सब तीरथ कर आई, जन्‍म की मैली चुनर‍िया... / रश्मि शर्मा

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यात्रा-संस्मरण

जीवन में पहली बार महाकुंभ जाने को मौका म‍िला। इलाहाबाद जो अब प्रयागराज कहलाता है, उस स्‍टेशन से कई बार गुजरी, मगर कभी रुकी नहीं। हाँ, वहाँ के अमरूद पसंद हैं। बचपन में बहुत खाया है। पापा को हर तीन महीने पर द‍िल्‍ली जाना होता था और व‍हां से लौटते वक्‍त हमेशा ही मेरे ल‍िए ढेरों अमरूद खरीकर ले आते थे। मेरे इसी अमरूद प्रेम के कारण वह अक्‍सर चिढ़ाते – “लगता है तुम्‍हारी शादी मुझे इलाहाबाद में ही करनी पड़ेगी वरना अमरूद लाने का खर्चा बहुत बढ़ जाएगा ।”

आख‍िरकार इलाहाबाद चली ही गई, वजह भले ही कुछ और थी। बचपन में अनेक फ‍िल्‍में देखीं, ज‍िसमें कुंभ के मेले में दो भाई या पर‍िवार ब‍िछड़ जाता है और अंततः वो बरसों बाद मिलते हैं। ज‍िज्ञासा , तो थी ही, यह इच्‍छा भी साथ- साथ पलती आई थी क‍ि कुंभ में पूरे देश के साधु जमा होते हैं। एक बार उनको करीब से देखें, बात करें, उनका जीवन समझें।

जाने की सोची , तो शाही स्‍नान, जिसे अब अमृत स्‍नान कहते हैं, वह दिन सबसे शुभ माना जाता है, यह पता लगा। मगर शाही स्‍नान में जबरदस्‍त भीड़ भी होती है। मुझे भीड़ में जाना पसंद नहीं, मगर कुंभ जाना हो, तो भीड़ में घुसना ही होगा। उस पर 144 साल बाद आने वाला महाकुंभ। (यह सुनी -सुनाई बात है, सच पता नहीं) इसल‍िए शाही स्‍नान की त‍िथ‍ि से दूर 23 व 24 जनवरी को प्रयाग जाना तय किया। संयोग ऐसा क‍ि ट्रेन की टिकट भी मिल गई और रहने के लिए एक बार में टेंट भी बुक हो गया। यहाँ भी हमने भीड़ से दूर वाला क्षेत्र चुना, सेक्‍टर 25, यमुना तट का क‍िनारा ज‍िसे अरैल घाट कहा जाता है। 22 की शाम साढ़े आठ बजे की ट्रेन थी, जो घंटे भर देर से खुली राँची स्‍टेशन से। बहुत द‍िनों बाद ट्रेन की यात्रा पर न‍िकले थे हमलोग। गप करते, खाते-पीते कब 12 बजे, पता नहीं चला और फ‍िर हम सो गए। सुबह ट्रेन घंटे भर देर से छिवकी स्‍टेशन पर लगी। यह प्रयागराज जंक्‍शन से करीब छह- सात क‍िलोमीटर की दूरी पर है और संगम स्‍थान से करीब 12 किलोमीटर।

ट्रेन से बाहर न‍िकले , तो पता लगा क‍ि प्‍लेटफार्म एक नंबर से बाहर न‍िकलने पर रोक लगा दी है और हमें दूसरे रास्‍ते बाहर निकलना होगा। भीड़ में हम भी साथ हो ल‍िये। चलते गए, चलते गए, न कोई ऑटो मिला, न रिक्शा, न ही कैब बुक हो। पता लगा इसे भी ‘नो व्‍हीकल जोन’ बना द‍िया गया है। अब चलते रह‍िए सामान के साथ पैदल, करीब दो किलोमीटर पैदल चलने के बाद हमें ऑटो मिला।

‘‘पाँच सौ रुपये लगेंगे, छोड़ दूँगा सेक्‍टर 25 तक।’’

जाने क‍िन-किन गल‍ियों, चौराहों से घुमाते हुए हमें लेकर चल दिया वह बातूनी ड्राइवर। कितने में म‍िला टेंट, कब बुक क‍िया, हम , तो इसके आधे के आधे में द‍िला देते। स्‍कूल के ल‍िए चलाते यह ऑटो, बीच में समय है, तो सोचे थोड़ा सवारी उठा लें, आपको गाड़ी चाह‍िए, अभी हम द‍िलाते हैं, चार चक्‍का में जाइए, ऑटो वालों की कोई इज्‍जत नहीं, घुसने ही नहीं देंगे।

सच ही कह रहा था बंदा। हमारे सेक्‍टर से काफी पहले ही एक पार्किंग स्‍टैंड बनाया हुआ था। वहीं हमें रोक द‍िया गया। ड्राइवर ने हाथ जोड़ ल‍िये- ‘‘हम , तो कहे थे आपको पहुँचा देंगे सेक्‍टर तक। पुल‍िस वाले जाने नहीं दे रहे , तो क्‍या करें?’’ फिर एकबार सामान हाथ में उठाया और चल पड़े। वह , तो शुक्र है क‍ि ज्‍यादा सामान नहीं था, वरना दोपहर की धूप में हमारी हालत खराब हो जाती।

करीब आधा क‍िलोमीटर चल गए; मगर हमारे टेंट का पता ही नहीं चल रहा था। न कोई र‍िक्‍शा वाला बताए, न कोई राहगीर। आख़िर थक कर हमने चेक पोस्‍ट पर खड़े पुल‍िसवालों से सहायता माँगी। वे भी अनजान; मगर तभी बुकिंग वाले ने फोन उठा ल‍िया, जिसे आधे घंटे से लगातार लगाए जा रहे थे हम। पता लगा क‍ि हम सड़क के इस पार हैं और उस पार हमारा टेंट।

अंदर गए , तो मन प्रसन्‍न हो गया। कैंपस बहुत साफ और खूबसूरत। ऑफिस में इंट्री की और हम अपने टेंट की ओर चल पड़े। हर टेंट का नाम नदी के ऊपर रखा गया था। हमें जो टेंट म‍िला, उसका नाम गोदावरी था। बाहर दो आरामकुर्सी और अंदर होटल की तरह सारी सुविधाएँ। मन खुश हो गया। कुछ देर हमने आराम क‍िया और यह तय क‍िया क‍ि सीधे जाकर संगम में ही स्‍नान करेंगे। हमने ट्रेन में कुछ खाया नहीं था, इसल‍िए भूख लग गई थी। जैसे ही एक बजे, हमने डटकर खाया और आकर सो गए। सोना हमारे प्‍लान का ह‍िस्‍सा नहीं था, मगर यात्रा और धूप में चार-पाँच क‍िलोमीटर चलने के बाद थकान महसूस होने लगी।

घंटे भर बाद नींद खुली। हड़बड़ाकर हमलोग बाहर सड़क पर निकले और गुजरते हुए ऑटो को हाथ देकर रुकवाया। उसने कहा - तीन सौ, बिना किसी हुज्जत के हम ऑटो पर सवार हो गए। यह क्‍या ! मुश्‍क‍िल से तीन किलोमीटर की दूरी पर ही था अरैल घाट। इतनी दूर के तीन सौ, अब कुछ क‍िया नहीं जा सकता था। जहाँ रोका ऑटो वाले ने, हमलोग उतरकर चल पड़े।

था , तो अरैल घाट ही, मगर संगम जाने के ल‍िए जहाँ नाव स्टैंड बनाया गया है, वह जगह काफी दूर थी वहाँ से। करीब एक क‍िलोमीटर। सड़क क‍िनारे सैकड़ों दुकानें लगी थीं और अधिकतर में बच्‍चे ही दुकानदार थे, जो गंगाजल ले जाने के लिए हर साइज का गैलन बेच रहे थे। नदी तट पर जबरदस्‍त भीड़ और जहाँ तक नजर जाती, नदी में नाव ही नाव। कुछ लोग क‍िनारे नहा रहे थे, कुछ गैलन में गंगाजल भरकर ले जा रहे थे। एक साधु चुपचााप किनारे पर बैठा एकटक पानी को निहार रहा था। क‍िनारे -क‍िनारे चलते काफी दूर न‍िकल आए थे हम मगर स्टैंड अब भी दूर ही था। इसी बीच अचानक एक नाव किनारे लगी और बगल में खड़े आदमी ने कहा - ‘‘संगम जाना है, तो चुपचाप बैठ जाइए।’’

‘‘क‍ितना लोगे- तीन हजार?’’

हम तीन के ल‍िए तीन हजार; मगर अब तक समझ आ गया था क‍ि यहाँ क‍िसी चीज का कोई रेट फ‍िक्‍स नहीं। बेतहाशा भीड़ और मनमाना दाम। अगर नाव स्‍टैंड पर जाते, तब तक शाम हो जाती। हमें जल्‍दी थी।

नाव में बैठकर इत्‍मीनान हुआ और आसपास देखा। ढेरों प्रवासी पक्षी आने-जाने वाली नाव के ऊपर मँडरा रहे थे। एक नाव वाला उनके ल‍िए दाने बेच रहा था। सूरज हमारे पीछे धीमे-धीमे उतर रहा था और प्रवासी पक्षी मकई के दानों को देख हमारे पीछे खिंचे चले आ रहे थे।

लगभग पन्‍द्रह म‍िनट बाद हमलोग त्रिवेणी संगम पर थे, जहाँ गंगा और यमुना के पानी के रंग में बारीक- सा अंतर दिख रहा था। सरस्‍वती , तो व‍िलुप्‍त ही थी। कई नावें एक दूसरे से सटकर लगी हुई थी और वहाँ पंड‍ित जी पूजापाठ का तामझाम लेकर बैठे थे।

हम सीधे पानी में उतरे। वहाँ घुटने से नीचे पानी था। बहुत लोग स्‍नान करने वाले थे, मगर उस क‍िनारे यानी क‍िले की तरफ ज‍ितनी भीड़ दिख रही थी, उस ह‍िसाब से यहाँ कुछ भीड़ नहीं थी। लोग आराम से डूबकी लगा रहे थे। वहाँ नाव पर संगम का जल ले जाने के ल‍िए रंग- बिरंगी गैलन बिक रहे थे। गंगाजल का महत्त्व इतना है क‍ि हर हिंदू अपने घर में अवश्‍य रखता है।

इतने कम पानी में स्‍नान करने का आनंद नहीं आया। क‍िनारे मह‍िलाओं के ल‍िए चेंजिंग रूम बना हुआ था। वहाँ कपड़े बदलकर हमलोग नाव में वापसी के ल‍िए बैठ गए। पश्चिम में सूरज एक बिंदी की तरह द‍िख रहा था। हम लोगों ने वापस टेंट पहुँचकर गर्म चाय पी, जिससे ताजगी का अनुभव हुआ।

अब जाना था उस पार, जहाँ सेक्टर 18 से 20 में साधुओं का अखाड़ा था। पूरे देश के साधु -महात्‍मा नदी के उस पार जमा थे, ज‍िन्‍हें सामने से देखने का आकर्षण कुंभ में खींच लाया था मुझे। समस्‍या यह क‍ि उस पार जाने के ल‍िए पीपा पुल पार करना होगा। यानी इस छोर से उस छोर। सात बज चुके थे। पैदल जाने की इच्‍छा नहीं थी। एक ऑटो वाले से डील हुई क‍ि वह उसी से पूरा कुंभ क्षेत्र घुमाकर वापस टेंट छोड़ जाएगा। हमें बिठाकर पहले सेक्टर 23 के पीपा पुल से निकलने की कोशिश की, वह वन वे था फिर 24, 27, 29 सब बंद। आखिरकार वह शहर के बाहर पुराने पुल से हमें ले जाने लगा। पूरी नदी ब‍िजली के लट्टुओंसे जगमगा रही थी। रास्‍ते में इतना भंयकर जाम क‍ि लगा यहीं नैनी ब्र‍िज से लौटना पड़ेगा। सरकते -सरकते, सँकरी गल‍ियों से होते नाग-वासुकी मंदिर के दर्शन करने के उपरांत वेणी माधव मंद‍िर होते हुए जूना अखाड़ा पहुँचे।

रात होने लगी थी। ठंड का समय। सारे साधु महात्‍मा अलाव के क‍िनारे बैठे थे। जो भक्‍त करीब जाते, उनकी ललाट पर भभूत का टीका लगा देते। कुछ श्रद्धालु अपनी मर्जी से उनको चढ़ावा चढ़ाते, कुछ को वे इशारा करते क‍ि - बच्‍चा..कुछ डालते जाओ थाली में।

उस समय तक सोशल साइट पर आईआईट‍ियन बाबा और माला बेचने वाली मोनाल‍िसा की धूम मच चुकी थी। एक चाँटा मारने वाले बाबा और रुद्राक्ष वाले बाबा की भी खूब चर्चा थी। बाकी , तो नहीं द‍िखे, मगर रुद्राक्ष वाले बाबा भीड़ से घ‍िरे म‍िले। हर कोई उनसे आशीर्वाद लेना चाह रहा था। अखाड़े में छोटी -छोटी कुट‍ियाँ बनी हुई थीं और अलग-अलग गुट बनाकर सब बैठे थे। कुछ बाबा बतियाते म‍िले, तो कुछ शरीर पर राख मले धुनी रमाए बैठे थे।

क‍िसी कुट‍िया के आगे भगवान की तस्‍वीर रखी थी। उस पर गेंदे की माला सजाकर आकर्षक रूप द‍िया गया था। मोर पंख के गुच्छों को सर से छुआ आशीर्वाद देते थे बाबा। कहीं - कहीं माला-मनका और रुद्राक्ष और जाने क्‍या -क्‍या अबूझ चीजें बेची जा रही थी। एक बाबा रात में भी लाल ग्लास का गॉगल्स पहनकर च‍िलम फूँकते म‍िले।

“रात में गॉगल्स क्‍यों पहने हैं बाबा ?’’ रहा नहीं गया , तो पूछ ही बैठी।

“तुम लोग स्‍टाइल करते हो न, तो यह मेरा स्‍टाइल है।” बाबा ने हँसते हुए कहा और हमारे साथ मुस्‍कराते हुए फोटो भी खिंचवाया ।

आगे बढ़े , तो फूस की झोपड़ी की दीवार का सहारा लेकर एक बाबा कान में फोन लगाए बैठे थे और एक भक्‍त उनकी चरण सेवा में लगा था। एक और कुट‍िया में प्रवेश क‍िया, तो बाबा ने इशारे से सामने बुलाया और लोहे का त्र‍िशुलनुमा डंडा ज‍िसे नीचे लोहे से टाइट कर पकड़ने के ल‍िए गोल चूड़ीनुमा रिंग लगा था, उससे पीठ पर थपकी दी। मुझे थोड़ा दर्द महसूस हुआ।

जाने क्‍या था चेहरे का भाव कि बाबा ने पूछा - “खाना खा ल‍िया? अंदर जाओ, भोजन की व्‍यवस्‍था है।’’ हमने नहीं खाया था , मगर उनको मना किया । फ‍िर वो बोले- “रहने की व्‍यवस्‍था हुई, न हो , तो रुक जाओ, यहाँ पर्याप्त जगह है।”

मैंने हाथ जोड़े और उनके बगल में बैठे महन्‍त की फोटो खींच ली, जो सुट्टा तान रहे थे। वे अकबकाए-“कहीं फोटो मत लगा देना!”

‘‘नहीं लगाऊँगी’’ कहकर मैं वहाँ से न‍िकल पड़ी।

मुझे जो देखना था, वह द‍िखा नहीं। बहुत सामान्‍य- सा सब था। जैसे मंद‍िरों में चढ़ावा चढ़ता है, वैसे यहाँ भी पैसे द‍िए जा रहे थे। शायद रात भी होने लगी थी। शंकराचार्य के मठ भी थे वहाँ, मगर गई नहीं। सोचा अब क‍िन्‍नर अखाड़ा देखकर वापस हो लेंगे।

मगर ड्राइवर का कहना था कि वह बहुत दूर है और अब सब सोने की तैयारी में होंगे। बात सही थी। हमलोग उसी आटो में बैठकर वापस अपने टेंट पहुँचे। रात का भोजन किया और सोने चले गए। हमारे पास आज का द‍िन भी था। सुबह हमारे कदम फिर अरैल घाट के संगम की ओर बढ़ चले। भोर में सूरज की क‍िरणों से यमुना का पानी सोने की तरह चमक रहा था। ऊपर उड़ते पक्ष‍ियों का कलरव और नीचे चलती नाव ने उस सुबह को अद्भुत रूप-राश‍ि दे दी थी।

इस बार नाव‍िक ने ऐसी जगह नाव लगाई, जहाँ कमर से ऊपर तक पानी था। हमने मजे में खूब डुबकी लगाई। आज स्‍नान का आनंद आ गया। भरपूर नहाने के बाद वापस टेंट में आकर नाश्‍ता क‍िया और तुरंत न‍िकल पड़े। हमें उस पार जाना था और पैदल ही जाना था।

सोमेश्‍वर घाट के सामने से उस ओर जाना था, तो पहले मंदिर भी हो ल‍िये। पीपा पुल पार करते हुए ठंडी हवा ने मन खुश कर द‍िया। यहाँ भी संगम का पानी आता है; इसल‍िए स्‍नान करने वालों की भीड़ थी। सबसे मजेदार लगा एक कुत्‍ते का पानी में तैरते हुए नहाना। वह अपने माल‍िक के साथ आया था और उसके साथ -साथ डूबकी लगा रहा था। नदी के बीच में सफेद रंग की लंबी कतार थी। ऐसा लग रहा था लाइन से ढेरों कुमुदनी ख‍िली हो। मगर नहीं, वह , तो पक्षियों की कतार थी, जो बहुत मोहक लग रही थी।

हम पैदल चलते जा रहे थे, मगर कुछ गाड़ियों को परमीशन थी पार होने का। वीआईपी कल्‍चर हमारे देश की नस-नस में बसी हुई है। कुछ पल को गुस्‍सा आया मगर गंगा की लहरों को छूकर आती हवा ने ध्‍यान वापस पानी और पक्ष‍ियों की ओर मोड़ द‍िया।

अब हम उस पार थे। भीड़ थी, नहीं, जन सैलाब था। लाखों की भीड़..सबके कदम संगम की ओर उठ रहे थे। हमने सोचा- यहाँ तक आ गए हैं, तो हनुमान जी के दर्शन कर लें। यह एक ऐसा व‍िचार था, ज‍िसने हमें थका के चूर कर द‍िया। हमने फ‍िर से पैदल एक पीपा पुल पार किया। रास्‍ते में एक बच्‍ची म‍िली, जो बाँस की बल्ली से बैलेंस बनाते हुए रस्सी पर चल रही थी। बगल में लाउडस्पीकर पर तेज आवाज में कोई भजन बज रहा था और उस बच्ची की सुरक्षा या कहें साथ देने के ल‍िए उसकी माँ भी नीचे- नीचे चल रही थी। मुझे यह दृश्य बहुत व्यथित करता है। एक छोटी बच्‍ची, ज‍िसे स्‍लेट कॉपी थामकर स्‍कूल जाना चाह‍िए, वह पेट पालने के ल‍िए तमाशा या कह‍िए अपने नन्‍हे- से जीवन को दाँव पर लगा पतली रस्‍सी पर चल रही। अगर ग‍िर पड़ी, हाथ- पैर- कमर टूट गए , तो? आगे एक बाबा बहुत इत्‍मीनान से पुआल के ढेर से लगकर नींद ले रहे थे। हाफ पैंट पहने एक बाबा काँटों के ब‍िस्‍तर पर लेटकर डमरू बजा रहे थे। लोग उनके पास कुछ देर को रुकते, देखते, पैसे फेंककर आगे बढ़ जाते। यह तपस्‍या पेट पालने के ल‍िए है। हमलोग भी तमाशबीन की तरह सब देखते आगे चले जा रहे थे। अचानक एक साधु आया और उसने कहा - “दीया जलाने के लिए तेल दे दो माई।” मैं इंकार नहीं कर पाई। पास की दुकान से सरसों का तेल खरीदकर उसे द‍िया और आगे बढ़ चली। मंदिर दूसरे छोर पर था। लाखों की भीड़, लोग थैला उठाए, कंधों पर बच्चों को ब‍िठाए, चलते चले जा रहे थे। एक पर‍िवार रस्‍सी के घेरे में खुद को बाँध कर आगे बढ़ता जा रहा था। कोई थककर सड़क पर बैठ गया था, कोई गन्‍ने का रस पीकर प्‍यास बुझा रहा था।

मंदिर के पास भीड़ नहीं, समंदर था। मैंने कहा- वापस चलते हैं ; हालाँक‍ि मुझे क‍िला देखने का मन था, मगर ह‍िम्‍मत नहीं थी। एक फूल की दुकान वाले के सहयोग से जरा अंदर जाकर और प्रणाम कर हम न‍िकल पड़े क‍ि अक्षयवट और अकबर के क‍िले को देखने फ‍िर कभी आऊँगी।

अब तक तीन बार पीपा पुल पार कर चुके थे। लगातार चलने के कारण थकान होने लगी थी। वापसी में एकतारा बजाकर गाते हुए एक बाबा म‍िले। सच कहूँ, एकदम मोह ल‍िया उन्होंने। मैं थमी रह गई वहीं- “सब तीरथ कर आई, जन्‍म की मैली चुनर‍िया।” इतना बेहतरीन गा रहे थे और धुन, अगर हमें आगे नहीं जाना होता, तो वहीं रुकती, देर तक उनको सुनती। वापस आने के बाद अफसोस हुआ क‍ि क्‍यों नहीं अपने मन की सुनी मैंने।

अब हम एक बार वापस सड़क पर आ गए। किन्नर अखाड़ा सेक्‍टर 16 में था और हमलोग सेक्‍टर 25 से निकलने के बाद लगातार पैदल ही चल रहे थे। बहुत देर तलाशने के बाद एक ऑटो वाला म‍िला, जो हमें किन्नर अखाड़ा ले गया। वहाँ की भव्‍यता ही अलग थी। महामंडलेश्‍वर लक्ष्‍मी नारायण त्र‍िपाठी मीड‍िया और प्रभावशाली लोगों से घ‍िरी हुईं थी। उनके पीछे कैमरा लेकर लोग भागे जा रहे थे। मैंने दूर से देखा सब। जब भीड़ छँटी, तो जाकर प्रणाम क‍िया। उन्‍होंने एक सिक्का द‍िया मुझे। पूरे अखाड़े पर‍िसर में किन्नर सुंदर वेशभूषा में जगह-जगह बैठे थे। लोग श्रद्धा के स‍िर झुकाकर आशीर्वाद ले रहे थे।

कुछ देर रुककर हम सीधे वापसी का रास्‍ता पकड़े। एक ऑटो वाले ने हमें 26 नंबर के पीपा पुल के पास छोड़ द‍िया क‍ि इस रास्‍ते वापस जा सकते हैं। मगर क‍िसी वीआईपी मूवमेंट के कारण उसे वन वे कर द‍िया गया था। 27 नंबर भी बंद। थके हुए हमलोग एक चाय की दुकान पर बैठ गए। कुछ खाया नहीं था गोलगप्‍पों के स‍िवा, तो भूख भी लगी थी। रास्‍ते में कई जगह भोजन बँट रहा था, जिसमें बहुत लंबी लाइन थी। कई जगह लंगर भी चल रहा था। हमलोगों ने चाय के साथ ब‍िस्‍क‍िट खाया।

वहीं म‍िली एक सोलो ट्रैवलर जो कुंभ की मह‍िमा सुनकर विदेश से आई थी। उसे बहुत अच्छा अनुभव हुआ यहाँ आकर। कहने लगी - बहुत अच्‍छे लोग हैं यहाँ के। सब हेल्‍पफुल। बस उसे भी हमारी तरह ही श‍िकायत थी क‍ि सही जानकारी नहीं दी जा रही क‍ि क‍िधर से जाएँ, कहाँ कोई सवारी म‍िलेगी। वीआईपी मूवमेंट ने आम जनता की हालत खराब कर दी थी।

आख‍िरकार हम 28 नंबर के पीपापुल पहुँचे और शाम के सन्नाटे में नदी पार करने लगे। हवा में घुली ठंडक से हमारी थकान कम होने लगी। साँझ ढल गई थी। केवल लाल‍िमा बची थी, जिससे गंगा के पानी का रंग गुलाबी हो आया था। रौशनी की झालर पानी में अपना प्रतिबिंब बनाती और मोहक हो उठी थी। पुल खत्‍म हुआ , तो हम अपने टेंट बहुत क़रीब थे। करीब 20 किलोमीटर की लंबी दूरी जीवन में पैदल कभी तय नहीं की थी। टेंट पहुँचकर पहले , तो बिस्तर पर ढह गए हम। फिर कुछ देर बाद ड‍िनर के लिए गए। आज वहाँ एक लड़की बहुत मधुर भजन सुना रही थी। हमने देर तक भजन का आनंद उठाया और कैम्पस में कुछ देर चाँदनी रात और हवाओं को महसूस क‍िया।

सुबह जल्‍दी न‍िकलने की ताकीद बहुत लोगों की थी। जल्‍दी निकलने और कैब करने के बावजूद लगा क‍ि ट्रेन छूट जाएगी। ज‍िस रास्‍ते से जाएँ, उधर ही जाम। तनाव ने हमारी बोलती बंद करा दी। हम आप्‍शन तलाशने लगे क‍ि अगर ट्रेन छूटी, तो वापस कैसे जाएँगे। जैसे ही स्‍टेशन के पास कैब रुकी, हमलोग दौड़ते हुए प्‍लेटफ़ार्म तक पहुँचे ही थे क‍ि हमारी ट्रेन आकर लगी। पाँच मिनट की देरी से ट्रेन छूट जाती; हालाँक‍ि हमें घर रात के एक बजे पहुँचना था, सुबह छह बजे पहुँचे; मगर पहुँच गए।

साधुओं से म‍िलने और उनको समझने की इच्छा मन ही में रह गई। हाँ, यह ज़रूर कह सकते हैं कि हमने भी एक बार जीवन में कुंभ स्नान कर लिया।

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