सफेद गुलाब / राजा सिंह

Gadya Kosh से
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वह उद्दिग्न था, उलझन में था। अनिर्णय की स्थिति हॉंवी थी। उसकी यह स्थिति काफी दिनों से थी। रोज तैय्यारी करके आता था कि आज वह अपनी बात कह देगां, परन्तु उसके दिखते ही, सारा मन ही मन में किया अभ्यास रेत की तरह ढह जाता था और निर्णय कल के लिए टल जाता था।

अनजाने, अनचाहे वह उससे प्यार करने लगा था। निश्चय ही एक तरफा प्यार। उसे शायद पता ही नहीं था कि कोई उसे चाह रहा हैं। दिल ही दिल में किसी को बहुत प्यार करना नाकाफी हैं, समय-समय पर प्यार प्रदर्शन भी आवश्यक है। उसे कैसे पता चले कि कोई उसे बहुत चाहता है।

उसी ने उसकी ज्वाइनिंग की सारी औपचारिकताएँ पूरी करवाई थी। वह क्षेत्रीय प्रबन्धक मि0 सहाय की पी0ए0 थी, व्यक्तिगत सहायक थी, मिस मेहविश खान। वह रमन शुक्ला, सहायक प्रबन्धक के पद इस इंश्योरेंस कम्पनी में नियुक्ति हुआ था। मि0 सहाय के आदेश पर ही उसने उसका परिचय बाकी स्टाफ से करवायाँ था, उसका केबिन उसके चेम्बर के सामने ही पड़ता था, इसलिए अक्सर उसकी निगाह उसके ऊॅपर पड़ती रहती थी।

उससे उसका सबका काम ही पड़ता था। अनावश्यक वह बोल नहीं पाता था, इसलिए वह उससे परिचित नहीं हो पाया था। वह बहुत कम बोलती थी और इतना धीमे कि पास वाला व्यक्ति ही सुन पायें। शायद उसका किसी से भी परिचय नहीं था, या सबके लिए वह अजनबी थी। वह समय से 5 मिनट पहले आ जाती थी और नियत समय पर वह उठ कर चल देती थी। उसकी हाय! हेलो! भी शायद किसी से नहीं होती थी। वह अपने केबिन से उठकर सिर्फ़ सहाय साहब के पास ही जाती थी। आफिस के अन्य कर्मचारी भी उसके पास आते थे तो कुछेक मिनट ही रूकते थें।

रमन ने उसे कभी खुस नहीं देखा था। खामोशी उसका स्वभाव थी और उदासी उसका अस्तित्व। परन्तु वह दुखी नहीं लगती थी। शान्त एवं संयत नजर आती थी। हर समय व्यस्त, कम्प्यूटर, प्रिंटर, फैक्स या इन्टरकाम पर। की-बोर्ड पर उसकी अंगुलियॉं ऐसे चलती थी मानों पानी पर मछलियॉं तैर रहीं हो।

उसे वह सफेद गुलाब लगती थीं, जो खिलकर मुरझा रहा था या जो अभी ठीक से खिल ही ना पाया हो। जिसकी महक न हो अगर है भी तो अन्तरनिहित। किन्तु वह उदासी में भी खूबसूरत लगती थी। खामोशी, उदासी एवं खूबसूरती का संगम थी वह। उसका यह व्यक्तित्व ऐसे वातावरण, परिवेश का निर्माण करता था, जो उससे अनौपचारिक परिचय प्राप्त करने में अप्रासंगिक लगता था।

काफी दिनों से रमन महसूस कर रहा था कि उसकी खामोशी उसे खामोश रखती थी और उसकी उदासी उसे उदास कर रही थी। वह उसके प्रति काफी संवेदनशील हो गया था और भावुक भी। उसे लगता था कि वह अभिशप्त है, परन्तु उसके पास अभिव्यक्ति का संकट था।

'वैसे, एक बात पूछूं...' इफ यू डोंट माइण्ड? 'रमन ने हिचकिचाते हुये कहा...मैं आपसे शादी करना चाहता हॅू।' ...वह अचकचायी। यह बात उसके लिए अविश्वसनीय और अकल्पनीय थी और कुछ हद तक अप्रांसगिक भी।

'किन्तु... मुझे तो शादी ही नहीं करना है।' उसने मंतव्य जाहिर किया या दार्शिनिकता प्रदर्शित की परन्तु रूख दृढ़ था।

'क्यों?' उसे कोई हंगामा न होने से उत्साह मिला था। 'सोंच लो!' ...मेरा प्रस्ताव हरदम के लिए है...मैं इन्तजार करता रहॅूगां। उसने अपना निर्णय उस पर आयत कर दिया था। मिस खान ने कोई उत्तर नहीं दिया था, सिर्फ़ उसकी तरफ ताकती रह गयी थी, निर्लिप्त, निर्विकार। वह उसे कुछ वक्त परखता रहा था और निशब्द वापस लौट आया था, अपने चैम्बर में।

दो मिनट से भी कम समय का वाक्या था किसी को आभास नहीं हुआ था कि उन दोंनों के बीच इतना गम्भीर कुछ घटित हो चुका हैं। उसने किसी से जिक्र नहीं किया था और मिस खान का तो सवाल ही नहीं उठता था।

इस बात के भी तीन-चार महीने गुजर चुके थे परन्तु कोई सकारात्मक संकेत नहीं मिल रहे थे। ऊॅपरी तौर पर सब कुछ सामान्य-सा था। परन्तु शनैः-शनैः दुख, उदासी, खलिश बेचैनी और कुछ हद तक गम उसमें घर कर रहीं थीं। जब उसने प्रपोज करने की हिमाकत की थी तब वह आत्ममुग्धता के नशें में था या कुछ हद तक अहंकार में भी। अब उसका हर दिन एक युद्ध में परिवर्तित हो चुका था उसकी भावनाओं और वास्तविकताओं से।

मेहविश के भी शान्त, स्थिर एकाकी जीवन में भी कुछ हलचल हो रही थी, जो वाह्य रूप से प्रगट नहीं हो रही थी, परन्तु वह खुद महसूस कर रही थी। उसको यह बड़ा विस्मित करने वाला लगता था कि वे एक दूसरे को ठीक से जानते भी नहीं है और कोई ज़िन्दगी का ऐसा प्रस्ताव कैसे रख सकता है? कभी उन में खुल कर कोई भी, किसी तरह की बात नहीं हुई. न प्यार का इजहार, न पंसदगी की झलक। कोई ऐसे कैसे कर सकता है? यकायक। उसे यकीन नहीं आ रहा था कि ऐसा भी घटित हुआ है। उसके साथ ही ऐसा क्यों होता है? क्या इतिहास दोहराने जा रहा है। नहीं, वह घटनाओं की पुनरावृति नहीं होने देगीं। अपने ढंग से अपना जीवन जीने का साहस उसके अवचेतन में कहीं न कहंी मौजूद है, उसमें वह किसी को हस्तक्षेप नहीं करने देंगी। अपना स्वायन्त अस्तित्व बनायें रखना उसकी अब प्राथमिकता बन गयी थीं।

मनुष्य में अद्भुत क्षमतायें होती है, परन्तु फिर भी कई चीजें ऐसी हैं जो प्रयासों से नहीं मिल पाती हैं। उसने सहाय साहब से मिस खान का कान्टेक्ट नं0 मांगा, साहब ने मना कर दिया 'उसने किसी को भी देने को मना किया हैं। खुद क्यों नहीं उससे लेते?' इस संदर्भ में वह अपनी असफलता पहले ही भोग चुका था।

सुबह के नौ बजे थे और वह आफिस जानें की तैय्यारियों में व्यस्त था कि उसका मोबाइल बज उठा। मेहविश थी, 'सर! आज आफिस नहीं आ पाऊॅंगी कृपया सहाय साहब को बतला दीजियेगा, साहब का फोन नहीं उठ रहा है।' वह आश्चर्यमिश्रित खुशी में आ गया था, उसका नम्बर अनजाने में मिल गया था। वह प्रत्युत्तर में कुछ पूछता की सेल बंद हो गया था।

उसने कई बार सोचा कि सेल से बात की जाये, परन्तु यथोचित साहस एकत्र नहीं कर पाया। उसने मोबाइल पर एक-आध संदेश भी भेजे परन्तु कोई उत्तर प्राप्त नहीं हुआ। वह डर गया कि मिस खान उसे परेशान करने की शिकायत कहीं साहब से न कर दे? और वह हंसी का पात्र न बन जाये।

सहाय साहब दौरें पर गये थे तथा अन्य वरिष्ठ अधिकारी छुट्टी पर या क्लाइन्ट से व्यस्त थे। मिस खान को आज जल्दी घर जाना था। वह कशम-कश में थी, उससे कैसे कहे, कहीं वह अपना राग न छेड़ दे। अनुमति भी लेना था। वह अपने काम में व्यस्त था। वह नोटिश नहीं कर पाया कि मिस खान ने उसके चेम्बर में प्रवेश किया और अनुमति के लिए अनुरोध किया। वह उसे सीट आफर कर कुछ कहना चाहता था, परन्तु उसने इसका अवसर नहीं दिया और निकल गई, वह ठगा-सा रह गया था। एक मौका आकर निकल गया था।

उसका कम्पनी में एक साल पूरा हो गया था और उसने स्टाफ के लिए टी-पार्टी आयोजित की थी। मिस खान भी सम्मिलित हुई थीं और उसने उसे विश भी किया था। वह पहली बार किसी पार्टी में शामिल हुई थीं। वह लंच भी अकेले ही करती थी अपने केबिन में। वह शामिल तो हुई थी परन्तु उनका अंदाज वही चिर-परिचित था, मातमी। उसे लगा सफेद गुलाब खिलना चाहता है, परन्तु घनीभूत उदासी अपना वर्चस्व बनायें हुई थी। कुछ ऐसा भी नहीं हुआ था, जो आश्वस्ति भरा हो लेकिन उस वक्त उसने उसका कोई खास मतलब निकालने की कोशिश नहीं की थीं।

रमन के अन्दर एक अजीब व्याकुलता भर गयी थी, अकथ एवं अव्यक्त। उसके अन्दर एक जिद पनप रही थी, उस एकाकी, खामोश, उदासी से परिपूर्ण सफेद गुलाब को गुलाबी में बदलनें को आतुर और उसकी खुशबू जो कि अर्न्तनिहित थी उसे अपने अन्तःकरण में समोहित, व्याप्त कर लेने की जिद।

रविवार की शाम को मोल से सिनेमा देखकर वापस सेवेन्थ फ्लोर से उतर रहा था कि थर्ड फ्लोर पर उसने मिस खान का देखा। वह एकदम से उसके सामने आ गया था, वह अचकचायी और विस्मित हुयी। उसके साथ एक स्त्री और थी।

' अरे! आप यहॉं कहॉं? उसकी आंखों में एक चमक उभरी और विलीन हो गई. उसने अपने सिनेमा देखने के विषय में बताया और उसने बिग बाज़ार से खरीद-फरोक्त के विषय में। साथ वाली स्त्री उसकी मेड थी, विमला।

उसने साथ में एक चाय पीने का आफर किया, परन्तु वह मना करती रही। परन्तु वह लगातार आग्रह करता रहा था। वह अनमने ढं़ग से तैय्यार हो गयी थी और वहीं के कैफे की तरफ तीनों बढ़ रहे थे कि मेड ने टोका 'यहॉं कहॉं पैसे बरबाद करेगें, यहीं पास में घर है, वही चलते है, वहॉं बढ़िया चाय बनाकर पिलायेंगें, यहॉं तो ढंग की मिलती नहीं है।' ...'विमला... तुम भी...?' मिस खान उलझन में कसमसायी थी। वह तुरन्त सहमत हो गया 'यह तो अति उत्तम है।' इसी बहाने मिस खान का घर भी देख लेगें। ' ...वह तड़फी...मगर असहायता उस पर भारी पड़ी। ...वह शायद स्पष्ट मना नहीं कर पा रही थी। रमन के लिए यह अव्याशित और कल्पना से परे था।

मोल से निकलते ही, करीब सौ मीटर की दूरी पर ही उसका थ््राी रूम फ्लेट था। विमला चाय बनाने में व्यस्त हो गयी थी और मिस खान उसके पास वाले एकल सोफे पर बैठी थी। वह बेचैन थी और अपने हाथ मसल रही थी। बात-चीत का सिलसिला चल निकला था जो कि परिचात्मक था। उसने बताया कि वह यहॉं से 30-40 कि0मी0 की दूरी पर रहता है, एक सिंगल रूम फ्लेट पर शेयरिंग बेसिस पर। परन्तु उसका रूम अपने आफिस के काफी पास है। रमन मौका नहीं छोड़ना चाहता था और उसने अति आतुरता में अपना प्रस्ताव पुनः पेश कर दिया। ...

'मेहविश, क्या सोंचा है? मेरे प्रस्ताव के विषय में।'

'यह सम्भव नहीं है।'

'क्यों?'

'हम लोगों के धर्म अलग है, संस्कार अलग हैं।' हम लोगों के घर वाले राजी नहीं होंगें। ' वह उत्साहित हुआ था कि कम से कम किसी से भी शादी न करने की जड़ता तो टूटी.

'मैं, आपकी इच्छा पूॅंछ रहा हॅू। आपको क्या लगता है? क्या यह अवरोध है?' ...

...एक लम्बी चुप्पी और वह आन्तरिक विचार-विमर्श में लीन दिखी।

'क्या ऐसा नहीं हो रहा है, आजकल?' उसने अपने बात के समर्थन में फिर जोर कसा।

'आप मुझसे ही क्यों शादी करना चाहते है?' आपके लिए तो लड़कियांे की कमी नहीं होगी।

'क्योंकि मैं तुमसे प्यार करने लगा हॅू।'

'हम लोग कभी मिले नहीं, साथ उठे-बैठे नहीं, एक-दूसरे को जाना पहचाना नहीं और प्यार हो गया।'

'प्यार होंना होता है तो एक पल में हो जाता है, नहीं ंतो वर्षों के साथ रहने पर भी नहीं होता। किसी से प्यार होने की क्या समय-सीमा होती है?'

'किन्तु मुझे तो आपसे प्यार नहीं है।'

'करने लगोगी, शादी के बाद करने लगोगी। अरैंज मैरिज करने वाले क्या आपस में प्यार नहीं करते?' प्यार होना क्या शादी से पहले ही आवश्यक है?

'मिस्टर! आप मेरे अतीत के विषय में नहीं जानते।'

'जानना भी नहीं है। मुर्दा चीजों से मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है।'

'जिस दिन जान जाओगे, घृणा करने लगोगें और प्यार हवा हो जायेगा।'

'अतीत इतिहास की वस्तु है, उससे सीखकर भविष्य बेहतर बनाया जाता है। अतीत में रह कर मुर्दा नहीं बना जाता।'

'मिस्टर, तुम मुझसे पॉंच वर्ष छोटे हो।' उसने आखिरी और निर्याणक तीर छोड़ा था जिसके विषय में वह अनभिग्न था।

'तो क्या हुआ? इट्स डज नॉट मेक एनी डिफरेन्स। कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं तो राजी हॅू।'

एक मौन पसर गया था। जिरह थम गयी थी, परन्तु स्थिति अब भी अनुकूल नहीं लग रही थी। रमन के उत्तरों से वह निरूत्तर तो हो गयी थी परन्तु संतुष्ट अब भी नहीं लग रही थी। वह अपने आप को तैय्यार नहीं कर पा रही थी। वह असहज थी।

विमला ने चाय-स्नैक्स लाकर रख दिया था। उसने उसे भी साथ बैठने का ईशारा किया था। विमला एक स्टूल लाकर उसमें बैठ गयी थी, परन्तु उसने बात-चीत में कोई हस्तक्षेप नहीं किया था। सन्नाटा तीनों के बीच खिंचा था। सिर्फ़ चाय-स्नैक्स चल रहा था और वह वापस लौट आया था, परन्तु कुछ हद तक संतुष्ट था। एक तो उससे पहली लम्बी मुलाकात, साथ रहे, करीब रहे और उसने अपने प्रस्ताव को अच्छी तरह से डिफेन्ड किया था। वह आशावान था।

रमन चला आया था, उसे भावनाओं, इरादों, आकांक्षाओं के भवंर में झोंक कर। सात साल से उसके ऊपर शादी कर लेने का जोर चल रहा था और वह लगातार शादी के नाम से तौबा कर रही थी। अब्बू, अम्मी और भाई सभी थक चुके थे उसे मनाने में मनुहार करने में, पर वह अडिग थी। झकमार के उससे छोटे दो भाइयों एवं एक बहन की शादी कर दी गई थी। घर वालों को यकीन हो चला था कि मेहविश शादी नहीं करेगी। उसका भी अपने घर मुरादाबाद आना जाना करीब न के बराबर हो गया था। उसने अपने आप को सबसे अलग कर लिया था और एकाकी जीवन कों अंगीकार कर लिया था। अब्बू ने भी दिल्ली का यह फ्लेट जो उसके दहेज हेतु खरीदा था उसके नाम कर दिया था और अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली थी।

रमन के घर वाले भी जब से उसकी नौकरी लगी थी उसकी शादी कराने को प्रयासरत थे। वह ही घर में अनब्याहा बचा था। पहले वह भी तैयार था जिसे घर वाले पसन्द करेंगें वह उसी से शादी कर लेगा। परन्तु इस कम्पनी में ज्वाइन करते ही उसे मेहविश इस कदर भा गयी थी कि वह घर से आये सारे प्रस्तावों को किसी न किसी बहाने नकार दिया करता कि अभी शादी नहीं करनी हैं। अभी आगे और बढ़ना हैं। इतनी जल्दी नहीं। अभी रूक जाइयें। ...मेहविश को लेकर वह उससे रोमान्श के ताने-बाने बनाने लगा था। उसको लेकर मीठी कल्पनाओं और प्रत्याशाओं से भरपूर जीवन में जकड़ गया था और उस जकड़न से वह आजाद भी नहीं होना चाहता था। ये नहीं तो कोई नहीं को उसने अपना सिद्धान्त बना लिया था। मेहविश की उदासी, खामोशी, अकेलापन और उस पर उसकी खूबसूरती जबरदस्त प्रभाव उस पर डाल रहे थे और एक ऐसे प्रभामंडल का निर्माण कर रहे थे जो उद्भुद अकल्पनीय और आकर्षण था और वह उसी में मग्न था।

धीरे-धीरे एक-आध महीने और पास हो चुके थें और उनके बीच जड़ता की स्थिति कमोवेश जारी थी। रमन असंतुष्ट दिखने लगा था और मिस खान बेचैन। अब वह उस पर नजर नहीं रखता था सिर्फ़ उसकी उपस्थिति महसूसता था। वह उससे नजरें चुराता रहता था, जैसे उसने प्रस्ताव रख कर नालायकी की हो। किन्तु मेहविश अक्सर उसको तकती रहती थी चोर निगाहों से। वह क्या कर रहा है? उसे देख रहा है कि नहीं। उसकी आंखंे प्रतीक्षारत रहती थी, किसी संदेश के. कुछ खोजती रहती थी। एक हलचल-सी रहती थी जो उसके दिलों दिमाग से चलकर उसके आंखों में उतरती रहती थी। रमन नाखुश ज़रूर था परन्तु एक जिद उस पर तारी थी, उसे पाने की। फिर भी उदासीनता एवं निर्पेक्षता उसके भाव में उतर आयी थी कि ऐसे ही सही।

आफिस के बन्द होने का समय हो चुका था। अधिकॉंश स्टाफ जा चुका था। रमन ज़रूर कुछ बिजी था अपने सहायक मि0 जोशी के साथ। कुछ डिस्कशन चल रहा था दोंनों के बीच। ताज्जुब ये था मिस खान अभी तक नहीं गयी थी। उसे तो एक घन्टा पहले चला जाना चाहिए था। फिर आज क्यों रूकी है? वह कुछ काम भी करती प्रतीत नहीं हो रही थी, परन्तु व्यस्त होने का बहाना ज़रूर परिलक्षित हो रहा था। वह बेचैनी बेताबी से प्रतीक्षारत थी। किस बात पर? उनके चेहरे पर असमंजस्य की स्थिति विद्यमान थी। उनकी नजर बार-बार रमन के चेम्बर की तरफ जाती थी और मि0 जोशी को बैठा देखकर वापस लौट आती थी।

मि0 जोशी जा चुके थे और रमन भी अपना काम समेटने पर लग गया था। आदत के मुताबिक उसने सामने देखा तो दंग रह गया, मिस खान अपनी टेबुल की दराज बन्द कर के उसकी तरफ ही आ गयी थी। वह सब कुछ भूल गया था, वह वैसा ही रह गया। चित्रलिखित-सा हो गया। अभी तक मिस खान नहीं गई?

वह आयी और उसके सामने खड़ी हो गयी। वह असमंजस में थी।

'आप से बात करनी है।' रमन ने विस्मय से देखा और कुर्सी पर बैठने का ईशारा किया। वह थोड़ी देर तक वैसे ही बैठी रहीं। टेबुल की तरफ ताकती हुई शायद कुछ कहने के लिए साहस बटोरती हुयी या कहॉं से शुरू किया जाय, यह सोचती हुयी।

'आपने अपनी क्या हालत बना रखी है?' आपकी यह हालत मुझसे नहीं देखी जाती। '...वैसे ही मैं बहुत दुःखी हॅू। आपकी उदासी, मुझे परेशान किये हुये है। प्लीज अब और मुझे परेशान मत करो।'

'आप मेरी उदासी नहीं देख सकती और मैं आप की। हम दोनो मिल जाते है। हम दोनों की उदासी मिलकर प्रसन्नता में बदल जायेगी।'

'आप अपनी ये जिद छोड़ क्यों नहीं देते।'

'आपके दुख का कारण मैं हॅू यह सोेचकर मैं अपराध बोध से ग्रसित हॅू।'

'अब आपका साथ ही मुझे स्थायी खुशी दे सकता है।'

'ये आपका भ्रम है। मेरा साथ आपको दुख निराशा उदासी और पश्चाताप ही देगा।'

'मैं उसमें अपने लिए खुशी निकाल लूंगा और यकीनन आप को भी खुशी मिलेगी। ऐसा मेरा विश्वास है।'

'मैं तुम्हें न वर्तमान में सुख दे पाऊॅंगी ना ही भविष्य में।'

'भविष्य की मैं परवाह नहीं करता, मैं वर्तमान् में जीता हॅू और वर्तमान में तुम्ही मेरी खुशी हो।'

'मैं तो प्रसन्न होने से रही, ये मेरी किस्मत में नहंीं है। परन्तु मेरी वजह से आप प्रसन्न होगें, तो ठीक है, ऐसा ही सही।' और उसने हताशा में समर्पण कर दिया था।

...और उन दोनों ने कोर्ट में जाकर शादी कर ली थी। दोनों के घर वालों ने उनका बायकांट कर दिया था। दोनों के घर से रिसेप्शन में कोई नहीं आया था न ही कोई संदेश। रमन की विदा हुई थी मेहविश के घर। मेहविश के फ्लेट में सब कुछ था, सुख सुुविधा के सारे साधन, गृह गृहस्थी के सारे इन्तजाम। विमला सुबह-सायं दो टाइम आती थी और घर सफाई कपड़े धोने से लेकर खाना भी वही बनाती थी पहले की तरह। फ्लेट की सारी व्यवस्था मेहविश, विमला के सहयोग से कर लेती थी। रमन सारी जिम्मेदारियों से मुक्त था। यहॉ पर रमन पत्नी था और मेहविश पतिं। मेहविश का ट्रान्सफर भी मोल के पास स्थिति आफिस में कर दिया गया था, पति-पत्नी को एक ही जगह ना रखने की पालिसी के तहत। मेहविश, रमन से बाद में आफिस जाती थी और उससे पहले ही आ जाती थी।

काम और रहने का माहौल बदल गया था। दो अलग-अलग रहने वाले साथ रहने लगे थे, नहीं बदला था तो मानसिक परिवेश। रमन हर समय उसे रिझाने, प्रसन्न रखने में मशगूल हो गया था, किन्तु उसकी मनोदशा में कोई भी परिवर्तन परिलक्षित नहीं हो रहा था। वह अब भी उदास बुझी, सफेद गुलाब थी जो महकहीन थी। ऐसा लगता था वे दो अजनबी थे जिन्होने सहजीवन अपना रखा था या वह पेइंग गेस्ट था। या दोनों अलग-अलग ख्यालों के विभिन्न टापू थे जिन्हें बाहर की लहर ही कभी-कभी छूती थी। रमन खुश था उसने अभीष्ठ पाया था परन्तु उसे खुश करने के प्रयास में अपनी असफलता से चिंतित ज़रूर था।

वह ज्यादातर अपने कमरे में रहती थी। रमन अपने कमरे में कम, कभी उसके कमरे में कभी लाबी में और कभी बेडरूम मेें। वह हर समय उसे सम्मिलित करता रहता था हर अपनी गतिविधि में या उसकी गतिविधियों में शामिल होता हुआ। हर समय उसका अकेलापन दूर करने की कोशिश करता हुआ। वह कभी किसी बात के लिये मना नहीं किया करती थी, परन्तु उसकी प्रतिक्रिया इतनी ठंडी, उत्साहहीन और निशब्द होती थी, रमन का उत्साह बुझ जाता था। उसकी कोई इच्छा-अनिच्छा नहीं थी, कोई सुख-दुख नहीें था और कोई आशा-निराशा नहीं थी। एकदम निरपेक्ष, उदासीन अभिव्यक्ति थी वह। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि वह अपने पति के साथ रह रही है। रात के अंधेरे में भी उसकी प्रतिक्रिया निशब्द और स्पंदनहीन थी। उसे लगता था वह मृत शरीर से अनिसार कर रहा है, या रबड़ की गुड़िया से व्यभिचार और अन्त में उसे और उदास पाता था और अपने को और भी ज़्यादा असंतुष्ट।

हाँ, वाहय रूप में परिवर्तन परिलक्षित हुआ था। माथे पर एक छोटी बिन्दी गले में चेन और अंगुली में एक अंगुठी ज़रूर शोभायमान हो गयी थी जो उसकी खूबसूरती को और चमका रही थी। मेहविश उसको सुख देने को कृतसंकल्प दिख रही थी। वह उसके लिये निषेध से अनभिग्न थी। कोई सहमति असहमति नहीं थी। उसकी कोई मांग डिमान्ड, फरमाईश नहीं थी। सिर्फ़ उसे देना-देना और देना ही था। उसने रमन के नाम पर सारी जमा पूुजी और फ्लेट लिखवा दिया था। नहीं दिया था तो अपनी उदासी, एकाकीपन और अपना दुख।

क्या रमन की सोच पराजित हो रही थी? उसने सोचा था कि वह मेहविश से शादी करके उसे उदासी दुख और खामोशी से पूरी तरह निजात दिला देगा और बुझी काया को कांतिरूप देगा। क्या वह असफल हो रहा था? अक्सर वह सोच में पड़ जाता था कि उसने क्या ग़लत किया? उसकी उदासी, खामोशी का ईलाज शादी नहीं था? ऐसा कौंन-सा दुख गम चिंता या परेशानी है जो उसकर पीछा नहीं छोड़ रही है? उसके ऊपर अतीत की वह कौंन-सी काली छाया है जो उसके जिस्म से चिपकी है। वह कई प्रकार की दबावें बौर तनावों से भरता जा रहा था।

आज शादी की सालगिरह थी। यांत्रिक तरीके से एक-दूसरे को बधाई प्रेषित की गई थी। सब कुछ सामान्य था अन्य दिनों की तरह। परन्तु मेहविश कुछ व्यग्र थी, उसने ऐसा नोट किया।

एकदम डोर बेल बजी. उसने डोर खोला, 'हैपी मैरिज एनीर्वसरी, सर।' दो अनजान व्यक्तियों ने उसे विश किया। वह चकित हुआ, जब मेहविश ने उनके हाथ से गिफ्ट लेकर उसे दिया। लिखा था 'हैपी मैरिज एनीर्वसरी टू रमन फ्राम मेहविश।' वह कार की चाबी थी और वे व्यक्ति कार कम्पनी के थें। वह अदा से खड़ी थी और मुस्कराहट दबाने की कोशिश कर रही थी। उन लोगों ने बताया आज के दिन और इसी समय डिलीवरी का वादा मैडम ने कराया था। उसने आफिस से लोन लेकर कार गिफ्ट का इन्तजाम किया था। ये अभियान इतना गुप्त था कि रमन वास्तव में आश्चर्यचकित रह गया था। ं एक बार फिर उसने वर्षगांठ को बधाई दी और कहा 'आज आप आफिस कार से जायेंगे।' रमन ने कहा'वह जायेगा ही नहीं और ना ही तुम जाओगी, आज सेलिब्रेट करेंगे।' और उसे बांहों के घेरे में ले लिया थां। उसने धीरे से अपने को मुक्त किया, क्योंकि दोनों अजनबी एवं विमला देख रहे थे और मुस्करा रहे थे।

लकदक सफेद कार, उसे लगा कि उसने अपना प्रतिरूप ही भेंट किया हैं उस दिन लॉंग ड्राइव पर निकल गये और सिनेमा, देखा ओैर डिनर बाहर होटल में किया। वह बहुत प्रसन्न था, गिफ्ट की वजह से नहीं अपितु आज मेहविश उसे उदास नहीं दिखी थी और संतुष्ट भी। उसे लगा कि वह अपने प्रयास में सफल हुआ है, परन्तु खामोशी अब भी जारी थी। रमन भी अपना गिफ्ट पिछली रात ही ले आया था, परन्तु उसने पहल करके बाजी मार ली थी। उसने सोचा कि अब वह गिफ्ट तभी देगा, जब वह उम्मीद छोड़ देगी।

रात के ग्यारह पर वे लौटे थे। वे बेडरूम में आ गये थे, रमन ने बेड से गिफ्ट निकाला ज्वैलरी सेट था और उसे भेंट किया, बधाई सहित। उसने एक फीकी हंसी के साथ थैक्स कहा था, परन्तु उदासीनता प्रगट हो रही थी। 'क्या ज़रूरत थी?' मैं तो पहनती नहीं। पहले वाले को अभी तक पहना क्या? मैं तो ज्वैलरी पसंद ही नहीं करती। ' उसका मन बुझ गया था। फिर भी उसने अपने आप को तुरन्त सम्हाल लिया और कोई ऐसा भाव नहीं आने दिया कि उसकी उदासीन प्रतिक्रिया से वह किसी तरह आहत हुआ है।

दिन फिर वैसे ही चलने लगे थे, बिना किसी उमंग और उत्साह के. ढर्रे पर रूटीन हो गयी थीं। उसकी सोचं कि शनैंः शनैः वह उसे प्यार करने लगेगी संदिग्ध होता जा रहा था। उसे विश्वास होता जा रहा था कि उसने उससे शादी इसलिये की कि वह खुस रहे न कि अपनी खुशी के लिये। परन्तु वह सोचता है कि उसके प्रति प्रत्याशा उसके अपने प्रयास को निरूत्साहित भी कर सकती है, इसलिये उसे ऐसा नहीं करना चाहिये।

शादी हुये दो साल होने को आ रहे थे और रमन में एक अजीब-सी व्याकुलता व्याप्त थी। दोनों अजनबियों को परिचित कराने वाले किसी तीसरे के आने की कोई सम्भावना, चिंह संकेत प्रगट नहीं हो रहे थे। अधूरेपन के यथार्थ से वह भयभीत था।

उसने डाक्टर से डेट ली और उसे अपने साथ चेकअप के लिये क्लीनिक चलने को कहा।

'इसकी कोई ज़रूरत नहीं है।' उसने मना कर दिया। वह बेहद विचलित एवं अस्थिर हो गयी थी।

'चेकअप करवाने में हर्ज ही क्या हैै?' उसे ताज्जुब हुआ था। शादी के उपरान्त पहली बार उसने उसकी मना सुनी थी। रमन की आवाज तल्ख थी। वह भी विस्मित थी, उसने भी पहली बार रमन की आवाज तल्ख लगी थी।

'क्योंकि मुझे कारण पता है और जिसका निवारण नहीं है।' वह अशान्त दुखी और द्रवित थी, उसकी आवाज भर्रा रही थी।

'क्या कारण जानने का हक मुझे है?' उसने यथार्थ जानने की कोशिश की।

'यह कारण ही मेरे अतीत से सम्बन्धित है जिसे जानने के लिये पहले आप अनिच्छुक थे।' मैंने कहा था ना, मुझसे न वर्तमान में सुख मिलेगा न भविष्य में। ' उसकी आंखें भर आई थीं, किन्तु वह रूकी नहीं और अपने अभिशप्त जीवन के विषय मेें कहना जारी रखा था। ...

...वह एम0 ए0 फाइनल ईयर में थी, तभी अब्बू के पास उसके लिए उनकी फुफेरी बहन का प्रस्ताव आया था, अपने लड़के शाहिद के लिये। वह दुबई में इंजीनियर है। आजकल इसी सिलसिले में आया हुआ है। उसने अब्बू को मना किया था कि अभी वह पढ़ना चाहती है। परन्तु उन्होंने कहा था 'देख लो, समझ लो, पसंद कर लो।' निकाह पढ़ाई पूरी करने के बाद ही करेंगे। ज़्यादा से ज़्यादा अभी सगाई कर देंगे। ' उन्होने अपना निर्णय सुना दिया था।

...वह मिलने को राजी हो गयी। शाहिद काफी हैडसम और खूबसूरत लगा था और वह पहली ही नजर में मर मिटी थी। दोंनों ने एक-दूसरे को पसंद कर लिया था...और फिर साथ-साथ रहना घूमना-फिरना चालू हो गया था। ...पढ़ाई से ध्यान हट गया था ...रोमांस प्रारम्भ हो गया था... दुनियाँ रंगीन हो गई थी...और वे दोंनो काफी करीब आ गये थे...इतने करीब की सारी हदें पार कर गये थे... दोंनों की सगाई कर दी गई थी ...एक माह तक दोंनों का साथ रहा था। शाहिद लौट गया था। अब की बार जब दुबई से आयेगा तब निकाह कर दिया जायेगा। ऐसा तय किया गया। तब तक उसका एम0 ए0 भी कम्पलीट हो जायेगा। ... सब कुछ खुसी-खुसी था...वह प्रसन्न्ता के उच्चतम् शिखर पर थी। उसको अप्रत्याशित मानसिक चैन और शारीरिक सुख मिला था। ...

...तय अन्तराल पर शाहिद नहीं आ रहा था। तीन-चार माह व्यतीत हो चुके थे...उससे कोई सम्बन्ध नहीं स्थापित हो पा रहा था...उसकी अम्मी भी कुछ बता नहीं पा रही थीं। मोबाइल स्वीच ऑफ जा रहा था। पत्रों के उत्तर प्राप्त नहीं हो रहे थे। अब्बू बेचैन और खीज रहे थे। कई बार वह जाहिदा फूफी के पास हो आते थ, े शाहिद के विषय में जानकारी प्राप्त करने। परन्तु सब-कुछ अंधेरे में था। ...शाहिद के आने का इन्तजार लम्बा होता जा रहा था। ...


...अव्यक्त और अनचाही संजीदगी मेहविश पर पसर गयी थी और उस पर मातमी माहौल छाने लगा था...इधर उसका आकार भी बढ़ने लगा था...उसके भीतर अहंम परिर्वतन होने लगे थे। वह व्यथित और गमसुम हो गयी थी उसने अम्मी से आंशका व्यक्त कर दी ...अब्बू दुबई निकल पड़े थे, शाहिद की पड़ताल करने। वहॉं जाकर पता चला कि शाहिद इंजीनियर नहीं एक दुकान में टेलर हैं...और उसकी शादी भी उसी दुकान मालिक की लड़की से हो चुकी हैे। अब्बू मातम मनाते लौट आये थें और आकर फूफी पर बरसे थें परन्तु फूफी ने अनभिगता व्यक्त कर दी थी...वह नफरत, द्वेश, भय और गम में घिर कर अंधेरे में खो गई थी...दर्द की...बेइन्तहा ...बेहोशी का दौरा ...और उससे अन्तरनिष्ठ जीवन छीन लिया गया...उसे कोख की भी आहूति देनी पड़ी थी...और भविष्य की सारी सम्भावनाएँ भी समाप्त हो गयी थी।

...उसकी दुनिया उजड़ गई थी। उसकी आत्मा और जिस्म दोनों छिल गये थे। उस पर ममन्तिक मानसिक और शारीरिक क्षति पहुॅंची थी। किन्तु आश्चर्यजनक रूप से सारा दोष उसी पर डाल दिया गया कि वह अपने सम्मान की रक्षा करने में असमर्थ रही थी। उसके अस्तित्व एवं अस्मिता पर गहरे-गहरे घॉव हो गये थे। उसे प्रेम-प्यार, इश्क आदि लफ्जों से नफरत हो गई थी। शादी उसके लिए एक दुःस्वप्न थी। दुख उदासी खामोशी और एकाकीपन उसके हमसफर हो गये थे। कोई भी सुख उसे आकर्षित नहीं कर पाता था। ...वह बिसुरने लगी थी और फिर फूट-फूट कर रोने लगी थी। आंसुओं की अनवरत श्रंखला जारी थी। उसने इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं किया और उसे पूरी तरह खाली हो जाने दिया। गम और गुबार निकल गये थे और अस्तित्व में छाया बोझ ढ़ह गया था। उसके सारे आंसू समाप्त हो गये थे और चेहरा धुला-धुला-सा लग रहा था। एक मासुमियत उसके चेहरे पर छा गई थी। अब उसने उसके चेहरे को अपनी हथेली पर लेकर चूंमा और गले लगाकर, पीठ पर थपथपाकर आश्वस्त किया और उस सदाशयता का परिचय दिया जिसकी अभिव्यक्ति विरल थी। उसका स्पर्श और प्यार से उत्पन्न पुलक अब उसकी आंखों में छा गई थी।

रमन के रूप में पुरूष का स्थाई संरक्षण पाकर वह संतुष्ट थी। उस पर उदासी छट गई थी। खामोशी खरामा-खरामा कम हो रही थी। और एकाकीपन से वह पूरी तरह निजात पा चुकी थी। उसे लगा कि वह उसे प्यार करने लगी है, ऐसा उसकी हरकतों से परिलक्षित होने लगा था।

शादी की दूसरी वर्षगॉंठ आने में चन्द शेष रह गये थें। अब की बार वह प्रथम आने की फिराक में जुट गया था। वह कुछ ऐसी भेंट देना चाहता था जो कि अनमोल, अनुपम और अतुलनीय हो और उसकी कल्पना से परे हो, जो उसे पूर्ण रूप से खिला सकें।

उस दिन, उस विशेष दिन वह घर से जल्दी निकल गया। जब विमला निकली थी, उसी समय। उसने उसे कुछ नहीं बताया। वह सोचती रह गई थी। वह कहॉं गया होगा। अवश्य ही कोई गिफ्ट लेने। उसने अबकी बार कोई गिफ्ट न देने को निर्णय किया था। उसने सोचा था आज वह सर्वःस्य देगी, अपनी अस्मिता और अस्तित्व। वह पूर्ण रूप से समर्पित होगी मन, वचन और कर्म से। आज के दिन पूर्णरूप से उसके साथ होगी।

काल-बेल बजी, वह दौड़ कर दरवाजा खोलने पहुॅंची। देखा रमन अकेला था बिना किसी सामान के. उसे तनिक निराशा हुयी। वह पलटकर चल दी और रमन पीछे था। उसने कुछ कहा भी नहीं। वह फिर पलटी बिना किसी प्रत्याशा से, तो देखा रमन के हाथ में कुछ था, पीछे विमला थी। उसे विमला का इस समय आना कुछ अचरज भरा लगा। उसने मेहविश की गोद में वह गिफ्ट डाल दी। वह आश्चर्यचकित, विस्मित और हतप्रभ रह गई. उसकी गोद में आठ-नौ माह का एक बच्चा था, जिसने गोद में आते ही आंखे खोलकर टुकुर-टुकुर उसे देखने लगा था। प्यारा-सा बच्चा, वह खुशी से पागल हो गई. उसने बच्चे को अगिनत बार चूमा और फिर वह रमन से लिपटकर उस पर चुम्बनों की बरसात कर दी। उसे विमला की उपस्थिति का भी ख्याल ना रहा। उसकी आंखों में खुसी के आंसु थे। उसके अंग-प्रत्यंग से खुसी टपक रही थी। सफेद गुलाब पूरी तरह से गुलाबी हो चुका था और उसकी खुसबू फैलने लगी थी अब फूल पूरी तरह से खिल चुका था।