सदस्य वार्ता:Sudha singh

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महादेवी वर्मा: अनोखा एक नया संसार

महादेवी का काव्य संसार कई मायनों में विशिष्ट और अनूठा है। विशेषत: उन जगहों पर जहाँ छायावाद के संदर्भ में निजता,अनुभूति ,स्व और सामाजिकता की बार-बार बात की जाती है। महादेवी छायावाद की सीमा में दाखिल होने वाली और उसमें अपनी जगह बनाने वाली एकमात्र कवियित्री थी। जो सबसे बाद में छायावाद की परिसीमा में आई और सबसे अंत तक रही, जब छायावादी शैली की कविता नहीं लिख सकीं तो कविता लिखने से ही अलविदा कह दिया। अन्य छायावादी कवियों की तरह वे प्रगतिवाद और दूसरी धारा की कविता-यात्रा में शामिल नहीं हुई। सन् 80 के दशक तक वह जीवित रहीं, लगातार सक्रिय रहीं, गद्य लेखन में लगातार सक्रिय रहीं किंतु कविता के संसार की ओर उन्होंने मुड़कर नहीं देखा। कविता की खास शैली,विषयवस्तु को लेकर महादेवी की यह अत्यधिक संवेदनशीलता कई सवालों को उठाती है, हिन्दी आलोचना ने महादेवी की कविता और काव्य जगत को लेकर कोई गंभीर रूख नहीं दिखाया है। महादेवी की कविता की विषयवस्तु के आधार पर और लगभग महादेवी से भी ज्यादा बार दोहराते हुए महादेवी की कविता को सीमित भावबोध की कविता आंसू,वेदना और करूणा की कविता आदि कहकर छुट्टी पा ली है। महादेवी की कविता की धारणा वही नहीं है जो समकालीन छायावादी कवियों की है। आमतौर पर मर्दवादी आलोचना ने उनके काव्य और गद्य में अंतर किया है। मसलन् अमृत राय ने यहां तक लिखा है महादेवी के काव्य को मूलत: आत्मकेन्द्रिक,आत्मलीन कहना ठीक है; अपनी ही पीड़ा के वृत्ता में उसकी परिसमाप्ति है। संसार की पीड़ा का स्वत: उसके लिए अधिक मूल्य नहीं है, मूल्य यदि है तो कवि की पीड़ा के रंग को गहराई देने वाले उपादान के रूप में। आगे लिखा महादेवी का गद्य मूलत: समाजकेन्द्रिक है। इस प्रसंग में सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है जिसकी ओर रामविलास शर्मा ने ध्यान खींचा है, उन्होंने लिखा है महादेवी का साहित्य आधुनिक काल में नारी-जागरण्ा से घनिष्ठ रूप से सम्बध्द है। आगे लिखा उनकी करूणा व्यक्तिपरक अथवा आत्मपरक ही नहीं है। वह बहिर्मुखी समाजपरक भी है। रामविलास शर्मा ने महादेवी के हंसी के रहस्य का उद्धाटन करते हुए लिखा यह हँसी आवरण है। इसके नीचे मानव-जीवन की गहरी परख और उसी के अनुरूप समवेदना छिपी हुई है। इसी तरह गंगा प्रसाद पांडेय ने उनके यहां समन्वयवादी दृष्टि और सामंजस्यपूर्ण जीवन दर्शन को उनकी कविता का मूलाधार बताया है। वहीं डा.नगेन्द्र को ऐतिहासिक एकसूत्रता नजर आती है। इस प्रसंग में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि महादेवी वर्मा न तो सामंजस्यवादी हैं और न समन्वयवादी ही हैं। बल्कि स्त्रीवादी हैं। उनकी कविता का आधार समन्वयवाद नहीं है। बल्कि अनुभूति है। कविता का समस्त कार्य-व्यापार अनुभूति के आधार पर ही चलता है। यहां तक कि प्रकृति संबंधी कविताओं में भी उन्होंने इसी को आधार बनाया है। महादेवी ने नीलाम्बरा की भूमिका में लिखा है मेरे गीतों में प्रकृति मेरी भावानुकृति बनकर ही आ सकती थी, पर उसके संबंध में कुछ भी कहना मेरे लिए सहज नहीं। सामान्य तौर पर रूपवादी नजरिया शब्द और भौतिक संसार का रिश्ता नहीं मानता। यही बीमारी संरचनावादी नजरिए में भी है। इन दोनों ही किस्म के नजरिए का प्रतिवाद करते हुए शब्दों का भौतिक संबंध रेखांकित करते हुए महादेवी लिखा ने शब्द संकेत लौकिक पृष्ठभूमि में बनते हैं , अत: अलौकिक संवेगों की अभिव्यक्ति भी लौकिक शब्द प्रतीकों में ही सम्भव है। केवल अलौकिक संवेदन के भवपत्र में प्रकृति के व्यापक रूप का फैलाव अधिक मिलेगा। जिन साधक कवियों ने प्रकृति को माया माना,उन्होंने भी उसकी निन्दा के लिए उस पर चेतना का आरोप किया और उसके रूपाकर्षण को स्वीकार किया। महादेवी की कविता और गद्य की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह सब चीजों को स्त्री के साथ जोड़कर पेश करती है। प्रकृति को स्त्री से जोड़ती हैं, स्वाधीनता के भाव को स्त्री से जोड़ती हैं, काव्यबोध को स्त्री से जोड़ती हैं, स्वाधीनता संग्राम को स्त्री से जोड़ती हैं। पूंजीवाद की व्याख्या करते हुए स्त्री को आधार बनाती हैं। असमानता और वैषम्य पर बातें करते हुए स्त्री संदर्भ को केन्द्र में रखती हैं। कहने का तात्पर्य यह है स्त्री के बिना महादेवी के भाव, विचार, विषयवस्तु और संसार के किसी भी कार्य व्यापार की कल्पना नहीं की जा सकती। स्त्री को इस तरह सृजन ,समाज और विचार के साथ अन्तर्ग्रथित करने का भाव ही है जो उन्हें छायावादी नहीं स्त्रीवादी बनाता है। छायावादी कविता में स्त्री अपने इतिहास के साथ दाखिल नहीं होती बल्कि स्त्री के इतिहास को छायावादी कवियों ने धुंए का इतिहास बना दिया है। स्त्री का इतिहास इतना मलिन और फीका नहीं है कि उस पर बात न की जाए, यह सोने जैसा इतिहास है। लेकिन इस ज्वलित इतिहास को धूमिल बनाकर पेश किया गया है। इस इतिहास में से स्त्री को ढूंढ़ना मृत्यु में जीवन ढूंढ़ना है। विस्मरण में स्मरण की कथा है यह। जैसे शेषयामा यामिनी मेरा निकट निर्वाण नामक कविता में महादेवी ने लिखा स्वर्ण की जलती तुला आलोक का व्यवसाय उज्ज्वल/ धूम-रेखा ने लिखा पर यह ज्वलित इतिहास धूमिल/ ढूंढती झंझा मुझे ले / मृत्यु का वरदान। महादेवी की कविता में से स्त्री को निकालकर किसी भी किस्म का विमर्श तैयार नहीं किया जा सकता। स्त्री को विश्व के समस्त कार्य-व्यापार में आधार बनाने का प्रधान कारण यह है कि स्त्री समस्त संस्कृति की सर्जक है। वह सिर्फ एक लिंग मात्र ही नहीं है। वह संसार को चलाने वाली गाड़ी के दो पहियों में से एक पहिया नहीं है। मानव सभ्यता के विकास की सभी संस्कृतियों में स्त्री सक्रिय रही है। स्त्री की यही सक्रियता है जो उन्हें अपनी तरफ खींचती है। जैसे -

तुम अमर प्रतीक्षा हो, मैं पग विरह पथिक का धीमा; आते जाते मिट जाऊँ पाऊँ न पंथ की सीमा! इसी तरह भारतमाता के शस्य-श्यामला वाले चित्र के एकदम विपरीत भारतमाता/स्त्री की एकदम नयी छवि पेश करते हुए लिखा- कह दे माँ क्या अब देखूँ ! देखूँ खिलतीं कलियाँ या प्यासे सूखे अधरों को , तेरी चिर यौवन-सुषमा या जर्जर जीवन देखूँ। ...

कलियों की घन -जाली में छिपती देखूँ लतिकाएँ या दुर्दिन के हाथों में लज्जा की करूणा देखूँ !

स्त्री की नियामक भूमिका को रेखांकित करने से मर्दवादी नजरिया परहेज करता रहा है। स्त्री की केन्द्रीय भूमिका की उपेक्षा के लिए तरह-तरह के बहाने खोजता रहा है। महादेवी ने लिखा नारी केवल मांस पिंड की संज्ञा नहीं है। आदिम काल से आज तक विकास पथ पर पुरूष का साथ देकर ,उसकी यात्रा को सरल बनाकर उसके अभिशापों को स्वयं झेलकर और अपने वरदानों से जीवन में अक्षय शक्ति भरकर, मानवी ने जिस व्यक्तित्व,चेतना और हृदय का विकास किया है,उसी का पर्याय नारी है। किसी भी जीवित जाति ने उसके विविध रूपों और शक्तियों की अवमानना नहीं की, परन्तु किसी भी मरणासन्ना जाति ने ,अपनी मृत्यु की व्यथा कम करने के लिए उसे मदिरा से अधिक महत्व नहीं दिया।

इन दिनों स्त्री को सिर्फ देह के रूप में देखने का नजरिया जोरों पर है। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के तेज हो जाने कारण विभिन्ना माध्यमों से लेकर अन्य विमर्श के क्षेत्रों में स्त्री देह का प्रदर्शन और उसकी शारीरिक सौष्ठव छवि पर ही ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है। भूमंडलीकरण ने स्त्री देह से स्त्री की आत्मा को बाहर कर दिया है। अब हम स्त्री को नहीं स्त्रीदेह को देखते हैं। स्त्री की आत्मा पर नहीं उसके शरीर पर ही ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। स्त्री का जीवन के यथार्थ से कट जाना स्वयं में सबसे बड़ी त्रासद घटना है। इस तरह की दृष्टि का निषेध करते हुए महादेवी ने लिखा नारी ऐसा यंत्र मात्र नहीं, जिसके सब कल-पुर्जों का प्रदर्शन ही ,ज्ञान की पूर्णता और उनका संयोजन ही क्रियाशीलता हो सके। निर्जीव शरीर -विज्ञान ही उसके जीवन की सृजनात्मक शक्तियों का परिचय नहीं दे सकता। आगे लिखा आज की परिस्थितियों में ,अनियंत्रित वासना का प्रदर्शन स्त्री के प्रति क्रूर व्यंग्य ही नहीं, जीवन के प्रति विश्वासघात भी है। नारी-जीवन की अधिकांश विकृतियों के मूल में पुरूष की यही प्रवृत्तिा मिलती है, अत: आधुनिक नारी नए नामों और नूतन आवरणों में भी इसे पहचानने में भूल नहीं करेगी। इसी प्रसंग में महादेवी वर्मा की स्त्री विषयक धारणा पर गौर करना समीचीन होगा। उन्होंने लिखा है उसकी बेड़ियां टूटी नहीं, रूढ़ियां छूटी नहीं, किंतु उसने मुक्त आकाश का स्पर्श पा लिया। इस प्रकार मुक्ति और बंधन दोनों साथ रहे और मेरे विचार में आज भी हैं। इसके अतिरिक्त स्वतंत्र होने के उपरांत विभाजन की रक्त से उफनती वैतरणी ने भी उसे गहरे घाव दिए हैं।

हिन्दी की आलोचना में अनुभूति के सवाल पर अन्तर्विरोधी रवैयया रहा है। जबकि महादेवी वर्मा के लिए अनुभूति की समस्या भिन्ना किस्म की रही है। अनुभूति के वैविध्य को उन्होंने रेखांकित किया है। अनुभूति के अंतर को भी उन्होंने रेखांकित किया है। अनुभूति सामान्य होती है, इस प्रचलित धारणा का उन्होंने खण्डन किया है। महादेवी वर्मा ने लिखा जहां तक अनुभूति का प्रश्न है ,वह तो स्थूल और गोचर जगत में भी सामान्य नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति की दृष्टि फूल को ग्रहण कर ले,यह स्वाभाविक है,परंतु सबके अन्तर्जगत में अनुभूति एक सी स्थिति नहीं पा सकती।

महादेवी की कविता को एकाधिक बार पढ़ने पर कई चीजें दिलचस्प ढ़ंग से सामने आती हैं। महादेवी ने अपनी कई कविताओं में 'ऑंसू' कृति में प्रसाद द्वारा प्रयुक्त छंद शैली अपनायी है। प्रसाद ने जिस तरह के भावों की अभिव्यक्ति 'आंसू' कृति में की है लगभग वैसे ही मिलते-जुलते भाव यहां तक कि मिलती-जुलती पंक्तियां भी महादेवी के यहां हैं। प्रेम का वर्णन, प्रेमजनित असफलता का वर्णन, संसार की निष्ठुरता का जिक्र और अपनी निष्फलता का उल्लेख करते हुए अंतत: व्यापक समष्टि भाव में जीवन की सार्थकता की खोज प्रसाद के यहां है और महादेवी के यहां भी। कह सकते हैं छायावादी कवियों में भावबोध और समवेदना के स्तर पर महादेवी की कविताएं पन्त और निराला की तुलना में प्रसाद के काव्य संसार से ज्यादा मेल खाती हैं। लेकिन वर्ण्य-विषय और उसकी परिणति के एकरूपता के होने के बावजूद स्त्री के अनुभव-संसार और पुरूष के अनुभव संसार का जो फर्क हो सकता है वहीं फर्क प्रसाद और महादेवी की कविता में है।

महादेवी की कविताओं में सहज ही जीवन की कुछ महत्वपूर्ण परिस्थितियां चित्रित हैं। इनमें एकाकीपन एक भाव है जिसे महादेवी की अन्यतम विशेषता मानते हुए अमृत राय ने महादेवी की कविता के बारे में 'एकाकिनी बरसात' पदबंध का प्रयोग किया था, इसके अलावा महादेवी की कविता में 'केयरिंग' भाव दिखाई देता है। जिसमें वह अपने प्रिय के प्रति समर्पणशील होकर उसका दुख, तकलीफ,पीड़ा, थकान, श्रम आदि सबको हर लेना चाहती है। उसके लिए एक आराम की दुनिया निर्मित करना चाहती है, दिखाई देता है। महादेवी की कविता में व्यक्त इस भाव को करूणा नहीं कहा जा सकता। यह प्रेम का ही रूप है। जहां स्त्री समर्पित होकर अपने प्रिय के लिए एक सुंदर दुनिया और सहिष्णु दुनिया बनाना चाहती है, यह स्त्री का सहजात गुण है। कह सकते हैं कि यह उसका प्रकृत गुण है जो प्रकृति के संसर्ग से उसे मिला है। लेकिन यह भी ध्यान रखना चाहिए कि प्रकृति का उलटा है संस्कृति।

पुरूष के लिए या प्रिय के लिए स्त्री का समर्पित होना स्त्री का प्रकृति प्रदत्ता गुण कहा जाता है लेकिन वास्तविकता यह है कि यह संस्कृति निर्मित गुण है। प्रकृति ने हर व्यक्ति को अपने लिए जीना सिखाया है, यहां 'सरवाइल ऑफ फिटेस्ट' की लड़ाई है, यहां सर्वोत्ताम ही जियेगा। दूसरों के लिए जीना अपना कुछ छोड़कर जीना, त्याग करना , इन सभी उदार गुणों को मनुष्य ने अपने भीतर की आदिम प्रकृति को संस्कारित करके ही हासिल किया है। महादेवी का आधुनिक मन मानवता की इस विराट थाती को संभाले हुए पुंस केन्द्रिक मानसिकता से टकराने का साहस करता है। महादेवी अनुदार हुए बिना बराबरी के स्तर पर इस पुरूष केन्द्रित समाज से स्त्री के लिए उतनी ही उदारता, त्याग, ममता और संयम की मांग करती है। प्रेम का समर्पण से नाता है। लेकिन इस समर्पण का अर्थ स्वयं को मिटा देना नहीं है। महादेवी की प्रेम संबंधी पंक्तियां प्रेम के अंतर्गत यौनिक आधार पर गैर बराबरी के संबंध को दरशाने वाली हैं। इसी कारण प्रेम में मिलन की कामना नहीं है। सुखद बात यह है कि महादेवी के यहां इस विषम संबंध की स्वीकारोक्ति नहीं है। छायावाद के अन्तर्गत वैयक्तिकता की पहचान के रूप में प्रेमाभिव्यक्ति को देखा गया है।निजी संबंधों के उद्धाटन को मील का पत्थर बताया गया। यानी छायावाद की अन्यतम विशेषता बताया गया। लेकिन जब स्त्री प्रेम पर कविता लिखती है। तो वह कविता कैसी होगी ? उस काव्य संसार के भीतर क्या-क्या चीजें शामिल होंगी। उस अभिव्यक्ति का रूप क्या होगा ? और नितांत वैयक्तिक भाव के सरोकार कितनी दूर तक जाएंगे इन्हें यदि देखना हो तो महादेवी की कविता को गंभीरता से पढ़ना चाहिए। महादेवी की कविता में प्रेम का जो रूप उभरता है वह इसे गोपन और निजी नहीं रहने देता, यह एक व्यक्ति के मुँह से दूसरे व्यक्ति के कान तक कही गयी कथा नहीं है। स्त्री के साथ सभ्य समाज द्वारा सदियों से किए गए व्यवहार और समस्त स्त्री जाति की तरफ से उसका अस्वीकार है।

प्रेम संबंधी जितनी भी कविताएं लिखीं गयी उन सबका आधार स्त्री शरीर रहा है। भक्तिकाल से लेकर आधुनिक काल तक का साहित्य भी इसका अपवाद नहीं है। प्रसाद 'ऑंसू' की की कविताएं जिनसे महादेवी की कविता की तुलना ऊपर की गई है, देह को आधार बनाकर लिखी गयी हैं। रीतिवादी कविता की तरह ही यहाँ स्त्री शरीर के विभिन्न अंगों का नख-शिख वर्णन किया गया है। महादेवी के आधुनिक स्त्रीवादी विवेचन में स्त्री के शरीर को पाठ के भीतर पढ़ने की दृष्टि पर जोर दिया गया है। स्त्री स्वयं अपने शरीर को कैसे देखती है और पुरूष उसके शरीर को कैसे देखता है वह सृजनात्मक पाठ में कैसे अभिव्यक्त हो रही है यह देखना भी महत्वपूर्ण है। स्त्री के सवालों पर तल्ख ढ़ंग से सोचने और लिखने वाली महादेवी अपनी कविता में स्त्री देह को बहुत ही तटस्थ लेकिन आत्मीय भाव से देखती है। संसार के समस्त उपादानों के प्रत्युत्तार में स्त्री के पास एक उपादान है उसका शरीर ।

स्त्री शरीर महादेवी के लिए समग्र वस्तु है। शरीर के किसी खास अंग की चर्चा उनके यहाँ नहीं मिलती। शारीरिक क्रिया-व्यापार के संदर्भ में ही शरीर की चर्चा आयी है। मसलन् प्रिय की प्रतीक्षा में रत ऑंखें ,प्रिय पथ को बुहारने के लिए उत्सुक पलकें अर्चना के लिए तत्पर अंगुलियों के चित्र महादेवी के यहां मिलते हैं।इन शारीरिक अंगों के अलावा महादेवी की कविता में सबसे ज्यादा देह के साथ प्राण की चर्चा हुई है। ये प्राण कभी उर है कभी ह्नदय है कभी पुलक और कभी वेदना। प्राण शब्द जीवितावस्था के लिए प्रयुक्त न होकर स्त्री की अस्मिता के लिए प्रयुक्त हुआ है। स्त्री की पहचान का सवाल अहम सवाल है। संघर्षरत स्त्री का चित्र महादेवी खींचती हैं लेकिन ऐसी स्त्री के सामने भी पहचान का सवाल सबसे विकट सवाल है। संसार के संघर्ष में लिप्त आत्मनिर्भर स्त्री के लिए पहचान का संकट उसके संघर्ष और कर्म की सामाजिक स्वीकृति से जुड़ा हुआ है। जैसे- दूर घर मैं पथ से अनजान!

मेरी ही चितवन से उमड़ा तम का पारावार; मेरी आशा के नवअंकुर शूलों में साकार ; पुलिन सिकतामय मेरे प्राण! मेरे विश्वासों में बहती रहती झंझावात; आंसू में दिनरात प्रलय के घन करते उत्पात; कसक में विद्युत अंतर्धान! मेरी ही प्रतिध्वनि करती पल-पल मेरा उपहास; मेरी पदध्वनि में होता नित औरों का आभास; नहीं मुझसे मेरी पहचान!

आधुनिक हिन्दी कविता में महादेवी वर्मा अकेली ऐसी लेखिका है जो व्यापक स्तर पर बायनरी अपोजीशन की धारणा के आधार पर भाषिक प्रयोग करती है। उनकी अधिकांश कविताओं में बायनरी अपोजीशन के प्रयोग भरे पड़े हैं।जैसे- 'छाया की आंख मिचौनी', ' आंसू का मोल न लूँगी मैं', ' दीपक में पतंग जलता क्यों', ' शलभ में शापमय वर हूँ', ' हुए शूल अक्षत मुझे धूल चंदन', 'यह व्यथा की रात का कैसा सबेरा है' , ' सब आंखों के ऑंसू उजले सबके सपनों में सत्य पला', 'निमिष से मेरे विरह के कल्प बीते' ,क्यों मुझे प्रिय हों न बंधन' , 'यह संध्या फूली सजीली !' ,' प्रिय चिरंतन है सजनी' आदि कविताओं को विवेचित किया जा सकता है। बायनरी अपोजीशन की रणनीति का इस्तेमाल कविता में नए अर्थ की सृष्टि करता है, एकाधिक अर्थों की सृष्टि करता है। इसे पाठ की देरीदियन रणनीति भी कह सकते हैं। इसके जरिए लेखिका अपनी प्राथमिकताओं को निर्धारित करती है, चीजों को स्वाभाविक और मौलिक रूप में पेश करती है, इस रणनीति के कारण ही चीजें स्वयं प्रमाणित होती हैं, उनको अन्य के प्रमाण की जरूरत नहीं होती। बायनरी अपोजीशन का प्रयोग चीजों को रेखांकित करने अथवा उभारने के लिए किया जाता है। यह मूलत: डिकंस्ट्रक्शन है। जैसे- चुका पाएगा कैसे बोल ! मेरा निर्धन-सा जीवन तेरे वैभव का मोल !

अंचल में मधु भर जो लातीं , मुस्कानों में अश्रु बसातीं, बिन समझे जग पर लुट जातीं, उन कलियों को कैसे ले यह फीकी स्मित बेमोल !

हमने कभी सोचा ही नहीं है कि महादेवी ने इतने व्यापक रूप में 'डिकंस्ट्रक्शन' के प्रयोग किए हैं। वे जब बायनरी अपोजीशन का प्रयोग करती हैं तो हायरार्की अथवा भेद का उद्धाटन करती हैं। यह भेद पाठ के जरिए व्यक्त होता है, पाठ से शुरू होता है और इसकी कक्षा पाठ के बाहर समाज तक फैली हुई है। जैसे - प्रिय सुधि भूले री मैं पथ भूली ! .... तज उनका गिरि सा गुरु अंतर मैं सिकता -कण सी आई झर आज सजनि उनसे परिचय क्या ! वे घन- चुंबित मैं पथ -धूली !

बायनरी अपोजीशन की रणनीति के कारण अर्थ अनिश्चित ,परिवर्तनीय और एक-दूसरे पर आश्रित नजर आता है। इसके कारण लेखिका की मंशा का अर्थ भी पलट जाता है। लेखिका ने जिस मंशा को केन्द्र में रखकर लिखा होता है, पाठ के निर्मित होने के बाद वही मंशा पाठ से नदारत हो जाती है। बायनरी अपोजीशन की रणनीति के कारण व्याख्या और पुनर्व्याख्या की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। जैसे- सपने जगाती आ ! कविता को उदाहरण के लिए देखा जा सकता है। लिखा है - सपने जगाती आ ! श्याम अंचल, स्नेह-उर्म्मिल तारकों से चित्र -उज्ज्वल, चिर घटा-सी चाप पुलकें उठाती आ ! हर पल खिलाती आ ! ... बायनरी अपोजीशन को केन्द्र में रखकर महादेवी की कविताएं पढ़ने से यह भी पता चलता है कि लेखिका का किस पर नियंत्रण है और किस पर नियंत्रण नहीं है। लेखका की शक्ति कहां है और गुणात्मक रूप से चीजों में कैसे अंतर करें। इसी प्रक्रिया में महादेवी वर्मा की आलोचनात्मक रीडिंग भी उभरकर सामने आती है। हमारी प्रचलित आलोचना यह तो बताती है कि महादेवी वर्मा की शक्ति क्या है अथवा किन चीजों पर उनका नियंत्रण है, किन्तु यह नहीं बताती कि उनका किन चीजों पर नियंत्रण नहीं है। इसी प्रसंग में यह भी ध्यान रहे कि उनके गद्य और पद्य के नजरिए में भेद करना सही नहीं होगा। यह भेद फालतू है, निरर्थकहै। लेखक का एक ही नजरिया होता है उसके पास दो नजरिए नहीं होते। इसलिए महादेवी के पद्य और गद्य में व्यक्त दृष्टिकोण में भेद करना सही नहीं होगा। महादेवी के यहां स्त्री के अनेक रूप मिलते हैं, उनका चित्रण मिलता है। किंतु एक चीज साझा है कि उनके यहां स्त्री समस्यामूलक नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं है कि स्त्री के जीवन में समस्याएं नहीं है। बल्कि इसका अर्थ यह है कि स्त्री का कर्म अन्य किसी के लिए समस्यामूलक नहीं होता। स्त्री को उन्होंने सत्य, सद्गुण, प्रकृति, व्यवस्था और प्रतीक से जोड़ा है। इस तरह उन्होंने स्त्री को समस्याविहीन बनाया है। उनकी समस्त पूर्व-धारणाओं का आधार स्त्री का यही समस्याविहीन रूप है। समस्याविहीन रूप को बनाने की जरूरत क्यों महसूस की गई इस पर विचार करने की जरूरत है। मूलत: ऐसा करते हुए वह स्त्री को विमर्श और सृजन के केन्द्र में ले आती हैं। पुरूष के विकल्प के रूप में सामने लाती हैं। उसे कत्तर्ाा के रूप में चित्रित करना चाहती हैं। महादेवी के पाठ की विशेषता है कि वह स्वयं में सम्पूर्ण होता है। पाठ में ही सारी दुनिया निहित होती है। इस पाठ को जितनी बार पढ़ते हैं उतनी बार नए अर्थ की सृष्टि होती है। अर्थों के अनेक स्तरों का पाठ से निकलना स्वयं में लेखिका के दावों को खण्डित कर देता है। आप जितनी बार महादेवी की कविता को पढ़ते हैं उतना ही उनकी कविता अर्थ की नयी ऊँचाईयों को स्पर्श करती नजर आती है। महादेवी के पाठ में स्त्री सिर्फ स्त्री के रूप में ही नहीं आती बल्कि संस्थान के रूप में सामाजिक और राजनीतिक प्राणी के रूप में अभिव्यक्त होती है। आप ज्यों ही पाठ के अर्थ को खोलने जाते हैं उत्तोजक अन्तर्विरोधों से दो-चार होते हैं। बहुस्तरीय संदर्भों से गुजरते हैं। अंतहीन निष्कर्षों और प्रतिक्रियाओं से गुजरते हैं। जैसे- मेरे शैशव के मधुमय घुल, मेरे यौवन के मद में ढुल, मेरे आंसू स्मित में हिलमिल मेरे क्यों न कहाते ? महादेवी के पाठ की रणनीति यह है कि वे पाठ और यथार्थ के किसी कॉमनसेंस से अपनी बात शुरू करती हैं ,उसके बाद उसके विलोम बनाने शुरू करती हैं। वह ऐसा निष्कर्ष बनाती है जिसें अभी आना है। अथवा निष्कर्ष पाठ में प्रच्छन्ना होता है। जैसे- कनक से दिन मोती सी रात, सुनहली साँझ गुलाबी प्रात: ; मिटाता रंगता बारम्बार, कौन जग का यह चित्राधार। ... रजतप्याले में निद्रा ढाल, बांट देती जो रजनी बाल, उसे कलियों में आंसू घोल, चुकाना पड़ता किसको मोल।

उपरोक्त पंक्तियां नमूना मात्र हैं, ऐसी पंक्तियां महादेवी के यहां फैली हुई हैं। इन्हें सहज ही किसी भी संकलन में देखा जा सकता है। पूंजीवाद की चरम अवस्था साम्राज्यवाद है। इस दौर की उनकी कविताएं स्त्री की एकदम नयी छवि को सामने लाती हैं। महादेवी वर्मा ने परंपरागत स्त्री से भिन्ना स्त्री को चित्रित किया है। यह इमेज के लिहाज से परंपरागत है किंतु भाव और विचार के लिहाज से आधुनिक है। यह स्त्री एकदम नयी अस्मिता की स्थापना का प्रयास है। इस तरह की स्त्री इमेजों के जरिए महादेवी ने यथार्थ, सामाजिक यथार्थ और स्त्री शरीर के विमर्श को उद्धाटित किया है। जूडिथ बटलर के शब्दों को उधार लेकर कहें तो यह ऐसा विमर्श है जो महिला को शक्तिशाली बनाता है। यह ऐसा विमर्श है जो यथार्थ का नियमन करता है। मेक्स वेबर के शब्दों में कहें तो महादेवी ने स्त्री के रेशनल विमर्श का व्यापक कैनवास रचा है। उसके यहां स्त्री की सामाजिक विमर्श में शिरकत को सहज ही देखा जा सकता है। स्त्री केन्द्रित कार्य विभाजन को वे एकसिरे से खारिज करती हैं। महादेवी को घरेलू औरत नहीं बनाना चाहतीं। इस प्रसंग में घिरती रहे रात ! कविता को ले सकते हैं। इसमें एक जगह लिखा है चली मुक्त मैं ज्यों मलय की मधुर बात ! घिरती रहे रात ! इसी तरह महादेवी के यहां स्त्री केन्द्रित कविताओं में देह पर्दे में रहती है। देह का पूरा रूप कभी सामने नहीं आता बल्कि देह कभी आंखों के जरिए सामने आती है, कभी चितवन, कभी कपोल, कभी हंसी, कभी सजल नेत्र, कभी देह एक ही पंक्ति में आती है। कभी देह पूरी तरह गायब होकर सिर्फ अंगों की भूमिका में नजर आती है। कभी वे शरीर की स्वतंत्रता का राग सुनाने लगती हैं तो कभी शरीर और आत्मा के बीच की एकता के स्वर को रेखांकित करती हैं और इसके रेशनल परिणामों की ओर संकेत करती हैं। महादेवी की कविता में मर्द और पुंस सत्ताा के प्रति तीव्र गुस्सा अभिव्यक्त हुआ है। महादेवी के यहां मर्द निष्ठुर है। वह लिखती है तुम्हारी बीन ही में बज रहे हैं बेसुरे से तार ! महादेवी को पढ़ने के लिए उसकी भाषा संहिता अथवा कोड को खोलना जरूरी है। स्त्री का विचार ,इमेज और कोड निरंतरता को बनाए रखता है। विचार की निरंतरता, संस्कृति की निरंतरता को बनाए रखती है। स्त्री के लिए जिन पदबंधों का कोड के रूप में इस्तेमाल कियागया है वे हैं, पथ, निर्वाण, मुक्ति, सपना, सुधि, शूल, प्यास, ज्वाला, मिटना, बहना, गलना, स्पंदन, तम, चिंगारी, क्षय, छाया, धूम-रेखा, व्यथा, पाषाणी-परिधि, प्रलय-तरिणी, पग-शूल, हार-जीत, वर-शाप, तम- दीप, बनना-मिटना, साधना-सिध्दि, खोज-प्राप्ति, मृत्यु-जीवन इत्यादि का स्त्री के संदर्भ में भिन्ना अर्थ में महादेवी के यहां प्रयोग मिलता है। स्त्री जब भी उनकी कविता में दाखिल होती है तो वह समग्र रूप में आती है। यह ऐसी स्त्री है जो अन्य कविता अथवा पाठ में रूपायित स्त्री की इमेज से जुड़ी है। यह ऐसी स्त्री है जिसका विश्व दृष्टिकोण एक है। इस स्त्री को जोड़ने वाला प्रधान तत्व है उसका इतिहास। स्त्री का चित्रण करते हुए लेखिका बार-बार इतिहास में जाती है। इतिहास में जाते हुए इतिहास से विचलन भी होता है। इतिहास में जाने का अर्थ स्त्री का इतिहास खोजना नहीं है बल्कि उन तमाम रपटनभरी जगहों को उजागर करना है जहां पर स्त्री अपने को बदल रही है। जैसे - मैं नीर भरी दुख की बदली । विस्तृत नभ का कोई कोना /मेरा न कभी अपना होना/परिचय इतना इतिहास यही। उमड़ी कल थी मिट आज चली। मैं चली कथा का क्षण लेकर,/ मैं मिली व्यथा का कण देकर,/ इसको नभ ने अवकाश दिया,/ भू ने इसको इतिहास किया,/ अब अणु -अणु सौंपे देता है ,/युग-युग का संचित प्यार मुझे ! कहकर पाहुन सुकुमार मुझे। स्त्री का इतिहास क्यों नहीं है , इस बारे में लिखा, मैं कैसे उलझूँ इति -अथ में / गति मेरी संसृति है पथ में / बनता है इतिहास मिलन का / प्यार भरे अभिसार अकथ में ! मेरे प्रति पग पर बसता जाता सूना संसार किसी का। महादेवी वर्मा के नजरिए पर फ्रायड की बजाय लेनिन के विचारों का ज्यादा असर था। फ्रायड के विचारों की आलोचना के लिए उसने लेनिन के विचारों का सहारा लिया था। लेनिन के विचारों का उनके समूचे सोच पर गहरा असर नजर आता है। मसलन् महादेवी ने बार-बार स्वाधीनता की आकांक्षा को अभिव्यक्ति दी है। इसका अर्थ है कि पूंजीवादी समाज में स्वाधीनता का अभाव वह बार-बार महसूस करती थी। अथवा यह भी कह सकते हैं कि पूंजीवाद औपचारिक तौर जिस स्वाधीनता का वायदा करता है उसे प्रयास करके ही अर्जित किया जा सकता है। अथवा यह भी कह सकते हैं कि शुध्द स्वाधीनता अथवा शुध्द जनतंत्र जैसी कोई चीज नहीं होती। महादेवी के यहां स्वाधीनता का संदर्भ बदलता रहता है। यह सार्वभौम स्वाधीनता नहीं है। इसी अर्थ में शुध्द स्वाधीनता नहीं है। यह उपलब्ध में से चुनी जाने वाली स्वाधीनता है। यह बिलकुल वैसे ही है जैसे आपके सामने बाजार में अंतहीन चयन के लिए विकल्प होते हैं। यानी स्त्री को अपनी स्वाधीनता को अर्जित करने के लिए नए सिरे से अपनी खोज करनी करनी होगी, स्वाधीनता की खोज करनी होगी। इस पुनर्खोज भी कह सकते हैं। लेनिन जिस तरह औपचारिक स्वाधीनता और सचमुच की स्वाधीनता दोनों का ही निषेध करते थे, ठीक वही स्थिति महादेवी की है। वह इन दोनों से परे जाकर स्वाधीनता का नया पंथ निर्मित करती है। महादेवी की कविता को छायावाद के परिप्रेक्ष्य में पढ़ने से उसके मर्म को पाना संभव नहीं है। स्त्रीवादी परिप्रेक्ष्य में रखकर देखने और स्त्रीवाद की विभिन्ना काव्य रणनीतियों के प्रयोगों की रोशनी में रखकर देखने से महादेवी की कविताएं एक नया काव्य वातावरण बनाती हैं। हमने अभी तक छायावाद के अंग के रूप में स्टीरियोटाईप नजरिए से महादेवी की व्याख्याएं की हैं। ये व्याख्याएं महादेवी का उद्धाटन कम और महिमामंडन ज्यादा करती हैं। आज की आलोचना की जरूरत है कि महादेवी को महीयसी के दायरे के बाहर लाया जाए उन्हें एक स्त्री लेखिका के रूप में पढ़ा जाए।

भाषा का कामुक खेल और स्‍त्री भाषा

भाषा क्या है? अभिव्यक्ति का माध्यम। सम्प्रेषण का माध्यम। कितने परिवारों से ताल्लुक रखती है? इण्डो ऑस्ट्रिक फलाँ -फलाँ । इसके व्याकरण का निर्माण कब हुआ ? 2000-3000 साल पहले। किस महापंडित ने पहला व्याकरण लिखा ? महामहिम फलाँ -फलाँ ने। व्याकरण में कौन कौन सी चीजें शामिल हैं? संज्ञा, सर्वनाम,कारक ,वचन ,लिंग आदि के जरिए भाषा कैसे अत्याधुनिक बनती है? इस तरह के कितने सवाल भाषा के संदर्भ में उठाए और हल किए जा चुके हैं। लेकिन भाषा किसके सम्प्रेषण का माध्यम है ? किसकी अभिव्यक्ति होती है भाषा में ? भाषा-परिवार की बात करते हैं तो क्या परिवार के अंतर्गत वर्चस्व के संबंध को देखते हैं ? भाषा के विभिन्न तत्वों के जरिए यह संबंध कैसे अपने को अभिव्यक्त करता है ? स्त्री इस भाषा में स्वयं को कैसे व्यक्त करती है? स्त्री इस भाषि‍क संरचना में किस स्तर पर दाखिल होती है ? लिंग-भेद का आधार क्या है ? भाषा के अंतर्गत इसका चलन कब से शुरु हुआ ? स्त्री भाषा के प्रश्‍न पर विचार करनेवालों में डेल स्पेण्डर का नाम प्रमुख है। स्पेण्डर ने 1980 में एक किताब लिखी मैन मेड लैंगवेज । स्पेण्डर ने किताब के आभार में स्वीकार किया है कि इसके लिखे जाने का पूरा श्रेय स्त्री आंदोलन को जाता है। भूमिका का पहला वाक्य है स्त्रियाँ इस बात से वाकिफ़ हैं कि पुरूष श्रेष्‍ठता एक मिथ है और वे इस ज्ञान को कई स्तरों पर बरतती हैं। साथ ही यह भी लिखा पुरूष श्रेष्‍ठता का पुरूष शक्ति से कोई लेना देना नहीं है दोनों अलग हैं। लेकिन दोनों अद्भुत ढंग से गुँथे हुए हैं। पुरूष श्रेष्‍ठता ,पुरूष शक्ति के लिए मार्ग प्रशस्त करती है। पुरूष श्रेष्‍ठता की झूठ का किसी भी रूप में खुलासा पुरूष शक्ति को कम करनेवाला है। जब समाज में बहुत बड़ा भाग इस झूठ को पहचानने लगे तो इस शक्ति की रक्षा या रूप परिवर्तन की जरूरत होती है। स्पेण्डर ने समाज में पुरूषों की भूमिका को वर्चस्वशाली भूमिका के रूप में देखा है। इसलिए वे कहती हैं कि पुरूष हमेशा से इस सामाजिक स्थिति में रहे हैं कि वे पुरूष श्रेष्‍ठता का मिथ निर्मित कर सकें और इसे स्वीकार भी करवा सकें। वे इस स्थिति में रहे हैं कि इस झूठ को पुष्‍ट करने के लिए अपनी श्रेष्‍ठता के पक्ष में प्रमाण जुटा सकें। इसलिए स्पेण्डर का कहना है कि यह ऐसा मिथ है जिस पर हमला तो किया जा सकता है लेकिन जिसका उन्मूलन संभव नहीं है क्योंकि इसकी जड़ें सामाजिक बुनियाद में हैं। सामाजिक तानाबाना इस झूठ को बनाए रखने, इससे सहयोग करने के पक्ष में है। अगर इसकी मुखालफत करनी है तो हमारे विश्‍वास और मूल्यों के पुनर्निर्माण से कम पर बात नहीं बनेगी। प्रत्येक दिन हम अपने संसार का निर्माण पुरूष नियमों के अनुसार करते हैं। हम प्रत्येक स्तर पर जद्दोजहद करते हैं अपनी दुनिया को अर्थवान बनाने के लिए लेकिन हममें से कम को ही यह भान होता है कि ये नियम कितने गहरे और स्वैच्छिक हैं। हम अपने सत्य का निर्माण जिस रूप में करते हैं या करने के लिए उत्प्रेरित किया जाता है उसमें इन नियमों की अहम भूमिका होती है। सत्य के निर्माण का एक अहम हिस्सा भाषा है। भाषा इस दुनिया को वर्गीकृत और व्यवस्थित करने का माध्यम है,यह सत्य को मैनीपुलेट करने का माध्यम भी है। भाषि‍क बनावट और भाषि‍क व्यवहार के माध्यम से ही हम अपनी दुनिया को वास्तविक बनाते हैं और अगर बुनियाद में ही गड़बड़ी है तो भ्रम के शि‍कार होते हैं। भाषि‍क नियम जो सांकेतिक व्यवस्था हैं यदि गलत हैं तो रोजाना धोखा खाते हैं। स्पेण्डर का साफ मानना है अर्थ संबंधी नियम जो भाषा का हिस्सा हैं स्वाभाविक नहीं हैं। वे संसार में मौजूद हैं और उन्हें केवल अर्थ के जरिए खोजा जाना है ऐसा भी नहीं हैं।इसके उलट कोई और चीज खोजने के पहले इन्हें खोजा गया है।एक बार जन्म ले लेने के बाद ये नियम स्व -अधिकृत और स्व -वैध हो गए। उन हिचकिचाहटों से अलग, जो कभी रहे होंगे। भाशा के वर्तमान वर्गीकरण को विष्लेशित करके इसके उत्पत्ति और नियम बनने के कारणों तक पहुँचा जा सकता है क्योंकि यह हमारी विश्‍वदृष्‍टि‍ के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। स्पेण्डर ने भाषा को पुरूष निर्मित और पुरूष के लिए निर्मित माना है। जिसमें पुरूष स्वयं नियम होता है। उसमें पुरूष एकमात्र मानक और सामान्य होता है और जो इस दायरे में नहीं आते वे विचलन होते हैं। वर्गीकरण का यह सार्वजनीन तरीका मनुष्‍य जाति को दो बराबर भागों में नहीं बाँटता बल्कि पुरूष के बरक्स सकारात्मक या नकारात्मक के रूप में बाँटता है। अर्थ के सबसे बुनियादी स्तर पर स्त्री की हैसियत पुरूष की हैसियत से तय होती है । इस स्तर पर कई सकारात्मक या नकारात्मक अर्थ बनाये गए हैं। स्पेण्डर प्रजननांगों के आधार पर मनुष्‍य जाति को विभाजित करने पक्ष में नहीं हैं। प्रजननांगों के आधार पर विभाजन का अर्थ है कि हम केवल दो लिंग मान रहे हैं और लिंगाधारित व्यवहार की एक पूरी श्रृंखला की वकालत कर रहे हैं। इन नियमों के आधार पर दुनिया को विभाजित करके पुरूष श्रेश्ठता का औचित्य प्रतिपादन कर रहे हैं। पुरूष श्रेश्ठता का यह नियम जब हम इसका विरोध कर रहे होते हैं तब भी हमारी दुनिया के नियम और व्यवहारों को नियंत्रित कर रहा होता है। पूरी दुनिया का बँटवारा ऋणात्मक पुरूष या धनात्मक पुरूष में है। यह एक सांकेतिक व्यवस्था है जिसमें हम पैदा हुए हैं । जब हम समाज के सदस्य बन जाते हैं और संकेत के अर्थ में प्रवेश करना षुरु करते हैं तो साथ ही हम एक दुनिया भी निर्मित करना शुरु करते हैं ताकि इन संकेतों का व्यवहार संभव हो। इस तरह से हम पितृसत्तात्मक व्यवस्था में दाखिल होते हैं और इसे सत्य साबित करने में मदद करते हैं। पितृसतात्मक व्यवस्था का मुख्य पक्ष है पुरूष श्रेष्‍ठता। कुछ स्त्रीवादी सिध्दांतकारों ने इसका नकार शुरु किया है। दुनिया को वर्गीकृत करने के नए नियम खोजने की पहल की है। जो इस धारणा पर आधारित नहीं है कि 'ठीक ठाक ठंग से मनुष्‍य' केवल पुरूष ही है और स्त्री नकार है।इसमें स्त्री को एक स्वायत्त सत्ता के रूप में देखे जाने पर जोर है। तथ्य जुटाए जाने पर जोर है जो पुरूष श्रेष्‍ठता को चुनौती देते हैं।

कहानी के प्रति‍मान और खुलापन

कहानी खुले छोरोंवाली विधा है। कविता का शास्त्र बहुत पुराना है पर कहानी का शास्त्र हिंदी पंडित अभी भी नहीं बना पाए हैं। अचानक प्रतिमान निर्मित करने का आग्रह क्यों ? प्रतिमान के बिना क्या कहानी नहीं लिखी जा रही ? हिन्दी में कहानी का शास्त्र रचने की कोशि‍श करनेवालों में सबसे पहला नाम डॉ नामवर सिंह का है। नई कहानी के कुछ कहानीकारों और आलोचकों ने भी इस प्रयास में साथ दिया। लेकिन ये प्रयास नगण्य हैं। अभी भी कहानी बिना किसी निश्‍चि‍त प्रतिमान के बड़ी ठसक के साथ विकसित होती चली जा रही है। कहानी की पत्रिकाएं छप रहीं हैं, लघु पत्रिकाओं में कहानी एक अनिवार्य घटक है। एक समय में 'कहानी' , 'नई कहानी' और आज 'हंस', 'कथादेश' आदि साहित्यिक पत्रिकाएं कहानी की लोकप्रियता को दरशाती हैं। अखबारों के रविवारीय मनोरंजन के पृष्‍ठ कहानी छापे बिना पूरे नहीं होते। फिर भी इस विधा का न तो कोई फार्मूला है न ही कोई शास्त्र ! बुनियादी सवाल है कि आखिर पंडित प्रतिमान गढ़ना क्यों चाहते हैं ? इससे कहानी का फायदा है या उनका ? कहीं यह सब सुविधानुकूल विवेचना के लिए तो नहीं किया जा रहा ? भारतीय मानक ब्यूरो की तरह प्रतिमानित कथा साहित्य के दायरे में कौन होगा और कौन-कौन उससे बाहर होगा। मानकों का चयन आप किन आधारों पर करेंगे ? मानक स्थापित करनेवाले कौन-कौन होंगे ? कैसी कहानियाँ होंगी ? मानक स्थापित करने की जो बेचैनी है वह कहीं विचलन साबित करने की बेकरारी का ही विस्तार तो नहीं ? अब तक कथा साहित्य के जो मानक रहे आए हैं उनके आधार पर रचनाओं का विश्‍लेषण हो सका है ? इस मानकीकरण से रचनाएँ बहिष्‍कृत हुईं हैं या नहीं ? बहिष्‍कृत हुईं हैं तो वे किनकी रचनाएँ हैं ? नई कहानी और समकालीन कहानी के प्रतिमानों की जब भी बात की गई कविता के मानकों को क्यों सामने रखा गया ? यह एक मजबूर साहित्यिक स्थिति थी या सचेत साहित्यिक चयन ? कहानी के मानकों की जब भी बात करते हैं तो खास तरह के मानदंड ही क्यों सामने रखते हैं -बिंब, प्रतीकविधान, साधारणीकरण आदि ? कविता के प्रतिमानों को ज्यों का त्यों कहानी पर लागू करने का अर्थ क्या है ? यह जानी हुई बात है कि कहानी 'खुला' होना ही इसकी ताकत है। इससे कहानी में ज्यादा लोगों की ज्यादा तरीकों से भागीदारी संभव हो पाती है। सबसे महत्वपूर्ण चीज कि कविता से भिन्न कहानी स्त्री की विधा है। कविता का सारा जोर शास्त्रीय रूपायन पर है , प्रातिभ ज्ञान के विस्फोट और निरंतर अभ्यास पर है , कविता प्रतिभा और अभ्यास दोनों का फल होती है। ज्ञान के विषम बँटवारे वाले समाजों में प्रतिभा तो संभव है पर अभ्यास का अधिकार कुछ निश्‍चि‍त लिंग और जाति को ही रहा। भक्त-कवियों के संदर्भ में संत पहले या कवि जैसे सवाल या स्त्रियों के कविता न करने या करने पर पिष्‍टपेषण करने की स्थितियों का कारण यही है कि कविता पुंसवादी विधा है। स्त्रियों और हाशि‍ए पर फेंके गए लोगों को इसे अभ्यास से अर्जित करना पड़ता है। इसका शास्त्र है और शास्त्र का पाठ , ज्ञान कुछ लोगों के लिए है। कहें कि कविता अनुकरण का शास्त्र है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यहाँ यह बात भी ध्यान रखना चाहिए कि अनुकरणमूलक कलाओं में दक्षता हासिल करने में स्त्री की सानी नहीं हो सकती। नृत्य, अभिनय ,चित्र हो या कविता इन सबमें स्त्रियों की महारत है। कारण वे अच्छा अनुकरण करती हैं ! जैसे वनगमन के समय सीता ने राम और लक्ष्मण के पगचिह्नों के बीच अपने लिए जगह बनाते हुए किया था ! तभी तो छायावाद चतुष्‍टयी में बाद में दाखिल हुई महादेवी से 'बढ़िया' और 'छायावादी गुणों से पूर्ण ' कविता कोई और नहीं लिख पाया। लेकिन तब भी साहित्य-इतिहास का बड़ा तथ्य यह है कि आधुनिक कहानी के आरंभ से ही विश्‍व की प्रत्येक भाषा में स्त्रियों ने इस विधा को बडे उत्साह के साथ अपनाया। इसका कारण एक तो इसकी गैर -शास्त्रीय परंपरा रही और दूसरे कि स्त्री को पहली बार अपनी भाषा में अपनी अनुभूतियों को व्यक्त करने का मौका मिला। साहित्य-इतिहास की विशेष तौर पर हिन्दी साहित्येतिहास की विडंबना है कि इसने स्त्री के इस बड़े अवदान की अनदेखी की है ! आधुनिक युग में हिन्दी की पहली कहानी की बहस में 'बंगमहिला' की कहानी शामिल है किन्तु इसके बाद कोई नाम बहुत दूर तक नहीं मिलता। बीसवीं सदी के पहले दशक से हिन्दी की आधुनिक कहानी की परंपरा बन जाती है पर स्त्री कथा की कोई परंपरा आज भी नहीं बन पाई है ! प्रतिमान तलाशने का काम जो कुछ मौजूद है उसकी अनदेखी नहीं होनी चाहिए। कहानी का उद्भव बताते हुए भारतीय परंपरा में चाहे जातक या पंचतंत्र की कथाओं में जाएं या कथासरित्सागर में एक बात जरूर ध्यान रखने की है कि इन कहानियों का संसार एकांगी नहीं है। सबकी भागीदारी है। उस समय के समाज का पूरा ढाँचा ,संबंध और प्रतिनिधित्व मौजूद है। यानी देखा और जिया गया संसार है और उस पर पुरा हुआ रूपक-प्रतीकों की एक दुनिया है। इन सबसे ऊपर है कभी न खत्म होनेवाली कथा। कल्पना के रुमानी पंखों से सजी हुई। अर्थात इस बहस का कोई अर्थ नहीं कि कहानी को यथार्थवाद ने कितना नुकसान पहुँचाया ! यथार्थ के बिना कहानी नहीं बनती ठीक वैसे ही जैसे कोरी कल्पना कहानी का आधार नहीं हो सकती। मनोवैज्ञानिक निश्कर्षों पर जाएं तो कल्पना भी यथार्थ का एक हिस्सा है। यहाँ चूँकि बहस का यह मुद्दा नहीं है इसलिए मैं अपनी बात इस बिन्दु तक सीमित रखना चाहूँगी कि केवल 'आर्टिफैक्ट' कहानी नहीं हो सकता। यह वैसा ही होगा कि मंडप सजा दिया जाए और दूल्हा-दुल्हन का पता न हो। तय मानिए ऐसी स्थिति में बाराती भी नहीं आएंगे ! कायदे से हमें मात्रा पर विचार करना चाहिए। इसमें आनुपातिक संबंध होना चाहिए। यहीं कथा के मानकों के आधार पर बहिष्‍करण के प्रारूप पर भी विचार कर लेना चाहिए। अब तक की कथा आलोचना इसी पैटर्न पर विकसित की गई है। यह एकांगी दृष्‍टि‍ का प्रचार करनेवाली और बहिष्‍कारमूलक है ! यथार्थ के साथ ही अनुभूति का यथार्थ भी जुड़ा हुआ है। अनुभूति के यथार्थ पर गंभीर बहस प्रयोगवाद और नई कविता-कहानी के दौर में हुई है। इसका एक राजनीतिक कोण भी है। और निराधार नहीं है। आलोचकों को इस पर विचार करना चाहिए कि अनुभूति की प्रामाणिकता और अप्रामाणिकता की बहस ने हिन्दी कथासाहित्य के मूल्यांकन को कितनी दूर तक प्रभावित किया है। इस विषय में आलोचना की चुप्पी की कोई राजनीति है ? अब समय आ गया है कि हम वस्तुगत (जितना संभव हो सके) ढंग से अपने दूर-पास के कथा-मानकों पर विचार करें। जो कुछ रह गया है, जिस पर बात ही नहीं हुई है, उन क्षेत्रों पर बात करें। हम पाएंगे कि इसी बातचीत में से समकालीन कहानी के प्रतिमान भी निकल रहे हैं। अनुभूति की प्रामाणिकता-अप्रामाणिकता की बहस ने इस तथ्य को भूला दिया कि स्त्री का लिखा अनुभवजनित होता है। उसके लिखे में उसका अनुभव बोलता है। स्त्री-लेखन आत्मीय भाव से भरा होता है। स्त्री की कोई शैली हो सकती है तो वह 'आत्मीय शैली' है। नामवर सिंह का छायावाद की विषेशताएं गिनाते हुए यह कहना ग़लत है कि छायावाद आज भी अच्छा लगता है क्योंकि वह आत्मीयता का काव्य है। यह आत्मीयता स्त्रियों का गुण है, आत्मीय शैली भी उन्हीं की है , छायावाद में यदि यह शैली है तो यह स्त्रियों का छायावाद पर उधार है। साथ ही स्त्री की छायावाद में बदलती हुई छवि का संकेतक है। आधुनिकतावादियों का स्त्री को लेकर संवेदनशील रवैया रहा है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर के यहाँ औरत की छवि इस संदर्भ में उल्लेखनीय है। रवीन्द्रनाथ ने अपने साहित्य के जरिए औरत के संबंध में समाज के संवेदनशील रवैये की बात की है। इस प्रसंग में हजारीप्रसाद द्विवेदी का कथा-साहित्य कई अर्थों में महत्वपूर्ण है। स्‍त्री के प्रति‍ संवेदनशीलता उसका एक हिस्सा है। जहाँ तक अनुभवपरक साहित्य का मुद्वा है किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि अनुभव आधारित कहानियाँ तो प्रयोगवाद के पहले भी लिखी जा रहीं थीं ; औरतें लगातार यह काम कर रहीं थीं पर स्त्री के लिखे को कभी महत्वपूर्ण लेखन में शामिल ही नहीं किया गया। तब अनुभव की नहीं शास्त्रीयता की बात की जा रही थी। कहानी के गुण क्या-क्या होने चाहिए, उसमें कौन-कौन से तत्व होने चाहिए। इन 'गुणों' के आधार पर स्त्री की कहानी को चर्चा से बाहर रखा गया। कहानी के युगों का नामकरण कभी किसी स्त्री के नाम पर नहीं किया गया। इसका यह अर्थ नहीं कि स्त्रियाँ नहीं लिख रहीं थीं या बुरा लिख रही थीं। हिन्दी कहानी के आरंभ से ही स्त्रियों ने लगातार इसमें अपना महत्वपूर्ण योगदान किया है। लेकिन इन पर कभी चर्चा नहीं हुई। इसका संबंध मानक के निर्माण से है। श्रेष्‍ठ और कम श्रेष्‍ठ कहानी के मानक तय कर दिए गए। स्त्री उसमें अपने आप बाहर हो गई। महादेवी की अनुभवाश्रित कहानियों को 'संस्मरण' और 'रेखाचित्र' कहा गया, प्रसाद की ऐतिहासिक कलेवर वाली और निराला की कल्पनाप्रधान कहानियों को कहानी का दर्जा दिया गया। प्रेमचंद और प्रसाद की कहानियों के नाम को रोते रहे कि इनमें यथार्थ नहीं है और निराला की कहानियों में कहानीपन का अभाव आलोचकों को सालता रहा पर रखी गईं वे कहानियों के दायरे में ही। कायदे से हिन्दी में अनुभव की प्रामाणिकता की बहस को पहले उठना चाहिए था जब औरतों की कहानी को चूल्हे-चक्की की कहानी या संकीर्ण अनुभव की कहानी कहकर अघोषि‍त तौर पर चर्चा से बाहर रखा गया , खारिज किया गया। इस राजनीति पर तब न यथार्थवादियों ने बोलने की जरूरत समझी न आगे चलकर कलावादियों ने। अनुभूति की राजनीति करना एक बात है और अनुभव आधारित कहानी लिखना दूसरी। यह यथार्थ के सार्वभौमत्व का दौर नहीं है। सार्वभौमत्व का दौर खत्म हो गया है। यह यथार्थ की विशि‍ष्‍टताओं का दौर है। यह 'छोटा' यथार्थ है लेकिन यथार्थ है। इस छोटे यथार्थ ने हमारा ध्यान कई नई दिशाओं की ओर खींचा है। जिसमें स्त्री और दलित कथा-लेखन शामिल है। इसने कहानी के मूल्यांकन के नजरिए को बदला है। अब कहानी के प्रतिमानों को बताते हुए 'आधुनिक', 'यथार्थवादी', 'जादुई यथार्थवादी' जैसी कोटियों से काम नहीं चलेगा। अनुपस्थित की तलाश करनी होगी। कथा में और कथा के बाहर भी। चुप्पी, अलगाव ,प्रतिरोध, जिजीविषा , संघर्ष, परिवार-समाज की भूमिकाएं देखनी होंगी। रूप पर नए सिरे से बात करनी होगी। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि साम्राज्यवाद जहाँ-जहाँ गया है उसने वहाँ-वहाँ यथार्थवाद की बहस को हवा दी है। पहले से मौजूद साहित्यिक विमर्श के रूप को बदला है। जातीय साहित्य-रूपों ने अपनी सत्ता खोई है। यथार्थवाद-रूपवाद, प्रतिनिधि चरित्र-टाईप चरित्र , शोषण-ग़रीबी का चित्रण जैसे मुद्दे साहित्य के केन्द्रीय मुद्दे बने हैं। लिंगभेद, नस्लवाद, राष्‍ट्रवाद -घूम-फिरकर इन्हीं मुद्वों पर बहस हुई है। साहित्य का सुख-दुख का साथी होने का भाव, जीवन के उल्लास का रूप, बृहत्तर मानवीय सरोकार गायब हैं। आज सच्चाई यह है कि कहानी से 'ट्रैजेडी' ग़ायब है। फार्मूलाबध्द तरीके से केवल शोषक-शोषि‍त के खाँचे तय कर देने और शोषण का दुर्दान्त चित्र खींच देने से कहानी नहीं बनती। कहानी बनती है ट्रैजेडी के शि‍कार लोगों के बोलने से , उनके अनुभवों को कहानी में जगह देने से। ट्रैजिक स्थितियों का कहानी में चित्र हो, लेकिन ट्रैजिक अनुभव गूँगा हो तो कहानी नहीं बनती। 'कफन' कहानी के शि‍ल्प और विषयवस्तु का खूब महिमामय विश्‍लेषण हुआ है। कहानी का हर आलोचक 'कफन' पर लिखकर ही आलोचनाकर्म के कुंभ-स्नान को पूरा हुआ मानता है। लेकिन इस बात पर किसी का ध्यान नहीं गया कि यथार्थ के स्थिति-चित्रण और यथार्थ के कहानी में रूपायन से रचना यथार्थपरक नहीं होती बल्कि उस यथार्थ के शि‍कार या प्रभावित पात्र के अनुभवों को कहानी में बोलना चाहिए। 'कफन' की ट्रैजेडी बुधिया की ट्रैजेडी है, बुधिया गूँगी भी नहीं है ,पशु भी नहीं कि बोल न सके। लेकिन पूरी कहानी में वह चुप है। कुछ है तो प्रसव-पीड़ा में उसकी चीख और मौत की शाश्‍वत चुप्पी ! इसी तरह से 20वीं सदी में सती प्रथा पर खूब बहस हुई। लेकिन हमें यह नहीं मालूम कि 'सती' क्या बोलती है। राजा राममोहन बोल रहें हैं सती नहीं बोल रही ! औरत के नजरिए से समस्या को नहीं देखा गया। इसी तरह दलित लेखन की स्थिति है। जिसके साथ घट रही है वह नहीं बोल रहा। कहने का मतलब कि दर्शक के नजरिए से साहित्य लिखा जा रहा है। फलत: यथार्थ का चित्रण करने के बावजूद कहानी हस्तक्षेप के लिए बाध्य नहीं करती। वास्तविकता और कहानी का संबंध या कहानी से यथार्थ स्थितियों में हस्तक्षेप की मांग लगातार की जाती है। यह प्रश्‍न किया जाता है कि कहानी का प्रभाव क्यों नहीं होता। कहानी आंदोलन क्यों नहीं बन जाती ? कहानी के नाम को दहाड़ें मार-मारकर रो रहे हैं कि इसका जीवन से संबंध नहीं है। यह क्रांतिवाही मशाल नहीं बन रही। कोई आंदोलन या घटना होती है तो उसका कहानी में प्रतिबिंबन क्यों नहीं ? यह ध्यान रखें कि आंदोलन का कहानी से कोई मैकेनिकल संबंध नहीं होता है। कहानी सामाजिक रवैये को बनाती है। सामाजिक रवैये में आंदोलन के जरिए कोई बदलाव आया है कि नहीं यह महत्वपूर्ण है। यदि सामाजिक रवैया बदलता है तो कहानी भी बदलेगी। जीवन की कठोर वास्तविकताओं को संबोधित करने से कहानी , कहानी बनती है। कहानी वहाँ नहीं बनती जहाँ हम जीवनशैली को संबोधित करते हैं। जीवनशैली को संबोधित करते हुए पाठक को 'उपभोक्‍ता' में बदल दिया जाता है। हमें कहानी के 'उपभोक्‍तावाद' से बचना चाहिए। कठोर वास्तविकता के चित्रण का एक वैकल्पिक तरीका हजारीप्रसाद द्विवेदी का है। अमूमन हिन्दी में यथार्थ संबंधी जितनी भी बहस हुई हैं वह प्रेमचंद की कहानियों-उपन्यासों को केन्द्र में रखकर हुई है। प्रेमचंद ने यथार्थ की इतनी बड़ी लकीर खींच दी कि वैकल्पिक यथार्थ की संभावनाएं खत्म-सी हो गईं। द्विवेदी जी के औपन्यासिक यथार्थ और षिल्प पर बात ही नहीं हुई। जबकि सच्चाई है कि द्विवेदीजी यथार्थ के साम्रज्यवादी एजेण्डे से अपने कथा-साहित्य को मुक्त रखते हैं। यथार्थ के बने-बनाए ख्रांचे से बाहर कथा की विषयवस्तु का चयन करते हैं और उसके अनुरूप ही उसका शि‍ल्प चुनते हैं। द्विवेदीजी का सबसे चर्चित उपन्यास 'बाणभट्ट की आत्मकथा' का नायक बाण पुरुष है पर कथा स्त्री के संदर्भ से कही गई है। जिस तरह का देशकाल-वातावरण द्विवेदीजी ने चुना है वह उस समय कहीं नहीं है। जैसी भाषा चुनी है वह प्रचलन में नहीं है। जो समस्या उठाई है वह साहित्यिकों के एजेण्डे में नहीं है। एकमात्र समस्या है स्त्री के उध्दार की। इसमें कहाँ तक सफल हैं या असफल यह अलग बात है। बाण बौध्दिक नायक है, पागल या आवारा नहीं। आज रचना के सामने सबसे बड़ी चुनौती पाठक तैयार करने की है। द्विवेदीजी बराबर इस बात पर जोर देते रहे कि लेखक को अपना पाठकवर्ग तैयार करना चाहिए। द्विवेदीजी के अनुसार आज की सबसे बड़ी समस्या यह नहीं है कि अच्छी बात कैसे कही जाए, बल्कि अच्छी बात को सुनने और मानने के लिए पाठक को कैसे तैयार किया जाए। हजारीप्रसाद द्विवेदी ने रचना के नए मानक तैयार किए हैं। वे साहित्य को गप्प मानते हैं। रचना मुख्यत: विनोद है। 'गप्प' को द्विवेदीजी ने अपने उपन्यासों में रचा है। यह कल्पसृष्‍टि‍ है पर यथार्थ से रहित नहीं। द्विवेदीजी ने यथार्थ का चयन साम्राज्यवाद के एजेण्डे से नहीं किया है। वे जातीय गप्प रचते हैं और इसमें ऐतिहासिकता , स्मृति और अस्मिता के विमर्श को सामने लाते हैं। पूर्वाख्यानों का प्रयोग करते हैं और कथा के सूत्र एक-दूसरे से गूँथते हुए दिखाई देते हैं। वे संस्कृति को साम्राज्यवादी हमले और वर्चस्व की राजनीति से बाहर रखकर विवेचित करते हैं। द्विवेदीजी की खासियत है कि वे लिंगभेद की साम्राज्यवादी धारणा कि लिंग स्वाभाविक है को अस्वीकार करते हैं। याद कीजिए 'अनामदास का पोथा ' या 'बाणभट्ट की आत्मकथा'। लिंग होता नहीं है बनाया जाता है। यह सामाजिक निर्मिति है। द्विवेदीजी स्त्री तत्व और पुरुष तत्व की बात करते हैं। बाणभट्ट में स्त्री तत्व ज्यादा जागृत है। लिंगभेद , राष्‍ट्रवाद, नस्ल, बायोलॉजी आदि से जोड़कर साम्राज्यवाद ने संस्कृति का विमर्श पेश किया है। द्विवेदीजी ने साम्राज्यवाद के विमर्श से इतर संस्कृति के विमर्श को ज्ञान और प्रतिरोध के हथियार के रूप में देखा है। संस्कृति को 'खोज' के जरिए नहीं बल्कि ऐतिहासिक दृष्‍टि‍ से परंपरा की निरंतरता के क्रम में पढ़ा जाना चाहिए। भारतीय समाज और संस्कृति का एक रूप वह है जिसे द्विवेदीजी भारतीय प्रतीकों , इमेजों, अवधारणाओं में सामने लाते हैं। इस क्रम में भारतीय कथा की परंपरा और आधुनिक दिशा की पहचान के रूप में चार औपन्यासिक कृतियाँ हिन्दी जगत् को देते हैं। पाठात्मकता के देशज रूपों को सामने लाते हैं। उपन्यास को जिस रूप में 'कंसीव' करते हैं वह उपन्यास के ढाँचे के बारे में साम्राज्यवादी और औपनिवेशि‍क आधारों का निषेध है। साम्राज्यवादी धारणा उपन्यास के 'सार्वभौमत्व' को महत्वपूर्ण मानती है। द्विवेदीजी के चारों उपन्यास 'सार्वभौमत्व' की धारणा का निषेध करते हैं। कथानक, पात्र, चित्रण ,परिवेश किसी भी कोटि से द्विवेदीजी का औपन्यासिक कृतित्व साम्राज्यवाद के दायरे में नहीं आता। प्रेम-कथा के जरिए वे शासक और शासित का फर्क मिटा देते हैं। प्रेम को प्रतिवाद की भाषा में प्रस्तुत करते हैं। साम्राज्यवादी विमर्शों में भारत की भिन्नताओं को गहराई से उभारा गया है। द्विवेदीजी के यहाँ आदान-प्रदान , साझेपन, संस्कृति की अंतनिर्भरता पर जोर है। ऐसा करते हुए अतीत के प्रति किसी तरह का विमोह पैदा नहीं करते। अपदस्थीकरण और असहमति के तत्व का व्यापक इस्तेमाल करते हैं। जाति नहीं एथनिक पहचान , पेशे पर जोर देते हैं। संस्कृतनिष्‍ठ हिन्दी में जनप्रिय मसलों पर बात , भाषा का यह रूप विचार और भाषा की अनंत भूख पैदा करती है। यह जातीय भाषा के चक्करों में नहीं पड़ती। यह हिन्दी कथा साहित्य की नई दिशा थी लेकिन औपनिवेशि‍क विमर्श के साम्राज्यवादी एजेण्डे ने भारतीय बौध्दिकता को जकड़ रखा था। वह द्विवेदीजी के संकेतों को अपना नहीं सकी। राहुल के अलावा और किसी के यहाँ भाषा, चिन्तन और सांस्कृतिक विमर्श का यह रूप दिखाई नहीं देता। आज की कहानी के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि वह अपना वृतान्त खो रही है, स्मृति खो रही है, आनंद खो रही है, ट्रैजेडी खो रही है। इन्हें हासिल करना उनका मुख्य लक्ष्य होना चाहिए। आज रचना का संदर्भ प्रेस और अखबार नहीं बना रहा ; सैटेलाईट और टेलीविजन बना रहा है। समकालीन कहानी को बड़ी चुनौती कथा के भीतर से मिल रही है उससे कहीं ज्यादा बड़ी चुनौती कथा के बाहर से मिल रही है। मीडिया के संप्रसार के इस दौर में मनोरंजन और अवकाश का एकमात्र साथी कहानी नहीं रह गया है। सच कहें तो मीडिया ने 'मनोरंजन' और 'अवकाश' की परिभाषा बदल दी है। आज अवकाश काम का विपयर्य नहीं बल्कि काम की पूर्व तैयारी है। खाली समय हमारे पास नहीं है। ऐसे में कहानी के लिए जगह बनाना अपने आप में चुनौती है। दूसरी चीज कि मीडिया अंतहीन कहानी है। मीडिया में कहानी का 'सागा' चलता रहता है। चाहे मनोरंजन के चैनल हों या खबरिया चैनल अथवा रियलिटी चैनल , सब पर एक से अधिक कहानी चलती रहती है। ये सभी कहानियाँ सातत्य में होती हैं और संपूरक भी। इनकी एक-दूसरे पर अंतनिर्भरता बनी रहती है। 'परजानिया' में काम करनेवाली नायिका भारत-पाक संबंधों पर आधारित एनडीटीवी के पैनल डिस्कशन में भी बोलेगी और 'हंसेगा इंडिया' में निर्णायक बनी राखी सावंत के आनेवाले सीरियल 'हमारी बहू राखी सावंत' का स्क्रि‍प्ट और चरित्र लाफ्टर शो में छाया रहेगा। 'सनसनी', 'वारदात',' डायल 100' जैसे कार्यक्रम सत्यकथाओं की भूख को तृप्त करते हैं। यानी टीवी एक बड़ा कहानीकार है। वह छोटे-छोटे आख्यानों के जरिए 'बड़े नैरेषन' की तलाष में रहता है। यह दीगर बात है कि बड़ा नैरेशन बन नहीं रहा। नट, बाजीगर, साधू, बाबा, नेता, राजनेता ,अभिनेता सब टेलीविजन में चरित्र हैं। माध्यम के रूप में अखबार, रेडियो या फिल्म से कहानी को इतनी चुनौती नहीं मिली जितनी कांटे की टक्कर टेलीविजन दे रहा है। इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि टेलीविजन कहानी को खा जाएगा। कहानी रहेगी क्योंकि मीडिया कभी पुराने रूपों को नष्‍ट नहीं करता। समकालीन कहानी को इस सत्य के रू-ब-रू अपने प्रतिमान गढ़ने होंगे क्योंकि पुराने प्रतीकों के देवता बहुत पहले ही कूच कर गए हैं। मैदान खाली है लेकिन सरपट भी ! बाख्तिन ने उपन्यास पर विचार करते हुए कहा था कि आज कहानी के लिए मानकीकरण या वर्गीकरण सबसे बेकार की चीज है। जब तक हम मानक बनाते हैं सत्य बदल जाता है। इसलिए अच्छा है कि कहानी को कहानी रहने दिया जाए। समकालीन कहानी में 'अंतहीनता' और 'सातत्य' की संवृत्तियाँ जनमाध्यमों विशेषत: टेलीविजन के दबाव से पैदा हुई हैं। आज पाठक के पास अनेक विकल्प हैं। तू नहीं और सही और नहीं और सही। वह सूचनाओं की जाँच भी एक से अधिक स्त्रोतों से कर सकता है। इस स्थिति ने कहानी में ' यथार्थ ' के रूप को बदला है। आधुनिकता के प्रकल्प की यह खासियत है कि वह कभी पूरा नहीं होता। उसे कभी पूर्ण प्रकल्प के रूप में नहीं देखा जा सकता। यह हमेशा एक अधूरा प्रकल्प है। इसलिए आधुनिक कहानी हमेशा अधूरी होगी। उसके प्रतिमान तभी स्थिर किए जा सकते हैं जब कहानी स्थिर हो जाए। ऐसा न हो तो बेहतर !

अस्‍मि‍ता वि‍मर्श की संकीर्णताओं से मुक्‍ति‍ का पाठ

प्रस्तुत विषय पर संवाद का आयोजन करके आपलोगों ने एक मौजू विषय पर ध्यान खींचा है। इसके लिए बधाई के हकदार हैं। समस्या जितनी बोलने में है उससे ज्यादा इसके विमर्श को खोजने में है। हिन्दी में अस्मिताएं ही अस्मिताएं हैं। किंतु विमर्श नहीं है। अस्मिता की सैध्दान्तिकी नहीं है। अस्मिता की आलोचना नहीं है। हमें अस्मिता पर बात करने में मजा आता है। विवाद करने में मजा आता है उसे दूर करने अथवा उसकी वैज्ञानिक व्याख्या तैयार करने में मजा नहीं आता। हम विमर्श के नाम पर विमर्श करने में दिलचस्पी लेते हैं यह तो कुल मिलाकर 'कला कला के लिए' की तरह है। 'विमर्श के नाम पर विमर्श' अथवा ' अस्मिता अस्मिता का खेल' हमारी उसी पुरानी मानसिकता का द्योतक तो नहीं है जिसमें विवाद के विषय वे होते थे जो वास्तव नहीं होते थे अथवा वास्तव सवालों से ध्यान खींचने के लिए उठाए जाते थे। हमारी मुश्किल यह है कि हम अस्मिता की ओट में यथार्थ सवालों से भाग रहे हैं। अस्मिता अथवा पहचान का निर्माण्ा और उसकी प्रक्रियाओं को पूरी जटिलताओं के साथ खोला जाना चाहिए। कहीं सामयिक सामाजिक -राजनीतिक सवालों को दरकिनार करने के लिए तो अस्मिता पर हंगामा ज्यादा नहीं हो रहा ? अस्मिता की समस्या वास्तव अर्थों में उन लोगों की समस्या है जिनके सामने पहचान का संकट है अथवा जो सामाजिक अलगाव में जी रहे हैं। अस्मिता पर बात करते हुए हमें बुनियादी तौर पर यह सवाल उठाना चाहिए कि क्या हम अस्मिता के नाम पर मानव की समग्र पहचान को तो कहीं धुंधला नहीं कर रहे ? कहीं मनुष्य के जीवन के बड़े सवालों की अनदेखी तो नहीं कर रहे ? हमें अस्मिता के नाम अस्मिता की बहस के मौजूदा अंधड़ से सावधान रहना होगा। अस्मिता के सवालों को मनुष्य के सवालों से काटकर देखा जा रहा है। मनुष्य की बड़ी अस्मिताओं को छोटी-छोटी अस्मिताओं के बहाने हाशिए पर डालने की कोशिशें हो रही हैं। इस बहाने एक तरह से अस्मिताओं के बीच में जंग का एलान कर दिया गया है। हमें खोजना होगा कि इस जंग के आयोजक कौन हैं ? जो लोग अस्मिता पर बातें करना चाहते हैं अथवा यहां पर एकत्रित हुए हैं वे सभी लोकतांत्रिक आन्दोलन का हिस्सा हैं अथवा किसी न किसी रूप में वाम आन्दोलन का भी हिस्सा रहे हैं। आज पहचान का कोई एक ही पैमाना प्रचलन में नहीं है बल्कि पहचान के कई पैमाने हैं। अस्मिता को सिर्फ ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के आधार पर ही विश्लेषित नहीं करना चाहिए। बल्कि व्यक्ति की पहचान और जुड़ाव के कई और रूप भी हैं जो साथ ही साथ चलते हैं। मसलन् एक स्त्री स्त्री है साथ ही माँ है,बंगाली है,मुसलमान है,भारतीय है, एशियाई है और यही औरत जब अमरीका चली जाती है तो अमेरिकन पहचान भी उससे जुड़ जाती है। इसके अलावा वह औरत लेस्बियन भी हो सकती है। कहने का अर्थ यह है कि एक व्यक्ति की एक नहीं एकाधिक पहचान होती हैं और ये सारी अस्मिताएं उसके व्यक्तित्व के साथ गुंथी होती हैं। इनमें कौन सी अस्मिता को हम खोलना चाहते हैं, इसी संदर्भ में सबसे प्रमुख सवाल है अस्मिता के संदर्भ का। अस्मिता को उसके विशेष संदर्भ में ही पढ़ा और देखा जा सकता है। अस्मिता को सामान्यीकरण के सहारे देखना सही नहीं होगा। अस्मिता को सामान्यीकरणों के सहारे देखना और सरलीकृत समाधान,संतो षजनक समाधान खोजना आसान है और हमने लंबे समय से हिन्दी में सरलीकरणों के आधार पर ही बातें की हैं। अमर्त्यसेन ने सही लिखा है कि अस्मिता सटीक संदर्भ पर निर्भर होती है। दूसरी महत्वपूर्ण बात अमर्त्यसेन ने लिखी है कि अस्मिता एक नहीं बल्कि एकाधिक होती है। अस्मिता को स्वीकार करने का अर्थ यह नहीं है कि हम अन्य किस्म की पहचान के रूपों को अस्वीकार करें। यह व्यक्ति के ऊपर निर्भर करता है कि वह किसे महत्ताा देना चाहता है। आप अस्मिता के जिस रूप की भी बातें करें कृपया उसके सही संदर्भ के साथ बातें करें। ज्योंही अस्मिता के सही संदर्भ में बातें की जाएंगी तो तुलनात्मक तौर पर प्राथमिकताएं भी तय करनी पड़ेंगी, विभिन्ना किस्म की वफादारियों के साथ उसके संबंध को भी खोलना पड़ेगा। अमर्त्यसेन ने लिखा है अस्मिता पर बातें करते हुए एक खतरा 'रिडक्शनिज्म' का भी है। समाजविज्ञानी जब अस्मिता की बातें करते हैं तो अमूमन दो किस्म के 'रिडक्शनिज्म' के शिकार होते हैं। पहला 'रिडक्शनिज्म' वह है जिसमें अन्य (यह अदर नहीं है) की अस्मिता की एकदम उपेक्षा की जाती है। उसके किसी भी किस्म के प्रभाव ,मूल्य आदि को अस्वीकार किया जाता है। इसी को 'अस्वीकार की अस्मिता' (आइडेंटिटी डिसरिगार्ड)कहते हैं। 'रिडक्शनिज्म' का दूसरा रूप है सिंगुलर एफीलेशन' यानी 'एकक लगाव', इसके तहत व्यक्ति की पहचान को किसी खास चीज से जोड़कर देखते हैं। व्यवहारिक तौर पर उससे जुड़ा भी होता है। सामूहिकतौर पर उसकी पहचान उससे बनती भी है। किंतु एक मनुष्य के नाते हम किसी एक से नहीं अनेक से जुड़े होते हैं। हमारे व्यक्तित्व में एक नहीं अनेक अस्मिताओं का वास रहता है। हमारी एक नहीं एकाधिक वफादारियां होती हैं। भारत जैसे देश में व्यक्ति की एक नहीं अनेक अस्मिताएं हैं। एक अस्मिता वह है जो जन्मना है, एक वह है जो लिंगाधारित है,एक वह है जो पेशागत है, एक वह है जो क्षेत्रीय बाशिंदे के तौर पर है। कुछ लोग हैं जो अपने संकुचित नजरिए के कारण अस्मिता के बहुलतावादी रूप को स्वीकार करने की बजाय उसके एकल चरित्र पर अतिरिक्त जोर दे रहे हैं। इसके कारण अनेक किस्म के टकराव, विवाद, सामाजिक संघर्ष,अभिव्यक्ति की आजादी के लिए खतरा आदि समस्याएं पैदा हो रही हैं। व्यक्ति की एकल अस्मिता नहीं होती बल्कि बहुलतामूलक अस्मिता होती है। एकल अस्मिता को प्रामाणिक बनाना और उसके लिए संतोषजनक तर्क खोजना बेहद मुश्किल है, एक ही वाक्य में कहें तो एकल अस्मिता की तर्क,आंदोलन,राजनीति आदि किसी भी तरह हिमायत और रक्षा संभव नहीं है। कभी कभी वर्गीकरण को बौध्दिक तौर पर सिध्द करना भी मुश्किल होता है। फ्रेंच माक्र्सवादी-समाजशास्त्री बोर्दियो के अनुसार कभी कभी सामाजिक एक्शन ऐसी भिन्नाता को जन्म देते हैं जिनका कभी अस्तित्व ही नहीं था। और सामाजिक जादू लोगों का रूपान्तरण करता है और उन्हें बताता है कि वे भिन्ना हैं। हमें कंट्रास्टिंग' और नानकंट्रास्टिंग' अस्मिताओं के बीच में अंतर करना चाहिए। मसलन् यह संभव है कि विभिन्ना किस्म के समूह एक ही किस्म की केटेगरी में आते हों। जैसे बंगाली अथवा बिहारी की पहचान में विभिन्ना किस्म की अस्मिताओं का समाहार किया जा सकता है। अथवा नागरिक की केटेगरी में अनेक किस्म की अस्मिताओं को समाहित किया जा सकता है। अथवा मुसलमान अथवा हिन्दू की पहचान में अनेक किस्म की अस्मिताओं को समाहित किया जा सकता है। ये सारे रूप वे हैं जो विभिन्ना किस्म के अंतरों को अस्वीकार करते हैं। इसी तरह अस्मिता के वे भी रूप हैं जहां अंतरों पर,भेद पर,भिन्नाता पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है। इस क्रम में हम मनुष्य रूपी अस्मिता को भूल गए हैं। हमें भेद और अभेद वाली अस्मिताओं में से भेद वाली अस्मिताएं पसंद हैं। हमें मानवीय अस्मिता पसंद नहीं हैं। हम व्यक्ति को स्त्री, दलित,जाति,राष्ट्र,पेशा,भाषा आदि से जोड़कर देखने लगे हैं और मानवीय अस्मिता को इन सबके सामने भूल गए हैं अथवा उपेक्षा करने लगे हैं। यह भी कह सकते हैं हम बड़े हुए है किंतु अपनी पहचान के नाम पर बौने भी हुए हैं। हमने अस्मिता को महान बनाया है मनुष्य की अस्मिता को महान नहीं बनाया है। हमने अस्मिता के सवालों पर चर्चा की है मनुष्य के सवालों पर चर्चा नहीं की है। हमारा चयन,वफादारियां, नजरिया, विश्वदृष्टिकोण सभी कुछ अस्मिता के एकल रूप से परिचालित रहा है हमने यदि मनुष्य को आधार बनाया होता तो अस्मिता के एकल की बजाय बहुलतावादी रूप की प्रतिष्ठा की होती। अस्मिता के संदर्भ में एक बात यह यह भी है कि अस्मिता कोई तयशुदा ,बनी-बनायी चीज नहीं है,ईश्वरप्रदत्ता चीज नहीं है, बल्कि उसे अर्जित करना पड़ता है। उसे आप अपने अंदर खोजते है,ं अर्जित करते हैं। हम जब अस्मिता के विवादों की बातें करते हैं तो हमें यह भी देखना चाहिए कि विवाद असली हैं अथवा नकली हैं। विवादों का हमारी वफादारी पर क्या असर हो रहा है। हमारी प्राथमिकताओं और प्रतिबध्दताओं पर क्या असर हो रहा है ? विवाद का इतिहास,संस्कृति ,भाषा,राजनीति,पेशे, परिवार, बंधुत्व आदि पर क्या असर हो रहा है। इन सारी चीजों की सामुदायिक महिमामंडन के नाम पर उपेक्षा नहीं की जा सकती। सवाल यह नहीं है कि हम अस्मिता को चुनें या नहीं चुनें ? सवाल यह है हमारे पास विकल्प की अस्मिता कौन सी है ? अथवा हमारे पास बहुआयामी-बहुस्तरीय अस्मिता है ? क्या हम जो अस्मिता चुन रहे हैं वह हमें पर्याप्त स्वतंत्रता और मानवीयबोध प्रदान करती है ? क्या वह हमारी मानवीय प्राथमिकताएं समग्रता में तय करने में मदद करती है ?

हि‍न्‍दी का मोल

मीडिया के लोग सोचते हैं कि हिन्दी का उनके लिए दाम ज्यादा है क्योंकि वह पचास करोड़ से ज्यादा लोगों की भाषा है। मीडिया में किसी भी भाषा की महत्ताा उसके बोलने वालों से जब आंकी जाती है तो अचानक यह तथ्य भी संप्रेषित हो जाता है कि भाषा से बड़ा तत्व जनसंख्या का है। भाषा को जनसंख्या बल के आधार पर देखने का तरीका मार्केटिंग का तरीका है। मार्केट को तो जनसंख्या से मतलब है,इसके बाद वे लोग कैसे हैं ?उनकी दुनिया कैसी है ? उनकी परंपरा क्या हैं ?उनके सुख-दुख क्या हैं? इत्यादि सवालों से मीडिया सर्जकों का बहुत कम लेना-देना होता है। भाषा माल उत्पादकों और क्रेताओं के बीच संपर्क,संवाद और संचार की धुरी है। इस धुरी के जरिए क्या दिया जा रहा है ?कैसे दिया जा रहा है ? इन सब सवालों की ओर मीडिया ने अब आंखें बंद कर ली हैं ।मीडिया को अपनी ऑडिएंस पर ध्यान देना चाहिए,उसकी भाषा में कम्युनिकेट करना चाहिए। किंतु इस कम्युनिकेशन में यदि एकमात्र भाषा ही कीमत तय कर रही है ? तो इसे मीडिया की कमजोरी ही कहा जाएगा। मीडिया में भाषा संचार का एक रूप है। किंतु इस रूप की शक्ति संबंधित भाषा-भाषी लोगों के जीवन यथार्थ के चित्रण से आती है। भाषा का अपने सामाजिक यथार्थ से गहरा रिश्ता होता है। कोई भी भाषा अपने सामाजिक सच को ,व्यापक सामाजिक-आर्थिक सरोकारों से जुड़े सच को व्यक्त करके ही शक्ति अर्जित करती है। कोई लेखक हिन्दी में लिखने मात्र से महान् लेखक नहीं बन जाता। उसी तरह कोई भी अखबार ,रेडियो,टीवी चैनल सिर्फ हिन्दी में आने से ही हिन्दी का भला नहीं करने लगता। बल्कि यह कहना ज्यादा सच होगा कि हिन्दी तो एक ऊपरी आभूषण है,असल है हिन्दीभाषी जनता का यथार्थ। यह सच है कि हिन्दी चैनलों और अखबारों की बाढ़ आई हुई है,किन्तु इससे भी बड़ा सच यह है कि विगत कई वर्षों से हिन्दी में कोई भी ऐसी खोजी रिपोर्ट प्रकाशित नहीं हुई है जो पूरे देश का ध्यान खीचे। इससे भी बड़ा सच यह है कि भूमंडलीकरण का जे रेला हिन्दी मीडिया में चल रहा है। उसमें सांस्कृतिक गुलामी के बीज बोए जा रहे हैं। लगातार हमारे पास ऐसी खबरें आ रही हैं जिन्हें सारवान खबरें नहीं कह सकते। खबरों के ऐसे धुरंधर संवाददाता आ गए हैं जिन्हें सही हिन्दी तक बोलनी नहीं आती,इससे भी बड़ी बात यह है कि आज भी विज्ञापन में हिन्दी अभिव्यक्ति की भाषा,सृजन की भाषा का दर्जा हासिल नहीं कर पायी है। ज्यादातर विज्ञापन अंग्रेजी में तैयार होते हैं,उनकी मूल सामग्री अंग्रेजी में तैयार होती है। कई हजार करोड़ का व्यापार करने वाला विज्ञापन उद्योग आजादी के साठ साल बाद भी हिन्दी में सोच नहीं पाता,हिन्दी में जब तक विज्ञापन नहीं सोचेगा,हिन्दी के विज्ञापन सर्जक तैयार नहीं किए जाते,तब तक हिन्दी के स्तर में सुधार नहीं आने वाला।टीवी चैनलों में हिन्दी को लेकर हीनताबोध इस कदर हावी है कि ज्यादा चैनलों के कार्यक्रमों के नाम अंग्रेजी में हैं,मजेदार बात यह है कि वे अंग्रेजी में नाम लिखकर भी दिखाते हैं,नाम बोलते भी अंग्रेजी में हैं। चैनलों को लगता है कि वे अपने कार्यक्रम का नाम हिन्दी में देंगे तो आकर्षक नहीं कर पाएगा।दुखद बात यह है कि सांस्कृतिक गुलामी के नाम पर बच्चों को सीधे निशाना बनाया जा रहा है। बच्चों के लिए खासतौर पर जो चैनल आए हैं वे अधिकांश डबिंग किए गए कार्यक्रम दिखा रहे हैं। इन कार्यक्रमों के पात्र जब हिन्दी बोलते हैं तो बेतुके लगते हैं। क्योंकि उन बच्चों की दुनिया हिन्दीभाषी बच्चों की दुनिया से मेल ही नहीं खाती। भाषा समृध्द होती है प्रामाणिक यथार्थ से मीडिया नैटवर्क की पहुँच के आधार पर भाषा की समृध्दि का अंदाजा नहीं लगाया जाना चाहिए,भाषा बोलने से नहीं सीखने से समृध्द होती है।भाषा बोलना या सुनना अनपढ़ की क्रिया है। शिक्षित की क्रिया भाषा शिक्षण से शुरु होती है। हमारे मीडिया ने हिन्दी का बाजार तो हासिल कर लिया है किंतु हिन्दी का वह ठाट,साख और प्राणतत्व अभी हासिल नहीं कर पाया है। अंग्रेजी की भाषा की टकसाल से निकले हुए हिन्दी के किराए के टट्टू हिन्दी के प्रतिनिधि बन गए हैं,इससे एक बात का पता चल गया है कि भाषा में टट्टुओं की बहार आयी हुई है। हिन्दी भाषा बाजार की भाषा जरूर है किंतु इसकी प्राणवायु बाजार मात्र के सम्प्रेषण में नहीं है।बाजार में किस चीज का क्या नाम है और क्या दाम है और क्या गुण है,अथवा यह कहें तो ज्यादा अच्छस होगा हिन्दी आज बाजार मेनीपुलेशन का हिस्सा बन गयी है, ग्राहक को फुसलाने का माध्यम बन गयी है। भाषा जब फुसलाने लगे तो समझ लो खतरा मंडरा रहा है। हिन्दी को मीडिया ने फुसलाने की भाषा बनाया है।मेनीपुलेशन,नकल और उधारी रूपों के अनुवाद का माध्यम बनाया है,ये सारी चीजें भाषा के बाहरी उपकरण हैं,इन्हें भाषा की प्राणशक्ति नहीं समझना चाहिए। भाषा का संबंध हमारे जीवन से है,जीवन के ठोस यथार्थ से है।उसके अंतर्विरोधों की अभिव्यक्ति से है। हिन्दी जब हिन्दीभाषी समाज के संघर्षों और अन्तर्विरोधों की भाषा बनेगी तो उसकी साख बढ़ेगी,लेकिन यदि हिन्दी सिर्फ माल के सम्प्रेषण की भाषा बनेगी तो उसकी साख घटेगी। यही वजह है कि आज चारों ओर हिन्दी ही हिन्दी है किंतु उसकी साख नहीं है। हिन्दी की यदि साख होती तो वह अंग्रेजी को अपदस्थ कर चुकी होती, मीडिया में हिन्दी का सही मायने में मोल लगाने से पहले हम अपने अंदर हिन्दी का स्थान तय करें,अपने व्यवहार में उसे प्रतिष्ठा दिलाएं,हमारे सामाजिक-राजनीतिक व्यवहार में तो हिन्दी दोयम दर्जे के नागरिक जीवन बिता रही है। किंतु मीडिया में वह पटरानी बनी बैठी है।यह ऐसी पटरानी है जिसके पास वैभव है,संपदा है। किंतु वह स्वयं बांझ है,अधिकारहीन है।

वर्जीनिया वुल्‍फ: स्‍त्री का कमरा,शरीर और वि‍जन

स्त्रीवादी साहित्यालोचना विमर्श वर्जीनिया वुल्फ और क्लेरीस लिस्पेक्टर के बिना अधूरा है। वर्जीनिया वुल्फ और क्लेरीस लिस्पेक्टर ने स्त्रीवादी साहित्यालोचना में जिन धारणाओं को रचा और साहित्य के जिन नए मानकों की सर्जना की है वे आज स्त्री आलोचना की धुरी हैं। संसार में स्त्री सृष्टि के आरंभ से है] उसकी चर्चा भी उतनी ही पुरानी है। किन्तु कुछ ऐसा उलटा पुलटा हुआ है कि स्त्री मातहत हो गयी] अधिकारहीन हो गयी। घर की मालकिन बना दी गयी किन्तु उसके पास अपने लिए कोई स्वतंत्र रहने का कमरा या कोठरी तक नहीं थी। उसका संसार में अस्तित्व था]संसार की सारी वस्तुएं उसके लिए थीं]उसके बिना कोई भी चीज अच्छी नहीं लगती थी। किन्तु वह किसी भी वस्तु को पा नहीं सकती थी। वस्तु]संसार और संस्कृति के केन्द्र में वह थी]परन्तु इस संसार से बेदखल थी।संसार से औरत को किसने बेदखल किया, उसका आशियाना किसने उजाड़ा। वह क्यों इस संसार में आई और उसके क्या अधिकार थे, क्या संसार में उसके लिए एक गज जमीन भी छोड़ी गयी ,वगैर आशियाने और बगैर धन के वह असहाय थी। वह मानवता की सबसे बड़ी सर्जक थी और सबसे बड़ी गरीब भी थी। किन्तु हमारे साहित्यकारों ,कलाकारों,संस्कृतिकर्मियों आदि ने उसे कला के सृजन में इस कदर महिमामंडित किया कि उसके सवालों पर , उसके जीवन की कठोर वास्तविक समस्याओं पर कभी ध्यान ही नहीं गया। स्त्री के जितने आकर्षक चित्र बनाए गए उतने आकर्षक चित्र भगवान के भी नहीं बनाए गए। सृजन में जितने बड़े कैनवास को उसने घेरा हुआ है, वास्तव जीवन में उसके पास एक कमरा भी नहीं है।वह सबकी है,सब उसके मालिक हैं, किन्तु उसके पास कुछ भी नहीं है। साहित्य की दुनिया में वर्जीनिया वुल्फ पहली लेखिका है जिसने औरत के अपने कमरे का सवाल उठाया। सामाजिक जीवन में औरत की अधिकारहीनता और असहाय अवस्था को यदि देखना हो तो यह देखें कि उसके पास अपना कमरा है या नहीं ,उसके पास अपना पैसा है या नहीं ,स्त्री अपना सृजनात्मक विकास करे,सुख और शांति से जीवन यापन करे, इसके लिए जरूरी है कि उसके पास अपना आशियाना और पैसा होना चाहिए। आशियाना उसकी स्वायत्तता का प्रतीक है। वर्जीनिया वुल्फ का मानना है स्त्री और कहानी के अन्तस्संबंध की धुरी है कमरा। स्त्री अपना रचे और स्वायत्त रूप में जीवन यापन करे इसके लिए कमरा और पैसा ये दो चीजें उसके पास होनी चाहिए।यदि स्त्री के पास अपना कमरा नहीं है,पैसा नहीं है तो उन तमाम सवालों पर बातें न की जाएं जिन्हें औरतों के संबंध में उठाया जाता है।मसलन् औरत क्या है। स्त्री की कहानी कैसी है। स्त्री को कहानी लिखने के लिए अपना कमरा और पैसा ये दोनों चाहिए।चूंकि स्त्री के सवाल विवादास्पद होते हैं अत: उसका सत्य बहुत मुश्किल से ही सामने आ पाता है। स्त्री के सवालों पर विचार करते समय निष्कर्ष निकालने की जरूरत नहीं है।निष्कर्ष ऑडिएंस को निकालने दीजिए।वक्ताओं के जितने पूर्वाग्रह हैं,मूर्खताएं हैं उन्हें सामने आने दीजिए। हमें स्त्री के तथ्य की बजाय स्त्री सत्य पर रोशनी डालनी चाहिए। प्रत्येक रचनाकार अपने युग और स्वयं को बदलने वाली अनुभूतियों को व्यक्त करता है। इन अनुभूतियों को आरंभ में लोग स्वीकार नहीं करते।किसी न किसी कारण से भयभीत रहते हैं। रचना में व्यक्त अनुभूतियों को पुरानी कृति में व्यक्त अनुभूतियों के साथ मिलाकर देखें तो हमेशा नया तत्व दिखाई देगा। वुल्फ ने कहा आधुनिक कवि की मुश्किल यह है कि उसकी कविता की दो पंक्तियां भी याद रखना मुश्किल है। हमें कविता या साहित्य पढ़ते समय यह देखना चाहिए कि उसमें सत्य क्या है ,और भ्रम क्या है ,कौन सी चीज है जो हमारे भ्रमों को नष्ट कर रही है।सत्य को सामने ला रही है। हमें इस सवाल पर विचार करना चाहिए कि गरीबी या समृध्दि का औरत के दिमाग पर क्या असर होता है। पैसा होता है तो आदमी सुरक्षा और संवर्ध्दन के बारे में सोचता है। अभाव या गरीबी में असुरक्षा के बारे में सोचता है।अन्य पर क्या असर होगा ,इसके बारे में सोचता है। स्त्री के पास आर्थिक अभाव ही है जो उसे परंपरा के अभाव में जीने के लिए मजबूर करता है। हम यह भी सोच सकते हैं कि लेखक पर परंपरा के अभाव का क्या असर होता है। वुल्फ कहती है आप ऐसे कमरे की कल्पना करें जिसमें हजारों खिड़कियां हों, जिनसे आप बाजार में आने जाने वालों को देख सकें,गाडियों को देख सकें।उस कमरे के अंदर एक टेबिल हो ,सादा कागज हों और उन पर बड़े बड़े अक्षरों में लिखा हो स्त्री और कहानी । इसके अलावा और कुछ न लिखा हो। हमें यह भी सवाल करना चाहिए कि मर्द शराब क्यों पीता है और औरत पानी क्यों पीती है ,एक लिंग इतना समृध्द क्यों है , और दूसरा इतना दरिद्र क्यों है , गरीबी का कहानी पर क्या असर होता है ,कला सृजन की अनिवार्य परिस्थितियाँ कौन सी होती हैं , इन सवालों का हमें जबाव देना होगा।जबाव खोजते समय समझदारों से सलाह लेनी होगी और पूर्वाग्रहों से मुक्त होना होगा।हमें भाषा की जटिलता और शरीर के भ्रमों से मुक्त होना होगा। हमें सत्य को खोजना होगा।सत्य किताबों में नहीं मिलता।कलम और कागज पकडना ही सत्य है।इससे आत्मविश्वास बढ़ता है,जानकारी बढ़ती है।मैंने इसी के सहारे सत्य को जानने की कोशिश की है। वुल्फ ने सवाल उठाया है कि क्या हम जानते हैं कि एक साल में औरत पर कितनी पुस्तकें लिखी गयीं , पुरूष पर कितनी पुस्तकें लिखी गयीं , क्या आप जानते हैं कि पृथ्वी पर सबसे ज्यादा चर्चा औरत की हुई है। यही वह बिंदु है जहां पर मैं आपसे कागज और कलम के बारे में बातें करना चाहती हूँ। मैं चाहती हूँ कि आप अपनी सुबह पढ़ने में गुजारें। वुल्फ ने स्त्रियों की नैतिकता,सामाजिकता ,स्त्री को पुरूष की तुलना में हेय,अनैतिक और घटिया सिध्द करने वाली सभी किस्म की पुस्तकों के बारे में लिखा कि ये मेरे किसी काम की नहीं हैं। ये पुस्तकें वैज्ञानिक दृष्टि से भी बेकार हैं।ये पुस्तकें निर्देशों,स्वार्थों और बोरियत से भरी होती हैं।इनमें तथ्यों के नाम पर आदतों का वर्णन रहता है।ये खास रंग में रंगी होती हैं।यह उजाले में चमकने वाला सच नहीं है।अत: ऐसी पुस्तकों को लौटा देना चाहिए। पुरूष गुस्सा इसलिए है क्योंकि उसके पास ताकत है।समृध्द लोग गुस्सा इसलिए होते हैं क्योंकि वे सोचते हैं कि गरीब लोग उनकी संपत्ति छीन लेंगे। जब कोई प्रोफेसर स्त्री को हेय या हीन बनाकर पेश करता है,स्त्री के प्राइवेट जीवन के उदाहरण देता है, स्त्री के समर्पण की प्रशंसा करता है तो उसका सरोकार स्त्री की हीनता से नहीं होता,बल्कि वह अपनी श्रेष्ठता को सिध्द करना चाहता है। वह अपनी श्रेष्ठता को सुरक्षित रखना चाहता है। उस पर अतिरिक्त बल देता है। क्योंकि उसके लिए वही नायाब है,हीरा है। वुल्फ ने लिखा है स्त्री और पुरूष दोनों की जिन्दगी जटिल है और संघर्षों से भरी पड़ी है।इन संघर्षों के लिए विलक्षण दुस्साहस और क्षमता की जरूरत है।स्वयं पर विश्वास करने की जरूरत है। आत्मविश्वास की जरूरत है।स्वयं पर विश्वास के बगैर हम इस संसार में बच्चे हैं। आत्मविश्वास कैसे पैदा करें।यह अमूल्य गुण है,हमें इसे जल्दी पाना होगा।आत्मविश्वास हम जल्दी तब ही पाते हैं जब अन्य को हीन या हेय बनाते हैं,यह अनुभूति पैदा करते हैं कि अन्य से श्रेष्ठ हैं। पद, संपदा,नाक आदि में श्रेष्ठ हैं। नेपोलियन और मुसोलिनी ने स्त्री को हीन माना।जबकि औरत हीन नहीं थी। असल में वे औरत को बड़ा बनाना ही नहीं चाहते थे।इससे यही पता चलता है कि मर्द कैसी औरत चाहता है।यह भी पता चलता है कि जब उसके विचारों की आलोचना होती है तो वह कितना व्यग्र हो जाता है।बेचैन हो जाता है।मर्द से यह कहना मुश्किल है कि उसकी पुस्तक खराब है। हमारा समाज लंबे समय से स्त्री को संरक्षण में रखता चला आया है। वुल्फ के अनुसार भविष्य में स्त्री को संरक्षित रखने का विचार खत्म हो जाएगा।वह सभी किस्म की गतिविधियों में हिस्सा लेगी।वह उन तमाम गतिविधियों में हिस्सा लेगी जिनमें हिस्सा लेने पर पाबंदी थी।स्त्री को संरक्षित रखने के सभी किस्म के विचार खत्म हो जाएंगे।वुल्फ के अनुसार स्त्री संरक्षण के सभी किस्म के विचारों को खत्म कर देना चाहिए।उसे सभी चीजों का सामना करने देना चाहिए।सभी किस्म की गतिविधियों में भाग लेने देना चाहिए।हमें दरवाजे खोलने चाहिए।हमें देखना चाहिए कि औरत किस तरह की अवस्था में रहती है।उसे किस तरह की परेशानियों में जीना पड़ता है।हम यह सब जाने वगैर सवाल उठा देते हैं कि औरत ने क्या महत्वपूर्ण लिखा है। यह सवाल भी उठाया जाता है कि मर्द ने महान् रचनाएं लिखीं औरत ने क्यों नहीं लिखीं वुल्फ कहती है औरत की कहानी चमकीली तरंग की तरह है।यह ऐसी चमकीली तरंग है जो चारों ओर रोशनी फेंकती है।उसमें मानवीय व्यथा भरी हुई है।उसके दुख भौतिक वस्तुओं से जुड़े हैं।संपत्ति और पैसे जुड़े हैं। वुल्फ का मानना है कि स्त्री ,पुरूष की तुलना में कहीं न कहीं गरीब होती है।किन्तु उसकी इस स्थिति को समझने के लिए हमें यह देखना चाहिए कि वह किस तरह की अवस्था में रहती है। मध्यकालीन कवयित्रियों के बारे में वुल्फ ने लिखा कि 16वीं शताब्दी में औरतें कविताएं लिखती थीं।वे असंतुष्ट रहती थीं। यह ऐसी औरत थी जो स्वयं के खिलाफ संघर्ष कर रही थी।अपनी जीवन परिस्थितियों के खिलाफ संघर्ष कर रही थी।उसकी सहजजात वृत्तियां उसकी मानसिक अवस्था के खिलाफ बगावत कर रही थी।इसके बावजूद उसका सर्जक दिमाग था। 18 वीं सदी में रूसो के आने के बाद आत्मस्वीकृति और आत्मकथाएं सामने आती हैं। पुरूषों की आत्मकथाएं लिखी गयीं। आत्मविश्लेषण और आत्मस्वीकृति की शुरूआत आधुनिककाल में हुई। बड़े से बड़ा लेखक आधुनिककाल के पहले आत्मविश्लेषण नहीं कर पाया। क्योंकि उसके जीवन की प्रत्येक चीज उसकी मानसिक अवस्था के विपरीत थी। उसकी समग्र भौतिक परिस्थितियां उसके खिलाफ थीं। मध्यकाल में औरतों के पास कुछ नहीं था।यह अभाव उस समय और भी भयावह हो उठा जब औरत को अपने लिए एक कमरे की जरूरत थी। वह चाहती थी कि उसका अपना कमरा हो,वह शांत एकांत में रह सके।किंतु उसे ऐसी जगह मिलनी असंभव थी। संपन्न परिवार की औरतों के पास ही अपना कमरा था। वुल्फ कहती है मध्यकाल के कवियों के आर्थिक आधार को देखें।उनकी घूमन्तू अवस्था को देखें। उनके विचारों को देखें तो समाज के साथ रचनाकार की एक खास किस्म की मुठभेड़ नजर आएगी।ये रचनाकार खास किस्म के विरोध को झेल रहे हैं।स्थिति इस कदर खराब है कि लेखकों को किसी ने नहीं कहा कि वह क्या लिखे।लेखन के लिए अच्छा क्या है इस संदर्भ में भी कुछ नहीं लिखा।समाज में एक तबका था जो औरतों को बौध्दिक कार्यों से अलग रखता था।वे यह समझते थे कि औरतें बौध्दिक कार्य नहीं कर सकतीं।वुल्फ ने लिखा है कि स्त्री की मुक्ति की कहानी जितनी दिलचस्प है उससे ज्यादा दिलचस्प है पुरूष के द्वारा स्त्री मुक्ति को रोकने की कहानी। वुल्फ ने मध्यकालीन इंग्लैण्ड और अंग्रेजी साहित्य और समाज में व्याप्त स्त्री विरोधी माहौल का जिस तरह का मूल्यांकन किया है।उसकी तुलना यदि भारतीय परंपरा और साहित्य में स्त्रियों की अवस्था को लेकर की जाए तो एक फ़र्क साफ देखा जा सकता है। हिन्दी में स्त्रियां भक्ति आंदोलन के दौरान जमकर लिख रही थीं। संत होकर लिख रही थीं। भक्त होकर लिख रही थीं।कलाओं के जटिल क्षेत्रों खासकर कामुकता,संगीत,कविता,नृत्य,संगीत आदि के क्षेत्र में स्त्रियों का गहरा प्रभाव था।सृजन के क्षेत्र में ऋग्वेद से लेकर रीतिकाल तक स्त्री लेखिकाओं की परंपरा मिलती है। इनकी रची कविताओं में भाषा का जो श्रेष्ठ रूप मिलता है उससे उनकी वैचारिक प्रौढता का आभास मिलता है। वुल्फ के अनुसार अंग्रेजी साहित्य में 16वीं शताब्दी के पहले स्त्री की कविता नहीं मिलती।औरतों का अपने नाम से लिखना मुश्किल था।अपने नाम से लिखने में जोखिम था।पुरूष की तरफ से खतरे थे। वुल्फ का मानना है महान् रचना अकेले व्यक्ति की देन नहीं होती। वह अनेक वर्षों के साझा चिन्तन की देन होती है।रचनाकार के सोच में जनता का सोच भी शामिल होता है।जनता का अनुभव भी शामिल होता है। वुल्फ के रचना संसार में दो किस्म के स्त्री शरीर का रूपायन मिलता है। एक वह औरत जो वास्तव जीवन में है,उसका शरीर है।दूसरी वह औरत जो आईने में नजर आ रही है। आईने में नजर आने वाली औरत और वास्तव औरत के बीच फ़र्क होता है।वुल्फ कहती है कि उसने अपनी आत्मकथा में जो लिखा है,वह उस औरत का बयान है जो आईने में नजर आ रही थी।आईने में नजर आने वाली वुल्फ स्वयं को ही चुनौती देती है।वह अपने दुखद बचपन को याद करती है। वुल्फ ने लिखा है मैं स्वर्त:स्फूत्त आनंदातिरेक और उससे विचलन सघन रूप में बगैर किसी शर्मिन्दगी या कुण्ठा के तब तक महसूस करती हूँ जब तक वह मेरे शरीर से पृथक रहता है। आनंदातिरेक और विचलन का मजा तब आता है जब वह शरीर से पृथक हो।इसका अर्थ यह है कि आनंदातिरेक और विचलन को वुल्फ ने शरीर से नहीं आत्मा से जोडकर देखा है।'लाइट हाउस' में एक जगह लिखा है स्त्री के निज के शरीर की अनुभूति उसके दिमाग की अनुभूति नहीं है। शरीर के जरिए आनंदानुभूति एकदम भिन्न किस्म की अनुभूति है।वुल्फ जिस शरीर की बात कर रही है,यह वह शरीर है जो आईने में नजर आता है। आईने का शरीर आनंदातिरेक पैदा करता है। यह ऐसा शरीर है जहां किसी तरह के नियम लागू नहीं होते। जबकि वास्तव शरीर पर सामाजिक नियम और संहिता लागू होती है।वुल्फ जिस औरत के शरीर की बात कर रही है वह आधुनिकतावादी औरत का शरीर है।इसके आधार पर वुल्फ ने एक भिन्न किस्म के स्त्री शरीर की परिकल्पना पेश की है।यह भिन्न शरीर है। जेण्डर से भिन्न शरीर है।वास्तव शरीर से भिन्न है। वास्तव शरीर तो वर्चस्वशाली व्यवस्था को व्यक्त करता है।इसे वुल्फ ने 'विजनरी वॉडी' कहा है।यह नाम असल में वुल्फ के चिन्तन की ही देन है। वुल्फ ने उपन्यास के बारे में लिखा है कि दो तरह के उपन्यास होते हैं।एक उपन्यास तथ्य होता है।दूसरा उपन्यास विजन होता है।वुल्फ ने स्त्री की 'विजनरी वॉडी' का व्यापक रूप में चित्रण किया है। इस चित्रण का संबंध उसके आधुनिकतावादी सोच है।इस चित्रण में स्त्री का धैर्य, संवेदनाएं, आकर्षण आदि का चित्रण स्त्री की सामाजिक परिस्थितियों पर प्रभाव को ध्यान में रखे बिना किया गया है। इस तरह के चित्रण का स्त्री की कामुकता पर क्या असर होगा ,इसका ध्यान नहीं रखा गया।'विजनरी बॉडी' में स्त्री के मातृत्व पर जोर है।यही वजह है 'अपना कमरा' को स्त्रीवादी विचारकों ने पिता के लिए चुनौती माना।यह रचना मातृत्व की सत्ता,स्वायत्तता और परंपरा को स्थापित करने का प्रयास भी है।यह आधुनिकतावादी अवांगार्द का मातृत्व है। वुल्फ के नजरिए की खूबी है कि उसने स्त्री के सवालों पर आधुनिकतावादी नजरिए से देखा है। यही वजह है कि वह स्त्री को अशरीरी या रहस्यमय नहीं बनाती।बल्कि प्रच्छन्नत: कामुक शारीरिक अनुभूतियों को अभिव्यक्त करती है।इसी क्रम में वह स्त्रीवाद और आधुनिकतावाद का अन्तस्संबंध भी बनाती है।वुल्फ के लिए यह संबंध आरामदायक नहीं है। बल्कि तनावपूर्ण है।वह विवाद ज्यादा पैदा करता है। संतोष कम देता है।माँ के बहाने वुल्फ ने स्त्री शरीर की समाज में असुरक्षा,जटिलता आदि के साथ मुठभेड़ ज्यादा की है।वुल्फ की स्त्रियों के प्रति जिज्ञासा का प्रधान कारण है उसका स्त्रियों को लेकर सामाजिक अनुभव। उसने पाया कि औरतों का शोषण हो रहा है। पतन हो रहा है।यही चीज वुल्फ को स्त्री साहित्य की परंपरा की खोज की ओर ले गयी। इसी क्रम में वह पाती है कि साहित्य के इतिहास में समाज की कहानी तो मिलती है,किन्तु 'विजनरी वॉडी' नजर नहीं आती।'विजनरी बॉडी' मूलत: कामुकता के प्रचलित वर्गीकरणों को ध्वस्त करती है।उन्हें अस्वीकार करती है।'विजनरी वॉडी' में इच्छाएं व्यक्त होती हैं, किन्तु सीमित अर्थ में रूपकों में व्यक्त होती है। 'विजनरी वाडी' स्त्री की इच्छाओं का स्रोत खोजने ,सृजनात्मकता को खोजकर सामने लाने का काम करती है। यह शरीर सीमित नहीं असीमित है।अंतिम विश्लेषण में यह सामाजिक संगति और बौध्दिकता को व्यक्त करता है।समाज में 'विजनरी बॉडी'और 'सामाजिक शरीर' को लेकर स्पष्ट विभाजन दिखाई देता है। 'विजनरी बॉडी' में सटीक अनुभूतियां व्यक्त होती हैं। ये अनुभूतियां परिवार का निषेघ करती हैं।रिश्तेदारी का निषेध करती है। सामाजिक दायित्व का निषेध करती है। वुल्फ का मानना है कि स्त्री लेखिका को बगैर किसी बाधा के अपने विजन पर केन्द्रित होना चाहिए।वह इसमें जितनी तल्लीन होगी उसका जीनियस और मौलिकता उतनी ही व्यापक गहराई में जाकर अभिव्यक्ति पाएगी। वुल्फ के यहां 'व्यक्ति' और 'गैर-व्यक्ति' के बीच विरोध भाव व्यक्त हुआ है।वुल्फ की चिन्ता यह है कि स्त्री को उसके शोषण से कैसे मुक्ति दिलायी जाए,उसके नजरिए में विक्टोरियन अवांगार्द समाज की औरत को अभिव्यक्ति मिली है। वुल्फ ने बार-बार यही रेखांकित किया है स्त्री का शरीर खतरे में है। 'विजनरी औरत' का चित्रण करते हुए उसने सांस्कृतिक रूप से वैध असुरक्षा को निशाना बनाया है। उनके समाधान खोजने की कोशिश की है।वह 'विजनरी शरीर' को सामाजिक प्रभावों से मुक्त रखती है। यह ऐसा शरीर है जहां कोई हस्तक्षेप नहीं है।कोई हमला नहीं कर सकता। 'वूमेन एंड फिक्शन' और 'अपना कमरा' नामक कृति में वुल्फ ने भौतिकवादी और रूपान्तरणकारी नजरिए से रेखांकित किया है कि स्त्री का जीवन भौतिक परिस्थितियों के कारण सीमाबध्द रहा है।यही वजह है कि स्त्री लेखन क्रमश: विकसित हुआ है। उसकी गुणवत्ता में क्रमश: निखार आया है। स्त्री की 'विजनरी बॉडी' मूलत: स्त्री कामुकता के प्रचलित विभाजनों और वर्गीकरण को ध्वस्त करती है।उन्हें अस्वीकार करती है।'विजनरी बॉडी' में इच्छाएं व्यक्त होती हैं।स्त्री की इच्छाओं के स्रोत खोजने के लिए उसकी सृजनात्मक अभिव्यक्तियों को सामने लाती है। वुल्फ के यहां स्त्री की सीमित इमेज नहीं है।बल्कि अंतिम विश्लेषण में औरत असीमित है।वह सामाजिक संगति और बौध्दिकता की खोज करती है। वुल्फ का मानना है स्त्री को माँ के नजरिए से देखा जाना चाहिए।अंग्रेजी के पुराने (मध्यकालीन) स्त्री लेखन के बारे में वुल्फ का मानना है कि वह ईश्वरीय स्वर्त:स्फूर्तता की अभिव्यक्ति है।वह साधारण लेखन है।पुरानी स्त्री की जिन्दगी वगैर किसी व्यवस्था के थी। अत: उसका कोई महत्व नहीं है।वहां तो सिर्फ स्वर्त:स्फूर्त्‍त अभिव्यक्ति मिलती है।पुराना स्त्री लेखन घरेलू और सामाजिक दोनों ही स्तरों पर अक्षम साबित हुआ है। वुल्फ ने उन तमाम तर्कों का विस्तार से खण्डन किया जिसमें स्त्री को पुरूष की तुलना में हेय माना गया था। वुल्फ ने लिखा है कि यह तथ्य अचम्भित करता है। और मैं कहूँगी कि किसी भी तटस्थ विश्लेषक या दर्शक को भी अचम्भित करेगा कि सत्रहवीं शताब्दी में 16वीं शताब्दी से ज्यादा महत्वपूर्ण महिलाएं सामने आयीं।18वीं शताब्दी में सत्रहवीं शताब्दी से ज्यादा महत्वपूर्ण महिलाएं सामने आयीं।यदि 17वीं से लेकर 19वीं शताब्दी के बीच के तीन सौ साल की महिलाओं को मिलाकर देखें तो ये महिलाएं पुरानी महिलाओं की तुलना में ज्यादा संवेदनशील और क्षमतावान नजर आती हैं। वुल्फ ने स्त्री के सहजजात गुणों की बजाय स्त्री लेखन को स्त्री के विकास का आधार बनाया है। स्त्री के सहजजात गुणों के आधार ही पुरूष उसे अपने से हेय मानता रहा है। 'वूमेन एंड फिक्शन' और 'अपना कमरा' इन दोनों कृतियों में स्त्री के भविष्य की ओर संकेत है। यह ऐसी औरत है जिसकी अपनी आमदनी होगी।अपना कमरा होगा।यही उसकी कला का ठोस आधार होगा।ये दोनों रचनाएं भौतिकवादी और विकासवादी है। स्त्री और पुरूष दोनों किस्म के लेखन में संरक्षक का बड़ा महत्व है। वुल्फ ने संरक्षक के सवाल पर विचार करते हुए लिखा है कि आम तौर पर स्त्री पुरूष दोनों ही अव्यावहारिक सलाह के आधार पर लिखते हैं। सलाह देने वाले यह सोचते ही नहीं हैं कि उनके दिमाग में क्या है।लेखक चाहे या न चाहे वे अपनी सलाह दे देते हैं। लेखक को अपना आश्रयदाता,संरक्षक,सलाहकार सावधानी के साथ चुनना चाहिए।लेखक को लिखना होता है जिसे अन्य कोई पढ़ता है। आश्रयदाता आपको सिर्फ पैसा ही नहीं देता बल्कि यह भी बताता है कि क्या लिखो,इसकी प्रच्छन्न रूप में सलाह या प्रेरणा भी देता है। अत: आश्रयदाता या संरक्षक ऐसा व्यक्ति हो जिसे आप पसंद करते हों।लोग जिसे पसंद करें।यह पसंदीदा व्यक्ति कौन होगा , कैसा होगा , प्रत्येक काल में पसंदीदा व्यक्ति की अवधारणा बदलती रही है। मध्यकाल से लेकर आधुनिक काल तक लेखक के आश्रयदाता और पसंदीदा व्यक्ति का विवेचन करने के बाद वुल्फ ने लिखा है प्रत्येक लेखक की अपनी जनता होती है। अपना पाठकवर्ग होता है।यह पाठकवर्ग आज्ञाकारी की तरह अपने लेखक का अनुसरण करता है। उसकी रचनाएं पढ़ता है।लेखक अपनी जनता के प्रति सजग भी रहता है।उससे ज्यादा श्रेष्ठ बने रहने की कोशिश भी करता है।लेखक की अपनी जनता में जनप्रियता अपने लेखन के कारण होती है। क्योंकि लेखन ही संप्रेषण है। आधुनिक लेखक का संरक्षक उसका पाठकवर्ग है,जनता है।आधुनिक काल में पत्रकारिता का लेखक पर दबाव होता है कि वह प्रेस में लिखे,पत्रकारिता पूरी कोशिश करती है कि किताब में लिखना बेकार है,कोई नहीं पढ़ता,अत: प्रेस में लिखो। वुल्फ ने लिखा है इस धारणा को चुनौती दी जानी चाहिए। किताब को हर हालत में जिन्दा रखा जाना चाहिए।किताब को पत्रकारिता के सामने जिन्दा रखने के लिए जरूरी है कि उसकी गुणवत्ता पर ध्यान दिया जाए।हमें ऐसे संरक्षक की खोज करनी चाहिए जो पढ़ने वालों तक पुस्तक ले जा सके। हमें किताब के साथ खेलने वालों की नहीं पढ़ने वालों की जरूरत है।ऐसा साहित्य लिखा जाए जो अन्य युग के साहित्य को निर्देशित कर सके,अन्य जाति के लोगों को आदेश दे सके। लेखक को अपने संरक्षक का चुनाव करना चाहिए,यह उसके लिए बेहद महत्वपूर्ण है।सवाल यह है कि उसे कैसे चुना जाए , कैसे अच्छा लिखा जाए , वुल्फ ने सवाल उठाया है कि हमारे साहित्य में स्त्री का चेहरा तो आता है।किन्तु उसकी इच्छाएं नहीं आतीं।उसके भाव नहीं आते। उसके प्रति सबके मन में सहानुभूति है,वह सब जगह दिखाई भी देती है। किन्तु उसकी इच्छाएं कहीं भी नजर नहीं आतीं। वुल्फ कहती है पुस्तक कैसे पढ़ें इसके बारे में कोई भी निर्देश नहीं दिए जा सकते।प्रत्येक पाठक को जैसे उचित लगे पढ़ना चाहिए। उसे अपने तर्क का इस्तेमाल करना चाहिए और अपने निष्कर्ष निकालने चाहिए।हमें स्वतंत्रता का प्रयोग करना चाहिए। किन्तु कहीं ऐसा न हो कि इसका दुरूपयोग होने लगे। पाठक की शक्ति का सही इस्तेमाल करने के लिए उसके प्रशिक्षण की भी जरूरत है।पुस्तक पढ़ते समय यह ध्यान रखा जाए कि हम कहां से शुरूआत करते हैं , हम पाठ में व्याप्त अव्यवस्था में कैसे व्यवस्था पैदा करते हैं,उसे कैसे एक अनुशासन में बांधकर पढ़ते हैं।जिससे उसमें गंभीरता से आनंद लिया जा सके। पुस्तक पढते समय हमें विधाओं में प्रचलित मान्यताओं का त्याग करके पढ़ना चाहिए।मसलन् लोग मानते हैं कि कहानी सत्य होती है। कविता छद्म होती है। जीवनी में चाटुकारिता होती है, इतिहास में पूर्वाग्रह होते हैं। हमें इस तरह की पूर्व धारणाओं को त्यागकर साहित्य पढ़ना चाहिए। आप अपने लेखक को निर्देश या आदेश न दें। बल्कि उसे खोजने की कोशिश करें।लेखक जैसा बनने की कोशिश करें। उसके सहयात्री बनें।यदि आप पहले से ही किसी लेखक की आलोचना करेंगे तो उसकी कृति का आनंद नहीं ले पाएंगे। यदि खुले दिमाग और व्यापक परिप्रेक्ष्य में कृति को पढ़ने की कोशिश करेंगे तो कृति में निहित श्रेष्ठ अंश को खोज पाएंगे। निबंध विधा के बारे में वुल्फ का मानना था कि निबंध छोटा भी हो सकता है और लंबा भी।गंभीर भी हो सकता है और अगंभीर भी। वह पाठक को आनंद देता है। वह किसी भी विषय पर हो सकता है।निबंध का अंतिम लक्ष्य है पाठक को आनंद देना। निबंध को पानी और शराब की तरह शुध्द होना चाहिए।अपवित्रता का वहां कोई स्थान नहीं है।निबंध में सत्य को एकदम नग्न यथार्थ की तरह आना चाहिए।सत्य ही निबंध को प्रामाणिक बनाता है।उसको सीमित दायरे से बाहर ले जाता है।सघन बनाता है। विक्टोरियन युग में लेखक लंबे निबंध लिखते थे। उस समय पाठक के पास समय था।वह आराम से बैठकर लंबे निबंध पढ़ता था। लंबे समय से निबंध के स्वरूप में बदलाव आता रहा है। इसके बावजूद निबंध जिन्दा है। अपना विकास कर रहा है।वुल्फ का मानना था कि निबंध सबसे सटीक और खतरनाक उपकरण है।इसमें आप भगवान के बारे में लिख सकते हैं।व्यक्ति के जीवन के दुख,सुख के बारे में लिख सकते हैं।निबंध ही था जिसके कारण लेखक का व्यक्तित्व साहित्य में दाखिल हुआ। निबंध शैली का बडा महत्व है। किसी लेखक के बारे में लिख सकते हैं।यह भी सच है कि इतिहास का उदय नि‍बंध से हुआ है

मुक्‍ति‍ का महाख्‍यान और सुकान्‍त

बांग्ला कविता की बात सुकान्त की कविता के बिना नहीं की जा सकती। सुकान्त का जन्म बांग्ला तिथि के हिसाब से तीस श्रावण 1333 को हुआ और मृत्यु उनतीस बैसाख 1354 को हुई। केवल इक्कीस वर्ष की आयु में अपनी रचनात्मक प्रतिभा से संसार को चकित कर उनकी जीवनलीला समाप्त हुई। बंगाल अपने कवियों और सांस्कृतिक विरासत को लेकर हमेशा गौरवान्वित रहा है। एक से बढ़कर एक कवि उसके पास मौजूद हैं। लेकिन सुकान्त भट्टाचार्य एक कार्र्यकत्ता कवि थे। जनता से जुड़ा हुआ, उनके बीच का, उनका अपना कवि। आजादी के ठीक पहले के जनइतिहास, जनचेतना और जनांदोलनों की साक्षी रही उनकी कविता अपने समय का जीवंत दस्तावेज है। वर्तमान से जुड़नेवाला रचनाकार अपने आप इतिहास बनाता है , उसके वर्तमान के सरोकार इतिहास के सरोकार बन जाते हैं। एक समय में ही वह वर्तमान और इतिहास दोनों को बना रहा होता है और भविष्य पर उसकी ऑंखें टिकी होती हैं। इसे समझने का सबसे अच्छा तरीका सुकान्त की कविता को पढ़ना है। आज भी बंगाल में दुर्गापूजा से लेकर किसी भी सांस्कृतिक कार्यक्रम में सुकान्त की कविताओं के रिकार्ड बजाए जाते हैं और उसकी प्रभावकारी क्षमता किसी भी जिंदा इंसान को छुए बिना नहीं रहती। मैंने सुकान्त समग्र 1995 में खरीदा तब मैं बंग्ला टूटी -फूटी जानती थी , लेकिन विभिन्न सांस्कृतिक अवसरों पर सुकान्त की कविताएँ हेमन्त कुमार की प्रभावशाली आवाज में सुनकर इस कवि की रचनाओं को मूल बंग्ला में पढ़ने की ललक ने मुझे अपने हाथ खर्च में से पैसे बचाकर सुकान्त समग्र और और सुकान्त से संबंधित संस्मरणों की एक पुस्तक खरीदने पर बाध्य किया। तब इच्छानुसार पुस्तक पढ़ी, नोट्स भी लिए पर सुव्यवस्थित ढंग से कहीं लिखा नहीं। यों ही पढ़ने के क्रम में लिए गए नोट्स थे। दोबारा सुकान्त को पढ़ने -गुनने का अवसर 'नया पथ' के लिए लेख लिखने के आग्रह ने मुहैय्या कराया। सुकान्त की कविता जनता के लिए लिखी गई है इसलिए सहज हैं। जनता सहजता से अपने कवि और अपनी कविता को पहचान लेती है, उसे किसी व्याख्या विश्लेषण की आवश्यकता नहीं होती है। लेकिन भद्र समाज के लिए व्याख्या की जरूरत होती है। कविता का पैमाना यदि लोकप्रियता है तो सुकान्त की कविता कविता उनके छोटी सी जीवनावधि में ही लोकप्रिय और समादृत हो चुकी थी। सुकान्त ने कैसा जीवन जिया , किन आदर्शों के लिए जान दी, क्या सपना था मुक्ति का यह आज के खाते-पीते मध्यवर्ग के युवाओं को नहीं मालूम। इन्होंने स्वतंत्र भारत देखा है, भारत की उपलब्ध्यिों और सुविधाओं का भोग किया है। पर सुकान्त जैसे भी युवा भारत के सपूत रहे हैं जो स्वतंत्र भारत के लिए लड़े, जनता की मुक्ति के लिए लड़े, विश्व में जहा¡ भी जनमुक्ति की लड़ाई चल रही थी, उसे अपनी लड़ाई समझकर जनता के साथ खड़े हुए। जो स्वतंत्र भारत को अपनी आँखों से देखने के लिए जिंदा नहीं रहे। आजादी के कुछ महीने पहले 13 मई 1947 को सुकान्त की टी बी से मृत्यु हुई। इसके अलावा उनकी बीमारी का बड़ा कारण गरीबी, उपेक्षा तथा रहने की अस्वास्थ्यकर जगह थी। कलकत्तो के जिस इलाके में रहते थे वहा¡ मच्छरों का इतना प्रकोप था कि कमजोर शारीरिक प्रतिरोधक क्षमता वाले सुकान्त बार बार मलेरिया के शिकार होते थे। तब भी कम्युनिस्ट पार्टी के तमाम तरह के जनजागरूकता के कामों में किशोरावस्था में ही खूब सक्रिय रूप में जुड़ चुके थे। टी बी के अनेक कारणों में से अस्वास्थ्यकर परिवेश, तनाव, काम का दबाव भी है यह आज चिकित्साशास्त्र में स्वीकृत तथ्य है। सुकान्त को आज के समय में फिर से पढ़ने की जरूरत इस कारण भी है कि आज परिस्थितियाँ एक बार फिर से वैसी ही चुनौती भरी हैं जैसी सुकान्त के समय में थीं। बल्कि प्रच्छन्न दुश्मन के कारण और भी जटिल हो गईं हैं। जिस समय सुकान्त लिख रहे थे तब आर्थिक मंदी का भयावह दौर था जिसका कारण भारत में नहीं भारत के बाहर था पर परिणाम भारत की जनता को भोगना पड़ा। आज जिस आर्थिक मंदी का हल्ला है यह भारत की आर्थिक नीतियों के कारण नहीं अमेरिका की खुले बाजार की नीतियों के कारण है, लेकिन इसकी ऑंच भारत को भी प्रभावित कर रही है। ऐसे में सुकान्त को पढ़ना और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। इस आर्थिक मंदी का असर पूँजीपति के मुनाफे पर हुआ है , सट्ठाबाजार में लगी उसकी पूँजी पर हुआ है। इसकी आड़ लेकर वह रोज अपने यहा¡ काम करनेवालों की तनख्वाहें कम कर रहा है। अमेरिका के राष्ट्रपति से लेकर भारत की सरकार तक उनके लिए राहत पैकेज की घोषणाए¡ किए जा रही है। कोई यह नहीं कह रहा कि वे अपने यहा¡ काम करनेवालों की छटनी न करें, उनकी तनख्वाहें कम न करें। पहले ही कॉन्ट्रैक्ट पर काम करनेवाला श्रमिक या आजकल की भाषा में ' एग्जेक्यूटिव ' किसी भी तरह की सुरक्षा का हकदार नहीं रह गया है। ऐसे में श्रमिकों के कवि सुकान्त को पढ़ना जरूरी हो जाता है। सुकान्त का जन्म बंगाल के निम्नमध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। सुकान्त के पिता का नाम निवारणचन्द्र भट्टाचार्य था। सुकान्त का जन्म अपने नानीघर 42, महिम हालदार स्ट्रीट में बांग्ला वर्ष के अनुसार 30 श्रावण 1333 (1926 ई½ को हुआ। सुकान्त के पिता बहुत ज्यादा शिक्षित व्यक्ति नहीं थे। यजमानी और पुरोहिताई की शिक्षा उनकी हुई थी। यही उनका व्यवसाय था। वे धार्मिक प्रकृति के व्यक्ति थे। संगीत और नाटक में उनकी रूचि थी। तीस वर्ष की आयु में पहली पत्नी की मृत्यु के बाद उन्होंने महिमचन्द्र हालदार स्ट्रीट के निवासी सतीशचन्द्र भट्टाचार्य की कन्या सुनीति देवी से विवाह किया। सुनीति देवी का पढ़ने लिखने को लेकर विशेष उत्साह था। बंगाली मध्यवर्गीय स्त्रियों की तरह उन्हें रामायण , महाभारत और कहानी, उपन्यास पढ़ने का शौक था। वे व्यक्तित्वसंपन्न और कड़े स्वभाव की महिला थीं। सुकान्त के ताऊ पण्डित कृष्णचन्द्र स्मृतितीर्थ पढ़े लिखे शास्त्रज्ञ व्यक्ति थे। उन्हीं के प्रयास से निवारणचन्द्र कलकत्ता आए और पुस्तक प्रकाशन के व्यवसाय में सहयोग दिया। शैशवकाल में सुकान्त अपने पिता और ताऊ के साथ बेलेघाटा के हरिमोहन घोष लेन में रहते थे। उनके पास एक टोल और एक पुस्तक की दुकान थी। सुकान्त के पिता के पास पुस्तक के दुकान की जिम्मेदारी थी। छ: भाइयों में सुकान्त का स्थान दूसरा था। बचपन में सुकान्त खूब दुर्बल और काले थे। प्राय: अस्वस्थ रहते थे। नन्हा सुकान्त घर भर का लाडला था। उनके चचरे भाई मनमोहन की पत्नी सरयू देवी (जिन्होंने सुकान्त के संबंध में अपने संस्मरण लिखे हैं½ के भी वे बड़े दुलारे थे। सरयू देवी ने लिखा है कि बालक सुकान्त को आरंभिक लिखना-पढ़ना उन्होंने सिखाया था। इस तरह से सुकान्त का बचपन एक संयुक्त परिवार में बीता। इसमें संस्कृत साहित्य और शास्त्रचर्चा के साथ साथ जमाने की नई हवा का भी दखल था। सुकान्त पर जिस दूसरी स्त्री का प्रभाव पड़ा वह रिश्ते की बहन रानी दीदी थीं। रानी दीदी के माध्यम से रवीन्द्र साहित्य से सुकान्त का परिचय हुआ। मूलत: सुकान्त के भीतर कविता का संस्कार पैदा करने में भाभी सरयू देवी और दीदी रानी का योगदान था। इन दोनों महिलाओं के सानिध्य ने सुकान्त के भीतर संवेदनशीलता का बिरवा रोपा। बंगाल के एक निम्नमध्यवित्त परिवार में जन्मे सुकान्त का रवैय्या औपचारिक शिक्षा को लेकर बहुत उत्साहजनक नहीं था। स्कूल की पढ़ाई और स्कूल जाना उन्हें अच्छा नहीं लगता था। पर घर के भीतर ही साहित्य और देश-दुनिया की समस्याओं पर गंभीर चर्चा ने सुकान्त के भीतर देश के लिए कुछ कर गुजरने और साम्रज्यवाद से लड़ने की भावना पैदा की। दूर के रिश्ते में काका सरोज भट्टाचार्य और ताऊ के लड़के गोपालचन्द्र और राखालचन्द्र के जरिए आधुनिकता की नई हवा घर में प्रवेश कर रही थी। बांग्ला साहित्य का यह प्रगतिवादी दौर था। ऐसी प्रगतिशीलता जो सब कुछ को तहस नहस कर देना चाहती थी। ऐसे ही महोल में सुकान्त का बचपन बीता। कुछ बड़े होने पर मुहल्ले के शिक्षक अहीनबाबू ने सुकान्त और उनके छोटे भाई को पास के ही कमला विद्यामंदिर में भर्ती करा दिया। एक छात्र के रूप में सुकान्त प्रतिभाशाली थे। लगनशील और तेज। शर्मीले और अल्पभाषी सुकान्त के बुध्दीदीप्त चेहरे पर नजर ठहर जाती थी। बांग्ला भाषा पर लिखने और बोलने में दक्षता के कारण स्कूल में उनकी ख्याति थी। अपनी उम्र की तुलना में अध्ययन कहीं ज्यादा था। छोटी अवस्था में ही सुकान्त ने 'संचय' नाम की एक हस्तलिखित पत्रिका निकाली। 'ध्रुव' नामक नाटक में सुकान्त ने ध्रुव की भूमिका निभाई थी। लेकिन स्कूल के कायदे कानून और शिक्षकों के अनुशासन के कारण स्कूली शिक्षा के प्रति एक वितृष्णा का भाव भी सुकान्त के मन में था। स्कूल जाने को लेकर केई उत्साह सुकान्त के मन में नहीं रहा। जाहिर है अभिभावकों को इससे निराशा होती थी। सुकान्त के जीवन में सबसे गहरा आघात इसी बाल्यावस्था में लगा। मात्र छ: सात वर्ष की उम्र में रानी दीदी की मुत्यु का दुख झेलना पड़ा। सुकान्त भावनात्मक तौर पर रानी दीदी से बहुत गहरे जुड़े हुए थे। संयुक्त पारिवार के जीवन पर भी इसका असर पड़ा। सुकान्त के ताऊ उत्तरपाड़ा रहने चले गए और सुकान्त के पिता अपने परिवार के साथ कॉलेज स्ट्रीट में एक भाड़े के घर में रहने चले आए। छ: महीने बाद सब एक साथ बेलेघाटा के घर में रहने चले आए पर इसके बाद भी परिवार में पहले की वह स्थिति नहीं लौटी। सुकान्त में काव्य प्रतिभा थी। इसकी झलक बालक सुकान्त की जसीडीह की यात्रा के दौरान लिखी यह कविता में मिलती है। सुकान्त के चचेरे भाई मनोज भट्टाचार्य ने सुकान्त की कॉपी में लिखी इस कविता को नोटिस किया- रमा रानी दो बहनें , परियों जैसी, सब कहें दोनों लड़कियाँ लक्ष्मी कैसी दो बहनें रमा रानी- सभी करते हैं चर्चा दो बहनें बड़ी अच्छीं उजागर करेंगी कुल को सीता जैसी। इसमें रमा है मनोज बाबू की ममेरी बहन और रानी सुकान्त की दीदी जो चार वर्ष पहले मर गई थीं। संथाल परगना घूमने गए सुकान्त ने वहाँ के प्राकृतिक परिदृश्य का जैसा सुन्दर चित्रण किया है वह उनकी अद्भुत वर्णन शक्ति का परिचायक है। यह गद्यात्मक वर्णन सुकान्त की भाषा पर पकड़, सुन्दर शब्दचयन आदि को दर्शाता है। निश्चय ही यह बालक सुकान्त की परिपक्व अभिव्यक्ति है। रानी दीदी की मृत्यु के कुछ वर्ष बाद सुकान्त के जीवन में एक और मुश्किल घड़ी आई। सुकान्त की माता बहुत ज्यादा अस्वस्थ हो गईं। उन्हें कैंसर हो गया था। और 1931 ई में उनकी मृत्यु हुई। बहुत कम समय में ही सुकान्त से माँ और बहन की छाया छिन गई। इसके एक वर्ष बाद ही चचेरे भाई गोपाल भट्टाचार्य की मृत्यु हुई। कहने का मतलब कि सुकान्त के बचपन पर मृत्यु और अवसाद की छायाएँ थीं। अंतर्मुखी स्वभाव के सुकान्त के मन पर इन घटनाओं का गहरा प्रभाव पड़ा। सुकान्त ने कविता, कहानी को अपने अकेलेपन का साथी बना लिया। उनकी किशोर कविताओं में मृत्यु का अवसन्न प्रभाव देखा जा सकता है। प्राथमिक विद्यालय की पढ़ाई पूरी करके सातवीं कक्षा के छात्र के रूप में सुकान्त बेलेघाटा के देशबन्धु हाईस्कूल में भर्ती हुए। वहीं अरूणाचल बसु से मित्रता हुई जो अंत तक बनी रही। अरूणाचल बसु साहित्य प्रेमी थे। शिक्षक के रूप में नवद्वीप देवनाथ से निरंतर सुकान्त को प्रोत्साहन मिलता था। नवद्वीप देवनाथ के प्रोत्साहन और अरूणाचल बसु के सहयोग से कक्षा के छात्रों के द्वारा लिखित पत्रिका ' सप्तमिका ' का संपादन सुकान्त ने किया। इस पत्रिका के सबंध में जो बैठकें सुकान्त के घर पर हुआ करती थीं उसमें अनेक साहित्यिक मित्र भाग लिया करते थे। इन सबके प्रयास से पत्रिका नई सज-धज के साथ मुद्रित होकर प्रकाशित हुई। सुकान्त के अंतर्मुखी मन को जैसे अभिव्यक्ति का रास्ता मिल गया। इसी पत्रिका में सुकान्त ने बांग्ला साहित्य में विधा के रूप में समादृत 'छड़ा' (बाल कविता½ लिखा , शीर्षक था 'सुचिकित्सा'। इसमें प्रच्छन्न रूप से भारत की प्राचीन चिकित्सा व्यवस्था के साथ आधुनिक अंग्रेजी चिकित्सा पध्दति की तुलना करते हुए इसकी यांत्रिक पध्दति का उपहास किया गया है- कलकत्ता गए बैद्यनाथ , सर्दी हुई भारी हाँच्छी हाँच्छी करते जुलाब लिया सूँघी नसवारी डाक्टर बोला, ये क्या, बहुत कठिन बहूरानी, राम राम ! ये सब क्या सुचिकित्सा है ? मेरे पास आओ 'एक्सर'े करूँ देखूँ रोग है कितना बड़ा , असल-नकल जाचूँ। थर्मामीटर मुँह में रखकर सीधे लेटो आईसबैग माथे पर एक दिन तो रखो पहले 'इंजेक्शन' दूँगा फिर 'ऑक्सिजन' रोग भगाने का करता हूँ मैं आयोजन। गाँव के भोले बैद्यनाथ को आश्चर्य हुआ भारी सर्दी होने पर इतना कुछ ? धन्य डॉक्टरी!! सुकान्त की काव्य और लेखन प्रतिभा जब प्रस्फुटित हो रही थी वह सन् चालीस का जमाना था। विश्व और भारत के स्तर पर यह बहुत ही हलचल और आंदोलन भरा समय था। इस समय सबके एकजुट होने की जरूरत थी। किसी भी किस्म का विघटनकारी मुद्दा आंदोलन की ताकत को कम कर सकता था। सुकान्त की काव्यप्रतिभा सब पर उजागर हो चुकी थी। सुकान्त का स्वभाव से ही विद्रोही मन इन आंदोलनों का असर ग्रहण कर चुका था। जरूरत सही दिशा में निकास की थी। यह काम देशबन्धु हाई स्कूल के मित्र अरूणाचल बसु के संसर्ग से पूरा हुआ। अरूणाचल बसु सुकान्त के आंतरिक मित्र साबित हुए। सुकान्त के साथ उनका पत्र व्यवहार अंतिम समय तक बना रहा। उन्होंने सुकान्त को यह बोध कराया कि कविता केवल आत्मविनोदन का साधन नहीं है बल्कि कविता से जनांदोलन का उपकरण बनाया जा सकता है। शर्मीले सुकान्त के अंतर्मुखी व्यक्तित्व को एक बड़े हेतु से जोड़ देने का श्रेय अरूणाचल बसु को है। इससे कौन अपरिचित है कि कवि जीवन में इस तरह के आत्मीय मित्र की क्या अहमियत होती है। मुक्तिबोध आजीवन इसी आत्मा के मित्र की खोज करते रहे ! अरूणाचल बसु अपनी माँ सरला बसु के साथ बेलेघाटा के एक लड़कियों के स्कूल के कम्पाउण्ड में रहा करते थे। सरला देवी स्वयं भी एक लेखिका थीं। इस कारण भी वे सुकान्त की कवि प्रतिभा का सम्मान करती थीं। मातृहीन सुकान्त को वे माँ की तरह स्नेह करती थीं। सुकान्त अक्सर शाम को अरूणाचल बसु के घर चले जाते और उनके माता-पिता से गप्प करते। अरूण्ााचल, उनकी माँ और पिता और सुकान्त के बीच अक्सर साहित्यिक गप्पबाजियाँ हुआ करतीं। तीस के दशक में बहुत तेजी के साथ फासीवादी गतिविधियाँ बढ़ गईं थीं। इटली, जर्मनी और जापान तेजी के साथ सारी दुनिया को एक भयानक युध्द की तरफ ठेलने की दिशा में बढ़ रहे थे। युध्द रोकने के लिए अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस के साथ समझौता करने के रूस के सारे प्रयास व्यर्थ साबित हो गए थे। लेखक और बुध्दिजीवियों में काफी हलचल थी। युध्द और फासीवाद के खिलाफ उनमें भी लामबंदी बढ़ रह थी। सन् 1939 में द्वितीय विश्वयुध्द का आरंभ हो गया। ऑस्ट्रिया , चेकोस्लोवाकिया पर अधिकार के बाद हिटलर ने 1 सितंबर 1939 को पोलैण्ड पर आक्रमण कर दिया फिर उसने ब्रिटेन और फ्रांस के विरूध्द युध्द की घोषणा कर दी। हिटलर तब अबाधित गति से एक के बाद एक देश जीतता जा रहा था। फ्रांस का पतन हुआ। सन् 1940 में जर्मनी ,इटली और जापान के बीच उपनिवेशों के बँटवारे के लिए एक समझौता हुआ। सन् 1941 की मई तक प्राय: सभी यूरोपीय देश हिटलर के अधीन हो चुके थे। अंत में 22 जून 1941 को हिटलर ने सोवियत रूस पर हमला किया। युध्द का एक नया अध्याय आरंभ हुआ। 22 जून की सुबह जर्मनी ने रूसी- जर्मन अनाक्रमण संधि भंग करके हिटलर की जर्मन सेना ने बिना किसी युध्द की घोषणा के बाल्टिक सागर से काले सागर तक सभी जगहों से सोवियत रूस पर आक्रमण किया। जर्मन सरकार ने बाद में घोषणा की कि सोवियत बोल्शेविकवाद समस्त यूरोप के लिए सामरिक कारणों से खतरा है। असल में समाजवादी रूस विश्वसाम्राज्यवाद के लिए सबसे बड़ी चुनौती था। विशेषकर जर्मनी, इटली और जापान के साम्राज्यवादी विजय अभियान के लिए रूस सबसे बड़ी बाधा था। हिटलर चाहता था सारी दुनिया के गरीबों, मजलूमों , वंचितों और शोषितों के लिए साोवियत रूस ने जो आशा जगाई है उसे नष्ट कर दिया जाए। विश्व के मानचित्र पर फासीवाद के खिलाफ खड़ी एक सशक्त व्यवस्था को नष्ट कर दिया जाए। इस कारण स्टालिन ने लिखा था फासिस्ट जर्मन के विरूध्द यह युध्द कोई साधारण युध्द नहीं है, यह दो सेनाओं के बीच युध्द नहीं है, यह जर्मनी फासीवाद के विरूध्द रूस की समस्त जनता का महान युध्द है। जनता और स्वदेशप्रेमियों के इस युध्द का लक्ष्य केवल अपने देश की सुरक्षा नहीं है बल्कि जर्मन फासीवाद की पराधीनता में बंधी हुई समस्त यूरोपीय जनगण को मुक्त करना इस युध्द का लक्ष्य है। इस युध्द को ठीक ही 'जनयुध्द' (पीपुल्स वार) कहा गया। सन् 1941 में ही जापान ने एशियाई भूखण्ड पर भी आक्रमण किया। ब्रिटिश उपनिवेश सिंगापुर पर उसने आक्रमण किया। सिंगापुर , मलेशिया, बर्मा पर अधिकार करते हुए वह भारतवर्ष की तरफ बढ़ा। ब्रिटेन ने जर्मनी के विरूध्द युध्द की घोषणा कर दी। इसके साथ ही भारतरक्षा आर्डिनेंस पास करके सभा , समिति के आयोजनों पर रोक लगा दी। यह एक दमनकारी कानून था। सितंबर में राष्ट्रीय कांग्रेस ने घोषणा की कि इस युध्द से उसका कोई सरोकार नहीं है। राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारतीयों के लिए स्वशासन के अधिकार की मांग की। मजदूरों में भी युध्द विरोधी आंदोलन शुरू हुआ। ब्रिटिश सरकार के कोरे दावों का किसी ने विश्वास नहीं किया। 2 अक्टूबर को बंबई में 90 हजार मजदूरों ने युध्द के विरूध्द हड़ताल की। युध्द के कारण चीजों के दाम तेजी से बढे। महँगाई भत्तो की माँग के साथ बंबई, कानपुर, असम, धनबाद और बांग्लादेश में मार्च 1940 ई में हड़ताल हुई। सन् 1938 में कम्युनिस्ट पार्टी को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया। लेकिन माक्र्सवाद का विचारधारात्मक तौर पर ट्रेड यूनियन और छात्र आंदोलन के रूप में इसका प्रभाव बढ़ता जा रहा था। स्वराज के दावों को न मानने के कारण सारे देश में कांग्रेसी मंत्रियों ने इस्तीफा दक दिया। अक्टूबर 1940 में गाँधीजी ने व्यक्तिगत रूप से कानून की अवहेलना शुरू की। अंग्रेज सरकार की क्रूर दमननीतियाँ भी भारत में चल रहे आंदोलनों को कमजोर नहीं कर सकीं। मई 1941 में अंग्रेज सरकार ने सारे भारत में 20 हजार कार्यकत्तर्ााओं और नेताओं को गिरफ्तार किया। द्वितीय विश्वयुध्द में निर्णायक मोड़ था सोवियत रूस के खिलाफ हिटलर के युध्द की घोषणा। जवाहरलाल नेहरू ने दिसम्बर 1941 ई में घोषणा की विश्व की तमाम प्रगतिशील ताकतें अब उस समूह के साथ हैं जिसका प्रतिनिधित्व रूस, ब्रिटेन, अमेरिका और चीन करते हैं। भारत में कम्युनिस्ट पार्टी को लगभग चार सालों के लिए ( 1938 से 1942 तक ) गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था। लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी ने पुरजोर ढंग से फासीवाद विरोधी गतिविधियों को चलाए रखा। इस युध्द को 'जनयुध्द' का नाम देते हुए कम्युनिस्ट पार्टी ने जनरक्षा समितियों का गठन करके मोहल्लों में जनजागरण अभियान चलाना आरंभ किया। छोटे-छोटे दलों का गठन किया। इसी समय बांग्ला भाषा में 'जनयुध्द' समाचारपत्र का निकलना शुरू हुआ इसने फासीवाद के विरोध में जनमत तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस समय इन गतिविधियों और जनता के साथ जुड़ाव के कारण कम्युनिस्ट पार्टी की लोकप्रियता में इजाफा हुआ। इस दौरान कलकत्ताा शहर की हालत काफी खराब थी। हर तरफ भय और आतंक का वातावरण था। बमबारी के भय से लोग शहर छोड़कर भाग रहे थे। जापानी विमानों की कलकत्तो के आसमान में निरंतर उपस्थिति दिखाई पड़ रही थी। रात को शहर भर की बत्तिायाँ बुझा दी जाती थीं। इस निस्तब्धता को केवल सेना की गाड़ियाँ और सैनिकों के बूटों के स्वर तोड़ते थे। सुकान्त की कविता और गद्य में जिस भय और आतंक की मौजूदगी दिखाई देती है वह उनका अपना देखा-भोगा सत्य है। कल्पना या फंतासी नहीं। हिन्दी में इस तरह के आतंककारी माहौल और संशयात्मक स्थिति का जिक्र मुक्तिबोध के यहाँ मिलता है। निश्चित तौर पर मुक्तिबोध बड़े माप के कवि हैं लेकिन कविता की संरचना में भय और आतंक की स्थितियाँ बुनी हुई लगती हैं। उन्होंने प्रभावोत्पादकता के लिए कल्पना और फंतासी का प्रयोग किया गया है। फंतासी के जरिए मुक्तिबोध सचेत ढंग से सामयिक स्थितियों और वास्तविकता के साथ उसका संबंध जोड़ते हैं। यह वास्तविकता बहुत कटु, विडम्बनापूर्ण और अवसादमूलक है जो मोहभंग करती है। तमाम जनतांत्रिक उपलब्ध्यिों और खूबियों पर वास्तविकता भारी पड़ती है। अधूरी आजादी की तस्वीर पेश करती है। लेकिन सुकान्त के यहाँ भय की स्थितियाँ लड़ने के लिए उत्प्रेरित करती हैं। एक रूमानी आह्वान है। दुश्मन द्वार पर है और अपने घर की रक्षा करनी है, इसलिए इसमें कहीं अवसाद नहीं है। कुछ नया कर गुजरने का जोश है। इस समय कांग्रेस के भीतर भी वामपंथी विचारधारा का दबदबा बढ़ रहा था। गाँधीजी की इच्छा के विरूध्द सुभाषचन्द्र बोस त्रिपुरी कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। लेकिन दक्षिणपंथियों के दबाव के चलते उन्हें पद छोड़ना पड़ा। सुभाषचन्द्र बोस ने फारवर्ड ब्लाक का गठन किया। नजरबंदी के दौर में अंग्रेज पुलिस को चकमा देकर देश छोड़कर जर्मनी चले गए। वहाँ से जापान पहुँचे और आजाद हिन्द फौज की स्थापना की। इस समय जगह जगह लेखक बुध्दिजीवियों के ऊपर हमले हो रहे थे। फासीवाद समर्थकों द्वारा फासीवाद विरोधी लेखक और बुध्दिजीवियों के खिलाफ लामबंदी तेज हो गई थी। 8 मार्च 1942 को ढाका में एक फासीवाद विरोधी सम्मेलन का आयोजन हुआ। बांग्ला के प्रतिष्ठित लेखक और बुध्दिजीवी उसमें आमंत्रित थे। इस सम्मेलन में एक जुलूस का प्रतिनिधित्व कर रहे थे मजदूर नेता और नवोदित साहित्यिक सोमेन चन्दा। फासीवाद के समर्थकों ने रास्ते में उनकी निष्ठुरतापूर्वक हत्या कर डाली। इसी दिन जापानियों ने रंगून पर कब्जा किया। इस घटना का तीव्र प्रतिवाद लेखक बुध्दिजीवियों ने किया। कलकत्ताा के यूनिवर्सिटी इन्स्टीटयूट हॉल में 28 मार्च को रामानन्द चट्टोपाध्याय की अध्यक्षता में फासीवाद विरोधी लेखकों का एक बड़ा सम्मेलन हुआ। इसमें अनेक गैर कम्युनिस्ट लेखकों ने भी भाषण दिए। इसी सम्मेलन में ' फासीवाद विरोधी लेखक संघ' का जन्म हुआ। इस उत्तोजनापूर्ण राजनीतिक-साहित्यिक माहौल में सुकान्त राजनीति के संपर्क में आए। वे बहुत निकट से कलकत्ताा के वातावरण को देख रहे थे। शहर छोड़कर नागरिकों का पलायन और शहर का निर्जन होते जाना सुकान्त की आँखों के सामने था। कलकत्ताा में शाम के बाद से ही सन्नाटा छा जाता था। एक तरफ द्वितीय महायुध्द का भय और आतंक दूसरी तरफ गली मोहल्लों में तेज होती राजनीतिक गतिविधियाँ। सुकान्त ने अपने मोहल्ले में समिति बनाई। अनेक स्वयंसेवी कार्यों में उत्साह के साथ भागीदारी की। मोहल्ले में सुभाषचन्द्र बोस के आगमन के समय जनहित के कामों के लिए जो समिति बनी उसमें सुकान्त ने खराब स्वास्थ्य के बावजूद बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। राजनीति के प्रति सुकान्त की रूचि इसके बाद बढ़ती ही गई। रेडियो सुनना , अखबार पढ़ना रोज की दिनचर्या में शामिल हो गया। सन् 1942 ई में कलकत्ताा पर बमबारी हुई। सुकान्त रिलीफ के कामों में लग गए। इसके लिए बड़े भाई की फटकार भी सुननी पड़ी। सन् 1942 में कांग्रेस ने 'भारत छोड़ो का नारा दिया। कलकत्ताा की राजनीति में अति परिचित पोस्टरबाजी के रूप में कविता लेखन की शैली में सुकान्त ने दिवाल पर कविता लिखी : हर दीवार पर लिख रहा हूँ मन के विचार मैं एक बेरोजगार हूँ, मुझे यह आजादी है । सुकान्त की कविता की एक दिशा है विद्रोह दूसरा है प्रेम। सुकान्त के विद्रोह को प्रेम से अलग करके नही पढ़ा जा सकता। छोटी अवधि के लिए ही सही सुकान्त ने अपने जीवन में प्रेम का अनुभव किया था। प्रेम के रोमांच और व्यथा का उल्लेख मित्र को लिखे एक पत्र में किया है। यह किशोरावस्था का रोमान्टिक प्रेम था। सुकान्त ने लिखा किया-आज प्रतीत होता है/बसंत मेरे जीवन में भी आया था। (अवैध) बमबारी के भय से शहर छोड़कर जानेवालों में सुकान्त की यह प्रेमिका भी थी। इस प्रक्रिया में सुकान्त का यह प्रेम हजारों वंचितों के प्रेम में बदल गया। देश और दुनिया के इस हलचल भरे राजनीतिक माहौल में परिदृश्य तेजी से बदल रहा था। गाँधीजी ने कांग्रेस का नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया। उन्होंने घोषणा की जापान को अहिंसात्मक तरीके से रोकना होगा, ब्रिटिश सरकार से असहयोग करना होगा, फासीवाद के विरोध में मित्र राष्ट्रों के लिए नैतिक समर्थन है और भारतवर्ष को किसी भी तरह से इस युध्द में नहीं घसीटा न जाए। कांग्रेस ने 8 अगस्त 1942 को 'भारत छोड़ो' आंदोलन की शुरूआत की। गाँधीजी ने नारा दिया ' करेंगे या मरेंगे '। जगह जगह कांग्रेस के नेताओं को गिरफ्तार करके जेलों में बंद कर दिया गया। जनता ने आंदोलन की बागडोर अपने हाथों में ले ली। थानों, रेलवे स्टेशनों, डाकघरों में आग लगा दी गई। रेल की पटरियाँ उखाड़ फेंकी गईं, यातायात व्यवस्था को ठप्प कर दिया गया, सारे भारत में जगह जगह जनअसंतोष फूट पड़ा। अंग्रेज सरकार का भयावह दमनचक्र बदस्तूर जारी था। कांग्रेस से बिल्कुल भिन्न नीति मुस्लिम लीग की थी। सांप्रदायिक राजनीति के बीज पड़ चुके थे। सुकान्त राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेना आरंभ कर चुके थे। वामपंथी राजनीति में उनकी भागीदारी बढ़ती जा रही थी। तेरह चौदह वर्ष की आयु में ही अपनी कविताओं के कारण सुकान्त की ख्याति हो गई थी। उनका परिचय बांग्ला के बड़े बड़े कवियों रचनाकारों से हो रहा था। अल्पायु में परिपक्व भाव की कविताए¡ सबको चकित कर देनेवाली थीं। सुभाष मुखोपाध्याय से सुकान्त का परिचय अन्य साहित्यिकों से परिचय का आधार बना। देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय, बुध्ददेव बसु और बांग्ला के अन्य साहित्यिकों से सुकान्त का परिचय हुआ। इस समय तक सुकान्त 'वैशम्पायन', कोन बन्धुर प्रति आदि कविताएँ लिख चुके थे। जो बाद में 'पूर्वाभास' , 'घूम नेई' आदि संकलनों में शामिल हुईं। सुकान्त समग्र में सुकान्त के निम्नलिखित काव्य संकलन शामिल हैं- 'छाड़पत्र', 'घूम नेई', 'पूर्वाभास', 'गीतिगुच्छ', 'मीठेकॅड़ा' और 'अभियान'। इसके अलावा 'हड़ताल' नाटिका, 'अप्रचलित रचना' और पत्रों के संकलन हैं। पढ़ने लिखने में अभिरूचि न होने के कारण परिवारीजन सुकान्त को लेकर असंतुष्ट थे। एक कम्युनिस्ट छात्र कार्यकत्तर्ाा के लिए उस समय की नीतियों के अनुसार अच्छा छात्र होना भी जरूरी था। सांस्कृतिक कार्यक्रम तब वामपंथी आंदोलन का अभिन्न हिस्सा हुआ करते थे। माक्र्सवाद के प्रचार के लिए बहस-मुबाहिसे, विमर्श, नकली संसद और दूसरी तरफ गीत, नाटक, कविता पाठ आदि का आयोजन। इनमें उस समय के तमाम बुध्दिजीवी भाग ले रहे थे। सलिल चौधरी, ज्योतिरिन्द्र मैत्र, शम्भु मित्र, सुचित्रा मित्र, सुभाष मुखोपाध्याय आदि थे। सुकान्त की कविताएँ इसमें एक नया मोड़ थीं। 1942 ई में फासीवाद विरोधी लेखक और शिल्पी संघ ने 'एकसूत्र' नाम से एक काव्य संकलन प्रकाशित किया। इसमें तत्कालीन सभी महत्वपूर्ण रचनाकारों की कविताएँ थीं। इस संकलन में 'मध्यवित्ता, 42' नाम से सुकान्त की एक कविता शामिल की गई। कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर सुकान्त की गतिविधियाँ केवल सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भागीदारी तक सीमित नहीं थी। वे एक सक्रिय कार्यकत्तर्ाा थे। पार्टी के जागरूकता अभियानों में सदैव तत्पर रहते थे। घर के पास ही कम्युनिस्ट पार्टी का 'जनरक्षा समिति' के नाम से दफ्तर था। सुकान्त वहाँ जाकर पोस्टर तैयार करने, स्थानीय लोगों से बातचीत और उन्हें जागरूक करने और रात में ब्लैकआउट के घुप्प अंधेरे में पोस्टर लगाने का काम करते। सुशील मुखर्जी के नेतृत्व में गठित इस जनरक्षा समिति का प्रमुख काम था-खाद्य सामग्री के लिए आंदोलन करना, राशन की दुकानों पर लाईन लगवाना ताकि कोई बीच में क्रम भंग करके घुसे नहीं। सुकान्त खाद्य सामग्री के लिए लाईन लगवाने के काम में स्वयंसेवी की भूमिका अदा करते थे। सुकान्त की प्रकृति भावुक और गंभीर थी। निम्नमध्यवित्ता परिवारों में जैसा अमूमन होता है बच्चे प्राय: उपेक्षित रहते हैं। मातृहीन सुकान्त के लिए घर में कोई आकर्षण न था जो बाँध सके। किशोर सुकान्त ने राजनीति के साथ अपने को ज्यादा से ज्यादा जोड़ लिया। राजनीतिक सरोकारों से जुड़कर काव्यप्रतिभा ज्यादा सोद्वेश्य और गंभीर हुई। सन् चालीस बंगाल के संदर्भ में बयालीस का अकाल विशेष मायने रखता है। यह बांग्ला साहित्य में तेरह सौ पचास के मनवन्तर के नाम से जाना जाता है। इसमें धन जन की अत्यधिक हानि हुई। यह सरकारी कुप्रबन्धन के कारण पैदा हुआ अकाल था, इसे रोका जा सकता था। सुकान्त की कविता इस मानवीय त्रासदी की सबसे बड़ी कविता है। सुकान्त युवा कवि हैं। इनमें रोमान्टिसिज्म खूब होता है। सुकान्त के साथ ऐसा नहीं है। यथार्थ की ठोस भूमि पर उनकी कविता पनपी है। युवा सुकान्त ने कम लिखा लेकिन जो लिखा उसका बड़ा हिस्सा उस समय की दो बड़ी मानवीय त्रासदियों - युध्द और अकाल पर है। सुकान्त ने स्वयं को अकाल का कवि कहा। सुकान्त का नाटककार और पत्रकार रूप भी है। 'अभियान' नामक एक नाटक 'जनयुध्द' के लिए लिखा। सुकान्त की लिखी कई कहानियाँ प्रतिष्ठित पत्रिका ' अरणि ' में प्रकाशित हुईं। सुकान्त की जो कविताए¡ और कहानिया¡ आदि छपा करती थीं उनसे सुकान्त को बहुत कम पैसे मिलते थे। अपने अर्थाभाव का उल्लेख अपने मित्र को लिखे एक पत्र में उन्होंने किया है। सघन और अस्वास्थ्यकर वातावरण में रहने के कारण सुकान्त बार बार मलेरिया से ग्रसित होते। 1944 ई में अकाल का प्रकोप कुछ कम हुआ तो किसानों का अपने गाँवों में लौटना आरंभ हुआ। सुकान्त की इस समय की कविताओं में इसकी झलक है। 'फसल की पुकार', ' किसानों का गीत', 'नई फसल' आदि कविताएँ। सुकान्त की इच्छा थी कि वे जनता के कवि बनें। इसके लिए जनता से जुड़ने, उसके सुख दुख की अभिव्यक्ति में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। 1944 ई में ही विश्वयुध्द की समाप्ति हुई। भारत में स्वधीनता आंदोलन तेज हो उठा। 1946 ई में वायु सेना की हड़ताल हुई। इसी वर्ष ऐतिहासिक नौसेना विद्रोह हुआ। 22 फरवरी को बंबई के समस्त मजदूरों ने हड़ताल किया। कलकत्तो में आजाद हिन्द सेना के कैप्टन रशिद अली खान की मुक्ति के लिए मुस्लिम स्टुडेन्ट्स लीग के आह्वान पर छात्रों की हड़ताल हुई। इसमें कलकत्तो की मिलों में काम करनेवाले मजदूर और अन्य संगठन भी शामिल हुए। आंदोलन अत्यंत उग्र हो उठा। कलकत्तो में जगह जगह अंग्रेज सेना के साथ जनता लड़ रही थी। अंग्रेज सरकार को अच्छी तरह समझ में आ गया था कि वह भारत में और नहीं टिक सकती। जनता का आक्रोश दबाए नहीं दब रहा था। अंतत: राजनीतिक चक्र की गति कुछ ऐसी घूमी कि अंग्रेजों का सांप्रदायिक आधार पर दो देशों का फार्मूला भारत के नेताओं को स्वीकार करना पड़ा। जनकवि सुकान्त की कविताओं में इन उथल पुथल भरे दिनों की विद्रोही छवि अंकित है। सुकान्त भट्टाचार्य युध्द और अकाल का सबसे बड़ा कवि है। सुकान्त का सारा आक्रोश और आवेश निरीह जनता को युध्द और अकाल में झोंक देने के कारण साम्राज्यवादी के खिलाफ व्यक्त हुआ। द्वितीय विश्वयुध्द का प्रथम विश्वयुध्द के बाद की आर्थिक मंदी की स्थितियों से गहरा संबंध है। प्रथम विश्वयुध्द के समय माँग बढ़ने के कारण उत्पादन में तेजी आई। चीजों के दाम में वृध्दि और कालाबाजारी से पूँजीपतियों ने खूब मुनाफा कमाया। लेकिन युध्द के बाद माँग में कमी आने के कारण पूँजीपति वर्ग के लिए संकट पैदा हो गया। युध्द के समय में जो हर क्षेत्र में अतिरिक्त माँग दिखाई दे रही थी वह अचानक कम हो गई। मंदी के जो लक्षण आज देखे जा रहे हैं वह प्रथम विश्वयुध्द के बाद पैदा हुए लक्षणों की समरूपता में हैं। आंकड़े बताते हैं कि नौकरियों में कमी, डाक्टरी और कानून के पेशों पर ज्यादा दबाव, जीवनयापन के साधनों का संकुचन और नए रोजगार के अवसर के न पैदा होने के कारण बेकारी में बेतहाशा वृध्दि देखी गई। इस आर्थिक संकट के समय पूँजीवाद ने अपनी प्राणरक्षा के लिए जो उपाय अपनाए उसमें अपने देशों में इजारेदार पूँजीवाद को विशिष्ट क्षेत्रों में विकास के अवसर मुहैय्या कराना, उनके हितों को ध्यान में रखकर बैंक, बीमा और उद्योगों का राष्ट्रीयकरण, भूमिव्यवस्था में फेरबदल आदि हैं। लेकिन इन सबका एक दूसरा पहलू भी है। वह यह कि अपने लिए इन अबाध सुविधाओं को वह तभी हासिल कर पाता है जब वह लोगों के जनतांत्रिक अधिकारों का हनन करे। इसके लिए तमाम कानून लागू करके पूँजीवादी सरकार अधिकार हासिल करती है। मजदूर आंदोलनों के दमन करके और उनके अधिकारों के हनन की कीमत पर यह संभव होता है। आज जिस आर्थिक मंदी का हल्ला है उसमें और किसी तरह के खर्चे में कटौती न करके केवल श्रमिकों की छँटनी की जा रही है , उनके वेतन कम किए जा रहे हैं। प¡wजीपति से कोई नहीं कहता कि कम मुनाफे से काम चलाओ। फासीवादी व्यवस्था केवल शोषण और दमन की परिचित संरचना में ही नहीं आती बल्कि लोकलुभावन नारों और जनता के गैरजरूरी लेकिन समाज में मौजूद अभावों को संबोधित करते हुए आती है। प्रकटत: यह पूँजीवाद विरोधी मालूम होती है पर पूँजीवाद से इसका नाभिनालबध्द संबंध है। यह इजारेदार पूँजीपति वर्ग के घृणिततम राजनीतिक रूप की चरम अभिव्यक्ति है। तथाकथित उच्च नैतिक मूल्यों, प्राचीन संस्कृति, परंपरा और कौलीन्यबोध के स्तर पर यह जनता का विभाजन करती है। प्रथम विश्वयुध्द से लेकर द्वितीय विश्वयुध्द के दशक तक फासीवाद का यह घिनौना चेहरा अपने नग्न रूप में संसार के सामने आ चुका था। साम्राज्वादी उपनिवेश होने के कारण भारत की स्थिति और भी जटिल थी। इतनी बड़ी आबादी और संसाधनवाला यह देश ब्रिटिश साम्राज्यवाद का सबसे महत्वपूर्ण उपनिवेश था। भारतीय उपमहाद्वीप में साम्राज्यवाद के सबसे ज्यादा दाँव लगे हुए थे। बांग्ला साहित्य में रवीन्द्रनाथ , जीवनानन्द दास, नजरूल, बुध्ददेव बसु प्रभृति रचनाकारों की रचनाओं में फासीवाद विरोधी स्वर सुने जा सकते हैं। जनोन्मुखी चेतना के प्रचार प्रसार के लिए साहित्य में लगातार चिंता देखी जा सकती है। इस समय कम्युनिस्ट पार्टी की चिंता थी भारत की स्वतंत्रता, जापान के भारत पर आक्रमण को रोकना, जेलों में बंद कांग्रेसी नेताओं को छुड़ाना, ध्वंसात्मक गतिविधियों से जनता को विमुख करना, कांग्रेस-लीग की एकता के लिए प्रयास करना, राष्ट्रीय स्वाभिमान और राष्ट्रीय मुक्ति हासिल करना। इस मुक्तिसंग्राम में मध्यवित्ता का सुविधाभोगी और दोहरा चरित्र सुकान्त की कविता में अभिव्यक्त हुआ है। मध्यवित्ता' 42 कविता में- पृथ्वी पर फैले संक्रामक रोग से आज सभी पीड़ित हैं पा रहा हू¡ पूर्वाभास उसीका चल रही पुरवैय्या अभी थिर रह सकू¡ , उपाय नहीं फाड़ दिए हैं पाल हिंसक हवाओं ने


रात दिन कटते हैं भय के आगोश में लोभी बाजार रोगी और बेरंग सारे देश में अवतरित मौसमी नेता धरती फाड़कर प्रकट हुए 'देशप्रेमी'।


इधर देश के पूरब में फिर से बमबरसानेवाले खून पी रहे हैं असम ,चटगांव में क्षुब्ध है जनता इस कविता में जापान द्वारा असम और चटगांव में बम बरसाने का जिक्र है। मध्यवर्ग की दोरंगी नीतियों की आलोचना करते हुए लिखा अब जनता के हित से अलग मध्यवर्ग का कोई हित नहीं होना चाहिए। मध्यवर्ग को अपनी क्षुद्र स्वार्थपरता छोड़कर जनता के हित के साथ अपने हित को जोड़ देना चाहिए तभी मुक्ति संभव है। मुक्ति का कोई अन्य पथ नहीं है। उनके हित अपने हित , /आज मन ने एक जाना। (मध्यवित्ता '42) कलकत्ताा के भय और दहशत के माहौल का जिक्र सुकान्त की कविताओं में है। जब महानगर के चहल पहल भरे रास्तों पर शाम से ही सन्नाटा खिंच जाता था, रात को पूरे शहर की बत्तिाया¡ हवाई हमले की आशंका से बुझा दी जाती थीं। इन तमाम एहतियातों के बावजूद फासीवादी हमलावर की बमवर्षा से कलकत्ताा बच नहीं सका। 'सितबंर '46' कविता में फासीवाद के भय और संत्रासजनक स्थिति का उल्लेख है- कलकत्तो में शान्ति नहीं है। खूनी कलंक पुकारता है आधी रात को रोज शाम, मूच्र्छित शहर की धड़कने तेज हो जाती हैं। गाँव-सा सन्नाटा आजकल खिंच जाता है शाम से निर्जन शहर के रास्तों पर स्तबध आलोकस्तंभ भीत उजाला करते हैं। कहा¡ दुकान बाजार कहा¡ वह जनता की भीड़?


ट्राम नहीं, बस नहीं- साहसी पथिकविहीन इस शहर में आतंक फैल रहा है। खाली खाली घर सब मानों कब्र हों मरे हुए लोगों का स्तूप छाती पर रखे चुपचाप भयभीत निर्जन। बीच बीच में शब्द केवल मिलिट्री ट्रकों का गर्जन


कलंकित काले काले रक्त जैसा अंधकार फैलता है तन्द्राहीन शहर पर;


रूध्दश्वास यह शहर छटपटाता है सारी रात- कब सुबह होगी? जीवनदायिनी स्पर्श मिलेगी सुनहले धूप की ? सुकान्त जब युध्द की स्थितियों का चित्रण करते हैं तो उन्हें किसी भूमिका की जरूरत नहीं होती। यह युध्द फासीवादी शक्तियों के साथ लामबंद मुट्ठी भर सुविधाभोगी लोगों के खिलाफ जनतांत्रिक अधिकारों के लिए लड़ रही जनता का युध्द है, कल कारखानों में शोषित मजदूरों का युध्द है। अब और समय नहीं है कि अहिंसा के लंबे रास्ते का अवलंबन किया जा सके। समय हो गया है सीधी लड़ाई का। पुकार हो गई है और देर नहीं की जा सकती। 'मजूरदेर झॅड़' कविता में पूँजी के दलालों और शोषकों के खिलाफ लड़ाई का उद्बोधन है। बहुत से लोगों के हितों के खिलाफ कुछ लोगों को खड़ा करने के पुराने नियम को उलटने का आह्वान है। विकास के लिए जिनकी गति है उनलोगों के खिलाफ इन शोषक साँपों की गति है-सूर्जोलोकेर पथे जादेर जात्रा/तादेर विरूध्दे ताई सापेरा। इन शोषक साँपों को जनतांत्रिक धरना प्रदर्शनों को छिन्न-भिन्न करने , तोड़ने में कोई परेशानी नहीं होती। धरना-प्रदर्शन जो निर्लज्ज भूख का चरम चिह्न हैं। जागरूक जनता को और भूल नहीं करना चाहिए, यही सटीक समय है- लेकिन यही वह समय है सचेतन जनता! अब और भूल न करो- विश्वास करो मत इन साँपों का सघन काले चमड़े से जो स्वयं को ढके रखते हैं संकट के समय जो बुलाते हें अपने से कम चमकीले विषाक्त दासों को। जिन्हें जनप्रदर्शनों को छिन्न भिन्न करने में जरा भी लज्जा नहीं होती वे जनप्रदर्शन जो निर्लज्ज भूख का चरम चिह्न हैं। (मजूरदेर झड़) सुकान्त की कविता में युध्द और अकाल की स्थितिया¡ अलग-अलग चित्रित नहीं हैं। दोनों एक दूसरे की अनुषंगी हैं। युध्द के जो कारक हैं वे ही अकाल के भी जनक हैं। 'डाक' कविता में इसे देखा जा सकता है- चेहरे पर हंसी लिए हुए अहिंसक बुध्द की भूमिका नहीं चाहता। युध्द की पुकार हो गई है गोलियों से छलनी छाती, उध्दत सिर- घूम रहा है हाथों हाथ हिसाब-किताब का खाता, सुनो हुंकार करोड़ों अवरूध्द कंठों की। अकाल को भगाओ, शोषकों को भगाओ- संधिपत्र फाड़ो, पाँवों तले कुचलो। स्वाधीनता संग्राम में सभी दलों का लक्ष्य स्वतंत्रता पाना ही था। अत्याचार और शोषण के खिलाफ लड़ाई लड़ने, एकजुट होने की जरूरत है। कम्युनिस्ट पार्टी के खिलाफ जिस स्तर का दुष्प्रचार हो रहा था उसका माखौल उड़ाते हुए सुकान्त ने लिखा - तुम किस दल के हो? जिज्ञासा उद्वाम: 'गुण्डों' के दल में आज तक लिखवाया नहीं क्या नाम? (डाक½ युध्द के बाद पैदा हुई भूखमरी के लिए दायी शक्तियों को जनता में जबाव देना होगा। युध्द के बाद जनता अपना असल और सूद दोनों चाहती है- लाखों लाख प्राणों के दाम बहुत दिए, उजाड़ ग्राम। इसलिए आज सूद और मूल युध्दोपरांत प्राप्य मेरा, करूँगा वसूल। (बोधन½ सुकान्त ने अपनी कविताओं में प्रश्न केवल शोषकों से ही नहीं किए बल्कि जनता से भी उनके कई सवाल हैं। एक और उल्लेखनीय तथ्य यह है कि यह जिरह किसी भी तरह की मध्यवर्गीय कुण्ठा और ग्लानि के रूप में नहीं की गई है। जनांदोलनों के साथ गहरे जुड़े होने और जनता की शक्ति में विश्वास के कारण निराशा ,कुण्ठा और ग्लानि सुकान्त की कविताओं में नहीं है। दुख और पीड़ा वर्तमान को लेकर है, भविष्य को लेकर नहीं। एकमात्र लक्ष्य है मुक्ति। इसके लिए वे जनता के साथ उसकी लड़ाई में शामिल हैं। सीधे सीधे प्रश्न हैं शोषित और शोषक दोनों पक्षों से। यहा¡ मुक्तिबोध जैसा संकट नहीं है कि प्रश्न जितने बढ़ रहे घट रहे उतने जबाव। यह कवि जनता की तरफ से जनता में खड़े होकर अपने दिए का प्रत्युत्तार चाहता है। सिर्फ सूखा प्रत्युत्तार नहीं बाकायदा बही खाते के साथ हिसाब करना चाहता है कि जितना जनता से शासकवर्ग ने ले लिया उसका असल और सूद कितना बनता है। शासकवर्ग पर जनता का कितने का कर्ज़ है इसका न सिर्फ हिसाब करना है बल्कि चुकता न होने पर बदला भी लेना है। इसलिए इसमें मध्यवर्ग की मुक्तिबोधीय कुण्ठा नहीं है कि 'लिया ज्यादा, दिया बहुत कम'। सुनो मालिको , सुनो कालाबाजारियो! महलों में तुम्हारे जमा हुए कितने नरकंकाल- दोगे हिसाब? प्रिया को मेरी छिन लिया बर्बाद किया घर-बार, यह बात क्या मैं मरते दम तक भूल सकता हूँ\ आदिम हिंस्र मानवता का यदि मुझसे कोई वास्ता है खोया है जिस श्मशान में स्वजनों को वहीं चिता सजाऊ¡ तुम्हारी। सुनो रे जमाखोरों , फसल देनेवाली धरती में इस बार तुम्हें ही गाडूँगा। बहुत दिनों बाद भविष्य के किसी जादूघर में नृतत्वविद् हैवानियत से पोछेंगे माथा तुम्हारा काम होगा उनका जमाखोरों और मनुष्य की हव्यिों का मिलान करके पता करना तेरह सौ साल के मध्यवर्ती मालिक, जमाखोर मनुष्य थे क्या? जबाव दे नहीं पाएँगे वे। जनता के साथ कवि कदम कदम पर है। उसकी हर लड़ाई का साक्षी और उससे संलग्न। औपनिवेशिक साम्राज्यवाद और पूँजीवाद की मिलीभगत के विरूध्द वह जनता को जगा रहा है- टुकड़े टुकड़े करके फेंकों आज अपने अन्याय और भीरूता की कलंकित कहानी। शोषक और शासक की निष्ठुर एकता के विरूध्द एकजुट हों हम। सुकान्त का राष्टप्रेम साम्राज्यवाद और अन्याय के खिलाफ संघर्ष से जुड़ा है। सुकान्त ने राष्ट्रीय चेतना का इस्तेमाल जनता का जोड़ने के लिए किया है न कि तोड़ने के लिए जैसाकि बुर्जुअाजी करता है। 'मिथ्या अतीत प्रेम' और 'मेरा भारत महान' जैसी थोथी चेतना की अभिव्यक्ति यहा¡ नहीं है। यहा¡ भारत की उस जनता का आह्वान है जो हमेशा न्याय के साथ है, संघर्षशील परंपरा की वाहक है। मुर्दा अतीतप्रेम का यहा¡ लेश भी नहीं है- यह यदि नहीं होता तो आए भयानक विपत्तिा हम पर जिसमें अन्याय मिट जाए , आश्रय मिट जाए ; यह यदि नहीं होता समझूँगा तुम मनुष्य नहीं हो- गुप चुप देशद्रोहियों के साथ लगे फिरते हो। भारतवर्ष की मिट्टी ने तुम्हें सींचा नहीं तुम्हें अन्न नहीं दिए, भुजाओं में बल नहीं पूर्वजों का खून नहीं, इसी से आज भारत में तुम्हारा कोई आश्रय नहीं। ¼ बोधन ½ युध्द और दुर्भिक्ष की मारी जनता की दुर्दशा और संघर्षशक्ति के कई चित्र हैं। 'मृत्युजयी गान', 'कनभॉए', ' फसलेर डाक' ' एई नवान्न ' आदि कई कविताए¡ हैं। जापान की सहायता से ब्रिटिश साम्राज्य को निकाल बाहर करने और देश को मुक्त कराने की सुभाषचन्द्र बोस और भारत में एक बडे हिस्से की जो धारणा थी उससे सुकान्त कभी सहमत नहीं थे। सुभाषचन्द्र बोस का कहीं नाम लिए बगैर जापानी आक्रामकों की घोर निंदा की है। असम, चटग्राम और कलकत्ताा के कई इलाकों में बम बरसानेवाले जापान के खिलाफ सुकान्त ने कई कविताओं में लिखी। 'चटग्राम:1943' शीर्षक कविता में सोवियत जनता के साथ भारत की जनता को जोड़कर देखा है। स्तालिनग्राद की जनता ने जो रक्ताक्त संघर्ष किया था वही संघर्ष फासीवादी ताकतों के विरूध्द चटग्राम की जनता को करना है। फासीवादी ताकतों के हर कदम को बहुत गंभीरता के साथ सुकान्त जाँच रहे थे। लाल फौज की अग्रगति हिटलर के लिए संकट साबित हो रही थी। मित्र राष्ट्रों के हाथों अफ्रीका, भूमध्यसागर और बलकान इलाके में पराजित होकर फासीवाद के आका मुसोलिनी को इटली में मार्च 1943 में मज़दूर आंदोलन के दबाव के कारण प्रधानमंत्री पद छोड़ना पड़ा। सुकान्त ने इस घटना पर जनता का अभिनंदन करते हुए 'रोम' नामक कविता लिखी। जिसका आरंभ है साम्राज्य स्वप्न नष्ट हुआ/भागा है छत्रपति, बेड़ियों से बना दुर्ग/शताब्दियों का भूलुण्ठित। (रोम½ एक तरफ फासीवाद के छत्रप के पतन और जनता की विजय पर कविता लिखी वहीं दूसरी तरफ जननायक लेनिन पर कविता लिखी। जिसमें उन्होंने कहा कि लेनिन ने जनता के जरिए अन्याय के बाँध को तोड़ा है। साम्राज्यवादी अन्याय के खिलाफ लेनिन प्रथम प्रतिवादी स्वर हैं। घर घर में लेनिन की संख्या बढ़े। प्रत्येक मा¡ लेनिन को जन्म दे। समाजवादी राष्टª के रूप में लेनिन के नेतृत्व में सोवियत रूस को सुकान्त आशा भरी नजरों से देख रहे थे। लेनिन का सोवियत संघ जनता की मुक्तिकामी स्वतंत्र चेतना का प्रतीक था । इस भाव को सुकान्त ने 'लेनिन' शीर्षक कविता में व्यक्त किया है। लेनिन ने रूस की जनता के सहयोग से अन्याय का तोड़ा है बाँध/ अन्याय के खिलाफ लेनिन हैं प्रथम प्रतिवाद। क्रांति धड़कती है दिल में, मानों मैं ही हू¡ लेनिन। (लेनिन½ कलकत्तो में जापानी बमबर्षक विमान कैसा कहर मचा रहे थे इसकी एक झलक मित्र अरूणाचल बसु को लिखे एक पत्र में सुकान्त ने दी है। जीवन की नश्वरता का भान संकट के समय तीव्र हो उठता है। आश्चर्य इस बात का है कि सुकान्त कुण्ठाग्रस्त, पलायनवादी या वीतरागी नहीं हुए बल्कि साधारण मनुष्य की अप्रतिहत जिजीविषा के गीत गाते रहे। पत्र इस प्रकार है-भाग्य से अभी भी बचा हुआ हू¡ ; इसी कारण इतने दिनों की चुप्पी तोड़कर एक चिट्ठी भेज रहा हूँ-अप्रत्याशित बम की तरह तुम्हारे अभिमान के सुरक्षित दुर्ग को चूर्ण करने। जिंदा रहना सामान्य तौर पर अस्वाभाविक नहीं है। फिर भी भाग्य से क्यों इसका रहस्योद्धाटन करके अपनी रचनात्मकता का परिचय दू¡ ऐसा अवसर नहीं है, क्योंकि अखबारों ने बहुत पहले ही इस काम को कर दिया है! खैर, इस बारे में नए सिरे से और रोना नहीं रोऊँगा, क्योंकि पिछले वर्ष तुम्हे लिखे इन्हीं दिनों के एक पत्र में मेरी कायरता भरपूर प्रकट थी : इच्छा हो तो पुराने पत्र में इसे देख सकते हो। आज और कायरता नहीं, दृढ़ता। तब मैंने भय का कौशलपूर्ण वर्णन किया था, क्योंकि तब विपत्तिा नहीं थी , विपत्तिा की आशंका थी। अभी तो संकट प्रत्यक्ष है। कल रात को भी आक्रमण हुआ। यह रोज की दिनचर्या के साथ जुड़ गया है। अफवाहों का साम्राज्य भी आक्रमण के साथ बढ़ रहा है। तुम लोगों को यहा¡ के असली समाचार मिले हैं कि नहीं ,नहीं जानता। अत: आक्रमण की एक छोटी-मोटी झलक दे रहा हू¡ : पहले दिन खिदिरपुर, दूसरे दिन भी खिदिरपुर, तीसरे दिन हाथीबागान आदि कई अंचलों में (इस दिन के आक्रमण ने सबसे ज्यादा क्षति की), चौथे दिन डलहौजी के इलाके में ¼ इस दिन तीन घण्टा आक्रमण चला, सबसे ज्यादा भयकारी था, भय के कारण दूसरे दिन कलकत्ताा प्राय: शून्य हो गया ), और पाँचवे दिन अर्थात कल भी आक्रमण हुआ, कल के हमले की जगह मैं नहीं जानता। पहले, दूसरा और तीसरा दिन बालीगंज में मामा के यहा¡ उनके साथ अव्ेबाजी में कटा। चौथा दिन शाम को भाई-भाभी के यहा¡ सीताराम घोष स्ट्रीट में सबसे भयानक रूप से कटा। ¼fदसम्बर 1942) अंग्रेजी कुशासन के कारण सारे भारत में और बंगाल में बार बार अकाल पड़ा। बंकिमचन्द्र के 'आनंदमठ' में इस अकाल का हृदयविदारक चित्र हैं। सन् 1942 में जापान ने बर्मा पर आक्रमण कर कब्जा कर लिया। बर्मा से भारत में जो चावल आयात किया जाता था वह बंगाल की कुल खपत का 20 प्रतिशत था। ब्रिटेन ने बर्मा में चावल की खेती को खूब प्रोत्साहन दिया था। लेकिन तब भी बर्मा के चावल उत्पादन का प्रतिशत बंगाल में उत्पादित चावल की तुलना में कम था। जो चावल बर्मा से आयात होता था केवल उसके बंद होने भर से बंगाल में अकाल की स्थिति नहीं पैदा हो सकती थी। वस्तुत: बंगाल के अकाल का बड़ा कारण ब्रिटिश भारत पर जापानी आक्रमण का भय था। जिसके कारण ब्रिटिश सरकार ने आपात् स्थिति में अपने सैनिकों के लिए चावल की जमाखोरी की और राशन दुकानों में चावल की आपूर्ति नहीं की गई। 16 अक्टूबर 1942 ई को बंगाल और उड़ीसा के पूर्वी तट पर भयंकर चक्रवाती तूफान आया। इससे फसलों को भारी नुकसान हुआ। किसानों को अतिरिक्त अनाज का उपयोग करना पड़ा और उन्होंने बीज के लिए जो अनाज रखा था उसे भी खाने के काम में लाना पड़ा। सन् 1943 की गर्मियों में फसल रोपने के लिए सरकार ने किसानों को कोई अनाज मुहैय्या नहीं करवाया। सुप्रसिध्द अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन के अनुसार 1943 ई में बंगाल में धान की कोई कमी नहीं थी बल्कि सन् 1941 में जब कोई अकाल की स्थिति नहीं थी तब जितना धान था उससे कहीं ज्यादा धान सन् 1943 में उपलब्ध था। अमर्त्य सेन इस अकाल के कारणों का अध्ययन करते हुए बताते हैं कि सन् 1943 में बंगाल में चावल की कोई कमी नहीं थी फिर भी अकाल की स्थिति पैदा हुई। इसका कारण अफवाहें थीं, यह हल्ला था कि चावल की कमी हो गई है। युध्द के दौरान चीजों के बढ़ते दाम, मुद्रास्फीति की स्थिति के कारण चावल की जमाखोरी करना और बाद में ऊँचे दामों पर बेच कर मुनाफा कमाना इसका बडा कारण था। यह एक विडम्बनापूर्ण स्थिति थी कि बंगाल के पास अपनी जनता के लिए चावल का पर्याप्त भण्डार था लेकिन लोग इतने गरीब हो चुके थे कि खरीदने की स्थिति में नहीं थे। इस अकाल में चार लाख लोग भूख और कुपोषण से मरे। ब्रिटिश भारत में बार बार पड़ने वाले अकालों में यह सबसे भयंकर था। सुकान्त ने अपनी एक कविता में लिखा है कि उन्होंने जन्म से ही अपने देश को गरीब और पराधीन देखा है। ऐसे में अकाल की स्थिति और भी भयानक रूप ले लेती है। मेरे सोने के देश में शेष में अकाल आया भूख ने रास्ते के दोनो तरफ डेरा जमा लिया है। 'इतिहासकार' कविता में सुकान्त ने बंगाल के अकाल का कच्चा चिट्ठा सामने रखा है। इसमें एक तरफ पीड़ित सर्वहारा है , दूसरी तरफ जमाखोर पूँजीपति है जिनके गोदाम अनाजों से भरे पड़े हैं। कवि इस अकाल के कारण को लेकर आम आदमी की तरफ से सवाल पूछना चाहता है पर जबाव देने का साहस शासक- शोषक वर्ग के इतिहासकारों में नहीं है। उसमें उन अंग्रेज इतिहासकारों की भूमिका की पडताल है जो अकाल के कारणों पर साम्राज्यवादी दृष्टिकोण से पन्ने पर पन्ने रँगे जा रहे थे- आज आया हू¡ तुममें से प्रत्येक के घर- धरती की अदालत का परवाना लेकर तुम कैफियत दोगे क्या मेरे प्रश्नों की क्यों पचासवें बरस में मौत पसरी थी आज बावनवें बरस में क्या इसका जबाव दोगे? जानता हू¡ स्तब्ध हो गई है अग्रगामी सोच तभी दीर्घश्वास के धुए¡ से काला कर रहे हो भविष्य ऐसा सवाल कोई जनकवि ही कर सकता था जो जानता हो कि कैसे साम्राज्यवादी सत्ताा की ताकत इतिहास की धारा को अपने अनुकूल मोड़ने की कोशिश करती है। ऐसे में रचनाकार कवि की रचनात्मकता में समय का इतिहास खोजा जा सकता है। इतिहास की मनमानी संकल्पनाओं की साक्षी बहुत बार जनता के बीच से निकली रचनाए¡ नहीं देतीं। इस अकाल के कारणों और स्थितियों को सुकान्त ने करीब से देखा था। स्वयंसेवक के रूप में किशोर सुकान्त राशन की दुकान पर जनता की लाइन लगवाया करते थे। सुकान्त अच्छी तरह देख रहे थे कि इस अकाल का सीधा संबंध भारत की पराधीन अवस्था से है। इसकी सच्चाई आजाद भारत की स्थिति से तुलना करके परखी जा सकती है। आजाद भारत की अन्य दिशाओं में उपलब्ध्यिों के अलावा यह सबसे बड़ी उपलब्धि रही कि आजादी के बाद से यहा¡ कोई भी अकाल नहीं पड़ा। सुकान्त के लिए जैसे युध्द और अकाल दो अलग स्थितिया¡ न होकर एक दूसरे का बाई प्रोडक्ट हैं, उसी तरह से इनसे मुक्ति का परिप्रेक्ष्य भी राष्ट्रीय मुक्ति से अलग नहीं है। राष्ट्रीय मुक्ति का परिप्रेक्ष्य अकाल पर लिखते हुए कभी ओझल नहीं हुआ। सुकान्त नहीं चाहते कि अकाल के कारण पैदा हुआ जनाक्रोश केवल जठराग्नि की तृप्ति पर तुष्ट हो जाए। वे तत्कालीन अकाल की बड़ी प्रतिक्रिया जनता में चाहते हैं। चीनी , चावल , केरोसीन के लिए लाइन लगाने से बड़ी चीज है मुक्ति के लिए एकजुट होना। जनता के आह्वान के लिए कवि स्वयं को इतिहास में प्रक्षेपित कर लेता है। मैं इतिहास हू¡ मेरी बात पर विचार करके देखो अथवा चावल , चीनी , कोयला, केरोसीन ? इन सब दुष्प्राप्य चीजों के लिए लाईन लगानी होगी। किन्तु समझे नहीं मुक्ति भी है दुर्लभ और बहुमूल्य उसके लिए भी चाहिए चालीस करोड़ लंबी अविच्छिन्न एक लाईन। कवि सुकान्त की कविता में प्रकृति भी शान्त निर्मल नहीं है। वह भी जैसे कुछ कर गुजरने के लिए आंदोलित और तरंगायित है। मैं इतिहास हूँ, मेरी बात पर विचार करो याद रखो देर हो गई है, बहुत बहुत देर। कल्पना करो आकाश में है एक ध्रुव नक्षत्र नदी की धारा में है गति का निर्देश, वन की मर्मर ध्वनि में है आंदोलन की भाषा, और है पृथ्वी का चिर आवर्तन॥ (इतिहासकार½ मज़दूर, नंगी-भूखी जनता, शोषित किसान, धूर्त मध्यवर्ग, शोषक पूँजीपति , साम्राज्यवादी शक्तिया¡ , फासीवादी ताकतें, इनके खिलाफ लड़नेवाली उदीयमान शक्तिया¡ सब सुकान्त की कविता में मौजूद हैं। सबसे प्रमुख बात है कि यह जनता एकदम मूर्ख जनता नहीं है। अचेत है। जगाने की जरूरत है। अदम्य विश्वास है सुकान्त को मज़दूर की शक्ति पर। कहीं वे उसके व्यवहार पर खीझते हैं तो कहीं शाबासी में उसकी पीठ थपथपाते हैं। कल कारखानों के बीच कर्मरत मज़दूर का चित्र बड़े स्वाभाविक ढंग से कविता में आता है। यह मज़दूर जड़ भाग्यवादी नहीं है, इसके हृदय में संघर्ष की रणभेरी बज रही है। यह देश आज है विपन्न, जानता हू¡ आज जीवन निरन्न- दिन रात मृत्यु का साथ, निश्चित शत्रु का आक्रमण चित्रित है खून की अल्पना, कानों में आर्तनाद के सुर तब भी दृढ़ हँ मैं, मैं एक भूखा मज़दूर । मेरे सामने है केवल शत्रु एक, एक लाल पथ शत्रु के हमलों और भूख से अनुप्राणित शपथ।


मेरे हाथों के स्पर्श से रोज यंत्रों का गर्जन याद कराता है प्रतिज्ञा, करता है अवसाद विसर्जन। (शत्रु एक½ कविता में मज़दूर की बदहाली है तो किसान भी उजड़ा हुआ है। विद्रोह की सफलता तभी संभव है जब मज़दूर और किसान एक होकर लड़ेंगे। अन्याय के विरूध्द किसान-मज़दूर लड़ते हैं तो कवि के प्राण हर्षित होते हैं। इस बार लोगों के घर घर जायेगा सुनहरा नहीं रक्त रंजित धान, देखोगे सब, जल रहे हैं वहा¡ हू हू कर बांग्ला देश के प्राण। ( दूर्मर ½ कलकत्तो शहर में रहनेवाले सुकान्त ने किसान पर लिखा है, गाँव की प्रकृति, फसलों की शोभा पर लिखा है और घूँघट में छिपी कृषक वधू की आशा भरी आँखों पर भी लिखा है जो अकाल और भूखमरी के बाद सुनहले भविष्य की आशा कर रही है। अचानक एक दिन पानी भरने गई कृषकवधू ने रूक कर इधर उधर निहारा लाज से घूँघट हटाकर उसने जैसे तैसे देखा धानी फसलों में स्वर्ण युग का संकेत। ¼ चिरदिनेर ½ सुकान्त अपने समय के साथ और अपने प्रिय शहर कलकत्ताा के साथ किस तरह से जुड़े हुए थे इसका पता उनकी अनेक कविताओं में लगता है। रंगीन चमकदार कागज पर श्री भूपेन्द्रनाथ भट्ठाचार्य की भेजी शुभकामना का जबाव उन्होंने इन शब्दों में दिया है - अंग्रेजी में मिली तुम्हारी दीवाली की शुभकामना लेकिन मैं निरूत्साह , अन्यमना सुख नहीं जरा भी, दीपावलि लगे निरूत्सव, पथराई आँखों से स्वप्न देखता हूँ, शव केवल शव। सोते हुए सुनता हू¡ कानों मेंर् आत्तानाद खाली, रो रहा मुमुर्षू कलकत्ताा, रोए ढाका, नोआखालि, सभ्यता पिस गई फैला बर्बरता का साम्राज्य इस दुस्समय में लगे व्यर्थ शुभकामना ; तब भी तुम्हारी रंगीन चिट्ठी का जबाव देना होगा, वरना सोचोगे प्राणों का अभाव धरती सूखे , डूबे रक्तप्लावन में। तब भी तुम्हारा शुभ चाहूँगा मैं मन में, फिर भी आज अलग से चाहता हू¡ तुम्हारी शान्ति तुम्हारा सुख मन के अँधेरे कोनों में सौ सौ प्रदीप जलें, यह दुर्योग कट जाएगा, रात और कितनी देर? मिलेंगे हम सब, फिर वही विप्लव की टेर धन नहीं है मेरे पास, रंग नहीं, नहीं रोशनाई- केवल हैं छन्द, वही भेज रहा हू¡ शुभकामना में। (दिवाली½ सूर्य का आवाह्न करनेवाला , धूप के गीत गानेवाला , प्राणों की दीपावलि करनेवाला यह कवि वास्तव में उजास का कवि है, आशा का कवि है, जिजीविषा का कवि है। जब तक लड़ाई पूरी न हो थकना नहीं चाहता, उदास नहीं होना चाहता। स्थिरता से नफरत है, उदासी से घृणा। वह सूर्य से प्रार्थना करता है- सूर्य, तुम्हें मैं आज निमंत्रित करता हू¡ दुर्बल मन है, दुर्बल काया, मैं पुराने तालाब का स्थिर पानी जगाओ मेरे हृदय में प्रतिच्छाया॥ ¼ धूप का गीत ½ अपनी प्रत्येक कविता में मृत्यु और ध्वंस के खिलाफ दृढ़ भाव से खड़ा यह कवि अपने जीवन की लड़ाई का विजेता न बन सका। राजरोग यक्ष्मा से लड़ते लड़ते जीवनलीला समाप्त हुई। लेकिन कवि ने कब कहा था कि रण में जीतना जरूरी है ? लड़ना जरूरी है यह बार बार कहा। एक कविता में सुकान्त ने लिखा है- प्रश्न नहीं जीत होगी या हार प्रण है तोड़ना अत्याचारी जेलों के द्वार। इतने दिन केवल बेड़ियों की सुनी है झन झन। (जनतार मुखे फोटे विद्युत्वाणी½ एक अन्य कविता में लिखा है कि यह दुनिया बड़ी समझदार है, व्यावहारिक है। नमनीय है। लचीली है। प्रत्येक क्षण अपने आदर्शों से समझौता करनेवालों की है। वही लोग ऊँचाई तक पहुँचते हैं जो ऐसा कर पाते हैं। आदर्शों और लक्ष्य पर चलनेवालों को दुनिया नासमझ का दर्जा देती है। यहा¡ प्रसिध्द लोगों की कीर्तिगाथाए¡ हैं। लेकिन हम तो विजेता नहीं हैं , हमारी कीर्तिगाथा यहा¡ कहा¡ होगी बन्धु हम तो असाधारण और दृढ़ के पुजारी हैं- जन्म से पहले ही काल ने ग्रसा , जीवन की धारा में हम बुद्बुद् हैं। यह दुनिया है अत्यंत कौशलपूर्ण हैं यहा¡ प्रसिध्दियों की नामावलियाँ] हमारा स्थान नहीं रे वहाँ& हम तो दृढ़ के पुजारी हैं, विजेता नहीं। (बुद्बुद् मात्र½










किसान का गीत

इस बंजर मिट्टी की छाती चीर कर अब फसल उगाऊँगा--------- मेरी इन बलिष्ठ भुजाओं से आज इस बंजरता का संवाद है। इस मिट्टी के गर्भ में आज मैंने भावी पीढ़ी की, देखा है साफ इशारे करते हुए अकाल में दफन हुई अंतिम कब्र को देखा है : मेरी प्रतिज्ञा सुनी है क्या ? ( गोपन एक प्रण ) इस मिट्टी से पैदा करूँगा मैं असंख्य पल्टनों की फसल। दोनों ऑंखों में जन जीवन के विनाशकों के लिए है ध्वंस मेरी प्रतिज्ञा है निर्माण करूँ हजारों भूखे हाथ दरवाजे पर दुश्मन के पगचाप हैं मेरी मुटठी में मेरा दुस्साहस। जोती हुई मिट्टी के रास्ते नई सभ्यता का निर्माण करूँ।
















पता

पता मेरा पूछा है दोस्त- पता मेरा, क्या तुम्हें आज भी न मिला? दिए हैं जो दु:ख क्षोभ न हो ? पता न लिया दोस्त तुमने तो क्या, गली गली में रहता हूँ, कभी पेड़ के नीचे कभी झोपड़ी में। मैं एक यायावर बीनता हूँ राह के कंकर हजारों जनता जहाँ है ,वहाँ मैं रोज जाता हूँ। बन्धु घर का रास्ता ढूँढ नहीं पा रहा रास्ते के कंकरों से बनाऊँगा मजबूत इमारत।


दोस्त न देना आज और ज़ख्म तुम्हारे दिए ज़ख्मों में, मेरा पता खोजो उगते हुए सूरज में। इंडोनेशिया, युगोस्लाविया, रूस और चीन में मेरा पता बहुत दिनों से है वहाँ। मुझे क्या कभी खोजा है तुमने देश में? तब भी क्या नहीं मिला? मतलब भटके हो गलत रास्तों पर प्रलय ( दुर्भिक्ष ) के समय से निशान हैं मेरे जीवन की राहों पर कुछ दूर जाकर मुड़ गया है जो पहले ही मुक्ति के रास्ते से। दोस्त, सावधान यह कुहाशा सूर्योदय के पहले का है प्रकाश की आशा में स्वयं को जान अकेला राह न भूल जाना। दोस्त, जानता हूँ आज अशांत है, रक्त, नदी का पानी, घोसलों में पक्षी और समुंदर। दोस्त देर हो रही है लेकिन पता अभी भी नहीं मालूम दोस्त तुम इतना भूलते कैसे हो? और कितने दिन ऑंखे तरसेंगी, देखो पाओगे मुझे जलियाँवाला के रास्ते पर जलालाबाद होते हुए धर्मतल्ला के बाद क्षुब्ध इस देश में देखोगे पता लिखा मेरा हर घर पर। दोस्त आज के लिए विदा ! देखो उठते हुए ऑंधी तूफान को पता है मेरा वह, फिर स्वतंत्र मेरे देश में मिलना मुझसे।

दलि‍त अस्‍मि‍ता नहीं नजरि‍या

भारत में अस्मिता विमर्श के सबसे बड़े क्षेत्र के रूप में स्त्री और दलित आते हैं। इनके बाद आदिवासी और अल्पसंख्यक अस्मिता विमर्श आता है। राजनीतिक क्षेत्र में स्थान भेद से इन अस्मिताओं का क्रम आगे-पीछे हो सकता है। अस्मिताओं के इस उभार को ज्यादा दिन नहीं हुए। साहित्य में मोटे तौर पर भक्तिकाल से दलित अस्मिता का आरंभ होता है। दलितचेतना के कई रूमराठी नवजागरण में ज्योतिबाफुले और सावित्रीबाई से आधुनिक तथा स्वाधीनताआंदोलन के समय बाबा साहेब अंबेडकर से दलितचेतना जोड़ा जाता है। लेकिन सही परिप्रेक्ष्य और संदर्भ में दलित अस्मिता का उभार साठ के दशक में देखा गया। गरीबी , शिक्षा, कुपोषण , सामाजिक और धार्मिक भेदभाव के स्तर पर किए गए सामाजिक आर्थिक सर्वेक्षणों ने दलितों की जीवनस्थितियों के बारे में कई चौंकानेवाले तथ्य सामने रखे। आजादी के बाद बने संविधान में विशेष सुविधाओं के बावजूद दलितों की स्थिति में आज भी बहुत ज्यादा सुधार नहीं हुआ है। दलित लेखन और विमर्श का मौजूदा रूप उत्तार पूँजीवाद की देन है। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान गाँधीजी द्वारा दलितों को ' हरिजन ' नाम दिया गया था। स्वातंत्र्योत्तार भारत में यह दलित विमर्श के नाम से सारी बहस चली। आज दलित विमर्श अस्मितामूलक विमर्श का एक बड़ा महत्वपूर्ण क्षेत्र है। अस्मितामूलक विमर्शों की खासियत है कि इनका सामाजिक ,सांस्कृतिक और राजनीतिक आधार होता है। अस्मिता के जिस रूप का जितना गंभीर सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक आधार होगा उसकी साहित्यिक कलात्मक अभिव्यक्ति के रूप उतने ही सशक्त होंगे। स्त्री अस्मिता के विमर्श के साथ यह दिक्कत रही है कि सामाजिक सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के मजबूत आधारों के बावजूद राजनीतिक तौर पर यह अभी भी आधारशून्य है। इसकी झलक एन डी ए और यू पी ए दोनों सरकारों के कार्यकाल में लटकता रहा महिला बिल है। राजनीतिक दलों की महिलाओं की संसदीय भागीदारी को लेकर क्या समझ है इसे उनके दलों के उम्मीदवारों के सूचीपत्र को देखकर समझा जा सकता है। लेकिन यह मुद्वा आज जबकि देश में पहले चरण का मतदान पूरा हो चुका है , किसी चुनावी बहस का हिस्सा नहीं बन सका है। न ही महिलाओं में इसे लेकर जागरूकता पैदा करने की कोशिश किसी राजनीतिक दल या गैर सरकारी संस्थाओं जो मोटा पैसा वैकल्पिक रूप में जनकल्याणकारी कामों की डुगडुगी पीट कर हासिल करती है, द्वारा किया गया है। दलित जातियों में जिनमें शिक्षा, जीने की सुविधा और जीवनस्तर आम तौर पर सामान्य से कई गुना नीचे हैं उनमें स्त्रियों की क्या स्थिति होगी इसे सहज ही समझा जा सकता है। सवाल है कि समाज में दलित एक सामाजिक इकाई के रूप में अभिव्यक्त होता है। उसकी सामाजिक स्थिति की बदहाली को मापने के कई तरह के आर्थिक-सामाजिक सूचक हैं। सामाजिक तौर पर दलित के सवाल सामाजिक अन्याय के सवाल हैं। लोकतंत्र की राजनीति में यह 'पावरगेम' के रूप में व्यक्त हो रहा है। राजनीतिक भागीदारी और सत्ताा में हिस्सेदारी के रूप में व्यक्त हो रहा है। साहित्य में यह नजरिए के रूप में व्यक्त होता है। साहित्यिक अभिव्यक्ति में दलित पर अत्याचार दिखलाकर दलित के प्रति संवेदनशीलता नहीं पैदा की जा सकती। उत्तोजक बयानबाजी से भी साहित्य से भी साहित्य में दलित के प्रति उसकी साथ हो रहे अन्याय के प्रति रवैय्या निर्मित नहीं किया जा सकता। साहित्य में चीजें देर से घटित होती हैं और देर तक टिकी रहती हैं। राजनीतिक टिप्पणियों की तरह दिया और भुलाया नहीं जा सकता न ही सामाजिक स्थितियों के बदल जाने से लिखी गई पहले की रचना फालतू हो जाती है। साहित्य के हर युग के लिए हर युग में पाठक मौजूद होंगे। टॉलस्टाय और तुलसी के पाठक उत्तारआधुनिक साहित्य में भी हैं। सवाल है कि हम पुराने या नए साहित्य में खोजते क्या हैं ? हम खोजते हैं नजरिया! नजरिए के आधार पर ही रचना महत्वपूर्ण या गैर महत्वपूर्ण होती है। पुराने पाठ में भी आधुनिक नजरिया व्यक्त हो सकता है और नए से नया पाठ रूढ़िवादी नजरिए को अभिव्यक्त कर सकता है। इसी नजरिए के आधार पर साहित्य में ' प्रासंगिकता अप्रासंगिकता ' , ' कालजयी और कालजीवी ' की बहस चली है। अस्मिता देखने में है। साहित्य में दलित या गैरदलित का मसला नजरिए में होता है। यह नजरिया दलित रचनाकार की अभिव्यक्ति में हो भी सकता है नहीं भी हो सकता है। निर्भर करता है कि वह किस नजरिए से दलित के मसलों को देख रहा है। अस्मिता का आधार जाति या नस्ल नहीे हो सकता। अस्मिता का आधार दृष्टिकोण होगा। अस्मिता को यदि जाति, लिंग या नस्ल में केन्द्रित मान लेंगे तो अस्मिता विमर्श का विद्रूप चेहरा सामने आएगा। जाति, लिंग और नस्ल के आधार पर बनी प्रत्येक अस्मिता अन्य अस्मिता के लिए आक्रामक भाव रखेगी। अस्मिता विमर्श में केवल अपने से संबध्द अस्मिता के हित अहित केन्द्र में होते हैं। अन्य अस्मिताओं के प्रति उपेक्षा भाव शामिल होता है। हिन्दी के दलित लेखन की खूबी है कि यह बिल्कुल जमीन से जुड़ा लेखन है। हाल के वर्षों में जो दलित साहित्य लिखा गया है उसका क्षेत्र लगभग तय है। यहा¡ अभिव्यक्ति की कलाकारी और संयोजन का काम अभी शुरू नहीं हुआ है। दलित लेखन के प्रमुख क्षेत्र सामाजिक अन्याय, घर्म के आधार पर भेदभाव, आर्थिक अन्याय, पितृसत्ताा आदि हैं। एक दलित स्त्री लिंग ,जाति और गरीबी तीन स्तरों पर शोषण का शिकार होती है। दलित साहित्य के अंतर्गत जो कुछ लिखा जा रहा है चाहे वह स्त्रियों का हो या पुरूषों का स्वानुभूतिपरक है। यही कारण है कि दलित लेखन का बड़ा हिस्सा आरंभ में आत्मकथा के रूप में सामने आया। साथ ही दलित लेखकों की तरफ से एक धड़े ने यह भी बहस चलाई कि स्वानुभूत लेखन ही दलित लेखन हो सकता है। स्वानुभूति और सहानुभूति की बहस चलाई। अस्मिता के विमर्श का एक संकट है कि वह अपने लिए जनतांत्रिक और मानवीय अधिकारों की मांग करते करते दायरे को इतना समेट लेता है कि वह स्वयं एक अलग खेमे के रूप में तब्दील हो जाता है। जिन मूल्यों के खिलाफ लड़ रहे हैं स्वयं उन्हीं में ढल जाना किसी साहित्यिक , सांस्कृतिक या राजनीतिक आंदोलन की विशेषता नहीं हो सकती। बहिष्कार की जिस नीति के खिलाफ खड़े हैं स्वयं उसी का इस्तेमाल करते हुए संकीर्ण नजरिए का परिचय देना आंदोलन की सफलता नहीं है। स्त्री लेखन के साथ भी यही दिक्कत है कि वह स्त्रियों के लिखे को ही स्त्री लेखन के दायरे में रखना चाहता है। स्त्री या दलित होने मात्र से उनका लेखन स्त्री या दलित के नजरिए को व्यक्त करता हो यह जरूरी नहीं जब तक कि स्त्री या दलित की दृष्टि रचनाकार के पास न हो। कई स्त्री लेखिकाए¡ हैं जो घोषित तौर पर कहती हैं कि वे स्त्रीवाद के नहीं मानतीं। इस घोषणा का भी पाठक के लिए दाम नहीं है यदि स्त्री का नजरिया उनके लिखे में व्यक्त होता है। पर यदि पुंसवादी नजरिए से किया गया लेखन है तो किसी भी किस्म की घोषणा के बावजूद वह स्त्री के द्वारा भले लिखा गया हो स्त्रीवादी लेखन नहीं है। स्त्री के पक्ष में आरंभ में सबसे ज्यादा पुरूष लेखकों ने लिखा, आज वह स्त्रीवादी लेखन में शामिल किया जाता है। जॉन स्टुअर्ट मिल हों, माक्र्स हों , प्रेमचंद या रमाशंकर शुक्ल ' रसाल ', इनका लेखन स्त्रीवादी लेखन के दायरे में आता है। दलित लेखन के लिए भी यह सत्य है। माक्र्स मजदूर नहीं थे लेकिन मजदूर वर्ग के लिए माक्र्स से बड़ा लेखन किसी का नहीं है। प्रेमचंद अपने नजरिए के कारण ही तमाम अंतर्विरोधों के साथ स्त्री और दलित के पक्ष में खड़े दिखाई देते हैं। दलित लेखन मूलत: अन्याय के विरूध्द है। अनिवायर्त: इसे अपने जैसी अन्य अस्मिताओं पर हो रहे अन्याय के खिलाफ खड़ा होना होगा। अन्य अस्मिताओं के साथ इसका संबंध सहिष्णु और दोस्ताना होगा। तभी यह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। अस्मिता की अभिव्यक्ति के राजनीतिक और साहित्यिक रूपों में घालमेल के कारण यह संबंध असिहिष्णु रूप ले रहा है। इससे सावधान रहने की जरूरत है। महत्वपूर्ण बात यह है कि आप दलित विमर्श द्वारा दलित की मुक्ति की बात कर रहे हैं या दलित की स्थापना की ? दलितों को सवर्णों की जगह पदों पर बैठाने या संस्थाओं में स्थापित करने से दलित मुक्ति का प्रश्न हल नहीं होगा। इन जगहों पर आते ही यदि दलित वर्चस्व की भूमिका और हथकण्डों का इस्तेमाल करे तो दलित मुक्ति संभव नहीं है। यह प्रेमचंद के शब्दों में जॉन की जगह गोविन्द की स्थापना ही है। इससे दलित की वास्तविक स्थितियों और शोषण के रूपों पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। यह वैसे ही है जैसे दिल्ली हाट में आयोजित मेले में एक ऐसे परिवार को आदिवासी परिवार का प्रतिनिधित्व करने को कहा गया था जिसने बरसों से गाँव की शक्ल नहीं देखी है। आदिवासी गाँव की संस्कृति और जीवनशैली वह कब का पीछे छोड़ चुका था। यह अलंकृत रूप से जीवनस्थितियों को पेश करना है। जिसमें समस्या कहीं नहीं है, समाधान का तो प्रश्न ही नहीं है। दलित को जहा¡ अधिकार दिए गए हैं वहा¡ भी दलित को मुक्ति नहीं मिली है। संवैधानिक और राजीतिक अधिकारों को लागू करने के लिए निचले स्तर पर जिस दृढ़ प्रशासनिक अनुशासन की जरूरत है, इन्फ्रास्ट्रक्चर की जरूरत है वह यदि नहीं है तो अधिकारों को अधिकारी के पास नहीं पहुँचाया जा सकता। उसे दलाल हड़प लेंगे। सवाल है कि दलितों की मुक्ति के लिए हिन्दुस्तान की स्थितियों में कौन-सी चाज जरूरी है ? दलित क्या केवल शहरों में रहते हैं ? भारत में अभी भी चालीस प्रतिशत से ज्यादा जनता साक्षर नहीं है। इसमें दलितों और दलित स्त्रियों का प्रतिशत कितना होगा इसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। सरकारी नौकरियों में आरक्षण तो है पर उन नौकरियों के लिए दलित अभ्यर्थी नहीं मिल पाते। पद बरसों रिक्त रहते हैं या सामान्य श्रेणी में डाल दिए जाते हैं। दलितों का आधार केवल शहरों को बनाएंगे तो एक बड़े हिस्से के सवाल असंबोधित रह जाएंगे। वह हिस्सा जो गाँवों में रहता है। यदि गाँवों में खेती और मजदूरी की स्थितियों में सुधार होता है तो शिक्षा और जीवनस्तर में भी सुधार होगा। दलित लड़किया¡ ज्यादा से ज्यादा स्कूल जाँए इसके लिए जरूरी है कि गाँवों में स्कूल हों , विशेष तौर से लड़कियों के स्कूल हों। लड़कियों को पढ़ने के लिए उत्प्रेरक के रूप में कुछ राशि दी जाए। वह राशि कम से कम इतनी हो कि घर में रहकर छोटी लड़किया¡ अपने भाई-बहनों को पालने , खाना बनाने और अन्य घरेलु कामों के जरिए घर की आमदनी में जो सहयोग करती हैं उसका विकल्प बन सके। माता-पिता को भी शिक्षा की जरूरत है कि वे छोटे लड़के लड़कियों को मानवशक्ति के रूप में न देखकर मानव संसाधन के रूप में देखें। दलित संगठनों की यह माँग होनी चाहिए कि गाँवों में सरकारी जमीनों का कृषि के लिए आवंटन हो और इसमें बड़ाहिस्सा गरीबों और दलितों के लिए हो। यह माँग तब तक संभव नहीं जब तक कि दलित को उत्पादक शक्ति के रूप में न देखें। दलित लेखन और संगठन उत्पीड़न के सवालों को उठाते हैं और वहीं खत्म हो जाते हैं। दलित मुक्ति को कृषि संबंधों से जोड़कर देखने की जरूरत बनी हुई है। प्रेमचंद इसी मायने में बड़े लेखक हैं कि वे दलित के सवाल उनके यहा¡ कृषि संबंधों से युक्त होकर आते हैं। यह देखा जाना चाहिए कि आज के कितने दलित लेखक हैं जो दलित की मुक्ति को कृषि दासता की स्थितियों से जोड़कर देखते हैं तब हम तय कर पाएंगे कि वे कितना अपने पैरों के नीचे और कितना आगे की तरफ देख रहे हैं। भारत में दलितों की स्थिति को मानवीय किसी भी रूप में नहीं कहा जा सकता। शोषण , उत्पीड़न और अज्ञानता का सबसे वीभत्स रूप दलित की जीवनस्थितियों में दिखाई देता है। जनमाध्यम आज का सबसे बड़ा मतनिर्धारक है। राय बनाने का काम इसके जिम्मे है। यह भारतीय समाज में मौजूद एकाधिक दुनियाओं के बीच परिचय बनाने का काम करता है। टी वी में जो नहीं है उस पर बहस नहीं होगी। ऐसे में देखा जाना चाहिए कि दलित और दलित मसलों की उपस्थिति जनमाध्यमों में कितनी है ? भारतीय जनमाध्यमों में दलितों की उपस्थिति नगण्य है। दलित मसला नहीं है। दलित का राजनीतिक सशक्तिकरण कुछ व्यक्तियों के सशक्तिकरण में बदल गया है। यह अवसर की राजनीति है। इससे दलित के व्यापक हित का कोई संबंध नहीं है। सबसे महत्वपूर्ण चीज कि आज दलित ' विमर्श ' है ' पाठ ' नहीं। पाठ के बिना विमर्श का क्या रूप होगा यह सोचा जा सकता है। पाठ के बिना यह सिध्दान्तविहीन होगा। इसके अध्ययन अध्यापन का कई अनुशासन नहीं होगा। इसके लिए जरूरी है कि दलित के पाठ को ज्यादा से ज्यादा सामने लाया जाए। पाठ का होना मौजूदगी का एक ठोस आधार देता है। शब्दों की जादूगरी के जरिए किए जानेवाले विमर्श को एक सार्वकालिक अनुशासनिक ढाँचे में बांधता है। इसमें बहुत सी चीजें छूटेंगी , बहुत सी नई आएंगी पर यह खतरा तो उठाना ही पड़ेगा।

अंधायुग : प्रस्तावना

अंधायुग : प्रस्तावना


अंधायुग का रचनाकाल धर्मवीर भारती ने 1954 बताया है। इस कृति का दिक् काल एपिक महाभारत के अठारहवें दिन के बाद से लेकर प्रभास तीर्थ में कृष्ण की मृत्यु तक के घटनाक्रम तक फैला है। इस कृति के लिखे जाने का उद्देश्य रचनाकार ने अपने समय की जटिल स्थितियों में दिशा की तलाश बतलाया है। बकौल रचनाकार पर एक नशा होता है - अंधकार के गरजते महासागर की चुनौती को स्वीकार करने का ; पर्वताकार लहरों से खाली हाथ जूझने का, अनमापी गहराइयों में उतरते जाने का और फिर अपने को सारे खतरों में डालकर आस्था क,े प्रकाश के ,सत्य के, मर्यादा के कुछ कणों को बटोरकर , बचाकर, धरातल तक ले आने का-इस नशे में इतनी गहरी वेदना और इतना तीखा सुख घुला-मिला रहता है कि उसके आस्वादन के लिए मन बेबस हो उठता है। उसी की उपलब्धि के लिए यह कृति लिखी गई है। इस कृति के भीतर से यदि कृति की आलोचना के सूत्र तलाशे जाएं और बाहर से अंदर की बजाए अंदर से बाहर की तरफ देखा जाए तो सबसे पहले रचनाकार के वक्तव्य की ओर ध्यान जाता है। एक एपिकल काव्यकृति के आधार पर कथावितान का निर्माण अपने आप में अलग तरह के मूल्यांकन के मापदण्डों की मांग करता है। इसमें भी एक खास अंश का चयन बहुत सचेत ढंग से किया गया है। इसके जरिए वह अपने समय पर टिप्पणी करना चाहता है। रचनाकार की अपने समय की समस्याओं के प्रति चिंता और उससे बाहर निकलने की छटपटाहट उसे समस्याओं के विवेचन के लिए बाध्य करती है। इन पर टिप्पणी के जरिए वह समस्या की जटिलता के भीतर हस्तक्षेप करता है। उसकी निस्संगता खंडित होती है , एकांत भंग होता है। एकाकी साम्राज्य से वह बाहर निकलता है। समसामयिक सत्य के कठोर रूपों से निर्ममतापूर्वक साक्षात्कार करना तभी संभव होता है जब व्यक्ति भयमुक्त हो। भय से मुक्ति भय के कारणों से भागने से नहीं होती भय से मुठभेड़ से होती है। इस भयमुक्ति के लिए कीमत देनी होती है जिन आशंकाओं से हम डरते रहते हैं उनके घटित हो जाने या सच हो जाने का खतरा भी इसमें शामिल होता है और यह भी कि ये आशंकाएं निर्मूल भी हो सकती हैं। महाभारत के महानायक कृष्ण ने अर्जुन को भयमुक्त होने का ही ज्ञान दिया था। भय से मुक्ति - चाहे वह भावनात्मक हो , राजनीतिक , सामाजिक , या निजी स्वार्थ से जुड़ा हुआ -हमें सत्य के समीप ले जाती है। गीता के इस ज्ञानयोग को रचनाकार इस तरह स्वीकार करता है- एक स्थल पर आकर मन का डर छूट गया था। कुण्ठा , निराशा , रक्तपात , प्रतिशोध , विकृति , कुरूपता , अन्धापन- इनसे हिचकिचाना क्या, इन्हीं में तो सत्य के दुलर्भ कण छिपे हुए हैं , तो इनमें क्यों न निडर होकर धँसूँ ! इनमें धँस कर भी मैं मर नहीं सकता ! हम न मरैं, मरिहैं संसारा ! धर्मवीर भारती ने इस कृति के आरंभ में ही 'निजी सत्य' और 'व्यापक सत्य' का मसला उठाया है। मुक्तिबोध जिसे लेखक का भावसत्य कहते हैं। किन्तु लेखक का भावसत्य उसके वस्तुसत्य से अलग नहीं होता बल्कि वस्तुसत्य उस भावसत्य का हिस्सा होता है। लेखक के बिंब , विचार , भाषा, कल्पना, सब वस्तुजगत् का हिस्सा होते हैं। लेखक अपने वस्तुजगत के सत्य को तब अतिक्रमित करता है जब वह विकल्प पेश करता है। केवल वस्तुसत्य के चित्रण भर से रचना में जान नहीं आती। रचना तथ्यात्मक चित्रण का पुलिंदा बन जाएगी। देखना यह चाहिए कि इस रचना का संदर्भ क्या है। यह युध्द के बाद लिखी गई रचना है। कथावस्तु में भी भारती ने इसका ख्याल रखा है। महाभारत के अठारह दिन बीतने के बाद से कथा शुरू होती है। इससे यह भ्रम पैदा होता है कि द्वितीय विश्वयुध्द की विभीषिका इस रचना के केन्द्र में है। पर ऐसा नहीं है रचना का असल संदर्भ मिथकीय है। जब मिथकीय संदर्भ से रचना लिखी जाती है तो वह कई अर्थों को खोलती है। उसका केवल एक अर्थ नहीं लगाया जा सकता। वह दोनों तरफ चलती है। माक्र्स ने बहुत पहले 'जर्मन विचारधारा' में लिखा था कि जब हम मिथकीय संदर्भों में जाते हैं तो अतीत के प्रेतों के जागने की पूरी संभावना रहती है। अतीत का वातावरण अपने परिवेश के साथ आता है। अतीत के प्रेतों को बुलावा तब दिया जाता है जब बुर्जुआजी संकट में होता है। संकट के दौर में हम अतीत की तरफ भागते हैं। मैथिलीशरणगुप्त, प्रसाद, पंत ,निराला सभी अतीत का पुनरूत्पादन करते हैं। एकमात्र प्रेमचंद हैं जो संकट की घड़ी में भी अतीत के चित्रण की तरफ नहीं जाते। अतीत के चित्रण के पीछे यह भी एक कारण है कि यह वर्तमान समस्याओं से ध्यान हटाता है। थोड़ी देर के लिए राहत देता है। इस कृति में जो समस्याएँ उठाई गई हैं वे मूल्यों के विघटन से जुड़ी हैं, खासकर पुराने मूल्यों के। सामंती समाज के मूल्यों के सामने विनष्ट होने का संकट है। सत्य, निष्ठा, मर्यादा, नैतिकता, धर्म सभी विघटित हुए हैं और इन सबके ऊपर एक अंधायुग अवतरित हुआ है। यह एक अजब युध्द है। इसमें किसी की भी जय नहीं है। दोनों पक्षों को खोना ही खोना है। विवेक की हार हुई और भय का, ममता का अधिकारों का अंधापन जीत गया। जो कुछ शुभ था, सुंदर था, कोमलतम था वह हार गया। इस अंधायुग के अवतरित होने पर जिस नए राज्य को कायम होना था वह युधिष्ठिर का था। युधिष्ठिर की विजय के बारे में भारती की टिप्पणी है कि ' यह आत्मघाती विजय थी' ' और विजय क्या है?/ एक लंबा और धीमा/ और तिल-तिल कर फलीभूत / होनेवाला आत्मघात/ और पथ कोई भी शेष/ नहीं अब मेरे आगे! (पृ 119) जीत को लेकर कोई उत्साह नहीं है। भविष्य का कोई स्वप्न नहीं है युध्िष्ठिर के पास। अपने बन्धु-बानधवों और जनता के प्रति भी वह आस्थावान नहीं है। जिन्हें लेकर और जिनके कारण उसने युध्द किया उनके प्रति किसी तरह का विश्वास उसके मन में नहीं है। जिनके लिए युध्द किया है/उनको यह माना कि वे सब कुटुम्बी अज्ञानी हैं,/ जड़ हैं , दुर्विनीत हैं, या जर्जर हैं/ सिंहासन प्राप्त हुआ है जो / यह माना कि उसके पीछे अंधेपन की अटल परंपरा है;/ जो हैं प्रजाएँ / यह माना कि वे पिछले शासन के विकृत साँचे में हैं ढली हुई (पृ 106) मेरे ये कुटुम्बी अज्ञानी हैं , दुर्विनीत हैं ,/ या जर्जर हैं। (पृ 107) जनता की स्थिति है कि उन्हें अपने राजा पर भरोसा नहीं। राजा के कहने पर उसके लिए उन्होंने युध्द लड़ा है पर न तो उन्हें स्वयं वे अब तक जो करते आए हैं उस पर विश्वास है न राजा पर। शासक बदले /स्थितियाँ बिल्कुल वैसी हैं/इससे तो पहले के ही शासक अच्छे थे /अन्धे थे / लेकिन वे शासन तो करते थे/ये तो संतज्ञानी हैं/शासन करेंगे क्या/ जानते नहीं ये प्रकृति प्रजाओं की (पृ 109) सदियों की सोई , उत्पीड़न की अभ्यस्त जनता में आशा जगाना , किसी लक्ष्य के लिए तैयार करना शासक का काम है। नेतृत्व करना होता है प्रबुध्द वर्ग को । लेकिन यह वर्ग स्वयं की ही कुंठाओं का शिकार हो , अपनी ही दुनिया का अंधेरा उसे सर्वग्रासी लगे तो जनता का उस पर से विश्वास उठ जाएगा। मिथक में यह कथा है। युधिष्ठिर के अवसादग्रस्त होने , कृष्ण के शापग्रस्त होने, अश्वत्थामा की शापग्रस्त होकर युग-युग की भटकन यह सब कुछ मिथक में वर्णित है। यदि आधुनिक युग का एक प्रतिभाशाली रचनाकार मिथक दोहरा रहा है तो कोई बात नहीं। यह उसकी लेखकीय चयन की स्वतंत्रता है। लेकिन फिर इस चयन का मूल्यांकन किया जाएगा। इस रचना में जो समस्याएँ उठाई गई हैं , मूल्यों का विघटन, छल, अनैतिकता, अर्ध्दसत्य की जीत, मर्यादा का विखंडन, आस्थाओं की टकराहट और उनका टूटना आदि ये सभी पूँजीवाद की मूलभूत समस्याएँ हैं। इनका संकट हर युग में रहा है किन्तु पूँजीवाद में यह संकट गहरा हो जाता है। इनका विकृत और ध्वंसात्मक रूप सामने आता है। सवाल है कि इनसे निपटने का रास्ता क्या है? इनसे निपटने का रास्ता पूँजीवाद का बेहतर संस्करण नहीं है। या उसे ज्यादा मानवीय बनाना नहीं है बल्कि उसका विकल्प ढूँढना है। पूँजीवाद का विकल्प क्या हो सकता है इस पर सोचा जाना चाहिए। पँजीवाद का एक विकल्प साम्यवादी समाज है। रचना में विकल्प आशा जगाता है , जीने का मकसद तय करता है। देखना चाहिए कि रचना में लेखक विकल्प पेश करता है कि नहीं। करता है तो कौन-सा विकल्प है? अंधायुग में जो विकल्प है लेखक की ओर से वह एक मानवीय दुनिया का विकल्प है जिसमें मूल्य हों, मर्यादाएँ हों, सत्य हो और आस्था हो। मानवता के तमाम विभीषिकाओं के बावजूद जिंदा रहने का विश्वास है। लेकिन मानवता जिंदा किन आधारों पर रहेगी इसकी कोई परिकल्पना नहीं है। मनुष्य और मनुष्यता मरेंगे नहीं जिंदा रहेंगे इसका कोई ठोस भौतिक आधार बताने में रचनाकार असफल रहा है। रचनाकार युध्द के खिलाफ है। युध्द न हो इसके लिए क्या चीज जरूरी है ? इसके लिए शांति जरूरी है। शांति के चित्रण पर लेखक का जोर नहीं है। युध्द बुरा है, नुकसानदेह है, सभ्यता और संस्कृतियों को तोड़ता है, गलित सभ्यता पैदा होती है यह बतलाने पर जोर है। लेकिन युध्द रोका जाए , युध्द न हो इसके लिए जरूरी है कि वर्चस्व न हो। न्याय और समानता की कोई वैकल्पिक स्थिति हो। रचनाकार की तरफ से ऐसी किसी स्थिति के चित्रण का कोई प्रयास नहीं है। र्अमूत्ता चीजों के आख्यान से ठोस समस्याओं को संबोधित नहीं किया जा सकता। जिस समय यह रचना लिखी गई वह समय हमारे देश में भारत विभाजन के बाद का था। आजादी के सपने के फलित होने का था। आजादी लूली थी-लंगड़ी थी यह बाद की विवेचना की चीज थी। बड़ी बात यह थी कि हम आजाद हुए थे। साम्राज्यवादी शिकंजे से मुक्ति मिली थी। जनतंत्र की तरफ अग्रसर हुए । सबसे बड़ी जिम्मेदारी इस जनतंत्र को मजबूत करने की थी, पुख्ता करने की थी। जनतंत्र पुख्ता तब होता है जब सबके लिए समानता का अवसर हो। राजा अगर बना रहेगा तो जनतंत्र संभव नहीं है। विषमता बनी रहेगी, क्षोभ बना रहेगा, युध्द की स्थितियों बनी रहेंगी। साम्राज्यवादी ताकतों को फायदा पहुँचता रहेगा। रचनाकार ने इन प्रश्नों को छुआ तक नहीं है। यह ठीक है कि अतीत से कथा का चयन अतीत और वर्तमान के अंतर्विरोधों को सामने लानेवाला होता है। इस अर्थ में यह कृति आधुनिक कृति है। यह संदेह पैदा करती है, संशय पैदा करती है, पुराने मूल्यों के खोखलेपन को उजागर करती है। उन पर सवाल खड़े करती है।