सपनों का सच / गंगा प्रसाद विमल

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सपनों का सच

बहुत-सी अटकलें, बहुत-सी गप्पें आपने सुनी होंगी, सुनाई होंगी। मैं जो सुना रहा हूं वह सचमुच गप्प नहीं है। दिक्कत यह है कि मेरे पास ऐसा प्रमाण भी नहीं है कि आपके सामने रख सकूं कि जो कुछ मैं कह रहा हूं वह एकदम सच है। मैं झूठमूठ प्रमाण जुटा भी लूं तो आप यकीन कर लेंगे, इसका कम से कम मुझे यकीन नहीं है।

लीजिए, मैं प्रमाण दे रहा हूं। मैं यानी इस गाथा का लेखक। सीधे-सीधे मैं यह कथा सुना रहा हूं इसलिए मैं अपने जीवन से ही प्रमाण दूंगा। अप्रैल 1990 में मुझे सोवियत देश की एक संस्था से बुलावा आया। अब वह केवल रूस भर रह गया है। यानी यह सच है कि 1990 में सोवियत संघ था। यह जरूर है कि जब हम लोग उस देश में पहुंचे तो हमने लोगों में नए बदलाव के लिए जबर्दस्त आकर्षण देखा। अब लोग खुल्लमखुल्ला अपने नेताओं की, व्यवस्था और कम्युनिस्टों की आलोचना करने लगे थे। यह सब बहैसियत प्रमाण आपके सामने जुटा रहा हूं। आप चाहें तो मेरी छुट्टी का रिकार्ड भी पलट सकते हैं कि मैं अपने दफ्तर से उन दिनों छुट्टी पर था।

प्रमाणों का एक प्रकरण अभी शेष है। मेरे साथ कुछ भारतीय लेखक भी गए थे। खैर, जब आप लेखक शब्द पढ़ेंगे तो आप अविश्वास से भर उठेंगे। हमारे दौर में लेखकों ने पाठकों से अपना विश्वास खोया ही है...फिर भी आप जो थोड़े बहुत पाठक बच गए हैं कभी-कभी लेखकों की बचकानी कहानियों पर हंसते होंगे। मैं एक ऐसी पाठिका से मिला था जिसने कहा था, आप सब लेखक लोग झूठे होते हैं। प्रेम ओर समर्पण की ऐसी भावुकता-भरी बातें लिखते हैं कि सही जीवन में वैसा कर पाना न केवल असंभव होता है बल्कि कभी-कभी तो बचकाना और फिजूल लगता है। तो माफ करें अब मैं लेखकों की सूची आपके सामने नहीं रखूंगा।

तो उस कान्फ्रेंस में दुनियाभर से लेखक इकट्ठा हुए थे और क्रीमिया जलडमरूमध्य के सिमफेरोपोल शहर में सम्मेलन का उद् घाटन हुआ था। वहीं मुझे एक ऐसे लेखक का परिचय मिला था जो तब के सोवियत संघ के अस्त्राखान इलाके का रहने वाला था और पेशे से वास्तुकलाकार था। वह हमेशा अपने हाथ में एक लंबी-सी फाइल रखता था और अक्सर चुप्पा-सा किसी दूसरी ही दुनिया में खोया रहता था। पहली बार उसे देखकर लगता था कि आप इस आदमी से कभी भी दुबारा नहीं मिलना चाहेंगे। उसका चेहरा डरावना नहीं था। वह अक्रामक ढंग की बातें भी नहीं करता था। बस, उसकी आँखों में एक अजीब-सी खोजीपने की प्रखरता थी। आप सीधे उससे आँखें मिलाएँ तो एक पल भी टिकाए नहीं रख सकते थे। उससे मेरा परिचय हुआ और बस मैं लेखकों की भीड़ के रेले में इधर-उधर हो गया। मैं अस्त्राखान के उस लेखक को भूल ही जाता कि दूसरे दिन सुबह वह मेरे कमरे के बाहर दस्तक देते-देते मुझे पुकार रहा था।

शिष्टाचार के नाते मैं उसे अपने कमरे में ले आया।

"माफ करना," वह बोला, "आपको तकलीफ दी। पर यह बहुत जरूरी भी था। मैं आपको कुछ रहस्यपूर्ण बातें बताना चाहता हूँ।" "अवश्य," मैं अचंभे में होते हुए भी सामान्य बनने की कोशिश में था। मैं सोच रहा था कि यह भी उन पागलों में एक होगा जो हर भारतीय को तांत्रिक और ज्योतिषी मानता है। "पर यहाँ नहीं..." वह बोला, "क्या आप कुछ देर के लिए मेरे साथ नदी तट पर घूमना पसंद करेंगे।" मैं असमंजस में था। अभी मैंने दातौन भी नहीं की थी। और कायदे से मैं तैयार भी नहीं था। "लेकिन...देखिए न..." मैं जो बोलना चाहता था जैसे वह भाँप गया। "ठीक है। आप इतनी देर में तैयार हो लें मैं नाश्ता डिब्बों में बँधवा लाता हूँ। कहीं नदी किनारे ही नाश्ता कर लेंगे।"

वह अपने प्रस्ताव पर अमल करने के लिए उठ खड़ा हुआ। केवल शिष्टाचार के नाते मैं उसे 'ना’ नहीं कर सका। अन्यथा आज यानी उस दिन, छुट्टी के दिन मेरे पास इतना अधिक लिखने-पढ़ने का काम था कि मैं सारा दिन अपने आप में ही व्यस्त रहकर बिता सकता था। अभी ये सारी बातें मैं आपको प्रमाण के तौर पर बता रहा हूँ। आप सिमफेरोपोल के उस एकमात्र बड़े होटल के अप्रैल के पहले रविवार के दिन होटल की हिसाब वाली किताब में दो नाश्तों के डिब्बे बंद होने की तसदीक कर सकते हैं। याद रहे उस किताब में हम दोनों के नाम और कमरों के नंबर भी दर्ज हैं। होटल से बाहर हल्की-सी ठंड का बड़ा जादुई असर हुआ। वह तनाव जो एक फालतू किस्म के आमंत्रण को कुछ ज्यादा ही फालतू मान लेने के अनुमान से पैदा हुआ था, एकदम काफूर हो गया था। होटल के पास ही नदी तट था। और दूर-दूर तक जहाँ तक देखा जा सकता था चैरी के फूल लदे बेहद खूबसूरत पेड़ थे। सचमुच वह एक दिव्य दृश्य था। उसे देखकर हिमालय के बर्फ लदे पहाड़ याद आने लगे थे। "बिल्कुल परियों की कहानी में पढ़े विवरणों जैसा है यह दृश्य," वह बोला। मैंने दृश्य पर मोहित होते हुए अपना सिर हिलाया। "हुआ यह कि रात में मुझे सपना-सा आया कि नदी तट के सभी पेड़ों पर फूल लद आए हैं।"

हम तट की तरफ एक दकदम नदी जल की कल-कल सुनते आगे बढ़े जा रहे थे। पानी का झाग सुबह के सूरज की रोशनी में कुछ ज्यादा ही चमक रहा था। पानी में घरों से फेंके गए कागज, खाली डिब्बे और पेड़ों से टूटी टहनियों के छोटे-छोटे गुच्छे बहे जा रहे थे। अनिर्दिष्ट-सी किसी दिशा की ओर...। "आप कल्पना भी नहीं कर सकेंगे कि मैंने आपको क्यों तकलीफ दी? मैं जो आपको बताना चाहता हूँ उस पर आप यकीन कर लेंगे-मुझे भरोसा नहीं। पर जैसे आप यह छोटी-सी बहती नदी देख रहे हैं-चैरी के ये पेड़ देख रहे हैं-ठीक वैसी ही मेरी बातें हैं। हम आपस में एक दूसरे की बातों पर यकीन तभी करते हैं न कि हमे ऐसे विश्वसनीय आदमी के जरिए मिल रही हैं जिसे हमारा विश्वास प्राप्त है।" मैं सहमति में सिर हिलाए जा रहा था। "थोड़ी देर हम कहीं बैठ न लें..." उसने कहा, सड़क के उपर चैरी के पेड़ों के नीचे चबूतरे से बने हुए थे। पर उन पर ज्यादातर जोड़ेनुमा युवक-युवतियाँ बैठे हुए थे और अपने देश में बोलने की आजादी का उपयोग वे एक दूसरे के चुंबन लेते कर रहे थे। थोड़ी ही दूर पर नदी किनारे ही चैरी पेड़ के गिर्द बड़े-बड़े पत्थरों से बना एक चबूतरा था। हम वहीं बैठ गए। उसने अपनी बड़ी फाइल खोलनी शुरू की। उसमें विचित्र से डिजाइनों वाले कागज ठुँसे थे। वह उन्हें एक-एक कर पलट रहा था।

"मैंने अपने 'ड्राइंग्स’ सब इसी में रखे हुए हैं। असल में मैं एक ऐसे घर का निर्माण करना चाहता था, जिसमें आदमी निरोग जी सके।" उसकी बात समझने के लिए मैं केवल प्रतीक्षा कर रहा था कि कोई सूत्र हाथ लगे। "असल में बहुत दिन हुए हमारे घर में मुझे और मेरे भाई को कुछ विचित्र से अनुभवों का सामना करना पड़ा। सही तथ्य यह है कि मेरे भाई के दूसरे लोको के आदमियों से संबंध स्थापित हो गए।"

"क्या कहा-दूसरे लोक...यानी कि आप भी यकीन रखते हैं कि कहीं कोई अन्य लोक है। इस तरह की, एक जैसी कथाएँ मैंनें भी अखबारों के माध्यम से पढ़ी हैं। पर वे घोर निराश करती हैं। उनमें कोरी गप्प के अलावा शायद कुछ होता ही नहीं।" "पहले मैं भी ऐसे ही सोचता था।" "मुझे लगता है साम्यवाद की पकड़ ढीली होने के बाद आपके देशवासी भी इस तरह के अंधविश्वासों के शिकार होने लगे हैं।" "आप मेरी बात तो सुनें। मेरे छोटे भाई का संपर्क उन लोगों से बीस बरस पूर्व हो गया था। तब दुनिया के अखबारों में विचित्र मानों की ही खबरें छपती थीं।" "बस," मैं कहना चाहता था कि बस कहकर मैंने उसे रोक दिया। "अगर मैं आपकी जगह होता तो मुझमें भी अविश्वास जागता। आप हैरान होंगे, शुरू-शुरू में मेरे छोटे भाई ने जब मुझसे इस तरह की बातों का जिक्र करना शुरू किया तो मुझे लगा उसका दिमाग फिर गया है...कब कैसे उसे यह अनुभव आए-यह तो पुराना किस्सा है, और लंबा भी। मैं तो एक लंबी किताब इन अनुभवों पर बनाने वाला हूँ...।" मैं चैरी के फूल देखने लगा। मुझे उकताहट ने आ घेरा था। मुझे फूलों के तथ्य अब जैसे मोहित करने में असमर्थ हो गए थे। "मैं शुरू-शुरू के अपने अनुभव सुनाऊँ।" उसने मुझे चुप देखकर कहा, "शायद इसमें आपकी दिलचस्पी न हो..." "नहीं...नहीं...क्या बात कर रहे हैं आप!" मैंने उसे दिलासा देते हुए कहा, "आप कहिए न?" "अस्त्राखान भी अजब जगह है। वहाँ ज्यादातर लोग इस्लाम को मानने वाले हैं। मेरी बहन एक बार ईश्वर की प्रार्थना कर रही थी कि उसे कुछ ऐसा अहसास हुआ जैसे कोई लंबे चोगे वाला आदमी आसपास आया हो। अब हालांकि उसकी शादी हो गई। वह मुझसे कुछ ही बड़ी थी। एक ऐसी राजदार कि मैं सोचता हूँ उसे मेरी हर बात पता है और मैं...मैं उसकी हर बात जानता हूँ।" "वह अब भी वहीं अस्त्राखान में रहती है?" "नहीं! मध्य एशिया में उसका पति कहीं काम करता है। बहुत दिनों से मुझे उसकी खबर नहीं मिली।" "लेकिन आप तो मुझे कुछ बताने वाले थे?" "हाँ...हाँ," उसने जैसे कुछ याद करते हुए कहा, "वही तो बता रहा हूँ। मेरे छोटे भाई ने सहसा एक दिन मुझे बताया कि वह पारलौकिक लोगों के सम्पर्क में है। सामान्य रूप से जैसा इस अवसर पर कहते हैं वही मैंने भी कहा कि तुम अपना इलाज करवा लो। पर वह इतना दृढ़ था कि उसने मुझे आश्वस्त किया कि एक दिन मुझे सत्य का परिचय करा कर ही रहेगा।"

"तो क्या आपको..."

"वही तो कह रहा हूँ। एक सुबह उसने मुझे उठाया और अपना हाथ मेरे मुँह पर रखकर कुछ भी कहने से वर्जित करते हुए खिड़की की ओर इशारा किया। बस वही क्षण था कि उसके हाथ की गर्मी जैसे मेरे शरीर में प्रवेश कर गई...पर यह जादू-सा भी तो हो सकता था... ।" "क्या महसूस हुआ आपको?" "मुझे लगा उसके हाथों में बहुत गर्मी है। कुछ ही पल बाद मुझे खिड़की के पर्दे पर कोई आकृति उभरती दिखाई दी... ।" "तमाम वृत्तांतों में, जो भी आपने अखबारों में पढ़े होंगे-यही कुछ कहा जाता है। इसमें कुछ नया नहीं है।" "शायद आप ठीक ही कहते हों। लेकिन मेरा अनुभव..." उसकी आँखों में विचित्र-सी चमक आ गई। "मेरा ख्याल है, जब भी हम अपनी बातों को पुष्ट करना चाहते हैं तो हम प्रमाणों का सहारा लेते हैं।" "प्रमाणों का सहारा-आपका मतलब...आखिर आप कहना क्या चाहते हैं?" "यही कि जिस बात को आप कर रहे हैं मैं उसे वैज्ञानिक गल्पों पर आधारित फिल्मों में देख चुका हूँ।"

वह हँसा। मेरी ओर उसने बेचैनी से देखा। "देखिए अब अगर मैं कहूं कि रात में ही मुझे दूसरे लोक से संकेत मिला है कि मेरे रहस्यों को जानने की यदि किसी में पात्रता है तो वह उस भारतीय में है..." और 'उस भारतीय’ कहते हुए उसने मेरा नाम जोड़ा। एक ऐसी स्थिति थी कि मैं उसमें फँस गया था। हम लोग वहाँ से उठे और नदी तट पर उसके उद्गम की ओर चलने लगे। सिमफेरोपोल एक बेहद खूबसूरत जगह है। नदी किनारे घरों की सुंदरता देखने लायक चीज थी। कहीं-कहीं छोटे-छोटे बच्चे खेल रहे थे। कहीं सुंदर महिलाएँ अपनी सखियों से बतिया रही थीं। और कहीं-कहीं श्वेत पाखियों के झुंड आसमान में-नीले, सघन नीले आसमान में घूम रहे थे...। "आपको मैं बताना चाहता हूँ कि जब मेरा संपर्क दूसरे लोक के लोगों से हो गया तो उन्होंने मुझे अपना काम करने से बरजा। उन्होंने कहा कि मुझे ऐसा घर नहीं बनाना चाहिए जिसमें निरोग जीवन हो..." "कितने लोग मिले आपको...और उनका क्या अधिकार कि वे आपको अपना काम करने से रोकें!" उसने फाइल में से एक लंबा कागज निकाला जिसमें एक विशाल भवन का नक्शा था। वहाँ अनेक गुंबदों के बीच एक बड़े गुंबद का चित्र था।

"मैंने इसे 'मॉडल’ के रूप में भी बनाया था। पर मॉडल के बीचोंबीच पिरामिडनुमा एक तिकोनाकार गुंबद उस लोक के लोग उठा ले गए। वे लोग सुदूर आकाश के शून्य में से आते हैं। उनका कहना है कि 'हाड़-मांस’ की आकृतियों में बने मनुष्यों को बहुत कष्ट सहने पड़ते हैं।" "तो क्या उनके लोक में कष्ट नहीं हैं?" "कुछ ऐसा ही समझ लीजिए। एक बार मैंने उनमें से एक आकृति से प्रार्थना की कि वह मुझे अपने लोक का दर्शन करा डाले। उसने कहा, संभव नहीं है यह। फिर भी मैं जिद करता रहा। वह समझिए एक ऐसी आकृति थी जो झिल्ली के पतले परदे से ढ़की थी। अंत में वह मेरी बात मान गया, बोला रात में सपने में तुम हमारी बस्ती देखना, उसके बाद जरूरी हुआ तो तुम्हें अपने लोक में ले जाएंगें।" "तो क्या वे ले गए?" "पहले सपने की बात तो सुनिए। उस रात मैंने सपना देखा कि एक पूरा शहर है जहाँ घर हैं पर घरों की दीवारें नहीं है, पेड़ हैं पर पेड़ों की जड़ें नहीं हैं, लोग हैं पर लोगों के चेहरों पर दुख नहीं...ऐसी अविश्वसनीय दुनिया देखकर मेरी नींद जल्दी ही उचट गई...यह सपना बराबर अनेक दिनों तक मेरा पीछा करता रहा...पर मैं उसे पूरा नहीं देख पाया...मैंने फिर उस लोक के लोगों से मिलने का प्रयत्न किया और जब मैं मिला तो व बोले कि तुम सपना पूरा देख ही नहीं रहे हो..." "उनमें से दो लोग थे जो एक नली जैसे अन्तरिक्ष यान में बैठकर आए थे और दो लोग खुद जैसे उभर आए थे..." "वाह ...अवतारी पुरुष थे वे..." उसे गुस्सा आ गया, "आप अविश्वास करिए पर तिरस्कार न करिए। मैंने जिद की तो उन्होंने वहीं बैठे-बैठे मुझे अपनी दुनिया दिखाई।" "कैसे ?" "वही तो मुझे यकीन नहीं हो रहा है। बैठे-बैठे मेरी आँखों के सामने एक हरी-भरी घाटी दिखाई दी। घाटी में वैसे ही मकान थे...वैसे ही लोग...वे लोग बहुत सुखी थे...वे एक दूसरे की सहायता कर रहे थे...एक दूसरे के प्रति आभार व्यक्त कर रहे थे...वे सुखी थे...मैंने उनसे प्रार्थना की...अनुरोध किया कि क्या वे ऐसे लोक का एक टुकड़ा, एक छोटा-सा टुकड़ा हमारी धरती को नहीं दे सकते..." मैं क्रीमिया जलडमरूमध्य के शहर सिमफेरोपोल को दुबारा देखने लगा था। "क्या इतना ही खूबसूरत इलाका आपने देखा?" "वह दृश्य दिव्य था...पर मेरे पास तो असंख्य सूचनाएँ हैं। उस लोक के आदमियों ने बताया कि बस बरस-दो बरस में और भी कहर बरसने वाला है..." अब मैं क्या कहता। मैं खुद उसके सपने में जैसे शामिल हो गया था। मैं भी देखने लगा कि उस सपनों के देश में लोग सुखी हैं...काश हम वैसा ही कुछ यहां ले आते...

प्रिय पाठक अस्त्राखान का आदमी झूठ भी बोल सकता है...हम सब सच की दुनिया से झूठ की दुनिया की तलाश में हैं। कितने बरस बीत गए हैं अस्त्राखान के आदमी को मिले हुए...तब से अब तक मैं लगातार वह सपना देख रहा हूँ...मैं सोचता हूँ, यह जीवन उलट होता। जो कुछ इस ओर दिखाई दे रहा है वह सपना होता और जो कुछ उस ओर दिखाई दे रहा है वह सच होता... मैं फिर किसी दिन बताऊँगा, सह कब होगा...और कब उस लोक के लोग अपनी धरती का एक टुकड़ा हमें देंगे... कभी-कभी मुझे ख्याल आता है, सपने में सही...सपनों में तो वह टुकड़ा हमें हासिल कराया हुआ है...बस अस्त्राखान के वास्तुकार के उस भवन का इंतजार है। सपनों में ही सही ...कुछ दिन हमारी दुनिया के लोग वहाँ रह लें...।