सपनों में बनता देश और स्वप्न भंग / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 09 अप्रैल 2019
आज पत्रकार व चिंतक राजेंद्र माथुर का निर्वाण दिवस है। इंदौर में एक जगह उनकी मूर्ति लगी है। जहां पत्रकारों द्वारा फूल या पत्थर लेकर जाने से बेहतर होगा कि वे आत्म परीक्षण करें कि क्या वे अपना काम निष्ठा से कर रहे हैं? राजेंद्र माथुर ने पाठक के पत्रों को पढ़ना और उन्हें सुधारकर प्रकाशित करने का दायित्व लिया था। इसी काम के तहत उन्होंने शाहिद मिर्जा के लगातार आते पत्र पढ़े तथा उन्हें बुलाकर पत्र लिखने का प्रशिक्षण भी दिया। कालांतर में शाहिद मिर्जा काबिल संपादक बने। राजेंद्र माथुर ने कई एकलव्य भी दिए हैं परंतु किसी भी एकलव्य को उनकी मूर्ति बनाने की आज्ञा नहीं दी, क्योंकि गणतंत्र के सफल संचालन के लिए व्यक्ति पूजा नहीं की जानी चाहिए।
एक बार राशन की दुकान के सामने लगी लंबी कतार में वे खड़े थे और दुकानदार ने उन्हें कतार तोड़कर आने को कहा, क्योंकि वह उनका सजग पाठक था परंतु राजेंद्र माथुर ने बड़ी विनम्रता से उसका आग्रह ठुकरा दिया। गणतंत्र व्यवस्था में विश्वास करना और यथार्थ जीवन में उसका पालन आज एक लुभावने स्वप्न या कहें परीकथा की तरह लगता है। पूरा समाज ही वीआईपी अप संस्कृति के अष्टपद में फंसा हुआ है। राजेंद्र माथुर का कॉलम 'पिछला सप्ताह' के नाम से प्रकाशित होता था और वह कमोबेश अगला सप्ताह ही नहीं वरन् समय की नदी के दूसरे किनारे पर आज भी लाइट हाउस की तरह भूले-भटके को राह दिखाता है परंतु आज का समाज राह खोजना ही नहीं चाहता। वह मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता। इस जड़ता को बहुत मजबूती से रचा गया है, क्योंकि सत्ता में बने रहने के लिए यह जरूरी है। राजेंद्र माथुर कुमार गंधर्व को सुनने देवास जाते थे। राहुल बारपुते की संगत में ही राजेंद्र माथुर की रुचि शास्त्रीय संगीत में जागी परंतु इसके साथ ही यह भी सच है कि खाकसार से 'मेरा नाम जोकरalt39 के पार्श्व संगीत को उन्होंने ग्रुंडिग टेप रिकॉर्डर पर ट्रांसफर किया था। उन्हें भारतीय माधुर्य के साथ पश्चिम की सिम्फनी की भी समझ थी। सच तो यह है कि उनके व्यक्तित्व में पूर्व और पश्चिम का मिलन हुआ था। लेबल उन्हें भरमाते नहीं थे। उन्हें कंटेन्ट की शुद्धता भाती थी। उनका मानवता प्रेम देश प्रेम की सीमा में सिमटता नहीं था परंतु आज अगर वे होते तो देश द्रोही कहे जाने का भय तो होता परंतु आपातकाल के दरमियान यह राजेंद्र माथुर ही कर सकते थे कि उन्होंने अखबार का पहला एक पृष्ठ खाली छोड़ा और उसके चारों और मोटा ब्लैक बॉर्डर दी। यह मृत्यु सूचना का प्रतीक था।
राजेन्द्र माथुर की गतिविधियों पर नज़र रखने के लिए सरकार ने एक गुप्तचर नियुक्त किया था। गुप्तचर की दुविधा यह भी थी कि उसे माथुर साहब की लेखनी में उनके हिंदू होने के साथ समाजवादी होना भी नजर आता था। कांग्रेस की हिमायत करते हुए वे मुखालफत भी करते हैं। दरअसल राजेंद्र माथुर सभी विचारधाराओं में डुबकी लगाकर भी स्वयं को सूखा बनाए रखने की कला जानते थे। आज तो सूखा व्यक्ति डुबकी लगाने के भ्रम को पाले हुए बैठा है। एक लेख में राजेंद्र माथुर लिखते हैं- 'नेहरू के बिना क्या भारत वैसा लोकतांत्रिक देश बन पाता जैसा कि आज है। 1947 के किस नेता में लोकतंत्र की बुनियादी आज़ादियों के प्रति वह सम्मान नज़र आता है जो नेहरू में था। हरिजन से रक्त में एकता महसूस करने वाले कितने नेता थे? धर्म के ढकोसलों से चिढ़ना और सच्ची आध्यात्मिकता के प्रति लगाव कितने नेताओं में था? विज्ञान के प्रति इतना भोला उत्साह और उस जमाने में और कहां पाते? भारत के आर्थिक विकास के बारे में क्या और किसी नेता के पास दृष्टि थी? भारत की सांस्कृतिक विविधता के प्रति क्या किसी और नेता ने ध्यान दिया? विभाजन के बाद नेहरू नहीं होते तो देश खंड-खंड बंट जाता। गांधी के सामने नेहरू ने अहम विहीन आत्मसमर्पण कर दिया था।'
एक जगह राजेंद्र माथुर लिखते हैं- 'जैसे मकड़ी को नहीं पता होता की गगनचुंबी इमारतें कैसे बनती हैं उसी तरह धार्मिकता का उन्माद जगाने वालों को नहीं पता कि भारत की जमीन पर कैसे तिलस्मी इमारत इन वर्षों में ऊपर उठ रही है और कितने खतरों में उसका अधबना अस्तित्व हमेशा रहा है। इमारत तिलिस्मी इसलिए है कि भारत के ईंट-गारे से भारत के लोगों ने ऐसी इमारत पहले नहीं बनाई। अपनी सभ्यता एवं संस्कृति को साम्राज्य व राज्य में बदलने की कला चीन या रोम को आसानी से सध जाती थी। वह हमें भारत वर्ष में कभी लंबे समय तक नहीं सधी। हमारा तिलिस्म खड़े रहने वाला नहीं वरन् बिछे रहने वाला था। इस हिंदुस्तान को न तो कोई चक्रवर्ती राजा ज्यादा एकताबद्ध कर सकता था और न ही राजाओं की आपसी फूट इसे बिखेर सकती थी। इस अविभाजित भारत का हर गांव कस्बा विभाजित था। हर 20 मील पर हवा का चरित्र बदल जाता है। इस भारत को कोई हमलावर विजित नहीं कर सकता परंतु अगर वह स्वयं खुद बिछ जाने का फैसला करे तो वह हमारे अविभाजित विभाजनों का अंग बन जाता था।'
आज बांटकर राज किया जा रहा है परंतु इन लोगों के पास भारत के इतिहास का बोध नहीं है। आज पत्रकारिता के अनेक संस्थान है परंतु क्या उनके पास राजेंद्र माथुर के लेखों के संकलन हैं। गोयाकि पाठ्यक्रम ही नहीं है परंतु तमाशा जारी है।