सदी का महानायक उर्फ़ कूल-कूल तेल का सैल्समेन / पंकज सुबीर
"ये तुम्हारा मोबाइल भी तो पुराने मॉडल का है, इसे कब बदलोगे?" तीनों अभी भी उसी प्रकार से मुझे घेरे बैठे थे। अबकी बार सचिन ने मेरे मोबाइल की ओर इशारा करते हुए ये प्रश्न किया था। "पुराना मॉडल...? अभी पिछले साल ही तो लिया है। जब लिया था तब सबसे लेटेस्ट माडल का था और तुम कह रहे हो कि पुराने मॉडल का है। कुछ जानते भी हो मोबाइल के बारे में?" मैंने ग़ुस्से से झल्लाते हुए उत्तर दिया।
"हम नहीं जानते? हमसे पूछता है? साले जानता भी है किससे पूछ रहा है?" मेरे उत्तर के प्रतिउत्तर में शारूख बोला था। मगर सचिन ने उसको हाथ के इशारे से शांत कर दिया।
"पिछले साल लिया था न तुमने, तो क्या उसके बाद कम्पनी में ताले लग गए थे? अरे भई कम्पनी तो बंद नहीं हुई ना? तुम्हारे इस मॉडल का नंबर क्या है बताओ?" सचिन ने कुछ समझाइश भरे स्वर में पूछा।
"डी सिक्सटी थ्री" मैंने रोब भरे स्वर में उत्तर दिया।
"बतााओ? डी सिक्सटी थ्री को लेटेस्ट बता रहे हो। पता भी है सिक्स्टी वाली सीरीज़ तो छोड़ो इसके बाद की सेवनटी भी बंद हो चुकी है। अब तो एट्टी और नाइनटी सीरीज चल रही है।" सचिन ने कुछ उपहास वाले स्वर में कहा।
"जानता हूँ देखी है मैंने दोनों सीरीज, कुछ भी नया नहीं है उनमें, सब कुछ यही है।" मैंने अपना ज्ञान प्रदर्शित करने के लिए कहा। "कैसे नहीं है कुछ भी? तू जानता भी है कुछ? पता है तेरे मोबाइल में तो दो एम पी का कैमरा भी नहीं है और उसमें फाइव एम पी आ गया है। अब क्या जान लेगा तू कम्पनी की?" शारुख फिर से उखड़ गया।
"तो ...? मैं नहीं करता कैमरा यूज़। मुझे तो मोबाइल केवल बात करने के लिए चाहिए।" मैंने झल्लाते हुए उत्तर दिया।
"तो तेरा मतलब है हम भूखे मरें, है ना? अरे क्यों नहीं यूज़ करता कैमरे का? तेरी क्या प्रेमिका नहीं है कोई। है तो वह कल्लो काली आंखों वाली। उसके साथ कर कैमरे का यूज़, बना उसके गर्मा गर्म एमएमएस और भेज दोस्तों को।" शारुख के इतना कहते ही मैं भन्ना गया और जूता उठा कर मारने लपका। मेरे लपकते ही तीनों हवा में घुल गए।
आज धोनी कुछ भी नहीं बोला था। पता नहीं क्यों चुपचाप बैठा रहा पूरे समय। हालांकि ऐसा होता नहीं है। बल्कि सबसे ज़्यादा तो वही बोलता है। तीनों हमेशा साथ ही आते हैं। आते हैं या मिलते है्रं। पिछली बार भी ये तीनों पार्क में मिले थे। मैं शिल्पा के साथ पार्क की बैंच पर बैठा पापकार्न टूंग रहा था कि अचानक ही तीनों हवा में से प्रकट हो गए थे और देखते ही देखते धड़-धड़ करके शिल्पा में घुस गए थे। हालंकि ऐसी कोई धड़-धड़ की आवाज़ नहीं आई थी लेकिन फिर भी जिस प्रकार ये घुसे थे उसे धड़धड़ा कर घुसना ही कह सकते हैं। शिल्पा के अंदर इन तीनों के घुस जाने का ऊपर से कोई असर नहीं दिखा। हालांकि मैं इंतज़ार कर रहा था कि टी.वी. पर देखे गए हॉरर शो की तरह यहाँ पर भी वैसा ही कुछ होगा। शिल्पा कि आंखें सफेद हो जाएंगीं और उसकी आवाज़ बदल जाएगी। लेकिन वैसा कुछ हुआ नहीं। शिल्पा उसी प्रकार पापकार्न टूंगती रही। जब पापकार्न के पैकेट में से आख़िरी पापकार्न भी शहीद हो गया तो उसने मुझे मुस्कुरा कर देखा। हालांकि ऐसा भी नहीं था कि पापकार्न खाने के दौरान उसने मुस्कुरा कर नहीं देखा था लेकिन पापकार्न ख़त्म होने के बाद उसकी मुस्कुराहट कुछ ज़्यादा ही खिली हुई थी।
"चलो अब कोल्ड ड्रिंक पिलवाओ।" कुछ लड़ियाते हुए उसने कहा।
शिल्पा को जितना जाना है उससे ये तो तय था कि भले ही लड़ियाया जा रहा है, किन्तु फिर भी, दिया तो आदेश ही जा रहा है।
"कोल्ड ड्रिंक ...? क्या वही झाग वाला पानी? चलो आज तुमको गन्ने का रस पिलवाता हूँ। ताज़गी देने वाला नींबू और काला नमक युक्त गन्ने का रस ...टिंग टिंग टडंग।" मैंने कुछ मसखरी वाले अंदाज़ में कहा।
"गन्ने का रस...? क्या होता जा रहा तुमको। कुछ सोचते तो हो नहीं, बस बोल देते हो। पता भी है कितना अनहाइजेनिकली तैयार किया जाता है उसे? छिः! मैं तो नहीं पीऊँ कभी।" कुछ विचित्र-सा टेढ़ा मुंह बनाते हुए कहा था उसने। मैंने उसकी आंखों में देखा तो तीनों वहीं बैठे थे और खिलखिला रहे थे।
"और तुम्हारा ये कोल्ड ड्रिंक? ये क्या होता है? कुछ नहीं होता इसमें।" मैंने झल्ला कर कहा।
"न होता हो कुछ भी, पर एक बात तो होती है।" शिल्पा ने कहा।
"क्या ...?" मैंने पूछा।
"थ्रिल होता है सेन्सेशन होता है और तुम्हारा गन्ने का रस? गिलास में भरकर पी लो नींबू निचोड़ कर। हाउ डिस्गस्टिंग ...! तुमको पीना है तो पी लो तुम्हारा रस, मैं नहीं पीने वाली।" शिल्पा ने मुंह बनाते हुए कहा।
कुछ देर बाद हम दोनों ही पार्क की उस बैंच पर बैठे शिल्पा कि पसंद का कोला सुड़क रहे थे। हालंकि ये बात भी ग़लत है कि हम दोनों सुड़क रहे थे। दरअसल में तो केवल मैं ही स्ट्रा लगा कर सुड़क रहा था शिल्पा तो सीधे ही बोतल से सर उठा-उठा कर पी रही थी। इधर बोतल ख़त्म हुई और उधर तीनों निकल कर भाग गए।
शिल्पा उसके बाद बिल्कुल सामान्य हो गई जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। शिल्पा को मैं बहुत प्यार करता हूँ और यदि मुहावरे की भाषा में बात की जाए तो उसके लिए आसमान के तारे भी तोड़कर ला सकता हूँ। शायद ये कहावत मुझसे ज़ियादह बाज़ार को पता है। न केवल पता है बल्कि वह इस कहावत का अर्थ भी भलि भांति जानता है। बाज़ार ने धीरे-धीरे उन सारी कहावतों और मुहावरों के अर्थ सीख लिये हैं जो प्यार से, प्रेम से, मुहब्बत से जुड़ी हुई कहावतें हैं। तभी तो बाज़ार धीरे-धीरे पसर गया है उन सारे रिश्तों में जिनके अंदर कहीं न कहीं ये तथाकथित प्रेम, प्यार, मुहब्बत है। आप जैसे ही अपनी प्रेमिका से कहते हैं मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ, तुम्हारे लिये आसमान के तारे भी तोड़ कर ला सकता हूँ वैसे ही बाज़ार टपक पड़ता है। आपकी आंखों में आंखें डालकर कहता है "कोई ज़ुरूरत नहीं है आसमान पर जाने की और तारे-शारे तोड़ कर लाने की। ये हमारा लेटेस्ट मोबाइल देखो इसकी क़ीमत जानते हो? तीस हज़ार का है, आज की तारीख़ में ये किसी आसमाने के तारे से कम नहीं है। ये ख़रीदो और दे दो उसको। उसके लिये ये किसी आसमान के तारे से कम नहीं होगा।" बाज़ार की एक और विशेषता ये है कि वह चाहे कितनी भी लम्बी बात करे पर हाँफता नहीं है।
"ये कौन-सी चड्डी पहनते हो तुम?" एन दुकान के सामने धोनी ने रोक कर मुझसे पूछा।
"चड्डी ...?" मैंने अचकचाकर प्रतिप्रश्न किया।
"कच्छा, चड्डी, अंडरवियर और पर्यायवाची गिनवाऊँ कि बस?" कुछ झुंझलाकर उत्तर दिया था उसने।
"वही पहनता हूँ जो पहनना चाहिए पर तुमको इससे क्या? और तुमने कब देखी मेरी चड्डी?" मैंने गुस्से में कहा।
"अभी जब तुम झुक कर जूते की लेस ठीक कर रहे थे, तब तुम्हारी शर्ट ऊपर हो जाने के कारण तुम्हारी पैट में से देखा था तुम्हारी चड्डी का ब्राँड। शर्म नहीं आती।" धोनी ने कहा
"क्यों भाई शर्म क्यों आएगी। शर्म तो तब आए जब में बिना पैंट के केवल कच्छे में घूम रहा हूँ।" मैंने उत्तर दिया।
"कच्छे में घूमना कोई शर्म की बात नहीं है बस कच्छा ब्राँडेड होना चाहिए और अगर कच्छे में ना भी घूम पाओ तो कम से कम पैंट को इतना नीचे खिसका कर पहनो कि तुम्हारी चड्डी का ब्राँड दिखाई दे। ये केवल चड्डी नहीं है, ये तुम्हारा स्टेटस समझे?" धोनी ने कुछ डाँटने वाले लहज़े में कहा।
"कितने में आएगा ये स्टेटस छाप कच्छा?" मैंने पूछा।
"दो सौ रुपये में।" धोनी ने लापरवाही से उत्तर दिया।
"दो सौ?" मेरी आंखें चोड़ी हो गईं "जानते हो दो सौ में तो में पैंट, शर्ट, कच्छा, बनियान सब ख़रीद लूँ। बीस रुपये के कच्छे के दो सौ रूपये क्यों दूँ।" मैंने कहा।
"इसलिये दो तकि शिल्पा हमेशा तुम्हारी ही रहे।" धोनी ने कुटिल मुस्कुराहट के साथ उत्तर दिया।
"कच्छे से शिल्पा का क्या लेना देना?" मैंने हैरत के साथ पूछा।
"कच्छे से ही लेना देना है। ग़नीमत है कि आज तुम्हारी पैंट से झाँकते इस कच्छे के लेबल को मैंने ही पढ़ा है। किसी दिन शिल्पा ने पढ़ लिया ना तो समझ लेना कि हो गयी छुट्टी।" धोनी ने कहा।
अब में कुछ घबरा चुका था मेरी आंखों के सामने शिल्पा का सलोना चेहरा घूम रहा था। शायद मेरी ज़बान सूख रही थी और माथे पर पसीना भी चुहचुहा रहा था। धोनी ने मेरी शर्ट ऊपर की और पैंट में हाथ डाल कर मेरा कच्छा इस प्रकार ऊपर खींचा कि वह पैंट से ऊपर निकल आया। "ये कच्छा पहनते हो तुम? बीस रुपये का पटरी पर बिकने वाला पुराने फ़ैशन का जांघों तक आने वाला। डूब मरो चुल्लू भर पानी में।" हिकारत के साथ कहा उसने।
"पर कच्छा तो वैसे भी पैट के अंदर रहता है न?" मैंने एक बार फिर प्रयास किया।
"हाँ रहता है, पर कभी तो बाहर आता है? और चलो ना भी आए। अगर कभी शिल्पा ही तुम्हारे घर आ गई और रस्सी पर सूखता हुआ तुम्हारा ये बीस रुपट्टी वाला कच्छा देख लिया तो? अगले दिन तक भी नहीं चलने वाली तुम्हारी प्रेम कहानी, समझे।" धोनी ने फिर डपटते हुए कहा। मैं चुप रहा, चुप रहा, चुप रहा। धोनी था और मैं, ज़मीन थी और आसमान, चड्डी थी और बनियान, आसमान धीरे-धीरे बनियान बनता जा रहा था और ज़मीन एक ब्राँडेड चड्डी में बदल रही थी। न भूख थी, न ग़रीबी, न और कोई प्रश्न, हर कोई ब्राँडेड चड्डी में समाता जा रहा था।
कुछ देर बाद जब मैं दुकान से निकला तो मेरे हाथ में एक पैकेट था जिसमें एक जोड़ी ब्राँडेड चड्डियाँ रखी थीं। चड्डी भी लेटेस्ट पर लेटेस्ट थी। उसमें कुछ भी नहीं था केवल एक इलास्टिक थी जिस पर कंपनी का नाम लिखा था। इस इलास्टिक पर एक मात्र दो इंच की कपडे की पट्टी एक ओर से प्रारंभ होकर दूसरी ओर जुड़ी थी। यही दो इंच कपड़े की पट्टी आगे के एक और पीछे के एक गोपन विसर्जन अंग को ढंकते हुए गुज़रेगी, तब, जब इस इलास्टिक को कमर में पहना जाएगा। इसे ख़रीदते समय मैंने दुकानदार से पूछा भी था कि ये पट्टी कुछ ज़ियादह संकरी नहीं है। दुकानदार ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया था नहीं तो जितनी जगह को वास्तव में ढंकना चहिये उतने के लिये तो पर्याप्त है। इसके बाद कुछ और पूछने की गुंजाइश ही नहीं थी, मैंने उसी इलास्टिक को पैक करवा लिया था। बार-बार कच्छे की जगह इलास्टिक शब्द का प्रयोग इसलिये, क्योंकि वास्तव में तो वह केवल इलास्टिक ही थी कच्छा उसमें था ही कब। एक इंच चौडी इलास्टिक और दो इंच चोड़ी कपड़े की पट्टी, अब आप इसे कच्छा समझो तो समझा करो।
दोनों चीज़ें ख़रीद कर जब घर लौट रहा था तो एक जगह शारुख मिल गया। मेरे हाथ से पैकेट लेकर कच्छे देखे और फिर प्रंशसा के भाव से मेरी पीठ ठोंकने लगा "यार तू मुझे ग़ुस्सा दिला देता है कभी कभी। ख़ैर जाने दे पिछली बातों को अब बता आगे क्या प्रोग्राम है?" उसने कहा।
"बस घर जा रहा हूँ" मैंने कुछ दयनीय स्वर में उत्तर दिया।
"इतनी जल्दी...? अभी पूरी ख़रीददारी तो कर लो।" उसने कहा।
"क्यों? अब क्या रह गया है?" मैंने कुछ आश्चर्य के भाव से पूछा।
"अभी तो बहुत कुछ बचा है ये जो तुमने ब्राँडेड कच्छे ख़रीदे हैं इनके बारे में सबको पता कैसे लगेगा कि तुम भी ये पहनते हो और खासकर शिल्पा को कैसे पता लगेगा।" शारुख ने शिल्पा पर काफ़ी ज़ोर देकर कहा।
"उसके उसके लिये क्या करना पड़ेगा?" मैंने लगभग हथियार डालने की मुद्रा में कहा।
"कुछ नहीं करना होगा, बस पैंट को नीचा करना पडेगा और शर्ट को ऊंचा करना पड़ेगा, ताकि दोनों के बीच से ये इलास्टिक नज़र आ जाए जिस पर कम्पनी का ब्रांड छपा है। बाज़ार सारी व्यवस्थाएँ करके ही चलता है। अगर बाज़ार ने तुमको दो सौ रुपये का कच्छा ख़रीदवाया है तो अब ये बाज़ार की ही ज़िम्मेदारी है कि वह ऐसी व्यवस्था करे ताकि लोग जान सकें कि तुमने दो सौ रुपये का ब्रांडेड कच्छा पहना है। आख़िर को तुम सबको पैंट खोल खोलकर तो बताओगे नहीं।" शारुख ने समझाइश भरे अदांज़ में कहा।
"मगर ये ऊँची शर्ट, नीची पैंट क्या बला है?" मैंने फिर पूछा।
"कुछ नहीं बस शर्ट को इतना छोटा कर दिया है कि वह बजाय जांघों तक लटकने के केवल कमर तक ही रहती है। तकि जब भी तुम हाथों को ऊपर उठाओ या झुको तो पेट और पीठ नज़र आने लगे, इसे कहते है शार्ट शर्ट।" शारुख ने बात को रोक कर मेरी आंखो में देखा।
"मगर पेट और पीठ दिखाने से क्या होगा, कच्छा तो कमर पर होता है ना?" मैंने उत्सुकतावश पूछा।
"पूरी बात तो सुनो अभी नीची पैंट के बारे में मैंने बताया ही कब है। नीचे पैंट या जिसको लो वेस्ट पैंट कहा जाता है इसे कमर पर नहीं बाँधा जाता ये कूल्हों पर बाँधी जाती है, कमर से दो इंच नीचे। बस हो गया तुम्हारा काम। कच्छे को वहीं पहनो कमर पर और पैंट को दो इंच नीचे ताकि कच्छे का पूरा इलास्टिक पैंट से बाहर रहे और जब भी तुम हाथ उठाओ तो शार्ट शर्ट और लो वेस्ट पैंट के बीच के गैप में चमक उठे तुम्हारा कच्छा। यक़ीन मानो जैसे ही तुम्हारे कच्छे के ब्रांड पर लोगों की नज़र पड़ेगी उनका तुम्हारे प्रति नज़रिया ही बदल जायेगा।" मैं चुप खड़ा उसकी बात समझने की कोशिश कर रहा था और स्वयं की कल्पना उस ऊँची शर्ट नीची पैंट में कर रहा था।
"सुनो बच्चे ये चड्डी दिखाने का युग है या यूं कहो कि हर वह चीज दिखाने का युग है जिसे अब तक छुपाने लायक समझा जाता था। बाज़ार का बहुत सीधा कहना है कि दिखायेगा वही जिसके पास कुछ होगा अगर तुम्हारे पास दिखाने लायक चड्डी है तो बिंदास दिखाओ। दिखाओ सबको कि अब तुम भी उस स्पेशल क्लास में आ गए हो।" शारुख ने आंखों को मटकाते हुए कहा।
पहली बार जब वह ऊँची शर्ट और नीची पैंट पहनी तो बडा अजीब-सा लग रहा था। कुछ भी करने के लिए ज़रा हाथ उठाओ तो नाभी से लेकर पसलियों तक सब कुछ खुल जाता था। शिल्पा ने ज़रूर एप्रिशियेट किया था। "हूँ लुकिंग फंकी।"
"हाँ पर कुछ ठीक नहीं लग रहा है। अनकम्फर्टेबल-सा फील कर रहा हूँ।" मैंने उत्तर दिया।
"और किसी से मत कहना, नहीं तो हंसेगा तुम पर कि कम्फर्टेबल क्लाथिंग में अनकम्फर्टेबल हो रहे हो।" शिल्पा खिलखिला कर हंस पड़ी थी। शिल्पा से तो नहीं कह पाया लेकिन वह जो अन्कम्फर्टेबल वाली बात थी वह थी तो सही। हाथ ऊपर करने या झुकने में बड़ा विचित्र-सा लग रहा था।
"क्यों भाई ये लो वेस्ट पैंट को इतना ऊपर क्यों बाँध रखा है?" धोनी ने मेरी पैंट कमर के पास पकड़ते हुए पूछा।
"थोडा ऑड-सा लग रहा था इसलिए।" शायद मैं मिमिया रहा था।
"ऑड और इन कपड़ों में? तुम आदमी हो या पजामा? ज़रा अपने आस पास तो देखो हर कोई ये ही पहना है। ऑड तो तुम्हारे पहले वाले कपड़े थे।" कहते हुए धोनी ने मेरी पैंट को नीचे खिसका दिया। कमर से खसक कर पैंट कूल्हों की चर्बी पर आकर टिक गई। मुझे लगा कि कही चर्बी रोक नहीं पाई तो क्या होगा।
"चलो अब बिंदास होकर हाथ ऊपर नीचे करो मेरे सामने।" धोनी ने आदेश दिया।
मैंने हाथ ऊपर उठाए ही थे कि वह चीखा "तभी... तभी मैं कहूँ कि क्यों तुम अनकम्फर्टेबल फील कर रहे हो।"
"क्या हो गया?" मैंने घबराकर हाथ नीचे कर लिये।
"कुछ नहीं हुआ, बस ये रखो।" सचिन जाने कब आ गया था, उसने मुस्कुराते हुए मेरे हाथ में एक चमचमाता हुआ रेज़र पकड़ा दिया।
"ये ...? इसका क्या करूँगा? मैं तो शेव के लिये नाई के पास जाता हूँ।" मैंने आश्चर्य के साथ पूछा।
"अरे मेरे बाप क्या बॉडी की शेविंग भी नाई से करवाएगा।" शारुख ने चिल्लाते हुए कहा। वह कब आ गया था ये भी मुझे पता नहीं चला।
"बॉडी की शेविंग ...?" मैं अभी भी आश्चर्य में था।
"उसका मतलब है छाती और पेट के बालों की सफाई। उनकी वज़ह से ही तो तुम अनकम्फर्टेबल फील कर रहे हो। वह तो तुमको ही करनी पड़ेगी और उसके लिये तो है ये स्पेशल रेज़र मात्र आठ सौ रुपये का।" सचिन ने उत्तर दिया।
"आठ सौ का? पर ये तो पन्द्रह रुपये का भी आता है?" मैंने पूछा।
"आता है ना मगर इसकी क्वालिटी अलग है। तुमको केवल शेव ही नहीं करनी है बल्कि छाती और पेट के बालों को भी हटाना है उसके लिए नहीं चलेगा वह पन्द्रह रुपये वाला रेज़र। उसके लिये तो ये-ये ही ख़रीदना पड़ेगा और सोचो ज़रा अगर कभी शिल्पा तुम्हारे घर पहुँच गई और बाथरूम में पन्द्रह रुपट्टी का रेज़र रखा देख लिया तो क्या सोचेगी तुम्हारे बारे में?" इस बार शारुख था।
"पर अजीब नहीं लगेगा छाती और पेट के बाल हटाने पर? कोई देखेगा तो क्या कहेगा?" मैं फिर मिमिया रहा था या शायद बचने का प्रयास कर रहा था।
"कोई देखेगा से क्या मतलब है तुम्हारा? वह तो तुम्हें दिखलाना ही है उसके लिये ही तो है वह शार्ट शर्ट। तकि जब भी तुम हाथ ऊपर करो तो बिना बाल का पेट चमक उठे और हाँ ऊपर के दो बटन भी खुले रखना तकि क्लीन-क्लीन छाती वहाँ से दिखती रहे।" ये कहते हुए शारुख ने अपने शर्ट के ऊपर के तीन बटन खोल कर शर्ट को चौड़ा कर दिया। वहाँ से उसकी बिना बाल की चिकनी छाती नज़र आने लगी।
पहली बार जब छाती और पेट के बाल हटाए तो काफ़ी समय लग गया। रेज़र अच्छा था इसलिए परेशानी नहीं हुई। शाम को जब शिल्पा से मिलने जाने के लिए तैयार हो रहा था तो झिझकते हुए ऊपर की एक ही बटन खोली। मगर तभी आईने में से शारुख निकला और दूसरी बटन भी खोलकर वापस आईने में समा गया। कुल चार बटन वाली उस शर्ट की अब केवल दो बटन लगी हुई थीं और ऊपर की दो खुली हुई बटनों में से झांक रही थी ताज़ा-ताज़ा साफ़ की हुई चिकनी छाती। आईने के सामने खड़े-खड़े ही मैंने हाथ ऊपर किये। ऊँची शर्ट ऊपर टँग गई और बिना बालों वाला चिकना पेट नज़र आने लगा। मैं ख़ुद को देख कर मुस्कुरा दिया।
"हूँ ...आजकल तुम कुछ बदलते जा रहे हो।" शिल्पा ने ऊपर की दो बटनों से झांकती छाती की ओर देखते हुए कहा था।
"बदल तो रहा हूँ पर ये तो बताओ कि ये बदलाव तुमको अच्छा लग रहा है या नहीं?" मैंने भी उसकी आंखों में आंखे डालकर पूछा था।
"अच्छा क्यों नहीं लगेगा। अब तो तुम आदमी सरीखे लगने लगे हो वरना पहले तो ।" शिल्पा ने बात को हवा में ही छोड़ दिया।
" पहले तो क्या ...? मैंने पूछा।
"छोड़ो पहले की बातें अभी की बात करो। आज तो एकदम स्टाइलिश हो कर आये हो इरादा क्या है?" शिल्पा ने बात को घुमा दिया। ये उसकी आदत है वह अक्सर किसी बात का उत्तर देने के बजाय यूं ही दिशा बदल देती है। पता मुझे भी होता है कि वह ऐसा कर रही है मगर मैं भी कुछ नहीं कहता। शाम उतर गई थी और रात शुरू हो गई थी। कोने की उस सुनसान बैंच पर अब हम दोनों ही थे। शिल्पा ने धीरे से मेरे कंधे पर सर टिका दिया और अपनी उंगलियाँ मेरी छाती पर घुमाने लगी। छाती जहाँ पर अब बाल नहीं थे केवल एक चिकनापन था। मेरी पूरी याददाश्त में शिल्पा ने ऐसा पहली बार किया था। वरना तो बस।
"अच्छा लगा ना?" लौटते समय धोनी घर के बाहर ही मिल गया।
"हॉँ" मैंने कुछ मुस्कुराते हुए उत्तर दिया।
"तब से हम समझा रहे थे कि हमारी बात सुनो तो मानते ही नहीं थे, आज देख लिया न हमारा जादू।" धोनी ने मेरी छाती पर शिल्पा कि तरह उंगलियाँ फिराते हुए कहा। उसका ऐसा करने का आशय मैं समझ गया और खिलखिलाकर हंस पड़ा।
"अभी तक तुम हमको बाज़ार के आदमी समझते थे पर आज समझ में आया ना कि हम तो तुम्हारे हैं। हम तो तुम्हें बदलने आये हैं।" धोनी ने मुझे हंसते देखकर कहा।
"थैंक्स।" मैंने भी उपकृत होते हुए कहा।
"थैंक्स वैंक्स की ज़ुरूरत नहीं है ये तो हमारा काम है, चलो ये रखो।" कहते हुए धोनी ने एक पैकेट मेरे हाथ में थमा दिया।
"इसमें क्या है?" मैंने पूछा।
"आज जहाँ तक पहुँचे हो वहाँ से आगे भी बढ़ना है या नहीं? ये उसके ही लिये है इसमें बॉडी स्प्रे और परफ्यूम है दोनों मिलाकर कुल पन्द्रह सौ के हैं।" धोनी ने कुछ लापरवाही से क़ीमत बताई।
"पन्द्रह सौ । ये तो बहुत ज़्यादा है कोई सस्ता वाला नहीं है क्या। जेब तंग हो गई है आजकल।" मैंने दयनीय चेहरा बनाते हुए कहा।
"सस्ते वाले का ज़माना गया। आजकल की लड़कियाँ सूंघ कर ब्राँड बता देती हैं तुम्हारी परफ्यूम का कि तुमने इम्पार्टेड लगाया हुआ है या पचास रुपये वाला देसी स्प्रे किया है। आज जहाँ तक आए हो उससे आगे अब ये ले जाएंगे तुमको। ओर जहाँ तक जेब तंग होने का सवाल है उससे काम नहीं चलने का, मनी है तो हनी है। कही से भी करो कुछ भी करो पर पाकेट को तंग मत होने दो। अभी तो बहुत कुछ बाक़ी है ये तो बस शुरूआत ही है।" धेानी ने पैकेट की तरफ़ इशारा करते हुए कहा। मैं कुछ बोलने स्थिति में नहीं था असमंजस में खड़ा रहा। धोनी ने पैकेट मेरे हाथ से वापस ले लिया।
"कितनी सेलरी मिलती है तुमको?" ये सचिन था।
"पन्द्रह हज़ार।" मैंने झिझकते हुए उत्तर दिया।
"तो ठीक है सेलरी स्लिप है तुम्हारे पास?" सचिन ने कहा।
"हाँ है।" मैंने उत्तर दिया।
"चलो ले आओ आज तुम्हारी तंग जेब की व्यवस्था भी कर ही दी जाए।" सचिन ने कहा। मैंने यंत्रचलित-सा घर का ताला खोला और अंदर से सेलेरी स्लिप लाकर सचिन के हाथ पर रख दी।
"ठीक है। लो ये तुम्हारा क्रेडिट कार्ड है। अब जेब तंग होने का रोना मत रोना जितनी चाहो ख़रीददारी करो।" सचिन ने मुस्कुराते हुए एक आसमानी और सुनहरे रंग का कार्ड मेरे हाथ पर रख दिया।
"पर इसके भी पैसे तो जमा करने ही होते हैं ना।" मैंने झिझकते हुए कहा।
"हाँ, पर चालीस दिन बाद, तब तक तो ऐश कर ही सकते हो ना। चिंता मत करो और कल की तो बिल्कुल ही मत करो। कल देखा किसने है। अभी की सोचो। ये जो धोनी के हाथो में पैकेट है उसमे तुम्हारी और शिल्पा कि कहानी आगे बढ़ने का मटेरियल है, ये तुम्हारा आज है, दो ये क्रेडिट कार्ड धोनी को और ले लो अपना आज। छीन लो उसके हाथ से।" सचिन ने मेरी आंखों में झाँकते हुए कहा।
मैने सम्मोहित व्यक्ति के समान वही किया जो सचिन ने कहा था। धोनी ने मेरे हाथ से क्रेडिट कार्ड लिया और कुछ खचड़-पचड़ कर कार्ड ओर पैकेट दोनों मुझे थमा दिये अब दोनों ही मुस्कुरा रहे थे।
"याद रखना पैसा तो चालीस दिन बाद देना है अभी नहीं।" सचिन ने मेरे कंधे को थपथपाते हुए कहा। वे दोनों मुझे किसी देवदूत की तरह नज़र आ रहे थे, जिनके सर के चार इंच ऊपर एक छोटा-सा प्रकाश का सफेद छल्ला आड़ा तिरछा होकर घूम रहा था। मैंने उपकृत होते हुए अपने को थोड़ा झुकाया और मुड़कर घर में चला आया।
एक बात तो माननी ही पड़ेगी के तीनों जो कुछ भी बोल रहे थे वह सच तो हो ही रहा था। शायद उन तीनों ने पटकथा को पहले से ही पढ़ रखा था तभी तो ऐसा हो रहा था। अगले दिन जब शाम हुई तो कहानी सचमुच आगे बढ़ गई। उस दिन शाम के बाद पार्क से उठने में ज़्यादा रात हो गई और जब उठे तब भी उठने का मन नहीं था। शिल्पा कुछ सम्मोहित-सी लग रही थी धोनी ने बिल्कुल ठीक कहा था शिल्पा ने बैठते ही बता दिया था कि मैं कौन-सा परफ्यूम और कौन-सा बाडी स्प्रे लगा कर आया हूँ और जब उसने दोनों नाम बताए थे तो उसकी आंखो में प्रशंसा के भाव थे। उस दिन जब शाम उतरी तो देर तक रात होती रही और रात के साथ बहुत कुछ होता रहा। बहुत कुछ ऐसा जो सब कुछ तो नहीं था पर पहले के कुछ नहीं के मुकाबले में तो बहुत कुछ था। इससे पिछली मुलाकात में जो थोड़ा कुछ हुआ था उससे ज़ियादह और सब कुछ से थोड़ा कम। ऊँची शर्ट की चारों बटनें उस दिन खुल गईं थीं और उंगलियों को दौड़ने के लिये पिछली मुलाकात की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक बड़ा और चिकना मैदान मिल गया था। चिकना और सुगंधित मैदान। उंगलियाँ देर तक सुंगध की मदहोशी में डूबी उस चिकने मैदान पर फिसलती रहीं। कभी नाभी से ऊपर की ओर तो कभी ऊपर से पुनः नाभी की ओर। मेरे ख़्याल से उस सुगंधित मैदान पर एक दो बार होंठों का स्पर्श भी हुआ था, बहुत दावे से तो नहीं कह सकता पर हाँ ऐसा मुझे लगा था। जब होंठ और उंगलियाँ दोनों मुलायम हों तो आप आंखे बंद कर डिफरेंशिएट नहीं कर सकते कि कौन-सी छुअन किसकी है। विवरण कुछ ज़ियादह ही सैंसुअस हो रहा है। लग रहा होगा कि ये विवरण जान बूझ कर किया जा रहा है। पर ऐसा नहीं है ... ।दर असल में तो ... चलिये यही ठीक है कि ये विवरण जानबूझकर ही दिया जा रहा था। ख़ैर तो कुल मिलकर ये कि मैंने उन तीनों को मन ही मन धन्यवाद दिया। वास्तव में मैं आज जहाँ भी था उन तीनों के ही कारण था अन्यथा तो बात पापकार्न टूँगने से आगे बढ़ ही कब रही थी।
"नहीं कार नहीं, अभी कार ठीक नहीं रहेगी। अभी तो कोई स्टाइलिश बाइक होनी चाहिये।" धोनी और शारुख किसी बात पर उलझे हुए थे उनकी बहस सुनकर मैं भी रुक गया।
"पर कार भी स्टाइलिश होती है।" शारूख ने अपनी बात रखते हुए कहा।
"होती है पर अभी तो बाइक ही होनी चाहिये।" धोनी ने विरोध किया।
"क्या बात है किसको लेनी है ये बाइक या कार?" मैने बीच में घुसते हुए पूछा।
"तुमको और किसको?" शारुख ने लापरवाही के साथ उत्तर दिया।
"मुझे ...? मैं क्या करूंगा इनका? मैं तो मैट्रो से अफिस आता जाता हूँ। अभी मुझे क्या ज़ुरूरत है इनकी?" मैंने हैरत से कहा।
"क्यों? कल जो वहाँ पार्क में रासलीला हो रही थी उसको आगे बढ़ाना है कि नहीं?" शारुख ने झल्लाते हुए कहा।
"पर उसके लिये बाइक की क्या ज़ुरूरत है?" मैंने पूछा।
"क्यों।? क्या सब कुछ वहीं करेगा म्युनिसपिल्टी के पार्क में?" शारुख उसी प्रकार झल्लाया हुआ था।
"देखो अब आगे की कहानी के लिये पार्क से बाहर आना पडेगा और पार्क से बाहर आने के लिए अपना व्हीकल चाहिए ओर वह भी स्टाइलिश अभी बाइक ही लेना चाहिये। ये देखो ये कैसी है?" धोनी ने अपनी बाइक की तरफ़ इशारा करते हुए पूछा। मैंने धोनी की बाइक को देखा। तोतापरी हरे और काले रंग के काम्बिनेशन वाली एक रेसिंग बाइक थी वो, जो देखने बहुत सुंदर लग रही थी।
"पर ये तो बहुत महँगी होगी?" मैंने प्रतिवाद किया।
"कोई ख़ास नहीं अस्सी हज़ार की है।" धोनी ने इस प्रकार उत्तर दिया मानो केवल अस्सी रुपये की हो।
"अस्सी हज़ार ...? कहाँ से लाऊँगा अस्सी हज़ार?" मैंने लगभग चीखते हुए कहा।
"कौन मांग रहा है तुझसे अस्सी हज़ार? चल बता अभी कितने पडें हैं तेरे बैंक में।" धोनी ने कहा तीस पैंतीस हज़ार होंगे बचत के, ऐसा करते है बीस पचचीस तक की कोई सेकेंड हैंड ख़रीद लेते हैं। " मैंने उत्साह पूर्वक प्रस्ताव रखा।
" सेकेण्ड हैंड पर ले जाएगा उसे? आगे कुछ करना भी है या नहीं? चल एक काम कर तीस हज़ार ला बैंक से और हाँ अपनी चैकबुक और सेलेरी स्लिप भी लेते आना धोनी ने आदेश के स्वर में कहा।
"पर ।" मैंने एक बार फिर विरोध करने का प्रयास किया लेकिन धोनी ने इशारे से रोक दिया। कुछ देर बाद जब में तीस हज़ार लेकर लौटा तो सचिन भी आ चुका था तीनों वहीं खडे थे। सचिन ने कुछ काग़ज़ों पर क़रीब डेढ़ सौ जगहों पर मेरे दस्तख़त करवाए, कई सारे दस्तख़त करते-करते हाथ दुखने लगे। जैसे ही में दस्तख़त करके निपटा शारुख ने बाइक की चाबी मेरे हाथों में थमा दी और तीनों तालियाँ बजाने लगे। तोतापरी और काले रंग वाली वह बाइक अब मेरी हो चुकी थी।
"वाऊ क्या स्टाइलिश बाइक है ।" शिल्पा कि आंखें ख़ुशी के मारे लगभग फटी-सी पड़ रही थीं। वह उत्साह के साथ बाइक की पैट्रोल टंकी पर हाथ फेर रही थी। उसके चेहेर पर वैसे ही भाव आ रहे थे जैसे कल पार्क में शार्ट शर्ट की चारों बटन खोल कर हाथ फेरते समय आ रहे थे।
"तुमने तो कमाल ही कर दिया। आज पता चला कि तुम तो छुपे रूस्तम हो।" शिल्पा ने प्रंशसा के स्वर में कहा।
"पंसद आई बाइक ...?" मैंने औपचारिकतावश पूछा।
"पसंद ...? आइ एम डाइंग। शिल्पा ने उत्तर दिया।"
"तो चलो।" मैंने मौका देखकर चोट की।
"कहाँ ...?" शिल्पा ने कुछ मासूमियत के साथ पूछा।
"कहीं भी । बाइक को सेलीब्रेट करना है और सेलिब्रेशन म्युनिसपिल्टी के इस पार्क में तो हो नहीं सकता।" मैंने कुछ रहस्यमयी अंदाज़ में उत्तर दिया।
सेलीब्रेशन हुआ और ख़ूब हुआ। सब कुछ किसी पूर्व निर्धारित योजना कि तरह होता ही चला गया। सब कुछ, जी हाँ सब कुछ। सब कुछ के ठीक पहले शारुख ने चुपचाप मेरे हाथ में एक वह रख दिया था, वही बिंदास बोल वाली चीज़, अब ज़ियादह खुलवाइये मत हमसे। शारुख ने तीन चार फ़्लेवर वाले दिखाये थे। मैं हैरत में पड़ गया था, इसमें भी फ़्लेवर? ख़ैर मैंने अपने लिये एक स्ट्राबेरी के फ़्लेवर वाला लिया जिसके बारे में मैंने सुना था कि वह टाइम को बढ़ा देता है। पचास रुपये का था वह और उस समय मोल भाव करने का समय भी नहीं था, मैंने पचास का नोट शारुख के हाथ पर रख दिया।
धन्यवाद दिया धोनी को कि उसने समय रहते मेरा वह पुराने टाइप का जांघों तक लटकने वाला कच्छा बदलवा कर ये दिलवा दिया था। स्टाइलिश कच्छा, जिसमें कुछ नहीं था बस एक पट्टी थी। उफ़्फ! शिल्पा अगर वह पुराना कच्छा देखती तो मेरी इमेज का तो सत्यानाश हो जाता, हो सकता है ये सब कुछ नहीं हो पाता। उस जानलेवा कच्छे के कमर पर से हट जाने तक शिल्पा कि उंगलियाँ उसकी इलास्टिक से ही खेलती रहीं।
रात को देर हो गई थी इसलिये सुबह देर तक सोता रहा। वैसे भी संडे को तो में देर तक सोता हूँ। दरवाजे की घंटी ने जब नींद को तोड़ा तब ग्यारह बज रहे थे। "संडे के दिन कौन आ गया ...?" दरवाज़ा खोला तो चौंक गया "आप ...!" हतप्रभ-सी अवस्था में मैं बुदबुदाया। दरवाजे पर सदी के महानायक खडे थे।
"आप...? और मेरे घर?" मैं अभी भी सन्निपात वाली अवस्था में था।
"क्यों? क्यों नहीं आ सकता मैं ...? जब वह तीनों आ सकते हैं तो मैं क्या नहीं आ सकता?" महानायक की फ्रैंचकट से वही चिरपरिचित मुस्कान झलक रही थी।
"मैं तुम्हारे लिये तेल लाया हूँ, सर को ठंडा करने वाला तेल, ठंडा-ठंडा कूल-कूल तेल। लाओ सर में लगाऊँ।" कहते हुए महानायक ने एक लाल रंग की तेल की शीशी जेब से निकाली।
"पर मुझे तो इसकी ज़ुरूरत नहीं है।" कुछ हकलाते हुए मैंने कहा।
"ज़ुरूरत नहीं है तो क्या हुआ? आगे पड़ भी तो सकती है।" महानायक ने मुस्कुराते हुए कहा। "अब हम तय करेंगे कि तुम्हें किस चीज की ज़रूरत है और किसकी नहीं। अब तुम ख़ुद नहीं तय करोगे ये सब। अब तुम्हारा ओर हमारा लिंक जुड़ चुका है। इसलिए अब ये सोचने की जवाबदारी हमारी हो चुकी है। हम बाज़ार हैं और तुम ख़रीददार। हम नहीं जानते कि तुम पैसों की व्यवस्था कहाँ से करोगे, मगर हो ये तय है कि अब तुमको वह सब कुछ ख़रीदना है जो हम बताते हैं।" महानायक की मुस्कुराहट लुप्त हो चुकी थी तथा उसके स्थान पर एक घाघ-सा भाव दिखाई दे रहा था।
"पर मेरे विचार में ।" मेरी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि मेरी बात को काट कर महानायक बोल पड़े। "विचार...? इसकी इजाज़त अब नहीं है तुमको। अब तुम केवल शरीर हो। शरीर विचार नहीं करता। हम अपने ग्राहकों को शरीर से ज़्यादा होने की इजाज़त नहीं देते। तुम भी शरीर हो शरीर ही रहो, विचार करने या विचार होने की कोशिश मत करो। वह सब कुछ ख़रीदते रहो जो हम बता रहे हैं, वह सारी चीज़ें जो शरीर के लिये हैं।" महानायक की आवाज़ में तल्ख़ी झलक रही थी, जिसे वे अपने ही अंदाज़ में छिपाते हुए विनम्र बने हुए थे।
"और क्या समझते हो तुम? हम ...? हम तुम्हारी ज़ुरूरतो के हिसाब से चलेंगे। तुम्हारी?" महानायक ने उंगली का इशारा मेरी तरफ़ इस प्रकार किया मानो कोई कूड़े के ढेर की तरफ़ इशारा कर रहे हों। मैं कुछ ऊहापोह में उसी प्रकार खड़ा रहा।
"चलो ख़रीदो इसे। मैं कह रहा हूँ इसलिये ख़रीदो, मैं तुम्हारा आदर्श हूँ। मुझे इस प्रकार टालना तुम्हें शोभा नहीं देता।" महानायक ने आदेशात्मक स्वर में कहा।
"पर महानायक जी इस प्रकार तेल बेचना आपको भी तो शोभा नहीं देता।" मैंने फिर प्रतिरोध किया।
"क्यों शोभा नहीं देता? मेरी बात है, मेरा प्रभाव है, मैं कुछ भी बेच सकता हूँ, तेल बेच सकता हूँ, कंडोम बेच सकता हूँ, जो कुछ भी मुझे कहा जाएगा वह बेचूँगा। इसमे शोभा नहीं देने की क्या बात है।" महानायक की एक आँख कुछ छोटी हो गई थी।
"ठीक है लाइये कितने का है ये तेल।" मैंने हथियार डाल दिये।
"तेल ...? अकेले तेल ख़रीदने की बात थोड़े ही है और भी बहुत कुछ है ख़रीदने को।" कहते हुए महानायक दरवाज़े से हटकर अंदर आ गए। उनके पीछे कई सारे जाने पहचाने चेहरे नज़र आ रहे थे। बडी भीड़ थी उन चेहरों की। सबसे आगे महानायक की बहू ही थी ढेर सारे समान लिये, उसके पीछे महानायक का बेटा था वह भी कई सारे सामान पकड़े मुस्कुरा रहा था। दोनों के पीछे और भी कई सारे लोग थे क्रिकेटर, फुटबालर, ऑलपिंक मेडलिस्ट, नायक, नायिकाएँ, गायक, गायिकाएँ, शायर, (सचमुच थे शायर भी) बॉक्सर और जाने कौन कौन। सब कुछ न कुछ सामान थामे हुए थे और सब मुस्कुरा रहे थे। सबसे आगे खड़ी विश्व की सबसे सुंदर औरत तो कुछ ज़ियादह ही मुस्कुरा रही थी। मैं हैरत में था "ये सब ...? इन सबको भी काम पर रखा हुआ है बाज़ार ने कब ...?।"
"ये सब ख़रीदना है।" तुमको महानायक ने कुछ व्यंग्य के साथ टेढ़ा मुस्कुराते हुए कहा।
"पर इन सब का मैं करूंगा क्या?" मैंने घबराहट में उत्तर दिया।
"वो हमको नहीं पता हमारा काम बेचना है, केवल बेचना। ये जो हमारा चेहरा है इसे देखो और ख़रीदो। तुम सामान को नहीं ख़रीद रहे हमारे चेहरे को ख़रीद रहे हो। सदी के महानायक के चेहरे को ख़रीद रहे हो।" सदी के महानायक के स्वर में एक विचित्र प्रकार का दंभ आ गया था।
"पर ये सब ख़रीदने के पैसे ...?" मेरी बात को एक बार फिर बीच में काट-काट दिया सदी के महानायक ने "क्यों? वह है ना तुम्हारे पास क्रेडिट कार्ड। सचिन ने दिया तो था उस दिन, चलो लाओ उसे और ख़रीदो ये सब। जल्दी करो हमें और भी कई जगह जाना है। चलो भाई आ जाओ सब लोग और बेचो अपना-अपना सामान, जिसे नक़द चाहिए वह नक़द ले-ले और जिसे क्रेडिट कार्ड चाहिए वह कार्ड ले ले। चलिये जल्दी कीजिये।" कहते हुए सदी के महानायक ने बाहर खड़ी भीड़ को अंदर आने का इशारा कर दिया। मैं दरवाज़े से हटता उसके पहले ही भीड़ धड़ धड़ा कर अंदर घुस गई। अच्छी तरह से तो याद नहीं किसने टक्कर मारी लेकिन वह बाज़ारू भीड़ इतनी तेज रफ़्तार से अंदर आई कि मैं संभल नहीं पाया और लड़खड़ा के नीचे गिर पड़ा। बाज़ारू भीड़ मुझे रौंदती हुई मेरे घर में घुसने लगी। शायद मैंने एक दो बार चीखने की कोशिश भी की थी मगर बाज़ारू भीड़ के शोर शराबे में किसी को कुछ नहीं सुनाई दिया। मैं अपने ही घर के दरवाज़े पर नीचे पड़ा था और पूरा बाज़ार मुझे रौंदता हुआ, मेरे ऊपर से मेरे घर में घुसा जा रहा था। बहुत शोर शराबा था कई जिंगल्स बज रहे थे। कई आवाज़ें आ रहीं थीं। बाज़ार उसी प्रकार मुझे कुचलता हआ घर के कोने-कोने में समाता जा रहा था। निऑन लाइटों की झिलमिलाहट और जिंगल्स के शोर शराबे के बीच मैं कब बेहोश हो गया मुझे पता नहीं चला।