सत्य का सूर्य और विज्ञापन का मुर्गा / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 12 जून 2020
सितारों को विज्ञापन फिल्मों में काम करने से खूब आय प्राप्त हो रही है। यह आय उनके अभिनय के लिए दिए गए मेहनताने से अधिक है। विज्ञापन प्राप्त करने के लिए सितारे एक बिजनेस मैनेजर को नियुक्त करते हैं। कुछ नामी बिजनेस मैनेजर इतने सक्षम हैं कि सितारा अपनी आय उनके साथ बांट लेता है। कमीशन व्यवसाय तंत्र का अनिवार्य अंग है। मेडिकल काउंसिल किसी डॉक्टर को विज्ञापन मुहीम में शामिल होने की इजाजत नहीं देता। एक डॉक्टर अभिनय क्षेत्र में सक्रिय था। उसने विज्ञापन फिल्म के लिए काम किया तो उसका लायसेंस रद्द कर दिया गया।
सितारे विज्ञापन फिल्म करते समय वस्तु की गुणवत्ता का परीक्षण नहीं करते। एक प्रादेशिक लॉटरी का विज्ञापन एक कलाकार ने किया। इस लॉटरी में ठगे जाने वाले एक व्यक्ति ने मुकदमा ठोक दिया। कंपनी के साथ ही कलाकार को भी आरोप पत्र में शामिल किया गया। यह सितारे का नैतिक दायित्व है कि वह विज्ञापित वस्तु की गुणवत्ता का परीक्षण करे। अब सितारे को क्या दोष दें, जब कोई भी व्यक्ति नैतिक दायित्व का वहन नहीं कर रहा है। चुनाव के समय के किए गए वादे, नेताओं ने पूरे नहीं किए परंतु अवाम ने उनसे सफाई नहीं मांगी। अत: नए वादों का निर्माण अब व्यवसाय बन गया है। वादा गढ़ने का विभाग बनाया जा सकता है और उसके लिए विज्ञापन दिया जा सकता है।
इंग्लैंड के महान कलाकार सर लॉरेंस ऑलिवर ने अपनी प्रिय सिगार के विज्ञापन के लिए दिया गया प्रस्ताव अस्वीकर कर दिया था, वे धूम्रपान को बढ़ावा नहीं देना चाहते थे। यह उस दौर की बात है, जब धूम्रपान का विरोध किया जाता था। शम्मी कपूर ने एक तम्बाकू उत्पाद का विज्ञापन कर दिया। उनके बड़े भाई राज कपूर ने उन्हें आड़े हाथों लिया। उन्होंने स्पष्टीकरण दिया कि उनके एक मित्र को आर्थिक संकट था और उसी समय विज्ञापन का प्रस्ताव आया। इस सफाई ने उन्हें भारी कष्ट में डाल दिया। राज कपूर हत्थे से उखड़ गए कि क्या शम्मी अपने मित्र की सहायता स्वयं अपने धन से नहीं कर सकते थे? मुद्दा यह उठता है कि क्या सहायता के लिए दिया गया धन स्वयं की खरी कमाई का होना चाहिए? गांधी जी का विश्वास था कि अपवित्र साधन से साध्य भी कलंकित हो जाता है। ईमानदारी से कमाए धन के महत्व को बही खाते में लिखे लाभ-शुभ और शुभ-लाभ द्वारा भी रेखांकित किया गया है। ज्ञातव्य है कि दिलीप कुमार, देव आनंद और राज कपूर ने कभी विज्ञापन फिल्मों में काम नहीं किया।
कंपनी विज्ञापन में खर्च की गई राशि को निर्माण मूल्य में जोड़कर उस पर अपना लाभ लेती है। ग्राहक ही विज्ञापन का व्यय भी वहन कर रहा है। विज्ञापन पर किया गया खर्च लागत मूल्य में नहीं जोड़ने पर ग्राहक को उचित दाम में वस्तु मिल सकती है। परंतु हमारे युग में तो विज्ञापन के मुर्गे के बांग देने के बाद ही सूर्य उदय होता है। विचारणीय यह है कि क्या ग्राहक सचमुच विज्ञापन से प्रभावित होता है? ग्राहक प्रभावित होते हैं, इसीलिए एक कंपनी गाय का उतना घी बेच रही है, जितनी दुधारू गायें पूरे भारत में ही नहीं हैं। उतना शहद बेचा जा रहा है, जितनी मधुमक्खियां नहीं हैं। विज्ञापन में धर्म का तड़का भी लगाया गया है। चुनाव प्रचार में भी यह सब शामिल है। परिणाम इसे सत्य सिद्ध कर रहे हैं। यह कोई नहीं जानता कि सपेरा क्यों बीन पर नाच रहा है?
विज्ञापन की सफलता के पीछे हमारी भेड़ चाल की प्रवृत्ति के साथ ही आपसी प्रतियोगिता की यह बात भी शामिल है कि उसकी कमीज मेरी कमीज से उजली क्यों है?
विज्ञापन फिल्मों के माध्यम से कुछ महत्वपूर्ण जानकारियां भी अवाम को उपलब्ध कराई जाती हैं। दवा बनाने वाले अपने नए प्रोडक्ट की जानकारी डॉक्टरों तक पहुंचाते हैं। आज जब सब अपने व्यवसाय में लगे हैं, अत: किसी को मुजरिम समझकर कैसे दोष लगाया जा सकता है? सब अपनी जगह ठिकाने पर हैं, परिंदे उड़ रहे हैं, घोंघे रेंग रहे हैं, कहीं किसी को कोई शिकायत नहीं जमाने से।