सबके सपने सबकी आशा / मृदुला झा / सत्यम भारती
"विरह" शृंगार रस की दूसरी अवस्था है, जब हमारे चाहने वाले किसी कारणवश हमसे विलग हो जाते हैं, तब यह स्थिति उत्पन्न होती है; यह हमें मानसिक एवं दैहिक दोनों रूप से परेशान करती है। विरह राख में दबे उस चिंगारी की तरह होता है, जो थोड़ी से यादों की हवा लगते ही फिर से सुगबुगा उठता है। विरह अरमानों का खालिस पुलिंदा है तथा यह संयोग के दिनों की जमा पूंजी भी, वियोग की गंभीरता से प्रेम की वास्तविक गहराई मापी जा सकती है। इस समय सारी प्रकृति तथा इसके अवयव हमें काटने को दौड़ते हैं और पिया मिलन की आस में आंखों से गंगा जमुना बहती रहती है। जायसी ने विरह वर्णन के लिए काग, कोयल, तोता आदि का सहारा लेकर प्रेम का संदेश पिया तक भेजा था तो वहीं घनानंद ने बादल का सहारा लेकर; यह सारी चीजें विरही को मानसिक संतुष्टि प्रदान करती होगी। जायसी नागमती के वियोग में कोयल को संदेशवाहक बनाते हुए लिखते हैं-
" पिउ सौ कहेहु संदेसरा, हे भौंरा! हे काग!
सो धनि बिरला जरिये मुई, तेहि क धुवां हम्ह लाग "
कछ इसी तरह की प्रेम-अभिव्यक्ति तथा विरह की अनुभूति डा. मृदुला झा कि गजलों में दिखती है, जहाँ विरह से व्याकुल विरहनी, पिया मिलन की बात जोह रही है तथा अपनी विरह वेदना को स्वच्छंद रूप से अभिव्यक्त भी कर रही है-
बागों में कोयलिया कूके जीवन महक उठा,
विरहन का बेजान जिस्म अब देखो चहक उठा।
एक शेर और देखें-
उमड़-घुमड़ घन गरजे बदरा,
मनभावन को तरसे बदरा,
विरहन मन की बात निराली,
अंखियों से नित तरसे बदरा।
बिछड़ने का दर्द तथा जुदाई की अमावस लोगों को कचोटती है, कवयित्री ने प्रेम में उन्मत्त उन लोगों की मानसिक अभिवृत्ति को अभिव्यक्त करती हैं-
करूं आज कैसे विदाई तुम्हारी,
कि डसने लगी है जुदाई तुम्हारी।
प्रेम के बदलते प्रतिमान तथा उसके अंदर समाहित होने वाली वासना और स्वार्थ की बू, लेखिका को आहत करती है। अब प्रेम आत्मा-परमात्मा का मिलन न होकर काम-वासना और समझौते का हिस्सा बन गया है। आधुनिक मानव द्वारा बनाए गई यह प्रेम-परिपाटी रिश्तों की बुनियाद को तार-तार कर रही है तो वहीं हमारी सोच को भी संकीर्ण। कितने युवक-युवतियाँ इस कुचक्र में फंस कर अपना जीवन तबाह कर ले रहे हैं या दरिंदगी के शिकार हो जा रहे हैं। इस कुचक्र में स्त्रियाँ ज़्यादा फंस रही हैं, कवयित्री की चिंतन की एक विषय वस्तु यह समसामयिक घटना भी है-
प्रेम नकली प्यार नकली,
है सहज सत्कार नकली,
आजकल बेबास कलियाँ,
भंवरों का गुलजार नकली।
जिंदगी की कटीली राह पर चलने का साहस उसी में होता है जो आशावान एवं लोक हितकारी होता है। पुस्तक "सबके सपने सबकी आशा" लेखिका डॉ मृदुला झा द्वारा लिखित गजलों का एक संग्रह है, इसका मुख्य उद्देश्य जीवन की कटीली राह पर चलने के लिए मानवों को सलीका सिखाना तथा स्व के साथ-साथ परहित की चिंता कर मानवीय मूल्यों को पुनः स्थापना करना है।
आज पूरा विश्व खौफ में जी रहा है; कब कहाँ आतंकी हमला हो जाए, नक्सल अटैक हो जाए, चोर-उचक्के के चक्कर में पड़ जाएँ, बम विस्फोट हो जाए, दुर्घटना घट जाए-कोई कह नहीं सकता है। एक तरफ घर की जिम्मेदारियाँ तो दूसरी तरफ मौत का डर; ऐसे में मानव मानसिक रूप से काफी परेशान होता जा रहा है और कुंठा, संत्रास, ईर्ष्या, द्वेष आदि व्याधियों से ग्रसित भी। आतंकवाद का अभी तक कोई स्थायी समाधान नहीं निकल पाया है, यह आज पूरे विश्व को अपनी गिरफ्त में लिए बैठा है तथा मानवता का सबसे बड़ा खतरा भी बन गया है; गजलकारा कि दृष्टि इस वैश्विक तबाही पर भी गई है-
जुल्म और आतंक का यह जलजला,
कुफ्र बनकर फिर कभी फूटे नहीं।
"आत्महत्या" आधुनिक मानव की सबसे बड़ी कमजोरी है, हम आज इतने एकाकी तथा अपनों से दूर हो गए हैं कि हमारे दुख में साथ देने वाला कोई नहीं बचा है। अपनों का साथ न मिल पाना, एकाकी जीवन बिताना, खुद पर विश्वास न होना, ज़रूरत से ज़्यादा कि चाहत रखना, निराशा का प्रभावी होना, घर से दबाव आना, हार स्वीकार करने की क्षमता न होना आदि वे कारण हैं जो लोगों में आत्महत्या जैसी आत्मिक दुर्घटना को जन्म देने में शामिल है। कवयित्री ने इस जलजले से युवाओं को रोकने की कोशिश करती हैं तथा उन्हें सलाह भी देती नजर आती हैं-
भड़कना हर बात पर अच्छा नहीं,
ये सितम जज्बात पर अच्छा नहीं,
खुदकुशी मत कर गमों से हारकर,
टूटना इक बात पर अच्छा नहीं।
आशा, विश्वास तथा मेहनत वह रास्ता है जिस पर चलकर हम खुदकुशी जैसी घातक व्याधि से पार पा सकते हैं; लेखिका आत्मविश्वास, श्रम तथा पौरुष से हर जंग जीतने की सलाह देती है। मेहनत रूपी मानवों के पास वह हथियार है जिससे वह सब कुछ हासिल करने का हौसला रखता है, वह इससे नियति की नियति तथा किस्मत की रेखा भी बदल सकता है; बस ज़रूरत है मानव अपने अंदर की क्षमता को जाने, पहचाने तथा पूरी शक्ति के साथ उस राह पर निकल पड़े-
भूली बिसरी यादें ही जीने का सम्बल देती हैं,
अपने पौरुष के बल पर ही सपने सब साकार करो।
आम आदमी का जीवन तथा उसे प्रभावित करने वाले कारक लेखिका कि गजलों की विषय वस्तु बनी है; स्वार्थपूर्ण नीति, गिरते नैतिक मूल्य, अपनों का साथ न मिल पाना, टूटते बिखरते रिश्ते, विचारों का द्वंद्व तथा दोमुंहा चरित्र आज के मानवों की प्रधान समस्या है। हम रिश्ता भी उसी से बनाना चाहते हैं जिससे हमें लाभ हो; लोगों के मन में आने वाली यह बाजारवादी नीति; मानसिक एवं दैहिक दोनों जगह समस्याएँ उत्पन्न कर रही हैं। हम यथार्थ से ज़्यादा आंकड़ों पर विश्वास करने लगे हैं; प्यार से ज़्यादा नफरत पर, खुद को सुधारने के बजाय दूसरों पर तोहमत लगाने में; आदमी के बदलते नियति को चित्रित कर लेखिका युग की व्याख्या करती हैं-
ज़िन्दगी से इस कदर डरने लगा है आदमी,
आंकड़ों की जाल में फंसने लगा है आदमी,
प्यार के गंगो-जमन में अब नहाने की जगह,
नफरतों की आग में जलने लगा है आदमी,
झांकना तो था उसे खुद अपने दामन में मगर,
दूसरों पर तोहमत मढ़ने लगा है आदमी।
रिश्तो की बुनियाद स्वार्थ पर टिकी होती है, हर रिश्ता आपसे अपने फायदे के लिए जुड़ता है यही इस युग की सच्चाई है-
कोई चांद सितारे मांगे कोई प्यार,
हर रिश्ते की है जिज्ञासा अलग-अलग।
हर आदमी को यहाँ अपने-अपने स्वार्थ की पड़ी है, कोई हानि का सौदा नहीं करना चाहता, यही कारण है कि गरीबों के कम रिश्तेदार होते हैं। आदमी का दोमुंहापन तथा कथनी-करनी में फर्क उसे दानवीय वृत्ति की ओर ले जा रही है-
ईमान बिक गया है नियत बदल गई है,
देखो जिसे उसी की तबीयत बदल गई है।
एक शेर और देखें-
लोग अब मिलते कहाँ उस भाव से,
मेल कि वह भावना घटती गई।
आधुनिकता और फ्लैट कल्चर ने पुरानी विरासत एवं मानवीय मूल्यों को किस तरह प्रभावित किया है उसकी झलक इस पुस्तक में मिल जाती है। आज मानव अकेला रहना चाहता है, मां-बाप को वृद्धाश्रम छोड़ देना चाहता है, तथा धन की प्यास इतनी बढ़ गई है कि करोड़ों कमाने के बाद भी चैन नहीं है। समाज की तिजारत और व्यक्ति की बदहवासी पर एक शेर देखें-
क्यों धरा है आज प्यासी इसतरह,
हो रही नदियाँ सियासी इसतरह,
रो रहे मां-बाप तो सुनसान में,
बढ़ रही क्यों बदहवासी इसतरह।
आज मानव दूसरों का काम हानि सह कर भी करने को तैयार हो जाता है, लेकिन वहीं अपने सगेसम्बंधी, भाई या परिवार का नहीं; अपनों के प्रति रोष आज के मानवों को धसातल में ले जा रहा है-
बेरुखी सबकी मुझे मीठी लगी,
काम अपनों का सदा तीता रहा।
भ्रष्टाचार, लूट-खसोट, प्रतिस्पर्धा, बेईमानी, धोखा, तिजारत, बदला आदि मानवों का गहना बन गया है। लूट और भ्रष्टाचार ने देश को एक तरफ खोखला बना दिया है तो वहीं लोगों को निरीह एवं मजबूर। भ्रष्टाचार तो अब छोटी-छोटी इकाइयों में भी होने लगा है, उदाहरण के लिए ग्राम पंचायत को ही लें; यहाँ इंदिरा आवास, बीपीएल सूची में नाम तथा डीलरों के यहाँ अनाज मिलने में भी भ्रष्टाचार घूसखोरी तथा कालाबाजारी हावी होता नजर आ रहा है। कवयित्री की दृष्टि इस तरफ भी गयी है-
दिन बीते बेगारी में,
क्या जायेगा थारी में,
बीपीएल में नाम नहीं,
घूस के मारा-मारी में।
लड़कियों के प्रति समाज का नजरिया तथा सोच बिल्कुल ठीक नहीं है; देश की आधी आबादी आज भी ठीक से पढ़ नहीं पा रही है, अपने सपने बुन नहीं पा रही है तथा चारदीवारी में कैद होकर अपने अरमानों को जला रही है। समाज के द्वारा बनाए गए सारे कानून, व्रत, पर्व, त्योहार, रीति-रिवाज आदि स्त्रियों को केंद्र में रखकर ही बनाए गए हैं, इसलिए सदियों से स्त्रियाँ हर कष्टों को चुपचाप सहती आई है-
यूँ तो कहने को दिल में बहुत कुछ है लेकिन,
हम अपने लबों को सिये जा रहे हैं।
लेखिका स्त्रियों के प्रति समाज की सोच बदलने तथा उन्हें भी बिना किसी भेदभाव के आगे बढ़ने की बात करती है। वे भ्रूण हत्या, दहेज प्रथा, वैवाहिक संस्था में स्त्रियों का हस्तक्षेप, बाल विवाह, विधवा समस्या तथा बलात्कार जैसे सवालों को भी उठाती हैं; वे स्त्रियों को एक वस्तु से ऊपर मानव समझने के लिए लोगों को जागरूक करती नजर आती है-
बड़ी अनजान है लड़की,
गुणों की खान है लड़की,
कोई गुड़िया नहीं मूरत,
नहीं सामान है लड़की,
कभी तो फूल-सी कोमल,
कभी पाषाण है लड़की।
इस पुस्तक की दूसरी खासियत है-लोकमंगल की भावना। लोकमंगल कहने का तात्पर्य है-परहित की बात करना; कवयित्री समाज को स्व की मरिचिका से बाहर निकालना चाहती है तथा परहित के लिए खुद को समर्पित करना चाहती है। वह सद्भाव, प्रेम, आशा, विश्वास, सहयोग, दान आदि को मानवों के प्रवृत्तियों में समाहित करना चाहती है-
बेघरों को घर दिलाना चाहते हैं,
मुफलिसी उनकी मिटाना चाहते हैं।
जीतने कि चाह बेशक हमारी,
साथ सबके जीत पाना चाहते हैं।
वह लोगों की पुरानी बातों को भूल कर आगे बढ़ते रहने की सलाह देती हैं, जो उनकी सकारात्मकता का परिचायक है-
जीवन में श्रम करना है,
हमको आगे बढ़ना है,
छोड़ पुरानी बातों को,
रोज नया कुछ गढ़ना है।
उन्होंने आशा, विश्वास, सच का साथ देने, प्रतिरोध करने तथा सहयोग के बल पर समाज की सारी गतिरोधों को खत्म करना चाहती है-
बज रहे देखो नगाड़े आस और विश्वास के,
जल रही धूं-धूं चिताएँ लूट भ्रष्टाचार की।
लोकमंगल पर एक शेर और देखें-
सुख दुख तो सबके जीवन में यूं ही आते रहते हैं,
समदर्श संभावी बनकर सबका हम उपकार करें।
भाव पक्ष की ही तरह इस पुस्तक का शिल्प भी काफी सुगठित है। इनकी गजलों में तत्सम शब्दावली का प्रयोग एवं उनकी महत्ता मुझे काफी प्रभावित करती है; उर्दू शब्दों के साथ संस्कृतनिष्ठ शब्दावलियों का सुंदर समन्वय कर वे शिल्प का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। तत्सम शब्दों के साथ सुंदर लयात्मकता का एक उदाहरण देखें-
अशेष कीर्ति कामना विशिष्ट व्यंजना लिए,
रचे प्रवाह वंचना विदग्ध भावना लिए,
कुठार काम मोहिता निमग्न गीत वल्लरी,
प्रबंध गंज नोदिता विचक्ष वदेना लिए।
तत्सम शब्दों के अतिरिक्त इस पुस्तक में हमें कुछ देशज शब्दों के भी प्रयोग मिल जाते हैं जिसमें भोजपुरी एवं मैथिली के शब्द प्रमुख हैं जैसे-कोयलिया, मनमां, आवन पूरवा, नेह, बिजुरी, हियरा, पाती आदि; इस लोक के शब्दावली के साथ भावों की उनकी सुंदर अभिव्यक्ति काफी प्रभावी नजर आती है-
मतवाली पुरवा भी देखो कैसे डोल रही,
नभ में चमकी नेह की बिजुरी हियरा बहक उठा।
लेखिका ने परंपरागत प्रतीकों के सहारे संस्कृत के "कवि-समय" परंपरा का अनुसरण करती हैं। कवि-समय; कवि समाज में प्राचीन काल से ही मानी गई परंपरा एवं परिपाटी होती है जो वैज्ञानिक रूप से सत्य हो भी सकती है या नहीं भी जैसे-हंस का नीर क्षीर विवेक, चातक और स्वाति का मिथक, सीपी और मोती का मिथक आदि। कवयित्री ने उस शास्त्र सम्मत पुरातन परंपरा का हिन्दी की गज़लों में नूतन प्रयोग करती हैं-
रस का लोभी भंवरा देखो फिरता है डाली डाली,
तुम प्यासे चातक बन जाओ स्वाति-स्वाति बरसात बने।
अंततः कहा जा सकता है कि सरल भाषा एवं शास्त्र सम्मत कुछ पुरातन परिपाटी का शिल्प में नवीन प्रयोग इस पुस्तक को काफी प्रभावी बनाता है तथा जीवन की कटीली राहों पर चलने के लिए लोकमंगल का मार्ग भी सुझाती है।