सपनों में पिता / रूपसिंह चंदेल
पिछले दिनों पिता एक बार आए. इस बार वह वर्षों बाद....शायद छः-सात वर्ष बाद. हर बार की भांति वह मेरे साथ बैठे, बातें की, कुछ समझाया, साथ लेकर कहीं गए....एक अपरिचित स्थान, जिसे मैंने पहले कभी नहीं देखा था. एक समय था जब वह महीना-दो महीना में आते, कुछ देर ही ठहरते, कुछ कहते...जो मुझे कभी याद नहीं रहता था. वह जब भी आते उनकी वेश-भूषा निपट गंवई होती....अर्थात् मोटे सूत की कानपुर के किसी मिल की बनी लुंगी और बण्डी. कलकत्ता से रेलवे की नौकरी से सेवानिवृत्त होने के पश्चात् उन्होंने बेहद साधारण कपड़े अपना लिए थे....किसानों वाले. लुंगी, पुरुषों की धोती का आधा, सफेद-बदरंग होती. लेकिन इस बार वह गांव की अपनी प्रिय वेशभूषा में नहीं, कलकत्ता की प्रिय वेशभूषा....मंहगी सफेद बुर्राक धोती और सफेद लक-दक कुर्ता में थे. हाथ में भद्र बंगालियों की पहचान वाला छाता, पैरों में अच्छी चप्पलें और चेहरे पर खिली मुस्कान.
पहले वह जब आते जाने से पहले भोजन की मांग करते ...अपनी पसंद लौकी या तोराई की सब्जी और चपाती. मैं जब भोजन की व्यवस्था में व्यस्त होता, वह कब खिसक जाते पता नहीं चलता. उनकी यही बात मुझे बाद में याद रहती....शेष सब भूल जाता. घर वाले दुखी होते कि पिता उनके सपनों में क्यों नहीं आते!
पिता जी की मृत्यु (20 सितम्बर,1970) के इक्कीस वर्ष पांच दिन बाद (25 सितम्बर,1991) मां की मृत्यु हुई और उन्हें अफसोस था कि उस पूरी अवधि में वह दो बार ही उनके सपनों में आए थे. और किसी के सपने में वह शायद ही कभी आए. मेरे सपनों में आने के लिए सभी के पास अपने तर्क थे. कुछ के अनुसार उनकी बीमारी में सबसे अधिक सेवा मैंने की थी, और उनकी मृत्यु के समय मैं उनके निकट नहीं था. शायद अंतिम क्षण उनकी आंखें मुझे खोजती रही होगीं....इसलिए और भोजन मांगने के लिए उन लोगों के तर्क रहे कि जब मैं उनकी मृत्यु से एक दिन पहले इण्टरमीडिएट का प्राइवेट फार्म भरने कानपुर जा रहा था तब उन्होंने अपने लिए लौकी मंगा देने की मांग की थी, जिसे अनुसुना कर मैं चला गया था....
पिता जी के उन स्वप्नों से मुक्ति के लिए लोग सुझाव देते कि मैं सुबह किसी भिखारी को भोजन करवाऊं या किसी ब्राम्हण को अन्न दान दूं या मंदिर में कुछ दे आऊं. भिखारी को कुछ देना समझ आता, लेकिन मुझ जैसा नास्तिक शेष सलाहों पर मुस्करा देता. अपने हितैषियों के विश्लेषण से अलग मेरा विश्लेषण था और वह चार-छः बार के अनुभव के बाद तय हुआ था.
पिता जी जब भी सपने में आते....कुछ दिनों के अंदर मैं किसी न किसी परेशानी का सामना कर रहा होता. वह परेशानी शारीरिक होती, आर्थिक या किसी भी प्रकार की.....और कुछ अवसरों के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहले ही पहुंच लेता कि जिस किसी महत्वपूर्ण कार्य के लिए मैं प्रयत्नशील था उसमें असफलता मिलने वाली थी या स्वयं अथवा परिवार का कोई व्यक्ति बीमार होने वाला था. अंततः होता भी यही. मेरा निष्कर्ष था कि सपने में पिता का आना इस बात का पूर्वाभास देना था कि कोई न कोई संकट आसन्न है.
जिन्दगीभर संघर्षरत रहने वाले पिता शायद मृत्योपरांत भी संघर्षों में मेरे साथ थे. सपनों में आकर शायद वह मुझे आगाह करते थे. लेकिन यह भी सही है कि समस्या या संकट कितना ही गहन क्यों न रहा हो मैं हर बार उससे उबरता रहा हूं. तो क्या वह आगाह कर मेरी रक्षा करते रहे. स्वप्न विश्लेषक होता तो यह जानने का प्रयत्न करता. एक समय आया कि उनके स्वप्न में आने के बाद सुबह ही मैं यह घोषणा कर देता कि कोई संकट संभावित है.
लेकिन इस बार...इतने वर्षों बाद, बिल्कुल अलग वेश-भूषा...लकदक कपड़ों में पिता का आना मुझे अच्छा लगा. सपना मैं भूल गया...याद रहा केवल उनका वह परिधान जिसमें कलकत्ता में या छुट्टियों में गांव आने में उन्हें देखता था. सुबह मन आशंकित हुआ कि क्या घटित होने वाला है....उनका आना किस बात की ओर संकेत है! सोचता रहा और सोचता रहा पिता के बीहड़ जीवन के बारे में जो उनसे, चाचा (काका) और मां से जाना था.
पिता का प्रारंभिक और अंतिम जीवन अत्यंत संघर्षमय रहा था.
मेरे पितामह कानपुर के रावतपुर (मसवानपुर) के रहनेवाले थे, जो जी0टी0 रोड पर अवस्थित है और अब शहर के मध्य में है. पितामह नवाबगंज थाने में सिपाही थे. वे लंबे और हृष्ट-पुष्ट शरीर के धनी..... शायद छः फुट से अधिक लंबे और उनके पैर इतने बड़े कि मोची विशेष आदेश पर उनके लिए जूते तैयार करता था. इतने लंबे डील-डौल वाले पिता की संतान मेरे पिता कुल पांच फुट तीन इंच लंबे थे, लेकिन बलिष्ठ थे. शायद मेरी दादी छोटे कद की थीं. दादी की मृत्यु पिता जी के जन्म के ढाई वर्ष बाद हो गयी थी. दादा जी ने दूसरी शादी की. सौतेली दादी कद-काठी में ठीक-ठाक थीं. उनसे जन्में मेरे चाचा की लंबाई भी दादा जैसी थी.
दादा ने नवाबगंज थाने के पास अपना बड़ा-सा मकान बनवा लिया था. यह उन दिनों की बात रही होगी जब कानपुर का विस्तार हो रहा था. एक समय कानपुर की बसावट नवाबगंज के आस-पास थी, जिसे आज भी पुराना कानपुर कहा जाता है. 1857 की क्रांति के बाद जो नया कानपुर बसा वह परेड के इर्द-गिर्द था. आज जहां आर्डनैंस इक्विपमेण्ट फैक्ट्री है , वहां 1857 में अंग्रेजों का किला था....कच्ची-पक्की ईटों से निर्मित. इससे कुछ दूर ही है परेड.....जो उन दिनों सैनिकों का परेड ग्राउण्ड हुआ करता था. 1857 का कानपुर का निर्णायक युद्ध इसी परेड ग्राउण्ड और किले के मध्य हुआ था.
नवाबगंज कब बसा ज्ञात नहीं, लेकिन कानपुर का इतिहास 1338 के आसपास से मिलता है. इसे इलाहाबाद के तत्कालीन चन्देल वंशीय राजा कान्हदेव ने बसवाया था. अपने लाव-लश्कर के साथ कन्नौज जाते हुए वह गंगा के किनारे जिस स्थान पर ठहरे थे वह आज का नवाबगंज ही था. तब वहां निपट जंगल था, लेकिन कान्हदेव को वहां की रमणीकता भा गयी थी. उन्होंने संचेडी (कानपुर के पास एक कस्बा) के तत्कालीन राजा को उस स्थान पर एक गांव बसाने के लिए कहा था. जो गांव बसा वह कान्हदेव के नाम पर कान्हपुर कहलाया, जिसका स्वामित्व एक ब्राम्हण को प्राप्त था. उस गांव के स्वामित्व के लिए उसी ब्राम्हण परिवार का मुकदमा मोतीलाल नेहरू और कैलाशनाथ काटजू द्वारा इलाहाबाद हाईकोर्ट में लड़ा गया था (‘कानपुर का इतिहास’- लेखक- नारायण प्रसाद अरोड़ा). कालान्तर में वही कान्हपुर आज का कानपुर बना.
नवाबगंज में मकान बनाने के बाद दादा का कितना रिश्ता अपने गांव रावतपुर से रहा था यह जानकारी नहीं. नवाबगंज से रावतपुर की दूरी कुछ ही किलोमीटर है.
पिता जब तेरह वर्ष के थे दादा की मृत्यु हो गयी थी. सौतेली दादी मेरे चाचा को लेकर अपने मायके चली गयीं और पिता अपनी एक मात्र बहन के यहां चले गये, जो उनसे कई वर्ष बड़ी और पनकी के पास एक छोटे-से गांव देसामऊ में ब्याही थीं. पिता पढ़-लिख नहीं पाए लेकिन उनकी अपनी स्वतंत्र सोच थी. कुछ दिन बहनोई के साथ उनके खेतों में काम कया, लेकिन बात नहीं बनी. उन दिनों इंच-इंच जमीन की मारा-मारी नहीं थी. गांव के इर्द-गिर्द जंगल फैला हुआ था. बहन से पैसे लेकर पिता जी ने एक जोड़ी भैसे खरीदे और लगभग दस बीघा जमीन खेती योग्य तैयार की. दो वर्ष खेती की, लेकिन काम-काज में बहनोई का दखल बर्दाश्त नहीं हुआ. हल, भैसे बहन के दरवाजे छोड़ आगरा भाग गए. उन दिनों प्रथम विश्वयुद्ध चल रहा था. सेना में भर्ती हो रही थी. तब पिता जी की आयु मात्र सोलह वर्ष थी.
पिता सेना में भर्ती के लिए गए,लेकिन उनका चयन नहीं हुआ. कारण थी उनकी आयु. अठारह वर्ष से कम के युवक को भर्ती नहीं किया जा रहा था. चयन बोर्ड में अंग्रेज अफसरों के अलावा एक कुशवाहा साहब भी थे. पिता जी निराश भर्ती कार्यालय के बाहर घूम रहे थे. बाहर निकलने पर कुशवाहा जी ने उन्हें देखा और पास बुलाया. पूरी जानकारी के बाद बोले, ‘‘मेरे साथ आओ.’’
पिता जी उनके पीछे हो लिए. कुछ देर चलने के बाद वह एक लंबे-चैड़े मकान में पहुंचे. वह कुशवाहा साहब का अपना घर था. पिता जी को भोजन करवाने के बाद कुशवाहा साहब बोले, ‘‘घर के पड़ोस में मेरा एक हाता है. अभी दिखा दूंगा. छः भैंसे हैं. छः महीने तक तुम उस हाते में रहोगे.....केवल दिसा -मैदान के लिए बाहर जाओगे. एक भैंस तुम्हारे नाम.....उसका दूध केवल तुम इस्तेमाल करोगे....दण्ड-बैठक....व्यायाम...कुश्ती.....केवल अपने शरीर पर ध्यान दोगे....दूसरा कोई काम नहीं. भैंसों की देखभाल के लिए आदमी है. तुम्हारे खान-पान की चिन्ता मेरी. छः महीने बाद फिर भर्ती का प्रयास करना.....तब तुम्हें निराश नहीं होना पड़ेगा.’’
कुशवाहा साहब ने घी, काजू, पिश्ता, बादाम....अर्थात् सभी प्रकार की पौष्टिक चीजें पिता जी के लिए उपलब्ध करवाई थीं.
मुझे सुनकर आश्चर्य हुआ था कि क्या ऐसे लोग भी थे जो एक अपरिचित युवक के लिए इतना करते थे. सौ वर्षों में हम कहां से कहां पहुंच गए!
पिता जी ने कुशवाहा साहब की आज्ञा का पालन किया. छः महीने में ही उनका शरीर खिल उठा था. दूसरी बार भी चयन बोर्ड में कुशवाहा साहब थे. उन्होंने पहले ही बता दिया था कि पिता जी अपनी उम्र उन्नीस वर्ष बताएगें. कुछ अन्य बातें भी उन्होंने बतायी थीं. इस बार पिता जी सेलेक्ट हुए और कुछ दिनों के प्रशिक्षण के बाद इटली भेज दिए गए.
वहां से विश्वयुद्ध समाप्ति के बाद वह लौटे थे.
भारत लौटते ही सेना की नौकरी छोड़ पुनः खेती की ओर रुख किया था. फिर भैसे खरीदे और (उन्हें इस बात की आशंका थी कि बैलों की खेती उनके लिए फलीभूत नहीं होगी) खेती में लग गए. लेकिन कुछ दिनों बाद ही बहनोई की दखलंदाजी से परेशान होकर मुम्बई भाग गए. वहां किसी मारवाड़ी के यहां काम किया. स्पष्ट है कि कोई छोटा काम ही रहा होगा.....घरेलू नौकर जैसा. एक दिन उस मारवाड़ी के घर के आंगन में नाली के पास उन्होंने लगभग एक सेर सोना पड़ा देखा. उन्होंने उसे उठाकर मारवाड़ी को दे दिया. उनकी ईमानदारी से मारवाड़ी ने उन्हें बख्शीश देना चाहा, लेकिन उन्होंने उसे लेने से इंकार कर दिया और नौकरी छोड़ दी. उन्हें मारवाड़ी के पेशे पर संदेह हो गया था.
पुनः एक बार कानपुर वापसी. फिर गांव.....फिर चख-चख और पुनः प्रस्थान.
इस बार पिता जी जा पहुंचे थे कलकत्ता. आज जिस प्रकार बिहार-उत्तर प्रदेश के लोग दिल्ली दौड़ रहे हैं...उन दिनों कलकत्ता उनका शरणस्थल था. कई दिनों तक इधर-उधर भटकने के बाद जीने का जुगाड़ सोचा. भद्र बंगाली समाज सुबह नीम की दातून आज भी पसंद करता है ....उन दिनों पसंद करने वालों की संख्या बहुत अधिक थी. उन दिनों जीविका का यह एक अच्छा साधन था और आज की भांति नीम के पेड़ों का संरक्षण भी न था. पिता जी ने लंबे समय तक सड़क किनारे सुबह-सुबह दातून बेचकर जीविका चलायी. कुछ समय बाद किसी परिचित के माध्यम से पश्चिम बंगाल पुलिस में भर्ती हो गए. दो वर्ष नौकरी की. एक बार वह और उनका साथी सिपाही एक चोर को ट्रेन से आसनसोल ले जा रहे थे . चोर को हथकड़ी लगी हुई थी और एक ने उसकी जंजीर पकड़ रखी थी. रात गहराई तो दोनों साथी खिड़की के रास्ते आ रही शीतल बयार में झपकी लेने लगे. एक जगह ट्रेन धीमी हुई और चोर ने आहिस्ते से जंजीर छुड़ाई और अंधेरे में कूद गया. साथ के यात्री ने इन्हें जगाया. जंजीर खींचकर ट्रेन रोकी. दोनों टार्च की रोशनी में जंगल छानते रहे, अपनी झपकी को कोसते रहे और स्वयं जेल के सीखचों के पीछे जाने की कल्पना करते रहे.
सुबह दोनों एक गांव के बीच से होकर गुजर रहे थे. भाग्य ने साथ दिया. एक लोहार की दुकान पर नजर पड़ी और दोनों चैंके. चोर लोहार से अपनी हथकड़ी कटवा रहा था. बाज की तेजी से झपठकर दोनों ने चोर को धर दबोचा था.
आसनसोल से कलकत्ता लौट पिता जी ने पुलिस की नौकरी भी छोड़ दी थी.
एक बार फिर गांव. फिर वही स्थितियां और पुनः कलकत्ता वापसी. पुराने साथियों के सहयोग से वह रेलवे में खलासी नियुक्त हो गए. इस बार मन जमाने का प्रयत्न किया और वर्षों तक देसामऊ नहीं गए. बहनोई की मृत्यु का समाचार मिलने पर कुछ दिनों के लिए गए और अपने खेत जवान भांजे को सौंप वापस लौट गए.
पिता जी अथक परिश्रमी, बेहद सीधे, सरल, कोमल हृदय और ईमानदार व्यक्ति थे. सुबह चार बजे उठ जाते. कई मील चलकर कालीबाड़ी जाते....काली दर्शन के लिए, लौटते, चाय पीते और साढ़े छः बजे लोको वर्कशॉप (हावड़ा) के लिए निकल जाते. शाम छः बजे के लगभग लौटते. मेरे बचपन के कितने दिन हावड़ा में बीते, यह याद नहीं लेकिन बावनगाछी की याद है मुझे. बहुत खूबसूरत फ्लैट्स थे वे ....तीन मंजिला । मेरा परिवार पहली मंजिल में रहता था. आमने -सामने फ्लैट्स के बीच लगभग सौ फुट चैड़ी जगह थी. रेलवे के वे फ्लैट्स चारदीवारी से घिरे हुए थे. केवल एक ओर... पूर्व का रास्ता खुला हुआ था, जिधर सड़क गुजरती थी और जिसे पारकर मैं पिता जी को प्रतिदिन शाम वर्कशॉप से लौटते देखता था. दक्षिण दिशा की दीवार का कुछ भाग तोड़कर लोगों ने रास्ता बना लिया था जो एक मैदान में निकलता था, जहां से होकर लोग सीधे बाजार जाते थे. कभी -कभी हम बच्चे उस मैदान में खेलने निकल जाया करते थे.
अपने श्रम और लगन के बल पर पिता जी खलासी से सीढ़ियां चढ़ते हुए फिटर तक पहुंच चुके थे. मेरे जन्म से पहले ही वह फिटर बन चुके थे. कॉलोनी में उनका अच्छा रुतबा और सम्मान था उस कालोनी के कुछ फ्लैट्स अफसरों को अलॉट थे और मैं देखता कि सहयोगियों के बीच ही नहीं बंगाली अफसरों के बीच भी पिता जी ‘बाबू जी’ के रूप में जाने जाते थे. मां-पिता दोनों ही निरक्षर थे लेकिन वे अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा देखना चाहते थे. उनकी इस लालसा का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब भाई साहब पाचवीं में थे पिता जी ने उन्हें नेहरू जी की जीवनी खरीदकर भेंट की थी.
बड़े भाई ने जैसे ही गांव से पाचवीं उत्तीर्ण किया पिता जी उन्हें कलकत्ता ले गए और अंग्रेजी ज्ञान न होने के कारण बड़े भाई को पांचवीं में ही प्रवेश दिलाया. पिता जी ने जब 1959 में अवकाश ग्रहण किया, तब भाई साहब ने हाई स्कूल किया था. वह उन्हें रेलवे में बाबू बनवाना चाहते थे. भाई साहब को नियुक्ति मिल रही थी, लेकिन बंगाली चयन अधिकारी ने पिता जी से चार सौ रुपए रिश्वत मांगी, जिसे देने से उन्होंने इंकार कर दिया और बड़े भाई को पिता जी के साथ ही कलकत्ता से प्रस्थान करना पड़ा था.
पिता जी ने मुझे दो बार पढ़ने के लिए स्कूल भेजा. उन दिनों मैं पांच वर्ष के लगभग था. पहला स्कूल घर से बहुत दूर नहीं था. सामान्य-सा विद्यालय था वह. आया मुझे और मेरे पड़ोसी मनभरन, जिन्हें हम काका कहते थे, के छोटे बेटे प्रेमचन्द को लेने आती. मां सजा-धजाकर बड़े चाव से मुझे स्कूल भेजतीं . लेकिन मुझे वहां घबड़ाहट होती. मैंने न पढ़ने का मन बना लिया. लेकिन मन बना लेने से बात बनने वाली नहीं थी. कुछ बहाना चाहिए था और मेरे बाल मन ने बहाना खोज लिया था. मैंने जिद पकड़ ली कि स्कूल नहीं जाऊंगा.
‘‘क्यों ?’’ पिता जी और बड़े भाई ने पूछा. भाई साहब ने धमकाया भी, लेकिन पिता जी ने प्यार से समझाया था.
‘‘क्योंकि वहां जमीन पर बैठाते हैं ......फट्टे पर.’’
‘‘सभी बच्चे बैठते हैं ....तुम्हारे लिए कुर्सी मेज थोड़े ही लगाई जाएगी .....कोई अनोखे हो!’’
बड़े भाई की इस बात पर मैं रोने लगा था. मुझे यह सब आज भी ज्यों का त्यों याद है. पिता जी ने भाई को डांटा, मुझे पुचकारा, मां ने सहलाया और समझाया, लेकिन बाल जिद....नहीं का मतलब था नहीं.
स्कूल का प्रिन्सिपल, जो एक बिहारी बाबू थे, मिस्टर सिन्हा, आया से मेरे स्कूल न आने का कारण जान समझाने-मनाने घर दौड़े आए. तरह-तरह के लालच दिए, पर मैं जिद पर अटल रहा. लेकिन बड़े भाई छोड़ने वाले नहीं थे. वह जिस हायर सेकेण्डरी स्कूल से हाई स्कूल कर रहे थे, उसके पास एक अच्छा-सा स्कूल था...मेज कुर्सी....अच्छे स्मार्ट अध्यापकों और अच्छी ड्रेस वाला. बड़े भाई ने कैसे जुगाड़ बनाया, पता नहीं, लेकिन उन्होंने मुझे वहां प्रवेश दिला दिया. अब बचने का कोई रास्ता नहीं था. बड़े भाई के साथ बस से जाने-आने लगा. वहां मेरा मन भी लगने लगा. इसका एक कारण और था. बड़े भाई हर दिन लंच में मेरे पास आते और कभी लड्डू तो कभी कोई अन्य मिठाई मुझे दे जाते. घर में वह मुझे अंग्रेजी पढ़ाते और पढ़ाई से बिदकने वाला मैं पढ़ने लगा था. लेकिन सत्र समाप्ति से पूर्व ही अकस्मात मां को गांव लौटना पड़ा. उसके बाद की मेरी पढ़ाई गांव में ही हुई.
लेकिन दो बातों के उल्लेख के बिना बात अधूरी ही रहेगी. यद्यपि पिता जी का सम्पूर्ण जीवन ही किसी उपन्यास की मांग करता है, लेकिन संक्षेप में दो घटनाओं का उल्लेख करना चाहता हूं.।
पहली घटना मां ने बतायी थी. उन दिनों बड़े भाई छोटे थे और पिता जी के पास रेलवे का छोटा मकान था. उन दिनों उनकी ड्यूटी शिफ्ट में रहती थी. वह रात शिफ्ट में थे और वेतन का दिन था वह. उस दिन वह रेलवे लाईन के साथ शाम वर्कशॉप जा रहे थे. रास्ते में उन्हें उनका एक सहयोगी मिला, जो दिन की शिफ्ट करके लौट रहा था. दोनों ने पांच मिनट बातचीत की. सहयोगी घर और पिता जी वर्कशॉप की ओर बढ़ गए. कुछ दूर जाने पर पिता जी को नोटों भरा पर्स मिला. खोलकर देखा....सोचा और अनुमान लगाया कि वह पर्स कुछ देर पहले मिले सहयोगी का था जिसमें उसका वेतन था. उन्होंने पर्स आफिस में जमा कर दिया था.
पर्स उसी सहयोगी का था.
दूसरी घटना आंखों देखी है. जाड़े के दिन थे. प्रेमचंद के अतिरिक्त कालोनी में मेरा कोई साथी नहीं था. बड़े भाई के साथियों की संख्या पर्याप्त थी. शाम बीच के मैदान में वह अपने मित्रों के साथ वॉलीबाल खेलते...नियमतः. मैं सजधज कर-- कोट-पैण्ट पहन फ्लैट के नीचे सीढ़ियों के साथ बने छोटे चबूतरे पर बैठ उन्हें खेलता देखता. उस दिन मेरी दृष्टि सड़क की ओर से आ रहे काफ़िले पर जा टिकी. चार लोगों ने चारपाई थाम रखी थी और साथ कम से कम दस-पन्द्रह लोग थे. काफ़िला निकट आया. भाई और उनके साथियों का खेल थम गया. पता चला चारपाई पर घायल पिता जी थे. क्रेन से वह किसी डिब्बे को उठा रहे थे कि क्रेन का पहिया टूटकर उनकी छाती पर आ गिरा था. खून से लथपथ पिता सामने ....भाई किंकर्तव्यविमूढ़. पूरी कॉलोनी इकट्ठा थी....सिर ही सिर...शोर और चीत्कार करती मां उसके बाद क्या हुआ मैं जान नहीं पाया. बाद में कितने ही दिन मैं भाई के साथ रात रेलवे अस्पताल जाता रहा था. पिता जी स्वस्थ हो गये थे, लेकिन भारी-भरकम पहिए ने उन्हें जो आंतरिक चोट पहुंचाई थी, कालांतर में वही उनकी मृत्यु का कारण बनी थी. उस घटना के कुछ दिनों बाद उनका प्रमोशन हुआ .....ड्राइवर के रूप में. वह मालगाड़ी चलाने लगे और उसी पद से उन्होंने अवकाश ग्रहण किया था.
अवकाश ग्रहण के बाद पिता जी ने गांव में बसने का निर्णय किया, जबकि उनके साथियों ने उन्हें कलकत्ता में रुकने का आग्रह किया था. तीन हजार का एक अच्छा-सा मकान भी उन्हें मिल रहा था. पैसा भी था, लेकिन मां गांव रहना चाहती थीं. मां को उनके चाचा (कंचन सिंह गौतम) ने तेरह बीघे खेत दे दिए थे और मकान बनाने की जगह. नाना के पास यह जमीन अतिरिक्त थी. गांव में सर्वाधिक उपजाऊ खेत उन्हीं के पास थे, लेकिन जो जमीन उन्होंने मां को दी थी वह ऊंची-नीची और चरीदा थी, जिसे कभी उपजाऊ नहीं बनाया जा सका. पिता जी ने अपने गांव देसामऊ में जो खेत भांजे को जोतने-बोने और उनके लौटने पर उन्हें लौटा देने के लिए दिए थे उस भांजे ने कोर्ट में उन्हें मृत घोषित कर (शपथ पत्र देकर) वे खेत अपने नाम लिखा लिए थे. लोगों ने पिता जी को जब भांजे पर मुकदमा करने की सलाह दी तब उन्होंने उत्तर दिया, ‘‘ भांजा बेटा समान होता है ....उससे कैसा मुकदमा !’’
कानपुर शहर से सटे उन दस बीघे खेतों की कीमत आज लगभग ढाई-तीन करोड़ रुपए है. उसी प्रकार मेरे पितामह का जो मकान नवाबगंज में था पिताजी की उदासीनता के कारण नगर महापालिका ने उसे अपने अधिकार में ले लिया था.
गांव आकर कलकत्ता के बाबू जी पूरे किसान हो गए थे और गांव में ‘चंद्याल’ (चन्देल का बिगड़ा रूप) के नाम से जाने जाने लगे थे. नौकरी करने के दौरान जब भी वह गांव आते (मेरा ननिहाल ही मेरा गांव है ) हर दिन किसी न किसी के घर आमंत्रित रहते. एक युवा नाई, जिसका नाम मैं भूल गया हूं , सप्ताह में दो बार उनकी तेल-मालिश करने आता और बाबू जी मुक्त हस्त पैसे खर्च करते. मां के ठाठ सदैव शाही रहे. बनारसी साड़ी से नीचे कुछ नहीं पहना और यह सब 1962 तक चला. पिता जी ने भले ही खेती में झोंक अपने को माटी कर लिया था, लेकिन मां और हम सब तब तक अच्छा जीवन जीते रहे जब तक अवकाश प्राप्त होने के समय एक मुश्त मिला पैसा समाप्ति की कगार पर नहीं पहुंचा. लेकिन पिता जी ने शायद पहले ही यह स्थिति भांप ली थी. उन्होंने दुधारू गाएं, भैसें पाल ली थीं....खेती करने के भैसों के साथ. उन दिनों तेरह जानवर थे मेरे घर. कुछ खेत तिहाई में दिए जाते और कुछ वह स्वयं करते. लेकिन नाले के किनारे होने के कारण भयानक जाड़े में खेतों को पाला मार जाता और फसल के नाम पर जो मिलता उससे लागत बमुश्किल निकल पाती.
कलकत्ता की अपनी आदत के अनुसार पिता सुबह चार बजे जागते. अब गाय-भैसों की सेवा उनके लिए काली दर्शन था. कुट्टी काटते, सानी तैयार करते और साढ़े पांच बजे तक हसिया फावड़ा ले खेतों की ओर निकल जाते. जानवर घर से कुछ दूर पसियाने के बीच बने बड़े से घेर में रहते थे और पिता भी वहीं सोते थे. उनके खेतों की ओर जाने से पहले ही गाय-भैंसों का दूध निकालने या दूधिया से निकलवाने के लिए मां बालटी लटका घेर पहुंच जाती थीं.
पिता जी के रिटायरमेण्ट की राशि खत्म होने के बाद और बड़े भाई की नौकरी लगने तक घर का खर्च गाय-भैंसों के कटता दूध से ही चला था. मुक्त भाव से लोगों को चीजें देने वाले....ठाठ-बाट से रहने वाले पिता जवान बेटे की उतारन पहनने के लिए विवश थे, लेकिन उन्हें कभी खीझते-झींकते...दुखी होते या शिकायत करते नहीं देखा. ‘दुखे-सुखे समेकृत्वा’ वाला भाव रहता उनके चेहरे पर. जानवरों के लिए सानी आदि तैयार करते हुए ऊंची आवाज में भजन गाते रहते तरन्नुम में.
1967 में पहली बार उनके फेफड़ों में फोड़ा हुए. खांसी के साथ बलगम नहीं मवाद निकलता. शहर में दिखाया गया. इंजेक्शन ....लगभग एक सौ इंजेक्शन लगे. चार महीने लगे ठीक होने में. ठीक होते ही पुनः काम. डाक्टरों ने शायद उनके मर्ज को टी.बी. समझा था. जबकि छाती पर वर्षों पहले गिरे क्रेन के पहिए के जख्म से उन्हें फेफड़ों का कैंसर हो गया था. इंजेक्शन ने कुछ समय के लिए कष्ट मुक्त कर दिया था. लेकिन तीन वर्ष बाद पुनः वह उभरा और इस बार जानलेवा साबित हुआ. बलगम के स्थान पर जो पस वह उगलते उसमें इतनी बदबू होती कि घर का कोई भी व्यक्ति उनके निकट ठहरने से कतराता. मां भी घबड़ाती, लेकिन मैं रात-दिन उनकी सेवा में रहा. मिट्टी के बड़े बर्तन में राख डाल दी गई थी. जब भी उन्हें खांसी आती मैं उनके सिर के नीचे हाथ लगा उन्हें आधा उठाता और राख भरा मिट्टी का बर्तन उनके मुंह के पास कर देता. उनके थूकने के बाद साफ कपड़े से उनका मुंह साफ करता. लगभग डेढ़ महीना यह सिलसिला चला था.
19 सितम्बर, 1970 को सुबह इंटरमीडिएट का फार्म भरकर (20 सितम्बर अंतिम तिथि थी) 21 को वापस लौट आने की बात उनसे कहकर मैं कानपुर गया. लेकिन बीस सितम्बर की रात मेरे छोटे बहनोई ने कानपुर पहुंचकर मुझे उनके दिवगंत होने की सूचना दी थी.
मृत्यु के समय मैं उनके अंतिम दर्शन से वंचित रहा था. क्या इसीलिए वे मेरे सपनों आते रहे. लेकिन उनके आने का जो विश्लेषण मैंने किया था इस बार भी वह सही सिद्ध हुआ. मध्य मई में मेरा एक अत्यावश्यक कार्य सम्पन्न होना था, जो नहीं हुआ. पिता जी शायद उसका पूर्वाभास देने आए थे.