सबक जिसको याद हुआ उसे छुट्‌टी न मिली / जयप्रकाश चौकसे

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सबक जिसको याद हुआ उसे छुट्‌टी न मिली
प्रकाशन तिथि :26 मई 2017


फिल्मकार साकेत चौधरी की फिल्म 'हिंदी मीडियम' संसद में दिखाई जानी चाहिए। इस फिल्म का संसद से गहरा रिश्ता है। 4 अगस्त 2009 को संसद में 'राइट टू एजुकेशन' बिल पास हुआ, जिसके तहत सभी नागरिकों को शिक्षा का अधिकार है और किसी भी छात्र के माता-पिता से साक्षात्कार नहीं लिया जा सकता परंतु प्रायवेट शिक्षा संस्थाएं पतली गली से बाहर निकल आई अौर आज शिक्षा सबसे अधिक मुनाफा देने वाला व्यापार बन चुकी है। साकेत चौधरी को इस महान फिल्म के लिए बधाई देते समय बांग्ला भाषा में बनी फिल्म के फिल्मकार को नमन करना चाहिए, क्योंकि यह उनकी मौलिक रचना है, जिसे बाद में मलयालम में 'साल्ट मेंगो ट्री' के नाम से भी बनाया गया। अत: यह तीसरा संस्करण है परंतु हर संस्करण में थोड़े बहुत परिवर्तन किए गए हैं। एक विचार तो यह भी है कि जब रचना एक माध्यम से दूसरे माध्यम में और एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद की जाती है तो वह लगभग मौलिक ही हो जाती है।

इस फिल्म में डोब्रियाल और पाकिस्तान की सबा कमर ने अत्यंत प्रभावोत्पादक अभिनय किया है। केंद्रीय पात्र को अभिनीत किया है इरफान खान ने जिनके लिए अविश्वसनीय होना संभव नहीं है। सबा को पाकिस्तान में बने सीरियलों में खूब सराहा गया है और वे विविध भूमिकाओं का निर्वाह इस कदर कर चुकी हैं कि एक सीरियल में नकारात्मक भूमिका भी उन्होंने की थी। उनका अपना नमक और लावण्य है। पाकिस्तान में पढ़ा-लिखा वर्ग टेलीविजन से जुड़ा और सिनेमा का विकास ही नहीं हुआ, क्योंकि सिनेमाघरों की संख्या अत्यंत अल्प है। मुंबइया सिनेमा में जितना परिश्रमिक कैमरामैन को मिलता है उतना उनकी फिल्म का पूरा बजट होता है। वहां के क्रिकेट खिलाड़ियों को भी कम पारिश्रमिक मिलता है तथा विज्ञापन फिल्मों से धनोपार्जन की सुविधा भी नहीं है। एक बार 'हिना' की शूटिंग के समय एक पाकिस्तानी कलाकार ने कहा था कि जितने मूल्य का नमक भारत में खाया जाता है उतने मूल्य की दाल-रोटी पाकिस्तान खाता है। धर्म आधारित राजनीति करने वालों ने पाकिस्तान का हव्वा खड़ा करके चीन के खतरे से लोगों को अनभिज्ञ रखा है। हिमालय का जो भाग चीन की ओर है, उस मार्ग में सड़क मार्ग से एवरेस्ट पर जाया जा सकता है और ट्रेन भी चलती है।

स्कूल में हमें पढ़ाया गया था कि उत्तर दिशा में हिमालय हमारी रक्षा करता है परंतुु आज अगर एवरेस्ट पर एक बम गिराया जाए तो पिघला हुआ बर्फ पूरे भारत की नदियों में बाढ़ ला सकता है। टेक्नोलॉजी और विज्ञान ने सारी पारिभाषाएं एवं मान्यताएं बदल दी हैं। इसी तरह हमारी शिक्षा प्रणाली जर्जर हो चुकी है और उसमें आमूल परिवर्तन की कोई बात ही नहींं करता। शिक्षा प्रणाली का केंद्र परीक्षा को बनाया गया है, जो छात्र के सर्वांगीण विकास को नज़रअंदाज करता है।

दरअसल इस फिल्म में अर्थ की अनेक सतहें हैं। अमीर पात्र अपने पुत्र के दाखिले की खातिर गरीब वर्ग की बस्ती में गरीब बनकर रहते हैं, जहां उनके कुछ आत्मीय संबंध बन जाते हैं अौर यही संबंध दृष्टिकोण में इतना बदलाव लाता है कि वे अपने शिशु को एक साधारण स्कूल में भर्ती कराते हैं। सच्चाई यह है कि कोई गरीब किसी अमीर के घर में एक दिन भी आराम से गुजार नहीं सकता और अमीर का भी गरीब के घर में दम घुट जाएगा। इस तरह हमने अपने देश और समाज को दो असमान धड़ों में बांट दिया है। हमने अच्छे शिक्षक ही बनाना बंद कर दिए हैं। बेजान पाठ्यक्रम और ऊब के मारे शिक्षक तथा संवेदनहीन व्यवस्था मिलकर 'शिक्षा-शिक्षा' खेल रहे हैं। शिक्षा से अधिक महत्वपूर्ण कुछ नहीं हो सकता। यह मामला वेतन या शिक्षा पर खर्च का नहीं है वरन् एक भ्रष्ट व्यवस्था को बनाए रखने का है, जिसमें स्वतंत्र विचार के माद्‌दे को ही नष्ट करने का षड्‌यंत्र छिपा है। फिल्म के अंतिम दृश्य में नायक सारे पाखंड को उजागर करता हुआ स्वयं के दोष भी उजागर करता है। पूरी फिल्म ही मनुष्य को स्वयं को जानने के महत्व को रेखांकित करती है।