सफलता की कुंजी (लेख) / यशपाल जैन
हमारे धर्म-ग्रन्थ मे एक बड़ा सुन्दर मंत्र इन शब्दों मे मिलता है-"उठो, जागों और जब तक ध्येय की प्राप्ति न हो, प्रयत्न करते रहों।" जीवन मे सफलता की यही कुंजी है। बिना सक्रियता के कुछ नही हो सकता। हाथ पर हाथ रखे बैठे रहे तो क्या मिलेगा? दुनिया उसी को प्यार करती है, उसी को मान देती है, जो मेहनत करता है ओर खरी कमाई करके खाता है। आदमी का काम प्यारा होता है चाम नही।
कुछ लोग बड़ी-बड़ी चीजों के चक्कर मे छोटी-छोटी चीजों की ओर ध्यान नही देते। वे भूल जाते है कि जो छोटी चीजों को नही सॅभाल सकता, वह बड़ी चीजों के योग्य नही बन सकता।
एक बार गांधीजी की एक छोटी-सी पैसिल इधर-उधर हो गयी। उसकी तलाश मे उन्होने दो घटें खर्च किये और जब वह मिल गयी, तब उन्हे चैन पड़ा। वह जानते थे कि छोटी चीजों के प्रति लापरवाही हुई कि फिर बड़ी चीजों के लिए भी आदमी मे वह दुर्गुण आ जाता है।
हमारी सफलता इस बात मे है कि हम सावधान रहकर, जो भी काम हमारे हाथ मे हो, उसे अच्छी तरह पूरा करें। हिमालय की चोटी पर च़ढ़ने के अवसर कम ही आते है, लेकिन हाथ के काम को कुशलता से करने का मौका तो हर घड़ी सामने रहता है।
रूसों संसार का एक महापुरूष हो गया है।उसने लिखा, "जो मनुष्य अपने कर्त्तव्य को अच्छी तरह से करने की शिक्षा पा चुका है, वह मनुष्य से सम्बन्ध रखने वाले सभी कामों को भली-भॉती करेगा। मुझे इसकी चिन्ता नही कि मेरे शिष्य सेवा, धर्म या न्यायलय के लिए बनाए गए है। समाज से सम्बन्ध रखने वाले किसी काम के पहले प्रकृति ने हमें मानव-जीवन से सम्बन्ध रखने वाले काम करने के लिए बनाया है। यही मै अपने शिष्य को सिखाऊँगा। जब उसे यह शिक्षा मिल चुकेगी, तब वह न सिपाही होगा, न पादरी होगा और न वकील ही। वह पहले मनुष्य होगा, फिर और कुछ।"
कुछ लोग जीवन की सफलता पैसे ऑंकते है। जिसने अधिक कमाई कर ली, उसके लिए माना जाता है कि वह जिन्दगी मे सफल रहा। पर धन सफलता की असली कसौटी नही है। धन साधन है, जीवन का साध्य नही हो सकता। यदि पैसा ही सबकुछ होता तो बुद्ध, महावीर, गांधीजी आदि महापुरूष क्यों गरीबी का जीवन अपनातें? बुद्ध और महावीर तो राजा के बेटे थे, राज्य के अधिकारी थे, लेकिन उन्होने राज-पाट के वैभव से मुँह मोड़कर उस रास्ते को अपनाया, जिससे ढाई हज़ार वर्ष बाद आज भी वे जीवित है और जब तक मानव-जाति है, आगे भी जीवित रहेगें। गांधीजी को कौन-सी कमी थी? लेकिन उन्होने सादगी का जीवन अपनाया। आज सारी दुनिया उन्हे प्यार करती है। उनका मान करती है।
आदमी को निराशा तभी होती है, जब वह आशा रखता है। जो काम वह करता है, उसके फल मे उसकी आसक्ति रहती है। गीता बताती है-"काम करों, पर फल की इच्छा मत रक्खों।" मेहनत कभी अकारथ नही जाती। फलों के पेड़ों पर फल आते ही है। लेकिन फलों पर हमारी इतनी निगाह रहती है कि पेड लगाने के आनन्द को हम अनुभव नही करते। अच्छी तरह से काम करने का अपना निराला ही उल्लास होता है।
कुछ लोग कहते है, यह भी कोई जिन्दगी है कि हर घड़ी काम करते रहों। बहुत दिन जीने के लिए आराम बड़ा जरूरी है। ऐसा कहने मे एक बुनियादी दोष है। हर घड़ी काम करने का मतलब यह नही है कि आदमी कभी आरम ही न करे। उसका मतलब है, आदमी कर्मठ रहे, आलस न करें। सच बात यह है कि निष्क्रिय जीवन से बढ़कर दूसरा अभिशाप नही है। जो लोग क्रियाशील रहते है, वे काम करने का सन्तोष पाते है और अपनी प्रसन्नता से धरती का बोझ हल्का करते है। इसके विपरीत जो काम से बचते है,वे स्वयं तो परेशान होते ही है, समाज मे भी बडा दूषित वायुमण्डल पैदा करते है। कर्ममय जीवन दूसरो पर अच्छा असर डालता है, आलसी दूसरे को आलसी बनाता है।
बचपन मे अंग्रेजी की एक बड़ी सुन्दर कविता पढ़ी थी। कवि कहता है, "उठो, दिन बीता जा रहा है और तुम सपने लेते हुए पड़े हुए हो! दूसरे लोगो ने अपने कवच धारण कर लिए हैऔर रणभूमि मे चले गये है।। सेना की पंक्ति मे एक खाली जगह है, जो तुम्हारी राह देख रही है। हर आदमी का अपना कार्य करना होता है।"
मनुष्य सामाजिक प्राणी है। वह जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है, उसके कर्त्तव्य बढ़ते जाते है। वह जितनी खूबी से उनका पालन करता है, उतना ही वह अच्छा नागरिक बनता है और समाज को सुखी बनाता है।
हर आदमी के लिए ऊँचाई पर स्थान है, लेकिन वहॉँ पहँचता वही है, जिसके अन्तर मे आत्म-विश्वास होता है, हाथ-पैरों मे ताकत होती है, निगाह मे ऊँचाई होती है ओर हृदय में सबके लिए प्रेम और सहानुभूति का सागर उमड़ता रहता है।
ऐसा आदमी जानता है कि उसके ऊपर सदा निर्मल आकाश है। अगर कभी बादल घिर भी आते है तो वे अधिक समय नही टिकते है। अपने लक्ष्य पर आँख रखकर मज़बूती से बढ़े चलना इंसान का सबसे बड़ा कर्त्तव्य है।