सदियों तक वे हमारे मार्गदर्शक बने रहेंगे / गिरीश तिवारी गिर्दा
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लेखक:भास्कर उप्रेती
गिर्दा व हेम पांडे के आघात साथ-साथ आये। दोनों घटनाएँ सर से आसमान गायब होने व पैरों से धरती खिसक जाने जैसी थीं। दोनों से वैचारिक व आत्मिक अवलंबन के चलते सोच व बोल सकने की शक्ति कुन्द सी हो गई। जबरिया कुछ लिखने का प्रयास रस्मअदायगी हो जाती। लेकिन बहुतों की तरह मुझे भी उन जीवित क्षणों की स्मृति साझी करने का मन हो रहा है। फिराक ने कहा था,‘सदियाँ लगेंगी हमें भुलाने में’। उसके उलट ये कहा जा सकता है कि सदियों तक गिर्दा हमारे समाज के मार्गदर्शक बने रहेंगे।
कइयों को गिर्दा प्रसंग में हेम का जिक्र अटपटा सा लग सकता है। लेकिन मेरे लिये दोनों एक ही उद्देश्य के सिपाही थे। कम उम्र में हेम ने जो किया वह ‘गिर्दा दर्शन’ को साकार करता है। छात्र राजनीति के उपरान्त हेम का अधिक समय किसानों के बीच बीता। उसने एक-एक दिन को वर्ष मान कर काम किया।
हेम से मुझे प्रगतिशील सोच मिला, गिर्दा से हृदय को विस्तार। ठीक-ठीक याद नहीं कब, लेकिन पिथौरागढ़ में हमें पहले-पहले हेम ने ही गिर्दा नामक व्यक्ति के बारे में बताया। हम सोचते थे परिवर्तन के गीतों को पहाड़ी में नहीं गाया जा सकता। मन में यही पूर्वाग्रह था कि बड़ी बातें हिन्दी में ही कही जा सकती हैं। गिर्दा के गीत जुबान पर चढ़ने से यह भ्रम दूर हुआ। मुझे याद नहीं, गिर्दा को हेम ने कभी ठीक-ठीक अपना परिचय दिया हो। वह हमेशा अपने परिचय से बचता। उसका बस चलता तो वह अपना नाम डिजिट में 32 या 99 बताता। निर्वेयक्तिता क्या है कोई उससे सीखे। हेम के जाने के बाद कई ठीक-ठीक लोगों ने मुझसे पूछा, क्या हमसे मिला होगा ? सच तो ये था कि हेम ने हमारे लिये ऐसे लोगों की एंथेलोजी बनायी थी। मसलन कौन किस हुनर का व्यक्ति है। नैनीताल आने पर गिर्दा को मिलने का सुझाव देते हुए उसने कहा,‘‘उनसे मिलोगे तो बड़ा मजा आयेगा।’’
फिर तो नैनीताल प्रवास के पाँच-छः साल! कोई ऐसा दिन रहा हो जब उनसे न मिला होऊँ ? जब घर व समाज में हम अपने विद्रोही विचारों के कारण देखे जाते थे, गिर्दा ही थे जो एक बुजुर्ग के रूप में हमारी भावनात्मक तुष्टि करते। मुंबई रेजिस्टेंस 2004, कलकत्ता कन्वेंशन 2006, नैनीताल टु नंदप्रयाग पदयात्रा 2008 आदि अनेकानेक अभियानों में जाते व लौटते हुए हम उनसे ऐसे मिलते जैसे वह हम सबों की काशी-काबा हों। जाते वक्त इरादा पूछते, लौटने पर अनुभव। अपने घरों शायद ही हम वे अनूठे अनुभव साझा कर पाए, जैसे उनसे सहजता से हो जाते।
14 अगस्त 2010 की शाम जब गिर्दा को दून रेलवे स्टेशन पर विदा करने पहुँचा तो अपनी बर्थ पर बैठे गिर्दा ने जोरों से हाथ जकड़ लिए। दो सवाल साथ पूछे। बब्बा सरकारी मुशायरे में नहीं आ पाए ? सुनीता नहीं आ पायी मिलने, कैसी है ? मैंने बताया, ऑफिस का काम निपटा कर सीधा ही चला आ रहा हूँ। बस मुशायरे वाली खबर डाल कर। (स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर यह उनकी अंतिम दून यात्रा थी।)
मैं समझ गया था, गिर्दा ने जिस तरह ‘मुशायरे’ की बात को ‘सरकारी’ लगा कर कहा, उनके अंदर एक तरह की कटुता थी। इसीलिये कहने लगे, भास्कर तुम्हें इस बात पर जरूर अपनी टिप्पणी करनी चाहिए कि इन कार्यक्रमों में आया जाना चाहिये या नहीं। वे खुद की बात भी अक्सर प्लूरल नाउन में ही करते थे। उनकी अपनी धारणा थी कि उन्हें सार्वजनिक कार्यक्रमों में बतौर कवि भाग लेना चाहिये। अपनी रचनाओं की जनता की प्रयोगशाला में अग्निपरीक्षा करायी जानी चाहिये। मोहग्रस्तता से कलाकार का पतन होता है।
मैंने साथ आए हेमंत दा से प्रसंग बदलते हुए गिर्दा के स्वास्थ्य की चर्चा करनी चाही। इस पर गिर्दा बिगड़ से गये। लेकिन अपना नैसर्गिक लाड़ न खोते हुए बोले, छोड़ यार स्वास्थ्य की बात। दूसरे स्वास्थ्य की चर्चा करते हैं।
अंतिम दिनों में उनसे जितनी भी मुलाकातें रहीं, जरूर पूछते, ‘कैसे हैं प्रशांत ?’ मैंने प्रशांत राही को उन्हीं के माध्यम से जाना, जो एक समय मेरे नेता बने। प्रशांत जी को मैं महेश के नाम से जानता था, लेकिन गिर्दा के लिये वे दो-तीन दशकों से परिचित ही नहीं, आत्मीय भी रहे। महाराष्ट्र के सांगली गाँव से निकले इस प्रखर मेधावी, देशभक्त व जनता के प्रति समर्पित योद्धा के लिये उनके मन में श्रद्धा व प्रेम का भाव था। जब राही पुलिस की साजिश का शिकार हुए तो उन्होंने ही मुझे उनके व्यक्तित्व के बारे में विस्तार से बताया। आईआईटी करने के बाद एक बड़ी कारपोरेट कंपनी में उच्च पद छोड़ कर जब उसने जनता की सेवा का प्रण लिया तो वह कभी पीछे नहीं मुड़ा। पहले पत्रकार के रूप में देहरादून से एक अंग्रेजी अखबार के लिये लिखा। इसी दौरान उत्तराखंड आंदोलन को एक वैचारिक दृष्टि देने का प्रयास, रोमांटिक आंदोलन के दौर में एक अपवाद सरीखा ही था, जब लोग बाढ़ की मानिंद बहे जा रहे थे। इसी अंधभक्ति का खजाना राज्य बनने के बाद भुगतना पड़ा है। गिर्दा ने बताया कि प्रशांत का अनेक वामपंथियों की भाँति आंदोलन में तटस्थ रहने की बजाय सकर्मक योगदान रहा। उन्होंने आंदोलन में भाग ही नहीं लिया, उसे अपनी दृष्टि से सँवारा भी। मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि गिर्दा ने माओवादी कार्यकर्ताओं के दमन के समय कई जनपरस्त बुद्धिजीवियों को बोलने के लिये उकसाया और जो नहीं बोले उनसे हताश भी महसूस किया। इस विकट दौर में गिर्दा ही थे, जो तमाम उत्पीडि़त कार्यकर्ताओं को नैतिक बल देते रहे। आंदोलन की गलतियों की कटु आलोचना की बजाय उन्होंने उसका सकारात्मक मूल्यांकन किया। गलतियों के बारे में वह कहते, ‘आंदोलन मन माफिक हो जायें, यह जरूरी नहीं, बता दूँ। समाज में कई धाराएँ बह रही हैं, कई तरह का करंट दौड़ रहा है। हम भी उनमें से एक हैं।’ लेकिन, ‘अगर नब्ज पकड़ में आ गई तो उलट-पलट में भी टेम नहीं लगेगा।’
स्पष्टतः अपनी वैचारिक पक्षधरता जाहिर करने से वे बचते रहे। इसका कारण, वह आंदोलनकारियों से लेकर भाँति-भाँति के वामपंथियों के बीच एक पुल की तरह थे। निजी मुलाकातों में किसी धारा की वे आलोचना भी नहीं करते। समूचे संघर्ष को वे एक ही आंदोलन मानते। लेकिन इस बात में कोई शक नहीं कि वे विश्लेषण और व्यवहार में कामरेड ही रहे। खुली या भूमिगत वामपंथी पार्टियों के सीसी मेंबर हों, सामान्य कार्यकर्ता या डाँठ पर घाम तापता नाव चलाने वाला या नेपाल मजदूर, सभी को समदृष्टि से उन्होंने देखा।
2005 में जब हमने पी.एस.एफ. की ओर से तल्लीताल के कैंट के स्कूल में सांस्कृतिक वर्कशॉप कराई तो डॉ. कपिलेश भोज ने उनकी मौजूदगी में कहा था, ‘‘गिर्दा हमारे सांस्कृतिक आन्दोलन के उच्चतम शिखर जरूर हैं, लेकिन समय आ गया है कि उनसे बड़ा शिखर बनें। क्योंकि जनता की मुक्ति अभी नहीं हुई है।’’ हमें लगा कि गिर्दा का यह मूल्यांकन कुछ अधिक निर्मम हो गया। बाहर बर्फबारी हो रही थी। गिर्दा अस्वस्थ होने के बावजूद कार्यशाला में आये थे। मैं और दूसरे साथी उन्हें घर तक छोड़ने गये। किसी के पास वाहन नहीं था, सो पैदल ही कैलाखान तक जाना था। मैंने कहा, शायद हमें डॉ. भोज के विश्लेषण को परखना होगा। गिर्दा ने प्रतिवाद करते हुए कहा, नहीं। मोहन (कपिलेश को वे इसी नाम से पुकारते थे) सच्ची बात बोलता है। व्यक्ति को देख कर मूल्यांकन होना भी नहीं चाहिये। जनता की दशा ही एकमात्र पैमाना है। जब तक जनता की पीड़ा दूर नहीं होती, हमारी ‘झखमराई’ किस काम की ? मेरा शरीर साथ देता तो मैं नए शिखर को जरूर छूना चाहता। खैर, संघर्ष के तनावों से ‘जरूरत का कवि’ निकल ही आएगा। शिखर कवि की यह आत्मस्वीकारोक्ति हमारे लिये नई सीख थी। तमाम प्रशंसकों से घिरे होने के बावजूद गिर्दा तीसरी आँख रखते थे।
जब मैं एक दैनिक समाचार पत्र के लिए नैनीताल से लिखने लगा तो गिर्दा अपने रचनातमक आलोड़न के बीच मुझे फोन घनघना दिया करते। बब्बा, अभी पवन की दुकान पर पहुँचा हूँ। तुम मुझे डाक्टर की दुकान (तल्लीताल इन्द्रा फार्मेसी का भीतरी कमरा) पर मिलो। कुछ ऐंठन है। दरअसल, उन्होंने कुछ बुना होता और वे श्रोता के रूप में मुझसे इस पर कुछ राय देने को कहते। मैं उनके इस अनुरोध से झेंप जाता, लेकिन वे ईमानदारी से विनय करते। नदी बचाओ आंदोलन के लिए उनके कई गीतों में मैं उनकी रचनाधर्मिता में श्रोता के रूप में शरीक रहा। शब्दों का चयन, लोक भावना, जनता का वैचारिक स्तर व राजनैतिक दृष्टि- चारों कोणों से ये रचनाएँ कारगर सिद्ध हुईं। शरीर की असहनीय पीड़ा के बीच उनका यह रचनाकर्म गजब की मिसाल था। कौन कवि अपनी रचनाओं को दूसरे प्रयोग के लिए खोलना चाहता है ? लेकिन उनके लिए अपनी रचनाएँ विशुद्ध रूप से सामाजिक उत्पाद थीं। उन्होंने अपनी कविताओं को कभी भी रहस्य का आवरण नहीं पहनाया। इस दौर में उन्होंने ‘कोसी कहती है’ जैसी श्रेष्ठ रचना दी, जो अब नदी संघर्षों में जगह-जगह गाई जा रही है। बेतालघाट के ऊँचाकोट गाँव में इसकी एक पंक्ति ‘जतकाला नऊँछी, मेरि कोसि हरै गे कोसि, पितर तरूँछी, आँचुई भरूँछी, भै मुखडि़ देखूँछी, मेरि कोसि हरै गे कोसि’ गाई जा रही थी तो एक वृद्ध महिला के आँसू छलक आए। नदी व आदमी के रिश्तों की मार्मिक अभिव्यक्ति वही कवि कर सकता है, जिसने खुद इस पीड़ा को अपने हलक से गुजारा हो।
आंध्र के लोकप्रिय कवि गदर के साथ जुगलबंदी की इच्छा भी उन्होंने प्रकट की थी। लेकिन उत्तराखंड में आंदोलन का ग्राफ नीचे आने से कई परियोजनाएँ धरी रह गईं। श्रोता गिर्दा की पहली चिन्ता होते। फैज की कविता ‘हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा माँगेंगे’ का प्रसंग उन्होंने सुनाया था। वह रानीखेत व चौखुटिया में लीसा श्रमिकों के आंदोलन में थे। वहाँ उन्होंने फैज की इन चर्चित पंक्तियों को गाया तो जनता की आँखों में वो चमक नहीं दिखाई दी, जो दिखनी चाहिये थी। सो उसी समय प्रण किया कि इसका लोक संस्करण तैयार जायेगा। यह रचना ‘हम ओड़, बारुडि़, ल्वार, कुल्लि कभाडि़’ के रूप में सामने आई।
एम.ए. (अंग्रेजी) का डेजरटेशन जमा करने जा रहा था तो ख्याल आया कि गिर्दा को क्यों न दिखा आऊँ ? मैंने अंग्रेजी कवि ‘वाल्ट विटमैन’ के सौंदर्यशास्त्र व जनधर्मिता पर इसे तैयार किया था। गिर्दा चौंक कर बोले, ‘‘यार, तू किस भुस्स आदमी की सलाह माँगने आ गया।’’ मैंने बताया, यार गिर्दा ये विटमैन भी तुम्हारी तरह का भुस्स लगता है। मैंने उन्हें कुछ अंश सुना कर यह बात समझानी चाही। उसकी रचना ‘लीव्स ऑफ ग्रास’ को संभ्रांत आलोचकों ने ‘एक भदेस की अभिव्यक्ति’ कहा, जिसे बाद में ‘इपिक ऑफ अमेरिका’ कहना पड़ा। ‘फॉर एवरी एटम बिलोंगिंग टु मी एज गुड बिलोंग्स टु यू’, ‘आई सिंग विद दि सिंगर, आई ड्रिंक विद दि ड्रिंकर’’, ‘आई हियर इट वाज चार्ज्ड अगेंस्ट मी’ आदि कवितायें सुनने के बाद उन्होंने पूछा, ‘इसका टेम (जीवन काल) कब का रहा होगा ? मैंने बताया, 1819 में जन्मा था, मजदूर का बेटा था। गिर्दा कहने लगे, ओह यह तो हमारा पितर निकला।
इसके बाद गिर्दा ने जो व्याख्यान दिया, वो मेरे जीवन का सबसे रोचक व्याख्यान है। उन्होंने मुझे एक-एक कर गुमानी, गौर्दा, चारु चन्द्र पांडे, मोहन उप्रेती, ब्रजेन्द्र लाल शाह, मोहन सिंह रीठागाड़ी, हरदा सूरदास, झूसिया दमाई आदि दसियों कवियों पर सिलसिलेवार बताया। अपने गुरु चारु चन्द्र पांडे की कविता ‘म्यार सिराँण ह्यूँ हिमाचल, म्यार बगल काली की कलकल, म्यार नसन में देवग्रगा, म्यार हँसन मोत्यूँ की छलबल’ सुनाते हुए वे इतने डूब गये कि लगा वे रंगमंच पर प्रस्तुति दे रहे हों। जनता के विचार के प्रति वे जितने सजग थे, उतने ही लोक मुहावरे के प्रति भी। मैंने डेजरटेशन में कई नई चीजें जोड़ीं, जो साल का सर्वश्रेष्ठ डेजरटेशन साबित हुआ। मेरी एक शिक्षिका ने कहा, तुम मेरे अंडर पीएचडी करना। इसी काम को विस्तार दे देंगे।
गिर्दा की शिक्षा का कोई अंत नहीं है। लेकिन उन्हें उन्हीं के दो आँखर लिख कर समाप्त करना चाहूँगा: ‘याद धरौ अगास बै नि हुलरौ क्वे, यै रण रण कैंणीं अघिल बढ़ाल, भूड़ फानी ऊँण सितिल नी हूनो, जो जालो भूड़ में वी फानी पाल।’ (याद रहे आकाश से नहीं टपकता है रणवीर कभी, ये धरती है, धरती में रण ही रण को राह दिखाता है, जो समरभूमि में उतरेगा, वो ही रणवीर कहाता है।)
नैतीताल समाचार से साभार