सत्य घटना प्रेरित फिल्मों का महत्व / जयप्रकाश चौकसे

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सत्य घटना प्रेरित फिल्मों का महत्व
प्रकाशन तिथि :09 दिसम्बर 2016


आजकल फिल्मकार और उनके लेखक सत्य घटनाअों पर आधारित फिल्मों की रचना का प्रयास कर रहे हैं जैसे 'नीरजा' रची गई थी। एक दुर्घटना में कटे पैर और शल्यक्रिया से नकली पैर लगाने वाली एक महिला ने एवरेस्ट की चढ़ाई की और उसके जीवन पर भी फिल्म बनाने के प्रयास जारी हैं। मिल्खा सिंह का बायोपिक बहुत सफल रहा था और घिसटते हुए महेंद्र सिंह धोनी का बायोपिक भी सफल हो ही गया था। अत: मौजूदा विचार प्रक्रिया में सत्य घटना से प्रेरित या बायोपिक की ओर रुझान है। विगत की वर्षों से पूजा एवं आरती शेट्‌टी ने मेजर ध्यानचंद के बायोपिक की पटकथा बनाई है अौर धन्य है जर्मन देश, जिसने उस स्टेडियम का रखरखाव जारी रखा है, जहां मेजर ध्यानचंद खेले थे। हिटलर ने मेजर ध्यानचंद को बहुत प्रलोभन दिए थे कि वे जर्मनी के खिलाफ नहीं खेले परंतु मेजर ध्यानचंद ने भारत को विजय दिलाई। भारत ने लगातार पांच बार हॉकी का गोल्डमैन जीता। आज बाजार की विज्ञापन शक्तियां केवल क्रिकेट को ही बढ़ावा दे रही हैं और कबड्‌डी तथा हॉकी जैसे खेल नज़रअंदाज किए जा रहे हैं। खेलों को जिंदा रखने के लिए उन्हें आभामंडित करना पड़ता है। सत्य कथाओं पर आधारित फिल्मों में मिल्खासिंह बायोपिक भी एक प्रेमकथा ही थी।

ज्ञातव्य है कि 1933 में 'किन्गकॉन्ग' फिल्म में भी विशाल वनमानुष और एक लड़की की प्रेम-कथा जोड़ी गई थीं और मार्मिक प्रसंग बन पड़े थे। विज्ञान फंताती में भी प्रेम-कथा जोड़ी जाती हैं और अपने ग्रह को लौटते हुए ई.टी. की आंख में आंसू दिल दहला देते हैं। विज्ञान फंतासी का सारा तकनीकी तामझाम उस एक आंसू की बूंद के बिना खोखला व अधूरा रह जाता है। मनुष्य की मुस्कराने और आंसू बहाने की क्षमता के कारण ही उसके अफसाने दिलकश होतेे हैं और अांसू के मध्य से मुस्कान को प्रस्तुत करना सिनेमाई कला का शिखर होता है। मुंशी प्रेमचंद और निराला के जीवन पर भी फिल्में बन सकती हैं। आजकल टेलीविजन पर एक महाकवि पर कार्यक्रम भी खूब लोकप्रिय हो रहा है। उसके एंकर 'आप' राजनीतिक दल के बड़े हिमायती रहे हैं और अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी कार्यक्रम से भी जुड़े हुए थे। इस प्रसंग में यह आश्चर्यजनक है कि अमिताभ बच्चन अपने पिता हरिवंशराय बच्चन का बायोपिक नहीं बना रहे हैं, जिसमें वे स्वयं अपने पिता की भूमिका को अभिनीत कर सकते थे। रमेश बहल की 'पुकार' की गोवा में की गई शूटिंग में हरिवंश बायोपिक के प्रसंग पर अमिताभ बच्चन उदासीन बने रहे। यह संभव है कि हरिवंशजी के बायोपिक में कर्कल एपिसोड उनके पिता की छवि को चोट पहुंचा सकता है। सत्य से साक्षात्कार से मनुष्य घबराता है, क्योंकि वह स्वयं के बारे में गढ़ी गई कपोल-कल्पना में ही जीना चाहता है। राजा-महाराजा शिकार खेलने जाते परंतु शेर की दहाड़ से वे कांपने लगते थे और अपने नौकर द्वारा मारे गए शेर के मृत शरीर पर पैर रखकर फोटो खिंचवाते थे। आज भी उनके वंशज उनके शिकार की गौरवगाथाएं सुना रहे हैं। अधिकांश गौरव-गान इसी तरह रचे गए हैं। इतना ही नहीं, हमने अपने इतिहास को भी खूब रोमेंटीसाइज किया है।

हर सरकारी भवन में 'सत्यमेव जयते' स्वर्ण अक्षर में लिखा हुआ हम देखते हैं परंतु सत्य से नज़र मिलाने का साहस हम में कम ही रहा है। वर्तमान राजनीति में भी एक छवि गढ़ी जा रही है, उस व्यक्ति को किवदंती बनाने के प्रयास हो रहे हैं। राजा ने एक जीनियस की तरह बिना आपातकाल की घोषणा किए ही कुछ ऐसा वातावरण रचा है कि करेंसी परिवर्तन से चौपट हुए जीवन में भी लोगों से कहलाया जा रहा है कि इस वर्तमान कष्ट की नींव पर ही सुखद भविष्य की रचना होगी। भारत कथावाचकों और श्रोताओं का अनंत देश है। हम अफसानों में खोए रहना चाहते हैं, क्योंकि भयावह सच का सामना हम नहीं करना चाहते। हमारे देश के चौकीदार 'जागते रहो' का नारा लगाकर सो जाते हैं। हमें सोना पसंद है, क्योंकि हम सपने देखना चाहते हैं। यहां तक तो सबकुछ स्वाभाविक है परंतु जागते हुए स्वप्न में तल्लीन रहना भयावह है। सारी दुर्घटनाएं जागते हुए सोने के कारण ही होती है।