सफेद चादर / अनिल प्रभा कुमार
"बस, अब यह पाइन-ब्रुक वाला रास्ता ले लीजिए. ट्रैफिक-लाइट पर बाएँ, अगली ट्रैफिक-लाइट पर दाएँ, और इसी सड़क पर सीधे चलते जाओ जब तक कि।"
उनकी व्यस्तता देख कर वह रास्ता बताते-बताते रुक गई. वह बड़ी एकाग्रता से स्टियरिंग सँभाले थे। यूँ तो वह अब स्थानीय सड़क पर ही थे और वक्त था दोपहर दो बजे का। ट्रैफिक ज़्यादा ही लगता था और वह भी तेज गति से चलता हुआ। लेन एक ही थी और वह भी तंग सी. विपरीत दिशा से भी उतनी ही तेजी से कारें, ट्रक सभी सिर पर चढ़े आते लग रहे थे। गाड़ी चलाने में ध्यान केंद्रित करने की ज़रूरत थी।
अचानक, एक हिरण विपरीत दिशा से आते एक छोटे ट्रक से टकराया। एक भारी भूरी गेंद की तरह उछला। ठीक उनकी कार के दाएँ बंपर से दोबारा टकराया और फिर घास की पट्टी पर गिर पड़ा। हवा में उठी उसकी टाँगों में कंपन हुआ और वह सड़क किनारे लगी घास और झाड़ियों के बीच लुढ़क गया।
वह कार में आगे दाई ओर पैसेंजर सीट पर ही बैठी थी। हिरण ठीक उसके आगे ही गिरा था। सब कुछ इतना अचानक हुआ कि उसकी चीख थरथरा कर, काँपती-सी आवाज में फिसल गई. ब्रेक लगाने का अवसर ही नहीं मिला। उसने डरते हुए साइड मिरर से देखा। हिरण में कोई गति नहीं हो रही थी। खून भी उसे कहीं नहीं दिखा। उसने गहरी साँस ली। मन ही मन प्रार्थना की, प्लीज प्रभु, यह अब तड़पे नहीं।
जरा-सा आगे चलकर, खुली जगह देख उन्होंने कार अंदर मोड़ कर रोक ली। वह वहीं अंदर बैठी रही। वह कार का निरीक्षण करने लगे। नंबर-प्लेट का दाईं ओर का हिस्सा धक्के से अंदर धँस गया और हेड-लाइट में दरार पड़ गई थी। सफेद-सलेटी कार पर हिरण के भूरे-पीले बालों की परत चिपक गई. वह उँगली से छू कर कुछ देखने लगे तो वह चिल्लाई,
"छूना मत"।
उन्होंने माथे पर त्यौरियाँ डाल कर उसकी तरफ सिर्फ देखा, कहा कुछ नहीं।
वह झेंप गई शायद आवाज ज़्यादा ही ऊँची निकल गई थी।
"वोह, वोह, मेरा मतलब था कि जंगली हिरण के शरीर में 'टिक्स' होते हैं न। भयानक लाइम की बीमारी हो सकती है उससे"।
वह कार के सामने झुक कर मुआयना करने लगे, नुक्सान का अंदाजा लगाने के लिए. वह शायद किसी के घर का ड्राइव-वे था। तीन लोग बाहर निकल आए. उनके तेवरों से वे समझ गए कि उन्हें इस तरह उनके कार रोके जाने पर आपत्ति थी।
"हमारी कार से अभी-अभी एक हिरण टकरा गया है, इसलिए ज़रा रुक कर देख रहे हैं। बस, चलते हैं।" उन्होंने माफी-सी माँगते हुए अँग्रेजी में कहा।
दोबारा कार में बैठते ही उन्होंने एक सवाल यूँ ही उछाला - "क्या तुम सोचती हो कि हमें पुलिस को सूचना दे देनी चाहिए?"
"मालूम नहीं।"
"किसी आदमी को चोट लग जाए तो सूचना न देना अपराध है।"
"यहाँ सड़कों पर इतने जानवर मरे हुए पाए जाते हैं, तुम समझते हो कि इन सबकी रिपोर्ट होती होगी?"
"नहीं।"
पहली बार इस नई जगह पर आए थे और देरी होने के विचार से थोड़ा तनाव बढ़ रहा था। वह सड़क पर डॉक्टर 'ली' के नाम का बोर्ड ढूँढ़ने लगे। उसके कंधे में बहुत दिनों से दर्द चल रहा था। दवा तेज थी और कोई खास फायदा भी नहीं हुआ। थेरेपी भी करवा कर देख ली। बस आराम आ ही नहीं रहा था। कुछ मित्रो ने सुझाव दिया - डॉक्टर ली का। चीनी आदमी है, नया-नया अमरीका में आया है। अँग्रेजी नहीं बोल पाता पर पुरानी चीनी विद्या 'टुइना थेरेपी' से मालिश करता है। ऊर्जा के प्रवाह को नियमित कर, ज्यादातर बीमारियाँ ठीक कर देता है। आज वही तीन बजे डॉक्टर ली से मिलना था।
मेज पर पेट के बल लेट कर चेहरा उसने एक बड़े से गोल छेद के ऊपर रख लिया - साँस लेने के लिए.
पाप हो गया, हत्या हो गई. हिरण को भी एक बार ट्रक से टकरा कर फिर दूसरी बार उन्हीं की कार से टकराना था क्या? ठीक उसी के चेहरे के सामने।
'रिलेक्स' डॉक्टर ली को इतनी अँग्रेजी आती लगती थी।
वह उसके कंधे पर मालिश कर के गाँठें ढूँढ़ने लगा। एक जगह उसने गाँठ पकड़ ली। अँगूठे और हथेली के पूरे दबाव से मसल दिया।
वह दर्द से बिलबिलाई.
'ओल्ड' डॉक्टर ली ने सफाई दी।
पास में उसके पति बैठे थे, चुपचाप देखते हुए, कुछ और ही सोचते हुए.
"तुम्हारी पुरानी सोचने की आदत ने जो गाँठें डाल दी हैं, उनको सुलझाने की कोशिश कर रहा है।"
"यह कोई मजाक नहीं", वह फिर दर्द से हिली।
डॉक्टर ली ने शायद अपना पूरा वजन ही अपने हाथों पर डाल कर उसके कंधों को दबा दिया।
अगर हिरण बंपर से न टकरा कर उनके हुड पर ही गिरता तो? अगर उसी के उपर आकर हिरण गिर जाता तो? कितना वजन होगा?
बोझ से उसकी साँस घुटने लगी।
डॉक्टर ली ने उसकी पीठ थपथपाई और कहा 'ओ. के.'।
उसके पति से बोला - 'शी नो रिलेक्स'
'आई नो', जवाब सुनकर भी वह पहली बार नहीं चिढ़ी।
वापिसी में उन्होंने पूछा - "कैसी रही मालिश?"
"बदन तो कुछ हल्का हो गया है, पर।" उसने जानबूझ कर वाक्य अधूरा छोड़ दिया।
"शुक्र करो कि कुछ नहीं हुआ।"
"कुछ नहीं हुआ?"
"मतलब बच गए."
"कहाँ बच पाया?"
"जानती हो अगर हिरण विंड-शील्ड पर पड़ता और वह टूट कर हमारे ऊपर पड़ती तो इस वक्त हम अस्पताल में होते!"
"हमें शायद हिरण को भी अस्पताल ले जाना चाहिए था।"
"तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है।"
"दिन-दहाड़े, इतनी दौड़ती सड़क पर वह तीर की तरह छूट कर क्यों आया होगा?"
"क्योंकि हिरण बेवकूफ होते हैं।" वह खीझ रहे थे।
शायद भूखा होगा, उसने सोचा।
"नई गाड़ी है, अभी पिछले साल ही तो ली है। एक्सिडेंट हो गया। नुक्सान तो हुआ ही है न? पता नहीं इंश्योरेंस कंपनी कितना भरपाया करती है और कितना अपनी जेब से देना पड़ेगा? ब्रेक तक लगाने का मौका नहीं था। बेवकूफ कहीं का।"
उसे लगा कि सोच के साथ-साथ अब उनकी खीज भी बढ़ रही थी। भूख भी तो लगी होगी, उसे ध्यान आया। मालिश करवानी थी न, एक गिलास 'समूदी' पी कर ही चली थी वह।
"मुझे नहीं पीनी यह फलों वाली लस्सी", कह कर उन्होंने तो वह भी नहीं ली थी।
"चिंता मत करो। घर पहुँचकर पहले खाना खाते हैं, फिर सोचेंगे कि आगे क्या करना है?" उसने सुझाव दिया।
"नहीं, पहले ऑटो बॉडी-शॉप चलकर कार दिखानी होगी। क्या पता कार इस हालत में चलानी भी चाहिए या नहीं?"
"आप मुझे फिर से टेंशन दे रहे हैं, सारी की कराई मालिश का असर हवा हो गया।" वह वाकई तनाव-ग्रस्त होती जा रही थी।
"कुछ सुनाई देता है, ज़रा ध्यान से सुनो।" वह भी तनाव में थे।
कार जहाँ भी लालबत्ती पर रुक कर फिर चलती तो खटाक की आवाज होती, ठीक उसके नीचे वाले पहिए की तरफ।
"अच्छा चलो, पहले बॉडी-शॉप ही चलो।" वह चुप करके बैठ गई.
बॉडी-शॉप वाले ने घूम-फिर कर हुड खोला। ऊपर-नीचे झाँककर, अच्छी तरह से मुआयना किया।
"यह लोग करेंगे क्या?" उसने पति से अपनी भाषा में पूछा।
"नुक्सान हुए हिस्से को फेंक देंगे। नया हिस्सा मँगवा कर लगा देंगे। पता ही नहीं लगेगा कि कभी कुछ हुआ भी था।"
पति उस आदमी के साथ अंदर दफ्तर में लिखत-पढ़त करने चले गए.
वह खिड़की नीचे करके वहीं बैठी रही। उस बुझे से दफ्तर के बाई ओर टायरों का ढेर लगा था और दाई ओर कारों के टूटे, जले या जंग खाए, मुड़े-तुड़े हिस्से थे - कोई दरवाजा कोई हुड या कोई बंपर बड़ी बेतरतीबी से फेंके गए थे। पता नहीं कहाँ से दिमाग में एक ख्याल आया, भगवान राम जब दंडक-वन से गुजर रहे होंगे तो यूँ ही राक्षसों द्वारा मारे गए ऋषि-मुनियों के अस्थि-समूह के ढेर देखे होंगे। उसने मुँह फेर लिया।
अब उस आदमी ने उसकी खिड़की के नीचे झुक कर लोहे का कोई पुर्जा बाहर घसीटा और उसके पति के हाथ में पकड़ा दिया।
"धक्के से अलग हो गया था, यही आवाज कर रहा था। वैसे गाड़ी घर ले जा सकते हो।"
पति के माथे पर गहरे बल थे। फिर से बैठे और कार चला दी।
"क्या कहता है?" उसने कोमलता से पूछा।
"अभी तो यूँ ही अंदाज से खर्चा बताया है, दो हजार डॉलर्स का।"
"दो हजार डॉलर्स इस्स के?" उसने अविश्वास से कहा।"
"घर चलकर इंश्योरेंस कंपनी को फोन करता हूँ। देखो? 'कोलिजन' तो सिर्फ हजार डॉलर्स का ही है बाकी हजार जेब से देना पड़ेगा। ऊपर से बीमे की दर पता नहीं कितनी और बढ़ जाएगी? बैठे-बिठाए चूना लग गया।" वह अभी भी उधेड़-बुन में लगे थे।
गाड़ी गैराज के अंदर ले जा रहे थे तो उसने टोका, "गाड़ी बाहर ही रहने दो, आज अंदर मत ले जाना।"
"क्यों?" वह असमंजस में थे।
"बस कहा न।" गाड़ी रुकते ही वह घर के अंदर भागी। जल्दी से नहाकर, कपड़े बदल नीचे आई.
वह भोजन की प्रतीक्षा में मेज पर बैठे थे, कागज के आँकड़ों में उलझे हुए.
"आप भी जल्दी से नहा लीजिए."
"इस वक्त?"
"वह हिरण मर गया है न।" उसने धीमी आवाज में आँखें नीची करते हुए कहा।
"मैंने मुँह-हाथ धो लिया है। खाना देना हो तो दो।" लगा उन्हें गुस्सा आना शुरू हो गया था। उसने चुपचाप कल का बचा खाना माइक्रोवेव में गरम करके रख दिया। पीटा-ब्रैड टोस्टर-अवन में डाल कर वह जल्दी से ऊपर आ गई. मंदिर में जोत जला दी - "प्रभु, उस हिरण की आत्मा को शांति देना।"
वह फोन पर व्यस्त थे। बात करते हुए सब सूचनाएँ नोट करते जाते थे। फिर दूसरा और फिर तीसरा फोन।
आखिर वह कलांतर से आकर उसके पास बैठ गए. उसे उन पर करुणा-सी आई. सारे झंझटों से निपटना तो मर्दों को ही होता है न।
"चाय बनाऊँ?" उसने उनका चेहरा पढ़ते हुए पूछा।
उन्होंने हामी में सिर हिलाया।
वह हिरण भी शायद कुछ न मिलने पर, जंगल के इस पार जान की जोखिम उठाकर, आबादी में घुसने निकल पड़ा होगा। नहीं तो हिरणों का झुंड रात को ही कुछ खाने को निकलता है। खबरों में था कि न्यू-जर्सी में हिरणों की आबादी बहुत बढ़ गई है। तो? आबादी बढ़ जाएँ तो क्या जान की कीमत कम हो जाती है?
वह बैठ गई. किसे झुठला रही है? यहाँ एक भी आदमी मर जाए तो कितना हल्ला होता है और वहाँ बाकी दुनिया में रोज कितने लोग मरते हैं? आँकड़े, नंबर्स बस! जिसका वह एक नंबर होता है, कभी उसकी देह में जीकर तो देखों।
पता नहीं क्यों वह उखड़ती जा रही थी।
"तुम जानना चाहती हो कि मेरी इंश्योरेंस वालों से क्या बात हुई?"
वह सुनने के लिए बैठ गई.
"किस्मत से यह दुर्घटना 'कोलिजन' की श्रेणी में नहीं आती क्योंकि इसमें किसी की गलती नहीं थी। 'कॉम्प्रिहेंसिव' में आती है। जिसमें तुम्हारी गलती न हो, फिर भी नुक्सान हो जाए."
"तो?"
"तो इंश्योरेंस की दर नहीं बढ़ेगी। एक हजार डॉलर्स हमें अपनी जेब से देने पड़ेंगे बाकी की रकम हमारी इंश्योरेंस भर देगी।"
"हिरण का क्या होगा?" वह पूछ नहीं पाई.
"ऑटो बॉडी-शॉप वाले से भी बात कर ली है। कल तुम्हें जल्दी उठकर मेरे साथ चलना होगा। मेरी गाड़ी ठीक होने के लिए छोड़ आएँगे और वापिसी में तुम्हारी गाड़ी में दोनों लौट आएँगे।"
"अच्छा।" कह कर वह उठ गई.
सिर में दर्द तेज होता गया, जी मतलाने लगा। पहले भी एक बार उसने हाइवे पर किसी जीप के आगे बँधे मृत हिरण को देखा था। कोई निर्दोष जानवर का शिकार कर, तगमे की तरह उसे अपनी जीप के आगे बाँध, सारी दुनिया कि दिखाते हुए भागा जा रहा था। एक झलक ही मिली थी उसे, हिरण की लटकी हुई गर्दन की। हिरण उसकी चेतना पर टँगा रह गया। और आज यह सब कुछ अनजाने में ही हो गया।
वह अभी तक कुछ-कुछ सकते में थी। एकदम अचानक, इतने अचानक? क्या ऐसे ही होता है सब कुछ? ऐसे ही एक क्षण कोई दौड़ता हुआ प्राणी और दूसरे ही पल किनारे पड़ी लाश!
ऐसे ही क्या मुकेश भी दौड़ कर सड़क पार करने लगा होगा, तेज आती बस ने उसे ऊपर उठा कर, नीचे पटका होगा और फिर।
वह घबरा कर खड़ी हो गई. ढेर सारे पानी के साथ टॉयनाल की दो गोलियाँ निगल लीं। उसे कुछ नहीं सोचना है इस बारे में। यह बात तो उसने चेतना के बहुत गहरे गर्त में धकेल दी थी। आज उभर कैसे आई.
हिरण की आँखें नहीं दिखी। मुकेश की आँखों जैसी गहरी काली होंगी?
"सिर कुचल गया था।" बड़ी भाभी ने बताया।
"नहीं जानना है उसे।" वह चीख कर बाहर भागी थी।
"कोई उससे मुकेश की मौत के बारे में बात न करे।" पति ने उसके दिल्ली पहुँचने से पहले ही उसके घर-वालों को आगाह कर दिया था।
उस दिन भी तो वह सो ही रही थी। पति उसके सिरहाने आकर बैठ गए. अभी जागती दुनिया में लौटी नहीं थी।
"मुकेश की मौत हो गई है।"
वह उठ कर बिस्तर पर बैठ गई. उसके, उससे भी छोटे भाई की अचानक? जैसे वह उनकी बात का मतलब समझने की कोशिश कर रही हो।
"एक्सिडेंट" उन्होंने कहा।
वह सुन्न-सी बैठी रही। माँ तो नहीं रहीं, पर बाबूजी?
"मैं दिल्ली जाऊँगी।" उसने उठने की कोशिश की।
"क्या करोगी जाकर? अब तक तो उसकी बॉडी भी..." उसने पति के मुँह पर कसकर हाथ रख दिया।
"मत कहो मेरे भाई को बॉडी." लगा जैसे खून का हर कतरा चीखें मारने लगा। फूट-फूट कर रो पड़ी।
फिर शांत हो गई. पेट में बहुत जोर से ऐंठन होने लगी। फिर सिर में भयानक दर्द। दर्द असहनीय था।
अस्पताल में दर्द को कम करने वाला इंजेक्शन दिया गया। ऐसा सदमे से हो जाता है। इस बारे में कोई ज़्यादा बात न करे।
वह खुद भी बात नहीं करती। शरीर की भयानक पीड़ा उसे मानसिक पीड़ा से बरगला कर दूसरी ओर ले गई थी।
वह उखड़ी-उखड़ी-सी रात के खाने की तैयारी करने लगी। सब्जी काटते हुए पूछा - "हिरण शाकाहारी होते हैं न?"
"तुम अभी तक उसके बारे में सोच रही हो?"
"आप क्या सोच रहे हैं?"
"शुक्र कर रहा हूँ कि इंश्योरेंस की दर नहीं बढ़ेगी। यह जो एक हजार की चोट लगी है, इसकी छुट्टियाँ मना सकते थे।"
उसने उन्हें कातरता से देखा। कुछ भी कह नहीं पाई. बस, जैसे सब संतुलन गड़बड़ा गया हो।
उन्हें खाना खिला कर वह सोने चल दी। थक गई है।
करवटें बदलती रही। मन इतना अशांत क्यूँ? आँखें बंद कर मंत्र बुदबुदाती है। ध्यान कहीं नहीं लगता।
एक धुंध में लिपटी सड़क है। दिल्ली वाले उसके घर के सामने वाली। हल्का-सा अँधेरा है और सड़क सुनसान। अचानक जैसे किसी के इशारे पर दोनों ओर की सड़कों पर कारों, स्कूटरों और बसों का भारी रेला दौड़ने लगता है। दोनों सड़कों के बीच एक छोटी-सी पटरी है और उसी पटरी पर ट्रैफिक सिगनल। एक बस तेजी से दौड़ती हुई आती है। तरकश से छूटे तीर की तरह मुकेश उससे टकराता है। उसका शरीर थोड़ा-सा हवा में ऊपर उछलता है और फिर बस के पहियों के नीचे।
बाबूजी दूर अपने घर की बाल्कनी पर खड़े होकर देख रहे हैं। लोगों की भीड़, शोर, पुलिस की सीटियाँ, सड़क पर खून ही खून।
एक बूढ़ा बाप देख रहा है पुलिस वालों ने उसके जवान बेटे पर सफेद चादर ओढ़ा दी।
ड्रॉइवर दिन-दहाड़े शराब पीकर गाड़ी चला रहा था। लाल बत्ती भी फुर्ती से पार कर गया।
"उसने जान-बूझ कर चलती बस के आगे कूद-कर आत्महत्या की होगी।" फिर से सफेद चादर ओढ़ा दी गई.
सफेद चादर ने उसकी जवान पत्नी और दोनों बच्चों को भी ढक दिया। चादर फैलती जा रही थी। कुछ नहीं दिखता। चारो तरफ अँधेरा ही अँधेरा। सारे शहर की बत्तियाँ गुल हो गईं। सब जगह बस धुआँ ही धुआँ। उसकी साँस घुटने लगी।
उसने घबरा कर आँखें खोल दीं। साँस धौंकनी की तरह चल रही थी। एयर-कंडिशंड कमरे में पंखा भी चल रहा था। इसके बावजूद बदन पसीने से भीग गया।
वह उठ कर बैठ गई, बैठी रही। यह चेतना के गहरे गड्ढे में दफन किया हुआ सच, सपने में कैसे उतर आया?
पति दरवाजे पर आकर खड़े हो गए.
"जल्दी से तैयार होकर नीचे आ जाओ. गाड़ी छोड़ने में देर हो रही है।"
उसने मुँह-हाथ धोया। नीली जींस के ऊपर सफेद टी-शर्ट पहन ली। बाल कस कर पॉनी-टेल में बाँधे।
उसके बेरंगत चेहरे को देखकर वह चौंके. लगा जैसे वह किसी शव-यात्रा पर जाने के लिए तैयार होकर आई हो।
"तुम ठीक हो न?" उन्होंने उसके कंधे पर हाथ रख दिए.
"हिरण के ऊपर सफेद चादर डाल देनी चाहिए थी।"
वह झुँझला कर कुछ कहने ही वाले थे पर उसका चेहरा देख कर चुप कर गए।