सपना / हेमन्त शेष
मैंने देखा – मैं कई साल बाद, किसी आँगन में पहुँच गया हूँ, जहाँ नीम का एक बड़ा पुराना पेड़ है- कलेंडर में मार्च का पन्ना आ जाने से जो अपने लगभग सारे पत्ते झरा कर दिगंबर जैन साधु जैसा दिख रहा है और जिसकी सबसे ऊपर की डाल पर एक कबूतर पंख फडफडाता हुआ बस बैठना ही चाहता है. वह कबूतर दूसरे कबूतरों से कुछ अलग इसलिए दिखता है क्यों कि अभी दूसरे कबूतर इस नीम पर नहीं आये, वरना ये कबूतर भी ठीक अपनी जाति के दूसरे कबूतरों जैसा लगने लगता और मुझे ये पहचानने में असुविधा होती कि वो कौन सा कबूतर था जो नीम की सबसे ऊंची डाल पर पहले वाक्य में पंख फडफडाता हुआ बैठना चाहता था?
आधी नींद और आधे जागने की मिश्रित सुरंग में से पैदल गुजरते हुए मैंने ये पता लगा लिया है कि पुराना पेड़ और आँगन मेरे घर का नहीं बल्कि मेरे बचपन के पक्के दोस्त उमेश पारीक का है. अब क्रमशः यह भी स्पष्ट है कि मैं उमेश के घर के आँगन में दिगंबर जैन साधु जैसे दिख रहे नीम के पुराने पेड़ के नीचे खड़ा हूँ जिसके कुछ ही क्षणों में वही कबूतर सबसे ऊपर वाली डाल पर आकर बैठेगा- जिसकी चर्चा हम ऊपर सुन चुके हैं.
मैं सोच रहा हूँ अगर मेरे दृश्य में कहीं पतझर के दिनों की हवा है, तो नीम के बचे खुचे पत्तों को थोड़ा बहुत हिलना चाहिए, भले ही उनकी संख्या मेरे बहुत पुराने, बचपन के दोस्त उमेश के आँगन में उगे पुराने नीम पर कम ही क्यों न हो गयी हो. अब आँगन है, दिगंबर जैन साधु जैसा नीम है, कबूतर है, थोड़ी बहुत हवा है, और ये सब मिला कर दोस्त का वही पुराना घर है जहाँ मैं खुद को बरसों बाद आया देखता हूँ.
उमेश की माँ जो मुझे भी बहुत स्नेह करतीं हैं, आँगन के नीम के नीचे जहाँ जिसकी सबसे ऊपर की डाल पर एक कबूतर अभी अभी पंख फडफडा कर बैठ चुका है, अचानक अपने घर आया देख कर खुश होती हुई कहती हैं- “अच्छा लगा तुहें देख कर...चलो बरसों बाद सही, हम लोगों की याद तो आयी....”