सपने के ठूँठ पर कोंपल / सत्यनारायण पटेल

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-देख सतीश..., मुझे मत समझा...! वो जो तेरा दोस्त है न... क्या नाम उसका...? हाँ.. अजय...। वो कितना महान है? ...मैं जानता हूँ। एक ज़िन्दगी जी है मैंने। ये तानकी के बाल, गार्नियर पोतकर सफ़ेद नहीं किये हैं। ये सतीश के बाऊजी बोल रहे थे, पर लग रहा था- जैसे कोई एक्टर नाटक के संवाद की रिहर्सल कर रहा था।

वह सुबह का वक़्त था। सतीश के बाऊजी सोफ़े पर बैठे थे। उनका एक हाथ चाय का कप थामे था। दूसरा हाथ टी-टेबल पर फैले अख़बार के पन्ने पलट रहा था। अख़बार बाँचना, ...और चाय की चुस्की के साथ अख़बार बाँचना, उनकी स्थाई आदत थी। अख़बार बाँचने और चाय की चुस्की के बीच के छेके में, वे इधर-उधर नज़र दौड़ाते, तब तक उनका दूसरा हाथ पन्ना पलट देता। वे फिर अख़बार बाँचने लगते थे। पर अब अक़्सर जब उनका हाथ पन्ना पलटता, नज़रे सतीश पर जा टिकती। मुँह से कोई समझाइश, या कोई उपदेश निकलता। ...और ये समझाना या उपदेश देना, लगभग उनकी रोज़मार्रा की ज़िन्दगी का हिस्सा बनता जा रहा था।
  
सतीश के बाऊजी दो-तीन बरस पहले जीवन के तीरपन-चौपन आँटे पार कर चुके थे। उनकी खोपड़ी पर सिंगे चोटी की तरफ़ तेज़ी से बढ़ रहे थे- जैसे खोपड़ी पर दो रणवे तैयार हो रहे थे।
लेकिन बाऊजी की जीवन के आँटे चढ़ने की गति दिन पर दिन धीमी होती जा रही थी। उन्हें जीवन का एक आँटा चढ़ने में ऐसा लगता- मानो दो-तीन बरस ख़र्च करना पड़ रहे हैं, ... और इस पर भी उन्हें लगता- बरसों से वहीं के वहीं ठहरे हैं, ...और ठहरी है उनके भाल पर पिछले कई बरसों से एक चिन्ता भी। चिन्ता, अपने बेटे सतीश को खो देने की। इस चिन्ता और दुख का घोल ही कभी-कभी गुस्सा बनकर फूट पड़ता, जैसे उस दिन अख़बार बाँचने और चाय की चुस्की लेने के बीच के छेके में फूट पड़ा, और उन्होंने कमज़ोर दाँतों से सख़्त शब्दों को चबा-चबाकर कहा- अजय कहाँ लगता है ? दुनिया में इसके बाप के भी बाप पड़े हैं। कई मि० महान और कई ऊँची चीज़ हैं। तुम्हारी और अजय सरीखी कई पीढ़ियाँ, उनकी झाँटों में, भटक कर कहाँ बिला जाती, आज तक कोई रिसर्च भी नहीं कर पाया। सुन बेटा, तेरे लिए अच्छा यही होगा, तू शादी कर ले, अपना घर बसा ले और अपना धन्धा सम्भाले।
 

उस सुबह बाऊजी की बातों से सतीश को लगा- बाऊजी केवल अजय की ही नहीं, बल्क़ि उन सभी का अपमान कर रहे हैं, जो देश और दुनिया के समाज में बदलाव के लिए लड़ रहे हैं। कई कर्मठ और निष्ठावान लोगों का अपमान। महान और ऊँचे लोगों का अपमान। वे उन्हें मि० महान और ऊँची चीज़ कह रहे हैं!

बाऊजी की कटु बातें सुन कर सतीष का गेहँुआ रँग एकदम लाल सुर्ख़ हो गया। तीखी नाक के नथुनों से साँस तेज़ी से भीतर-बाहर होने लगी। चैवीस-पच्चीस की वय के सतीष का इकहरा सीना ज़ल्दी-ज़ल्दी ऊपर नीचे होने लगा। वह अमूमन कम ग़्ाुस्सेल था, पर उस वक़्त थोड़ा ज़्यादा ही ग़्ाुस्सा हो गया था, बस, यूँ समझो दूध उफन कर भगोनी के किनारे तक आ गया था, बाहर उबराया नहीं। उबरा जाता तो पूरी उम्र घीसकर चमकायी बाऊजी की इज़्ज़त का क्या हश्र होता ? षायद यही सोच वह ग़ुस्से का उबलता घूँट गटक गया। लेकिन फिर आये दिन अख़बार बाँचने और चाय की चुस्की लेने के बीच का छेका बार-बार और ज़ल्दी-ज़ल्दी आने लगा। कई बार तो ऐसा भी होता। न अख़बार होता। न बाँचना होता। न चाय होती। न चुस्की होती। पर डाचा (मुँह) फाड़े छेका होता। चकर-चकर होती। चकर-चकर में अजय होता। मि. महान और ऊँची चीज़होती।

असल में बात उस बरस से षुरू होती है, जिस बरस सतीष ने ताज़्ाा-ताज़ा ही बी. ए. पास किया था और माँ-बाऊजी उसकी षादी कराने पर अड़गये थे। उन पर सोते-जागते एक ही धुन सवार थी- सतीष घर बसाले और धन्धा सम्भाले।

सतीष को न षादी से एतराज था, न उस धन्धे से, जो उसके बाऊजी ने अपने और अपने बाद बेटे के लिए खड़ा किया था। उनका धन्धा सोयाबीन का खुल्ला तेल बेचना और उसकी दलाली करना था। बाऊजी चाहते थे कि सतीष षादी कर ले। सतीष को बाऊजी की बात नामंजूर नहीं थी, पर उसकी एक इच्छा थी, जो बाऊजी को मंजूर न थी। उसकी इच्छा, बाऊजी की नज़्ार में एक जिद थी। जिसे उन्होंने तवज्जो देना ठीक न समझा, और वही जिद उनका सिरर्दद बन गयी थी। षायद यही वजह थी कि अख़बार बाँचने और चाय की चुस्की के बीच के छेकों की ज़रूरत बढ़ती गयी। षायद यही वजह थी कि छोटे-छोटे छेकों से मिलकर दोनों के बीच एक विषाल छेका पसर गया था। बाऊजी ने इसकी वजह सतीष की जिद यानी छोटी-सी इच्छा- षादी तो करना है, पर नीतू से, को माना।

नीतू, सतीष के साथ काॅलेज में पढ़ती थी। दोनों एक-दूसरे को इतने पसंद थे कि साथ जीना चाहते थे। उनके कारनामों की बदौलत, उनकी जोड़ी काॅलेज में सलमान खान और भाग्यश्री के नाम से फैमस हो गयी थी। उन्हीं दिनों मधुमिलन में फ़िल्म ‘मैंने प्यार किया’ लगी थी, जिसे उन्होंने इक्कीस बार देखी थी। षहर के आसपास सौ किलो मीटर के भीतर के रमणीय स्थल- चोरल डेम, तिंछा फाल, पाताल पानी, सीतला माता फाल, कजली गढ़, यषवंत सागर यानी ज़िले की हर षान्त और एकान्त जगह, उनके प्यार के एहसास से भरी थी। ज़िले का षायद ही कोई ख़ाली कोना हो, जहाँ उनके प्यार की ख़ुषबू न बिखरी हो। बस, उनका वही एक छोटा-सा सपना था- साथ में जीना। उसके लिए तेल बेचना, तेल की दलाली करना मंजूर था। बल्क़िएक दिन तिंछा फाल की उस चैड़ी और ऊँची चट्टान पर पैर लम्बे किये बैठी नीतू की जाँघ पर सिर रख कर लेटे सतीष ने यह तक कहा था- मैं ठेले पर तेल से भरी कोठियाँ रखकर भी तेल बेचने को तैयार हूँ। बस, एक बार माँ-बाऊजी अपनी ऊँची जाति के अहंकारी पहाड़से नीचे उतर कर हम दोनों को स्वीकार कर लें।

लेकिन सतीष के बाऊजी जिस बिरादरी के थे, दुनिया में उस बिरादरी के कम ही बाऊजी बचे थे। उन्हें जैसे ही पता चला कि सतीष की ज़िन्दगी में नीतू नाम की कोई अलती-भलती बीमारी है, तो उन्होंने देषी इलाज से ही सतीष को रोग मुक्त करने का सोचा। अपने सोचे पर आगे बढ़कर उन्होंने बीमारी की जन्म कुण्डली ही नहीं, उसकी और उसके पुरखों की जड़ों तक का अध्ययन कर डाला। अध्ययन से निष्कर्ष यह निकला कि सतीष की चट मँगनी और पट ब्याह कर दिया जाये।

जब उन्होंने अपने निष्कार्ष से सतीष की माँ को अवगत कराया, तो वह ख़ुष हुई थी। लेकिन जब सतीष को बताया, तो सतीष के मग़ज़में भँवरे पड़ने लगी। भँवरों के मंथन से प्रष्न नमुदार हुआ- बाऊजी पर अचानक षादी का भूत कैसे सवार हो गया ? उस क्षण जब भँवर से तत्काल कोई उत्तर न मिला, तो उसने बाऊजी से कह दिया- मैं नीतू से षादी करना चाहता हूँ।

बस, फिर क्या था ? चाय के कप को बाऊजी के होंठो की जानिब ले जाता उनका हाथ, बीच में ही रुक गया। उनकी नज़र, जो उस वक़्त अख़बार में छपी ख़बरों के अक्षरों की पहचान उनके मस्तिष्क को करा रही थी, वह अख़बार से उठकर सतीष के चेहरे पर चुभने लगी। उनका मस्तिष्क ख़बरों का विष्लेषण करना छोड़कर, सतीष की बीमारी के अध्ययन के सारे तथ्य बटोर चुका था। उनके होठों का भी यह आचरण स्वाभाविक था कि उन्होंने ख़बरों के अक्षर बुदबुदाना छोड़दिये थे। वे फैलकर चैड़े और गोल हो गये, ताकि भीतर से हवा के कन्धों पर सवार होकर आते ग़ुस्से को षब्दों का लिबाज़पहना सके। दूसरे ही क्षण उन्होंने आदेषात्मक लहज़े में कहा- वह काली कलूटी, मुझे तेरी बाइक पर बैठी नज़र नहीं आना चाहिए।

सतीष को जैसे बिजली का झटका लगा। वह कुछ क्षण स्तब्ध खड़ा रहा। फिर सम्भलकर दबी और काँपती आवाज़में बोला- बाऊजी, नीतू के पिता डाॅक्टर हैं। मम्मी पढ़ाती है। पास के ही कस्बे में रहते हैं। भला परिवार है। अच्छी लड़की है और फिर हम एक-दूसरे को पसं....

-डाॅक्टर हो या इंजीनियर, मैं किसी नीच को अपना समधी नहीं बना सकता। स्पष्ट और सख़्त लहज़ा था बाऊजी का।

उन्हीं के समर्थन में माँ भी समझाने के लहज़े में बोली- मानजा बेटा, बहस मत कर। मैंने तो कभी नीची जात के घर का पानी भी नहीं पिया, तू तो बहू लाने की बात कर रहा है।

उन दिनों सतीष को एक ही रास्ता सूझ रहा था- दोनों कहीं भाग जायें। भागे नहीं, तो पाताल पानी से छलाँग लगा दें। या पानी में बहते हुए तिंछा फाल की हत्यारी झील में गिर जायें। जहाँ से कभी कोई वापस नहीं लौटता।

लेकिन नीतू न भागने को राज़ी, न पाताल पानी या तिंछा फाल की गहराई में जीवन गँवाने को तैयार। तैयार थी तो- घर के लोगों के साथ माथापच्ची करने को, सतीष के माँ-बाऊजी के साथ बातचीत को। ऐसा करना उसके लिए सहज था- अक़्सर काॅलेज में होने वाले वाद-विवाद में भाग लेने जैसा ही। वह न सिर्फ़ साफ़-सुथरी समझ की, बल्क़िमन की उजली दरक भी थी। उसके तर्क अच्छे खाँ के तर्क का घड़ा औन्धा कर देते थे। पर जब बुजुर्ग और षान्त दिमाग की भट्टी में तपी षड़यंत्र की आरी चली, मुँह खोलने का मौक़ा ही कहाँ मिला ! बन्द होंठों की दीवार के पीछे जबान जड़से कट गयी। बोलना तो दूर, आह भी न भर सकी। कब इंजीनियर के गमछे से पल्लू बन्धा ! कब अग्निकुण्ड के सात चक्कर काटे ! कब कार में बैठी। पार कर पुल और घाटे। पहुँच गयी दो सौ कि.मी. दूर। न ख़ुद कुछ कर सकी, न सतीष कुछ कर सका। दुष्मन से तो जीतता आया जग। पर जब सगा दे दगा, तो कैसे जीते कोई भला !

जब धोके के चेहरे से घूँघट उठा। नीतू सिसककर रह गयी। सतीष के मन में गाँठ पड़गयी, वह भीतर-भीतर बुदबुदाया- बाऊजी की मर्जी से षादी न आज करूँगा, न कल।

फिर धीरे-धीरे गाँठ भीतर ठोस और ऊपर चिकनी होती रही। सतीष का काॅलेज से जी उचट गया। एक दिन काॅलेज जाना ही छूट गया। पर जो न छूटा, वह क्रिकेट खेलने का षौक था। क्रिकेट से ही जी बहला रहा था उन दिनों। कभी इस षहर जाता, कभी उस षहर।

माँ-बाऊजी का सोचना था- नीतू का भूत उतरने में एकाध साल तो लगेगा। एक साल को बीतने में कौन-से दस साल लगते। एक दिन साल भी बीत ही गया। सतीष ने नीतू की याद को अपने मन के नर्म और अँधेरे कोने में दफ़न कर दिया ! या सच में नीतू का भूत उतर गया या नहीं ! सतीष के सिवा कौन जानता ? कैसे जानता ? और सतीष के माँ-बाऊजी के सिवा चिन्ता भी किसे पड़ी थी, जो जानता ?

लेकिन उसके बाऊजी और जानने-पहचानने वाले सभी जो जानने लगे थे, वह था- सतीष का अजय के साथ ज़िन्दाबाद-मुर्दाबाद करना।

दरअसल बात बाबरी मस्जिद ढ़हाने के बाद के दूसरे या तीसरे बरस के जून महीने की थी। बरसात किसी भी दिन धावा बोलने की तैयारी में थी। षहर में नाले किनारे की झांेपड़पट्टियों को हटाने की प्रषासनिक कार्यवाही गुंडई स्तर पर चल रही थी। अजय उन दिनों झुग्गी झोंपड़ी संघर्ष मोर्चा में सक्रिय था।

उस दिन सतीष महू में चल रहे क्रिकेट टूर्नामेंट में मैच खेल कर बाइक से लौट रहा था। उसने चिड़िया घर के सामने की झोंपड़ियों के पास जमा भीड़देखी, तो वह रुक गया। बाइक खड़ी कर भीड़के पास गया और वहाँ चल रहा माजरा देखने लगा- पुलिस गाली-गलौच कर रही थी। झोंपड़ियों के सामने खड़े लोग चिल्ला-पुकार कर रहे थे। सतीष पुलिस की जीप के नज़दीक खड़ा था। उसकी उलटी बाजू डम्पर खड़े थे, जिसमंे नगर निगम के मुष्टण्डें लोगों का सामान जबरन फैंक रहे थे। सामान की तरह ही बच्चों, औरतों और बूढ़ों को भी भर रहे थे। लेकिन कुछ लोग थे, जो मुष्टण्डों को लोगों का सामान भरने से रोक रहे थे। पुलिस और नगर निगम वाले अजय नाम के युवक को एक तरफ़बुलाकर समझा रहे थे। बात ही बात में, बात कुछ ऐसी बिगड़ी कि पुलिस सुपारी की बंेत भाँजने के हुनर का प्रदर्षन करने लगी थी।

उस दिन अजय और बस्ती के लोगों की आँखों में असंतोष का जो पारावार देखा, उससे सतीष के ज़मीर की जड़े हिल गयीं। ज़ेहन में आवाज़गँूजी- जीवन यहाँ है- बिलबिलाता और सिसकता। देष यहाँ है- बेंत की बरसात में भीगता। देष भक्ति यहाँ है- खाल उधड़वाती और वार पर वार सहती। वह दिन सतीष के क्रिकेट जीवन का आख़िरी और अजय के साथ जुड़ाव का पहला दिन था। फिर तो जहाँ अजय, वहाँ सतीष। कहीं धरना प्रदर्षन हो या कहीं घेराव करना हो। उनकी जुगलबन्दी ने षहर को एक ख़ास गर्माहट से भर दिया था।

जब जुगलबन्दी के कामों की बातें षहर में होतीं, तो सतीष के बाऊजी के कान भी सुनते। अख़बार में ख़बरे छपतीं, तो वे उन्हें कैसे न बाँचते ! ये ख़बरे उनका हैडक बढ़ाती। उन्हें लगता- सतीष को एक रोग से मुक्त कराया, तो दूसरे ने पकड़लिया।

उन्होंने नीतू की तरह ही अजय से भी छुटकारा दिलाने की सोची। क्योंकि उनका मानना था- नीतू से षादी होने पर आने वाले वारिष संक्रमित जाति के होते, जिसे होने से उन्होंने उस वक़्त बचा लिया था। उन्होंने नीतू की तरह अजय के भी भूत-भविष्य का अध्ययन कर लिया था। उन्होंने जो पाया था, उस आधार पर सोचा- अब सतीष जिसके फेर में पड़ा है, वह उसकी लाइन बिगाड़देगा। लाइन बिगड़ने से बचाना उन्हें अपना फर्ज़ लगा।

सतीष के बाऊजी, सतीष के दुष्मन कतई नहीं थे। वे जो भी सोचते थे या करते थे, सतीष की ख़़ुषी के लिए करते थे। कम से कम, वे तो ऐसा ही मानते थे। उन्हें सतीष को अपने तेल के धन्धे की लाइन पर ही चलाना था। लेकिन साल भर पहले घटे नीतू प्रकरण से सतीष का मूड षादी और धन्धे से उखड़गया था। लेकिन बाऊजी का मूड यथावत था, इसलिए अक़्सर अख़बार पढ़ने और चाय की चुस्की लेने के बीच के छेकों में समझाने की कोषिष करते रहते थे।
सतीष के बाऊजी को बोलने का अच्छा रियाज था। जब एक बार षुरू होते, तो कम से कम आधे घण्टे भाषण झाड़ते। जब उन्होंने अजय और उसकी सारी जड़ों का अध्ययन कर पहली बार सतीष को समझाने के उद्देष्य से कहा था- सुन बेटा, तेरे लिए अच्छा यही होगा, तू षादी कर ले, अपना घर बसा ले और अपना धन्धा सम्भाले।
 

उस दिन भाषण यहीं ख़त्म नहीं हुआ था। उन्होंने यह भी कहा था- जो लोग केवल बौध्दिक जुगाली करते हैं, या पोस्टर, बैनर लगवाते हैं, धरने, प्रदर्षन करवाते हैं। वे केवल सत्ता और फंड देने वाली संस्थाओं की नज़र में आने के लिए एक नौटंकी करते हैं। दुनिया और समाज को बदलने के नाम पर ढोंग रचते है। गाँधी कौन-सी कम्पनी की कार में बैठ क्रान्ति करने निकला था ! भगत सिंह किस कम्पनी का पानी पीता था और किस संस्था से फंड लेकर इन्क़लाब का नारा बुलन्द कर रहा था ! इन्हें कुछ बदलना-वदलना नहीं है, ये तुम जैसे लोगों की भीड़के कान्धांे पर चढ़अपनी भूख मिटाना चाहते हैं। अपने एन. जी. ओ. में फंड लाने की भूख। षोहरत पाने की भूख। राजधानी में किसी संस्था का निदेषक, सचिव या संयोजक बनने की भूख।

यह कहते हुए उनके चेहरे पर गुस्से और हिकारत के भाव उभर आये थे। लेकिन उन्होंने आपा नहीं खोया था। न ही अभी अपना भाषण ख़त्म किया था। वे सतीष के कान्धे पर हाथ रखकर बोले- ये तेरा अजय है न, ये किस मि. महान और ऊँची चीज़के फेर में पड़ा है, मैं जानता हूँ।

सतीष के पास चुपचाप सुनने के सिवा कोई चारा नहीं था। वह जानता था कि ऐसे मौक़ों पर कुछ भी बोलने का मतलब भाषण की लम्बाई बढ़ाना होता, और उस वक़्त वह ज़ल्दी सटकने के मूड में था। उन दोनों में अक़सर जो चकर-चकर होती, वह अख़बार बाँचने और चाय की चुस्की के बीच के छेकांे मंे होती, तो सतीष ने सुबह की चाय पीने का अपना वक़्त ही बदल दिया था। बात यही थी कि रोज़-रोज़चकर-चकर अच्छी नहीं लगती थी। अब वह कभी बाऊजी के पहले ही चाय सुड़ककर सटक जाता। कभी बाऊजी अख़बार बाँच रहे होते या चाय पी रहे होते, तो अपने कमरे में ही कुछ न कुछ कर मौक़े की ताक में रहता। बाऊजी बाथरूम में जाते या आॅफिस जाते, तब बाहर आता। सतीष ऐसा करके कई बार अपने बाऊजी के सामने पड़ने से तो बच जाता। लेकिन दोनों के बीच तनाव का फलना-फूलना ज़ारी था। फिर कभी-कभी ऐसा भी हो जाता। सतीष सामने पड़ने से न बच पाता। जैसे उस दिन माँ की वजह से धरा गया था।

हालाँकि माँ को भी ऐसा कुछ अँदाज़ा न रहा होगा कि वह सुबह सतीष की कुछ ऐसी गुज़रेगी। छोटी-सी बात- सतीष ने माँ से हाथ ख़र्च और बाइक के पेट्रोल के रुपये माँगे। माँ किचन में कुछ कर रही थी, तो उसने बाऊजी की ओर टरका दिया था।

बाऊजी नहाकर गुसल खाने से बाहर आये ही थे। मूड भी ठीक-ठाक ही था। सतीष को बाऊजी से रुपये माँगना नहीं पड़े थे, क्योंकि उन्होंने सतीष की माँ की आवाज़सुन ली थी।

वह बाऊजी की ओर घुमा, तो बाऊजी ने खट्ट से रुपये निकालकर नहीं दे दिये थे। उन्होंने सतीष का बाजू पकड़ा और उसे दरवाजे़से बाहर ले जाने लगे। सतीष को लगा- आज धक्का देकर घर से बाहर कर देंगे। लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया। घर के बाहर की जगह में अमरूद का एक पेड़, एक पेड़पपीता का और कुछ पौधे फूलों वाले थे। उन्होंने उन सभी पेड़, पौधों की ओर इषारा कर पूछा- इनमें कोई ऐसा पेड़या पौधा है, जिस पर रुपये लगे हैं ?

अब सतीष क्या बोलता ? काटो तो ख़ून नहीं। नसों में ख़ून की बजाय मानो षर्मिन्दगी बहने लगीं। उसके बाऊजी बोले- बेटा, अब मुझसे भी काम नहीं होता। तू मेरे साथ आॅफिस चला कर, काम सीख और काम में मेरी मदद कर। कमा और ख़र्च कर।

सतीष वापस घर में जाने को घुमा, तो बाऊजी ने रोका। अभी उनकी बात ख़त्म नहीं हुई थी। वे बोले- मेरे साथ काम करना पसंद नहीं, तो जहाँ काम करता है, उन्हीं से अपना ख़र्चा भी ले।

उस दिन जब सतीष और अजय मिले। सतीष ने पूरा वाकया सुनाया। अजय ने कहा- संस्था के पास अभी कोई फंड तो है नहीं, जो सबका ख़र्चा उठा सके। सभी पहले रोज़ी-रोटी का कुछ इंतजाम करते हैं, बाद में ये सब। मैं भी तो रंगाई, पुताई के ठेके लेता ही हूँ  ! तू भी अपने बाऊजी का काम देख। पर काम में ही मत रम जाना, इधर भी मदद करना।

अजय की सलाह मानकर सतीष आॅफिस में काम करने लगा। उसके बाऊजी ने कुछ ही दिनों में काम के तौर-तरीके सीखा-समझा दिये। फिर धीरे-धीरे वे आॅफिस में कम नज़र आने लगे। कभी बीमार हो जाते। कभी किसी रिष्तेदार के यहाँ चले जाते। कहीं भी आते-जाते। पर आॅफिस में सप्रयास कम दिखते।

आॅफिस में कम दिखते इसका मतलब यह नहीं कि वे आराम फरमा रहे होते ! वे सतीष के फेरे फिरवाने के गुन्ताड़े में लगे रहते।

अब जैसे उस रविवार की ही बात ले लो। क्या हुआ था उस रविवार को ? सब ठीक-ठाक ही था। आॅफिस की छुट्टी थी। सतीष थोड़ा देर से जागा था। जागने के बाद नहा-धोकर अजय के पास जाने की तैयारी कर रहा था, और जब तैयार होकर सतीष अपने कमरे से नीचे हाॅल में आया, तो ये देख भौंचक्क था- हाॅल में उसके मामा, मौसा, फूफा सब विराजमान थे। सतीष के बाऊजी ने ही बुलाये थे उन्हें। सभी ने कहीं न कहीं सतीष के लिए लड़की ढूँढ़ी हुई थी।

उन्हें देख, सतीष को लगा- महीनों से जो चैन की बंसी बजाता आ रहा है, उसका स्वर रूँधने वाला है। सोचा चुपचाप सटक ले ! पर कैसे सटकता ? बाऊजी ने जो चक्रव्यूह रचा था, उसे भेदना आसान कहाँ था ? उसी में उलझ गया। करीब दो-ढाई घन्टे की बहस के बाद मुक्त हो सका। पर उस बहसा-बहसी के बाद वह ख़ुष था। यह ख़ुषी अजय के साथ बाँटने का सोच वह निकल लिया था। चलती बाइक पर से ही अजय का मोबाइल नम्बर मिलाया।

अजय उस वक़्त पलासिया वाली अपनी दुकान के सामने से गुज़र रहा था, उसे सतीष ने वहीं रुककर अहाते में तामझाम जमाने के लिए कहा। अजय कहीं बहुत ख़ास काम से तो जा नहीं रहा था। अपनी रंगाई-पुताई की साइड तरफ़ही जा रहा था। वह काम उसने मजदूरों से मोबाइल पर बात करके ही निपटा लिया और अपनी दुकान के अहाते में तामझाम जमवाने लगा। तब तक सतीष भी पहुँच ही गया।

-क्या हुआ, आज भर दोपहर में ही ? अजय ने बोतल का ढक्कन खोलते हुए पूछा।

-अरे वही पुरानी बात यार, आज फिर बाऊजी ने रिष्तेदारों के साथ मिलकर घेर लिया ! सतीष ने पूरी बात का सार बताया और फिर बोला- लेकिन मैंने भी कह दिया कि मुझे षादी नहीं करनी। अब आपको रिष्तेदारी रखनी है तो रखो, वरना भाड़में जाओ। आये बड़ेझँटल्लुचंद रिष्तेदार।

-फिर .....?

-फिर क्या ? तू बाऊजी की आदत तो जानता है। वे सकने बैठने वाले तो है नहीं, पर हाँ, अब लगता है- साल-दो साल सुकून रहेगा।

-मैं अभी तक ये नहीं समझ पाया कि तुझे लड़की पसंद नहीं आ रही है या षादी नहीं करनी है ? पैकेट से अजय ने सिगरेट निकालते हुए पूछा था।

-यार मैंने कुआँरा मरने की क़सम नहीं खायी है। सतीष ने अजय के होठों में फँसी सिगरेट में आगकाड़ी छुआते हुए कहा- कोई अपनी ढ़ब की मिल गयी, तो सोचूँगा।

-फिर भी कैसी ? अजय ने धुआँ छोड़ते हुए फिर कुरेदा।

-यार कोई हूर नहीं... बस्स... मेरे भीतर फैलती रोषनी में तर दोस्त मिल जाये, तो धन्य हुआ समझो। अजय के कन्धे पर हाथ धरते हुए सतीष बोला था। जब वह बोल रहा था, तो लग रहा था- वह किसी सपने की तलहटी में सीढ़ियाँ उतरता जा रहा था।

-लगता है प्यारे, तू कुआँरा ही रहेगा। अजय ने मसखरी करते हुए कहा। फिर वह थोड़ा रुका और मुँह में सिंगदाना डालता बोला- पर सपना देखना अच्छी बात है। देख प्यारे, देख।

-सपना ... भीतर ही भीतर सतीष बुदबुदाया। उसकी आँखों में नीतू उतर आयी थी, और उतर आये थे कई दृष्य, जिन्हें दोनों ने साथ-साथ जीया था। जीते हुए ही एक पूरी उम्र साथ-साथ जीने का सपना देखा था, जो ऊँची जाति के अहम की ऐड़ी से कुचला गया था। याद आते ही भीतर कई ब्लेडें चल गयी। पलकों के कोनों से पानी निथर गया।

उसे देख, अजय का चेहरा भी कुछ क्षण गम्भीर हो गया। दोनों के बीच चुपके से सन्नाटे ने क़दम रख दिया। सन्नाटे की मौजूदगी अजय को नहीं सुहायी और बोला- कहाँ खो गया भाई मुँगेरी लाल।

-यार, कुआँरा भी मरा, तो अपनी ही तरह से मरूँगा। सतीष ने कहा और दोनों ज़ोर का ठहाका लगा उठेे।

षहर में रोज़-रोज़तो धरने-प्रदर्षन होते नहीं, मगर उनका मिलना लगभग रोज़होता। हालाँकि उस दोपहर वे दो दिन बाद मिले थे। दो दिन पहले उन्होंने बस्ती में पर्चे बाँटे थे। लेकिन जब भी मिलते, उनके बीच झोंपड़ी से लेकर व्हाईट हाऊस तक लम्बी बहस होती।

उस दोपहर सतीष ने गिलासों में षराब डाली और पानी डालने के लिये जैसे ही टेबल पर रखा जग उठाया, तो अजय ने टोका और जग को वापस टेबल पर रखने को कहा। सतीष ने पूछा- क्यों ?

-पाऊच बुला ले यार ...., जग को जाने कितने लोग हाथ लगाते हैं, बराबर साफ़न रहता। अजय ने मुँह बनाते हुए कहा और फिर ख़ुद ही ने इषारे से वेटर को बुलाकर पाऊच लाने का कह दिया था।

अजय की इस हरकत ने सतीष को दो दिन पहले की एक बात याद दिला दी। दो दिन पहले आठ मार्च था- यानी अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस था। उस अवसर पर एक सम्भ्रान्त मैडम टाइप की महिला और उनके साथी ने एक पर्चा छापा था। वही पर्चा बाँटने को बस्ती में जमा हुए थे। पर्चे बाँटते-बाँटते सतीष को प्यास लगी। सतीष ने एक झांेपड़ी वाले से पानी माँगा। झोंपड़ी वाला चारों के लिए पानी ले आया। सतीष और अजय ने तो पानी पी लिया। लेकिन सम्भ्रान्त मैडम टाइप की महिला और उनके साथी ने मना कर दिया। गर्मी मार्च में ही अप्रैल-मई जैसा तेवर दिखा रही थी। हवा भी सुन्न थी। षायद यही वजह थी कि झोंपड़ी वाले ने थोडे़ज़्यादा आग्रह के साथ मैडम की ओर पानी का गिलास बढ़ाया। जिससे मैडम कुछ असहज हो गयी, हालाँकि कुछ बोली नहीं, अपने साथी की तरफ़ऐसे देखा, जैसे कह रही हो- ये क्या ज़बरदस्ती है ? साथी ने तुरन्त स्थिति को सम्भलते हुए कहा- प्यास नहीं है।

लेकिन फिर ज़ल्दी ही तपन के कारण पर्चे बाँटने से उनका मूड उखड़गया। पर्चे बाँटना बंद कर बस्ती से बाहर आ निकले। कार में बैठे और एक काॅलोनी में आ गये, जहाँ साँची प्वाईन्ट था। कार रोकी। ठन्डे पानी की दो बोतलंे ख़रीदी। एक अजय और सतीष को पीने के लिए दी। एक उन दोनों ने पी। तब सतीष को लगा कि इन्हें प्यास तो थी, पर षायद झोंपड़ी वाले का पानी पीना ठीक नहीं समझा।

जब उस दोपहर अजय ने षराब में जग का पानी न डाला। सतीष को झोंपड़ी वाली बात याद आयी ही थी। उसने सोचा- उस दिन के बाद अजय दो दिन उन्हीं के साथ दूसरे षहर किसी मीटिंग में गया था। वहाँ से सुबह ही लौटा है और मेरे साथ बैठा है, तो षराब में जग का पानी नहीं मिला रहा है। इन सब बातों के साथ उसे बाऊजी की बात याद हो आयी- गाँधी कौन-सी कार में बैठकर क्रान्ति करने निकला था ? भगतसिंह ने किस कम्पनी का पानी पीकर इन्क़लाब का नारा बुलन्द किया था ?

वेटर पाऊच दे गया। सतीष ने पाऊच को दाँत से काटा गिलास में पानी डालने लगा। पानी डालते हुए ही बोला- यार, उन लोगों ने उस दिन बस्ती में पानी नहीं पीया, जबकि उनको प्यास लगी थी।

-देख, वो लोग कितने गन्दे-सन्दे रहते हैं। उनकी झोंपड़ियाँ कैसी बासती है ? अजय ने समझाया था- उनके यहाँ का पानी पीकर बीमार पड़ने का क्या तूक है ?

-बात तो सही है यार, गन्दा पानी नहीं पीना चाहिए। सतीष ने अजय की हाँ में हाँ मिलायी, और कहा- फिर उन्हें भी साफ़पानी मिलना चाहिए, क्यों ?

-बिलकुल ! अजय ने घूँट लेने से पहले कहा, और घूँट लेने के बाद कहा- लेकिन जब तक उन्हें साफ़न मिले, बाक़ी सब भी गन्दा पानी पीये ज़रूरी नहीं।

-लेकिन अगर कोई भी बोतल का पानी न पीये, और नलों में साफ़पानी, बल्कि हर तबके के लिए एक जैसे पानी की माँग करे तो ? सतीष बोल रहा था- और भूखे-प्यासे बैठ जायें, तब तक बैठें रहें, जब तक खातरि न दिला दी जाये कि सबको नियत समय के भीतर साफ़और पर्याप्त पानी मिलेगा।

-मर जाओगे, पर ऐसा भरोसा कोई नहीं बँधायेगा। अजय ने कहा। फिर वह गम्भीर होकर बोला- किसी ने कहा है, भूखे के लिए सोचो, ज़रूरत पड़े तो लड़ो, उसकी तरह भूखे मत मरो।

यह कहने के बाद अजय चुप हो गया। भाल पर कुछ रेखाएँ उभर आयीं थीं। षायद वह कुछ सोचने लगा था। षायद षहर में चल रही पानी के निजीकरण की सुगबुगाहट के बारे में कुछ। फिर अजय के चेहरे से रेखाएँ अलोप हो गयी।

यह देख सतीष को लगा- अजय के मन में जो कुछ आया है, जो उसने सोचा है, वह उसे भी बतायेगा ! पर अजय ने कुछ नहीं बताया-बोला। सिगरेट सुलगायी और कष खींचने लगा। तब सतीष को लगा- षायद कुछ ऐसी बात है, जो मेरे साथ न बाँटना चाहता है। सतीष ने कुछ पूछा भी नहीं और बात वहीं छूट गयी थी।

एक रात उसी अहाते में दोनों बैठे थे। अहाते में षोरगुल था। सतीष के मन में चल रहा था- वह सम्भ्रान्त महिला और उसका साथी काम क्या करते हैं ? बाऊजी अक़्सर जिस मि. महान और ऊँची चीज़के बारे में बड़बड़ाते हैं। कहीं ये ही तो नहीं हैं वे ? फिर बुदबुदाया- अजय से पूछूँ  ? पर कहीं उसे बुरा तो न लगेगा !

लेकिन फिर सोचा-इसमें बुरा लगने कि क्या बात होगी ! मन में कोई बात है और वह अजय से न पूछूँगा, तो किससे पूछूँगा ? बल्कि अजय के सिवा किसी और से पूछना ही क्यों ? और उसने पूछ ही लिया था।

उस क्षण अजय के चेहरे पर कुछ ऐसे भाव आये- जैसे दोपहर के सूरज के सामने एक क्षण के सौवें हिस्से में काली बदली आयी, और एक सौ एकवें हिस्से में हट गयी। लेकिन क्षण के उस सौवें हिस्से की तस्वीर सतीष की आँखों ने खींच ली। न केवल खींची, बल्कि मग़ज़की ओर सरका दी। मग़ज़ने अपनी कोषिका की किसी तह में सुरक्षित रख ली और कानों को अजय की बात सुनने का संकेत दिया।

-लोग कुछ करते-धरते तो है नहीं, और जो कुछ करते हैं, उन पर ऊँगली उठाने से चुकते नहीं। अजय ने सम्भ्रान्त महिला और उसके साथी के पक्ष में खड़े होते हुए कहा- अब देखो, तुम्हारे बाऊजी ही ! ख़ुद तो धन्धा-धन्धा जपते हैं, और उस सम्भ्रान्त महिला को ऊँची चीज़्ा, और उसके साथी को मि. महान कहते हैं।

अजय थोड़ा असहज ज़रूर था, लेकिन वह समझाने वाले अँदाज़में ही बोल रहा था- उसे क्या कमी ? वह चाहे तो पूरी ज़िन्दगी मौज़-मस्ती करते हुए बीता दे। फिर भी कभी गंदी बस्ती के लोगों के, कभी किसानों के, कभी आन्दोलनों के लोगों के बीच आती-जाती है। उनसे मिलती-बतियाती है। अजय ने थोड़ा रुकने के बाद, सतीष की तरफ़हाथ का पँजा हिलाते हुए पूछा- करती है कि नहीं ?

-करती तो है। सतीष ने हामी में सिर हिलाकर कहा था।

-फिर ... ? अजय ने प्रष्नवाचक नज़रें सतीष की ओर फैलायी थी। सतीष चुप रहा था, अजय ही बोला- इस पर भी लोग कुछ न कुछ बकते रहेते हैं ? वह बकने वालों की नकल करता बोला- वह ए सी कार से आती है। अपने साथ मि. महान को लाती है।

-अरे..... तो क्या बुरा है भई इसमें ? अजय ने ही कहा और आगे वही बोला- अमीर लोग तो अपने कुत्तों को कार में बैठालकर घूमाते हैं। मि़महान के प्रति अजय ने सहानुभूति के भाव से बोला- फिर आख़िर वह उनका साथी है। ऐसा साथी कि उसके जैसी वफ़ादारी और भरोसा, दुनिया का सबसे क़ीमती कुत्ता भी क्या दिखाएगा ?

-अरे यार, ये बड़े भले और बड़े सादगी पसंद, और प्रतिबद्ध लोग हैं। अजय ने सतीष का कन्धा थपथपाते हुए कहा- उनकी आँखों में समाज को बदलने का सपना है। हम भी तो वही सपना देखतें है।

अजय ने इतने भले और भोले अँदाज़में कहा कि सतीष थोड़ा-सा झेंप गया। उसके भीतर मलाल रिस आया। लगा- महान और ऊँचे लोगों के बारे में उसके मन में ऐसा ख़्याल क्यों आया ? सतीष ने साॅरी नहीं कहा था, पर लगभग आत्मग्लानि से भीगी नज़रों से अजय की तरफ़देखा था।

उसने अपने मन में रिस आयी ग्लानि को षराब के एक बड़ेघूँट के साथ गटकी। सिगरेट के दो ज़ोरदार कष खींचे और धुआँ छोड़ते हुए मन में कुछ हल्कापन महसूस किया। फिर उसने सोचा कि बात का विषय बदला जाये। किस विषय पर बात षुरू करे ? कुछ क्षण के बाद सोच की सुई, तेल का धन्धा करने में आ रहे संकट पर अटक गयी।

उन दिनों खुदरा तेल के धन्धे पर बहुराष्ट्रीय बदलियों की काली परछाइयाँ मँडराने लगी थीं। धीरे-धीरे सातीष के आॅफिस में काम का लोड कम होने लगा था। नफ़ा भी कम होने लगा, न सिर्फ़ नफ़ा कम होने लगा, बल्कि दिन पर दिन धन्धा करना कठिन होने लगा। कहीं गहरी काली, तो कहीं सफे़द चमकीली बदलियाँ। छल और कुटिलता से भरी इन बहुराष्ट्रीय बदलियों को छाँटने या इनसे बचने की उसे कोई जुगत नहीं सूझ रही थी। उसने इस संकट पर अजय से मषविरा करने की सोची। लेकिन अजय इस क्षेत्र से अनभिज्ञ था। उसने पूछा- क्या संकट है ?

-यार, कहानी तो बहुत लम्बी है, पर.... सतीष बोला- थोड़े में इतना ही कि धनी कम्पनियों ने नाक में दम कर रखा है।

-कैसे ? अजय ने थोड़ा विस्तार में जानना चाहा।

-देख... पहले ठंडी विधि यानी घानी प्रचलन में थी, जिस क्षेत्र में जो फ़सल होती- नारियल, सरसों, तिल और मूँगफली। घानी से उसी का तेल निकालते, वही खाते और अन्य उपयोग में लेते। तेल का स्वाद तो उम्दा होता ही, पोषक तत्व और प्राकृतिक ख़ुषबुओं से भरपूर भी होता। न काॅलेस्ट्राल बढ़ाता, न कोई और बीमारी पैदा करता। खेती का गुण चक्र भी बना रहता। फिर जब से गरम विधि यानी विदेषी तकनीक साल्वेंट प्लांट में तेल निकलने लगा, तो सोया, पाम, सनफ्लावर और सैफ्लावर जैसे नये तेलों ने पारंपरिक तेलों को खो करना षुरू कर दिया।

-पर विज्ञापनों में तो इन्हें बड़े गुणकारी बताये जाते हैं ?

-लेकिन जो बताया जाता है, उसका कोई वैज्ञानिक आधार थोड़ी है। सतीष ने तन्नाकर कहा- और हम केवल विज्ञापन देखकर कुछ भी क्यों मान लें ?

सतीष का मानना था- कम्पनियाँ केवल अपना माल खपाने को विज्ञापनों में झूठे तूमार खड़े करती है। वे हमसे हमारी पारंपरिक धरोहरें छीन रही हैं। सतीष के मन में ऐसी ही उठापटक मची थी। तभी उसे कुछ बरस पहले राजधानी में घटी एक घटना याद हो आयी और वह बोला- तेरकू मालूम, राजधानी में वो नाटक हुआ था न, कि खुले तेल वाले मिलावट करते हैं। कुछ तेल भी जप्त हुआ था। कुछ लोगों के मरने की भी ख़बर थी, वह पूरा नाटक खुले तेल का धन्धा चैपट करने की साजिष साबित हुआ था। लेकिन साला, अब किसको क्या बतायें ? सभी को कम्पनी का माल चाहिये।

उस रात अजय ने सतीष की बात तो पूरी सुनी थी और सतीष की बात की सहमति में गरदन हिलाता बोला भी- कहने का मतलब ये कि हर क्षेत्र में ......देष की एक-एक बोटी को चील कव्वों की तरह खा रही है कम्पनियाँ।

सतीष के धन्धे में संकट था, इस बात से सतीष के बाऊजी भी वाक़िफ थे। क्योंकि वे अख़बार के माध्यम से अजय और सतीष की गतिविधियोें पर तो नज़र रखते ही थे। चकर-चकर भी करते थे। पर उनका ध्यान बाज़ार के उतार चढ़ाव पर भी रहता था। छुट्टा तेल के कारोबारियों के सामने क्या-क्या मुसीबतें आ रही थीं, उन्हें अँदाज़ा था। इसलिए एक सुबह उन्होंने अख़बार बाँचने और चाय की चुस्की के बीच के छेके में सतीष को सुझाया- धन्धे में जो आफतें आ रही हैं, इनका मुकाबला कर पाना मुष्किल है। पर अगर किसी बड़ी कम्पनी की ऐजेन्सी ले लो, तो धन्धा भी चलता रहेगा और नफ़ा भी मिलता रहेगा।

सतीष बहुराष्ट्रीय कम्पनी की ऐजेन्सी लेकर धन्धा करना नहीं चाहता था, उसने यही कहना चाहा- पर बाऊजी...... ।

-पर-वर क्या होता है ? भई अपन तो व्यापारी हैं, अपने को व्यापार से मतलब ! खुला तेल भी कौन-सा अपने घर में बनाकर बेचते हैं ? बाऊजी ने उसकी सुने बग़ैर ही कहा और फिर सीख देते बोले- अच्छा व्यापारी वो, जो ख़ुद को समय और बाज़ार के मुताबिक ढाल ले। वो नहीं, जो बाज़ार से बाहर हो जाये।

-बाऊजी, आपने जीवन में एक सफल व्यापारी होना चाहा; और हुए भी। सतीष ने संयमित लहज़े में कहा- देष-दुनिया की राजनीतिक और आर्थिक नीतियों ने जो रास्ते सुझाये उन पर चले। पर मैं भी वही सब करूँ, ये ज़रूरी नहीं।

-मैंने जो कुछ किया, घर-परिवार के लिए किया। बाऊजी भी अभी तक धीरज से समझाते बोल रहे थे- धन्धे में पैसा भी कमाया, तो घर-परिवार की सुख-सुविधा के लिए और धन्धे को बढ़ाने के लिए। लेकिन तू........ तू तो मेरी ज़िन्दगी भर की कमाई ठिकाने लगाने पर तूला है। मेरा बुढ़ापा बिगाड़ने पर तूला है।

सतीष को समझाते हुए बाऊजी के स्वर में बेबसी थी। ऐसा लग रहा था- वे टूट रहे हैं और उन्हें सतीष की ज़रूरत है। वे बात के बीच-बीच में अख़बार की हेड लाइनों पर नज़र मार रहे थे। तभी नज़र एक ख़बर पर रुक गयी। ख़ाली हो चुका चाय का कप हाथ में था, जिसे उन्होंने सामने टी टेबल पर रखा। ख़बर पढ़ते और ख़बर के साथ छपी तस्वीर को देखते उनके चेहरे के भाव बदलने लगे। फिर एकदम ज़ोर से अख़बार को टेबल पर सतीष के सामने पटकते हुए झल्लाये- ये क्या है ? इतना समझाता हूँ उसके बावजूद.......? तू कल फिर आॅफिस नहीं गया।

सतीष ने अख़बार पर नज़र मारी। अख़बार में सम्भ्रान्त महिला, उसका साथी यानी वही मि. महान और ऊँची चीज़, अजय, सतीष और सतीष के साथ आये, पवन की तस्वीर छपी थी। उन दिनों देष में रोज़गार गारंटी क़ानून बनाने के पक्ष में हस्ताक्षर अभियान चल रहा था। मुख्य माँग थी कि इस क़ानून के तहत लोगों को सौ दिन काम का क़ानूनी अधिकार मिले। इसी के पक्ष में पर्चे बाँटने और हस्ताक्षर बटोरने की ख़बर और तस्वीर छपी थी, जिसे देख बाऊजी झल्ला उठे थे।

उनके हिसाब से उनका झल्लाना सही था। सतीष था वहाँ पर। उसी चक्कर में सतीष ने आॅफिस भी ज़ल्दी छोड़दिया था। अपने साथ में अपनी आॅफिस से कुछ दूरी पर अर्थी का सामान बेचने वाले पवन को भी ले गया था। और सभी पर्चे बाँटे रहे थे। हस्ताक्षर बटोर रहे थे। सतीष के बाऊजी ने कुछ गालियाँ पवन के नाम भी जड़थी।

हालाँकि सतीष वहाँ गया ज़रूर था, लेकिन उसकी इस मुद्दे पर कुछ असहमतियाँ थीं, जो उसने अजय से कही भी थी जैसे- सौ दिन काम का अधिकार क़ानून बन भी गया, तो दो सौ पैंसठ दिन आदमी क्या करेगा ? क्या उसे सौ दिन के काम के एवज में इतना मेहनताना दिया जायेगा कि वह तीन सौ पैसठ दिन गुज़ारा कर सके ? बात सिर्फ़ गुज़ारे भर की ही नहीं। बच्चों की पढ़ाई, अस्पताल का ख़र्चा जैसी ज़रूरतों की भी हैं। हमारी माँग पूरे साल काम मिलने की होनी चाहिए। साल में आवष्यक छुट्टियाँ मिलने की होनी चाहिए। मज़दूर की सभी ज़रूरतों को पूरी करने लायक मेहनताने की। दुर्घटना बीमा होने की। एक निष्चित अवधि के बाद पेंषन मिलने की भी होनी चाहिए।

खै़र ..... यह मुद्दा तो ऐसा था न कि अजय तो क्या ? मि. महान और ऊँची चीज़के भी बस का कुछ नहीं था। लेकिन यह मुद्दा जिस पार्टी का था। उसके राजधानी में बैठने वाले नेताओं को ऊँची चीज़ख़ुष करना चाह रही थी। हालाँकि ऊँची चीज़किसी पार्टी की कार्ड धारी नहीं थी। भई जब ऊँची चीज़नहीं थी, तो उनके पालतू मि. महान का तो सवाल ही नहीं। लेकिन ऊँची चीज़कुछ ऐसे जुगाड़में थी कि उम्र की ढ़लान पर राजधानी की किसी घाटी पर षार्ट कट से चढ़सके। चूँकि ऊँची चीज़ऊँची थी, तो सहज ही राजधानी में भी कुछ बुजुर्ग कन्धे ढून्ढ लिये थे।

अब ऊँची चीज़जो भी काम करने का सोचती ! यूँ ही नहीं सोचती। वह सोचती कि वह ऐसा कुछ करे जिससे न केवल उसका नाम हो, बल्कि राजाधानी की राजनीति में पहुँचे हुआंे में उनकी पहुँच हो। पूछ हो। इसलिये ऐसा काम किया जाये, जिसे राजधानी में भुनाया जा सके। फिर उनके सम्पर्क भी ज़्यादातर राजधानी के लोगों से ही थे। इसलिए उनके सोचने में वह आता, जो राजधानी में सोचा जा रहा होता। फिर वे अपना सोचा कभी वाॅक के दौरान, कभी फल ख़रीदने के दौरान मि. महान से षेयर करती। मि. महान अजय को ब्रिफ करते। अजय सतीष से कहता- नेक्सट मुद्दा ये है। इस पर जुटना है, तो सतीष को हजम नहीं होता। क्योंकि वह लोकल लेवल पर कुछ न कुछ सोच रहा होता।

सतीष को यह कम रुचता था, लेकिन वह संकोच में ज़्यादा कुछ नहीं कह पाता। फिर पाँच-छः बरस सात में काम करते हो गये थे। इतने बरसों में उनकी दोस्ती गाढ़ी और मीठी हो गयी थी। उस पर अविष्वास करना भी सतीष को ठीक नहीं लगता था। न ही एकदम से साथ छोड़ना भी अच्छा लगता। हालाँकि अजय झुग्गी झोंपड़ी संघर्ष मोर्चा से दूरी बना चुका था। उसका मि. महान और ऊँची चीज़से गहरा जुड़ाव हो चुका था। वह मोर्चा के सारे सम्पर्कों और लोगों का उपयोग उन्हीं की मर्जी अनुसार कर रहा था। सतीष यह महसूस कर रहा था कि जब से अजय का उनसे गहरा जुड़ाव हुआ। उन दोनों की दोस्ती के बीच जो पारदर्षीता थी, वह मोटी और धुँधली होने लगी है। अजय का काम करने का तरीका बदल रहा था। आपसी बातचीत में कोई बात तय करने की बजाय, आदेष देने का लहज़ा विकसित हो रहा था। ऐसी कई वजह थी, जिससे सतीष चाहकर भी सहमत नहीं हो पाता था। फिर भी जुटा रहता था, तो सिर्फ़ इसलिए कि अजय था।

उस दिन भी जब वह पवन को साथ लेकर गया था, तो दरअसल अजय का मान रखने ही गया था। जाने का योग भी कुछ यूँ बना था कि पवन महीने भर दिये अर्थी के सामान का पैसा लेने आॅफिस में आया था। हालाँकि सतीष और पवन के अलावा कोई नहीं जानता था कि सतीष हर महीने कुछ अर्थियों के सामान का पैसा देता है ? इसके पीछे कुछ राज़नहीं था, बस, इतनी-सी बात थी कि एक दिन सतीष के आॅफिस से कुछ ही दूरी पर एक परिवार में गमी हो गयी थी। परिवार के पास अंतिम संस्कार के पैसे नहीं थे। उन्होंने सतीष से माँगे। सतीष ने उनकी मदद कर ही दी थी, लेकिन पवन को यह समझा भी दिया था कि अब से इस क्षेत्र के किसी भी ग़रीब परिवार में ये नौबत आये, तो उसके पैसे मेरी तरफ़लिख लेना और हर महीने आॅफिस में आकर ले लिया करना। उसका कभी महीने में, कभी दो महीने में दो-चार अर्थी के सामान का बिल बनता, तो पवन वही लेने जाता। उस दिन भी गया था।

लेकिन उस दिन नया यह था कि पवन के हाथ में सतीष ने कोई सस्ता जासूसी उपन्यास देख लिया था। सतीष ने उसके हाथ से उपन्यास लिया। उसके पन्ने उलटे-पलटे और फिर पूछा- पवन, कुछ अच्छा पढ़ना चाहेगा ?

-क्यों नहीं भिया ? पवन बोला- आपके पास कुछ हो तो दो।

-तो चल।

सतीष उसे बाइक पर बैठाल कर उस किताब की दुकान पर ले गया, जहाँ से वह अपने पढ़ने के लिए किताबें ख़रीदता था। उसे कुछ षरत चन्द्र, कुछ प्रेमचन्द और यषपाल के उपन्यास और कहानियाँ ख़रीदकर दी। किताब की दुकान से लौट ही रहे थे कि उसे ध्यान आया कि आज इस वक़्त तो रोज़गार गारंटी क़ानून के पक्ष में हस्ताक्षर बटोरे जा रहे होंगे, तो वह वहाँ चला गया था। तभी किसी प्रेस फोटोग्राफर ने तस्वीर खींच ली थी, जो अख़बार में छप गयी थी।

उस तस्वीर के पीछे सतीष और उसके बाऊजी में ऐसी उड़ी कि बस....। और फिर अंत में जैसे सातवंे आसमान पर चढ़कर उन्होंने फै़सला सुनाया- तुझे उनका साथ छोड़ना ही होगा। तूझे केवल धन्धे पर ध्यान देना होगा। ज़ल्दी ही मैं तेरी षादी भी करवा दूँगा। बहुत हो गयी मनमानी, अब नहीं चलेगी।

-मैं ऐसा नहीं कर सकता। सतीष ने अपने षब्दों को पत्थर बनाया और बाऊजी की आवाज़से भी ऊँची आवाज़में कहा था।

-अगर तेरी यही मर्ज़ी है, तो फिर मेरी भी सुन ले। मैं जब तक ज़िन्दा हूँ, तू बग़ैर बहू के मेरे घर में क़दम मत रखना। उसके बाऊजी और ज़ोर से बोले- मैं तूझे अपना घर नहीं लुटाने दूँगा।

कहते हुए उनके मुँह से थूक उड़ने लगा। उनकी आवाज़में एक ढ़हते पहाड़का षोर था। बोलते-बोलते उन्हें ठसका लगने से आवाज़थोड़ी धीमी हो गयी। चेहरे पर तिरस्कार का गहरा भाव उभर आया। आँखें फैलकर बेहद चैड़ी हो गयी। लेकिन जैसे उन्होंने आखरी दम लगाकर कहा- तुझे हमसे और इस घर से ज़्यादा अजय, मि. महान और ऊँची चीज़्ा से प्यार है, तो जा तू, सिर से टूटा बाल, गू में जाये या मूत में, मैं भी परवाह नहीं करूँगा।

फिर सतीष न कभी आॅफिस गया, न घर। पर कहीं सिर छुपाने का बन्दोबस्त तो करना ही था, सो झुग्गी झोंपड़ी संघर्ष मोर्चा के साथी अषोक की मदद से, एक बस्ती के पास वाली काॅलोनी में किराये पर कमरा अटका लिया। फिर आगे के लिए रोटी और बाइक के पेट्रोल का भी इन्तजाम करना था। क्योंकि वह अपने बैंक एकाउन्ट के दम पर कुछ महीने ही दम भर सकता था। नौकरी करना बस का था नहीं। कभी की होती तो करता। ख़ैर... बहरहाल तो वह जमा होती तमाम असहमतियों के बावजूद अजय के साथ ही लगा हुआ था। उसी के साथ रहकर मि. महान और ऊँची चीज़को ही जानने-समझने की कोषिष कर रहा था।

अजय और सतीष लगभग रोज़ही नास्ते के वक़्त ऊँची चीज़के बँगले पर पहुँच जाते। बँगले पर और भी कई लोगों की आवक-जावक होती। कोई एन जी ओ वाला होता। कोई आन्दोलनकारी होता। कुछ फोकट लाल और फालतू चन्द भी आते-जाते। लेकिन मि. महान हर किसी के आते-जाते वहीं पाये जाते। फिर अजय और सतीष का भी जागने के बाद का और सोने से पहले का। दिन वहीं-रात वहीं। खाना वहीं-पीना वहीं। बहस वहीं-निर्णय वहीं। धरना वहीं-प्रदर्षन वहीं। क्रान्ति वहीं-समाजवाद वहीं। आने-जाने वालों और वहीं धूनी रमाने वालों सभी की सेवा में तीन-चार नौकर हर समय तत्पर होते।

ऊँची चीज़हरेक से रू-ब-रू हो, ये ज़रूरी नहीं था। कई काम ऐसे थे, जो नौकरों से नहीं करवाये जा सकते, इसलिए वे ख़ुद करती थी- जैसे योग करना। नहाना-धोना। फ़ोन पर बतियाना। कम्प्युटर पर अपने काम की चीज़ढून्ढना। फल खाना। कभी बँगले की छत पर। कभी बँगले के सामने बग़ीचे में टहलना। यह सब करते थक जाये तो थोड़ी देर झपकी लेना आदि-आदि। कभी इन सब कामों से ज़ल्दी फारिग होकर बँगले के हाॅल में चली आती। जहाँ मि. महान किसी न किसी के सामने ऊँची चीज़के आदर्षों का बखान कर रहे होते। अगर बखान के दौरान ऊँची चीज़आ जाती, तो वे डिस्टर्ब नहीं करती। चुपचाप सोफे पर बैठ जाती। कभी कमल की पंखुड़ियाँ रह चुके होंठों के कोनो से मुस्कान के मौती बिखराती रहती।

लेकिन ऐसा कम ही होता कि वे आती और हाॅल में किसी को भनक न होती। उनकी आने की ख़बर कभी साड़ी और कभी सलवार षूट से उड़ती ख़ुषबू दे देती, और ऐसा ज़्यादातर होता कि उनके आने पर मि. महान कोई क्रान्तिकारी गीत नज््रा करते। गीत सुनकर उनकी मुस्कान सबसे सुखी षख़्षियत की हँसी में बदल जाती।

ऊँची चीज़में केवल यही ख़ासियतें नहीं थीं। बल्कि वे ख़ासियतों की खान थी, पर सबसे बड़ी बात यह कि उनकी नज़र में ये सब गौण थीं। उनका मानना था- ऐसी खासियतों वाली तो पैंतीस लाख की आबादी वाले षहर में कई होंगी। क्योंकि षहर में कई थे, जिनके पास धन था, पर बुद्धि का टोटा था। कई थे- जिनके पास बुद्धि थी, पर धन का टोटा था। कई के पास तो केवल काम करने की ललक और हौसला ही था। लेकिन षहर में ऐसी इकलौती ऊँची चीज़ही थी, जो धन और बुद्धि के मिश्रण से बनी थी। उनकी आँखों और बातों में वह जादू कि जिसे जी भर देख ले या बतिया ले उसे महान होते देर न लगे। उन्होंने जीवन में कई षहरों और देषों में अनेक मि. महान बनाये-बिगाड़े। लेकिन अब उम्र की ढलान पर ज़्यादा मि. महान नहीं बनाना चाहती थी। जो एक बार मि. महान बन जाता, फिर वह कुछ और नहीं रह जाता। कोई किसी भी कोण से देखे, वह मि. महान के सिवा कुछ नज़र नहीं आता।

हालाँकि मि. महान बनने के लिए भी तमाम योग्यताओं और गुणों का होना ज़रूरी था- मसलन, गिरगिट की तरह रंग बदने का गुण हो। भीतर ज़मीर की गन्ध न हो। रीड़की हड्डी तो हो, पर रबर-सी लचीली हो। मिस्टर महान की एक ही इच्छा, एक ही कर्तव्य हो। हर हाल में ऊँची चीज़की हर इच्छा का आदर हो। उनकी जब इच्छा हो, मीटिंग हो, धरना हो। जब इच्छा हो, उनकी प्रषन्सा में गीत गाये जाये। गीत उनके मूड के अनुसार हो। यानी जो कुछ भी हो, उनकी इच्छा के बाहर न हो।

मि. महान ऐसे सैकड़ों गुणों से सम्पन थे, और ऊँची चीज़्ा के इतने क़रीब थे कि दूरी षून्य थी। मि. महान साँस लेते, तो ऊँची चीज़के ख्यालों की महक महसूस करते। उनका रोम-रोम खिल उठता। मुँह से प्रषन्सा अनवरत झरती, जैसे पागल कुत्ते के जबड़े से लार गिरना कभी न रुकती। जब कभी मि. महान उनकी न व्यक्त की गयी इच्छा हू-ब-हू ज़ाहिर कर देते, तो ऊँची चीज़्ा, मि. महान की काबिलियत की कायल हो जातीं। भीतर कहीं लार-सा कुछ रिस आता।

सतीष यही सब देख-समझ रहा था कुछ दिनों से। उसे समझ में आ रहा था कि अजय तो मि. महान और ऊँची चीज़्ा का कायल हो गया। उसने केवल मि. महान की नज़रों में ख़ास जगह न बना ली, बल्कि मि. महान होने के भी काफ़ी गुण हासिल कर लिये थे। उस पर ऊँची चीज़के रहम की कुछ बून्दे भी टपकने लगी थी। जैसे मज़दूर काॅलोनी का किराये का मकान छोड़ठीक-ठाक जगह पर फ्लैट ले लिया था। उसकी पत्नी लाजवंती और बच्ची भी ख़ुष थी। नगर निगम से और बिल्डरों से रंगाई-पुताई के ठेके भी ख़ासे मिलने लगे थे, यानी कुछ-कुछ चल निकली थी।

उन्हीं दिनों सतीष की जानकारी में एक और इजाफा हुआ। ऊँची चीज़हास्बैन्ड नामक जीव का बैन्ड बरसों पहले बजा चुकी थी। यानी उसकी बँगले से छुट्टी कर दी थी। सुनने में आया कि वह क्रान्ति के रास्ते में बड़ा रोड़ा था। फिर भी ऊँची चीज़इतनी क्रूर नहीं थी कि बापड़े की छुट्टी ही करती। पर वह जीव कुछ पत्थरीली प्रवृति का था, तमाम उपचार और कोषिषों के बावजूद उसमें दुम की कोंपल तक नहीं उग पायी थी। भला वहाँ बँगले में बग़ैर दुम के किसी भी जीव का क्या काम ?

ऊँची चीज़षहर में ही अनुठी और इकलौती नहीं थी। वह मम्मी-पापा की भी इकलौती और लाड़ली थी। हालाँकि अब न मम्मी थी, न पापा। उनके मम्मी-पापा क्या काम करते थे, सतीष यह कभी नहीं जान पाया। पर यह समझ में आ गया था कि ऊँची चीज़को जीवन में पैसे-कोड़ी जैसी चीज़की कमी नहीं। वह जैसे चाहे जी सकती थी। जितने चाहे, उतने मि. महान, अजय और सतीष पाल सकती थीं। पाल भी रही थी। वह अपने क्रान्तिकारी काम करने के लिए किसी फन्ड की मोहताज नहीं थी। लेकिन अगर कोई फन्डिग एजन्सी या सरकार का ही कोई मन्त्रालय छोटा-मोटा कुछ लाख का फन्ड देने पर अड़ही जाये, तो वे इतनी निर्दय नहीं थी कि उन्हें निराष कर दे।

उन दिनों ऐसे मौक़े तो अक़्सर आते कि षहर में षान्ति रहती। लेकिन ऐसे मौक़े कम आते कि बँगले पर बहस न होती। कभी षहर की षान्ति पर बहस। कभी तनाव पर बहस। उन बहसों में एन. जी. ओ वाले, आन्दोलनकारी, साहित्यिक संगठन के पटेल और साँस्कृतिक संगठन के चैधरी भी आते-जाते। बहस कभी ऐसे मुकाम पर पहुँच जाती। जहाँ से क्रान्ति हाथ भर की दूरी पर लगती।

कभी-कभी बहस में इतने मुद्दें, इतनी समस्याएँ होती कि सतीष को लगता- समाज समस्याओं का समुद्र है, जिसमें बड़े-बड़े मगरमच्छ तैर रहे हैं, और समझ में नहीं आता कि लोग जी कैसे रहे हैं ?

कभी-कभी बहस होती कि किस मुद्दे पर कैसा माहौल बनाया जाये ? फिर प्रोजेक्ट की रूपरेखा क्या हो ? कौन-सी फन्डिग एजन्सी, कितना फन्ड, कितने साल के लिए दे सकती है।

जब सतीष यह सब सुनता। उसे भीतर ही भीतर तकलीफ़होती। ऐसे ही एक बार उसने धीरे से कहा- उसी से क्यों नहीं ले लेते.......!

-किससे.....? एन जी ओ के एक साथी ने सतीष की बात पूरी होने से पहले उत्साहित होकर पूछा।

-भई ये... अपने... भगतसिंह, आज़ाद जिस एजन्सी से लिया करते थे। सतीष ने कहा।

उस वक़्त ऊँची चीज़भी वहीं कुर्सी पर आँखें बन्द किये बैठी थी। उनकी कुर्सी के पीछे खड़ी एक बाई उनके खुले बालों में तेल रंजा रही थी। जब सतीष की बात उनके कानों में पड़ी, उन्होंने एक क्षण को आँखें खोली और फिर बन्द कर ली थी। जैसे कैमरे का षटर खुला इमेज को क़ैद किया और वापस बन्द। जब मि. महान ने षटर का खुलना और बन्द होना देखा, तो उनकी भौंह ऊपर उठी। जैसे किसी ने धागे से खींची। फिर साँवली पलकों के बीच से लाल पनीले कंचे-सी आँखें अजय की ओर घूमी। अजय ने होंठ, भौंहों और हाथ के अँगूठे की मदद से कहा- सतीष को ज़्यादा हो गयी, बात पर ध्यान मत दो।

तब षायद भौंह को ऊपर खींचने वाला धागा ढ़ीला हुआ, तो भौंह नीचे आयी। फिर वे प्रोजेक्ट की रूपरेखा पर गहरे चिन्तन में डूबने लगे। इस तरह उस रात तो धक गयी थी। लेकिन बार-बार ऐसी नहीं धकेगी। अजय ने सतीष को बाहर निकलते ही समझा दिया था।

सतीष की एक और आदत थी जो ऊँची चीज़के बँगले के भीतर का अनुषासन भंग करती थी- प्रष्न करना और डाउट करना।

मि. महान और ऊँची चीज़बिल्कुल नहीं चाहते- दुनिया का कोई भी व्यक्ति उनकी मंषा और काम पर डाउट या आलोचना करे। पर सतीष की आदत इस हद तक बिगड़ी थी कि ख़ुद पर भी डाउट करने से नहीं चुकता। जब वह अपनी आलोचना करने पर आता, तो ख़ुद को तार-तार कर देता। जब किसी और की भी करता, तो इसी निष्छल भाव से कि जैसे अपनी ही कर रहा हो। लेकिन जब कभी मिस्टर महान और ऊँची चीज़की आलोचना हो जाती, तो फिर अजय उसे टोकता। ऐसे ही एक दिन टोका तो उसने अजय से ही कह दिया- तेरी भी दुम निकल आयी है षायद ऐसी ही कुछ छोटी-छोटी वजहें थीं- सी डी पर लगे मामूली स्क्रेच जैसी, जो धीेरे-धीरे फैल रही थी।

एक सुबह सतीष रोज़की तरह कमरे से निकलने की तैयारी कर रहा था। तभी काॅलोनी की बग़ल की बस्ती का अषोक आ गया। वही अषोक, जिसने सतीष को कमरा दिलवाया थ। वह सब्जी-भाजी का ठेला लगाया करता था। उस सुबह वह अचानक आ गया, तो सतीष ने पूछा- और क्या अषोक, सब ठीक तो है ?

-अरे भिया, इस सामराजी ज़माने में कोई ठीक रह सकता है ? अषोक ने भी जवाब में प्रष्न ही रख दिया।

-क्यों ? क्या हुआ भई ? सतीष ने आगे जानने के अँदाज़में गरदन और भौंहें उचका कर पूछा।

 

-अब रिलायंस साग-भाजी बेचेगा। अषोक ने मज़ाक़करते हुए आगे कहा- तो हम ठेलेगाड़ी पर मोबाइल बेचेंगे ?

-ठेले पर मोबाइल बिकेंगे तो सही, पर बेचेगा वही। सतीष ने कहा।

-पर भिया... अपनी तो रोटी के बांदे पड़जायेंगे न ! अषोक ने कहा और फिर सूचना दी- इसी मुद्दे पर मीटिंग रखी है, किसन पुरा पुल के पास की छत्रियों पर। आप आना और साथियों को भी लाना।

सतीष मुद्दे से वाक़िफ तो था ही। अपने तेल के धन्धे में भुगत भी चुका था। लेकिन बहुत छोटे-छोटे धन्धे भी बड़ी कम्पनियों की चपेट में आना षुरू हो गये थे। अब छुट्टा बाज़ार में बड़ेघरानों के कब्जे का विरोध भी सिर उठाने लगा था। रांची और कुछ षहरों में रिलायंस फ्रेषों को तोड़े-फोड़े भी जा चुके थे। सतीष के षहर में लगभग छः तैयार हो चुके थे और चैदह ज़ल्दी तैयार होने वाले थे।

सतीष ने बँगले पर हाज़िर होने वाले सभी साथियों को बता दिया था। सब मुद्दे से परिचित भी थे, पर उन्हें मुद्दे में कोई तंत नज़र नहीं आ रहा था। सो वे वाॅक करने में। तंत वाले मुद्दों पर बहस करने में मषगूल रहे। लेकिन सतीष उस मीटिंग में चला गया था। मीटिंग में वही सब लोग थे, जिनकी रोज़ी पर रिलायंस की लात पड़ने वाली थी। मीटिंग में सतीष ने कुछ ज़िम्मेदारी ले ली। जैसे-पर्चा लिखने की। छपवाने की। अलग-अलग टीम बनाकर उन जगहों पर बँटवाने की जहाँ-जहाँ रिलायंस फ्रेष खुलने वाले थे।

कुछ दिनों तक षहर के अलग-अलग हिस्से में साग-भाजी बेचने वालों के साथ अषोक और सतीष सम्पर्क करते। पर्चे बाँटते। अगली मीटिंग में आने का कहते। जो करते उसकी ख़बर अख़बारों में देते। षहर में कोई मंत्री आता तो उसे ज्ञापन देते। कमिष्नर को ज्ञापन देते। लेकिन इन सब चीज़ों का कोई फर्क़नहीं पड़ा। छः रिलायंस फ्रेष का उद्घाटन हो गया। अख़बारों में रिलायंस फ्रेष की तस्वीरें छपने लगी। उनकी तारीफ़ों में खाते-पीते लोगों के बयान छपने लगे। रिलायंस फ्रेष के आस-पास खड़े रहने वाले ठेलों को पुलिस हटाने लगी। बैठी दुकानों को अतिक्रमण के नाम पर हटाया जाने लगा। माहौल ऐसा बनाया- जैसे ठेले पर फल और साग-भाजी बेचने वाले, सब ठग और चोर हैं। जैसे रिलायंस फ्रेष ने काम मुनाफ़ा कमाने के लिए षुरू नहीं किया है। जैसे वह षहर के सम्भ्रान्त और सभ्य लोगों को ठेले वाले ठगों और चोरों बचाना चाहता है।

सतीष और अषोक की दौड़-भाग से मुद्दा दिन पर दिन ज़ोर पकड़ने लगा। वैसे तो कई लोग जुड़े पर अजय नदारत रहता। अजय की कमी खलती, इसलिए सतीष उसे बुलाता। पर अजय हर बार नया बहाना सुनाता। मि. महान और ऊँची चीज़का तो आने का सवाल ही न था। वे तो जैसे बोतल के पानी से तृप्त थे, वैसे ही रिलायंस फ्रेष से साग-भाजी ख़रीदकर धन्य थे।

जब मुद्दा नरम ही न पड़रहा था, तो रिलायंस फ्रेष ख़रीदे दाम से भी कम क़ीमत पर साग-भाजी बेचने लगा। टक्कर में ठेले वालों ने भी दमदारी दिखायी। एक सुबह फ्रेष के सामने ही ठेले लगाये और उससे भी कम दाम पर बेचने का हेल्ला देने लगे।

सतीष और अषोक आसपास की दुकानों पर बैठे लोगों और सड़क पर आते-जातों को पर्चे बाँटते रहे थे। पर्चे बाँटते-बाँटते कुछ दूर निकल गये थे। लेकिन कुछ युवा साथी वहीं नारे लगाते रहे थे। वे नारे लगाते-लगाते ताव में आ गये। उन्होंने फ्रेष पर पथराव षुरू कर दिया।

कुछ ही देर में थाने से सिपाही आ गये। सभी को ठेलों सहित थाने ले गये। ठेलेवालों के ख़िलाफ़धारा चैतीस और एक सौ इक्यावन की कार्यवाही की गयी। तरकारी बेचकर जो कुछ पूँजी आयी थी, वह खाकी जेब में जमा हो गयी। ठेलों पर जो तरकारी बची थी, वह उन्हीं की हाँडी में सीझ गयी। अषोक का ठेला भी जप्त हुआ। उस दिन उसके ठेले की साग-भाजी उसकी पत्नी सुमन बेच रही थी, सो थाने में कार्यवाही भी उसी पर हुई।

सतीष और अषोक ठेलेवालों को थाने से छुड़वाने की कोषिष करने लगे। सतीष ने इस बीच फिर से अजय से सम्पर्क किया। उसे बुलाना चाहा। लेकिन वह मि. महान और ऊँची चीज़के किसी बहुत ज़रूरी काम में व्यस्त होने की वजह से न आ सका। सतीष और अषोक ने लोगों की जमानत का इन्तजाम किया।

जब एस.डी.एम. कार्यालय से मुक्त होकर बस्ती की तरफ़आ रहे थे। सूरज डूबने वाला था। षरीर थकान से भरा था। मन में कुछ कुलबुलाने लगा था। सतीष को अजय का खयाल आया। उसने मोबाइल निकाला। उसके नम्बर दबाये, पर फिर काॅल नहीं किया। नम्बर हटा दिये। मोबाइल जेब में रख लिया। क्योंकि काॅल करने से पहले यह खयाल आया- वह बँगले पर षाम की तैयारी कर रहा होगा। उसने अषोक ही से कहा- यार, थोड़ा-थोड़ा कुछ कर लें।

-नेकी और पूछ-पूछ। अषोक ने कहा।

दोनों ने अपनी-अपनी जेबों को उलटा-पलटा। सस्ती रम के दो क्वाटारों का बंदोबस्त हो गया। अषोक की ही झोंपड़ी में पीने बैठे। बस्ती में अषोक का पड़ोसी और उसके साथ काम करने वाला एक साथी बोला- ख़ार मंजन नहीं।

अषोक ने कहा- कोई बात नहीं, नमक-मिर्च जि़्ान्दाबाद।

खाने बैठे, तो सुमन बोली- आज तो साग-भाजी भी नहीं।

अषोक और सतीष एक साथ बोले- कोई बात नहीं, नमक-मिर्च जि़्ान्दाबाद।

सतीष कैसे भी रह लेता। कैसा भी खा-पी लेता। कोई चोंचला नहीं। कोई अड़नहीं। लेकिन बात के मामले में टंच। ज़रा भी उल्टी-सीधी बात हजम न कर पाता। उस रात वह अपने कमरे में आकर आड़ा पड़गया। पर पूरी तरह नींद नहीं आयी। भीतर मग़ज़में यही सरबलाता रहा- अजय क्यों नहीं आया ? क्या वह मि. महान और ऊँची चीज़के घापे में इस हद तक आ गया है कि अब उनके बग़्ौर कहीं आयेगा-जायेगा भी नहीं ?

वह सुबह उठकर ऊँची चीज़के बँगले पहुँच गया। बँगले के पोर्च में नर्म और गुनगुनी धूप थी। धूप में तीनों बैठे थे। सामने टी टेबल पर अख़बार बिखरे पड़े थे। ऊँची चीज़पपीता खा रही थी। मि. महान और अजय चाय पी रहे थे। सतीष को देख मानो धूप की किरणे गर्म सुइयों में बदल गयी थी। वहीं ख़ाली पड़ी कुर्सी पर सतीष भी बैठ गया था। सतीष रिलायंस फ्रेष के ख़िलाफ़चल रहे आन्दोलन के बारे में ही कुछ विचार करना चाह रहा था। पर उससे पहले वह पूछना चाह रहा था कि आप तीनों उसमें साथ क्यों नहीं आ रहे हो ? लेकिन उसकी बात मन ही में रह गयी। क्योंकि वहाँ पहले से ग्लोबल इन्वेस्टर्स मीट के बारे में बात चल रही थी।

उन दिनों षहर में ज़ल्दी ही ग्लोबल इन्वेस्टर्स मीट होने वाली थी। षहर में मीट का हल्ला मचा हुआ था। उसी सुबह तय हुआ- विरोध करना चाहिये। रात को बँगले पर एक मीटिंग बुला ली। मीटिंग में पूरे तामझाम का प्रबन्ध था। किसी को बाहर से पव्वा या अद्धा लाने की ज़रूरत न थी। कुछ एन.जी.ओ., जनांदोलनों के महान लोगों के अलावा, साहित्यिक, साँस्कृतिक संगठनों के पटेल और चैधरी भी हाज़िर हुए थे।

मीटिंग में अजय पैग बनाकर सर्व करने लगा। मि. महान ऊँची चीज़की इच्छा को सबके गले उतारने लगे। ऊँची चीज़की छोटी-सी इच्छा थी- विरोध उनकी छत्रछाया में सम्पन हो। वे इस मौक़े परएक भाषण, और पूरे आयोजन का ख़र्च भी देंगी।

किसी ने कोई ऐतराज़नहीं किया। करते भी कैसे ? ऊँची चीज़के पैसों की ही षराब गले-गले तक भरी थी। फिर पीछे मि. महान और अजय की बरसों की मेहनत थी। अनुभव था। उन्होंने ऊँची चीज़की सार्वजनिक छवि एक प्रखर क्रान्तिकारी विचारक की बनायी थी। ऊँची चीज़देष-विदेष के तमाम विचारकों की किताबों से टीप-टापकर भाषण भी ऐसा झाड़ती कि कम पढ़े-लिखे लोगों को ताली बजाने के सिवा कुछ सूझता ही नहीं। जंगलों में आदिवासियों, गाँवों में किसानों के अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाले बापड़ों को उनके भाषण का ‘भा’ भी समझ में न आता, पर ताली वे भी बजाते। कुछ को तो दो-चार दिन समझ ही नहीं आता कि कैसे उनका किया काम, असल में ऊँची चीज़का सोचा, सुझाया काम था। ऐसे में अकेले सतीष की असहमति की क्या बखत थी ? जब ऊँची चीज़की छत्रछाया में ग्लोबल इन्वेस्टर्स मीट का विरोध करना तय हो गया, तो फिर विरोध के तरीकों के बारे में सोचा जाने लगा। तब एन.जी.ओ. के एक सज्जन बोले- हम विरोध में षामिल होंगे, पर बग़ैर बैनर के।

दरअसल बग़ैर बैनर के षामिल होने के पीछे उनका सोचना था- ग्लोबल इन्वेस्टर्स मीट में कई बड़ी और नामी देषी-विदेषी कम्पनियों के एजन्ट होंगे। उनमें उन्हें फन्ड देने वाली कम्पनियों के एजेन्ट भी होंगे। अगर कहीं उनकी नज़र बैनर पर पड़गयी। तो फन्ड रुक सकता है। फन्ड रुका तो बिसलरी और कोक ख़रीदना मुष्किल होगा। बोरिंग और नर्मदा का पानी पीने की रिष्क बढ़जायेगी।

-हम अपना विरोध पूरी तरह षान्तिमय ढंग से गाँधी प्रतिमा पर करेंगे। अजय ने कहा। वह बोला- हम मीडिया को विष्वास में ले लेंगे। बल्कि विरोध करने से पहले एक रात मीडिया के कुछ ख़ास रिपोर्टरों की ऐसी ही एक मीटिंग कर लेगें। अपना मक़सद, विरोध का मैसेज लोगों तक पहुँचाना है।

यहाँ सतीष ने अजय को टोक दिया- तरीका जो भी हो, नेतृत्व जो भी करे, कोई फर्क नहीं पड़ता। पर मक़सद ग्लोबल इन्वेस्टर्स मीट को फेल करने का हो, जैसे भी।

-तरीका तो गाँधीजी का ही होगा। अहिंसा से बड़ा कोई हथियार नहीं। अजय ने दूसरे लोगों की ओर देखते हुए कहा।

-इस तरीके का सरकार ज़रा भी आदर करती, तो देष में चलने वाले तमाम आन्दोलनों को कुचलने की बजाय, उनकी बात सुनती। सतीष बोल रहा था- किसानों पर लाठी, गोली बरसाने की बजाय, उनकी समस्याओं का हल करती। सरकार प्रार्थना सुनने की नहीं, धमाके सुनने की आदी है।

न उस दिन की मीटिंग से ग्लोबल इन्वेस्टर्स मीट पर कोई फर्क पड़ा। न विरोध की ख़बर और तस्वीर छपाने से कुछ हुआ। मीट पूरे ठाठ से सम्पन हुई। करोड़ों, अरबों के एम ओ यू पर हस्ताक्षर हुए। इस मीट के हल्ले में रिलायंस फ्रेष का मुद्दा डोटा गया। धीरे से पूरे मुद्दे की हवा निकल गयी।

लेकिन बँगले में होने वाली बहसों पर कोई फर्क न पड़ा। वहाँ न मुद्दों की कमी थी, न आने जाने वालों की। सतीष रोज़ही कुछ न कुछ ऐसा करता, जो न मि. महान को हजम होता, न ऊँची चीज़को सुहाता। एक दिन मि. महान ने अजय को समझाया- सतीष को और बर्दाष्त नहीं किया जा सकता। वह अपनी सीमा भूल रहा है। उसकी बातें असहनीय हैं। उसका व्यवहार मैडम को आहत करता है। उसे लोकतांत्रिक तरीके से समझाओ। वह ऐसी छुरी है- जो एक तरफ़तो सब्जी काट रही है, और दूसरी तरफ़ख़ुद की ऊँगलियों को भी कतर रही है।

अजय मि. महान का आषय तो समझा गया। पर समझ में ये नहीं आ रहा था कि दोधारी छुरी से निपटे कैसे ? तब मि. महान ने ही कुछ टीप्स दीं। टीप्स तो क्या थी, बस, खेल था। जो सतीष के साथ खेलना था। खेल का नियम था- एक ही पक्ष को पता हो कि वे खेल, खेल रहे हैं। ये खेल ही का हिस्सा था कि वह जिन लोगों से जुड़ा था, उनके बीच उसकी विष्वसनियता को ख़त्म किया जा रहा था। मौक़े-बेमौक़े परऐसा कमेंट किया जाता, कि वह झल्ला उठता। किसी मुद्दे पर उसके सुझाओं को हास्यास्पद बना दिया जाता। पीते सभी, और पीने के बाद सभी की जबाने आड़ी-तिरछी चलती। पर उसकी जबान को पकड़ली जाती। फिर उसकी बातों को एक बेवडे, भटके और मनोरोगी की कही बातें रेखांकित की जाती। कभी-कभी उसके प्रति अनावष्यक ही सामूहिक रूप से सहानुभूति का ढोंग किया जाता। कभी-कभी उस पर सामूहिक रूप से हो... हो... कर हँसा जाता। यह ऐेसा खेेल था, जिसमें मि. महान और ऊँची चीज़निपुण थे। अजय मोहरा था, और सतीष अनगढ़। सतीष कभी जान ही नहीं पा रह था कि उसके साथ कोई खेल खेला जा रहा है। वह समझ रहा था- ऐसा षायद गलतफमियों की वजह से हो रहा हो। कहीं कुछ कम्युनिकेषन गेप हो।

मतलब यह कि सतीष के मन में षंकाएँ ज़रूर उठ रही थीं। पर अभी भरोसा पूरी तरह से नहीं उठा था। उसने अजय के साथ बैठकर बात करने का सोचा और एक सुबह ख़ुद उसके पास पहुँच गया।

उसने बग़ैर किसी भूमिका के अजय से पूछा- क्या मैं कुछ ग़लत कर रहा हूँ  ?

अजय मौन रहा। सतीष ने अपना प्रष्न दोहराया। तब अजय ने मौन तोड़ा- नहीं।

सतीष थोड़ा अधीर हो गया- फिर मैं जो भी काम करता हूँ, वहाँ तू आता क्यों नहीं ?

अजय ने नज़र चुराकर कहा- काम धन्धा बढ़गया है, कई माॅल्स और मल्टियों की पुताई का ठेका मेरे पास है।

सतीष उसके चेहरे पर नज़र गड़ाता बोला- पर ये ठेके.... ये तो नगर निगम और बिल्डरों से सेटिंग के बग़ैर नहीं मिलते हैं। और फिर पूछा- तूझे कौन दिला रहा है ? इस पूछने में यह भाव छुपा था कि इस प्रगति के पीछे मि. महान और ऊँची चीज़ही है।

अजय ने कहा -उससे तूझे क्या ?

सतीष को यह बात चुभी। अजय का बदलता व्यवहार वह साल भर से महसूस कर रहा था, फिलवक़्त उसने इधर ध्यान देने के बजाय, अजय से कहा- देख, अपन ये छोटे-छोटे धरना-प्रदर्षन, मीटिंग, ज्ञापन आदि-आदि करते हैं, इनसे कुछ नहीं होना-जाना है। यह जो वक़्त है, ये 1857 के संग्राम के जैसा कुछ कर गुज़रने का वक़्त है। आपस में टूटने की बजाय, टूट पड़ने का वक़्त है।

अजय ने उपहास करते हुए कहा- अच्छा, तो तुम संग्राम करने वाले हो ? और फिर बोला- मेरे दिन इतने बुरे आ गये हैं कि तुम सिखाओगे !

सतीष के हृदय में उपहास का तीर गच गया। पर उसने आह भी न भरी। ख़ुद को षान्त रखने की कोषिष करते हुए कहा -नहीं, अकेला नहीं कर सकता, मैं सोचता हूँ, हम छात्रों और बेरोज़गारों को जोड़ें। उनके साथ मिलकर वैसा ही कुछ करने की सोचे, जैसा भगतसिंह और उनके साथी करते थे। फिर थोड़ा रूका। लम्बी साँस ली। छोड़ी। अजय की आँखों में देखता बोला- तब षायद काले अँग्रेज़ों को अपने होने का एहसास करा सकें।

अजय धीमे से मुस्कराया। उसकी मुस्कराहट में ऐसा भाव था कि क्या चूतियापे की बात कर रहा है ? उसने नज़रों की रास दूसरी ओर फैलायी और कहा- भगतसिंह जी, मैंने अब तक ज़िन्दाबाद-मुर्दाबाद किया। पर अब थोड़ा ढंग से घर बसाने का मौक़ा आया है, तो बसाने दो। आगे भी मौक़ों-मौक़ों पर ज़िन्दाबाद-मुर्दाबाद करते रहेंगे। ऐसा सपना ही क्यों देखें, जिससे आँखें फूटने का डर हो ?

उस दिन सतीष को लगा- अजय ने दस मंज़िला मल्टी की छत से धक्का दे दिया। वह भीतर ही भीतर बुदबुदाया- जिन आँखों में सपने नहीं, उन्हें बचाकर क्या आचार डालेंगे ?

सतीष ने कई ए.जी.ओ. को फन्ड के बँटवारे के कारण टूटते देखा। जनान्दोलनों में वर्चस्व की वजह से फाँक होते देखी। कभी काम करने के तरीकों, मनमानी और ईगो की टकराहटो के चलते छोटे-छोटे समूहों को धूल में मिलते देखा। सतीष ने सोचा भी न था कि अजय मि. महान को पपोलने और ऊँची चीज़की हाँ में हाँ मिलाने को समूह के हित से ऊपर समझेगा। लेकिन उसने समझा। वह आँख मूँद कर उस धन और बुद्धि की देवी की पूजा करने लगा। यही वह सतीष से भी चाहता था। और सतीष चाहता था- अजय जी हुजूरी करना छोड़दे और उसका पहले जैसा दोस्त बन जाये। लेकिन अजय के ख़ून में अभिजात्य का कीड़ा लग चुका था। वह पहले जैसा नहीं हो सकता था।

लेकिन सतीष की बातें और तर्क दिन पर दिन पैने हो रहे थे। अब बँगले पर होने वाली बहसों में सतीष किसी को नहीं बख्षता। कभी किसी एन.जी.ओ. के मालिक की घड़ी कर देता। कभी किसी आन्दोलनकारी की छद्म परत उधेड़देता। कभी मि. महान और कभी ऊँची चीज़को भी आड़े हाथों लेता।

ऐसी ही बहसों में एक रात सतीष ने अजय से कहा- यार, तू कब तक इन बनी बनायी और किसी दूसरे की डिजाइन की इमारतों पर रंग पोतता रहेगा ? अपन ख़ुद डिजाइन करके नयी इमारत बनाने की कोषिष क्यों नहीं करें ?

अजय ने कहा- मेरी तो औकात नहीं है, मैंने समझ लिया। तू अभी भी सपने देख रहा है।

-जब कोई सपना नहीं, सतीष झुँझला उठा- तो फिर किसी भी मीटिंग और बहस का क्या मतलब है ? ये दिखावा क्यों कि जो हो रहा है, उससे हम दुखी और चिन्तित हैं ?

-धीरे-धीरे सब समझ में आ जायेगा। अजय ने तटस्थ भाव से कहा- वैसे तेरे भी बीवी-बच्चे होते, तो ज़ल्दी समझ में आता।

सतीष ने ग़ुस्से में कहा- तेरे दिमाग़में निजी महत्वकाँक्षाओं का बहुत बड़ा फोड़ा उपक आया है। तू कहीं कोई बदलाव नहीं चाहता है। तूने इतने साल जो भी किया, वह एक नाटक था, और अब तुझे उस नाटक के एवज में पुरस्कार चाहिये। तू मि. महान और ऊँची चीज़के चरणों में पड़ा एक गिरगिट है। एक अमीबा है। तेरी कोई षक्ल नहीं है।

-तू जो भी समझे, तुझसे कोई प्रमाण-पत्र नहीं चाहिए मुझे। अजय ने संयमित होकर कहा- न ही मैं ज़िन्दगी भर भूखा-प्यासा रह कर लड़सकता।

-भूखा-प्यासा रहने की कौन कहता है ? लेकिन अब तेरी भूख रोटी से नहीं, पिज्जा से मिटती है। प्यास कोक और बिसलरी से बुझती है। सतीष ताव में आ गया। वह एक-एक षब्द ऐसे बोल रहा था, जैसे बोल नहीं रहा था, बल्कि अजय के मुँह पर थूक रहा था। वह बोला- पर तू यह जान ले, तू जो पिज्जा खा रहा है, वह मि. महान का गू है। कोक और बिसलरी में देष के ग़्ारीब-गुरबों का ख़ून घुला है।

-तू कुन्ठित न होता, और अच्छे ख़यालों को समझने की तमीज़्ा होती, तो ऐसा नहीं बोलता। अजय ने कहा।

कई रातों में, कई बहसें हुई। सतीष कई बार दुखी हुआ। भावुक हुआ। अपने को ठगा-सा पाया। लेकिन सब बेकार साबित हुआ। न इन बहसों का पार था, न हल। हर बहस कुछ ज़ख्म ज़रूर दे रही थी। हर जख़्म उसकी आँखें खोलता। वह मि. महान और ऊँची चीज़के कई-कई रूपों से परिचित होता। उसे अपने बाऊजी की बातें याद आती। उसे अपनी दादी से बचपन में सुने क़िस्से भी याद आते।

दादी ने उसे साँप और बिच्छु के कई क़िस्से सुनाये थे। पर उन दिनों जो उसे याद आ रहे थे, वे कुछ यूँ थे- जब मादा बिच्छु अपने बच्चों को जनम देती है। वह स्नेह में आँखें बंद कर देर तक बच्चों के पास ही लेटी रहती है। लेकिन जब बच्चों की आँखें खुलती है। वे बेहद भूखे होते हैं और पास में लेटी माँ को ही अपना भोजन बना लेते हैं।

ऐसा ही एक क़िस्सा नागिन का था- जब नागिन टोकने भर सपोलों को जनम देती है। वह ख़ुद भयानक भूखी होती है। वह अपने आसपास सपोले ही सपोले देखती है, तो उसे लगता है- सपोले उसे खा जायेंगे, और वह ख़ुद सपोलों को खाना षुरू कर देती है। जब सपोलों में हड़कम्प मचती है, तो वे नागिन से डर कर ख़ुद को बचाते भागते हैं। वैसे में जब कोई उनके सामने पड़जाता है, तो वे उसे डस लेते हैं। जनम के बाद ही उनके मन में जो यह डर बैठ जाता है, इससे वे जीवन भर नहीं उभर पाते हैं, और जब तब डसते रहते हैं।

पर सतीष की आँखें जिन लोगों के बीच में खुली। वे वह लोग थे, जिन पर सतीष अपने से ज़्यादा भरोसा करता था। लेकिन अब उसे उनके चेहरे भयावह नज़र आ रहे थे। यक़ीन ही नहीं हो रहा था कि वह लम्बेे समय तक इन आदमखोरों के बीच रहा। पर उनके चेहरों पर सिकन तक न थी। वे बहुत सादगी और षान्त भाव से पैग में बिसलरी, कोक मिला रहे थे। सतीष इतना बेबस था कि न उन्हें भोजन बना सकता, न डस सकता। वह ग़्ाुस्से में ख़ुद ही पर वार करने लगा।

कभी षौक-षौक में अजय के साथ पीना षुरू की षराब, अब वह न षौक में पीता, न थकान मिटाने के बहाने से। अब वह जब भी पीता, ख़ुद को गलाने के लिए पीता। वह आत्मघाती के रास्ते पर चल पड़ा। वह रास्ता, जो दुनियाँ में किसी के लिए भी ठीक नहीं, उसे ऐसा रास आया, कि वह ख़ुद ही को भूलने लगा। वह नषे में जितना डूबने लगा था। अजय की उसके साथ खेलने वाले खेल पर उतनी मजबूत पकड़होने लगी थी। कभी सी डी पर लगे ममूली से स्क्रैच थे जो, बड़ी-बड़ी खाइयों में बदलने लगे थे।

एक षाम। उदासी से लपालप भरी। सतीष अकेला अपनी दुकान के अहाते में बैठा। थोड़ी-थोड़ी देर में अजय को एस एम एस कर, मिस्ड काॅल मार कर, अजय को अपनी दुकान पर बुला रहा था। लेकिन अजय व्यस्तता बता रहा था। दरअसल उस वक़्त वह मि. महान और ऊँची चीज़के क़दमों में अपने ज़मीर की कालीन बिछाकर बैठा था। ऊँची चीज़किसी बात पर हँस रही थी और मि. महान उनकी हँसी की तारीफ़कर रहे थे। अजय इस अद्भुत क्षण को निहार रहा था। वह इस अद्भुत दृष्य से दूर सतीष के पास जाना न चाहता था। लेकिन सतीष जब उसे लगातार एस एम एस करता रहा। मिस्ड काॅल मारता रहा। तब वह आया, पर नाखुषी से।

उस षाम लगभग दो महीनों के बाद मिले थे। पिछले दो महीनों में मोबाइल पर बात भी कम ही हुई। उन दो महीनों में षहर में कहीं कुछ नहीं हुआ। जबकि देष में सिंगूर और नंदीग्राम चर्चा के विषय बने हुए थे। लेकिन सभी लाल मग़ज़के लोग इस मुद्दे पर बात करने से बच रहे थे। सतीष ने उस षाम पूछा- जब हम गुजरात नरसंहार पर बात कर सकते हैं। अयोध्या कांड पर बात कर सकते हैं। रैली निकाल सकते हैं। भाषण झाड़सकते हैं। महाराष्ट्र और उड़ीसा के किसानों की आत्महत्या पर बात कर सकते हैं, फिर सिंगूर और नंदीग्राम के मसले पर चुप्पी क्यों ? इसकी असल तस्वीर पर परदा क्यों ?

अजय ने कोई जवाब नहीं दिया। वह छोटे-छोटे घूँट से पीता रहा। अजय के पास कोई जवाब न था, ऐसी बात न थी। पर वह इस विषय पर तब-तक नहीं बोल सकता था। जब तक ऊँची चीज़ने मौन साध रखा हो। थोड़ी देर दोनों चुप-चुप पीते रहे। चुप-चुप पीना सतीष को खल रहा था। दो पैग के बाद अजय का मोबाइल बजा। अजय बोला- हाँ पार्टी, कहाँ है ?

उधर से अजय के कान में क्या कहा गया ! सतीष को पता नहीं चला। उसने सुना- तू वहीं रुक, मैं अभी आता हूँ। फिर सतीष की तरफ़देखे बग़ैर वह बोला- जाना होगा, कोई इंतज़ार कर रहा है। वह घूँट गटकता उठ खड़ा हुआ था। उसके जाने के बाद सतीष ने बुदबुदाया- फिर जाने किसका जीवन दाँव पर लगा है।

सतीष तेज़ी से टूट रहा था। षहर में उसके जो कुछ पुराने दोस्त थे, वे तो पहले ही छूट गये थे। घर में माँ-बाऊजी के पास भी लौटना सम्भव नहीं था। अजय ही एक भरोसेमंद था, पर अब यह भरोसा भी छलावा लग रहा था। अजय के साथ काम करते हुए मन में समानता का सपना लहलहा उठा था, जो अब ठूँठ में बदलता महसूस होने लगा था। वह ख़ुद एक ऐसे दौर से गुज़्ारते देख रहा था, जिसकी कोई षक्ल नहीं थी। अगर कोई षक्ल थी भी, तो वह थी गिरगिट की षक्ल। गिरगिट का एक पूरा वर्ग था, जो मौक़े के मुताबिक रंग अख़्तियार कर लेता। सतीष भौचक्क और ठगा-सा रह गया था।

उसे पूरा षहर गिरगिटों की भीड़में बदलता नज़र आने लगा। षहर के लोग ही नहीं, पेड़, सड़क और लोगों के घर भी रंग बदलते दिखने लगे थे। मसलन सतीष आठ दिन पहले जिस सड़क से गुज़रा, नौवे दिन वापस उस सड़क पर आया, तो उसका काला रंग सिमेंटी रंग ओढ़चुका था। उसके आजू-बाजू पेड़थे ही नहीं। वह जिस चैराहे को पीपल वाले चैराहे से जानता था, वहाँ प्लास्टिक से बना नारियल का पेड़खड़ा था। उसमें अलग-अलग रंग के नारियल लगे थे। उसका तना कई रंगों का था, उसकी पत्तियाँ इतने रंगों की थी कि रंग गिनना मुष्किल थे। एक ही पेड़, एक ही सड़क, एक ही आदमी, एक ही मुद्दा, एक ही धर्म, एक ही सम्प्रदाय, एक ही एन जी ओ, एक ही पार्टी, एक ही समूह के इतने रंग होने लगे कि एक ही के बारे में बरसों तक कई एन जी ओ षोध कर सकते थे। कुछ सजगमनाओें ने तो सरकार और फन्डिंग एजन्सियों से प्रोजैक्ट सेंसन करवाकर, बकायदा काम भी षुरू कर दिया था। वे हर जगह कैमरा लेकर षूट करते नज़र आने लगे थे। कभी सतीष उनकी तरफ़देखता, तो वे एक गंडमरे की-सी षर्मिन्दगी भरी मुस्कान बिखेर अपने काम में लग जाते।

इस रंग बदलती दुनिया से भयभीत हो, सतीष अपने कमरे में बंद हो गया। कई दिनों तक बाहर नहीं निकला। कई रातें सोया नहीं। खाने का पता नहीं, कब खाता, या न खाता। कमरे में बंद होने से पहले उसने अपनी घड़ी, जो कभी उसे क्रिकेट में मैन आॅफ द मैच के रूप में मिली थी, जो काफ़ी कीमती थी, बेच दी थी। कई बरस पुरानी घड़ी के भी, जो दाम मिले थे, उसमें कुछ बोतल षराब, कुछ पैकेट पीनैट और कुछ पैकेट सिगरेट आ गयी थी। उसी के सहारे वह कुछ दिन कमरे में बंद रहा था। जितने दिन कमरे में बंद रहा। मोबाइल भी बंद रहा। कमरे में यों रहा, जैसे दुनिया में नहीं रहा।

जिस षाम कमरे से बाहर निकला, मौसम उमस भरा था। पर बरसात होने के कोई आसार नहीं थे। सिर और दाढ़ी के खिचड़ी बाल बेतरतीब थे। कंघी कब की थी, नहीं पता। उसने पैण्ट की जेब में हाथ डाला, हाथ में कुछ काग़्ाज़अड़े। काग़्ाज़को बाहर निकाल कर देखा- वे क़रीब ढाई-तीन सौ रुपये थे। ख़ुद से कहा- चल प्यारे, आज तुझे खाना खिलाते हैंे। कुछ दिन पहले ट्राँसपोर्ट एरिया में एक सस्ता ढाबा देख लिया था, वहाँ ट्रक ड्राॅयवर, मैकेनीक, हम्माल और कुछ भिखारी खाना खाया करते थे। वहीं जाकर उसने दो पैग पीने का और एक प्लैट नाॅनवेज खाने का सोचा था।

वह अपने कमरे की बग़ल के चार कमरों को पार करता, उधर बढ़ा, जिधर बाइक खड़ी थी। बाइक को देखकर आँखें फटी की फटी रह गयी। बाइक, जो उसके कमरे में बंद होने से पहले तक काली थी। अब काली नहीं थी। रंग-बिरंगी हो चुकी थी। उसकी टंकी की एक बाजू केसरिया, दूसरी बाजू हरा रंग पुता था। उसका माथा और हैंडिल पीले, और धपड़े लाल रंग से पुते थे। डर के मारे सतीष की धड़कन तेज़हो गयी। उसने बाइक के साइड ग्लास में देखा- उसके कपाल का रंग, आँखों का रंग बदला दिखा। अपने कपड़े देख उसे लगा- जब वह कमरे में बंद हुआ, कपड़ों का रंग अलग था। जब कमरे से बाहर आया, कपड़ों का रंग अलग है। उसे लगा- उसके दिमाग़की नसें फट जायेंगी और उनमें से सिर्फ़ काला रंग निकलेगा। उसने ख़ुद को समझाते हुए सोचा- उसे भ्रम हो गया है। किसी का रंग नहीं बदला है। सभी अपने-अपने रंग में है। वह खेलते बच्चों को देखने लगा- बच्चों ने अलग-अलग रंग के कपड़े पहने थे। गोल-गोल घूमकर खेल रहे थे। धीरे-धीरे घूमते-घूमते, इतने तेज़घूमने लगे कि उनके कपड़ों के रंग को अलग-अलग पहचानना मुष्किल हो गया। सोचा- यही उसके साथ हो रहा है। सब रंग गडमड हो रहे हैं। उसने उड़ते पक्षियोें को देखा- सब अपने-अपने रंग के टुल्लर में उड़रहे थे। मन कुछ हल्का हुआ। बाइक पर सवार हो चल पड़ा, ख़ुद को दावत देने।

तभी उसका मोबाइल धीमी और दबी आवाज़के साथ काँपने लगा। वह चलती बाइक पर ही मोबाइल को कान से लगाता बोला- हेलो।

-मैं नीतू। उधर से आवाज़आयी। सतीष सिर से पाँव तक थरथरा उठा। बाइक साइड से रोक ली। बोला- हं.. हाँ .... ब बोलो।

-रक्षा बंधन पर मायके आऊँगी, तब मैं एक दिन तुम्हारे पास भी आना चाहती हूँ। वह बोल रही थी। सतीष चुपचाप सुन रहा था- उस दिन अपन दिन भर बाइक पर घूमेंगे। तिंछा फाल चलेंगे। पर देखो, अब पहले की तरह पानी में धक्का मत देना। मैं दो बच्चों की माँ, और मोटी हो गयी हूँ, निकल नहीं पाऊँगी।

-हूँ .... बताता हूँ, अभी राखी आने में कई दिन बाक़ी है। सतीष की आँखें चू उठीं, गले में कुछ फँसने लगा था।

-क्या अब भी बाऊजी से पूछोगे ? उसने हँसते हुए कहा और बात कट गयी।

सतीष ने कुछ कहना चाहा, लेकिन मोबाइल का नेटवर्क नहीं लौटा। उसने फिर बाइक स्टार्ट की और सड़क पर चल पड़ा।

उस षाम कई दिनों बाद, षायद कुछ हफ्तों बाद कमरे से निकला था। कमरे से सीधा ढाबे पर जाता, तो दस-पन्द्रह मिनट में पहुँच जाता। लेकिन वह कमरे से सीधा पेट्रोल पम्प पर गया। बाइक में पेट्रोल डलवाया। घूमने लगा- इस सड़क, उस सड़क। आसमान में अँधेरा हो गया। अँधेरे से पानी के हल्के-हल्के भुरेभुरे बरसने लगे। सड़क पर गाड़ियों के रेले। रोषनी की चकाचैंध। उसकी बाइक निरुद्देष भटकती रही देर तक।

सतीष की बाइक षहर की उस सड़क पर थी, जो षहर से बाहर ले जाती थी- सूनसान और अँधेरी सड़क। ठंडी हवा उसके कपाल से टकराती, तो बीच में से फट जाती और दोनों कानों में सीटी बजाती पीछे छुटती जाती। लेकिन कपाल के भीतर मग़ज़में अतीत ने कब्ज़ा कर लिया। कई घटनाएँ तेज़ी से आने-जाने लगी- कैसे माँ-बाऊजी ने नीतू से अलग कर दिया ? कैसे दोस्तो और दुष्मनों के बीच का भेद मिट गया ? कैसे मि. महान और ऊँची चीज़सरीखे पैसों के दम पर सबको ता था थइय्या कराते हैं ? कैसे खाता-पीता वर्ग गिरगिट में बदल जाता। अजय ने एक फ्लैट के बदले रंग बदल लिया ? गिरगिट ही उसके प्रति सहानुभूति जता रहे थे, गिरगिट ही उसे मनोरोग चिकित्सक के पास जाने की सलाह दे रहे थे। वह अवसाद से भरता जा रहा था। तभी वह बुदबुदाया- जब गिरगिटों के ही बीच रहना है ? तो क्या फर्क पड़ता है ? रहे, न रहे ! उसकी बाइक की स्पीड तेज़..... और तेज़........ और फिर........

ड्राइवर कोई भला मानुष और उम्र दराज था। उसने एन वक़्त पर बाइक से अपना ट्रक बचा लिया था। लेकिन बाइक का संतुलन बिगड़गया। बाइक और सतीष दूर तक साथ-साथ घिसटते हुए चले गये। कुछ देर दोनों आड़े ज़रूर पड़े रहे। फिर कान में ट्रेन की सीटी गँूजी। वह उठा। उठा तो ठन्डी हवा षरीर के उन हिस्सों पर ज़्यादा ठन्डी लगी, जो ज़ख्मी हो गये थे। उसकी बायीं भौंह के सिरे के ऊपर से तो ख़ून की धार ही गिर रही थी। घुटनों पर से जींस के साथ-साथ चमड़ी भी फट गयी थी। बदन में कई जगह गिट्टी और रेती धँस गयी थी। लेकिन हौसला पस्त न सतीष का हुआ, न गाड़ी का। जब फिर से ट्रेन की सीटी गँूजी। देखा- अँधेरा चीरती ट्रेन उसी की दिषा में दौड़ती आ रही थी।

वह जहाँ खड़ा था, वहाँ से रेलवे पटरी की दूरी का अँदाज़ा लगाया। फिर बाइक को उठाकर खड़ी की। किक मारकर जैसे बाइक से पूछा- दौड़ने को तैयार हो। बाइक ने अँवों... अँवों.. कर पूरे कस से दौड़ाने का भरोसा बँधाया। जब रेलवे फाटक वाले ने दनदनाती बाइक आते देखी, चकरा गया। पर स्थिति नाको-नाक थी। वह न बाइक को रोक सका, न ट्रेन को।

जब बाइक फाटक से बीस-तीस क़दम दूर थी, तब सतीष ने देखा कि फाटक बंद है, तो बाइक फाटक के ऊपर से कूदाते हुए ट्रेन से टकराने का सोचा। उस वक़्त वह जोष और ग़ुस्से से भरा बम था, अगर ट्रेन से टकरा जाता, तो जाने क्या होता ? पर उसकी बाइक पुरानी थी और देखभाल के अभाव में दम्मा जाती थी। एन मौक़े पर उसकी साँस फूल गयी। बाइक फाटक को कूदने की बजाय फाटक से ही भिड़गयी। फिर से दोनों को ज़ोर की चोट लगी और वहीं ढेर हो गये।

रात के उस वक़्त में वहाँ कोई नहीं था, सिवा फाटक मैन के। वही हाथ में कंदील लिये आया। थोड़ी देर के बाद षहर की तरफ़जाने वाली एक कार आयी। फाटक मैन के काॅफी अनुरोध पर कार वाला मदद करने पर राज़ी हुआ। सतीष को अस्पताल और बाइक को थाने में पहुँचाया। फाटक मेन ने थाने में अपना बयान भी लिखवाया और वापस अपनी नौकरी पर आ गया।
अस्पताल में सतीष का चेहरा, जैसे चेहरा नहीं, गोष्त का एक पहाड़था, जिसे कीड़े, मकौड़े और चींटियाँ उत्सव मनाते हुए खा रहे थे। कुछ ने तो भीतर सुरंगे और पगडंडियाँ बना ली थीं। वे भीतर ही भीतर पहाड़के इस कोने से उस कोने तक का गोष्त चखते। फिर साथियों को स्वाद के क़िस्से सुनाते। मग़ज़की कोषिकाओं का स्वाद उनके बीच ख़़ूब फैमस हुआ।

बिस्तर पर लेटे सतीष की आँखें बंद थीं। वह बंद आँखों में जैसे कोई सपना, और सपने में कोई फ़िल्म देख रहा था। वह देख रहा था- पंख वाले मकौड़ों ने एक दल बना लिया है। दल पाँव प्रदेष से लेकर माथा प्रदेष तक घूम-घूम कर मीटिंग्स कर रहा था। फिर उसने सभी दलों की एक राष्ट्रीय मीटिंग बुला ली। मीटिंग में सभी अपने-अपने प्रदेष के गोष्त और स्वाद का बखान कर रहे थे।

अंत में राष्ट्रीय संयोजक ने एक प्रस्ताव रखा- हमारे पास गोष्त का इतना विषाल पहाड़है कि कई पीढ़ियाँ खाती रह सकती हैं। क्यों न इसमें से कुछ हिस्सा निर्यात कर दें ? हम ऐसा कर विदेषी पूँजी का भंडार भर सकते हैं। फिर गोष्त के अलावा भी कई चीज़ों का आनंद उठा सकेंगे। निर्यात करने का प्रस्ताव मंजूर हो गया, तो फिर बात आयी- अगर ख़ुद निर्यात करने के झँझट में न पड़ें और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को बेच दें या लीज पर दे दें। या उनकी सुविधानुसार जैसा भी ठीक रहे, वैसा कर लें, तो कोई आपत्ति ?

मग़ज़प्रदेष का एक मकौड़ा उठा। उसकी, मूँछ के कुछ बाल सफे़द और कुछ काले थे, वह बोला- क़ीमत कौन तय करेगा। सभी प्रदेषों का गोष्त एक जैसा नहीं है। मेरे प्रदेष का गोष्त बहुत ही मुलायम और स्वादिस्ट है, जो किसी भी देष के बूढ़े, बच्चों की पहली पसंद होगा। हम अपने प्रदेष के गोष्त की क़ीमत ख़ुद तय करेंगे। बल्कि हम हमारे प्रदेष की किसी बड़ी कम्पनी को निर्यात का ठेका देना चाहेंगे।

मकौड़ों के संयोजक ने कहा- हम आपकी भावना का आदर करते हैं। हम किसी भी प्रदेष का गोष्त सस्ते दामों पर नहीं बेचेंगे। हम एक ग्लोबल इन्वेस्टर्स मीट बुलायेंगे और उसमें पूँजीपति कम्पनियों के बीच ख़ुली नीलामी करवायेंगे।

एक दूसरा मकौड़ा उठा, जिसकी खाल लाल थी। बोला- हम अपने प्रदेष पर किसी भी पूँजीपति कम्पनी को नहीं आने देंगे। प्रदेष की नीलामी भी नहीं लगने देंगे। हम ख़ुद एक सहकारी संस्था बनायेंगे। एक समिति बनायेंगे। समिति दौरा करेगी। फिर एक समिति बनायेंगे, जो रिसर्च के कुछ बिंदू तय करेगी। फिर कुछ महान और ऊँची चीज़रिसर्च करेंगे। एक रिसर्च रिव्यू समिति बनायें, जिसमें महानतम और सर्वोत्तम ऊँची चीज़ेंषामिल होंगी। सभी की रिपोर्टों और सुझाओं का अध्ययन करने के बाद, हम सोचेंगे, हमारे प्रदेष का हित किसमें हैं ? प्रदेष के कीड़े-मकौड़ों के लिए जो बेहतर होगा, वही करेंगे।

एक भयानक ही काला मकौड़ा उठा। उसके हाथ-पैर बाल से भी पतले थे, जिसे भूख और ज़िन्दगी के अभाव कुतर-कुतर कर खा गये थे, वह काँपता हुआ बोला- हमारे प्रदेष के भविष्य का फ़ैसला आप मत करो। हमें अपने ढंग से रहने दो। हम अपनी ज़रूरत के मुताबिक साधन जुटा लेंगे। जब किसान ने फ़सल बोना सीखा, तो हल, बखर, हँसिया बनाना और जुटाना भी सीखा। हमें जब जिसकी ज़रूरत होगी, हम खोज लेंगे, जुटा लेंगे। हम पर साधन या विकास या सुख, मत लादो।

पूरी ताक़त से बोलने के बावजूद, इस मकौड़े की आवाज़बहुत कमज़ोर थी। उस षोर में कुछ ने सुनी नहीं, कुछ ने अनसुनी की, कुछ यों मुँह फाड़कर हँसे, जैसे कह रहे हो- इक्कीसवीं सदी में भी कैसे-कैसे मूर्ख मौजूद हैं !

इस षोर-षराबे से ही उसका ध्यान भंग हुआ। याद आया- बरसात में मकौड़े और चींटियाँ खुले में नहीं मिलते हैं। जब कमरे से निकला था, तो बाहर पानी के हल्के-हल्के भुरभुरे बरस रहे थे। उसने आँखें खोलने की कोषिष की, नहीं ख़ुली। उसकी आँखों और चेहरे पर सूजन थी। वह बुदबुदाया- मैं कहाँ हूँ ?

नर्स ने कहा- आप अस्पताल में हैं।

वह चैंका। उठने की कोषिष की, लेकिन नर्स ने उठने नहीं दिया। बोली- आपको आराम की ज़रूरत है, लेटे रहें।

वह फिर बुदबुदाया- लेकिन मुझे क्या हुआ है ? मुझे कुछ दीख नहीं रहा, मेरी आँखों को क्या हुआ ?

नर्स ने कहा- प्लीज आप षांत रहें, आपको काफ़ी चोट लगी है।

सतीष के मानस पटल पर वह घटना कौंध गयी थी, जिससे वह गुज़रकर अस्पताल पहुँचा था। बोला- नर्स, मेरे बिस्तर पर, बहुत सारे कीड़े-मकौड़े, और लाल चीटिंया हैं। उसकी आवाज़में बेबसी थी- मेरा बिस्तर बदल दो। प्लीज़

नर्स ने समझाया- बिस्तर साफ़-सुथरा है, यहाँ कोई चींटी नहीं है। फिर बोली- आपको टाँके लगाये जा रहे थे, इसलिए ऐसा महसूस हुआ होगा।

जब उसे होंष आया, तो डाॅक्टर और पुलिस वाला खान भी चला आया। खान ज़ल्दी में था, पहले उसने काग़ज़ों का पेट भरा।

फिर अपनी पैण्ट की जेब से एक छोटी-सी पोटली निकाली। जिसमें सतीष का मोबाइल, कुछ रुपये, कुछ विजिटिंग कार्ड और एक फ़ोन बुक थी, जिसमें करीब चारा-पाँच सौ फ़ोन और मोबाइल नम्बर लिखे थे। पुलिस वाला फ़ोन बुक खोलकर नाम पढ़ने लगा- अजय, बाऊजी, इसमें काफ़ी नम्बर लिखे हैं, किसी को बुलाना है।

सतीष ने कहा- नहीं। और मन ही मन बुदबुदाया- सब मर चुके हैं।

पुलिस वाले ने सतीष को उसका सामान दिया और बोला- ठीक है, आराम करो।

खान जाने को हुआ, तो उसे याद आया और बोला- तुम्हारी बाइक थाने पर खड़ी है, कोई मिलने वाला आये, तो मेरे पास भेजना, सुपुर्द नामे पर दे दूँगा।

जब खान चला गया। सतीष ने डाॅक्टर से अस्पताल का ख़र्चा पता किया। फिर डाॅक्टर की मदद से नज़दीक की मल्टी से आॅटो डील वाले को बुलवाया। उसे सतीष ने अपने बारे में बताया। जब उसे भरोसा हो गया कि बाइक चोरी की नहीं है। वह ख़रीदने को तैयार हो गया। थाने से बाइक ले आया। अस्पताल में ही बाइक का सौदा किया। इलाज़का बिल चुकाया और कुछ रुपये बच भी गये, उन्हें जेब के हवाले किये। घटना दो दिन पुरानी हो गयी थी, तो सूजन कुछ कम हो गयी थी, आँखें भी खुल गयी थी।

जब अस्पताल से डिस्चार्ज होकर निकला, तो बाहर एक परिचित आॅटो वाला मिल गया। उसमें बैठ गया, अभी लगभग सौ मीटर ही चला था कि एक ख़ाली जगह पर आॅटो रुकवाकर नीचे उतरा। ख़ाली जगह एक बड़ा प्लाट था, जो पिछले दिनों ग्लोबल इन्वेस्टर्स मीट के दौरान रिलायंस ने दो सौ सत्तर करोड़में ख़रीदा था। सतीष लँगड़ाता हुआ प्लाट पर पहुँचा। पैण्ट की जीब खोली और तर्रर्र...... धार के नीचे उसे कई मि. महान और ऊँची चीज़के चेहरे भी दिखे।

वह ठीक होने के बाद, लगभग हर षाम एक अहाते पर जाने लगा। अहाता कमरे से ज़्यादा दूर नहीं था, सो पैदल ही जाता, वैसे भी बाइक तो बेच ही दी थी। राह चलता जाने किससे बातें करता। हाथ हिलाकर इधर-उधर इषारे करता। कोई भी देखने वाला समझता- कोई सनकी और खिसका हुआ होगा। जिसे जो सोचना-समझना हो, सोचे-समझे। वह बाहरी ख़बरों से बेख़बर और अपनी अंतर धुन में डूबा जाता। उस षाम जब अद्धा ख़रीदा। दुकान वाले ने जो खुल्ले पैसे वापस किये, उनमें एक सिक्के पर अँगूठा छपा था। यह वही ठेंगा था, जो मीडिया के मार्फत परमाणु करार विरोधियों को दिखाया था। उसे याद आयी- ठेंगा दिखाने वाले की आँखों की वह चमक भी, जो सोलह सांसदों की सफल षाॅपिंग कर लेने से उभरी थी।

सतीष अहाते में बैठा पानी और गिलास का इंतज़ार कर रहा था, तभी पवन दाखिल हुआ था। पवन की सतीष से नज़रे मिली, तो दुआ-सलाम करता, उसी की बेंच पर बैठ गया। पवन के हाथ में अपनी षीषी के अलावा, सांध्य दैनिक अख़बार था। सतीष उसके हाथ से अख़बार लेता उलटने-पलटने लगा।

पवन ने उसे बेसब्री से अख़बार पलटते देख, पूछा- कुछ ढूँढ़रहे हो भिया ?

उसने अख़बार बंद कर पवन की तरफ़बढ़ाते हुए कहा- ढूँढ़तो रहा हूँ, लेकिन नहीं छपी। ।

पवन ने पूछा- क्या नहीं छपी भिया ?

-ख़बर....... मेरी मौत की ख़बर।

पवन ने कहा- पर भिया, आप अभी मरे नहीं, जो ख़बर ढँॅूढ़रहे हो।

-मर तो गया, ख़बर नहीं बनी। सतीष ने डूबते भाव से कहा, और फिर बुदबुदाया- उनका ठेंगा भी छपने लगा सिक्कों पर, हमारी मौत की ख़बर भी नहीं अख़बार के पन्नों पर।

सतीष अपना पैग बना चुका था, पवन ने भी अपना पैग बनाया। पवन समझ गया- कोई सदमा लगा है। वह बात को बदलता बोला- भिया, आपने तेल का काम-काज बंद कर दिया क्या ?

-हूं। सतीष कुछ सोचता लग रहा था।

-भिया, आजकल क्या कर रहे हैं आप ? पवन को चुप बैठने की आदत नहीं थी।

-फिर से मरने की तैयारी। सतीष ने बीड़ी का एक ज़बरदस्त कष खींचने के बाद कहा। उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं था। उसकी आँखों में न कोई डर था, न कोई उम्मीद। वह तटस्थ लहज़े में बोला- पवन, मरना एक ज़रूरी काम, टाला नहीं जा सकता। जन्म के दूसरे क्षण से ही हर कोई मरने की तैयारी करता है। अमरीका का राष्ट्रपति भी मरेगा एक दिन और हमारा प्रधानमंत्री भी। दुनिया के हर आम और ख़ास को मरना है एक दिन। मौत को धोखा या रिष्वत नहीं दी जा सकती। कोई समझौता नहीं किया जा सकता। इससे क्या फर्क पड़ता है, आज मरे या कल ? बँगले में मरे या सड़क पर ? फिर मरने की तैयारी में सरकारी काम की तरह ढ़ीलपोल क्यों ?

पवन की बोलती बंद। उसे ज़्यादा कुछ भले ही समझ में न आ रहा हो। पर यह समझ गया था कि कोई बात है, भीतर ही भीतर खाये जा रही है। पवन अपने देषी अँदाज़में कुछ सोचता हुआ बोला- भिया कोई ज़्यादा तीन-पाँच कर रहा हो तो बोलो, एक अर्थी की लकड़ी लगेगी और क्या ? आपके वास्ते ये खेल भी खेल जाऊँगा। आप तो दुष्मन का नाम बोलो ?

-किसी अँधेरे ने नहीं, रोषनी ने दगा दिया है मुझे। सतीष बुदबुदाया और फिर पवन के हाथ पर हाथ धरता बोला- कोई दुष्मन नहीं। सब, दोस्त ही है मेरे।

अचानक सतीष को लगा- ऐसी बातों से पवन षायद बोर हो रहा होगा। उसने अपना मूड बदलने की कोषिष की। चेहरे पर मुस्कान लाने का प्रयास करता बोला- तेरी दुकानदारी कैसी चल रही है ?

पवन कुछ न बोला। उसने सतीष की आँखों पर नज़रे टिका दी। लगा आँखें कुछ छुपा रही हैं। वह फिर बोला- भिया.... वो आपके साथी अजय थे अजय भिया....... उनसे कुछ हुआ ?

सतीष ने पवन को नज़रों से पकड़ते हुए कहा- सुन, कोई अजय, मि. महान या दुनिया कोई भी ऊँची चीज़वगैरह...वगैरह... मेरे दुष्मन नहीं। आज हर इंसान का सबसे बड़ा दुष्मन जो है.... वो है...

सतीष बात बीच में रोककर अपना घूँट लेने लगा। पवन से इतनी देर सब्र न हुआ, बोला- कौन भिया ?

-बाज़ार, पवन ये जो बाज़ार है न। उसने फिर घूँट लिया- बाज़ार अच्छे भले आदमी को भड़वा और औरत को वेष्या बनाने में उस्ताद है।

पवन चुप। क्या बोले ? सम्पट नहीं पड़रही थी। वह घूँट गटकने के बाद गर्दन हिलाकर रह गया था। बेबस।

सतीष ने अपनी जेब में हाथ डाला। कुछ रुपयों के साथ हाथ जेब से बाहर निकाला। ये बाइक के रुपयों में से ही बचे कुछ रुपये थे। पवन की ओर बढ़ाये और बोला- ये रख ले, जब मेरी अर्थी के लिए ज़रूरत पड़े, सामान दे देना।

पवन के भीतर एक झुरझुरी-सी दौड़गयी। वह अजय, मि. महान और ऊँची चीज़की तरह प्रोफेषनल नहीं था। अचानक भावुक हो गया। आँखों में जलजले आ गये। बोला- भिया कैसी बात करते हो ?

कुछ क्षण दोनों के बीच सन्नाटा। उनके बीच के सन्नटे में आसपास के षोर का दखल। गिलासों के आपस में टकराने की आवाज़। लोगों की ज़ोर-ज़ोर से चीक-चीक। पापड़तोड़ने की परर्ड... पट,़। कभी कलाली पकोड़े और कभी भूर्जी मँगवाने का आर्डर। पवन ने बात को फिर बदली- भिया, आप जो अर्थी के सामान का पैसा देते थे।

-हाँ देता था न, कुछ बाक़ी रह गये क्या ? सतीष ने उदासी को भगाने की नाकाम कोषिष के साथ कहा।

-न भिया बाक़ी नहीं है .... , सोच रहा था। पवन झिझक की खोल में कुछ सोच रहा था षायद। या षायद कुछ कहना चाह रहा था। पर चुप हो गया। षायद संकोच की दीवार नहीं लाँघ पाया था। फिर संकोच को भेदता बोला- भिया कह रहा था, ‘आज योग बैठा है।

-कैसा योग... ? सतीष ने बीड़ी का कष खींचते हुए कहा था।

-भिया आप जितनी अर्थियों के सामान के पैसे देते थे, मैं उनके मुनाफ़े के पैसों से नयी किताबें ख़रीदता। उसने अपनी सोच पर अमल किया, तो किताबें बढ़ने लगी। फिर किताबों को अपनी दुकान के पिछले हिस्से में जमा दी और एक पुस्टे पर चाक से लिख दिया- बाचनालय।

पवन किताबें पढ़ता। अपने मिलने-जुलने वालों से, मोहल्ले के दोस्तों से बात करता। उन्हें किताबें पढ़ने को देता। मोहल्ले के कई लोग अक़़्सर काम न होने की वजह से बेकार बैठे रहते थे। या ताष खेला करते थे। पवन उन्हें भी किताबें पढ़ने को दे दिया करता। धीरे-धीरे हालत ये हो गयी। रोज़कोई न कोई पवन से किताब माँगने आने लगा। पढ़ी कहानी और उपन्यास पर बात करता। फिर नयी किताब की माँग करता।

कुछ ही सालों में उसका वाचनालय ठीक-ठाक हो गया था। लोगों की आवक-जावक भी बढ़गयी थी। अब वहाँ भगत सिंह, चन्द्र षेखर, अषफाक उल्ला पर भी किताबें थी। कई देषी-विदेषी उपन्यास और जन मुद्दों से जुड़ी किताबें भी थीं। वह यह काम चुपचाप करता रहा। सोचा था- कभी सतीष भिया को दिखाऊँगा। लेकिन संकोच के चलते योग ही नहीं बैठा। उसे लगा- आज योग बैठा है।

पवन ने उस षाम जब पहली बार यह सब बताया। सतीष की बहुत दिनों से सूखी और उदास आँखों से मानों तिंछा फाल झरने लगा। उसके गले में षब्द मदारी के अन्टे की तरह फँसने लगे, इतना ही बोला- यार, मुझे तेरे वाचनालय में किताबों की देख-भाल का काम मिल सकता है। मैं किताबों पर धूल नहीं जमने दूँगा।

पवन उसी वक़्त सतीष को अपनी बाइक पर बैठाल वाचनालय ले गया। रात करीब साढ़े आठ बज रहे थे। सामने से अर्थी के सामान की दुकान बंद थी। पीछे से वाचनालय का दरवाज़ा खुला था। भीतर एक सौ वाट का बल्ब जल रहा था। किताबों से पूरा कमरा भरा था। नीचे दरी पर सात आठ बच्चे, जिनकी उम्र छः-सात से लेकर पन्द्रह-सोलह बरस के बीच की थी, पढ़रहे थे। उन्हें देख सतीष की आँखों में छोटे-छोटे असंख्य जुगनू झिलमिलाने लगे। उसने भीगी आँखों से पवन की ओर देखा और बोला- मैं तुम्हें सलाम करता हूँ दोस्त, और फफकर पवन से लिपट गया। उस रात सतीष कई बार बुदबुदाया- मैं इन जुगनुओं की चमक बढ़ाऊँँगा। उसके चेहरे के भाव से यों लग रहा था, मानों चेहरे पर भाव नहीं- सपनों के ठँूठ पर फूटती कोंपलें हों।