सपना और नाटक / गोपाल चौधरी
अगले दिन से कायमा को क्वित्तर पर प्रोमोट करने लगा। ताकि वह ये न समझे कि कोई नाराजगी है उसके प्रति! वह बहुत खुश हुई और न जाने क्या-क्या बना दिया हमे! एक जर्रे को आफ़ताब! उसको प्रोमोट करने का मकसद: नाराजगी हनी ट्रेप अनजाने में बन जाने पर, तो था ही। दूसरा सत्ता को भी संदेश भेजना: आपका हथियार आप पर ही है। पर क्या पता होता उस समय! वह प्यार का खेल खेलती हुई सचमुच का ही प्रेम कर बैठेगी!
और इस तरह रेडियो फ्रिक्वेन्सी पर नए युग का नायाब प्रेम शूर हुआ! और परवान चढ़ने को भी आतुर होने लगा। प्रेम के इज़हार होने लगे। गानों के माध्यम से, नज़्म और डायरी से।
पर यह प्यार तो परवान चढ़ने वाला नहीं! वह कातिलों के शहर में जल्लादों के बीच! नकाब तो ओड़े होते महानता और जन कल्याण का। पर वे पैरोकार होते ऐसी व्यव्स्था के जो पैसे, शोषण और लूट पर आधारित होती। पैसे, शोहरत, यश और अपने अहम के लिए वह किस भी हद तक जा सकते।
फिर वो! कैद से अभी-अभी छूटी हुई बुलबुल! ठीक से उड़ना भी नहीं जानती और चील-कौवों के संगत में पड़ गयी हुई-सी लगती! आसमान की असीमता के झांसे में आ गयी होती!
उस षोडशी बाला को शायद ही मालूम: चील-कौवे ऊंची उड़ान भरते हैं तो सिर्फ मांस के टुकड़े के लिए! उसे बाद में पता चला। वह तो तुरप का पत्ता बनाई गयी थी हवा को रोकने के लिए: अंरात्मा की आवाज दबाने के लिए! और स्वांतरता का गला घोटने के लिए!
छल, शक़, धोखा, विशवासघात और निर्दोष बेवफ़ाई के साये अभी हटे नहीं थे। सत्ता और मीडिया के दलालों के बीच घिरी! वह कभी भी खतरा बन सकती थी। वे अभी भी हाथ धो कर पीछे पड़े हुए होते! वैसे तो अंडरग्राउंड था! पर वे घायल शेर की तरह पीछे पड़े थे। अब भी!
मौत, गिरफ्तारी और बदनामी के मंडराते साये! ऐसे में क्या वह या कोई प्यार परवान चढ़ सकता है! लव इन टाइम ऑफ कौलरा तो हो सकता है: पर लव इन टाइम ऑफ डेंजर ऑफ लाइफ शायद ही हो सकता हो! मौत की लटकती तलवार के साये में प्रेम! ऐसा तो केवल कृष्ण ही कर सकते!
फिर वह शिकार तो कातिलों के फंदे में आया ही नहीं। उल्टे वे ही ऐसे जाल में फंस दीखे: जितना उसे पकड़ने की कोशिश करते, वह और ही उनकी पकड़ से दूर होते जाता। वे जितना तड़पते पकड़ने को उतना ही अपने ही नाकामी के जाल में फँसते जाते। पर सब जगह उनके जाल बिछे होते जरूर!
जालों और सरकारी तंत्र के घेरे! उनको गिरते पड़ते धता करते हुए: नेपाल के रास्ते होकर किसी तरह अमेरिका पहुँचा। ज़ीनत भाभी ने बहुत मदद की। पहले तो न्यू जर्सी में कुछ दिन रहा। फिर न्यू यॉर्क आ गया और क्वित्तर और केस बूक पर विदेश चले आने के संकेत देने लगा। एक अमेरीकन प्रेसिडेंट के चुनावी उम्मीदवार—ट्राइम्फ को प्रोमोटे कर के।
अपने देश के बारे में कमेंट करना छोड़ दिया। ट्राइम्फ को समर्थन और उसके पक्ष में क्वित करने लगा। इसके दो मकसद थे: एक तो मेरे चाहनेवाले दोस्त-दुश्मन ये जान जाएँ कि देश छोड़ दिया है। दूसरा, कायमा के अंदर अपनी ओर से विमुख कर देना। वह गुस्सा हो जाए मुझसे। और मुझे भूल जाए! उतना महान न माने जितना अभी समझती है।
और दोनों में सफलता मिली। ज्यादा वक़्त नहीं लगा। पहले सत्ता और उसके चट्टे बट्टों ने पीछा करना छोड़ दिया। थोड़ी-सी राहत-सी मिलती दिखी उन्हे और कायमा ने मुझे अनफोलो कर दिया। चलो यह तरकीब सही निकली। वह ट्राएम्फ को पसंद नहीं करती थी। उसके मुस्लिम विरोधी रुख और अति दक्षिणपंथी विचारों को कौन पसंद कर सकता है भला! जो कायामा करती!
पर आकाश से गिरे और खजूर पर लटके। ऐसा ही कुछ लगा जब अपने आप को फिर अमेरिकी राजनीति के पचड़े में फंसा हुआ पाया। पता नहीं क्यों? बहुत ज़ोर देकर और विश्वास के साथ सोशल मीडिया पर कहा कि ट्रायम्फ को पब्लिकन पार्टी का नोमिनेश्न मिल जाएगा। साथ ही पब्लिकन पार्टी के आलाकमान को चेतावनी भी दे डाली: अगर उसे नोमिनेश्न नहीं मिला तो वह अपने दम पर भी प्रेसिडेंट का चुनाव जीतने की क्षमता रखता है!
और एक नहीं बल्कि बार-बार उसके जीतने की भविष्यवाणी करता रहा। सोशल मीडिया और अन्य माध्यमों पर भी। और छै महीने पहले उसके जीतने की भविष्यवाणी भी कर डाली! नहीं, हो गई। फिर ट्रायम्फ के मुख्य प्रचार स्लोगन: मेक अमेरिका ग्रेट में थोड़ा वैल्यू एडिशन कर उसे: मेक अमेरिका ग्रेट अगेन, कर दिया। यह स्लोगन पावर पंच वाला बन गया। पहले ऐसा लगता जैसे अपने पर ही पंच मार रहा हो। अमेरिका तो ग्रेट है ही, पहले से ही रहा है। इसकी महानता के साथ थोड़ा बहुत समझौत हुआ था जिसको ट्रायम्फ एंड को। भुनाना चाहते होते अपनी चुनावी विजय के लिय।
पर यह स्लोगन ट्रायम्फ ने किसी प्रचार संस्था से लिया था या बनवाया था। इसका मतलब ही नकारातमक निकलता होता: मेक ग्रेट! मतलब अभी ग्रेट नहीं है उसे ग्रेट बनाना है। जबकि अमेरिका तो पहले से ही महान देश रहा है। जब उसे "मेक अमेरिका ग्रेट अगेन" , किया तो उसे भी यह पसंद आ गया और इस स्लोगन को धड़ल्ले से भुनाया जाने लगा।
फिर उसके विदेश नीति और अंतर्राष्ट्रीय सम्बंधी चुनावी एजेंडा में कुछ महत्त्वपूर्ण बिन्दुओ के बारे में बताया। क्वित कर के बहुत महतावपूर्ण सुझाव और नीति विकल्प पेश किया। विशेष कर एशिया-पैसिफिक और एफ-पाक के नीतियो को पुख्ता करने: और उन्हे प्रभावी बनाने सम्बंधी कई सुझाव दिये। ट्रायम्फ ने इसे अपने प्रचार अभियान में शामिल भी कर लिया! इसके उसे अच्छे परिणाम भी मिलने लगे। फिर उसके प्रचार अभियान में फेमिनिस्ट रंग भरने में भी मदद की।
और ट्रायम्फ जीत भी गया। एक अमेरीकन पत्रकार ने यह शर्त लगाई थी: अगर ट्रायम्फ को नोमिनेश्न मिल गया तो वह न्यू यॉर्क टाइम्स की नौकरी छोड़ देगा। पर उसे न केवल नोमिनेश्न मिला बल्कि वह अमेरिकन प्रेसिडेंट का चुनाव भी जीत गया। पूरी दुनिया में हँगामा-सा बरप गया। लिरल अमेरीकन दंग रह गए। पूरी दुनिया का माहौल गरम हो उठा। ऐसा लगा जैसे एक धक्का-सा लगा हो सबको। देश-विदेश के समाचार पत्र, टीवी चैनल, न्यूज़ पोर्टल और सोश्ल मीडिया पर कुछ इसी तरह के संकेत मिल रहे होते।
पर मैंने ट्रायम्फ को एक महीने बाद बधाई दी। यह क़हते हुए कि उसे जीतने के छै महीने पहले ही बधाई दे दी थी। उसके बाद अपने दर्शन प्रोजेक्ट में काम पर-पर लग गया। परंभिक अध्ययन हो चुका था। अब नोट्स लिखे जा रहे थे।
उधर अमेरिका की राजनीति में लीरल की करारी हार एवम ट्रायम्फ की अपरत्याशित जीत से काफी उथल-पुथल मची हुई थी। लीरल अपनी हार को स्वीकार नहीं कर पा रहे होते!। जगह-जगह अलग स्टेट में विरोध हो रहे थे। उधर एक जांच कमीशन का गठन हो गया था। वह अमेरिका के चुनाव को प्रभावित करने और इससे सम्बन्धित षड्यंत्र की जांच का रहा होता।
वे मुख्यत कुस और कुछ अन्य का विशेष व्यक्तियों व संस्थाओ की जांच कर रहे थे। कुछ लीरल और उनके एजेंट मेरे पीछे भी पड़े गए से लगे। ऑनलाइन ट्रोल्लिंग और ऑफलाइन ट्रेलींग शुरू हो गई-सी लगी। जैसे भारत में हुआ था वैसा यहाँ भी प्रारम्भ हो गया।
ट्रायम्फ भी मुझे खोज रहा था। वह मुझसे मिलना चाहता: समर्थन और भविष्यवाणी के लिए शायद धन्यवाद कहना चहता हो। उसे ऐसे वक़्त में समर्थन मिला था तथा सोश्ल मीडिया पर प्रचार किया था जब वह अपनी उम्मीदवारी के सबसे कठिन दौर से गुजर रहा था। उसके प्रचार को संगत, प्रभावी और अंतराष्ट्रीए बनाने में अपरोक्ष रूप से मदद किया था। पर ट्रायम्फ को क्या मालूम! उसे समर्थन का नाटक किन दो कारण से किया: सत्ता को अपने विदेश में होने की खबर देना और कायमा के दिल से अपने आप को निकालने के लिए!
पर ट्रायम्फ मुझे अपना सलहकार बनाना चाहता था। उसने ऑनलाइन और ऑफलाइन फीलेर्स भेजने शुरु कर दिये इस आशय के। पर मैं इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहता। न तो मैं अमेरिकन था, न लीरल न पब्लिकन। मैं तो खालीश कारतिए था। और अपने देश जाने की ताक में था। कब वहाँ का माहौल शांत हो और मैं वापिस लोटूँ।
उधर ट्रायम्फ ने एक फरमान जारी किया। अमेरिका के घरेलू यात्रियों के सोशल मीडिया अकाउंट जांच करने का। हर जगह-हवाई अड्डों, बस और रेल स्टेशनो पर उनके सोशल मीडिया के अकाउंट और गतिविधि के बारे पूछ-ताछ की जाएगी। । विदेश से आए हुए के लिए पहले से ही ऐसा था। मैं समझ गया। यह मेरे लिए फंदा है उसके जाल में आने का। अब अमेरिका में भी और रहना खतरे से खाली नहीं रह गया था।
और मैं मेक्सिको का बार्डर क्रॉस कर अमेरिका छोड़ा। कितनी मुश्किलो से भरा रहा वह सफर भी! शरणार्थी बन कर रहना पड़ा। एक बार तो ऐसा लगा जैसे सब खत्म हो गया। पहले डोंगे से बार्डर के पास पहुँचा। वहाँ से 30 40 किलो मीटर पैदल चलना। किस तरह एक महीने के कठिन दिनों का सफर तय कर मारिशश पहुँचा।
माँरीशस में बलिया के एक भैया ने काफी मदद की। वहाँ पार्ट टाइम नौकरी करने लगा। साथ-साथ दर्शन प्रोजेक्ट पर भी काम ज़ोरों से चलने लगा।
मारिशश आ कर ऐसा लगा जैसे अपने ही देश में ही आया हुआ हूँ। भोजपुरी सुनकर मन प्रसन्न हो जाता। यहाँ तो भोजपुरी देश की तीन भाषाओं में से एक भाषा भी है। पर अपने देश में तो इसे भाषा ही नहीं माना जाता! यहाँ तक की संविधान के 14 राजपत्रित भाषाओं में भी इसका उल्लेख तो नहीं है। ये सोच कर मन थोड़ा खिन्न-सा हो जाता।
कैसे हैं हमलोग भी! कितने संकीर्ण खांचों और वर्गो में विभाजित है! और वह विभाजन और वैषम्य ही शायद हमारी पहचान है। जात-पात, भाषा, धर्म, क्षेत्र, उत्तर दक्षिण और पूरब पश्चिम! ओ कारत! तेरे कितने नाम, कितने दोष पुंज, कितने फ़ाल्ट लाइंस!
बाद में परिवार को भी बुला लिया। बस दिन गुजरने लगे। जिंदगी बसर होने लगी। बिना किसी आकांक्षा के। बिना किस तरह के चुनाव के, प्रत्यारोपन और इच्छा के। अच्छे-बुरे, भला-खराब के स्व-निर्णय के पाश से मुक्त। जो मिलता, जो आता, जो होता उसको सम भाव से, बिना विचारों और अवधारनाओं के प्रत्यारोपन के स्वीकार करने की कोशीश करता। सम भाव से।
आत्म स्थित रहते हुए, मन बुद्धि को शांत रखकर, शरीर और मन के आक्षेप-विक्षेप को बस वैसे ही सम भाव से देखते हुए। साक्षी भाव रखते हुए: कर्ता और भोक्ता भाव पर नियंत्रण रखते हुए जीने की कोशीश में जुट गया। यहाँ तक की कर्ता, कारक और कारण की तिकड़ी को एक ही मानता हुआ। इससे सारे विक्षेप, दुराग्रह, आग्रह, प्रत्यरोपन, प्रक्षेपण वगैरह धीरे शांत और श्रमित होने लगे।