सत्यनारायण पटेल / परिचय

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संक्षिप्त परिचय:

नाम : सत्यनारायण पटेल। यह नाम मेरे मामा और नाना ने रखा था और स्कूल में भी यही लिखा दिया गया था और अब तक इसी से पहचाना जाता हूँ। लेकिन मेरे दायजी (पिता) ने मेरा नाम बंसी रखा था और उन्होंने कभी मुझे सत्यनारायण कह कर नहीं पुकारा। बई (माँ) दोनों नाम से पुकारती रही है। गाँव के दोस्त, भाई, बहन और गाँव का पटवारी आज भी बंसी नाम से ही जानते हैं। कोई बाहर गाँव से आया सत्यनारायण के नाम से पूछ ले, तो उसे किसी ओर के ही घर ले जा कर बैठा दिया जाता है। गाँव में सत्यनारायणों की भरमार है।

जन्म : 6 फरवरी 1972 को नानाजी के गाँव लोहार पिपल्या में, उन्हीं के घर में हुआ और इसी गाँव में पला-बढ़ा। अपने पैतृक गाँव मकोड़िया उर्फ नारायण गढ़पावणा में मेहमान की तरह कभी-कभार आता-जाता हूँ। खेती-बाड़ी, बई, भाई सब मकोड़िया में ही हैं। अब दायजी नहीं रहे पर गाँव में उनके क़िस्से हैं और वे मेरे गुस्से और स्मृति में हैं। ननिहाल और पैतृक गाँवों का पता है- पोस्ट, क्षिप्रा, ज़िला देवास (म.प्र)।

शिक्षा : पाँचवी तक लोहार पिपल्या में ही पढ़ा। छठी से लोहार पिपल्या से एक किलोमीटर दूर क्षिप्रा कस्बे में पढ़ने के नाम पर जाता रहा, पर असल में याद ही नहीं कितनी बार पूरे पीरियड में बैठा। हिन्दी और अँग्रेज़ी के पीरियड तो क्रिकेट और अन्टी खेलने के लिए सुरक्षित थे ही, पर जब विडियो पार्लर में फ़िल्म बदलती तो दूसरे पीरियडों में जाने का समय भी नहीं निकाल पाता।

जब कभी क्षिप्रा में देर तक तैरने के बाद भूख ज़ोरदार लगती। तब बरलाई के शक्कर कारखाने में जाना ज़रूरी हो जाता। वहाँ कारखाने में साँट (गन्ने) से भरी बैलगाड़ियों और ट्रेक्टर ट्रालियों से किसान की नज़र बचा कर साँटे तोड़ते और खाते। साँटे के बाद बोर खाने का नम्बर आता। वहाँ जंगली बोरणें खूब थी- लाल, पीले और खट्टे-मीठे बोर तोड़कर बस्ते में भर लेता। फिर ताज़ी शक्कर का लड्डू खाने के लिए कारखाने के भीतर घुसना ज़रूरी होता। सिक्यूरिटी इंचार्ज बहुत कड़क मिजाज का था। मिलिट्री रिटायर्ड और बन्दूक की नाल सरीखी मूछों वाला। वह हम जैसे स्कूल से तड़ी मारे छोरों को तो क्या, वहीं काम करने वाले मजदूरों को भी बग़ैर पास के अन्दर नहीं जाने देता था। परन्तु मुझे और मेरे साथ एक को जाने की छूट दे दिया करता था क्योंकि उसका छोरा मेरी कक्षा में ही पढ़ता था और उसे क्षिप्रा के बदमाश छोरों से मैं ही बचाता था।

बारहवी के बाद एक वर्ष कामर्स पढ़ा, फिर पुलिस में भर्ती हो गया। ट्रेनिंग पर चला गया। ट्रेनिंग से लौट कर बी०ए० करने का मन बनाया। नये सिरे से फार्म भरा बी०ए० द्वितीय वर्ष उत्तीर्ण किया और तीसरे साल भी फार्म भरा। पर सिलेबस वाली पढ़ाई से मन उचट गया और फिर कभी किसी परीक्षा में नहीं बैठा। दोस्तो ने कालेज और साहित्य के परिचित कई प्रोफेसरों ने आगे पढ़ने की सलाह दी। ज़्यादा डिग्रियाँ हथियाने के हथकंडे और फ़ायदे बताए, पर मन न हुआ, तो न हुआ।

पढ़ना-लिखना कैसे शुरू हुआ : पढ़ने-लिखने से मेरा कोई वास्ता नहीं था। मेरे जो लक्षण थे, उनके चलते तो मैं अब तक मार दिया जाता, या किसी जेल में सड़ता, या कहीं डॉन बन कर ऐश कर रहा होता। या फिर अपनी गेहूँए रंग की चमड़ी पर ज़रूरत और समय के मुताबिक सफ़ेद खादी पहन लेता और लोकतंत्र के जंगल का साँप बन जाता, तो भी आश्चर्य की बात नहीं थी। इस क्षेत्र में गाँव, कस्बा और जिले में नाम भी कमा ही चुका था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

और ऐसा हुआ कि एक दिन मैं बहादुर के घर गया। बहादुर मेरा उस समय का दोस्त है जब हम बग़ैर चड्डी पहने ही नदी या कुओ में साथ-साथ तैरते थे। अच्छे-अच्छे कामों में साथ रहा दोस्त’ वह पट्ठा कुछ लिख रहा था। मैंने पूछा- क्या लिख रहा है?

उसने कुछ नहीं कह कर टरकाना चाहा। पर मैं कोई टरकने वाला था? उसने अपने चार साल बड़े होने का रौब झाड़ा, तो भी मैं अपनी बात से टस से मस नहीं हुआ। थोड़ी ही देर में उसके रौब की हवा निकल गई। वह जानता था कि ये हाथ पकड़ लेगा तो दादी, नानी सब याद आ जाएगी। उसने बताया कि एक प्रेम-कविता लिख रहा हूँ। वह आठ-दस लाइन की कविता मैंने पढ़ी। समझ में आ गया कि किसके बारे में लिखी है। फिर क्या? मन ही मन तय कर लिया- जिस दिन शक्कर कारखाने तक जाने का मन नहीं होगा और नास्ते का कोई दूसरा जुगाड़ नहीं होगा, बहादुर ही पोहे-जलेबी खिलायेगा। जब कभी फ़िल्म के पैसे नहीं होंगे, बहादुर ही देगा। नहीं मानेगा, तो उस लड़की से बता दूंगा कि तुम्हारे बारे में कविता में क्या-क्या लिखा है! पर बहादुर ऐसा माना कि फिर बहादुर यानी अपनी बैंक, ऐसी बैंक, जिसमें से सदा केवल निकाला, कभी जमा नहीं किया।


-ऐसा क्या है इसमें, जो दिखा नहीं रहा था। मैंने उस दिन उस कविता के बारे में कहा था।

वह हाथ से कॉपी वापस लेता बोला- तेरे मग़ज़में नहीं आएगी।

-ऐसी तो मैं ही लिख दूँ। मैंने कहा था, और बोला- तूने तो स्कूल की उस एक ही लड़की के बारे में लिखी, मैं तो स्कूल और गाँव हरेक के बारे में लिख दूँ।

-तो लिख ? वह मेरी तरफ़ कॉपी-पेन बढ़ा कर बोला था।

मैंने कहा कि कल दिखाऊंगा, अभी तो मैं नहाने के मूड से आया हूँ, चल सामा कुआ में तैरने चलते हैं। वह चड्डी-बनियान, टॉवेल लेकर चल पड़ा। बहादुर के साथ नहाने का एक फ़ायदा यह था कि उसके पास साबुन बहुत ख़शबुदार हुआ करती थी।

मैंने दूसरे दिन उसको कविताएँ लिख कर दिखा दी थीं और कविता लिखने का सिलसिला कुछ ऐसा चला कि सौ-सवा सौ लिख मारीं। बाद में जब पुलिस में भर्ती हो गया था, एक सर्दी की रात बारह से छः गश्त कर लौटा तो रात में जिस अनुभव से गुज़रा था, उसे कविता में लिखने की कोशिश करने लगा और काफ़ी मग़ज़पच्ची के बावजूद नहीं लिख पाया तो फिर सभी कविताओं को फाड़कर ताप ली।

ऐसा शायद इसलिए हुआ था कि तब-तक बहादुर के मार्फत ही मैंने प्रेमचन्द और मन्टो की बहुत सारी कहानियाँ पढ़ ली थीं और इच्छा गाँव के लोगों पर ही नहीं, गाय, बैल, भैंस, कुत्ता, गधा, खेत, कुआँ, पेड़, पुलिस, वेश्या आदि की कहानियाँ लिखने की होने लगी थी। कहानी लिखने में ही अपटा करता था। कहानी लिखते वक़्त भी एक समस्या आती थी और वह यह कि जब लिखने बैठता, तो कहानी भूल जाता। ऐसे मौक़े पर मुझे वे दिन याद आ जाते, जब मैं भैसें चराया करता था, साथी ग्वालों को कहानी सुनाता तो एक के बाद एक सुनाता ही जाता। मैं फिर से कहानी लिखने की कोशिश करता और फिर एक दिन एक कहानी लिख मारी। इस तरह ये चुरुस बढ़ता गया और लगभग हर सप्ताह एक कहानी लिख मारता। अगर शहरी दोस्त हर सप्ताह उन कहानियों को कचरा कह कर नहीं फड़वाते, तो अब तक एक बैलगाड़ी भर कहानियाँ हो जाती।

अब जबकि टूटी-फूटी भाषा में लिखने की रफत बनती जा रही है। यदि मैं कभी किसी विषय या व्यक्ति के बारे आड़ा-तिरछा लिख मारूँ और इस कारण कोई मेरी पिटाई करना चाहे तो देवास जाकर बहादुर को पीटे क्योंकि ये कीड़ा उसी ने लगाया था। कोई भी जब बहादुर को मारेगा, तो मेरा बाबरा (माथा) स्वतः ही लहूलुहान हो जायेगा।

उसे पीटने से एक और नफ़ा होगा और वह यह कि जब उसे पीट चुके होंगे और अपनी राह जाने लगोगे तो वह अनुरोध करेगा- भाई साहब क्या लोगे- ठन्डा या गरम ? अनुरोध का ढंग ऐसा होगा कि मना करते वक़्त आपकी जीभ लड़खड़ा जाएगी।

प्रकाशन : एकलव्य (देवास) के दोस्तों के साथ ‘नव चेतना’ (मासिक) में गाँव की कहानी नाम से मालवी बोली में गाँव की कहानियाँ लिखी और उसके प्रकाशन, सम्पादन में सहयोग किया। उन्हीं दिनों लोहार पिपल्या गाँव से बहादुर के साथ ‘नवदीप’ (त्रैमासिक) नामक साईक्लोस्टाईल पत्रिका की शुरूआत की। उसका सम्पादन करते हुए कुछ अंक निकाले। नवदीप नाम से ही युवाओं का एक संगठन बनाया और नुक्ता प्रथा को रुकवाने का आन्दोलन शुरू किया, जो पुलिस में आने के बाद भी कुछ बरस चलता रहा। कई गाँवों में नुक्ता रुकवाने में सफल हुए और कई गाँवों से अपमान की पोटली लेकर लौटे। 1994 में पहली कहानी ‘लौटता गुलाबी रंग’ छपी। 2007-08 में प्रगतिशील लेखक संघं की तरफ़ से "लाल सलाम-एक" और "लाल सलाम-दो" का सम्पादन किया। 2007 में पहला कहानी-संग्रह "भेम का भेरू माँगता कुल्हाड़ी ईमान" और बीच-बीच में कभी-कभार कुछ लेख और टिप्पणियाँ प्रकाशित।

रुचियाँ : दोस्तो व बच्चों के साथ उधम के अलावा नवी-दसवीं कक्षा से फोटोग्राफी, विडियोग्राफी, का शौक था, जो बाद में डकाच्या गाँव के कमल चौधरी के साथ और गहरा हुआ और निखरा भी। क्षिप्रा के बाबू हीरो, मुकेश गोविन्दा, लोहार पिपल्या के कल्याण मिर्ची (अब मास्टर), राजेन्द्र जैकी के साथ अभिनय के चक्कर में पड़ा। कुछ नाटकों में अभिनय किया। पर फ़िल्म में काम करने का चुरूस ज़्यादा था तो खूब भटका। एक फ़िल्म में नशेड़ी का रोल मिला, आधी-अधूरी फ़िल्म बनाने के बाद फ़िल्म-निर्माता उसे जाने किस डब्बे में रख कर भूल गया।

ज़रूरत और प्रतिबद्धता : क़रीब 1995 में स्वेच्छा से इन्दौर प्रगतिशील लेखक सघं की सदस्यता ली। स्वेच्छा से ही 1999 में स्व० श्री आनन्द सिंह मेहता की स्मृति में बने समूह ‘संदर्भ दस्तावेज़ीकरण केन्द्र’ से जुड़ा। ‘इप्टा’ से जुड़ा। प्रलेसं, इप्टा और संदर्भ में समान रूप से सक्रिय रह कर काम करते हुए कच्ची-पक्की समझ हासिल की।

सम्प्रति : किशोरावस्था में देवास औद्योगिक क्षेत्र के अनेक कारखानों में मज़दूरी की। देश के भ्रष्ट विभागों की सूची में काफ़ी ऊँचे पायदान पर मौजूद और संवेदनषील इंसान को जड़ और विक्षिप्त बनाने में उस्ताद म० प्र० पुलिस विभाग में 1993-94 में भर्ती हुआ। थाने में आने वालों पीड़ितों के साथ साथी पुलिस वालों की तरह का बर्ताव न कर पाने और कोर्ट में झूठे बयान देते वक़्त जबान लड़खड़ाने की कमज़ोरी की वजह से इस थाने से उस थाने धकियाता रहा हूँ। पिछले तीन-चार साल से पुलिस विभाग की सबसे सूखी शाखा- ज़िला पुलिस फोटो सेक्शन, इन्दौर में काम कर रहा हूँ। काम क्या कर रह हूँ साहब, बस, समझ लो झक मार रहा हूँ।

सरकारी महकमें में रह कर झक मारना तो सीख लिया, पर मीठा बोलना, चापलूसी करना और वेतन के अलावा पैसा कमाना नहीं सीख पाया। जिसकी ज़िन्दगी में बहुत ज़रूरत पड़ती है।

अपने मुँहफट और मुँह पर ही खरी-खोटी कहने के कारण अक्सर अपमान झेलना पड़ता है। इसमें क्या सरकारी और गै़र-सरकारी? क्या दोस्त और क्या दुश्मन? सच और कड़वा बोलने की सज़ा, सभी जगह भरपूर भुगतता रहा हूँ। फिर भी जर्मनी के दाढ़ी वाले डोकरे की यह बात हौसला बंधाती है कि ‘सच्चा बुद्धिजीवी वही है, जिसका मन मुक्त और निर्भीक होता है। बु़द्धिजीवी से अपेक्षित है आलोचना, निर्मम आलोचना जो न अपने निष्कर्ष से कतराती है और न शासक वर्ग के साथ टकराव से भागती है।

सम्पर्क : मोबाइल 09826091605