सफ़र के छाले (हाइबन-डॉ.सुधा गुप्ता ) / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु'

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'हाइबन' जापानी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है- (हाइ-काव्य, बन-गद्य) । इस प्रकार हाइबन गद्य तथा काव्य का संयोजन है। 17 वीं शताब्दी के कवि बाशो ने इस विधा का आरंभ 1690 में अपने एक शिष्य क्योराइ को खत में सफरनामा / डायरी के रूप में 'भूतों वाली झोंपड़ी' लिख कर किया। इस खत के अंत में एक हाइकु लिखा गया था।

परम्परागत रूप में हाइबन एक सफरनामे या डायरी के रूप में लिखा जाता था। यात्रा करने के बाद बौद्ध भिक्षु पूरी दिनचर्या को वार्ता के रूप में लिख लेता था और अंत में एक हाइकु भी। हाइबन में एक से ज़्यादा हाइकु हो सकते हैं। हाइकु वार्ता से जुड़ा हुआ हो, मगर इसका दोहराव न करे और न ही इसको परिभाषित करता हो। अंत में हाइकु लिखने का उद्देश्य वार्ता को और विशालता प्रदान करना ही होता है। हाइबन किसी लेख या कहानी से हटकर एक विशेष सर्जनात्मक कृति है, जिसे अंतर्मन की यात्रा भी कहा जा सकता है; क्योंकि यह तो ज़िन्दगी के पल-पल के अहसासों में से गुज़रती है, जिसमें दुःख-सुख, हर्ष-विषाद, शारीरिक तथा बौद्धिक अनुभव शामिल हैं। हाइबन में यात्रा वर्णन, व्यक्ति रेखा चित्र / (ये हिन्दी में भी हैं) , प्राकृतिक दृश्य, किस्सा-कथा का शब्दांकन, किसी विशेष व्यक्ति या घटना पर लेखन, दिन–प्रतिदिन की दिन-चर्या की डायरी शामिल है। स्वप्न या फ़न्तासी भी इसकी विषयवस्तु बन सकते हैं। परम्परागत हाइबन किसी व्यक्ति, स्थान, वस्तु का वर्णन या यात्रा डायरी या कवि के जीवन में घटने वाली घटनाओं की कड़ियाँ (धारावाहिक रूप से) भी हो सकता है हाइबन की वार्ता सरल, मनोरंजक तथा बिम्बात्मक होती है। इस में आत्मकथा, लेख, लघु कथात्मक प्रसंग या यात्रा का ज़िक्र आ सकता है। हिन्दी पाठकों को यह ध्यान रखना चाहिए कि किसी लघुकथा, प्रेरक प्रसंग या दृष्टान्त में हाइकु जोड़ देना हाइबन नहीं है। विषयवस्तु की व्यापकता का यह अर्थ भी कदापि नहीं कि बेतुकी घटना पर ही हाइकु चस्पाँ कर दिया जाए.

हाइबन एक स्पष्ट हाइकाई विधा है, जो लघु गद्य कविता होती है जिस में हास्यरस तथा संजीदगी दोनों अंश होते हैं। संजीदगी से तात्पर्य यहाँ यह नहीं है कि दार्शनिक चिन्तन के भार से दबी टिप्पणी प्रस्तुत की जाए. हाइबन आम तौर पर हाइकु से खत्म होता है; जिसमें 100 से लेकर 300 शब्द हो सकते हैं। शब्द सीमा से तात्पर्य यह है कि अनावश्यक शब्द या वाक्यों का समावेश कतई न हो। हाइबन आत्मकथात्मक शैली में ही लिखा जाए, वर्त्तमान घटना ही हो, यह ज़रूरी नहीं। हाइबन में एक या दो अनुच्छेद हो सकते हैं। विषयानुसार एक या एकाधिक हाइकु आ सकते हैं। यहाँ यह भी ध्यान रखना ज़रूरी है कि हाइबन में प्रस्तुत गद्य हाइकु की व्याख्या नहीं होता। भाषा पूरी तरह सधी हुई होनी चाहिए. अनावश्यक शब्दावली न हो। लम्बे हाइबन में एक से ज़्यादा हाइकु वार्ता के टुकड़ों में रखे जा सकते हैं। ये हाइकु–

1-गद्य में आई विषयवस्तु या सन्देश को सत्त्व रूप में प्रस्तुत करें, लेकिन बिना किसी पूर्वकथन के, बिना दोहराव के. हाइबन में प्रयुक्त हाइकु इसके कथ्य से सीधे या सूक्ष्म / अतिसूक्ष्म रूप में जुड़ा हो सकता है या प्रस्तुत गद्य का संकेतमात्र भी हो सकता है तथा कभी विरोधाभासी कथन भी लिये हो सकता है

2-हाइबन में वार्ता / कथ्य का तथा हाइकु का सम्बन्ध ज़रूरी नहीं कि स्पष्ट नजर आ रहा हो। यह हाइकु पाठक को सांकेतिक रूप से उस अकथित को भी अभिव्यक्त करने की दिशा में ले जा सकता है, जो हाइबन के कथ्य का वास्तविक निहितार्थ है अर्थात् हाइकु दृष्टिकोण को और गहरा या उसको अलग दिशा भी प्रदान कर सकता है। ये हाइकु अपने स्वतन्त्र सत्ता और अर्थ लिये भी हो सकते हैं और हाइबन के कथ्य से पूर्णतया सन्दर्भित भी हो सकते हैं।

सारांश रूप में कहा जाए तो हाइबन नगीने–जड़ी अभिमन्त्रित अँगूठी की तरह है। नगीने के बिना अकेली अँगूठी का मूल्य बहुत कम है और अँगूठी के बिना नगीना अँगुली में पहना नहीं जा सकता। दोनों एक दूसरे पर आश्रित हैं, समान महत्त्व के भागीदार हैं।

हिन्दी में हाइबन की कोई परम्परा नहीं। डॉ सुधा गुप्ता जी ने 1980 में पहला हाइबन लिखा। इधर के वर्षों में डॉ हरदीप सन्धु, कमला निखुर्पा, डॉ ज्योत्स्ना शर्मा और रचना श्रीवास्तव ने सार्थक हाइबन लिखे। डॉ सुधा गुप्ता जी ने 1980 के बाद यदा-कदा जो लेखन आपने किया, वह डायरी के पन्नों तक सीमित था। मैंने जब चर्चा की तो आपने अभी तक लिखे हाइबन मुझे भेज दिये। आपके इन हाइबन में जीवन-जगत् का मार्मिक चित्रण, यात्रा–संस्मरण के साथ उनका आत्मिक जुड़ाव, मानस-सिन्धु में उठते-गिरते ज्वार भाटे की उपस्थित, प्रकृति का अनूठा दृश्यांकन-पक्षिगण से लेकर विभिन्न पेड़ पौधों तक उनके हाइबन का कैमरा घूम गया। वातावरण पर आपकी सूक्ष्म दृष्टि देखते ही बनती है।

इनके हाइबन 'कर्मयोगी' में धूप कातता सूरज, संगदिल मौसम के हाथों मार खाए खेत, 'पोशाक' -की मासूम फ़ाख्ता तड़ातड़ बारिश में अपने लिए सुरक्षित जगह तलाश नहीं कर पाई, भीगती रही। पंछी के पास तो एक पोशाक है-गीली या सूखी। 'बया' में जुगनू से घर को रौशन करती बया का उद्यम, 'धूप' –विभिन्न गतिविधियों से गुलज़ार घर–आँगन, काली चिड़िया-का हाइबन बहुत प्रभावी है और हाइकु तो कीमती नगीना-'आई चिरैया / टहनी मुस्कुरा दी / उड़ी, उदास।' , चैत-फूलों का संसार जो अब निषिद्ध बनकर रह गया, 3-9 मार्च-2011 में रुग्णावस्था पर लिखा हाइबन, व्यक्तिगत सुख-दु: ख के अँधेरे–उजाले; जिनमें-नीम अँधेरा-में डायरी के फड़फड़ाते पन्ने उदासी घोल जाते हैं। अर्चिका का आचमन (लपके शोले / कपास की कुटिया / राख की ढेरी।) में निहित सन्ताप और पीड़ा मन को मथ देती है

'सफ़र के छाले'-जीवन की संघर्ष कथा कह जाते हैं-'ये लफ़्ज़ नहीं / सफ़र के छाले हैं / दर्द–रिसाले।'

'खाली सराय'–व्यस्तता–भरा जीवन जब घोर एकान्त की भेंट चढ़ जाता है तब अवसाद और अधिक जकड़ लेता है। लगता है कोई काफ़िला बेरहम पैरों से रौंदता हुआ आगे बढ़ गया। 'पाथर पाँख'-उच्चकोटि का हाइबन है। पत्थर के पंख बाँधकर भला कौन उड़ पाया है; जीवन-सागर पार करना तो दूर की बात है। 'नींद' में अनिद्रा की उलझन सबसे बड़ी है-नींद से दोस्ती / कभी फूली न फली / दुश्मनी रही।

ये सब दृश्य–चित्रण झकझोर कर रख देते हैं तो कभी पाठक को अश्रु-विगलित कर देते हैं। बाह्य प्रकृति के सन्दर्भ में साहित्यकार की निजी अनुभूति का उल्लसित स्वर–महकी सुबह में एवं करुण संवेदना– 'पुकार' और 'दु: ख चीता है'–में उभरकर आया है। यात्रा पर आधारित हाइबन यात्रा के उल्लास नैनीताल (ओक शेड होटल के परिवेश का चित्रण) / कुमायूँ (लोककथाओं में वर्णित 'काफल पाको' की करुण आवाज़, फ्योंली के फूल की अन्तर्वेदना के साथ नींद में पुकारते पाइन वृक्ष) इनकी यात्रा में मुखर हुए हैं तो गहन उदासी 'खण्डहर' में अनुगूँज बनकर रह जाती है। क्या यह किसी और खण्डहर की दारुण स्थिति हो सकती है! सांकेतिक रूप से लेखिका ने अभिव्यक्त कर दिया। पाठक वहाँ पहुँचकर उदासी से भर उठता है। 'दु: ख–चीता' की एक छलांग और हिरनी का अन्त, इस व्याज से सारा सांसारिक दु: ख व्यक्त कर दिया है।

इस पुस्तक का दूसरा खण्ड है 'मौसम बहुरंगी'। इन हाइकु को पढ़कर यही कहा जा सकता है कि डॉ सुधा गुप्ता और प्रकृति पर केन्द्रित इनके हाइकु एक दूसरे के पर्याय हैं। इनका प्रकृति के प्रति अकुण्ठ प्रेम, सूक्ष्म पर्यवेक्षण ॠतुओं के हर स्पन्दन को वाणी देता है। मौसम के सभी चित्र बहुत गहरे एवं अनुभूति से सम्पृक्त हैं। इनकी अभिव्यक्ति की सहजता मन मोह लेती है। इनके लिए किसी व्याख्या की आवश्यकता नहीं। हैं। विभिन्न ॠतुओं को चित्रित करते कतिपय उदाहरण द्रष्टव्य हैं

1-जागी जो कली / 'राम–राम सहेली' / धूप से बोली।

2-नीले घाघरे / घटाओं की छोरियाँ / इतरा रहीं।

3-सागर रोया / दहाड़ें मार–मार / मेघों ने लूटा

4-यादों के मेघ: / सागर ढो लाए हैं / काले कहार।

5-आया चल के / डगमग सवेरा / हारा अँधेरा।

6-मेघों के छौने / कुदकड़ी भरते / नभ–वन में।

7-मेघों की पीर: / दिखाएँ दिल चीर / आग–लकीर।

8-चाँद जो आया / बल्लियों उछला है / झील का दिल

9-सूरज घूरे / ठिठकी खड़ी हवा / हिले न डोले।

10-शरद ॠतु: / 'अलख निरंजन'। गाते खंजन।

11-शीत की मारी / पेट में घुटने दे / सोई है रात

12-नई तैनाती: / कोहरा कोतवाल / क़हर ढाया!

13-आक्रान्ता शीत / आया नया पैग़ाम / । हो क़त्ले–आम।

14-झील जमी है / शिकारे सहमे–से / खड़े हैं मौन।

15-बर्फ़ की मार / ठिठुरे हैं पहाड़ / काँपते हाड़!

ये हाइकु हिन्दी हाइकु के ही नही, हिन्दी काव्य–जगत् की अमूल्य निधि हैं। जीवन के सफ़र में छाले हैं तो नित्य-नूतन बदलते मौसम भी हैं।

जीवन के सफर में छाले हैं, तो नित्य-नूतन बदलते मौसम भी हैं। ' सफ़र के

छाले हैं' संग्रह के माध्यम से हिन्दी में हाइबन पहली बार पुस्तक-रूप में सामने आए हैं। हिन्दी हाइकु जगत में डॉ. सुधा गुप्ता का प्रदेय न केवल परिमाण की दृष्टि से प्रचुर मात्रा में है, वरन् सर्वाधिक नवीन प्रयोग करने वाली एक अकेली हाइकुकार हैं; उन्होंने हाइकु-कविता में बारहमासा, षड्ऋतु वर्णन, प्रहेलिका काव्य, यात्रा काव्य, सेन्र्यू, हाइकु कविता, हाइकु गीत,

ताँका, चोका एवं हाइबन रचनाओं के द्वारा समृद्ध तथा नवीनता प्रदान की है।

मेरा विश्वास है कि सहृदय पाठक इस संग्रह को ज़रूर सराहेंगे। -0—

25 सितम्बर, 2014