जिन्हें आजीवन सिनेमा की सेवा के लिए विशेष ऑस्कर पुरस्कार देने के लिए अकेडमी ऑफ मोशन पिक्चर आर्ट्स एंड साइंस के अध्यक्ष स्वयं कोलकाता आए और अस्पताल में उन्हें पुरस्कार दिया गया। उन दिनों वे बेहद बीमार थे। वे पहले वीकेंड फिल्मकार थे। वे एक ब्रिटिश डिजाइनर कंपनी में नौकरी करते थे और शनिवार तथा इतवार की छुट्टी में अपनी फिल्म 'पाथेर पांचाली' की शूटिंग करते थे। वे अपने वेतन से बचाए हुए धन से फिल्म बना रहे थे। इस तरह बचत खाते से बनी वह पहली फिल्म थी।
धनाभाव के कारण फिल्म की शूटिंग रुक गई तो उनके पिता ने तत्कालीन गवर्नर को सिफारिशी खत लिखा। बंगाल सरकार ने उन्हें कर्ज दिया। 'पाथेर पांचाली' के सफल प्रदर्शन के वर्षों बाद सरकार से उन्हें खत मिला कि जो 'सड़क' बनाने के लिए उन्हें कर्ज दिया गया था, वह 'सड़क' कहां बनी है। सरकारी अफसर ने फिल्म के टाइटल को गांव में बनी सड़क समझा। सत्यजीत राय ने सरकारी दफ्तर जाकर सारी बात समझाई। उन्होंने कहा कि यह रकम कर्ज नहीं थी, बल्कि आंशिक पूंजी निवेश था। दी गई रकम से कई गुना अधिक लाभांश उन्होंने सरकारी खाते में जमा किया। अत्यंत अल्प बजट में बनी फिल्म ने लागत पर एक हजार गुना लाभ कमाया था। स्वयंभू समीक्षकों ने कला फिल्म और व्यावसायिक फिल्म दो खंड बनाए हैं। क्या 'पाथेर पांचाली' के लाभ के कारण स्वयंभू आलोचक उसे 'व्यावसायिक फिल्म' मानेंगे?
सत्यजीत राय ने कथा फिल्मों के साथ वृत्तचित्र भी बनाए, जिनका जमा जोड़ 36 होता है। उनकी फिल्मों को मिले अंतररराष्ट्रीय पुरस्कारों की संख्या उनके समकालीन सभी फिल्मकारों को प्राप्त पुरस्कारों के जमा जोड़ से कहीं अधिक है। उनकी सारी फिल्में बांग्ला भाषा में रचित साहित्य से प्रेरित हैं। 'कंचनजंघा' एकमात्र फिल्म है, जो साहित्य प्रेरित नहीं है। इसकी कथा स्वयं उन्होंने लिखी है। उनके परिवार की दस पीढ़ियों के लोग साहित्य व कला प्रेमी रहे हैं। क्या प्रतिभा आनुवांशिक है? कुछ बीमारियां आनुवांशिक होती हैं।
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सत्यजीत राय से निवेदन किया कि वे पंडित जवाहरलाल नेहरू पर वृत्तचित्र बनाएं। राय महोदय ने विनम्रता से प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। कुछ समय पश्चात सत्यजीत राय ने विदेशी मुद्रा के लिए आवेदन किया। जिस अफसर को यह मालूम था कि उन्होंने इंदिरा गांधी का निवेदन अस्वीकृत किया था, उस अफसर ने विदेशी मुद्रा के लिए लगाए आवेदन को अस्वीकार कर दिया। जैसे ही इंदिरा गांधी को यह बात पता चली, उन्होंने अफसर को लताड़ा और तुरंत मांगी गई विदेशी मुद्रा से दोगुनी राशि स्वीकृत की। वर्तमान के नेता और अफसरों में इस तरह की संवेदना का अभाव है। आज अगर आप उनसे सहमत नहीं हैं तो आपको लेने के देने पड़ जाएंगे। अगर मानसिकता की सरहदें इसी तरह सिमटती रहीं तो वह दिन दूर नहीं जब हम शून्य पर पहुंच जाएंगे, जिसकी ईजाद का हमें गर्व है।
कान फिल्म समारोह में नए फिल्मकारों की फिल्मों का प्रदर्शन प्रात: 9 बजे होता है। प्रसिद्ध फिल्मकारों की फिल्में शाम को दिखाई जाती हैं। हर रात जूरी सदस्य दावतों में शरीक होते हैं और सुबह के प्रदर्शन में ऊंघते रहते हैं। सत्यजीत राय की 'पाथेर पांचाली' का प्रदर्शन सुबह 10 बजे हुआ। जूरी सदस्य ऊंघ रहे थे परंतु एक सदस्य जागा हुआ था और जागरूक भी था। उसने शो समाप्त होने पर अपने साथी सदस्यों से कॉफी पीकर तरोताजा होकर यह फिल्म देखने का निवेदन किया। उस जूरी सदस्य का नाम था आंद्रे बाजिन। 'पाथेर पांचाली' ने विश्व सिनेमा में क्रांति कर दी। फिल्म में यथार्थवाद को नई ऊर्जा प्राप्त हुई। मैरी सैरन ने सत्यजीत राय की जीवन कथा में लिखा है कि राज कपूर और सत्यजीत राय परस्पर प्रशंसक रहे हैं। राज कपूर ने सत्यजीत राय से निवेदन किया कि वे अपनी संगीतमय फिल्म 'गोपी गाइन, बाघा बाइन' को हिंदी में बनाएं। सत्यजीत राय हिंदी संस्करण में मूल फिल्म के बंगाली कलाकार लेना चाहते थे, जबकि राज कपूर मुंबई के कलाकारों को लेना चाहते थे। इसी मतभेद के कारण फिल्म नहीं बनी परंतु प्रारंभिक चर्चा में शैलेन्द्र शामिल थे और सत्यजीत राय चाहते थे कि शैलेन्द्र ही हिंदी संस्करण के गीत और संवाद लिखें।
कुछ समय पश्चात सत्यजीत राय ने मुंशी प्रेमचंद की कथा 'शतरंज के खिलाड़ी' पर संजीव कुमार, सईद जाफरी, शबाना आजमी और अमजद खान अभिनीत फिल्म बनाई। अमजद खान ने लखनऊ के नवाब की भूमिका करते हुए कथक नृत्य भी किया है। आज के दौर में सलमान खान को नवाब की भूमिका करनी चाहिए। सत्यजीत राय ने ओम पुरी अभिनीत 'सद्गति' भी बनाई। राय अपनी फिल्मों के पुनर्ध्वनी मुद्रण के लिए मुंबई में शांताराम स्टूडियो के मंगेश देसाई की सेवा लेते थे। महान मंगेश देसाई तो ध्वनि को देख सकते थे, उसके साथ लुकाछिपी और कंचे भी खेल सकते थे। मुंबई फिल्मोद्योग की उदासीनता और ऐतिहासिक धरोहर के प्रति उपेक्षा के कारण ही मंगेश देसाई को याद ही नहीं किया जाता। उनके नाम का पुरस्कार भी नहीं दिया जाता।