सपने के भीतर / देवेंद्र
शहर उस समय बेहद मामूली नींद में सो रहा था। पेड़ की ऊपर वाली डाल पर गौरैया के बच्चे अपनी मीठी और मद्धिम आवाज में चीं-चीं कर रहे थे। शहर की उस बेहद मामूली नींद से फैले एकान्त का मोहक सन्नाटा। सन्नाटे को लय देती गौरैया के बच्चों की चीं-चीं। आसपास सब कुछ बहुत आत्मीय और संगीतमय लग रहा था। बच्चों के ठीक नीचे वाली डाल पर अपनी टाँगे लटकाए, बेफिक्र और मस्त बैठी सत्तो प्लेटफॉर्म की ओर देख रही थी। प्लेटफार्म यहाँ से साफ दिखता है। सहूलियत यह कि इस समय यहाँ से कोई नहीं देख सकता था। प्लेटफॉर्म पर लोगों की चहलकदमी धीरे धीरे बढ़ती जा रही थी।
इतने सबेरे, अभी तो अँधेरा है, सत्तो कहाँ चली गयी? -बिस्तर से उठते हुए माँ ने सोचा और उसे खोजते हुए बाथरूम की ओर जाने लगी। बाथरूम का दरवाजा खुला हुआ था। आँगन में अमरूद के पेड़ पर दो बिज्जू बैठे थे। मांँ को बिज्जुओं से डर लगता है। बाहर निकल कर उसने देखा, मैदान में भी सत्तो कहीं नहीं है। कहीं वह सुबह सुबह शान्तनु के घर तो नहीं चली गयी? माँ उसे खोजते हुए सड़क की ओर जा रही थी।
माँ मुझे ही खोज रही है। वह डाल पर चुपचाप दुबक कर बैठी रही, चलो इसे थोड़ी देर परेशान करूँगी। सड़क तक जाकर माँ लौटने लगी-यह लड़की किसी की सुनती ही नहीं। बेटे हैं कि मुझे दोष लगाते हैं। जब माँ पेड़ के नीचे से गुजर रही थी, अचानक पीछे किसी भारी चीज के गिरने से काँप गयी। मुड़कर देखा तो सत्तो खी खी हँस रही थी। “मैंने आज तुम्हारी चोरी पकड़ ली है।” सत्तो ने माँ से पूछा, “सबेरे सबेरे सड़क पर किससे मिलने गयी थी?”
“बेशरम कहीं की!” माँ किचन में चाय बनाने चली गयी। सत्तो के तीन भाई। तीनों अलग अलग शहर में नौकरी कर रहे हैं। दोनों बड़ी बहनों की शादी हो चुकी है। अकेले ही वह इस शहर में मांँ के साथ रहती है। भाइयों की बीवियाँ और बच्चे थे। सब अलग अलग समय अपनी छुट्टियों और सुविधाओं के मुताबिक माँ से मिलने आया करते। जब भी भाई माँ से कुछ दिनों के लिए अपने साथ चलने को कहते- सत्तो यहाँ अकेले कैसे रहेगी कहकर माँ टाल देती।
सत्तो की बात आते ही भाई चुप पड़ जाते। अपनी भाभियों से उसकी बिल्कुल नहीं पटती। वैसे तो भाभियों की दिनचर्या में माँ भी खलल ही थी, लेकिन सत्तो तो मुसीबत। भाइयों की रूह काँप जाती। अगर इसके लिए कोई मामूली परचून वाला भी देखा जाए तो शादी का खर्चा पाँच लाख से कम नहीं। भाई हफ्ते, दस दिन की छुट्टी लेकर आते, माँ चौबीस घण्टे अपनी चिन्ता रोया करती। वे दूसरे या तीसरे दिन लौट जाते थे।
घर के पिछवाड़े रिक्शा, ठेला और खोमचा लगाने वालों का मुहल्ला था। ऊबड़-खाबड़, गन्दगी, तंग गलियाँ और गलियों का बेतरतीब मुहल्ला। मुहल्ले के आठ दस छोटे छोटे लड़के सत्तो के यहाँ पढ़ने आया करते। कुछ ‘फ्री’ कुछ पैसे से। चालीस पचास, जो जितना दे दे। वही उसकी छोटी मोटी जरूरतों को पूरा करने का जरिया था। ‘फ्री’ वाले लड़कों से वह घर का काम करा लिया करती। पढ़ाई कम, बातें ज्यादा। पक्की बातूनी थी सत्तो। कभी कभार यह लड़के उसके लिए चिट्ठियाँ लाने, ले जाने का काम कर दिया करते। गर्मी की छुट्टियों में बहनें आतीं तो सौ दो सौ रुपया दे देती थीं। एक बार बड़े वाले भाई ने पाँच सौ रुपया दिया। “अपनी बीवी से पूछे हो?” सत्तो बोल पड़ी।
भाई ने एक करारा चाँटा जड़ दिया।
लगभग तीनों भाइयों से उसका सम्बन्ध न के बराबर था। बाप पहले ही मर चुके थे। उसकी मुश्किल और तंग दुनिया में माँ थी। उपेक्षा और अभाव था। भरपूर आजादी थी। वह दिन भर चिड़ियों की तरह फुदकती और चहकती रहती। खूब आजाद थी सत्तो।
उस सुबह पेड़ की डाल पर टाँगे लटकाकर बैठी हुई सत्तो प्लेटफॉर्म पर शान्तनु को खोज रही थी। “तुम जब गाँव से लौट आओ तो प्लेटफॉर्म की दुकान पर चाय पीने आना। मेरे घर की छत से प्लेटफॉर्म सामने दिखता है।” सत्तो ने उससे कह रखा था। जब वह छत पर खड़ी होती तो मुहल्ले के लड़के भी देखने झाँकने लगते। पहले की बात और थी। तब सत्तो भी ‘टा टा, बाय बाय’ कर लिया करती। जब से शान्तनु का चक्कर शुरू हुआ है, वह छत पर तभी जाती जब उसे प्लेटफॉर्म पर देख लेती थी। पेड़ की डाल से प्लेटफॉर्म को देखते रहना बनिस्पत ज्यादा निरापद था। उसने शान्तनु को अपने घर आने से मना कर रखा था।
किसी तरह सत्तो पार लग जाती- माँ सोचा करती। बी.ए. पास करने के बाद पाँच साल बीत गये थे। उसके पास इतना पैसा कभी नहीं जुड़ा कि फीस जमा करके सत्तो आगे की पढ़ाई पूरी कर सके। आजकल लड़के वाले सब कुछ देखते हैं। सत्तो सुन्दर थी। गोल मटोल चेहरा। खरगोश सी आँखें। आँखों में शोख शरारतें और चुहल कूट कूट भरी थी। मुहल्ले वाले कहते- इस खण्डहर में भगवान ने रूप की बारिश की है।
पिछले साल लड़के वाले सत्तो को देखने आये थे।
“क्या कर रही हो आजकल?” लड़के की बड़ी बहन ने पूछा, “तुमने बी.ए. के बाद आगे की पढ़ाई क्यों नहीं की?”
भाई ने बताया, “बीमार पड़ गयी थी। इस साल इसने एम.ए. का फार्म भरा है।”
“मैं तो जीवन में कभी बीमार ही नहीं पड़ी।” सत्तो ने भाई की बात काट दी, “भैया, मैंने किस विषय से एम.ए. का फार्म भरा है?”
अचानक सन्नाटा फैल गया।
“बताऊँ?” सत्तो ने लड़के की बहन से कहा, “एम.ए. करने में पैसा लगता है। सात आठ सौ रुपये का खर्च। भैया लोग मेरी शादी खोजते हैं। भाभियाँ घुड़क दें तो शादी में शरीक नहीं होंगे।”
पड़ोस वाले वकील साहब के यहाँ थोड़ी देर पहले बड़ी भाभी का फोन आया था। शायद उन्हें पता चल गया कि शादी की तैयारी चल रही है। माँ से उन्होंने कहा कि घर का अपना हिस्सा उन्हें बेचना है। माँ तभी से रो रही हैं। “भाभी मेरे सामने होती तो मैं जरूर बताती कि हिस्सा कैसे लगाया जाता है?” सत्तो भरी बैठी थी। काँख के नीचे, समीज का जो हिस्सा महीनों पहले से उघड़ता और फटता जा रहा था, और जिसे बड़ी मशक्कत से वह अब तक छिपाए रही- एम.ए. का फार्म भरा गया है, यह सुनते ही सत्तो बरस पड़ी थी। संजीदगी और गरिमा से बोझिल होते हुए माहौल को उसने तहस नहस कर दिया। भाइयों को बेआबरू करके उसे लगा कि उसने बदला ले लिया है। “मउगड़े!” भाई को देखते हुए उसने घृणा से थूक दिया, “नुमाइश करके चले हैं।”
वह उठी और तेजी से आँगन में चली गयी। आँगन में अमरूद का पेड़ था। कच्चे कच्चे फलों से लदा। एक टहनी को झुकाकर उसने अमरूद तोड़ा और उसे चबाती हुई बाथरूम में घुस गयी।
“आज मैं इस हरामजादी को बीच से फाड़ डालूँगा।” गुस्से से उबल रहा भाई जोर जोर से बाथरूम के दरवाजे पर लात मार रहा था। सत्तो को जब बेवजह हँसने का मन होता है, या वह बिना किसी बात के रोना चाहती है तो बाथरूम में जाकर दरवाजा बन्द कर लेती है।
“निकल साली!” भाई चीख रहा था।
भीतर से कच्चा अमरूद चबाने की आवाज आती रही।
सत्तो ऐसा कुछ नहीं करना चाहती कि खामखाँ माँ को तकलीफ हो। एक माँ ही तो है। सत्तो के लिए माँ ही उसकी दुनिया थी। आज भाई ने माँ के ऊपर भी लात चला दिया। जब वह सत्तो पर बेरहमी से लात घूसे चला रहा था तो माँ ने बीच-बचाव की कोशिश की थी।
पहले साँझ का धुँधलका और फिर गहरी काली रात। शहर में पूरी रात बिजली नहीं आती। माँ ने लालटेन नहीं जलायी थी। घुड़साल नुमा उस खण्डहर होते घर में शहर का सारा अँधेरा तह दर तह जमा होता रहा। पेट के बल फर्श पर लेटी सत्तो और कोने में चुपचाप माँ। कोई किसी से बोल नहीं रहा था। रोज रोज लड़कियाँ घर से भागती रहती हैं। अपने कानूनी हक, पिता की सम्पत्ति, भाइयों के रुतबे, खानदान की मर्यादा आदि आदि को लाँघती-फलाँगती लड़कियों के भागने की खबरें रोज अखबारों में होती हैं। पंख और पिंजड़े की जंग है। जो उड़ता है, वही परिन्दा है। वही सुन्दर है। सत्तो ने सोचा, “मैं सुन्दर भी हूँ। क्यों नहीं कोई लड़का मुझे भगा ले जाता है?”
“तुम सत्ताईस पूरे कर चुकी हो।”
“माँ, अगर तुम्हारे पास पैसा होता तो मैं अब तक अपनी बेटियों को होमवर्क करा रही होती।” अँधेरा था। कोई ध्वनि नहीं थी। कोई वाक्य नहीं था। कुछ शब्द थे, जो झींगुरों के रेंकने की आवाज में बज रहे थे।
शान्तनु पराए शहर से यहाँ नौकरी करने आया था। “चवन्नी भर के इस शहर में मेरा मन ही नहीं लगता।” उसे मलिक के साथ देर रात तक प्लेटफॉर्म की खाली बेंच पर बैठने की आदत थी। “यह तो बहाना है!” मलिक कहता, “चाहे तुम जितने बड़े शहर में रहते हो, तुम्हारी दिनचर्या चार छह गिने चुने लोगों के बीच ही उलझी रहती है। चौड़ी चिकनी सड़कें, सड़कों के किनारे बड़ी बड़ी दुकानें, भीड़, ये सारी चीजें तुम्हारी दिनचर्या में नहीं होती हैं। अगर तुम्हें यह शहर अच्छा नहीं लगता तो कोई एक लड़की पटा लो।” मलिक अपने व्यावहारिक अनुभवों का निचोड़ बता रहा था, “लड़की में मन लगा कि यही शहर, जहाँ से तुम हर तीसरे दिन भागते रहते हो, इसकी गन्दी गलियाँ, टूटी दुकानें, देखना तुम्हें कैसे जकड़ लेती हैं। मेरी मानो और तुम इस शहर में एक प्रेम करो। फिर दो महीने बाद बताना कि तुम्हें यह शहर कैसे लगता है।”
मलिक अपने बारे में इतना ज्यादा व्यावहारिक था कि शान्तनु को कभी कभी अझेल लगता। लेकिन वही एक आदमी था जो उसे गाहे बगाहे उधार दिया करता। बिना यह पूछे कि पिछला पैसा कब चुकाओगे, वह उसे जब भी जरूरत पड़ती, उधार दे दिया करता। मुहल्ले वाले मलिक की निन्दा करते थे। लेकिन वह लाभ हानि, यश अपयश से परे था। उसका सारा पैसा नौकरानी रखती थी। चालीस पैंतालीस की उम्र तक मलिक ने शादी नहीं की थी।
“नौकरानी हो या बीवी, क्या फर्क पड़ता है!” मलिक कहता, “यह एक ही रिश्ते के दो अलग अलग नाम हैं। नाम बदलने से चीजें नहीं बदल जातीं। सुन्दर सी, जिसमें मन लगे, लड़की होनी चाहिए।” उसकी अपनी फिलासफी थी। “शादी एक स्थायी व्यवस्था है।” वह कहता, “तुम जैसा आज सोचते हो, दो महीने बाद या दो साल बाद वैसे ही सोचोगे, कोई जरूरी नहीं। हर व्यवस्था स्थायी होते ही अपने भीतर से चरमराने और टूटने लगती है। हम बीवी को नहीं, व्यवस्था को निभाते हैं, और ऊबते रहते हैं। सबके अपने अपने अनुभव और नतीजे हैं। कोई क्यों दूसरे की बात माने। लेकिन शादी...! मलिक हँस देता “सुख और सुकून की तलाश में हम अपने लिए रस्सी का फन्दा बँटते हैं।” फालतू की बहस से बचते हुए वह अपनी बात बड़े ही विश्वास से कहता, “अगर तुम्हारे पास ऐसा कुछ हो, जिसकी रक्षा जरूरी हो, और रक्षा सिर्फ तुम्हारा अपना उत्तराधिकारी ही कर सकता है, तो बेशक तुम शादी करो। मेरे पास तो ऐसा कुछ भी नहीं है।” मलिक कभी किसी दूसरे की चाय नहीं पीता था। लोग अक्सर अपनी वजहों से ही उसके पास आया करते। वह कभी किसी के घर नहीं जाता था। फिर भी हर आदमी मौका पाते ही उसकी निन्दा शुरू कर देता। मलिक कहता, “लोगों को दूसरे के छेद में मुँह घुसेड़ने की आदत है, जबकि अपनी पूरी की पूरी फटी पड़ी है।”
उसकी नौकरानी बीस बाईस साल की साँवली-सलोनी लड़की थी। मलिक के पैसे से उसका रूप निखर आया था। वह उसे बहुत मानती और एक एक बात का ध्यान रखती थी। इस बात का विशेष ध्यान रखती कि कोई दूसरी लड़की तो आसपास नहीं आ रही है। इस साल उसकी शादी तय थी। अपने दहेज का एक एक सामान मलिक से खरीदवा कर जमा करती जाती। “जब रेनू की शादी हो जाएगी, मैं अपना ट्रांसफर करा लूँगा।” मलिक ने एक दिन बताया।
“मैं तो यह सोचकर ही काँप जाता हूँ कि ताउम्र मुझे इसी शहर में सड़ना होगा।” शान्तनु उन दिनों बहुत उदास रहता था। लगभग कराहने जैसी आवाज में उसने कहा, “मेरे भीतर मेरा अपना शहर मर रहा है।”
“आप हर समय इतना परेशान क्यों लगते हो?” सत्तो ने उससे दूसरी या तीसरी मुलाकात के बाद एक दिन पूछा। गर्मी की दोपहर थी। वह अपने काम से आयी थी। तेज धूप में एक किलोमीटर पैदल चलकर। आँच से उसका चेहरा लाल पड़ गया था। “मैं आपके बाथरूम में जाकर हाथ मुँह धो लूँ?”
यह लड़की कितनी बेतकल्लुफ है, शान्तनु सोच रहा था। “यहाँ कोई दूसरा नहीं रहता।” उसने बताया, “जैसे मन करे, रह लिया करो।”
किराये के उस छोटे से मकान में लगभग वे सारी चीजें करीने से मौजूद थीं, जिसमें एक भरी पूरी गृहस्थी झाँकती और झलकती रहती है। सत्तो के पंख चाहे जहाँ तक फैलते गये, वह महसूस करती कि कहीं कोई रोक टोक नहीं है। धीरे धीरे उसका अपना घर रात का बसेरा बन कर रह गया। भाभियाँ दस साल से यहाँ घर नहीं आयी हैं। सत्तो सत्ताईस साल की हो गयी है, इतना भी उन्हें पता नहीं। लेकिन सत्तो दिन भर शान्तनु के घर पड़ी रहती है, पता नहीं किस चिट्ठी से उन्हें मालूम हो चुका था। भाई जब भी आते, माँ को डाँटते- एक लड़की तुमसे नहीं सम्भलती है!
सत्तो चाहे जैसे खुश हो, माँ अक्सर सोचा करती, शान्तनु में कोई बुराई भी तो नहीं है। अच्छी खासी नौकरी है ही।
“नौकरी से क्या होता है?” भाइयों ने माँ को इतनी जोर से डाँटा कि आगे उसकी हिम्मत ही नहीं हुई। बहुओं के चोरी छिपे बेटे जो चार पैसा उसके हाथ पर रख देते, उसी पर उसकी गृहस्थी अटकी है। इतना तो वह भी जानती कि अगल बगल छप्पर डालकर रहने वाले भी आजकल टी.वी. रखते हैं। उन सबके यहाँ भी चाय पीने के लिए कप प्लेट हैं। यहाँ तो दो भले रिश्तेदार भी आ जाएँ तो कायदे की गिलास तक नहीं है। वैसे तो सत्तो कभी अपने लिए भाइयों से दबती नहीं थी। हाजिर जवाब। जवाब देने में मुँहफट। जबसे शान्तनु का चक्कर शुरू हुआ, वह भाइयों से बचने लगी है।
एक दिन उसने शान्तनु से पूछा, “अगर मेरे भाई तुमसे लड़ने आ जाएँ तो तुम मुझे अपने घर आने से मना तो नहीं कर दोगे? तुम उनसे डरना नहीं। वैसे मेरे भाई बहुत डरपोक हैं।”
शाम के समय सत्तो अपने घर चली जाया करती। घूमते फिरते शान्तनु हर समय सत्तो के बारे में सोचा करता। अपने जिस शहर के लिए वह रात दिन भागता फिरता था, छुट्टियाँ कम पड़ जाती थीं, उसे लगभग भूल गया। जिन रिश्तों के लिए गुंजाइश न रह जाए, बेहतर यही है कि उन्हें झटक कर अलग कर दो। दूसरों की शर्त पर जीने मरने का कोई तुक नहीं है। वह सोचता। अक्सर अकेले में सत्तो उसे गुदगुदा कर भाग जाती। वह सत्तो के पीछे पीछे भागता जाता। मलिक का ट्रांसफर हो चुका था। वह अकेले ही देर तक प्लेटफॉर्म पर टहलता रहता।
“मैं जब पहली बार अपने काम के लिए तुम्हारे पास आयी थी।” सत्तो कहती, “तुम रोज टालते और दौड़ाते थे। शकीला ने कहा, यह आदमी घमण्डी है, काम नहीं करेगा। मैंने कहा, दौड़ा लेने दो। बाद में तो मैं दौड़ाऊँगी। इतना दौड़ाऊँगी कि सारा शहर तमाशा देखेगा।”
सत्तो की बातें सोच सोच कर उसे अकेले में हँसी आ जाती। पता नहीं कैसे, एकदम तयशुदा की तरह, चीजें अपने आप घटित होती जा रही थीं। यह सिर्फ मलिक का असर था या कोई अदृश्य दुर्लभ संयोग? छुट्टियाँ बीत जातीं, शान्तनु यहीं बना रहता। सत्तो उसकी दिनचर्या में पूरी तरह घुलती जा रही थी।
एक दिन पड़ोस वाले तिवारी जी ने पूछा, “भाई साहब, यह लड़की कौन है?”
“मुझे बहुत नहीं मालूम।” शान्तनु ने बात को टालने की गरज से कहा।
“मेरा भतीजा बता रहा था...” तिवारी ने कहा, “शहर की बदनाम लड़की है। आपकी अच्छी भली नौकरी है। पैसा है। बदनाम परिवार है इस लड़की का।”
शान्तनु ने चाय चढ़ा दी थी। किचन में जाकर चाय का भगौना नाली में उड़ेल आया। “तिवारी जी चलिए। मुझे काम से जाना है।” उसे बाहर निकालते हुए कहा।
अँधेरा घिरने लगा था। तिवारी और वह, दोनों साथ साथ चल रहे थे। लेकिन चुप, शायद तिवारी झेंप रहा है, शान्तनु ने सोचा, लोगों को थोड़ी भी छूट दो कि दूसरों का व्याकरण बनाने लगते हैं। उसने कहा, “तिवारी जी, आप भले आदमी हैं, लेकिन अबसे आप बिना पूछे मुझे किसे के बारे में बताया न करें। सारा देश चरित्रवान लोगों से गन्धा रहा है। मुझे नेक और भले लोगों का संग्रहालय भी नहीं बनवाना है। मुझे यह लड़की अच्छी लगती है। और इतना काफी है।”
तिवारी क्षमा माँग कर दूसरी ओर चला गया। शान्तनु आज नहर के किनारे किनारे देर तक और दूर तक पैदल चलता रहा। शहर पीछे छूट गया था। चारों ओर खेत थे। हरियाली थी। दो दो, तीन तीन की संख्या में साइकिल वाले कैरियर पर किसी को बैठाए पगडण्डी से चले जा रहे थे। गाँव, खेत, साइकिल और पगडण्डी- ये सब शान्तनु के बचपन का हिस्सा रहे हैं। सत्तो ने फिल्मों में गाँव देखा है। साले तिवारी ने मूड खराब कर दिया। सत्तो बदनाम परिवार की लड़की है! वह अभी तक तिवारी से उलझा था। एक लड़की कई वजहों से बदनाम होती रहती है। उसके माँ, बाप, दादा, दादी जो लड़की के पैदा होने से बहुत पहले मर चुके होते हैं, उनकी वजहों से भी लड़की हर क्षण बदनाम होती रहती है। ऐसी ढेर सारी बातें हैं, जिनके होने, न होने में लड़की कहीं नहीं होती, लेकिन बदनाम ओर बेइज्जत लड़की होती है। आँखों की फितरत ही है कि हमेशा दूसरों को देखती हैं। खोपड़ी का आयतन आँखों में घुसा पड़ा है। यहाँ सब साले पैगम्बर हैं। सिर्फ दूसरों को सुधारने के लिए पैदा हुए हैं। बाप जहर खा ले, आफत लड़की पर। माँ किसी के साथ भाग जाए, भोगेगी लड़की। आप चाकू या तमंचे के बल पर लड़की को नोच बकोट लें, लड़की चरित्रहीन हो जाती है। शान्तनु अपने आप बुदबुदा रहा था। उसके भीतर एक घृणा फैलती जा रही थी। और साले तिवारी! दुनिया तुम्हारी तरह चरित्रवान हो जाए तो मैं प्रणाम करके चुपचाप विदा हो लूँ।
दूसरे दिन सत्तो नहीं आयी। माँ के साथ कहीं जाना था। वह पूरा दिन खाली था। शान्तनु ने महीनों पहले आए लिफाफों को खोल कर पढ़ा। पुराने मित्रों को पत्र लिखा। डाकखाने जाकर घर के लिए मनीआर्डर किया। स्थगित ढेर सारे कामों को उसने इत्मिनान से निपटाया।
शाम के समय तिवारी की पतनी केतली में चाय लेकर आयी। वह जब भी आती। घण्टों बैठी रहती। शान्तनु को उससे डर लगता और थोड़ा थोड़ा मजा भी आता था। आज उसने सत्तो के बारे में पूछना शुरू किया, “कैसे जानते हैं आप? फालतू में बदनामी हो रही है। सब लोग कहते हैं कि अच्छी लड़की नहीं है।”
शान्तनु मुस्कराया, “भाभी, मैं भी तो अच्छा आदमी नहीं हूँ।”
तिवारी जितना बकलोल और गबद्दू था, बीवी उतनी ही शोख और नटखट। वह जितनी देर बातें करती उतनी देर तक उसकी साड़ी का पल्लू सरकता रहता। सत्तो की बात करते हुए आज वह बेहद गम्भीर और गुमशुम लग रही थी।
“तिवारीजी ने कुछ कहा तो नहीं भाभी?” शान्तनु ने हँसते हुए पूछा।
“वैसे तो तुम बहुत शर्मीले बनते थे। शरीफ और सीधे।” तिवारिन चाय का खाली कप लेने के बहाने उठी और शान्तनु के करीब जाकर बिल्ली सी फुर्ती के साथ उसे पकड़ कर उसका गाल काट ली। वह अचकचा गया। तिवारिन तेजी से जीना उतरते हुए अपने घर भाग गयी।
“लोमड़ी कहीं की!” शान्तनु वॉश बेसिन पर जाकर देर तक अपना चेहरा और गाल रगड़ रगड़ कर धोता रहा, “सत्तो बदनाम लड़की है।”
शान्तनु प्लेटफॉर्म पर चहलकदमी कर रहा था। सत्तो की छत पर आज कोई पुरुष दिखायी दे रहा है। शायद यही उसका भाई है। वह आदमी गौर से उसकी ओर ही देख रहा है। शान्तनु चुपचाप आगे बढ़ गया। उस दिन उसे पता चला कि आसपास कई घरों की खिड़कियाँ भी उसे ही घूर रही हैं।
खिड़कियाँ मौसम पर मिजाज की टिप्पणी होती हैं। बाहर का मौसम इतना नम और मोहक था कि खिड़कियों के भीतर उमस भर गयी थी। खिड़कियों का मिजाज ठीक नहीं है। उनके खेत में पराया भैंसा चर रहा है। अलग अलग समय लगभग उन सारी खिड़कियों ने सत्तो को दाने डाले थे। कागज के टुकड़ों पर दिल का इजहार किया था। सत्तो को सबकी कुण्डली मालूम है। उसने भी खिड़कियों से ‘टा टा, बाय बाय’ किया था। यह सब बीते दिनों की बातें हैं। वह देखती रह गयी। जमाना बदलता चला गया। अधिकाँश खिड़कियों पर अब लेडीज गाउन, ब्रा और मैली कुचैली पैंटी टँगी रहती। नेटा पोटा में सनी बच्चों की चिल्ल पों भर गयी थी वहाँ। अपना भविष्य बर्बाद कर चुकने के बाद सब उम्रदराज और समझदार हो गये थे। देश और समाज की चिन्ता उन्हें खाये जा रही थी।
सत्तो सब समझ और देख रही थी- अतीत के योद्धा आजकल दुरभिसन्धियों, फुसफुसाहटों और षड्यन्त्रों में तल्लीन हैं।
“कल धोबिन का लड़का आया था। मम्मी से बता रहा था कि मुहल्ले के लड़के तुम्हारी पिटाई करने वाले हैं।” सत्तो ने शान्तनु से बताया, “तुम कल सुबह जरूर आना।”
सुबह हुई। खूब साफ धुली हुई और टटकी सुबह। रात के अँधेरे को बचा खुचा धुँधलका पूरी तरह छँट गया था। चीजें साफ साफ दिखने लगीं। कुछ ज्यादा ही अतिरंजित और ज्यादा ही सम्मोहक। छत की मुँडेर पर कबूतर गुटर गूँ कर रहे थे। मेहँदी की झाड़ियों पर बुलबुल के जोड़े फुदक रहे थे। पाकड़ की नरम मुलायम हरी छाया के नीचे शान्तनु पत्थर की बेंच पर बैठा था। सत्तो दीवार के किनारे छुई मुई के पौधों से खेल रही है। “मैं जहाँ भी जाऊँगी गमले में इसे लेकर जाऊँगी।” उसने शान्तनु से कहा, “जब तुम अपना घर बनवाना तो मेरे लिए एक क्यारी जरूर रखना। मैं चाहे कहीं भी रहूँ, आकर पानी डाल दिया करूँगी।”
कबूतर की गुटर गूँ, बुलबुल की फुदकन, पाकड़ की हरी छाया और पुलकित प्रफुल्लित सत्तो के चारों ओर फैले झबरीले छुई मुई के मुलायम बैंगनी फूल। उस सुबह प्रकृति के मोहक उल्लास से असंगत होते हुए मुहल्ले वालों का दम घुट रहा था। क्या ये दोनों सारी रात यहीं बैठे रहे हैं? एक ने दूसरे को, दूसरे ने तीसरे और फिर इसी तरह दर्जनों लड़के इकट्ठे हो गये। सत्तो आकर शान्तनु के बगल में बैठ गयी। लड़के उसे ही देख रहे हैं। उसने शान्तनु को पकड़ा और चूम लिया। अब क्या बचा है? लड़के वालीबॉल खेलने चले गये। शान्तनु उठकर घर के लिए चल पड़ा। सत्तो देर तक उसे जाते हुए देखती रही। एक छोटी सी जिन्दगी और न जाने कितने कितने मालिक हैं। सत्तो घृणा से ऐंठ रही थी- माँ, बाप, भाई, बहन और अब मुहल्ले वाले भी। सब अपने अपने मुताबिक हाँकना चाहते। वह दौड़ते हुए घर के भीतर चली गयी, “मम्मी, तुम सब मेरी शादी के बारे में कभी मत सोचना।”
माँ चाय बनाकर उसी का इन्तजार कर रही थी। वह सीधे बाथरूम में चली गयी। टूटे हुए आईने में देर तक अपने को निहारती और नाचती रही। काँखों के नीचे पसीना भर गया था। पसीने में शान्तनु की देहगन्ध भर गयी है। सत्तो देर तक उसे सूँघती रही।
माँ अब कुछ कुछ बदल रही है, सत्तो ने महसूस किया। पहले भाभियों और भाई की शिकायतें मुझसे बतियाती थी। अब ढेर सारी बातें, जो शायद मुझसे जुड़ी हों, छिपाने लगी है।
“आजकल माँ पूरी रात जागती रहती है।” सत्तो पहली बार शान्तनु से गम्भीर थी, “कभी मेरा मुँह छूती है, कभी आँखें। मैंने कहा, भागूँगी नहीं माँ। ...कोई बात होती तो रोने लगती है।”
कभी कभी अनायास ही मौसम उदास लगने लगता है। कई दिनों से सत्तो का मन बेहद उचाट था। एक रहस्यमयी फुसफुसाहट उसके चारों तरफ घिरती जा रही थी। गर्मी की छुट्टियाँ हो चुकी थीं। एक दिन सबेरे सबेरे उसकी दोनों बहनें बिना किसी पूर्व सूचना के आ गयीं। माँ ने कल शाम को नमकीन और बिस्कुट के पैकेट मँगाए थे। बहनें आने वाली हैं, कहीं माँ को मालूम तो नहीं था? बहन या भाई, जब भी कोई आ जाता, सत्तो को दिन भर घर में रहना पड़ता। शान्तनु से मुलाकात तो दूर, देखा देखी भी स्थगित हो जाती। घर के सामने का मैदान बहुत पुराना था। उसके घर की छत और रेलवे प्लेटफॉर्म भी पुराने थे। सत्तो की बहनें भी पहले इनका उपयोग कर चुकी थीं। सब पारंगत और परम्परागत खिलाड़ी थे। कोई किसी को चरा नहीं सकता था। अच्छा हो कि चुपचाप पालथी मारकर घर के भीतर बैठी रहो। सत्तो ने सोचा तूफान के गुजर जाने का इन्तजार ही बेहतर है।
“मुझे अच्छा नहीं लग रहा है। घर में खुसर फुसर चल रहा है। दीदी लोग पता नहीं क्यों आयी हैं। हो सके तो तुम सुबह प्लेटफॉर्म पर आना। कुछ जरूरी बातें हैं।” सत्तो ने कागज का छोटा टुकड़ा दूध वाले के हाथों भिजवाया।
बहनें या भाई, जब भी आते, शान्तनु का ‘ब्लडप्रेशर’ बढ़ जाता। तरह तरह के अनुमान और आशंकाओं के कारण पूरी रात नींद नहीं आयी। वह सबेरे से कुछ पहले ही प्लेटफॉर्म पर पहुँच गया था। लगभग दो घण्टे बाद, सब लोग उधर ही देखने लगे- एक लड़की दौड़ती भागती प्लेटफॉर्म की ओर चली आ रही है। शायद सत्तो ही है- शान्तनु दौड़कर उसके पास पहुँच गया। एक भीड़ उनके आसपास जमा हो गयी थी। क्या माजरा है? हाँफने की वजह से सत्तो बोल नहीं पा रही थी। उसके होंठ सूखे थे। शब्द अटक रहे थे, “मुझे तुमसे जरूरी बात करनी है। तुम समझ रहे हो न!” फिर वह आसपास जमा भीड़ को देखती और बार बार इतना ही कहती कि तुम समझ रहे हो न! शान्तनु अजीब असमंजस में था। लगभग सकपका सा गया। वह कुछ भी साफ साफ समझ पाता, तब तक पीछे लगभग उसी रफ्तार से दौड़ती माँ भी आ गयी। भीड़ बढ़ती जा रही थी। माँ ने सत्तो को एक चाँटा जड़ा और लगभग घसीटती हुई उसे पकड़ ले गयी। अब भीड़ रहस्यमयी नजरों से शान्तनु को घूर रही थी। वह जल्दी ही घर लौट आया।
सत्तो कई बार अपनी माँ के साथ उसके घर आ चुकी थी। लोग कहते कि शहर का बदनाम परिवार है। शान्तनु सोचा, कहीं यह बुढ़िया बेटी के साथ मिलकर उसे फँसा तो नहीं रही है। सत्तो खुद भी आसान लड़की लगती थी। क्या बताना चाहती थी सत्तो? कहीं वह ‘प्रेगनेंट’ तो नहीं है? उसके भीतर एक तूफान चल रहा था। सारा शहर सो गया था। शान्तनु रात भर उसके घर की परिक्रमा करता रहा। वह किसी तरह एक बार सत्तो से मिलना चाह रहा था। पुरानी हवेलियों के पिछवाड़े बने घुड़सालों की तरह सत्तो का घर इस समय अँधेरे में डूबा वीरान खण्डहर लग रहा था। जहाँ खड़ी होकर सत्तो उसे देखा करती थी, वह खिड़की बन्द थी। घुप्प अँधेरा। कहीं कोई रोशनी नहीं।
सत्तो पढ़ी लिखी नहीं थी। जो परीक्षाएँ उसने पास की थीं, उनका सम्बन्ध पढ़े लिखे होने से नहीं था। वह बहुत सीधे और सरल ढंग से जीवन को देखती समझती थी। खिलदंड़ी। हर समय हँसी ठिठोली उसकी आदत थी। तनाव झेलना, गम्भीर होना, यह सब उसने जीवन की पाठशाला में सीखा ही नहीं था। “यह दुनिया आपने तो बनायी नहीं है।” पहली मुलाकात, पहली मुलाकात ही कहना बेहतर होगा, जबकि वह महीनों पहले से लगभग रोज आ रही थी, उसने शान्तनु से कहा, “ईश्वर ने यह दुनिया बनाई है। दूसरे की चीज है। उसकी मर्जी चाहे जैसे बनाये। तुमको इसमें रहना है। आप अपने तरीके से इसमें रह सकते हो। किराये के घर में तोड़फोड़ की गुंजाइश नहीं होती। अगर आप एक बार यह सोच लो कि यह चीज ऐसी ही है तो उसके वैसा होने में आपको तकलीफ नहीं होगी।”
शान्तनु से अगर कोई दूसरा यही कहता तो वह घण्टों जिरह करता। वह जरूर बताता कि ऐसे सोचना कितना खतरनाक है। लेकिन लगातार सम्मोहित और सराबोर करते जा रहे सत्तो के भोले विश्वासों से छेड़छाड़ करना उसे कभी जरूरी नहीं लगा। समय का कुछ खाली हिस्सा, जो ऊब और उदासी में बीत रहा था, अचानक इस लड़की के संसर्ग में आकर प्रफुल्लित हो उठा। घर के कोने में मिट्टी से भरा एक खाली गमला था। वर्षों से उदास, मटमैला और धूसर पड़ा हुआ। सत्तो ने उसमें बेला के फूल रोप दिये थे। वह रोज आती और दो अँजुरी पानी डाल दिया करती। छोटे छोटे सफेद और मुलायम फूलों से उसका घर महक उठा। वह बेला के फूलों को तोड़ती और उससे कहती, “इन्हें मेरे बालों में गूँथ दो।”
“मैं रोज धूप में पैदल चलकर तुम्हारे घर आती हूँ। तुमने मुझे बहुत धूपाया और थकाया है। मेरी माँ मेरी एक एक बात मानती है। तुम मुझे तवज्जो नहीं देते। जब मैं दौड़ाऊँगी तो सारा हिसाब चुकता कर लूँगी।” वह जब तक रहती, किचन से बालकनी तक उछल कूद करती। चहकती रहती।
अदृश्य आशंकाओं से भरा शान्तनु एक एक बात सोच रहा था। सत्तो ने अपने घर के बारे में जितना बताया था, उससे वह किसी भी तरह यह नतीजा नहीं निकाल पाता कि इतनी जल्दी उसकी शादी हो जाएगी, “शादी हँसी खेल है क्या?” सत्तो कहती, “लड़के वाले देखने आते हैं। मैं झगड़ा कर लूँगी।”
“तुम्हें झगड़ा करना आता है?” शान्तनु पूछता।
“गालियों का कोश हूँ मैं। मेरे घर के पिछवाड़े रोज शाम को औरतें और आदमी चहचहाते हैं। मैं तो पैदा ही उसमें हुई हूँ। जब शादी कर लोगे, तब देखना। ऐसी ऐसी गालियाँ जानती हूँ कि पूरी जिन्दगी रोओगे।”
शान्तनु को हमेशा लगता कि सत्तो अपने और अपने घर के बारे में बहुत कुछ बताते बताते रह जाती है। अलग अलग अर्थ देते वाक्य। जब वह किसी वाक्य को पकड़ कर जिरह करता तो, सत्तो चतुर सुजान थी, टाल जाती, “तुम्हें मुझसे मतलब है या मेरे घर वालों से?”
बातें रह जातीं।
अँधेरे में लिपटे आज ऐसे ढेर सारे वाक्य, जुगुनुओं की तरह जल बुझ रहे थे। सब असंगत और अलग अलग।
“सत्तो के घर में ताला बन्द है। पूरा परिवार बाहर गया हुआ है। दूध वाले ने बताया, जीजा लोग आये थे। सब हरिद्वार गये हैं, टूर पर।”
चाय भर चीनी नहीं है घर में। साले टूर पर गये हैं, शान्तनु बुदबुदा रहा था। दल में कुछ काला है।
शाम को वह शकीला के घर गया। गरीब मुसलमानों की गन्दी बस्ती थी। “बार बार मेरे घर न आया करो।” दरवाजा खोलते हुए शकीला ने फुसफुसा कर कहा। आँगन की झिलँगी चारपायी पर शान्तनु बैठ गया। शकील भीतर गयी और कहीं से मैला कुचैला दस लीटर वाला गैलन खोजकर ले आयी, “तुम कहीं से मिट्टी का तेल ला दो।”
शान्तनु का चेहरा धुँआ धुँआ हो रहा था। कई दिन हो गये, दाढ़ी नहीं बनायी थी। आँखें लाल सूजी हुईं और कीचड़ से सनी। भाभी सुन न लें, गैलन थमाते हुए शकीला फुसफुसा रही थी, “सुबह उसकी माँ आयी थी। मैंने पूछा, आंटी सत्तो कहाँ है? वह रो रही थी। भैया उसे लेकर पूना गया हुआ है। उन्होंने बताया गले में गिल्टी है। ऑपरेशन होना है।”
“माँ कब आयी थी?” शान्तनु ने पूछा, घर में तो ताला बन्द है।
“पता नहीं।” शकीला ने कहा, “बता रही थीं कि दोपहर की गाड़ी से जाना है।”
कभी टूर पर हरिद्वार, कभी ऑपरेशन के लए पूना। जैसा कि लोग कहते हैं, पूरा परिवार वास्तव में जालिया है, शान्तनु सोच रहा था बुढ़िया रात की गाड़ी से आयी। सुबह सुबह शकीला के घर गयी। दोपहर की गाड़ी से उसे फिर बाहर जाना है। जरूर सत्तो ने ही माँ को शकीला के घर भेजा होगा। वह जानती है कि मैं उसे खोजते हुए शकीला के घर जाऊँगा।
अगर सत्तो को खोजना है तो पहले दस लीटर मिट्टी का तेल खोजो- शान्तनु उस समय फोटो खींचने लायक हो रहा था। शहर की अच्छी भली नौकरी। साफ सुथरी कालोनी में मकान। छोटी छोटी जरूरतों के लिए नौकर। लेकिन किस्मत का खेल, वह शहर की बदनाम और गन्दी बस्ती के एक टुटहे खपरैल से मैला कुचैला दस लीटर का गैलन लिए जा रहा है। मलिक के यहाँ सप्लाई आफिस का एक बाबू आया करता था। पता नहीं साला कहाँ रहता है- शान्तनु मिट्टी के तेल का जुगाड़ सोच रहा था। गैलन की धूल कपड़ों पर चिपक गयी है। शर्ट के बटन खुले हैं। पैंट ढीली होकर सरक रही है। साले कुत्ते! वास्तव में एक कुत्ता उसे पीछे से सूँघता और भौंकता चला आ रहा था। शायद उसी के लिए बुदबुदा रहा था शान्तनु। शायद अपने लिए। पता नहीं।
चाहे जहाँ भी हो! क्या सत्तो मेरे लिए एक फोन नहीं कर सकती? सशंकित होते ही उसका प्यार प्रतिशोध की भावना से लड़खड़ा जाता। अब तक मैं तुम्हें पुकार रहा था। अब तुम्हें खोजने जा रहा हूँ। शान्तनु ने सोचा, उसके भीतर भयानक उथल पुथल मची थी। सत्तो! इतने छल और प्रपंच के सहारे तुम जो चकमीली दुनिया बनाने और बसाने जा रही हो, जानती हो, तुम्हारी चिट्ठियाँ! तुम्हारे फोटोग्राफ्स! मेरी एक फूँक से सब तहस नहस हो जायेगा। नहीं मुझे ये सब बातें नहीं सोचनी चाहिए। पता नहीं, वह खुद कितनी मुसीबत में हो। उस दिन प्लेटफॉर्म पर सबके बीच माँ उसे घसीटते हुए ले जा रही थी।
“प्यार मैंने तुमसे किया है, अपनी पहल पर।” एक बार सत्तो ने उससे कहा था, “मेरे भाई कहते हैं कि तुम्हें मारेंगे। कालिख पोत कर तुम्हें शहर में घुमाएँगे। तुम उनसे दबना और डरना नहीं। मुझे डरपोक आदमी अच्छे नहीं लगते। तुम मेरे हीरो हो।”
दिन बीतते जा रहे थे। वह छटपटा रहा था। एक आदिम भूख से बर्बर और बेसब्र हो रहा था उसका प्यार। ढेर सारी बातें थीं, जो वह सत्तो को बताना चाहता था। ढेर सारी बातें पूछना चाहता था। उसके घर की एक एक चीजों पर सत्तो के निशान थे। महावर लगे पैरों के निशान। क्या सत्तो से कभी दुबारा मिलना नहीं हो सकेगा? कैसे होगी वह? मेरे बारे में क्या सोच रही होगी?
वह पूरे दिन घर से बाहर नहीं निकलता, क्या पता सत्तो कब आ जाए। यही उसके आने का समय होता है। अब वह शायद कभी न आए। घबराहट के मारे उसका दिल बैठने लगता। दोपहर के दो बज रहे थे। कुछ याद आया और वह तेजी से उठा। डायरी में उसकी बहनों के फोन नम्बर हैं।
उसने पहला फोन रतलाम मिलाया। घर पर कोई नौकर था उसने बताया कि सब लोग बाहर गये हैं। हफ्ते भर बाद लौटेंगे।
दूसरा फोन अलवर के लिए।
“हलो, भाई साहब, मैं बब्बू (छोटे जीजा के घर का नाम बब्बू है।) के आफिस के पास से बोल रहा हूँ। आज वह आफिस नहीं आया है क्या?”
“वह तो बाहर गया है।” शायद उसके पिताजी हैं।
“मैं जयपुर से आया हूँ शान्तनु ने कहा, “बब्बू ने किसी की शादी के लिए गिफ्ट मँगाया था। शायद साली की शादी के लिए।”
“लेकिन शादी तो परसों है।”
“ससुराल का पता हो तो बता दीजिए। पार्सल कर दूँगा।” शान्तनु पूरी तरह तीरंदाजी पर उतर आया था।
“शादी तो मसूरी से हो रही है। वहाँ का पता मुझे नहीं मालूम है।”
“कोई बात नहीं भाई साहब। बस इतना ही काम था। बता दीजिएगा कि ससुराल से शान्तनु का फोन आया था।”
“साले, तुम्हें यहाँ का नम्बर किसने दिया?”
लग रहा है सारे रिश्तेदारों को मेरे बारे में मालूम है। दर दर की ठोकरें खाते, अपमान और पराजय से चिथड़े चिथड़े हो चुके शान्तनु के चेहरे पर एक क्षण के लिए आत्मदर्प कौंध गया। थोड़े दिन पहले उसने सत्तो के साथ ‘डर’ फिल्म देखी थी।
बड़ा भाई ओ.एन.जी.सी. में नौकरी करता है। वहीं कहीं उसने शादी तय कर ली होगी। मुझे एक बार सत्तो से मिलना चाहिए। शान्तनु ने सोचा, इसलिए नहीं कि उसे अपने साथ बिताए गए कुल एक साल दस महीने की ढेर सारी बातें याद दिलाकर लौट आने के लिए प्रार्थना करूँगा। प्रार्थना की बुनियाद पर दुनिया का कोई सम्बन्ध मुझे स्वीकार नहीं। चाहे ईश्वर हो या कोई और, अनुनय विनय मेरे जीवन में असम्भव है। किसी सम्बन्ध के बनने में या टूटने में जिस हद तक मुझे शामिल किया जाएगा, उसका हिसाब तो लूँगा ही। आपने जो किया, अगर वह प्रेम नहीं था तो तय मानिए मेरे अपमान का हिसाब आपको देना पड़ेगा।
महीनों भागते भटकते और ऊपर से पूरी रात बस के सफर की थकान। बार बार झपकी आ जा रही थी। उसने देखा, शायद कोई गेस्ट हाउस है। खिड़की के भीतर सत्तो उजाले में चमक रही है। चारों तरफ कँटीली झाड़ियाँ हैं। रात का अँधेरा है। वह खिड़की के पास पहुँच जाता है। सत्तो उसे पहचान जाती है। “तुम मुझे छू नहीं पाओगे।”
“मैं एक साल दस महीने का क्या करूँ सत्तो?”
“मैं क्या जानूँ!” सत्तो हँसते हुए भाग गयी।
तेज हिचकोले से अचानक उसकी नींद टूट गयी। बस हरिद्वार से आगे बढ़ रही थी। ऊँची नीची पहाड़ियाँ और घुमावदार रास्ते। शान्तनु ने अपनी ठुड्डी बस की खिड़की पर टिका दी थी। आँखों के सामने सब कुछ बहुत तेजी से गुजरता जा रहा था।
मुट्ठी भर की दुनिया। देहरादून की उस दुकान में आखिर उसकी मुलाकात हो गयी थी। भाई थे, माँ थी, बहनें थीं। दोनों जीजा लोग भी थे। दुकान के कोने में सत्तो चुपचाप बैठी थी। उसके हावभाव में निर्लिप्तता और चेहरे पर थकान थी। थोड़े दिन पहले होली पर शान्तनु ने उसके लिए सूट खरीदा था, इस समय सत्तो वही पहने थी। शान्तनु को दुकान में घुसते देखकर सब भौचक हो गए। वह चुपचाप बैठी रही। उसने न शान्तनु को देखा, न पहचाना। वह शान्तनु नाम के किसी आदमी के बारे में कुछ नहीं जानती थी।
शान्तनु ने दुकानदार से कोई एक बेमतलब की चीज खरीदी और पैसा चुकता करके बाहर निकल आया। सामने सड़क के दूसरी ओर बाजू में चाय की दुकान थी, वह वहीं बैठ कर सिगरेट पीता रहा। बहुत देर पहले सब जा चुके थे। सड़क पर भीड़ थी। वह सन्नाटे में डूबा पड़ा रहा। किसी ने उसे जगाया और वह उठकर चल पड़ा। एकदम अकेला था वह। पूरे दिन चलता रहा। समय कुछ खास तारीखों में जगह जगह उलझा हुआ फड़फड़ा रहा था। पिछले पच्चीस छब्बीस दिन, टूटे-फूटे और छितराये हुए कँटीले दिन उसके आसपास उलझे फैले पड़े थे। उसके पैर उन्हीं में बार बार उलझ जाते। वह उनसे भागना और बचना चाहता था। सपने में हम भाग नहीं पाते। शान्तनु उन्हीं के बीच किसी तरह बचते बचाते चला जा रहा था। शायद यह एक लम्बी नींद है। यह जो साँस लेने में घुटन और घबराहट हो रही है, वह सोचता, सपने के बीतते ही खत्म हो जाएगी। साँझ हुई फिर अँधेरा और फिर रात। वह बार बार अपने को छूकर देखता और चलता चला जा रहा था। कहाँ जाना है? पता नहीं। शान्तनु कहता तो यही था कि दुनिया बहुत छोटी है, लगभग मुट्ठी में समा जाने भर। लेकिन रास्ते हैं कि खत्म होने का नाम ही नहीं लेते।