सदियों के अन्याय से पीडि़त मनुष्य / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 18 अक्तूबर 2012
संजीव जायसवाल की फिल्म 'शूद्र' की प्रचार सामग्री श्याम-श्वेत रंग में है और प्रोमो से अनुमान होता है कि यह पारंपरिक तौर पर निचले वर्ग की जातियां हैं, जिन्हें महात्मा गांधी हरिजन कहते थे और आजकल दलित कहा जा रहा है। जातिप्रथा और उससे जन्मीं कुरीतियां सबसे पुरानी और सबसे अधिक व्यापक प्रभाव रखती हैं और मनुष्य के मात्र मनुष्य होने की गरिमा को खंडित करती हैं। यह अनुमान है कि यह फिल्म जाति के नाम पर की गई बर्बरता को प्रस्तुत कर सकती है। इस कुप्रथा पर भारत में अनेक महान फिल्में बनी हैं। अशोक कुमार का प्रवेश भी 'अछूत कन्या' से हुआ था और देवकी बोस की महान 'चंडीदास' भी एक धोबन और एक ब्राह्मण की प्रेमकथा है। गिरीश कर्नाड की 'संस्कार' और मुंशी प्रेमचंद की कथा पर आधारित सत्यजीत राय की 'सद्गति' भी महान रचनाए हैं। बिमल रॉय की नूतन अभिनीत 'सुजाता' भी एक अत्यंत महान कृति है। आज के असहिष्णु कालखंड में 'अछूत कन्या', 'चंडीदास' और 'सुजाता' नहीं बनाई जा सकती।
शबाना आजमी और नसीरुद्दीन शाह अभिनीत 'पार' भी मील का पत्थर है। डोम जाति के पात्र की भूमिका में शत्रुघ्न सिन्हा ने भी एक फिल्म की है। बहरहाल, कल प्रदर्शित होने जा रही 'शूद्र' देखी नहीं है, परंतु प्रचार सामग्री के आधार पर अनुमान होता है कि ज्वलंत मुद्दा उठाया गया है। आज माओवादी इसी शोषित वर्ग के दम पर तीव्र गति से अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ा रहे हैं। पैरी एंडरसन की हाल ही में प्रकाशित 'गांधी सेंटर स्टेज' नामक रचना में कुछ इस आशय की बात वर्र्णित है कि अंग्रेजों ने होमरूल योजना के तहत कुछ चुनाव क्षेत्र मुसलमानों तथा कुछ हरिजनों के लिए आरक्षित करना चाहा तो गांधीजी ने इसके विरोध में अनशन किया था कि अंग्रेजों की इस नीति से देश में विभाजन होगा। यहां तक ठीक है, परंतु एंडरसन का यह विचार असत्य है कि गांधीजी को भय था कि मुसलमान और हरिजन मिलकर हिंदुओं को मायनॉरिटी बनाकर सत्ता प्राप्त कर लेंगे। गांधीजी की सारी चिंता शोषित और सदियों से अन्याय भोगती जातियों के प्रति मानवीय आधार पर थी और किसी तरह का सत्ता समीकरण उनके मन में नहीं था।
यह जरूर प्रसन्नता की बात है कि इंग्लैंड में आज भी गांधीजी के शस्त्र साधन पर शोध किया जा रहा है। जिस ब्रिटिश साम्राज्य में कभी सूर्य अस्त नहीं होता था, उस व्यापक उपनिवेशवाद से गांधीजी ने मनुष्य को मुक्त किया। आज भी अंग्रेज समझने का प्रयास कर रहे हैं कि बकौल चर्चिल 'एक अधनंगे फकीर' से वे कैसे पराजित हुए। वक्त के साथ गांधी का रहस्य गहरा होता जा रहा है। इस बात की प्रशंसा करनी होगी कि अंग्रेज हर अजूबे और अभूतपूर्व को समझने का प्रयास करते हैं।
धर्मनिरपेक्षता, समानता, स्वतंत्रता और भाईचारा ऐसे मानवीय मूल्य हैं, जिनके लिए अनेक महान लोगों ने ताउम्र संघर्ष किया है और उपनिवेशवाद तथा सामंतवाद इन मूल्यों के विरोधी रहे हैं, परंतु सबसे बड़ा संकट धर्म के नाम पर उसके कृत्रिम हव्वे द्वारा किया गया है। पाप और पुण्य की अवधारणा ने अन्याय किया है, मसलन अपंगता को पिछले जन्म के पाप के कारण होना बताया जाना गलत है। स्वर्ग या नर्क मनुष्य धरती पर ही रचता है।
किसी भी व्यक्ति को अछूत मानना मानवीय धर्म के विपरीत है। यह केवल भारत की समस्या नहीं है, अमेरिका में रेड इंडियंस ने अन्याय सहा, श्वेत-अश्वेत के भेद ने वहां भी अनर्थ किया है। अंतर केवल यह है कि भारत में यह अत्यंत व्यापक है और समय के साथ इसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ है, क्योंकि यहां धर्म के ताने-बाने में इसे बुना गया है और बकौल मिथुन द्वारा 'ओह माय गॉड' में अदा किए गए संवाद के धर्म का नशा अफीम की तरह है, जिसकी लत कभी नहीं छूटती।
दलित वर्ग से अनेक कवि और लेखक आए हैं, जिनमें धूमिल की एक रचना इस तरह है- 'न कोई छोटा है न बड़ा/ मेरी नजर में हर आदमी एक जूता है/जो मरम्मत के लिए पड़ा है।' पंजाबी कवि पाश की पंक्तियां हैं- 'मैं घास हूं। मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊंगा।' धूमिल की पंक्तियां- 'लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो। उस घोड़े से पूछो,जिसके मुंह में लगाम है।'