सत्य-संधान का सिनेमा / जयप्रकाश चौकसे

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सत्य-संधान का सिनेमा
प्रकाशन तिथि : 24 अगस्त 2013


अजब-गजब हिंदुस्तानी सिनेमा के एक छोर पर मसाला 'चेन्नई एक्सप्रेस' खड़ी है तो दूसरे छोर पर 'मद्रास कैफे'। यह हमारे सिनेमा की विविधता और दर्शकों की शक्ति है कि वे सभी तरह की फिल्में देखते हैं। अगर 'चेन्नई एक्सप्रेस' कीमे से भरा डोसा है तो 'मद्रास कैफे' दिल-दिमाग की गिजा है। शूजित सरकार की विलक्षण प्रतिभा 'विकी डोनर' देती है तो ऑलिवर स्टोन की 'जे.एफ.के.' की श्रेणी की 'मद्रास कैफे' भी देती है, जिसे हम भारत का पहला सौ प्रतिशत शुद्ध पॉलिटिकल थ्रिलर मान सकते हैं और प्रचार की पंक्ति 'वह षड्यंत्र जिसने एक देश का भविष्य बदल दिया', पर यह फिल्म खरी उतरती है, जिसका शिद्दत से अहसास आज नहीं तो कल सबको होगा।

फिल्मों में जॉर्ज मेलिये के विचार के अनुरूप फंतासी दिखाई जा सकती है और लुमिअर बंधुओं के विश्वास के अनुरूप यथार्थ दिखाया जा सकता है, परंतु फिल्मकार शूजित सरकार सत्य को अपनी फिल्म की 24 फ्रेम प्रति सेकंड से भागती फ्रेम में पकड़ लेते हैं, जैसे एक जमाने में सोलकर सिली मिड ऑन पर बैट्समैन के बल्ले को छूने वाली गेंद को धरती से एक इंच मात्र की दूरी पर पकड़ते थे। ऐसा लगता है मानो इतिहास की अदालत में खड़े शूजित सरकार शपथ ले रहे हैं कि सत्य और सत्य के अलावा कुछ नहीं कहूंगा। आश्चर्य तो यह है कि आज के अंधड़ के दौर में एक फिल्मकार अपनी कला की गीता की शपथ लेकर सत्य का अनुसंधान कर रहा है। यह फिल्म सत्य के अलिखित इतिहास का एक अध्याय है और इसका रहस्य यह है कि जो पढऩा चाहे उसे अक्षर नजर आते हैं और जो कुछ देखना ही नहीं चाहे, उसके लिए कोरा कागज है। कोई भी देश अपने निकट पड़ोसी की त्रासदी से अछूता नहीं रह सकता। पाकिस्तान के बिखर जाने का प्रभाव हम पर भी पड़ सकता है और बांग्लादेश में तालिबानी दरिंदों के खिलाफ की गई कार्रवाई हमें भी प्रेरित कर सकती है। शूजित सरकार श्रीलंका की समस्या और उसमें भारत की भूमिका के उलझे धागों की गांठों को परत-दर-परत खोलते हैं और राजीव गांधी की हत्या के षडयंत्र को उजागर करते हैं। किस तरह अधिकारियों की उदासीनता और जवाबदारी से भागने की प्रवृत्ति ने राजीव गांधी का कत्ल होने दिया। साजिश में देसी-विदेशी हाथ का संकेत भी स्पष्ट है। सरकारी मशीनरी अजीबोगरीब ढंग से धीमे चलती है और कोई एक पुर्जा विरोध करे तो वह व्यवस्था से छिटककर अपनी मजबूरी में सिमटकर रह जाता है। यह हमारी सुस्त व्यवस्था ही है कि हमारे राष्ट्रपिता, प्रधानमंत्री और भूतपूर्व प्रधानमंत्री की हत्याएं हुईं।

फिल्म में नरगिस फाखरी लंदन के एक अखबार की पत्रकार हैं और नायक के साथ उनकी कोई प्रेम-कहानी नहीं है, परंतु सत्य के प्रति उन दोनों का समान आग्रह उन्हें एक डोर से बांधता है। फिल्म में जॉन अब्राहम, नरगिस फाखरी और सिद्धार्थ बसु ने विलक्षण अभिनय किया है। पाठकों को बताना आवश्यक है कि सिद्धार्थ बसु ने भारत में 'क्विज कार्यक्रम' प्रारंभ किए और वे 'कौन बनेगा करोड़पति', 'सच का सामना' की तरह अनेक कार्यक्रम बनाते हैं। वे रंगमंच भी कर चुके हैं।

इस फिल्म के अंतिम दृश्य में उनकी हताशा देश में अनेक लोगों की हताशा का प्रतिनिधित्व करती है। निर्देशक मंच की ओर जाते हुए राजीव गांधी के जूतों का शॉट दिखाते हैं और धमाके के बाद एक जूते का भी शॉट उनकी डिटेल्स का परिचायक है। जॉन अब्राहम और वायकॉम 18 को उनके साहस पर बधाई।