सत्य घटना आधारित फिल्म में काल्पनिक पात्र / जयप्रकाश चौकसे

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सत्य घटना आधारित फिल्म में काल्पनिक पात्र /
प्रकाशन तिथि : 09 अगस्त 2014


दशकों पूर्व हम्प्री बोगार्ट आैर बेटी डेविस अभिनीत सत्य घटना पर आधारित फिल्म बनी थी 'मार्क्ड वीमन'। सत्य घटना यह थी कि संगठित अपराध द्वारा संचालित तवायफखाने की एक दर्जन साहसी महिलाएं अपराध सरगना के खिलाफ गवाही देने को तैयार हो गईं आैर उस शक्तिशाली सरगना के खिलाफ अकाट्य प्रमाण होने के कारण उसे बीस वर्ष का कठोर कारावास दिया गया। सरकारी वकील ने केस के लिए बहुत परिश्रम किया आैर बदनाम गली में कई बार जाने का जोखिम भी उठाया। उसे उन तवायफों ने बताया कि पहले उन्होंने मेहनत से कारखानों आैर दफ्तरों में नौकरी की आैर कम वेतन से अधिक शिकायत उन्हें इस बात की थी, वहां भी उनसे छेड़छाड़ होती थी आैर अभद्र प्रस्ताव मिलते थे गोयाकि महिला होने का मुआवजा तो हर क्षेत्र में चुकाना पड़ता है तथा ऐसे हालात में शरीर बेचने के व्यवसाय में धन ज्यादा मिलता है। अपराध सरगना हमारी रक्षा करता है आैर सारी व्यवस्था के एवज में पचास प्रतिशत कमीशन लेता है। उस बदनाम गली में फक्कड़ शायर मिजाज आदमी कहता है कि यहां हो रहे शोषण के लिए केवल अपराध सरगना नहीं वरन् पूरी व्यवस्था तथा नारी के प्रति पुरुष दृष्टिकोण जिम्मेदार है। कमीशन का एक हिस्सा पुलिस को भी जाता है तथा इस मायने में संगठित अपराध सरगना सरकार का ही नुमाइंदा है आैर वसूली के लिए नियत अधिकारी की तरह है।

इस फिल्म का नायक है कि वह अन्य अपराधों की तरह ही सही परंतु स्त्रियों के इस व्यवसाय में क्यों संलग्न है। अपराधी का जवाब है कि उसे धन का कोई मोह नहीं है, वह केवल एक चीज से संतोष पाता है कि लोग उसकी बात मानने के लिए बाध्य है अर्थात अपनी राय आैर विचार दूसरों पर लादने में उसे आनंद मिलता है। यह तो तानाशाह की बनावट की तरह है कि सारी शक्ति का वह केंद्र है आैर उसकी आज्ञा सबको शिरोधार्य हो अर्थात विचार की स्वतंत्रता के खिलाफ यह सारी हरकत है।

इस फिल्म के फिल्मकार लॉयड बेकन ने लेखक रॉबर्ट रोसेन आैर फिन्केल से मिलकर मूल गवाह की मासूम बहन का काल्पनिक पात्र गढ़ा जो बहन के व्यवसाय से अपरिचित, मिलने आती है। उसी समय पुलिस दबिश डालती है। परिणामस्वरूप निर्दोष छोटी बहन भी पकड़ी जाती है आैर मीडिया सभी के चित्र प्रकाशित करता है। जमानत से छूटने के बाद छोटी बहन कहती है कि अब उसे समाज किस तरह देखेगा? स्कूल से निकाल दी गई है आैर उसके सामने बहन की राह चलने के सिवा रास्ता नहीं बचा। समाज अपराध से नहीं, संदिग्ध व्यक्ति से भी नफरत करता है, यही कारण है कि घोर अपराध की सजा काटकर निकले लोग बड़े अपराध की राह पर जाने के लिए बाध्य हैं। अपराध सरगना के गुंडे जमानत पर छूटी औरतों पर जुल्म ढाते हैं कि वे मुकदमे में गवाही दें। इस प्रक्रिया में निर्दोष छोटी बहन के कत्ल के कारण बड़ी बहन आैर उसकी कुछ सहेलियों ने दृढ़ निश्चय किया कि गवाही देकर रहेंगी।

गौरतलब है कि सत्य घटना में एक काल्पनिक पात्र डालकर नीरस कहानी में भावना के संचार के दृश्य बन गए जो फिल्म की ताकत होते हैं। इसी तरह मनोज कुमार की भगत सिंह पर आधारित 'शहीद' में काल्पनिक पात्र प्राण का चरित्र डालने से शहादत की धार पैनी हो गई क्योंकि जरायम पेशा प्राण देशभक्तों के कष्ट देखकर अपने जीवन पर पशेमान है आैर फांसी के लिए जाते भगत सिंह से हाथ मिलाकर जीवन को सार्थक मानता है।

बहरहाल असल आैर फिल्म दोनों में मुकदमे के बाद सरगना जेल भेजा जाता है आैर गवाह साहसी महिलाओं को कोहरे में अदृश्य होते दिखाया जाता है। अब उन महिलाओं का क्या होगा? समाज स्वीकारेगा, पुलिस अपराधियों से उन्हें बचा पाएगी? यहीं फिल्म आैर सत्य घटना समाज को अंतिम अपराधी की तरह कटघरे में खड़ा करती है। फिल्म में कोर्ट में सरकारी वकील देखता है कि मुख्य गवाह के गाल पर अपराध सरगना ने चाकू से एक चिह्न गोद दिया है जिस कारण शीर्षक है 'मार्क्ड वीमन'। जानवरों के पुट्ठों पर पहचान के लिए ऐसे चिह्न बनाए जाते हैं।

सआदत हुसैन मंटो की कथा है कि शहर के विकास के बाद तवायफों को शहर से दूर खदेड़ दिया जाता है। उस निर्जन स्थान पर ग्राहक आते हैं तो पान चाय नाश्ते की दुकानें बनती है। कालांतर में वह शहर बन जाता है आैर सुधारवादी कमेटी आदेश देती है कि तवायफों को बाहर खदेड़ दो। यह सिलसिला ऐसे ही चल रहा है।