सब्र का बाँध / उमेश मोहन धवन
गोपाल बाबू को किराये के मकान की तलाश थी। एक सस्ता मकान था भी उनकी निगाह में। दफ्तर और बच्चों के स्कूल के एकदम पास। गोपाल बाबू वो मकान छोड़ना नहीं चाहते थे। मकान किसी व्यापारी का था जिसने आज चाबी देने के लिये बुलाया था।
दुकान पर उनका बेटा मिला जिसने बताया “पापा तो बाहर गये हैं अंकल। आप परसों आइये”।
गोपाल बाबू मायूस लौट गये। दो दिन बाद फिर जाने पर मकान मालिक मिल गये। “बैठिये गोपाल बाबू। दरअसल हमने किसी और को भी मकान दिखाया था। हम देना तो आपको ही चाहते हैं पर पहले उनका जवाब भी आ जाये। आप बस तीन दिन और रुक जाइये।
तीन दिन बाद उत्तर मिला “गोपाल बाबू उनका जवाब अभी तक नहीं आया है, आप परसों आ जाइये।”
रोज रोज की टालमटोल से तंग आकर गोपाल बाबू ने ठान लिया कि आज अंतिम बार जा रहा हूँ। अगर आज भी चाबी नहीं मिली तो ऐसी खरी खोटी सुनाऊँगा कि अकल ठिकाने आ जायेगी बहानेबाज की। पर अफसोस चाबी इस बार भी नहीं मिली। “गोपाल बाबू बस दो तीन दिन और रुक जाइये मुझे अपने बड़े भइया से और पूछना है।”
गोपाल बाबू के सब्र का बाँध अब टूटने को था। उनका तन बदन क्रोध की आग में जलने लगा। वो गुस्से में चीखना चाहते थे। पता नहीं कैसे उन्होंने अपने क्रोध पर नियंत्रण किया और बिना कुछ कहे वापस लौट आये। तीन दिन बाद वे फिर दुकान पहुँचे ।
इस बार मकान मालिक ने किराया लेकर चाबी उनको सौंप दी। गोपाल बाबू बहुत प्रसन्न हुये। वो सोच रहे थे कि “यदि मैने पिछली बार समय रहते अपने क्रोध पर काबू ना किया होता तो आज इतने अच्छे मकान से मुझे वंचित रहना पड़ जाता।”