सबका मालिक एक / कृष्णा वर्मा

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गाँव से लौटी अम्मा चूल्हे के पास पड़ी चूलें हिली बेरंग छोटी—सी अल्मारी में नून, तेल दालें और आटे से भरा कनस्तर देखकर एक बारगी ऐसे चुप खड़ी रह गई, जैसे कुछ सोचने समझने की शक्ति ही न बची हो। हैरान होते हुए, "अरे! आसिम यह क्या–कोई लाटरी-वाटरी लग गई क्या? या फिर..." कहते-कहते चुप हो गई.

"हम ग़रीबों के भाग में लाटरी कहाँ अम्मी।"

"तो यह सब इतना सारा राशन-वाशन।"

"छोड़ो अम्मी जाओ बस आज तो कुछ अच्छा-सा खाना पका के खिलाओ."

"सो तो ठीक है पर बता तो सही यह सब।"

"तुम यूँ समझ लो कि अल्लाह ने हमारी सुन ली। साल दो साल की दिहाड़ियाँ तो पक्की हो ही गईं"-आँखों को खुशी से फैलाते हुए, "ठेकेदार को बहुत बड़ा मंदिर बनाने का ठेका जो मिला है। यूँ तो दिहाड़ी सुबह से शाम तक की होती है; पर यहाँ तो रात के बारह-बारह बजे तक का काम मिला है। मतलब एक दिन में ढेड़ दिन की कमाई."

कानों पर हाथ रखते हुए, "हाय अल्लाह यह क्या सुन रही हूँ। ख़ुदा ख़ैर करे–मुसलमान हो कर किसी मंदिर की चिनाई का काम करेगा।"

"क्यों अम्मी इसमें बुराई क्या है। इसी मंदिर के काम की ख़ातिर ही तो आज पहली बार घर में राशन की बहार देख रही हो। मंदिर का काम करने से जब मेरा अल्लाह ख़ुश है, तो तुम्हें क्यों एतराज़ है। तुम्हीं न कहा करती थीं कि इस जहान में सबका मालिक एक है।"

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