सफाई आन्दोलन और अकाल-कोष / सत्य के प्रयोग / महात्मा गांधी

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समाज के एक भी अंग का निरुपयोगी रहना मुझे हमेशा अखरा है। जनता के दोष छिपाकर उसका बचाव करना अथवा दोष दूर किये बिना अधिकार प्राप्त करना मुझे हमेशा अरुचिकर लगा हैं। इसलिए दक्षिण अफ्रीका मे रहने वाले हिन्दुस्तानियो पर लगाये जानेवाले एक आरोप का, जिसमे कुछ तथ्य था, मैने इलाज करने का काम मैने वहाँ के निवासकाल मे ही सोच लिया था। हिन्दुस्तानियो पर जब-तब यह आरोप लगाया जाता था कि वे अपने घर-बार साफ नहीं रखते और बहुत गन्दे रहते हैं। इस आरोप को निःशेष करने के लिए आरम्भ मे हिन्दुस्तानियों के मुखिया माने जाने वाले लोगो के घरो मे तो सुधार आरम्भ हो ही चुके थे। पर घर-घर घूमने का सिलसिला तब शुरु हुआ जब डरबन मे प्लेग के प्रकोप का डर पैदा हुआ। इसमे म्युनिसिपैलिटी के अधिकारियो का भी सहयोग और सम्मति थी। हमारी सहायता मिलने से उनका काम हलका हो गया और हिन्दुस्तानियो को कम कष्ट उठाने पड़े क्योकि साधारणतः जब प्लेग आदि का उपद्रव होतो हैं तब अधिकारी घबरा जाते हैं और उपायो की योजना मे मर्यादा से आगे बढ जाते हैं। जो लोग उनकी दृष्टि मे खटकते हैं, उन पर उनका दबाव असह्य हो जाता हैं। भारतीय समाज मे खुद ही सख्त उपायो से काम लेना शुरु कर दिया था, इसलिए वह इन सख्तियो से बच गया।

मुझे कुछ कड़वे अनुभव भी हुए। मैने देखा कि स्थानीय सरकार से अधिकारो की माँग करने मे जितनी सरलता से मैं अपने समाज की सहायता पर सकता था , उतनी सरलता से लोगो से उनके कर्तव्य का पालन कराने के काम मे सहायता प्राप्त न कर सका। कुछ जगहो पर मेरा अपमान किया जाता , कुछ जगहो पर विनय-पूर्वक उपेक्षा का परिचय दिया जाता। गन्दगी साफ करने के लिए कष्ट उठाना उन्हे अखरता था। तब पैसा खर्च करने की तो बात ही क्या ? लोगो से कुछ भी काम कराना हो तो धीरज रखना चाहिये , यह पाठ मैने सीख लिया। सुधार की गरज तो सुधारक की अपनी होती हैं। जिस समाज मे वह सुधार कराना चाहता है, उससे तो उसे विरोध , तिरस्कार और प्राणों के संकट की भी आशा रखनी चाहिये। सुधारक जिस सुधार मानता है, समाज उसे बिगाड़ क्यो न माने ? अथवा बिगाड़ न भी माने तो भी उसके प्रति उदासीन क्यो न रहे ?

इस आन्दोलन का परिणाम यह हुआ कि भारतीय समाज मे घर-बार साफ रखने के महत्त्व को न्यूनाधिक मात्रा मे स्वीकार कर लिया गया। अधिकारियो की दृष्टि मे मेरी साख बढ़ी। वे समझ गये कि मेरा धन्धा केवल शिकायत माँगने का ही नही हैं , बल्कि शिकायते करने या अधिकार माँगने मे मै जितना तत्पर हूँ , उतना ही उत्साह और ढृढता भीतरी सुधार के लिए भी मुझ मे हैं।

पर अभी समाज की वृत्ति को दूसरी एक दिशा मे विकसित करना बाकी था। इन उपनिवेशवासी भारतीयो को भारतवर्ष के प्रति अपना धर्म भी अवसर आने पर समझना और पालना था। भारतवर्ष तो कंगाल हैं। लोग धन कमाने के लिए परदेश जाते हैं। उनकी कमाई का कुछ हिस्सा भारतवर्ष को उसकी आपत्ति के समय मिलना चाहिये। सन् 1817 मे यहाँ अकाल पडा था और सन् 1899 मे दूसरा भारी अकाल पड़ा। इन दोनो अकालो के समय दक्षिण अफ्रीका से अच्छी मदद आयी थी। पहले अकाल के समय जितनी रकम इकट्ठा हो सकी थी, दूसरे अकाल के मौके पर उससे कहीं अधिक रकम इकट्ठा हुई थी। इस चंदे में हमने अंग्रेजो से भी मदद माँगी थी और उनकी ओर से अच्छा उत्तर मिला। गिरमिटिया हिन्दुस्तानियो ने भी अपने हिस्से की रकम जमा करायी थी।

इस प्रकार इन दो अकालो के समय जो प्रथा शुरु हुई वह अब तक कायम है , औऱ हम देखते है कि जब भारतवर्ष मे कोई सार्वजनिक संकट उपस्थित होता हैं , तब दक्षिण अफ्रीका की ओर से वहाँ बसने वाले भारतीय हमेशा अच्छी रकमे भेजते हैं।

इस तरह दक्षिण अफ्रीका के भारतीयो की सेवा करते हुए मैं स्वयं धीरे-धीरे कई बाते अनायास ही सीख रहा था। सत्य एक विशाल वृक्ष है। ज्यो ज्यो उसकी सेवा की जाती हैं, त्यो-त्यो उसमे से अनेक फल पैदा होते दिखायी पड़ते हैं। उनका अन्त ही नही होता। हम जैसे-जैसे उसकी गहराई मे उतरते जाते हैं , वैसे-वैसे उसमे से अधिक रत्न मिलते जाते है , सेवा के अवसर प्राप्त होते रहते हैं।