सपनों के झूठ / श्रीकांत दुबे

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लड़की, जो हँसती हुई सी आईने में दिख रही है, यदि अपना प्रतिबिंब देखने की कोशिश करे तो हमारी नजरें जरूर मिल जाएँगी। फिर मुझे यकीन है कि वह प्रतिबिंब को बार बार देखेगी। मेरे लिए इसका यही मतलब होगा कि वह उतनी दफा मुझे देखना चाहती है। इस तरह मुझ पर उसे 'इंप्रेस' करने की एक अतिरिक्त जिम्मेदारी आ जाएगी, जिसके तहत मैं अपने चेहरे, हाथ व आँखों की अलग अलग भंगिमाएँ बनाऊँगा। वह इससे बेखबर दिखने की कोशिश के बावजूद मुझे बार बार देखेगी। और यह सब हम दोनों में से किसी एक के बस से उतर जाने तक तो चलेगा ही।

लेकिन जो होगा, उसके हो जाने तक उसके न होने की संभावना भी बराबर बनी रहती है। मतलब जो होगा, फिलहाल वैसा कुछ भी नहीं होने की सूचना बतौर लड़की बस से उतर गई। और बाकी सफर अजय चौहान ने भरी बस में अकेले तय किया। उसने महसूस किया कि लड़की इतनी खूबसूरत तो थी ही, जिसे वह शाम या रात तक जरूर याद रखेगा। लेकिन अगले दिन फिर से उसे देखकर अजय चौहान ने सोचा कि वह उसे भूला ही कब था? वे अगली हर सुबह एक ही वक्त पर एक ही बस में मिलने लगे। और यूँ...।

यह बात उन दिनों की है जब अजय चौहान को अपनी हकीकत की जिंदगी और जिंदगी की हकीकत दोनों में प्यार की जरूरत शिद्दत से महसूस होती थी। उसने बहुत सी रूमानी फिल्में देखीं थीं। और हर बार ऐसा करते हुए अगली फिल्म के देखने तक पिछली फिल्म के बारे में खूब सोचता था। फिल्मों में प्यार के दृश्य देखते हुए अजय चौहान की आँखें फैलकर दोगुनी हो जाती थीं। लेकिन असल जिंदगी में उन्हें चाहे जितना बढ़ाकर देखो, वैसे दृश्य कहीं नहीं मिलते। यदि कभी किसी के साथ ऐसी संभावना बनती भी तो प्यार की प्रक्रिया तक पहुँचने में इतनी देर लगाते कि सारी दिलचस्पी काफूर हो जाए। यूँ फिल्मों के रूमानी दृश्य हकीकत में देखने की चाहत धरी ही रह जाती। इस चाहत की खोज में उसका सामना प्यार के कारोबार से भी हुआ। शहर के उन कुछ ख्यातिलब्ध मुहल्लों में जहाँ युवतियाँ खुलेपन की हद तक, बढ़ते अँधेरे के साथ, खुलती जाती हैं, अजय चौहान दिन में भी उन औरतों के विशेष इशारे पहचान लेता था। वह कई दफा उन मुहल्लों के चुनिंदा घरों में हो आया था। लेकिन यह सब इतनी उतावली और और कृत्रिम उन्माद के साथ खत्म हो जाता कि उसे प्यार को महसूस करने की फुरसत ही नहीं मिलती। पूरा का निष्कर्ष यह कि अनेक विपरीत लिंगियों से संपर्क के बावजूद प्यार को लेकर उसके जेहन में वैसे ही रूमानी खयाल उगते थे।

एक कवि की पंक्ति में कहें तो 'उसके भी खून में किसी लड़की का इंतजार था'। यह इंतजार हमेशा उसके साथ चलता था। आँखें खुली होने पर एक सतत तलाश के रूप में, तो बंद होने पर इंतजार के खत्म होने के हसीन सपने बनकर।

अजय चौहान को किसी देवता की स्तुति में कोई पंक्ति भी याद नहीं थी। वह कभी किसी मंदिर आदि में पूजा पाठ के उद्देश्य से गया भी नहीं था। और जीवन में जो कुछ अर्जित किया था, उसे अपनी मेहनत और लगन का नतीजा मानता था। इसीलिए वह उम्मीद से भरे हर सपने को दिलचस्पी के साथ देखता और उनके प्रत्येक एपीसोड को, जबरदस्ती ही सही, लेकिन पूरा करता था। चूँकि उसे अपनी ही काबिलियत पर भरोसा था, लिहाजा वह किसी बुरे ख्वाब को खूबसूरत सचाई में बदलने की उम्मीद भी नहीं रखता था। और नींद को दुःस्वप्नों से बचाने की भरसक कोशिश करता था। लेकिन यह सब कुछ हमेशा के लिए नहीं था। और उस इंतजार के खत्म होने तक ही था जो उसकी जिंदगी में शुचि के आने से संभव हो सका। और बस के उस सफर में भी, जिसमें वह हर रोज आनंद विहार से उत्तम नगर तक की दूरी तय किया करता था।

दरअसल, उस दिन के बस के सफर में अजय चौहान ने शुचि के लिए जो महसूस किया, वह कहीं से भी नया नहीं था और वैसे अनुभवों की लंबी फेहरिश्त थी उसके पास। लेकिन उसके बाद जो कुछ भी हुआ, वह प्यार के संदर्भ में अपनी तमाम नाकामियों के कारण अजय चौहान के लिए बिलकुल ही नया था। मतलब शुचि के द्वारा उसे आसानी से अपना फोन नंबर दे देना। और फिर बातों और मुलाकातों का अबाध सिलसिला। वह इस महत्वपूर्ण सफलता को अपने भरोसे पा लेने पर विश्वास नहीं कर सका। उसे यह सब किसी पराभौतिक शक्ति का करिश्मा लगा, जिसे कि शुचि की ईश्वर भक्ति से खुराक भी मिलने लगी। और अजय चौहान को जीवन में पहली बार हे भगवान कहने की आदत पड़ गई।

अजय चौहान स्टॉक मार्केट से जुड़ी कंपनी में एक दलाल का सहयोगी था। वह दलाल से मिलने वाले निर्धारित वेतन के लिए अपने कोटे के शेअर धारकों की समस्याएँ सुलझाता था। उसे यह नौकरी खुद उसी के शब्दों में कहें तो बहुत ठोकरें खाने के बाद मिली थी। जिसके पहले उसे खुद को एकदम से बदल देना पड़ा, और अपनी घनी मूँछों की बलि तक चढ़ानी पड़ी। और तो और, दलाल को उसके बोलने में अकसर किसी 'अर्र कर्र आवाज' से आपत्ति होती थी, जिसके लिए अजय चौहान अपनी मूल भाषा को भी लगभग भूल जाना चाहता था। एक अदद रोजगार के लिए अनिवार्य इन परिवर्तनों के दौरान उसे बार बार ऐसा लगता कि सफल होने के लिए हर उस चीज को छोड़ देना होगा जिससे कि हम गहरे जुड़े हों। इस क्रम में वह खैनी और गुटखे की जगह सिगरेटों के कश भी खींचने लगा। यूँ नौकरी पाने के लिए संघर्ष के वर्षों में वह इतना बदल गया था कि वर्षों पुरानी तस्वीरों में अपना ही चेहरा देखकर उसे भीतर ही भीतर शर्म आती और उन्हें एलबम की दूसरी तस्वीरों के नीचे छुपा देता था। पुरानी तस्वीरों को यूँ छुपा देने की एक दूसरी वजह भी थी। असल में ये तस्वीरें कड़ियाँ जोड़ने पर झट से उसे उसके दुःस्वप्न में ले जातीं, जिससे वह हमेशा ही बचना चाहता था।

एलबम में लगी तस्वीरें आँखों के सामने आते ही जीवंत दृश्यों में बदल जातीं। अतीत की घटनाएँ मानो फिर से क्रमवार घटने लगतीं। उन घटनाओं में एक माँ थी। और पिता और एक बड़ा भाई भी। पिता ने पुरखों की जमा पूँजी अधिकतम हिस्सा वर्षों के दौरान धीरे धीरे शराब के रूप में पी लिया था। और भाई को कभी इसका एहसास ही नहीं हुआ था कि अपने पैरों पर खड़ा होने की भी कोई रस्म होती है। भाई ने भी धीरे धीरे शराब में छुपी उस खूबसूरती को पहचान लिया जिसकी वजह से पिता इसे खूब पीते और फिर हर पीने वाले को गालियाँ देते थे। अजय चौहान की कोई बहन नहीं थी। उसकी माँ इसे अपना सौभाग्य तथा आस पड़ोस की माँएँ अपना दुर्भाग्य कहती थीं। उनका मानना था कि अपनी बहन न होने के कारण ही अजय चौहान का भाई हर किसी की बहन को अपने लिए समान रूप से कुछ और ही समझता है। इसकी पुष्टि भी इस बात से हो जाती कि माँओं में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं थी।

बड़ा भाई पुलिया के नीचे सुट्टा खींचने से बढ़कर जवार भर के शोहदों के साथ सरेआम दारू पीने की स्थिति तक कब आ गया, किसी को पता नहीं चला। लेकिन इस बीच उसने चोरी, छिनैती, हत्या और बलात्कार के कृत्यों में जमकर हिस्सेदारी की। इस तरह से पड़ोसी के घर से लेकर इलाके के कई गाँवों में उसकी बदनामी सरनाम हो गई। बात बात में झड़प से कत्ल बलबे तक चले जाना और सहमी, राह चलती लड़कियों पर अपनी मर्दानगी के झंडे गाड़ना उसे शोहरत की ऊँचाइयाँ देने लगे। टूटते घर के ओसारे में ताश के पत्ते सदा जीवंत रहते और वहाँ अजय चाहौन के भाई को आदर्श मानने वाली एक पीढ़ी हुक्मसाजी भी करने लगी थी। आँगन से ओसारे में खुलने वाले दरवाजे से जब अजय चौहान निकलता, तो उसकी आँखें झुकी होतीं। और अगर गलती से उठ भी जातीं तो भाई की सुर्ख, एकटक नजरें महसूस करके वह चुपचाप कालेज या खेतों की ओर बढ़ जाता।

अजय चौहान की दिनचर्या में उसके पिता या भाई का कोई प्रभाव नहीं था लेकिन उसमें माँ की जैसी सक्रियता स्पष्ट दिखती थी। इस तरह की बातें होने पर लोग यह जरूर कहते कि वह बचपन से ही 'सोचने विचारने' वाला था। ठीक उसी तरह जैसे पिता 'पीने वाला' और भाई 'कुछ नहीं करने वाला'। और करने के नाम पर माँ ही 'सब कुछ' करने वाली। यूँ, सोचने विचारने वाला होने के कारण उसे पिता या भाई जैसा सोचने की भी स्वतंत्रता थी। लेकिन उसका मष्तिष्क अकसर माँ की गतिविधियों के इर्द गिर्द ही घूमता रहता था। मतलब सब कुछ कर डालने के उद्देश्य से कुछ न कुछ करते रहने में। पढ़ने लिखने की कोई परंपरा घर के इतिहास में नहीं थी। फिर इसे लेकर आस पास के लोगों की जागरुकता ने माँ पर असर डाला। जिसकी बदौलत अजय चाहौन ने पढ़ाई का उपक्रम एक सिलसिले में 10वीं तक, फिर दो वर्षों तक फेल होने के उपरांत 12वीं तक पूरी कर ली थी।

पिता सात कट्ठे में फैली जमीन, जो उनके जर्जर से मकान के अतिरिक्त परिवार की अंतिम संपत्ति थी, के भी दो एक कट्टे बेच देने की कोशिश निरंतर करते रहते थे। लेकिन पहले भी जितनी दफा पिता ने ऐसा किया, माँ के पुरजोर विरोध का दमन करके ही हो सका था। और दोनों बेटे हर बार ही खामोश से खड़े रहे थे। अजय चौहान गला फाड़ती माँ के पास, तो भाई चिंघ्घाड़ते पिता की बगल में। वहीं से दोनों भाइयों के बीच एक दूजे को अजीब नजरों से देखने का सिलसिला भी शुरू हुआ था। जो उम्र के ढलने के साथ खामोशी के साथ वर्षों तक जारी भी रहा।

  लेकिन आखिर में समय आया उस सिलसिले के अंत का, जो एक संघर्ष के रूप में था। चार सदस्यों का परिवार दो हिस्सों में बॅंट गया। एक में माँ और अजय चौहान। दूसरे में पिता और बड़ा भाई। पहले पक्ष ने कहा कि अब सुई की नोक बराबर जमीन भी नहीं बिकेगी। दूसरे ने कहा कि बिकी जमीन से हिस्से की कौड़ी भी नहीं दी जाएगी। हफ्तों की अहिंसक कशमकश के दौरान स्थितियाँ बदलाव के लिए बेहद उतावली हो रही थीं। सो वक्त आ गया भाई और पिता के द्वारा पूरी जमीन को बेच देने का। अजय चौहान ओर माँ के द्वारा किसी भी कीमत पर ऐसा नहीं होने देने के फैसले का। और अपने अपने पक्ष की कानफाड़ू घोषणाओ के बीच भाई और अजय चौहान हाथोंहाथ उलझ गए। थप्पड़ों के बाद दोनों एक दूसरे पर घूँसे बरसाने लगे। पिता और माँ के द्वारा अपने अपने पक्ष को गुत्थमगुत्थी से अलग करने पर संघर्ष कुछ ढीला पड़ा। अजय चौहान ने पिता की ओर हिकारत से देखा। जवाब के रूप में भाई ने एक जोरदार लात माँ की ओर उछाल दिया। माँ एक खाली चीख के साथ पीछे की दिशा में गिर पड़ी। उसके माथे के नीचे कटे पेड़ का ठूँठ आ गया, जिसकी चोट के बाद वह संघर्ष से और थोड़ी ही देर में दुनिया से भी अनुपस्थित हो गई। लेकिन उसके बाद जो भी हुआ, उसके परिणामस्वरूप कुछ भी पहले की तरह नहीं रहा। अजय चौहान पिता की लाठी छीनकर अपनी पूरी ताकत से भाई पर बरसाने लगा। भाई के बाएँ पैर और दोनों हाथों की हड्डियाँ क्रमशः कड़क आवाजों के साथ टूटती रहीं। और अजय चौहान की रगों में खून के संयत होने तक भाई के जिस्म में हिलने तक की ताकत नहीं बची।

वह परिवार के एक साथ होने का अंतिम दृश्य था।

अजय चौहान के पास उस दृश्य को खुद में कैद रखने वाली कोई तस्वीर नहीं थी। लेकिन एलबम की किसी भी पुरानी तस्वी को देखते ही उसके सामने वह दृश्य आ जाता था। उस अंतिम पारिवारिक सम्मिलन के बाद भाई के मुरीदों से बचता हुआ अजय चौहान रेलवे स्टेशन की ओर भागा। और फिर भविष्य में अपने गाँव घर से जुड़ी किसी चीज को जानने की कोई कोशिश भी नहीं की। वह पूरब दिशा से आई रेलगाड़ी में बैठकर पश्चिम की ओर जाने लगा।

रात भर के सफर के बाद लंबी भौगोलिक दूरी तय करके रेलगाड़ी ने, उसे एक उद्घोष के साथ जिस शहर में दाखिल किया, उसका नाम दिल्ली था। रेलगाड़ी का सफर और दिल्ली का दीदार उसने पहली बार किया था। उसे सुबह, दिशाएँ, सूरज और आसमान तक में पहली बार जैसी अजनबियत दिखी। उस दुनिया से बिलकुल अलग, जिससे पैदाइश से लेकर रेलगाड़ी के सफर तक उसकी बावस्तगी थी।

वह किसी लावारिस नवजात की तरह वर्षों तक दिल्ली में लड़खड़ाता और उठने की कोशिशें करता रहा। उसे सबसे पहले भूख और मौसम के खिलाफ धैर्य के साथ लड़ना पड़ा। पहली नजर में वह हर किसी के लिए अविश्वास का पात्र बन जाता। लेकिन इस हालात से भी लड़कर उसने एक महाजन का थोड़ा सा भरोसा जीत लिया और तीन सालों की खानाबदोश जिंदगी के अंत के रूप में एक दुकान में नौकर बन सका। फिर दूसरे लोगों, और प्रायः दुकान के ग्राहकों का विश्वासपात्र बनकर उसने कई नौकरियाँ कीं, बदलीं, जिनमें तनख्वाह के नाम पर लगभग एक ही जैसी राशियाँ मिलती रहीं। इस संदर्भ में उसे सबसे बड़ी सफलता तब मिली, जब एक दोस्त की सिफारिश पर वह उस शेअर मार्केट के दलाल के सहयोगी के रूप में नियुक्त हो गया। उसने बेहतर भविष्य की उम्मीद में वहाँ लगन से काम शुरू कर दिया। ऐसा करते उसे चार महीने बीत चुके थे। नियुक्ति के समय तय शर्तों के अनुसार छह महीने तक काम कर लेने पर दलाल उसके वेतन में पंद्रह प्रतिशत की वृद्धि के साथ अगले तीन वर्षों के लिए उसे स्थायी कर्मचारी के तौर रख लेने वाला था। अजय चौहान उस खुशी के अवसर से दो ही माह पीछे था। लेकिन तब भी उसने अपनी तनख्वाह के भरोसे किराए का एक छोटा खूबसूरत कमरा ले रखा था और खाने पहनने में भी काफी शौकीन हो चुका था। उसके पास एक फोन भी था, जिसे उसने 'सेकेंड हैंड सेट' के नाम पर सस्ते में हथिया लिया था। और उसी के सहारे देर रात तक शुचि से बात भी करता था।

अजय चौहान ने अपनी आप बीती, जिसे वह बीते वक्त के किसी दुःस्वप्न की तरह याद करता था, किसी से नहीं बताई थी। लेकिन वह इसे शुचि को बता देना चाहता था। उसने कई बार ऐसी कोशिशें भी कीं, लेकिन शुचि कहती कि मुझे तुम्हारे बीते हुए से कोई मतलब नहीं। प्रेजेंट को एंजॉय करो और फ्यूचर की सोचो। अजय चौहान को उसकी यह अदा भी बहुत अच्छी लग जाती। वह उसकी हर ख्वाहिश को खयाल रखता और इसके लिए अपनी थोड़ी बहुत जमा पूँजी को भी दिल खोल कर खर्च कर देता था। बीते दो महीनों में स्टाक मार्केट ने बहुत सारे उतार चढ़ाव दिखाए थे, जिसके कारण अपने कोटे से बाहर के बहुत ग्राहकों को अटेंड करना पड़ा था। इसके लिए उसके वेतन में कुछ अतिरिक्त राशि भी मिल गई थी। ऐसे अतिरिक्त पैसों से वह हमेशा अपनी कोई दबी ख्वाहिश पूरी कर लेता था। जैसे कपड़े, जूते, या वाकमैन... वगैरह।

शुचि से उसकी पिछली मुलाकात लोदी गार्डन में हुई थी। वहाँ उसने अपनी दो महीनों की बचत का उपयोग शुचि को सरप्राइज देने में किया। सरप्राइज था कैमरे वाला एक रंगीन मोबाइल फोन। उसे पाकर शुचि खुशी से झूम उठी और अजय चौहान पर चुंबनों की झड़ी लगा दी। फिर दोनों ने एक झाड़ी की आड़ में देर तक प्यार का इजहार किया।

बीती रात दोनों ने खूब सारी बातें की थीं। एक ही जैसी बातों के दुहराव के कारण अजय चौहान को सब कुछ याद था। सुबह उठने के साथ वे आवाजें कानों में गूँजने लगीं। खासकर वे अंतिम शब्द जिसके बाद वह गुडनाइट महसूस करने लगा था।

'कितनी क्यूट हो तुम!'

'सच्ची!'

'सुच्ची!'

'हट!'

'बच्ची!'

'चुप रहो।'

'बोलूँगा!'

'बोलो!'

'नहीं बोलूँगा!'

'गुड नाइट!'

'स्वीट ड्रीम!'

'..........'

काल एंडेड।

सुबह की हवा में बातों की खुशबू घुली हुई थी। वह ताजगी से भरा, चुस्त कदमों के साथ दफ्तर में हाजिर हुआ। लेकिन पहुँचते ही उसे कुछ इस तरह के दो फरमान सुना दिए गए जिनके लिए वह कतई तैयार नहीं था। अजय चौहान के मालिक, यानि कि उस शेअर दलाल ने बताया कि तुम्हारी सर्विस के बारे में हमारे पास लगातार कंप्लेन्स आ रहे थे और फोन पर तुम्हारी आवाज भी ग्राहकों को अच्छी नहीं लगती, इसकी भी बहुत शिकायतें थीं। इसलिए हमें तुमको टर्मिनेट करना पड़ रहा है। यह रहे तुम्हारे अब तक के हिसाब के पैसे और इन कागजों पर दस्तखत कर दो।

अजय चौहान जिस दरवाजे से ताजगी भरे कदमों के साथ दाखिल हुआ था, उसी से बोझिल चाल में वापस हो गया। दरवाजे से निकलते हुए उसे एक नया चेहरा दिखा, जो निश्चित रूप से उसकी जगह लेने जा रहा था। उसे चार महीने पहले का अपनी नियुक्ति का दिन याद आया जब उसी की जैसी बोझिल चाल में कोई दूसरा युवक निकला था और उसके बाद इतने बड़े शहर में कहीं खो गया था। अजय चौहान के मस्तिष्क ने कुछ भी सोचना छोड़ दिया और उसके पैर ही किसी आखिरी उम्मीद की ओर चहलकदमी करने लगे। उसके पैर मेट्रो स्टेशन तक पहुँचे और ट्रेन के साथ तिलक ब्रिज की ओर बढ़ने लगे। बैठे हुए और ट्रेन के साथ चलते हुए हाथ की उँगलियों ने भी हरकत शुरू कर दी। उसने शुचि का नंबर डायल कर दिया था। उसका फोन एक बार... दो बार... फिर कई बार व्यस्त मिला। उसके कुछ न सूझने की स्थिति और भी गंभीर हो गई और पैर तिलक ब्रिज पर उतरकर एचडीएफसी बैंक खोजने लगे।

शुचि ने बताया था कि वह वहाँ कस्टमर सपोर्ट एक्जीक्यूटिव का काम करती थी। देर तक घूम भटककर अजय चौहान अपने जाने पहचाने रेस्तराँ में घुसा और दूर सामने किसी को देखकर कोने वाली सीट पर बैठ गया। थोड़ी ही देर में फोन पर 'ना जाने कोई कैसी है जिंदगानी...' की जगह बेतुका सा 'तू ही मेरी सब है, सुबह है...' धीमी आवाज पर बज उठा। भावनाओं की ही तर्ज पर मोबाइल के रिंग टोन भी खुद ही बदल जाते, काश! फोन शुचि का था। रिसीव करते ही बाँध टूटे गुस्से की आवाज, क्या घट गया था, लगातार फोन पर फोन...? कितनी बार कहा है कि आफिस टाइम में फोन मत किया करो।

'किससे बात कर रही थी इतनी देर तक?'

'कस्टमर्स से। उन्हें अब हमारे पर्सनल नंबर भी दे दिए गए हैं'

'कितने कस्टमर हैं तुम्हारे पास?'

क्या मतलब है तुम्हारा? जितने बैंक के पास हैं, बस उतने कस्टमर्स।'

'ओह हाँ, मुझे तो पता ही है यह सब। देन ओ.के. एंड कीप योर सेल्फ बिजी। मैं आज तुम्हारे आफिस ही आ रहा हूँ। सी यू ऐट ट्वेल्व थर्टी।'

'नहीं, नहीं... वो मेरा लंच टाइम है, इसलिए आफिस मत आना। वहीं मिलते हैं, उदुपी रेस्तराँ में। पिछली ही बार की तरह बैठेंगे, देर तक। बाइ द वे, क्या कर रहे हो अभी?'

'बाथरूम में हूँ।'

'हट बेशरम!! सी यू!'

'.........'

'काल एंडेड'

फोन काटते हुए शुचि चौंकी थी, लेकिन इसे एक 'कोइंसिडेंस' मानकर बाथरूम से निकल आई थी। वह अपनी कुर्सी पर बैठी सिगरेट के आखिरी कश का धुआँ उड़ा रही थी, धीरे धीरे। मोबाइल ने दो बार बीप की आवाज की। उसने स्क्रीन पर एक लिफाफा बना देखा। फिर बटन दबाते ही वहाँ लिख गया :

Smoking is injurious to health.

शुचि का दिमाग एक क्षण में कई चक्कर घूम गया। 'नाउ इट्स नाट अ कोइंसिडेंस।' वह चौंककर खड़ी हुई और थोड़ी कोशिश के बाद मेजों की कतार में एक कोने में बैठे अजय चौहान को पहचान लिया। फिर शांति से झुककर उसने पास बैठे लड़के से कुछ कहा और उसकी गलबाँहों में ही टहलते हुए बाहर निकल गई।

अजय चौहान की इच्छा पहली बार हकीकत से बचने की हुई। उसे तुरंत कोई सपना देखने की चाहत हुई। लेकिन उम्मीद से भरे किसी खूबसूरत सपने की जगह उसकी आँखों में दुःस्वप्न के दृश्य तैरने लगे। उसने हमेशा की तरह अपने अतीत से बचने को कोशिश शुरू कर दी। लेकिन लगातार असफल रहा। उसे लापरवाह पिता, निश्चिंत भाई और शराब की खूबसूरती याद आई।

अजय चौहान लड़खड़ाते हाथों से उठाकर पैग दर पैग खाली कर रहा था।