सन्त सिपाही / शशि पाधा

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

(कैप्टन अरुण जसरोटिया, अशोक चक्र, सेना मेडल, निशाने पंजाब )

हिंसक अस्त्र-शस्त्रों के साथ शत्रु संहार की शिक्षा-दीक्षा लेने वाला, युद्ध के दाँव पेंच का दिन रात अभ्यास करने वाला सैनिक क्या संत भी हो सकता है? हो सकता है । 'महाभारत' के धर्मराज युधिष्ठिर, भीष्म पितामह,मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने तभी शस्त्र उठाए थे जब शत्रु को नष्ट करने के अलावा उनके पास और कोई विकल्प नहीं था।

जैसा कि पूरा विश्व जानता है कि वर्ष 1989 में विदेशी चरमपंथियों ने कश्मीर घाटी के अलगाववादी तत्वों के साथ मिल कर प्रकृति की क्रीड़ास्थली, कश्मीर घाटी में इतना आतंक फैलाया कि वहाँ का जनजीवन अस्त व्यस्त हो गया । तब से आज तक भारतीय सेना, सीमा सुरक्षा बल, राजकीय पुलिस और न जाने कितनी सुरक्षा एजंसियाँ इस घाटी में शान्ति स्थापना और घुसपैठियों को सीमा से बाहर निकालने के महत्वपूर्ण कार्य में संलग्न हैं । कैप्टन अरुण की पलटन 9 पैरा स्पेशल फोर्सिस भी कई वर्षों से इसी क्षेत्र में आतंकवादियों को नष्ट करने के दुरूह कार्य करने में लगी हुई थी । इस पलटन के वीर योद्धा कैप्टन अरुण एक महत्वपूर्ण शिविर में अभ्यास हेतु हिमाचल के एक पर्वतीय क्षेत्र में आए हुए थे ।

उसी ट्रेनिंग के दौरान उनकी नियुक्ति भारतीय सेना के सेनाध्यक्ष के चीफ़ सेक्योरिटी ऑफिसर के महत्वपूर्ण पद पर हो गई थी। किन्तु अपने दायित्व का स्मरण करते हुए अरुण ने वहाँ के कमान अधिकारी ब्रिगेडियर केशव पाधा से कहा,"सर, मैं जानता हूँ कि सेनाध्यक्ष की सेक्योरिटी का काम भी बहुत महत्व पूर्ण है, लेकिन मेरी पलटन इस समय कश्मीर घाटी में आतंकवादियों से जूझ रही है। मेरा कर्तव्य है कि मैं इस समय अपनी यूनिट, अपनी टीम और अपने साथियों के साथ युद्धभूमि में ही रहूँ । यही मेरा धर्म है और यही मेरा कर्म | मैं जानता हूँ कि आपने ही सेनाध्यक्ष को मेरा नाम प्रेषित किया है, इसीलिए आपसे ही आग्रह करता हूँ कि इस पोस्ट के लिए किसी और का नाम भेज दीजिए | मैं इस समय जितनी भी जल्दी हो सके अपनी पलटन के साथ अभियान क्षेत्र में जाना चाहूँगा|”

यह एक कर्तव्यनिष्ठ सैनिक का दूसरे कर्तव्य परायण अधिकारी से आग्रह था|

उनके इस आग्रह से वहाँ के कमाडेंट बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने उनसे कहा, "आप जो कह रहे हैं बिलकुल ठीक है, शायद मैं भी ऐसी परिस्थिति में यही करता| मैं कल ही सेनाध्यक्ष के कार्यालय में आपकी यह रिक्वेस्ट पहुँचा दूँगा | आप ट्रेनिंग शिविर के बाद अपनी यूनिट में जाने की तैयारी रखिए |"

उस समय अरुण के सामने उनका सैनिक धर्म ही चरम लक्ष्य था और वो इसे पूरे मनोयोग से निभाना चाहते थे |सेनाध्यक्ष के सेक्योरिटी अफसर की ड्यूटी में उनके दो वर्ष शांतिमय वातावरण में बीतने थे, किन्तु धन्य हैं ऐसे संकल्प निष्ठ योद्धा जिनके लिए कर्म ही सर्वोपरि है और कर्मभूमि ही निवास स्थल |

भाग्य और विधना कैसे - कैसे अपनी दिशाएँ बदलती जाती है | यहाँ एक बार फिर कहावत चरितार्थ होती है कि ‘होनी को कोई नहीं टाल सकता’| अरुण शिविर की समाप्ति के बाद अपनी पलटन, जो कि उस समय कश्मीर घाटी के विभिन्न क्षेत्रों में विदेशी आतंकवादियों एवं गुमराह हुए देसी चरमपंथियों के साथ युद्धरत थी, में चले गए।

विश्वस्त सूत्रों से भारतीय सेना को यह सूचना मिली थी कि इस पर्वतीय स्थान के घने जंगलों में लगभग २० चरमपंथी छिपे हुए थे | सेना की 9 पैरा (स्पेशल फोर्सिस) को इन चरमपंथियों के ठिकानों को नष्ट करने का आदेश मिला। 15 सितम्बर के दिन कैप्टन अरुण जसरोटिया ने अपनी टीम के साथ ; लोलाब घाटी; की ओर प्रस्थान किया | दुश्मन की टोह लेते हुए, बड़ी सूझबूझ के साथ कमांडो ट्रेनिंग का एक महत्व पूर्ण दांव पेच 'चुपके-चुपके और अचानक( stealth and surprise) को पूर्णरूप से चरितार्थ करते हुए अरुण अपनी टीम के साथ उनके छिपने के स्थान के पास पहुँच गए | बिना समय गँवाए अरुण और उनकी टीम ने दुश्मन के ठिकाने के आस - पास घेरा डाल दिया और चुपके से दुश्मन की ओर बढ़ना शुरू किया |

भारतीय सेना की बहादुर कमांडो टीम को सामने देख कर सतके में आए शत्रु ने अपने बचाव के लिए इनकी टीम पर रॉकेट और रायफल से गोले दागने आरम्भ दिए | अपने साथियों को आगे बढ़ने का निर्देश देते हुए अरुण स्वयं रेंगते हुए सीधे शत्रु के सामने पहुँच गए | स्थिति की सूक्ष्मता को परखते हुए उन्होंने शत्रु पर हैण्ड ग्रनेड दागने शुरू किए जिससे बहुत से चरमपंथी घायल हो गए । ऐसे में उनकी टीम के अन्य साथियों को आगे बढ़ कर शत्रु पर वार करने में सफलता मिली | इस कार्यवाई में दुश्मन के कई लोग मारे गए | इस गुत्थम-गुत्था मुठभेड़ में अरुण बुरी तरह घायल हो गए थे | गोलियों के घाव से उनके शरीर से रक्तस्राव हो रहा था किन्तु अपने घावों की चिंता न करते हुए,अपने जवानों का नेतृत्व करते हुए वे स्वयं बाकी बचे आतंकवादियों पर प्रहार करते रहे | इनकी टीम के सदस्यों ने इन्हें घायल देख कर सुरक्षित स्थान पर ले जाना चाहा किन्तु यह अंत तक दुश्मन को पूर्णत: समाप्त करने के अपने ध्येय में जी जान से जुटे रहे।

लक्ष्य की पूर्ति हो चुकी थी | सामने परास्त शत्रु के शव थे, लेकिन उस अँधेरे में भी अचानक अरुण ने एक बचे हुए आतंकवादी को अपनी टीम की ओर आते देखा | इन्होने घायल अवस्था में अनुपम साहस और शौर्य से उस बचे हुए आतंकवादी पर अपने कमांडो डैगर (एक प्रकार का चाकू जो प्रत्येक कमांडो के अस्त्र सहस्रों अस्त्र का एक आवश्यक भाग है) से प्रहार करके उसे मार गिराया | अब वहाँ कोई शत्रु नहीं था| केवल भारतीय सेना की 9 पैरा स्पेशल फोर्सिस के बहादुर जवानों की विजयी टुकड़ी थी । जवानों को अपने अभियान की पूर्ति पर गर्व था किन्तु उनका नेतृत्व करने वाले नेता के बुरी तरह से घायल होने का अपार दुःख भी था ।

एक युद्ध का अंत हुआ था किन्तु, जीवन का मृत्यु के साथ महायुद्ध आरम्भ हो गया था। अभियान की समाप्ति के तुरंत बाद समय को नष्ट न करते हुए अरुण को कश्मीर के सैनिक हॉस्पिटल में पहुँचा दिया गया । वहाँ कुशल डाक्टरों ने उन्हें बचाने के अथक प्रयत्न किये, किन्तु गहरे घावों के कारण वे इस वीर योद्धा को बचा न सके । भारत माँ ने एक और वीर सदा- सदा के लिए खो दिया ।

कैप्टन अरुण की वीरता, त्याग, संकल्प और बलिदान के सामने कोई भी सम्मान पुरस्कार पर्याप्त नहीं है । ऐसी वीर गाथाएँ तो इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखी जाती हैं । पूरा राष्ट्र उनके सामने नतमस्तक था । इनके महाबलिदान को सम्मान देते हुए कृतज्ञ राष्ट्र के राष्ट्रपति ने कैप्टन अरुण को वीरता के सर्वोच्च मेडल "अशोक चक्र" से सम्मानित किया । इस मेडल को इनके पिता कर्नल प्रभात सिंह जसरोटिया ने राष्ट्रपति से ग्रहण किया|

हर वर्ष उनके बलिदान दिवस, 26 सितम्बर को उनके जन्मस्थान सुजानपुर(पंजाब) में 'शहीदी दिवस' मनाया जाता है । इस दिन इस क्षेत्र के अन्य शहीदों के परिवारों को भी आमंत्रित किया जाता है । उस समारोह में सभी शहीदों को सामूहिक रूप से श्रद्धांजलि दी जाती हैं । निर्धन परिवारों की सहायता के लिए उनकी आवश्यकता की वस्तुएँ भेंट की जाती हैं । स्कूल के बच्चों को यूनीफॉर्म तथा पाठ्य पुस्तकें भेंट की जाती हैं । पढ़ाई में विशेष स्थान पाने वाले बच्चों को पुस्तकें या खेल सामग्री पुरस्कार के रूप में दी जाती है ।

अरुण की जन्मस्थली सुजानपुर में दो स्कूलों को उनका नाम दिया गया है, शहर की मुख्य सड़क तथ पठानकोट को मामून छावनी से जोड़ने वाली सड़क भी अब उनके नाम से सुशोभित है । छावनी के एक आवासीय परिसर (नार्थ कालोनी) को भी अरुण का नाम दे दिया गया है । पठानकोट नगर को शेष भारत से जोड़ने वाले राज मार्ग पर अरुण के नाम पर निर्मित एक भव्य प्रवेश द्वार है जिस पर अमिट अक्षरों से'कैप्टन अरुण जसरोटिया प्रवेश द्वार' लिखा हुआ है।"

इन सब स्मृति स्थलों के देखते हुए श्रद्धा की भावना तो उमड़ती ही है पर, यह भी आभास होता है कि अरुण जैसे योद्धा प्रत्यक्ष रूप से हमारे सामने नहीं हैं किन्तु उनकी वीरता, पराक्रम और देश रक्षा की भावना उन्हें युगों युगों तक अमर रखेगी । उन्होंने अपना 'आज' हमारे 'कल' के लिए न्योछावर कर दिया, हमें अपने आज को पीढ़ी दर पीढ़ी उनके जैसा बनने के लिए प्रेरित करना है ।

-0-