सत्यमेव जयते / मो. आरिफ
हमारे बाबा दो भाई थे। जफर मुहम्मद और जमाल मुहम्मद। बाबा के छोटे भाई यानी हमारे छोटे बाबा यानी जमाल मुहम्मद बड़े झगड़ालू थे। कभी शान्त चित्त नहीं बैठते थे। लड़ाई और मार-पीट का छोटे-से-छोटा अवसर भी हाथ से न जाने देते। गालियाँ ऐसी बकते की गाली-गलौज की अभ्यस्त महिलाएँ भी शरमा जाएँ। उनके दोनों प्रौढ़ बेटे भी उनके साथ कन्धे-से-कन्धा मिलाकर जब-तब पिल पड़ते। वे दोनों हमारे बड़े ही अक्खड़ चाचा थे। अपने अब्बा के साथ मिलकर वे बात-बात में किसी को भी बेइज्जत कर सकते थे, किसी का भी सिर फोड़ सकते थे। छोटे बाबा के नाक पर गुस्सा रहता और ऐसी-वैसी आहट होते ही लाठी भाँजते हुए अपने बेटों को ललकारने लगते, निकल बे मेहरा घरे में से... अरे पकड़ लाठी मादर... छोड़ मेहरारू... आव दुवारे... देख मुल्लवा के बकरियन खेतवा चर लिहिन, अरे बोल हल्ला, कइ दे हमला, मार कोढ़ियन के।
और फिर तीनों पहलवान बकरियों की लीद निकालने के बाद बकरियों के मालिक की ऐसी खबर लेते कि वे त्राहिमाम कर उठते। बाबा अपने सुनते तो कहते, इ जमलुआ कहाँ से हमार सगा भाई बन के पैदा होइ गवा। अल्लाह बचावे एसे।
यही कारण था कि दोनों भाइयों मे कभी नहीं बनी। बाबा अपने भाई से न के बराबर ही बातचीत करते। ईद-बकरीद में छोटे बाबा हमारे दरवाजे आते, गुस्साये-गुस्साये, चुपचाप बाबा की चारपाई पर पैताने की ओर बैठे रहते, सलाम न दुआ, सुरती न सुपारी, त्यो न त्योहारी, बस दो-मिनट में ही उठकर चल देते। उनके लड़के और उनके बच्चे वह भी नहीं। शाम को बाबा उनके दरवाजे जाते, हमें भी ले जाते, घंटो वहाँ बैठते और छोटे बाबा के घर के सभी बच्चों और महिलाओं को त्योहारी देते। हमसे कहते सबको सलाम करो। हमारे संस्कार अलग थे।
ऐसा हर बार कि जब छोटे बाबा से मिलकर घर आते तो बाबा अपने छोटे भाई की गरीबी की दास्तान सुनाते। कहते, अरे इ जमलुआ शुरू का गरीब नहीं था। अब्बा ने तो हम दोनों को बराबर-बराबर ही दिया था, लेकिन ई पगला सँभाल के रख नहीं सका। जवानी में ससुराल में लुटाया, बाद में मुकदमेबाजी और थाना-पुलिस में, अब जिसके नहीं उसके ऊपर पिल पड़ते हैं तीनों, अल्ला मियाँ बचाए इनसे।
पर अपने ही छोटे बाबा और चाचा लोगों के रौद्र रूप को देखकर हम बच्चे खुश होते। सोचते हमारे चाचा और बाबा का क्या रुतबा है। जिसको जो चाहते हैं कर देते हैं। उनके खौफ से कोई हमारे ऊपर नजर नहीं डाल सकता था। पर ऐसा कभी अवसर नहीं आया कि हम मुश्किल में रहे हों और छोटे बाबा या उनके बेटे को हमारी मदद करनी पड़ी हो। हमारी बाबा अपने लड़कों को समझाते - ई जमलुआ और उसके छोकरों के बल पर कहीं झगड़ा न मोल लेना। थूकने भी नहीं आएँगे तुम्हारी खातिर।
हम जैसे बड़े हुए, हम यह भी जाने कि दोनों परिवारों में कभी वैवाहिक रिश्ता भी बना था। हमारी सबसे छोटी फूफी छोटे बाबा के बड़े लड़के यानी कमालू चाचा के साथ ब्याही गयी थीं लेकिन दो ही महीने में कमालू चाचा ने तलाक देकर उन्हें वापस भेज दिया था। फूफी को हमने नहीं देखा था क्योंकि तलाक के बाद वे बीमार रहने लगी थीं। उन्हें टीबी हो गयी और जल्दी ही वे चल बसी थीं। दरअसल उसी समय से हमारे बाबा का दिल भी अपने छोटे भाई के परिवार से उखड़ गया था। फूफी की बात जब भी निकलती, घर के बड़े लोग आँसू बहाते, रोते और हाथ उठाकर छोटे बाबा को कोसते। दादी कहतीं, सामने वाले घर में रावण और उनका परिवार रहता है। बड़ी बुआ लोग, फूफा लोग आते तो दादी कहतीं कि कोई भी जमालू बाबू को सलाम नहीं करेगा। कोई उनके घर की ओर नहीं जाएगा। लेकिन बाबा थे कि हौका-मौका देखकर बुआ-फूफा आदि को सलाम के लिए उकसा ही देते।
मेरी आदत है कि मैं घटनाओं को उसी रूप में नहीं देखता जिस रूप में वे घटित हो रही होती हैं। मैं कभी-कभी सोचता कि छोटे बाबा और चाचा लोग गरीब होते हुए भी इतने गुस्सैल क्यों हैं। दीन-दीन क्यों नहीं दिखते ये लोग। जब देखो तब किसी-न-किसी से पंगा लिये रहते हैं। जैसे-जैसे मैं बड़ा होता गया, मुझे पता चला कि हमारी पैदाइश से पहले जब इस परिवार में बँटवारा हुआ था, उसी समय से यह मनमुटाव चल रहा है। छोटे बाबा हमारे बाबा के ऊपर उनके पीठ पीछे बेईमानी का आरोप लगाते। लेकिन उनके आरोप निराधार ही थे और उनके सच्चाई के बारे में गाँव में किसी को भी यकीन नहीं था।
हमारे बाबा अपनी ईमानदारी के लिए दस कोस में जाने जाते थे। हिन्दुओं तक की पंचायतों में ये ससम्मान बुलाये जाते थे और बिना हिचक पद-हक की बात कहते थे। अपनी सादगी और सच्चाई के जोर पर हमारे बाबा अपने समाज में महत्वपूर्ण स्थान रखते थे। फिर भी मैं कभी-कभी सोचता कि हो न हो छोटे बाबा के साथ कुछ नाइन्साफी हुई हो और इतने वर्षों से उसका गुस्सा सीधे अपने बड़े भाई पर न निकलकर अड़ोसियों-पड़ोसियों और जन-जानवरों पर निकलता हो। कह नहीं सकता, लेकिन छोटी फूफी को तलाक दिलवाने और उसकी असमय मृत्यु के सामने तो बे सचमुच रावण ही नजर आते।
दोनों परिवारों के आपसी सम्बन्धों को छोटी फूफी वाली बात के अलावा जिस एक चीज ने कड़वाहट से भर दिया था, वह था नीम का एक पेड़। घर से बाजार की ओर जाने वाली सड़क के किनारे बस थोड़ा नीचे हटकर था वह नीम का पेड़। और उसी से लगी हुई थी फुलवारी। फुलवारी और नीम के पेड़ दोनों पर ही हमारे परिवार का कब्जा था लेकिन कभी-कभी हम यह भी सुनते थे कि फुलवारी तो हमारे बाबा की है लेकिन नीम का पेड़ छोटे बाबा का है। कुछ भी हो, दोनों परिवारों के बीच कभी-कभार उस पेड़ से दातून तोड़ने को लेकर टुन्न-पुन्न हो जाता आम बात थी। लेकिन कभी भी बात उससे आगे नहीं बढ़ी।
लेकिन एक दिन बात को आगे बढ़ना था, और बढ़ी। मेरे छोटे चाचा बैंक से लोन लेकर फुलवारी में कुछ दुकानों का आधुनिक शैली में निर्माण करके उसे एक 'मार्केट' में तब्दील कर देना चाहते थे। चौक पर इस प्रकार का एक 'मार्केट' पहले ही वजूद में आ चुका था। चाचा की योजना उससे भी अच्छा मार्केट बनाने की थी। पर नीम का पेड़ आड़े आ रहा था। बिना उसे हटाये, मार्केट का प्रवेश द्वार साइड से करना पड़ता जो चाचा को मंजूर नहीं था।
घर के सारे सदस्य 'मार्केट' बनने की सम्भावना से काफी उत्तेजित और उत्साहित थे, समय-कुसमय मार्केट की बात चल निकलती और फिर चलती ही जाती। हम बच्चे भी इसमें खूब बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते - मार्केट में कौन-कौन-सी दुकानें खुलेंगी। किसको-किसको दुकानें किराये पर दी जाएँगी और किसको नहीं दी जाएँगी। चाहे वे कितना भी किराया दें। बड़े चाचा का विचार था कि लोगों से एडवांस लेकर ही निर्माण शुरू किया जाए, जबकि बड़ी बुआ और छोटी चाची की फरमाइश थी कि अपने मार्केट में एक ऊन की दुकान और एक मेकअप के सामान की दुकान जरूर हो। फिर नीम के पेड़ की बात आ जाती। दादी का शुरू से मानना था कि जमालू बाबू नाहक ही उसे अपना पेड़ बताते हैं। उनके अनुसार ससुर जी ने नीम के पेड़ के साथ फुलवारी उनके नाम की थी। उसके बदले में मछलीवाला तालाब और छोटका बगीचा जमाल बाबू का दिया था। जमाल बाबू नीम के पेड़ के खातिर काहे रार करते हैं।
हमारे अब्बू-अम्मी दोनों चाचा, दोनों बड़ी फूफियाँ, दोनों फूफा लोग, घर के नौकर-चाकर, दोनों चाचियाँ, मित्र मंडली, बच्चे सभी का मानना था कि नीम का पेड़ हमारा है, इसे कटवाकर मार्केट का रास्ता साफ करें। बाबा इन बातों से तटस्थ ही रहते। पेड़ हमारा था तो हम उसे काट सकते थे। लेकिन कोई चीज हमारी तभी थी जब बाबा उस पर अपनी मुहर लगाते। बाबा खाली एक बात कहते, बगल से गेट बनाइए न भाई, जमालू की भी बात रह जाएगी और पेड़ भी। आखिर दुकान-डलिया के लिए बाप-दादा की निशानी इस तरह काटकर हटाना कैसे ठीक है।
उस दिन तो लगा परिवार में एक-दो लाश अवश्य गिर जाएगी, जब अब्बू और चाचा लोग पेड़ गिराने के लिए फुलवारी पहुँच गये। सामने थे छोटे बाबा और उनके दोनों साहबजादे, वे लोग महाजिद्दी। बोले, पेड़ न काटने देंगे न खुद काटेंगे। और न ही बेचेंगे, ये पेड़ ही रास्ता रोके रहेगा। किसी तरह बीच-बचाव करने वालों ने यह भी कहा कि जल्द ही गाँव की पंचायत बुलाकर हमेशा के लिए इस बात का फैसला हो जाना चाहिए कि आखिर पेड़ है किसका।
अक्सर मैं बाबा के साथ उनकी चारपाई पर ही बाहर मड़हे में सोया करता था। उस रात को मैं उन्हीं के साथ सो रहा था जब छोटे बाबा की आवाज सुनाई पड़ी, बड़े धीरे-धीरे बोल रहे थे वे। भैया, हे भैया। वे अपने बड़े भाई को नींद से उठा रहे थे। मैं जग गया लेकिन सोया-सा पड़ा रहा। बाबा ऊँ-ऊँ करते हुए उठ रहे थे। छोटे बाबा हमारे बाबा की चारपाई के पैताने ही हमेशा बैठते थे। उस रात भी वहीं बैठे। फिर वे बोले, भैया तनी सोच के बताइए कि ऊ नीम के पेड़ के बारे में अब्बा मरने से पहले क्या कहे थे? और यह भी बताइए कि उस पेड़ को किसके हाथ से रोपवाया गया था? हमका तो याद नहीं। क्योंकि तब हम बहुत छोटे थे। पर आप समझदार थे, बड़े थे। छोटे बाबा का स्वर रुँधने लगा था। बाबा अपने छोटे भाई के नजदीक खिसक आये, उनके हाथ को हाथ में लेकर बोले, जमालू क्या पूछते हो भाई। अब्बा तो साफ कहे थे कि फुलवारी जफर की, लेकिन नीम का पेड़ जमालू का, फुलवारी के बदले जमालू का आम का बगीचा और तालाब। और पेड़ को अब्बा तुम्हारे हाथ से ही रोपवाये थे। बगिया का सारा पेड़ अब्बा तुम्हारे हाथ से ही लगवाये थे। हे जमालू, अब्बा कहते थे हमार छोटका बेटवा जेका छू दिया वे कभौं न मुर्झाय सकत। ये नीम का पेड़ तुम्हारा है।
तो पंचायत में कही बात कहिएगा? छोटे बाबा ने भावुक होते पूछा। बाबा और नजदीक सरकते हुए उनके कन्धे पर हाथ रखकर बोले, जा सोवा हो जमालू चिन्ता न करा। हम तू एकै बाप के औलाद हँई। पंचायत में कहब। समाज में कहब, अल्लाह के सामने कहब। सब एक तरफ, हम एक तरफ। नीम के पेड़ तोहार है, तोहार है। छोटे बाबा आँख पोंछते हुए अपने घर की ओर चले गये।
इसके बाद बाबा के ऊपर हमारे परिवार के सदस्यों ने जितना दबाव डाला उसमें कोई भी टूट सकता था। ज्यों-ज्यों पंचायत की तिथि नजदीक आ रही थी, बाबा के ऊपर दबाव और प्रभाव उतना ही तीव्र होता जाता था। सब का एक स्वर से मानता था कि शठे शाठ्यं समाचरेत्। छोटे बाबा और उनके लड़कों की जिद और हठ को तोड़ने के लिए थोड़ा-सा झूठ बोल देने में कोई हर्ज नहीं। मेरे अपने अब्बू इस मुहिम के नेता थे। बड़ी फूफी और बड़े फूफा जी भी यही चाहते थे। अधिकतर शुभचिन्तक पड़ोसियों का यही विचार था। दोनों चाचियों ने भी थाली लगाते-लगाते जता दिया था कि नीम का पेड़ तो अपना ही है, इसमें पंचायत क्या। छोटे चाचा ने बड़ी लुभावनी बात की, देखिए, अब्बा, पेड़ तो हमारा ही है और वहाँ से हटेगा। मार्केट का नाम रखेंगे, जफर मार्केट... आपके नाम पर। पंच के सामने कहिए कि दादा सब कुछ आपको बता गये थे। छोटे अब्बा बिना वजह अड़े हुए हैं।
बाबा एकदम अलग-थलग पड़ते जा रहे थे। अपने घर में जैसे अछूत हों। लोग उन्हें शक और सन्देह से देखते। बुढ़ऊ जरूर गड़बड़ करेंगे। अन्ततः भाई का ही पक्ष लेंगे। सभी की आँखों में बस यही बात तैरती। बाबा कुछ न बोलते। बस टुकुर-टुकुर देखते। ऐन वक्त पर दादी ने भी उनका साथ छोड़ दिया। बोलीं, आखिर इसमें ईमान बेचने की क्या बात है? आप अपना हक ले रहे हैं। बिटिया को वे लोग तलाक देकर वापस भेज दिये... आप हाथ-पे-हाथ धरकर बैठे रहे... फिर वह भी जवानी में दुनिया छोड़ गयी... आपने क्या किया? यह भी कोई रीत हुई कि फुलवारी किसी की और पेड़ किसी और का? आखिर फुलवारी के बदले उन्हें बगिया मिली कि नहीं? और मछलीवाले तालाब के बदले हमें क्या मिला? आज जमाना आगे बढ़ रहा है, सभी तरक्की कर रहे हैं। अब अगर अपना बेटा अपनी ही जमीन पर कुछ करना चाहता है तो आपके भाई और आपके भतीजों को एक आँख नहीं सुहा रहा है। बस जिद है कि सामने गेट न रहे। आज से तो वे लोग उसी पेड़ के नीचे गाय-भैंस भी बाँधने लगे हैं। मार्केट बनेगा तो सामने यह सब अच्छा लगेगा क्या?
मैं सोचता, क्या ऐसे में बाबा अपना सन्तुलन बरकरार रख पाएँगे। क्या सच के साथ वे स्थिर होकर खड़े रह पाएँगे। पंचायत के दिन जैसे ही बाबा घर से निकलने वाले थे कि मझली फूफी सपरिवार आ पहुँची और बाबा के गले में झूलकर उन्हें मजबूर करने लगीं। बाबा किसी तरह उनसे छूटकर पंचायत के लिए रवाना हुए।
आज पंचायत में क्या कहेंगे बाबा? मुझे लगने लगा था कि बाबा अब टिक नहीं पाएँगे। उस रात जो कुछ भी उन्होंने छोटे बाबा से कहा था उसे आज समाज के सामने दुहरा पाएँगे क्या?
लड्डन मियाँ के दरवाजे पर पंचायत जमी। पंचों के अलावा गाँव के तमाम इज्जतदार लोग चारपाइयों पर जमे थे। रामचन्दर बाबू और राजनाथ सिंह बाबू खासतौर से रामपुर से बुलवा लिये गये थे।
पहले सुरती-सुपारी और पान-पत्ते का दौर चला फिर रामचन्दर बाबू ने बात शुरू की; पहले तो यह कहना चाहता हूँ कि इस पंचायत की जरूरत क्यों पड़ी। दोनों भाई घर में ही बात समझ लेते, न जफरू मियाँ के पास पेड़-पालो की कमी है न ही जमालू के पास, तो इ एक ठो पेड़ कहाँ से झंझट का जड़ बन गया भाई।
फिर वे चुप हो गये। सभी चुप थे। बाबा उनकी बगल वाली चारपाई पर बैठे थे। सुस्त और ढीले लग रहे थे वे। दोनों पैरों को उन्होंने सटाकर हाथों के सहारे से बाँध लिया था और मुँह नीचे किये अपने घुटनों पर आँखें गड़ाये हुए थे। उनकी मुद्रा देखकर मेरे मन में कुछ आशंका हुई। सम्भावित अनिष्ट की कल्पना से मैं सिहर उठा। छोटे बाबा ठीक सामनेवाली चारपाई पर थे, सिर उसका भी नीचे की ओर था लेकिन वे दयनीय नहीं लग रहे थे।
रामचन्दर बाबू फिर बोले, “एक बात और... रामपुर में कोई मामला उलझता है तो हम तो जफरू मियाँ को बुलाते हैं क्योंकि वे हमेशा हक की बात करते हैं। और आज जफरू मियाँ बोल दें, पेड़ किसका है... सभी पंच मान लेंगे... बात खत्म... सब घर लौटें... जमालू को भी कोई एतराज न होगा। का हो जमालू मियाँ?”
“महाराज सही कहते हैं”, छोटे बाबा ने तत्काल हाथ जोड़ते हुए कहा। फिर वे कुछ रुककर बोले, “आप जो कहते हैं, सोलह आने ठीक है। पंचों के सामने कहता हूँ भैया जो कह देंगे सिर आँखों पर, उनका हुकुम लेकर घर चला जाँऊगा। मरने से पहले अब्बा बहुत कुछ दे गये हैं... अब भैया...”
रामचन्दर बाबू उनको रोकते हुए बोले, “तो जफरू बोलिए, नीम के पेड़ का मामला क्या है?”
बाबा उसी तरह सिर नीचे किये बैठे रहे। कुछ गुनते-बुनते। सभी शान्त थे। मेरे अब्बू और चाचा लोगों के चेहरे पर कोई विशेष भाव नहीं थे। वे समझ रहे थे कि बाबा क्या बोलने वाले हैं। यह पेड़ तो अब्बा मेरे छोटे भाई के नाम कर गये हैं। उसी का है, लेकिन मुझे अब तक डर लगने लगा था। बाबा ने अभी भी बोलना नहीं शुरू किया था, मैंने देखा कि पैरों को अपने हाथों के बन्धन से मुक्त करके वे सीधे बैठ गये थे। सुरती-सुपारी वाले बटुए को कभी इस हाथ में लेते तो कभी उस हाथ में। सच बोलने की तैयारी कितनी कठिन होती है! फिर उन्होंने धीरे से खखारा लेकिन कुछ नहीं निकला। मुँह में आया पानी अन्दर-ही-अन्दर पी गये। फिर खाँसने की कोशिश की लेकिन खाँस नहीं पाये। अब बोलने के अलावा कोई चारा नहीं था। बाबा एकदम से बोल पड़े, “महाराज, पेड़ तो हमारा ही है, जमालू बेवजह ही दावा ठोक रहे हैं... अब्बा अपनी जिन्दगी में ही सब साफ कर गये थे।”
मैंने कैसा अनुभव किया, पूरा-पूरा नहीं बता सकता। सिर्फ इतना याद है कि एक पल के लिए मेरी आँखों के सामने अँधेरा छा गया। कानों पर विश्वास नहीं हुआ। काटो तो खून नहीं। अब्बू और चाचा लोग तो जैसे सोते से जगे। लगा बाबा को उठाकर कन्धे पर बैठा लेंगे और जय-जयकार करने लगेंगे। जफर मार्केट जिन्दाबाद, जफर मार्केट जिन्दाबाद। और छोटे बाबा? वह अवाक् थे...? मुँह आश्चर्य से खुला रहा गया... एकटक अपने बड़े भाई को देखे जा रहे थे।
दो-चार मिनट तक चुप्पी छायी रही। फिर कुछ सुगबुगाहट, भुनभुनाहट शुरू हो गयी। रामचन्दर बाबू सिर नीचे किये तम्बाकू रगड़ रहे थे... शायद कुछ सोच रहे थे... फिर धीरे से पूछे, जैसे स्वयं को आश्वस्त करना चाहते हों, “तो जफरू मियाँ पेड़ पर आप ही का हक है?” बाबा ने अपनी खाँसी और खँखार में अपने 'हाँ' को मिला दिया लेकिन सुनने वाले ने 'हाँ' को एक बार फिर सुना।
रामचन्दर बाबू ने दबे स्वर में कहा, “तो ठीक है। अब पंचायत समाप्त करें। बात साफ करना था सो हो गयी। हाँ, अगर जमालू मियाँ कुछ कहना चाहें तो कहें।” छोटे बाबा के मुँह से कुछ न निकला। मुझे लगा छोटे बाबा के दोनों बेटे लोग मार-पीट गाली-गलौज पर उतारू हो जायेंगे लेकिन वे शान्त भाव से अपने अब्बा को सहारा देकर पंचायत उठा ले गये।
पंचायत खत्म हो जाने के बाद मुझे सबके साथ घर जाना अच्छा नहीं लगा। अपने बाबा, अब्बू और चाचा लोगों को मैंने जाने दिया। उलटे मैं बाजार की ओर चला गया। मैं बड़ी देर तक बाबा के बारे में सोचता रहा। उनका वह चेहरा मेरी आँखों के सामने नाचता रहा जब वह पंचायत में सच बोलने की तैयारी कर रहे थे, लेकिन बोल नहीं पाये थे। सच जब कई-कई कोणों से उनके चेहरे पर हमला कर रहा था तो कैसे दबे-दबे-से, कैसे निर्जीव और निस्तेज हो गये थे। मैं सोचने लगा कि बाबा ने जब एक सच को झुठलाया था तो कैसे झुठलाया होगा। घर के लोगों का दबाव तो था ही, गुस्से में भी थे वे। तलाकशुदा बेटी का चेहरा, फिर उसकी लाश घूम गयी होगी आँखें के सामने। उनके भाई उन्हें रावण नजर आये होंगे। कुछ चीजें और भी बदली होंगी बाबा के आसपास। मसलन चसरें तरफ खड़े हरे-भरे पेड़ उन्हें ठूँठ नजर आये होंगे। पानी से भरा हुआ कुआँ उन्हें सूखा दिखाई पड़ा होगा। दरवाजे पर बँधे गाय-गोरू उन्हें मिट्टी के लौंदे जैसे दिखे होंगे। उनके अगल-बगल चारें तरफ बैठे पंच पत्थर के बुतों में तब्दील हो गये होंगे। कई दुकानों वाला जफर मार्केट चमक गया होगा आँखों के सामन। बाबा इन्हीं झमेलों में अटक-भटक गये होंगे। और सत्य इन्हीं झमेलों में पड़कर हार गया होगा। उसी दृष्य-अदृष्य के खेल में पड़कर बाबा झूठ बोले होंगे। नीम का वह पेड़ उन्हें अपना लगा होगा।
उस दिन हमारे घर में जश्न का माहौल था। पंचायत का बहाना लेकर सारे रिश्तेदार तो इकट्ठा ही थे। रात में दावत जैसा समा बँधा था। सबको जीत की खुशी थी। बाबा ने तबीयत ठीक न होने का बहाना करके कुछ भी नहीं खाया। वे बिस्तर उठाकर मड़हे में सोने चले गये। वैसे तो आज मेरा उनके साथ सोने का बिल्कुल मन नहीं था, लेकिन मुझे उनसे कुछ पूछना था, सो दावत उड़ाने के बाद मैं भी मड़हे में सोने पहुँच गया। मेरे किसी भी प्रश्न का जवाब उन्होंने नहीं दिया। बल्कि तबीयत खराब होने का बहाना करके जल्दी ही सो गये। वैसे तो उनके सो जाने के बाद भी मैं बिना उनका पैर दबाये नहीं सोता था, लेकिन आज मेरा पैर दबाने का मन ही नहीं हुआ। मैं भी सोने लगा, और फिर सो गया।
देर रात मेरी नींद टूटी। कोई ठीक हमारी चारपाई के पैताने खड़ा होकर धीरे-धीरे भर्रायी आवाज में पुकार रहा था, हे भैया... भैया जरा उठिए... कुछ बात करना है आपसे... हे भैया...
बाबा नहीं उठे। हम भी कुनमुनाकर रह गये, एक-दो बार और बुलाने के बाद वे दबे पाँव वापस चले गये।
सभी के सोकर उठ जाने के बाद भी बाबा नहीं उठे। तबीयत ठीक नहीं थी, यह सोचकर उन्हें कुछ देर और सोने दिया गया। लेकिन उसके बाद उनका सोते जाना असामान्य लगा। फिर एक के बाद एक कई लोगों ने उन्हें जगाने की कोशिश की लेकिन सभी कोशिश नाकाम हुईं। वे सचमुच सो गये थे। अब नही उठेंगे बाबा, कभी नहीं।
सभी रिश्तेदारों को आज जाना था, लेकिन अब रुकना पड़ा। बाबा बहुत बूढ़े और कुल मिलाकर अनुपयोगी हो चुके थे, तो ज्यादा गम की बात भी नहीं थी, उनकी मौत पर दादी और हम बच्चों के अलावा किसी और को आँसू बहाते नहीं देखा। हाँ, रोते जैसा सभी लग रहे थे। पूरा गाँव हमारे घर टूट पड़ा था। छोटे बाबा भी वहीं लाश के बगल में दीवार से लगकर बैठे थे। जमीन पर ही। बाबा की लाश पर कोई मक्खी बैठ जाती तो बस वे उसे उड़ा देते। उनकी आँखें लाल-लाल... सूजी हुई थीं। लगा पंचायत से लौटने के बाद रातभर सिसक-सिसककर रोये थे।
मिट्टी मंजिल हो जाने के बाद दूसरे दिन सब लोग अपनी-अपनी तरह से इस अचानक हुए हादसे का स्पष्टीकरण दे रहे थे। मेरे फूफाजी ने सबसे मजेदार बात कही, बुढ़ऊ नेक आदमी थे, मरने से पहले सब बाल-बच्चों, रिश्तेदारों से मिल-मिला लिये। पंचायत तो बस एक बहाना थी। अच्छी मौत पाये। छोटे चाचा ने अफसोस जाहिर किया, अब्बा अपने नाम पर बना मार्केट देख लेते तो जाते।
मैंने आज तक यह बात अपने परिवार में नहीं बतायी कि मरने से पहलेवाली रात में कोई मिलने आया था और भैया-भैया कहकर बाबा को जगा रहा था। मुझे डर है कि मेरे अब्बू और मेरे चाचा लोग छोटे बाबा पर शक करेंगे और फिर कुछ भी हो सकता है।