सफलता के गुर जानते हैं गुरु जी / रंजना जायसवाल

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रमा जब भी प्रोफेसर चमन को देखती, एकटक देखती रह जाती थी। सोचती कि काश उनके बाहरी व्यक्तित्व के अंदर छिपे इंसान की झलक उसे मिल जाए! मिलता भी था पर वे इसे नहीं समझ पाते थे। उन्हें लगता था कि वह उन पर मुग्ध हो रही है। उनका बाहरी व्यक्तित्व आकर्षक था। गौर वर्ण, मझोला कद और सुंदर चेहरा। पद के हिसाब से चेहरे पर एक रोब और आँखों से झाँकता गर्व उन्हें भव्यता प्रदान करता था। बातचीत भी वे शालीन ढ़ंग से करते थेैं, पर अपनी बात को ऊपर रखने की कोशिश उनकी अहमन्यता को दर्शाती थीै। वे विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थे। एकाध किताबें भी लिखी थीैं और उनके द्वारा संपादित कई पुस्तकें उच्च शिक्षा पाठ्यक्रमों का हिस्सा भी थीैंं। उनके लिखे नाटक कई जगह मंचित हो चुके थे, पर यह सब किसी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर को सहज प्राप्त हो जाने वाली उपलब्धियाँ होती हैं। सभा-सम्मेलनों में अध्यक्ष पद, पाठ्यक्रमों में संपादित पुस्तकों का लगा होना किसी प्रोफेसर को यूँ ही प्राप्त हो जाने वाली चीजें हैं। हाँ, एक और बड़ी उपलब्धि अक्सर प्रोफेसरों को मिल जाती है, वह है उनकी सन्तानों को नौकरी। वे जानते हैं कि किस तरह पढ़ाई में गोल्ड मैडल, फिर लेक्चरर पद तक उनकी सन्तानें पहुँच सकती हैं। वे अपना पूरा जोर लगाकर अपनी संतानों का भविष्य सुरक्षित कर देते हैं। इसमें उनको कोई नैतिक बाधा नहीं लगती कि उनकी संतानों से ज़्यादा सुयोग्य शिष्य या शिष्याएँ बेरोजगार है। वे अपने छात्र-छात्राओं से सहानुभूति रख सकते हैं, उनसे आदर्श की बातें कर सकते हैं, पर उनके लिए प्रयास नहीं कर सकते। करें भी कैसे? आखिर अपनी संतानों के प्रति भी तो उनका दायित्व है। संतानें निकल जाती हैं, तो रिश्तेदारों की बारी आती है, फिर जाति-बिरादरी की। वे साम-दाम-दण्ड-भेद सबका सहारा लेते हैं। वैसे वे अपने छात्रों से बड़ी मीठी-मीठी बातें करते हैं। बेचारा शिष्य समझता है कि गुरूजी उसके सबसे बड़े हितैषी हैं, उसमें ही कोई कमी है जो कहीं सेलेक्ट नहीं हो पा रहा है और जब तक वह गुरूजी के द्रोणाचार्य चक्रव्यूह को समझता है तब तक अभिमन्यु की तरह घिर चुका होता है और मारा जाता है।

रमा भी अब प्रोफेसर चमन को समझने लगी थीै। हांलाकि वे उसे हमेशा भ्रम में ही रखने का प्रयास करते रहे थे। बड़ी-बड़ी आदर्शवादी बातें...खोखली सहानुभूति और गाहे-बगाहे प्रेम निवेदन। वह उन्हें तब से जानती है, जब वे उसके कस्बे के काँलेज में लेक्चरर बनकर आए थे। वह उन दिनों बी0 ए0 पार्ट वन की छात्रा थी। उसे अच्छी तरह याद है कि वे कक्षा में लेक्चर देते समय हकलाने लगते थे...नर्वस हो जाते थे। यह उनकी पहली नियुक्ति थी और उम्र भी कुछ ज़्यादा ना थी। यही कोई उससे दस-पन्द्रह वर्ष ज़्यादा रहे होगे। विद्यार्थी उनका खूब मखौल उड़ाते। पर जल्द ही उन्होंने कॉलेज में अपनी अच्छी जगह बना ली थी। वे साहित्यिक प्रतियोगिताएँ भी करवाते थे, जिसके कारण वे उसके बारे में जानने लगे थे। उसकी अशैक्षिक, गैर साहित्यिक और निम्न आय वर्ग वाली पारिवारिक पृष्ठभूमि ने उनके मन में उसके लिए सहानुभूति को जन्म दिया। उनकी ऑंखों में उसके लिए प्रेम झलकने लगा, पर गुरू-शिष्या की मर्यादा को ध्यान में रखकर उन्होंने अपने आकर्षण को प्रकट नहीं किया। पर स्त्री से पुरूष का आकर्षण कहाँ छिपा रह पाता है? वह भी समझ गयी थी, पर उसके अपने मन में ऐसा कोई आकर्षण नहीं था। वे उसे बस अच्छे लगते थे। उनकी बड़ी-बड़ी आँखों में अपने लिए आकर्षण देखना उसे भी अच्छा लगता था। इससे अधिक वहाँ की कस्बाई संस्कृति में संभव भी नहीं था। एक दिन अचानक पता चला कि चमन सर की नियुक्ति एक बड़े शहर के विश्वविद्यालय में हो गई है। दुख हुआ और अच्छा भी लगा। दःुख इसलिए कि वे चले जाएंगे और अच्छा इसलिए कि वे प्रगति कर रहे हैं। दोनों के बीच का आकर्षण अप्रकट ही रह गया। एम0 ए0 करने के बाद उसे फिर एक बार चमन सर से मिलने का अवसर मिला। वह उन्हीं के विश्वविद्यालय में शोध करने आ पहुँची थी। विभाग में सर मिले तो बड़े प्रसन्न हुए. उसे बधाई दी। उसने अपनी इच्छा बताई कि वह उनके निर्देशन में शोध करना चाहती है तो वे थोड़े गम्भीर हो गए. पहला प्रश्न तो यही किया कि वह शहर में रहेगी कहाँ! उसने कहा कि उसे विश्वविद्यालय के हॅंास्टल में जगह दिलवा दीजिए. वे सोच में पड़ गए, पर मना भी नहीं किया। वह उनके घर गई और उनकी पत्नी और बच्चों से मिली। रात ज़्यादा हो जाने से वह कस्बे नहीं लौट सकती थी और दूसरे दिन विश्वविद्यालय में कुछ औपचारिकताएँ भी पूरी करनी थी, इसलिए चमन सर के घर ही रूक गई. वैसे भी इस शहर में वही एकमात्र उसके परिचित थे और वह उन पर अपना कुछ अधिकार भी समझ रही थी। रजिस्ट्रेशन कराकर वह अपने कस्बे लौट गई. कुछ दिन बाद रिजल्ट आया तो पता चला कि उसके गाइड कोई और है। वह चौंक पड़ी। चमन सर से मिली तो वे क्षमा मॉंगते हुए बोले-'मेरी पत्नी ने मना किया है। उसके अनुसार तुम मुझसे फायदा उठाने की कोशिश करोगी। शहर में रहने, पढ़ाई-लिखाई...बाद में नौकरी सब में सहयोग माँगोगी। वैसे तुम्हारे गाइड भी मेरे मित्र हैं...कम्युनिस्ट हैं...तुम्हारी मदद करेंगे और कोई दिक्कत हुई, तो मैं हूँ ही।'

वह रूआँसी हो गई. कितनी उम्मीद थी उसे चमन सर से... और उन्होंने इस तरह से पल्ला झाड़ लिया। उनकी पत्नी का व्यवहार तो उसके साथ सहानुभूति पूर्ण था, फिर किस कारण उन्होंने चमन सर से ऐसा कहा। क्या वह इतनी खुदगर्ज दिखती है उन्हें। शायद वह उन लोगों को 'बवाल' लगी थी। शायद चमन सर नहीं चाहते थे कि वह शोध करे... पर वे लगाातार आश्वासन दे रहे थे कि 'दूर से मदद करना आसान रहेगा...उसे कोई भी परेशानी नहीं होगी।' उन्होंने उस दिन शाम को उसके साथ एक पार्क की सैर की और अपने प्रेम का इजहार भी किया। उनकी इस साफगोई से वह हैरान रह गई कि 'उनकी पत्नी को उस पर शक है। इसीलिए उन्होंने उसको अपने निर्देशन में लेने से मना किया है।'

' क्यों? वह बहस पर उतर आई। मैैंने तो उनका कुछ नहीं बिगाड़ा...फिर किस आधार पर वे शक कर रही हैं। आखिर मेरा अपराध क्या है? उसकी आँखें दुःख से छलछला आई थीं। पढ़ाई उसके लिए जीवन-मरण का प्रश्न था। किसी तरह तो वह कस्बाई ब्यूह तोड़कर शहर आ पाई थी। माँ को अपने लेक्चरर बन जाने का सपना दिखाकर और पिता को बेहद नाराज कर वह पढ़ रही थी। उसकी छवि साफ-सुथरी थी। कोई भी पुरूष उसके जीवन में नहीं था। प्रेम-प्यार से भी उसका वास्ता ना था। चमन सर के प्रति नन्हा आकर्षण कब का दब चुका था। इस समय वह पूरी तरह सात्विक विचारों से भरी थी। ऐसे में चमन सर की यह बात उसे चुभ गई.

चमन सर ने अपनी बात पर मुलम्मा चढा़या-'तुम्हारा अपराध बस इतना ही है कि तुम बहुत सुंदर हो। तुम्हें देखते ही मेरी पत्नी विचलित हो जाती है।'

"आपके घर तो और भी लड़कियाँ आती हैं...क्या उन्हें देखकर भी आपकी पत्नी।"

'नही ं, उनके साथ वह सहज रहती है।'

"फिर मुझमें क्या काँटें हैं...?"

'नहीं, दरअसल उसने मेरी आँखों को पढ़ लिया है। पत्नियाँ पति की आँखें और मन आसानी से पढ़ लेती हैं।'

"क्या है आपकी आँखों और मन में...?"

'तुम्हारे लिए आकर्षण ...ललक...प्यार।'

उसको मन ही मन गुस्सा आया। ' इनकी आँखें और मन खराब है तो इनको सजा मिले। मुझे क्यों मिल रही है? हमारे समाज की स़्ित्रयाँ भी अजीब हैं अपने पति को दूसरी स्त्री की तरफ आकर्षित देखकर दूसरी स्त्री की ही शत्रु बन जाती हैं अपने पति को कुछ नहीं कहती और चमन सर...इनको क्या अधिकार है उससे प्रेम की बातें करने की... विवाहित और बाल-बच्चेदार हैं। क्या दे सकते हैं उसे...? उनके पास तो सब कुछ है। पद-प्रतिष्ठा, घर-परिवार, धन-सम्पत्ति...सब, पर वह तो स्ट्रगलर है। खुद को निर्मित करने की कोशिश कर रही है। चारों तरफ सिर्फ़ बाधाएँ...रूकावटें और अभाव।

"अपना एक फोटो दे दो। देखता रहूँगा।" चमन सर अपने ही रंग में थे।

'क्या करेंगे...? कहाँ रखेंगे? पत्नी ने देख लिया तो।'

"हाँ, ये तो है। चलो मन में तो तुम्हारी तस्वीर है ही।"

उसे गुस्सा आ रहा था... उसके संघर्ष में साथ देने के लिए तो तैयार है नहीं, पर आशिकी बघारने का मौका नहीं छोड़ रहे। इसके लिए इन्हें पत्नी का डर नहीं। चोरी-छिपे मिलना चाहते हैं...छीः! उसे निरा देहातन ही समझ रहे हैं। उनके इस दोहरे चरित्र ने उसके मन के उस नन्हें बीज को भी कुचल डाला, जो कभी अंकुरित हो सकता था। ऊपर से वह मुस्कुराती रही। उसे विश्वविद्यालय में ही काम करना था। कभी भी चमन सर की ज़रूरत पड़ सकती थी। वे सहयोग न भी करें, पर असहयोग या विरोध तो ना ही कर सकें, इसलिए उन्हें कुछ कहना ठीक नहीं। हाँ उनके प्रेम-प्रस्ताव को वह टाल सकती है। जबरदस्ती की तो उनमें हिम्मत है नहीं। अपनी प्रतिष्ठा के प्रति खुद सतर्क रहते हैं, उसे कुछ नहीं कहना या करना पड़ेगा।

दिन बीतते गये। चमन सर उसके लिए कुछ भी नहीं कर सके. ना तो उसे हॉस्टल में जगह मिली, ना कोई और प्रबंध हुआ। कस्बे से आने-जाने में समय, पैसा, शक्ति का अपव्यय हो रहा था। गाइड ने कह दिया कि 'आप घर रहकर भी काम कर सकती हैं। काम कैसे करना है, आप जाने। मुझे कुछ नहीं मालूम। हाँ, जब आप थीसिस लिखकर लाएंगी तो मैं अग्रसारित कर दूँगा।' वह चिन्तित हो गई. वह किसकी मदद ले? घर पर तो पढ़ाई का माहौल ही नहीं। तभी उसके मन में विचार आया कि वह लखनऊ में अपनी बड़ी विवाहिता बहन के घर जाकर रहे और वहीं शोध का कार्य पूरा करे।

इन्द्र देव को देवराज इन्द्र बनने के लिए उतने पापड़ नहीं बेलने पड़े होंगे जितना चमन को विश्वविद्यालय के प्रोफेसर पद तक पहुॅंचने के लिए बेलने पड़े थे। एम0 ए0 करते समय ही वे बूढ़े प्रोफेसर विलायत सिंह की नजर में आ गए थे। उन्होंने उसे सब कुछ दिलाने का वादा किया ... चमन । की महत्त्वाकांक्षाएं कुलाचंे भरने लगीं, पर जब सिंह ने हिरण को दबोचा तो उसे असहनीय पीड़ा से गुजरना पड़ा। यह बहुत बड़ी कीमत थी। विलायत सिंह को सुंदर, सुकुमार नवयुवा चमन बहुत पसंद आया। चमन ने भी धीरे-धीरे उन्हें सहने की आदत डाल ली। वर्ष भी नहीं बीता कि चमन कहाँ से कहाँ पहुॅच गया। उसकी उन्नति का रहस्य कुछेक लोगों को ही पता था, बाकी सब उसके भाग्य, उसकी योग्यता का लोहा मान रहे थे। धीरे-धीरे विलायत सिंह बूढ़े और कमजोर हुए और चमन जवान तथा सबल। अब वह उन्हें सताने लगा। जब-तब उनका अपमान कर देता। बताने वाले बताते हैं कि एक दिन इसी सदमें ने विलायत सिंह की जान ले ली। वे अपने ही लगाए वृक्ष से गिर कर घायल हो गए. चमन मन ही मन उनसे नफरत करता था क्योंकि उन्होंने उसका भरपूर शोषण किया था। रमा को एक जानकार ने जब चमन सर की यह कहानी सुनाई तो वह हतप्रभ रह गई. जाने क्यों चमन सर से उसे सहानुभूति ही हुई. उसे अधेड़-बुजुर्गों के शोषण के शिकार युवा व किशोर याद आए. इस गलीज शौक के बारे में पढ़ते-सुनते ही वह घृणा से भर जाती है, पर इसका एक लम्बा इतिहास रहा है। इसकी जड़ें बहुत पुरानी है और बड़े-बड़े विद्वानों, लेखकों, दार्शनिकों, कलाकारों, योद्धाओं को भी इसने अपने लपेटे में लिया है।

रमा को अफसोस बस इस बात का होता कि चमन सर दूसरे के दोषों को खूब उछालते हैं। दूसरों के जीवन में घटित दुर्घटनाओं को वह उस व्यक्ति की कमी या दोष मानते हैं। चरित्र पर व्याख्यान भी बहुत देते हैं। वे समझते हैं कि वह उनका काला इतिहास नहीं जानती। उसने कभी उस इतिहास के बारे में नहीं पूछा ताकि वे शर्मिन्दा ना हो, पर वे उसे शर्मिन्दा करने का एक भी मौका नहीं छोड़ते। उसका भी अतीत उज्ज्वल नहीं रहा है, पर वह अतीत पुरूषवादी समाज की देन था। स्वेच्छा से पतन होने की दास्तान नहीं। वह स्त्री थी, किसी का वरदहस्त उस पर नहीं था। फिर भी उसने किसी से तन-मन का समझौता नहीं किया। अवसरवादी नहीं रही, तभी तो वह उनकी तरह कामयाब ना हो सकी। वह किसी से काम निकालना नहीं जानती और ना ही अनचाहे का स्पर्श सह सकती है। उसके जीवन में मित्र आए और चले गए क्योंकि वह समझौता नहीं कर सकी! अक्सर सोचती है "कैसा है यह समाज...कैसे है इसमें रहने वाले लोग! किसी का भी एक चेहरा नहीं... एक-सा जीवन नहीं।" वह कई ऐसी स्त्रियों को जानती है जो विवाहिता होते हुए भी गैर मर्द से रिश्ते में हैं। पति और बच्चे भी जानते हैं पर सब एक अदृश्य समझौते से बँधे एक साथ रहते हैं। उनके आपसी सम्बंधों पर एक अतिरिक्त व्यक्ति के आने-जाने से कोई प्रभाव नहीं पड़ता। समय कितना बदल गया है। नैतिकता के बंधन ढ़ीले पड़ रहे हैं पर उस जैसे लोग आज भी पुरानी नैतिकता से बँधे हैं। बिना प्रेम, बिना इमानदारी के शारीरिक रिश्ते जिनके लिए हेय हैं।

कभी-कभी वह सोचती है कि क्यों किसी स्त्री की सफलता के पीछे उसका 'स्त्री होना' कारण मान लिया जाता है। क्यों नहीं पुरूष की सफलता के कारणों की छानबीन होती है? उसे विश्वास है कि इस जाँच से ऐसे-ऐसे चमकदार चेहरे बेनकाब होंगे, जिनकी सफलता उनका पुरूषार्थ माना जाता है। साहित्य-संस्कृति, कला, फ़िल्म, राजनीति, धर्म-दर्शन कहाँ नहीं हैं ऐसे चेहरे और ऐसे लोग और बढ़-चढ़कर स्त्री के लिए सीमाएँं निर्धारित करते हैं। उनको देह मात्र समझते हैं। उनके बड़बोले बयानों को सुनकर कोफ्त होती है। कुछ ऐसे भी चेहरे हैं जो स्त्री-पुरूष किसी को नहीं बख्शते। दैहिक शोषण किए बिना किसी को कुछ भी नहीं देते। दुर्भाग्य से वे लोग ऐसी जगहों पर काबिज होते हैं जहाँ से होकर ही सफलता की पगडंडियाँ निकलती हैं। वह आँखों देखकर कानों सुनकर भी चुप है, क्योंकि चुप रहकर ही जी सकती है, वरना उसे मार दिया जाएगा। जब लोग उसे याद दिलाते हैं कि वह उस जगह क्यों नहीं है, जहाँ अपने व्यक्तित्व व योग्यता के अनुसार होना चाहिए, तो वह चुप रह जाती है। यह कहने से आत्मा दुखती है कि उसकी योग्यता में कमी है या फिर उसके प्रयासों में कमी थी। कैसे बताए कि स्त्री होकर भी समझौतावादी न होने का यह दण्ड था। सत्ता, समाज, घर-बाहर, अपने-परायों का घोर असहयोग भी इसका कारण था। ऐसा कहना उसकी कुंठा समझी जाएगी। आदर्श की बड़ी-बड़ी बातें करने वालों से उसे चिढ़ होती है, पर वह क्या कर सकती है। उसे याद है चमन सर की आदर्शवादिता! पर वह आदर्श तब कहाँ चला गया, जब अपने बच्चों का हित सामने आया। उनका बेटा उसके साथ ही उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग में इन्टरव्यू देने गया था। रास्ते भर उसके गुण गाता रहा। 'आपका तो बड़ा नाम है...इतनी किताबें लिख चुकी हैं। कॉलेज में पढ़ाने का अनुभव भी है। व्यक्तित्व भी आकर्षक हैं आपका चुनाव तो होना ही है।'

साक्षात्कार बड़ा शानदार था। साक्षात्कार लेने वाले उससे प्रभावित हो गए थे। वह खुश-खुश घर लौटी थी। एक दिन शाम को चमन सर उसके घर आए और बोले-'तुम्हारा चुनाव हो गया है। मिठाई खिलाओ।' उसे देर तक विश्वास नहीं हुआ, पर वे विश्वास दिलाते रहे। वह प्रसन्नता से सूचना आने का इंतजार करने लगी। क्योंकि चमन सर ने कहा था सबसे पहले फोन से सूचना आएगी। पर ना कोई फोन आया ना सूचना। अखबार में रिजल्ट निकला, तो उसका कहीं नाम ना था जबकि चमन सर का बेटा सेलेक्ट हो गया था। उसने दुखी होकर चमन सर को फोन लगाया। वे खुशी से भरे हुए थे। खनखनाती आवाज में बोले-'मेरा बेटा नियुक्त हो गया। तुम्हारा भी बाद में हो जाएगा...निराश मत होना।'

-पर आपने तो कहा था मेरा सलेक्शन हो गया है।

'तुम्हें सुनने में ग़लत फहमी हुई होगी। मैंने कहा था कि हो सकता है।'

-हो सकने की बात पर मिठाई नहीं मँगाई जाती।

' तुम्हें मेरे बेटे के सलेक्शन से जलन हो रही है पर तुम्हें नहीं पता कि उसके लिए कितना प्रयास करना पड़ा।

-थोड़ा प्रयास मेंरे लिए भी कर देते...

'एक समय एक ही की बात कर सकता था।'

-नौकरी की ज़रूरत मुझे ज़्यादा थी।

'बेटे को भी ज़रूरत थी। 30 वर्ष का हो गया है। नौकरी मिलने पर ही शादी हो सकती है।'

उसने गुस्से में फोन काट दिया। नाराज चमन सर भी हो गए थे। सालों उनमें बातें नहीं हुई. किसी ने पहल नहीं किया। उनकी शिकायत थी कि वह उन पर आरोप लगा रही है, जबकि वह उनके झूठ-फरेब से आहत थी। बाद में पता चला कि वे साक्षात्कार होने के एक सप्ताह पहले से लेकर एक सप्ताह बाद तक वहीं रहे थे और अपने सारे सोर्सेज का इस्तेमाल किया था। ऊपर से उन्हें आठ लाख रूपये भी देने पड़े थे। पर वे सबसे यही कहते रहे कि उनके पुत्र ने अपनी योग्यता से पद हासिल किया। प्रकारांतर से उसकी अपनी योग्यता ही कटघरे में खड़ी हुई।

कितना जबरदस्त नेटवर्क है शिक्षा जगत में भी। ऊपर से जितना ही साफ-शफ्फाक, भीतर से उतना ही नापाक। उसके पास ना तो इतने रूपये थे, ना ही वह सोर्स पता था, जिसके माध्यम से रूपये दिए जाते थे। उसे आज भी चमन सर का वह कथन याद है कि आपके लिए क्यों प्रयास करूॅंगा? प्राथमिकता तो अपने बच्चे की होती है। दुबारा ऐसा ही कटु अनुभव एक दूसरे गुरूजन के कारण हुआ। वे गुरु विभागाध्यक्ष भी थे और संयोग से साक्षात्कार के एक जज भी। दूसरे जज भी उनके परिचित थे। वह साक्षात्कार भी लाजवाब रहा। इस बार गुरूजी की पुत्री साथ थी और पूरे समय उसकी योग्यता के दबाव में रही, पर रिजल्ट में वही प्रथम स्थान पर थी और वह निचले पायदान पर भी जगह ना पा सकी। गुरूजी उसे भी पुत्री कहते थे। उसकी प्रतिभा की तारीफ करते नहीं थकते थे। फिर क्यों वह उनकी लिस्ट से बाहर हो गई. बाद में कहने लगे तुमने आरक्षित वर्ग से फार्म क्यों नहीं भरा? आरक्षण...! उसने कभी आरक्षण का लाभ नहीं लिया था। कुछ महीने पूर्व ही तो उसकी जाति को आरक्षित वर्ग में जगह मिली थी। उसके पास तो उसका प्रमाण पत्र भी नहीं था। आखिर क्यों सारी योग्यता के बाद भी उसे बैसाखी की ज़रूरत थी? चमन सर और विभागाध्यक्ष कहीं कुलीन ब्राहमण होने की अहमन्यता से भरे हुए तो नहीं थे। कहीं यह ब्राह्मणवाद ही तो नहीं था, जो उसकी अयोग्यता की वजह बन गया।

चमन सर को उससे सहानुभूति तो थी, पर वे उसके लिए कुछ करना नहीं चाहते थे। पर ऊपर से कहतेे-'मुझे अफसोस हैं कि तुम्हारे लिए कुछ ना कर सका।' वह जानती थी कि वे चाहते तो उसके लिए भी बहुत कुछ कर सकते थे। अपनी कई छात्राओं की उन्होंने मदद की थी। वह सोचती है-'क्या वे छात्राएं उनकी कुछ खास थीं।' एक के लिए तो उन्होंने एक कॉलेज ही खुलवा दिया। इसमें अपने प्रशासनिक पावर का भरपूर इस्तेमाल किया। आज वह छात्रा उस कॉलेज की प्रिंसिपल है। एक छात्रा को तो उनकी पत्नी ने सीढ़ियों पर इसलिए दौड़ा लिया कि उसको इस बात का सबूत मिल गया था कि चमन उसके प्रति मधुर भाव रखते हैं। चमन सर अपने रसिक स्वभाव के लिए मशहूर थे। अक्सर उनके साथी प्राध्यापक उनके इस स्वभाव पर टिप्पणी करते और अनुमान लगाते कि वे अपनी प्रेमिकाओं से आखिर कहाँ मिलते होंगें। चमन सर आकर्षक थे। उनके पास अच्छी व लुभावनी भाषा थी। सबसे बड़ी बात कि वे ऐसे उच्च पद पर थे कि किसी का भी कल्याण कर सकते थे।

वह अक्सर सोचती कि वे उसके लिए कुछ करना क्यों नहीं चाहते! क्या इसलिए कि वह शारीरिक रूप से उनसे नहीं जुड़ पाई! उन्होंने अपनी तरफ से कोशिश तो पूरी की, पर उसने उनसे स्पष्ट कर दिया था कि वह कभी किसी विवाहित पुरूष से नहीं जुड़ सकती। जाने क्यों उसकी आत्मा को यह कभी गँवारा नहीं हुआ कि वह किसी स्त्री का हक छीने। उसकी इस आदर्शवादिता ने उसका बड़ा नुकसान किया। उसकी झोली में अनगिनत सफलताएँ आसानी से गिर सकती थीं, अगर वह अपने इस हठ को छोड़ देती। उसने देखा था कि कई स्त्रियाँ सिर्फ़ इसी कारण सफल, सम्पन्न व सुखी जीवन जी रही हैं। पर हाय रे उसका मन! इस चीज को सौदेबाजी मानता है।

ऐसा नहीं कि वह सावित्री बनना चाहती है। ऐसी किसी नैतिकता में उसका विश्वास नहीं है। पर प्रेम में उसका विश्वास है। अगर उसका मन किसी पुरूष के प्रति प्रेमासक्त हो, तो वह उसके करीब जा सकती है, पर किसी लाभ के लिए प्रेमनाट्य उससे नहीं होता। यह कहना भी झूठ होगा कि चमन सर के प्रति उसका मन कभी प्रेमासक्त नहीं हुआ। पर एक मित्र की तरह, प्रेमिका की तरह नहीं और वह भी तब, जब उसने उनका असली चेहरा नहीं देखा था। उनके कपटपूर्ण व्यवहार को न समझ पाई थी। उन्हें अपना हमदर्द समझती थी। उसे लगता था कि वे उसको चाहते हैं। संसार में तरह-तरह के लोग होते हैं। जैसे रूपरंग में एक जैसा होना अपवाद होता है, उसी तरह एक स्वभाव का होना भी। जुड़वा बच्चों में भी कुछ न कुछ भिन्नता ज़रूर होती है। पर यह भी सच है कि सबकी एक मूल प्रवृत्ति होती है, जो कभी नहीं बदलती। आदतें बदली जा सकती हैं। शिक्षा, वातावरण और संगति से मनुष्य बदलता है, पर मूल प्रवृत्ति वही रहती है। बहुत हुआ तो वह प्रवृत्ति थोड़ी सुसंस्कृत हो जाती है, प्रकटीकरण का ढ़ंग बदल लेती है पर खत्म नहीं होती।

चमन सर की मूल प्रवृत्ति भी कभी नहीं बदली। वे पेट के हल्के थे। कोई बात उन्हें पचती नहीं थी, हाँलाकि बाद में उसके लिए अफसोस भी करते होंगे, पर सामने जाहिर नहीं करते। शायद लोगों को बेवकूफ समझकर या ख्ुाद को ज़्यादा बुद्धिमान समझकर। पर उनकी इस आदत की चर्चा उनके पीठ पीछे खूब होती। वे चापलूस भी थे। हर आदमी इस बात को जानता था कि वे कुलपतियों के आगे-पीछे घूमते रहे हैं। उनको खुश करने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहे हैं, पर ज्यों ही कुलपति पद से हटा या हटाया गया, उनका व्यवहार यूँ हो जाता है जैसे उसे पहचानते ही ना हो। फिर नया कुलपति ज्यों ही आता है, वे उसके पीछे लग लेते हैं। कोई-कोई तो यह भी कहता है कि कुलपतियों को प्रसन्न करने लिए उन्होंने कुछ ग़लत कार्य भी किए हैं। आखिर वे ऐसा क्यों करते है? खुद प्रोफेसर हैं...अच्छा कमाते हैं। थोड़ा लिख-पढ़ भी लेते है फिर क्यों? शायद अपनी मूल प्रवृत्ति के कारण। उनकी इस प्रवृत्ति से वह दुखी होती थी, पर वह भूल गयी थी कि चमन सर कोई कार्य निरर्थक नहीं करते। उनकी दूरदृष्टि का कोई जवाब नहीं। उनके रिटायर होने के बाद उसे लगा था, शायद अब उनका वर्चस्व कम हो जाए. पर अवकाशप्राप्ति के चंद दिनों बाद ही जब वे एक विश्वविद्यालय के कुलपति हो गए. तब वह जान गयी कि सफल होने के गुर जानते थे गुरु जी।