सफेद परी / राजा सिंह

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मैं एक घटना का साक्षी हॅू वह घटना विगत काफी वर्षों से मेरे भीतर आत्मसात् है। वह मुझे गाहे-बगाहे बेचैन और एक हद तक विक्षिप्त किये है, उसे गरल की तरह कंठ से नीचे उतार नहीं पा रहा हॅू। मेरे भीतर पच नहीं पा रही है। मैं उसे उंगलना चाहता हॅू वरना मेरा दिमाग फट जायेगा और मानवता की अप्रतिम मिसाल मेरे साथ ही दफ़न हो जायेगी।

...हॉंलाकि यह वादाखिलाफी है अपने आप से और उस हस्ती से जिसके मौन अनुरोध के कारण स्मृति के कपाटों को जाने कब से बंद कर रखा है। सीने में दफन राज घटित-अघटित के चक्रव्यूह में फंसे हुये बाहर निकलने के लिये अकुला रहे है। मुझे परकाया प्रवेश करना है तद्नरूप कुछ उद्घटित कर पाऊॅगा।

आज शुक्रवार है। कल कामेश को घर जाना है। छुट्टी के लिये साहब से आज ही कहना पड़ेगा, वरना वह जा नहीं पायेगा। घर एक-डेढ़ महीने में ना जा पाये तो वह बेचैन होने लगता है। वह घर पिस्सू है। वह पहली बार घर से बाहर निकला था। उसने बड़ी कोशिश की थी कि उसकी नौकरी उसके अपने शहर में लग जाये, परन्तु ऐसा न हो सका। इसके लिये उसने कई अच्छी-अच्छी नौकरियाँ छोड़ दी। परन्तु जब वह नौकरी पाने की उम्र की अंतिम सीमा पर आ गया तो मजबूरन उसे यह नौकरी करनी पड़ी। उसे घर जाने की हूक उठा करती है और उसका बॉस हर बार उसके छुट्टी जाने को लेकर चिक-चिक किया करता है। हड़काता रहता है। परन्तु गुस्सा करके भी वह उसे अनुमति दे देता है। सम्पूर्ण आफिस में वही बैचलर है। साथ में चेतावनी भी देता रहता है कि भविष्य में अब अवकाश नहीं मिलेगा।

परन्तु आज-कल बॉस शान्त और अनमना-सा है। वह डर रहा है कि कैसे वह छुट्टी मांगें। उसका बॉस सरदार जोगेन्द्र सिंह प्रशासनिक अधिकारी, सब उससे बेहद डरते है। परन्तु वह उससे कुछ खुला हुआ है। फिर भी भीतर-भीतर तो वह डरता ही है, प्रगटतः वह व्यक्त नहीं करता। बॉस अपने चैम्बर में बैठा, वह कामेश को कुछ व्यथित एवं उदास लगा। उसकी कोहनी, सर और हाथ का बोझ सम्हालें थी और उसका मुॅंख और ऑंख टेबुल पर स्थिर थी। उसकी हिम्मत नहीं पड़ रही थी। निश्चय ही आज और अभी अनुमति लेना ही पड़ेगा, यदि उसे कल जाना है। उसे ताज्जुब होता है जब साहब बिना ना-नुकुर किये उसे छुट्टी दे देता है। उसे पहले प्रयास में ही सफलता मिलती है, इस कारण वह प्रसन्न होता है और साहब से उसकी उदासी का सबब पॅूछ नहीं पाता हैं। जब तक मनुष्य के साथ खुद न घटित हो या उससे सम्बन्धित न हो वह प्रभावित नहीं होता है, अगर होता है कुछ समय के लिए, उसी क्षण तत्काल फिर वह उसी मानसिक स्थित में आ जाता है पूर्ववत। अगर कामेश घ्यान देता तो उसे साहब की दुख, उदासी, यंत्रणा की भनक तो लग ही सकती हैं हफ्ता दस दिन पहले ही उसने उनके भतीजे के खेत रहने का दुखद समाचार, सबसे सुना था और हार्दिक संवेदना प्रगट की थी। मनुष्य अपने में बिजी रहता है, गैरों के सुख दुख उसे क्षणिक प्रभावित करते हैं। दूसरों का कष्ट और अपना कष्ट एक जैसा पीड़ादाई नहीं होता, अन्तर होता है। पराया दुख और अपने दुख की गहराई का पैमाना एक नहीं होता।

कामेश जब कानपुर के लिए चलने लगा तो साहेब ने एक बड़ा व्यापारिक थैला, भरा हुआ रख दिया अपने बड़े भाई बलवीर सिंह को पहॅुचाने के लिए. उसमें खाने-पीने की वस्तुऐं थीं और साथ में हजार रूपये दिये थे, उन्हें देने के लिए. उन्हें ज़रूरत होगी और उनके हाल चाल लेकर आने को कहा था। वह समझ सकता था उनका दर्द और उनकी ज़रूरतें। मगर उसे यह अतिरिक्त बोझ अनावश्यक-सा प्रतीत हो रहा था।

कानपुर का सेन्ट्रल रेलवे स्टेशन। अन्य आगमन से अलग, सहमा हुआ। कुछेक दिनों पूर्व पंजाब से आई गाढ़ियों में लाशें थी और प्रतिउत्तर में इस स्टेशन पर भी कुछ-कुछ वैसा ही हुआ था। उसकी दहशत से कांपता, आतंकित स्टेशन और अपनी खोई अस्मिता को तलाशता स्टेशन। चहल-पहल थी परन्तु गंूगी। बहुत-सी ग़लत फहमियाँ थीं और उन्हीं गलतफहमियों का शिकार होकर लोग आपस में ऐसा अनुचित, अमानवीय, दुर्व्यवहार और पागलपन कर रहे थे। देश के प्रधानमंत्री के सुरक्षा गार्डों द्वारा उनकी हत्या किये जाने के फलस्वरूप, उभरे क्रोध, घृणा और प्रतिहिंसा का नंगा नाच देखे शहर की, काली छाया से अभिशप्त स्टेशन। तरह-तरह की अफवाहें फैल रही थीं और फैलती ही जा रही थीं। कामेश के मन के सबसे निचले हिस्से में डर की आशंका दुबक कर बैठी हुई थी, वह मष्तिष्क के सबसे ऊपर के पायदान में विचरने लगी थी। वह सोचता है स्टेशन के बाहर कैसा होगा? हालांकि उसका घर स्टेशन के करीब ही है फिर भी आशंका घर करती जा रही थी। वह यह भी जानता है कि उसके इलाके में स्टेशन के आसपास अन्य सम्प्रदाय के लोग नहीं रहते हैं। वह सोचता था जितना आधुनिकता समाज में बढ़ेगी धार्मिकता कम से कम होती जायेगी मगर ऐसा नहीं हो रहा हैं। धार्मिकता जहालत का प्रतिफल है। जितनी ज़्यादा जहालत होगी उतनी ज़्यादा धार्मिकता होगी। उसे लगता है कि धार्मिकता का जहर वायरस से भी ज़्यादा तीव्र गति से फैल रहा है और साथ में फैल रहा है एक दूसरे के प्रति भय।

घर पर कामेश को लगा कि उसके आने को लेकर, कोई ज़्यादा खुशी नहीं महसूस रहा है बल्कि चिंतित ज़्यादा हो गये। इस समय आने की क्या ज़रूरत थी ...थोड़ा रूककर आते, जब माहौल और शान्त हो जाता। उनके चेहरे पर सकून और मुस्कराहट की बजाय खिन्नता और तनाव की रेखाऐं खिंच गई थीं। भय और आक्रोश की लकीरें परिलक्षित होने लगी थीं। उसने जानबूझ कर साहेब का साथ लाया काम नहीं बताया। हालांकि सबने प्रश्नवाचक निगाहों से उस बोझ को घूरा जो उसके साथ चिपका था। वह जानता था इस तरह की जिम्मेदारी वहन करने की उसकी आदत के प्रति उनकी प्रतिक्रिया नकारात्मक ही होती है। ं

अगले दिन जब कामेश, साहेब के भाई साहब के यहॉ जाने को उद्घृत् हुआ तो उसके घर वाले बिगड़ पड़े।

'कोई ज़रूरत नहीं है ऐसे हालात में जाने के लिए.' पिता और 'बड़े भाई एक साथ बिगड़ पड़े।'

'जाना आवश्यक है, साहब ने भेजा है और फिर हमें क्या, हम तो उनकी सहायता ही पहॅुचाने जा रहे हैं।'

'बड़ा खतरा है भइया।' छोटी बहिन रूंआसी थी।

'वे घायल शंेर हैं। छोड़ेगे नहीं।' माँ सशंकित और घबराहट में बोली।

'ऐसा कुछ नहीं है, इतने दिन बीत चुके हैं। अब सब कुछ सामान्य है।' उसने युक्ति दी।

'नहीं तुम नहीं जाओगे।' भाई ने फरमान सुनाया।

'भइया, बास के बड़े भाई के यहॉ जा रहा हॅू। हालात का जायजा भी लेना है। साहेब ने जिममेदारी दी है उसे निभाना है और फिर अपनी सहायता पहॅुचाने वाले को, वे भला क्यों हानि पहॅुचायेंगे?'

'भाई! मेरे उनके परिवार से नहीं ...मान लिया। मगर अगल-बगल वाले? उनका क्या? ज्यादातर उस ईलाके में वही पीड़ित लोग हैं। यह ठीक नहीं है। लापरवाही में ही खतरा रहता है।'

बहुत-सी ग़लत धारणाऐं बनीं थी और निर्मूल-भ्रंम और आशंकाएँ थीं। ' उनका निराकरण होना ज़रूरी था, जिससे एक दूसरे के प्रति सौहार्द और सामंजस्य बहाल किया जा सके. घर वालों के प्रतिरोध से वह असमंजस में पड़ गया था कि उसे इस वक्त घर आना चाहिए था या नहीं। मुरादाबाद में भी ऐसी खबरें, आदि विभिन्न माध्यमों से मिलती रहती थी, परन्तु वहॉ एहसास छू कर निकल जाते थे। हिन्दुस्तान में कभी-कभी कहीं-कहीं ऐसा तो होता ही रहता यह ज्यादातर लोगों के लिए यह सामान्य बात होती थी।

'देखो! ऐसा है, यदि जाना ज़रूरी है तो मैं चला जाता हूॅ और सामान आदि देकर वापस आ जाऊॅगा। मैं पत्रकार हूॅ, मुझे कोई छुॅयेगा नहीं, मुझे जगह-जगह के हालात पता हैं।' भइया ने प्रस्ताव रखा। कामेश की नजरें भइया से होकर सभी पर गुजरती हुई भाभी और उनके दो छोटे-छोटे बच्चों पर गुजर गई. बच्चे लांेगों की चिकचिक से बेखबर, अपने-अपने खेल में व्यस्त थे। भाभी की ऑखों में करूणा और निरीहिता झलक उठी। उसने इस प्रस्ताव को पूरी तरह ठुकरा दिया। उसने बताया कि उसे अपनी नजरों से साहेब के भाई के घर एवं उनके परिवार को देखना और साहब को रिपोर्ट करना है। इसलिए वही जायेगा और कोई नहीं। घर वालों ने वही बेबसी और निराहता से उसे अनुभूति दी जैसे कि बकरे को जिबह होने से पहले उसकी माँ को होती है। वैसे भी मौंत का क्या भरोसा। कौंन कब जायेगा जायेगा, यह किसे पता? मरने का क्षण तो किसी को भी नहीं मालूम। जनम और मरण का क्षण तो भगवान जानता है। उसने अपने को समझाया।

दरवाजा खुलने में देर हो रही थी। लगता डर अन्दर और बाहर दोनों जगह बैठा है। झिर्रियों से देखकर, वह आश्वस्त होते हैं, निहत्था है। सरदारनी ने थोड़ा खोलकर झांका, 'क्या है?' कामोश ने अपने बॉस जोगेन्दर सिंह का नाम लिया और बताया, सामान भिजवाया है और हाल चाल लेने को भेजा हैं। उन्होनें उसे बाहरी कमरे में बैठाया। कमरा और साथ में जुड़े कमरे, किचन और उनकी दीवारें, ऐसा लग रहा था कि रो रहे थे। सब कुछ मातमी था। दीवार पर टंगी गुरूनानक देव की तस्वीर शान्त मुद्रा में शान्ति स्थापित करने की पुरजोर कोशिश कर रही थी। उसे लकड़ी की एक कुर्सी में बैठाया गया। सामने एक तख्त में साहेब के भाई बलवीर सिंह लेटे थें, उन्हीं के पास उनकी पत्नी बैठ गईं उससे दरयाफ्त करने। बैठक से जुड़े कमरे में एक लड़की थी। सफेद परिधान में और सफेदी ही उसमें व्याप्त थी। एकदम निचुड़ी हुई, एकदम स्थिर पसरी हुई. ऐसा लगता था स्पंदनहीन कोई सफेद बुत पड़ा हो या कोई कफन ओढ़े कोई लाश हो। उसने वहॉ से नजरें हटाईं और अपना परिचय विधिवत दिया और अपने आगमन का उद्देश्य बताया। उसके बात-चीत करते ही, सरदार जी उठे। उन्होनें कामेश के अभिवादन का जबाब भी नहीं दिया और बगल वाले कमरे में घुसकर फिर थोड़ी देर बाद निकले। फिर वह बैठे नहीं। उसके आसपास मंडराते रहे और उनकी दृष्टि कामेश पर जमी हुई थी। उसे ऐसा क्यों आभास हो रहा था कि सरदार उस पर आक्रमण करने को कटिबद्ध था। सब लाया सामान हस्तगत करने के उपरान्त, कामेश ने हाल चाल पूछे और सरदारनी फट पड़ी। उसने रो-रो कर अपना बंुरा हाल कर लिया। कभी मध्यम, कभी तेज गति से, सारी दास्ता बयाँ करती रही। उसकी दुकान लूट ली गई और आग लगा दी गई और उसको बचाने में उसका बेटा देवेन्दर शहीद हो गया। उसके बापू बलबीरा ने किसी तरह भागकर अपनी जान बचाई. हथियार बंद लोगों को देखकर वह डर गया था, परन्तु देवेन्दर जूझ पड़ा था अपनी कटार लेकर और मारा गया था। सब कुछ लुट गया और हम लोग भिखारी बन गये। जान भी गई और माल भी गया। जब तक सरदारनी का बयान, प्रलाप जारी था, सरदार वहीं उसकी कुर्सी के चारों चक्कर लगा रहा था। उसकी निगहें कामेश पर जमीं हुई थीं। ऐसा लगता था कि वह कामेश को शिकार बनाने के लिए प्रयत्नशील था। कामेश सिहर रहा था और भीतर ही भीतर कांप भी रहा था। उसका ध्यान वाचन सुनने से अधिक सरदार को मार्क करने में था। सरदारनी बीच-बीच में उसे हांकती रहती थी और अलग एक तरफ बैठने को कहती रहती थी। परन्तु सरदार ध्यान न देकर उसका कामेश की तरफ घूरना और हिंसक नजरों से तौलना जारी था। दूसरे कमरे में सफेद लड़की स्पंदनहीन बुत की तरह पसरी थी। परन्तु उसकी आंखें कामेश की तरफ स्थिर थी। बलबीर सिंह की टहल जारी थी, बैठक से भीतरी कमरे तक। वहॉ से किचन और फिर कामेश के इर्दगिर्द। उसकी कुर्सी की परिक्रमा करते कामेश को लगा कि उसके हाथ उसकी गरदन की तरफ बढ़ रहे हैं और फिर लौट जा रहें है। या फिर वह ऐसा महसूसता ही था। उसकी सांस अटकी हुई थीं, वह जल्दी-जल्दी निकल जाना चाहता था। परन्तु संकोचवश वह कह नहीं पा रहा था। सरदारनी का रोना बिसुरना और प्रलापना, उस घटना के वर्णन में ंह्नदय विदारक ढंग से जारी था। जिसमें उसका सब कुछ छिन गया था। वह बीच में उठ भी नहीं सकता था। परन्तु वह पूर्ण विश्वास और निश्चय के साथ कुछ कह नहीं सकता कि अगले ही क्षण कोई अप्रत्याशित घटना घट सकती थी या फिर किसी दुर्घटना का शिकार हो सकते थे। संभावनायें बहुत थीं। कुछ भी हो सकता था। केवल संभावनाओं पर आधारित जीवन उसे हर पल परेशानी में ही डाल रहा था। उसने सोचा वर्तमान पर ध्यान देना चाहिए. दर्दनाक दास्तान ठहर ही नहीं पाई थी कि उसने चलने की इजाजत मांगी।

'ऐसे कैसे जाओगे? बिना ठंडा-गरम पिये ना जाने दूंगी।' सरदारनी ने कहा। उसने कामेश की जल्दबाजी की कोई दलील न सुनी। वह चाय बनाने उठ गयी, उसे कमरे में अकेला छोड़कर। वह कुर्सी में बैठ तो गया मगर कसमसाते हुये, कभी कुर्सी, कभी उस निर्जीव लड़की, अलमारियाँ, फोटो और हर चीज की परिक्रमा करते हुये उसकी निगाह बलवीर सिंह पर टिक जाती थी। लम्बा तंड़गा, छः फीट का दबंग सरदार जो उसकी तरफ बैचेनी से टहल रहा था। कामेश अपने आप को उससे आश्वस्त नहीं कर पा रहा था। सरदार कुछ बोल नहीं रहा था। सिर्फ़ उसे बहशी नजरों से देखता हुआ, उसकी तरह आगे पीछे चारों तरफ टहल रहा था। मानों किसी मौके के तलाश में हो। उसके साथ बहुत कुछ अत्याशित घटा था, नफरत के शोले उसके चेहरे व आंखों में दहक रहे थें। कामेश शंकित ज़रूर था परन्तु आशंकित होने के बाबजूद, वह कुछ आश्वस्त था कि वह अपने साहेब का हरकारा है जो उसका सगा भाई हैं, उसके साथ कुछ नहीं होने का। सरदारनी उसके लिए पानी रखकर, चाय नाश्ता बनाने में तल्लीन थी। उसकी नजरें एक बार फिर उस सफेद लडकी पर टिक गई जो अपलक उसे निहार रही थी परन्तु थी अविचल और पस्त। वह उसे निराश, हताश और हारी हुई लगी थी। जिसे अपने भाई की जुदाई डस गयी थी। वह अर्थहीन सामान बन गई थी। कामेश सोचता है न जाने कितने बेकसूर लोग शिकार बन गये थें। ऐसा क्यो होता है कि इस तरह के फंसादों में हरदम निरपराध व्यक्ति काल के ग्रास बनते हैं। उसे समाज पर रोष उभरता है। क्यों हम पुरातन पंथियों की तरह पुरानी धारणाओं से चिपके हुए हैं। हम कुछ सीखना क्यों नहीं चाहते? उसे लगता है कि धर्म से जुड़ने से आदमी की सोच स्वतंत्र नहीं रह पाती। एक धर्म वाले दूसरे धर्म वालों से विद्वेष क्यों करते हैं? सबको अपना धर्म ही श्रेष्ठ क्यों लगता है? एक धर्म के व्यक्ति की दूसरे धर्म के व्यक्ति से व्यक्तिगत लड़ाई, धर्म विशेष की सामूहिक लड़ाई में क्यों तब्दील हो जाती है? यह ग़लत है। हर मनुष्य एक इकाई है और उसको एकाकी दृष्टि से ही ट्रीट करना चाहिए. वह सोचता है कि वार्तालाप, विवेचना, अनुभव और तुलनात्मक अध्ययन द्वारा सोचने-समझने के जड़ धार्मिक दृश्टिकोण को बदला जा सकता हैं इस दिशा में प्रयास होने ही चाहिए. हम अभी 21वीं सदी में भी सब मध्ययुगीन मानसिकता के शिकार है। किसी एक वर्ग विशेष पर इस समस्या को थोप कर हम निश्चित होकर नहीं बैठ सकतें। अतः हमें एक दूसरे के साथ जीवन एवं मृत्यु दोनों में ही एकता शक्ति एवं आशा से जुड़ना चाहिए. वह जानता है कि यह समझदारी विकसित हो रही हैं परन्तु गति बड़ी धीमी हैं। इस धीमी गति को प्रवाह देने में हम सबको प्रयत्नशील होना चाहिये।

दुर्भाग्यवश वह अपने धार्मिक दृष्टिकोण के रिसर्च में व्यस्त था और नजर सफेद लड़की पर स्थिर थी। वह आसन्न खतरा भॉंप नहीं पाया, उसकी गरदन सरदार के बलिष्ठ हाथों की पकड़ में थी। वह एक हांथ से उसकी गरदन दबाता जा रहा था और दूसरा हांथ अपने कमर में लटकती कटार को टटोल रहा था। उसके गले से दम घुटने की-की आवाज ठीक से निकल नहीं पा रही थी। परन्तु सरदार के मॅुह से गुर्राने की आवाज गंूजने लगी थी। थोड़ी कसमकश विरोध के बाद उसे समझ में आ गया था कि उसका बचना नामुमकिन है। उसे किसी बचाव की उम्मीद भी नजर नहीं आ रही थी। अप्रत्याशित! सफेद लड़की बुरी तरह चीख और चीत्कार उठी। वह चीख इतनी करूण, कम्पायमान और तीक्ष्ण थी कि सरदारनी हड़बड़ाकर घबराई, चाय बनाना छांेड़ अस्त व्यस्त ढंग से उसकी तरह विद्युत गति से लपकी और सरदार का कटार वाला हांथ बुरी तरह से, पूरी ताकत से उमेठ दिया। उसकी गरदन वाला हाथ ढीला पड़ गया और कटार म्यान से बाहर निकल नहीं पाई. तब तक बेहोश पड़ी लड़की दौड़कर चिल्लाती हुई अपने पिता से जूझ पड़ी। दोनों माँ बेटी ने मिलकर सरदार को ढकेलते हुए, दूसरे कमरे में बंद कर ढकेला और कमरे की सांकल लगा दी। सरदार हिंसक पशु की तरह गुर्राता ही रहा और उसकी आवाज अफरातफरी में दब गई. वह दहशत में हतप्रभ, ठगा-सा अवाक् खड़ा रह गया। उसे लगा कि जैसे बिजली मार गई हो। किसी बात को सुनने और खुद के साथ घटित होने के बीच बड़ा फर्क होता हैं। अब तक वह इस मुगालते में रहा था कि वह सब हादसा भले ही और किसी के साथ पेश आ जाये उसके साथ कभी नहीं हो सकता वह अभी भी किंकर्तव्यबिमूढ-सा चुपचाप खड़ा था। वह निकल भागने के लिये आतुर हो उठा कि ऑखों में आंसू भरे हाथ जोड़े सरदारनी ने कातर नजरों से उसे निहारा, साथ में मुर्झायी सफेद लड़की...परी ...अपने अश्रुपुरित नजरों से याचक की तरह अनुनय विनय करती लगी। जैसे इस घटित ...अघटित के लिये क्षमा याचनाप्रार्थी हो। इस सम्पूर्ण घटनाक्रम पर मॉ-बेटी को बेहद अफसोस ग्लानि, पश्चाताप और दुख, शब्दहीन था। शब्द बड़े अजीब होते है कभी ऐसा होता है कि शब्द बहुत अक्षम असहाय हो जाते है और मौन की भाषा ही वह सब कह देती है जिसे कहनेे के लिये शब्द यथेष्ट नहीं होते। कामेश अपने तमाम भय, क्रोध, तिक्तता के बावजूद मॉ-बेटी दीन हीन छवि की अनदेखी न कर सका और पुनः उसी कुर्सी पर ढेर हो गया। उसकी जुबान के साथ-साथ ऑखों ने भी मौन वृत धारण कर लिया। मस्तिष्क में समस्त घटित-अघटित चलचित्र की तरह कौन्ध रहा था। वह निसहाय इस अपमान जनक कार्यवाही को देख रहा था। ऐसा कैसे हो सकता है? ऐसा क्यों हुआ? ...सफेद लड़की जो उसे अब परी लगने लगी थी, उसकी दृष्टि मोहाविष्ट थी। उसने भले ही मुझे किसी विकल्प के रूप में चाहा हो शायद अपने वीरा का विकल्प । वह सोचता है कि जिन्हें हम पराया मानते है और कभी-कभी उनसे घृणा भी करते है वहीं हमारे अपने हो जाते है...सरदारनी। उसके जेहन में एक बार स्पष्ट रूप से उभरी मॉं कभी बदला नहीं लेगी मॉं हरदम बचाती है। ... ज़िन्दगी पता नहीं क्या-क्या तमाशे दिखाती है जिसका पूर्वानुमान लगाना असम्भव है। हमारे चाहने न चाहने से ज़िन्दगी की दिशायें नहीं बदल सकती। वे अपना चक्र पूरा ही करती रहती है।

कामेश ने उनका आथित्य स्वीकार कर लिया। वह भाव विहल हो बोली...शब्द कंठ में फंस गये। ...उसने कामेश की हथेली अपनी मुट्ठी में जकड़ ली स्पर्श की अपनी ही भाषा होती है, वह जबान की मोहताज नहीं होती और लिख रही थी, इस प्रकरण के प्रगटीकरण से विरत रहने का अनुबन्ध।