सब साजिन्दे / मुशर्रफ आलम ज़ौकी
अरशद पाशा उलझन में थे।
थापड़ ने उसे गन्दी-सी गाली बकी... तेरे सिकुलरिज्म की माँ की... अरशद पाशा उसकी तरफ़ घूमे... थापड़ के होंठों पर मुस्कुराहट बरस रही थी... खैर छोड़ो... जिस मीडिया में हम तुम हैं... वहाँ अधिकतर ख़ामोश रहना ही पड़ता है... इस मीडिया में आने का पहला नियम है... होंठ सी लो... कान बन्द कर लो... और आँखों पर हाथ रख लो...
वह हँस रहा था...
अरशद पाशा के माथे पर बल पड़ गये... तुम भी वही भाषा बोल रहे थे थापड़...
थापड़ ने फिर गंदी से गाली बकी... होश में आ... तेरा सिकुलरिज्म इस देश में बच्चों की मूत भरी जांघिया बदलने के भी काम नहीं आ सकता। इन वर्षों में जो कुछ हुआ है, वह तुमने भी देखा और हमने भी... और ऐसे किसी भी मामले पर न दलीलें काम आती हैं न तर्क, न दिमाग... एक आदमी चोरी करता है... चोरी करते हुए पकड़ा जाता है... देखने वाले गवाह मौजूद होते हैं मगर? क्या होता है अरशद पाशा... चोर की पहुँच ऊपर तक होती है तो सब को ख़रीद लेता है, देखते ही देखते मीडियाज का हीरो बन जाता है। अदालत में वह ख़रीदे गये वकील की भाषा और आँखों के इशारे समझता है और कुछ भी नहीं किया' कहकर भोला-भाला मासूम बन जाता है। मुकदमा ख़ारिज... प्रधानमंत्री को करोड़ों के ब्रीफ़केस पहुँचाए जाते हैं और सारा मामला साफ़। तांत्रिक और रंडियों के दलाल जैसे साधू-संत, राजनीति का बिछौना बिछाते है। मंत्री उनके पाँव चूमते हैं... यहाँ औरत को टुकड़ों में काटकर मक्खन और क्रीम लगाकर तन्दूर में डाल दिया जाता है... और सारे मामले हाजमे की गोलियों की तरह हम पचा लेते हैं... फिर कोई नया स्केण्डल... नया मामला... कोई मथुरा, काशी, पाबसाई बाठ कोई ढाँचा या मस्जिद... यहाँ एक खिलाड़ी जूते पर अंजाने में अपने हस्ताक्षर किसी कम्पनी को बेचता है तो तुम्हारे चार दाढ़ी वाले मुल्ला इसे पब्लिक इशू बना लेते हैं... झट से अल्लाह, भगवान और ईश्वर के अनादर पर तो तेवर चढ़ जाते हैं परन्तु तब... जब ढाँचे के तन्दूर में कोई औरत जलाई जाती है..., कोई देवदासी, जैन, ऋषि, मुनियों के आश्रम में प्रतिदिन ही बलात्कार का शिकार होती रहती है... मन्दिरों के साधु और तन्त्र-मन्त्र का नाटक रचने वाले तांत्रिक इस देश के भाग्य विधाता बन जाते हैं... किस्से एक नहीं हैं पाशा, हज़ारों-लाखों में हैं... परन्तु। सोचना नहीं है। बोलना तो है... सुनना नहीं है... एक कान से सुनना है और उड़ा देना है... क्योंकि यही अब तक होता रहा है... बोफोर्स से बसाई बाघ तक... प्राइम मनिस्टर की बतियाओं से तन्दूर की आग तक... उन्हें बचाने वाली हाजमे की गोलियाँ नहीं बनतीं तो देश में एक आदमी नहीं होता... थोड़ा-सा भी दिल, जिगर या एहसास होता ना, तो किसी न किसी इशू या पहलू को उठाकर हम में से अधिकतर लोग या तो हत्यारे बन चुके होते या आत्महत्या कर चुके होते... या देश ख़त्म हो चुका होता या देश का नक्शा बदल गया होता या प्रतिदिन ही इस तरह की घटनाएँ सामने आतीं कि संसद भवन में लाशों के ढेर लग गए। यहाँ पकड़ा... वहाँ मारा... कहीं ज़िन्दा जलाया और तुम्हारी व्यवस्था में चली आ रही बीमारी का एक पल में सफाया। परन्तु नहीं दोस्त, ऐसा संभव ही नहीं है, जानते हो क्यों?
थापड़ हँसा-- क्योंकि वास्तव में मानने न मानने के बावजूद एक मज़हबी चुडै़ल अपने मुड़े पंजों के साथ अन्दर बैठी है। चुडैल है ना, वह प्रति क्षण कोई न कोई रूप बदल कर सामने आती रहती है...
अरशद पाशा के होंठ कँपकपाएँ। तुम्हारे अन्दर का फस्ट्रेशन बोल रहा है। चिढ़ गये हो तुम... इसलिये कि केवल मीडिया मैन बनकर रह गये हैं... प्रिंट मीडिया के दफ़्तर का एक गुलाम आदमी, अपनी आठ घंटे की ड्यूटी के बाद घर, घराने और बच्चों के बारे में सोचता हुआ... डर गये हो तुम...।
क्यों? नहीं डरना चाहिए मुझे...?
थापड़ हँस रहा था...
घर जाओ तो वही एक उदास पत्नी, मैले कपड़ों की गठरी में सूखे होंठ वाले बेरस बच्चे। मुझे नहीं डरना चाहिए अरशद पाशा...
फिर इस भाषण का मतलब?
मतलब कि हम अभी कमीने नहीं हुए... होना भी नहीं चाहते... आठ घण्टों की मज़दूरी के बाद हम में से अधिकतर लोग हैं, जो अपना हक़ चाहते हैं या मांगते हैं... और ये एहसास के फाहे जो तुम्हें किसी जवान लड़की के कूड़े के ढेर पर फेंके गये माहवारी के टुकडे की तरह चुभते हैं ये एहसास भी उनके रवैयों, उनके बर्बरता के नतीजे हैं... ये... उनके क्रप्शन... ढके-छिपे नहीं... साफ़-साफ़ दिखाई देने वाला क्रप्शन... ग्लास में कीड़ा, मक्खी या पिल्लू पड़ जायें तो हमें उबकाई आने लगती है... हम पीना नहीं चाहते... परन्तु यहाँ सारा कचरा, अल्लम-ग़ल्लम, सड़ा-गला, न चाहते हुए भी गले से नीचे उतारना पड़ता है... और कहना पड़ता है स्वयं को, कि तुम पढ़-लिख गये हो तो यहाँ तुमसे ज्यादा जलील और कोई दूसरा नहीं... परन्तु इसके बावजूद भी एक फ़र्क है हम में और उनमें। हमने अभी रण्डियों के भड़वों से यारी नहीं की है... इसलिए कि हम उनके तौर-तरीके नहीं जानते हमने ये पढ़ा है कि तुम अरशद पाशा हो और मैं थापड़... तो हम दोनों में कोई फ़र्क नहीं है..., मगर अब अन्दर बैठी चुडैल इस एहसास को भी कमजोर करने लगी है...
थापड़ हँसा...
वह कैसे?' अरशद पाशा की आँखों में भय सा उत्पन्न हुआ।
अच्छा तुम बताओ, तुमने उस शराबी औरत और उसके मर्द को क्यों निकाला,तुमने? तुमने अशरद पाशा... फ़साद और दंगे के बारे में तो अच्छी तरह जानते थे तुम... फिर क्यों निकाला... क्योंकि... वे हिन्दू थे इसलिए...?
थापड़ जोर से हँसा... वे हिन्दू थे, इसलिए तुमने आसानी से हटा दिया उन्हें...
इसलिए कि तुम यही कर सकते थे... अपने ढंग से बदले की एक छोटी सी कार्यवाही... और तुमने देखा... वह औरत कितनी बहादुर थी, या नहीं जानते हुए भी सेकूलर थी... आख़ थू... मुझे कमबख्त सोशलिस्ट सेकूलर, लिबरल जैसे हरामी और दोगले शब्दों से चिढ़ हो गयी है... खैर छोड़ो अरशद पाशा। वह गई और साथ में तुम्हारे उस मुसलमान छोरे को भी ले गई, जो अंजाने में उसका बेटा बन गया था... फ़साद में चारों ओर मुसलमान मारे जा रहे थे... तुम भला कैसे गवारा करते कि तुम्हारे यहाँ...।
थापड़!
अरशद पाशा, चीखना चाहते थे परन्तु चीख़ न सके... वे सन्नाटे की पकड़ में थे... नहीं... आवाज़ों की नहीं... शोर का एक समुंद्र था और... उनका दम घुटता जा रहा था।
थापड़ की आवाज़ उभरी...
कहाँ खो गये पाशा। आज तुम्हें कुछ दिखाना चाहता हूँ... आज... आज रात..।
आज रात...।
हाँ क्यों? चलोगे तो सारी ज़िन्दगी याद करोगे...।
परन्तु कहाँ...?'
एक बहुत ही कान्फिडेन्शियल क़िस्म की मीटिंग है... नहीं घबराओ मत... मेरे पास पास है... नहीं पास नहीं। वहाँ कुछ और चलता है। इंटरनेशनल बैंक का एक विशेष प्रकार का कार्ड। कार्ड मुझे मिला है... तुम चल सकते हो-और मैं चाहता हूँ कि तुम चलो... क्योंकि... उसके बाद...
वह हँस रहा था... तुम्हारे पास आँखें होंगी परन्तु तुम कुछ देख नहीं रहे होगे। लिखने के लिये भी जो एक खुशदिल और जज्बाती चिड़िया पंख कटा कर भी तुम्हारे अन्दर बसती है ना, वह बे पंख के भी उड़ जायेगी... फिर तुम कुछ भी लिख सकोगे... इमामों की बात, साधु-सन्तों और तांत्रिकों की बात, मंत्रियों की आज्ञापालन के किस्से... ऊँचे से ऊँचे मसनद पर बैठा हुआ कोई भी व्यक्ति तुम्हें गंदा या दोषी नज़र नहीं आएगा और सच तो ये है कि उसके बाद तुम पाप, पुण्य, जुर्म, परदा जैसी तमाम चीज़ों को जान जाओगे... सब चीज़ें तुम्हें एक जैसी लगेंगी... अर्थात् इतनी मिलती-जुलती कि तुम फ़र्क़ नहीं कर पाओगे अच्छे-बुरे में। बुरे-अच्छे में... और तुम्हें कोई भी सौदेबाज़ी, सौदेबाज़ी नज़र नहीं आएगी... तुम उन खरी-खोटी और अच्छी-बुरी कल्पनाओं से बहुत ऊपर उठ जाओगे। फिर भूल जाओगे कि कोई एक मुल्क भी है, जहाँ इमाम पेशावरी बसते हैं, जहाँ हलवाई और नानबाई बसते हैं। जहाँ की क़िस्मत का फैसला एक तांत्रिक करता है... जहाँ बच्चा ठाकुर जैसा कार्टूनिस्ट या जोकर गिद्ध सेना बनाता है... जहाँ कोई बसाई बाठ मस्जिद होती है... जिसकी आड़ में ये सारे के सारे सौदाग़र अपनी-अपनी दुकान सजाकर, अपने-अपने क़ौम के अंधे बन्दों से 'दे अल्लाह' और 'दे भगवान' करने लगते हैं। बुरा मत मानना अरशद पाशा!मगर तुम देखोगे... तुम चलोगे...।
मैं... अरशद पाशा के होश उड़ गये थे... थापड़ के शब्द नहीं थे... प्रत्येक शब्द अपनी जगह बारूद था... वह जैसे बारूदी सुरंग के मुहाने पर खड़ा था और बस जलती हुई माचिस की तीली... वह उड़ रहा है... नहीं... उसके चीथडे उड़ गये हैं...
ऐसे कितने दृश्य... क्या उन दृश्यों को भूल करके वह जी सकता है... उसकी आँखों में गिद्ध नाच रहे थे। नहीं गिद्ध सेना वाले... बच्चा ठाकुर... बसई बाठ मस्जिद के कार्यकर्ता... इमाम पेशावरी, अहमद साहब... गिलानी साहब... ये कछुए की चाल चलने वाले मौलवी या कुकुरमुत्ते की तरह राजनीति की मुर्गी से निकलने वाले गन्दे अण्डे की तरह दाढ़ी और टोपी पहने मुल्लाओं की वह फ़ौज, जो उनमें इस्लाम के ठेकेदार या दलाल बन जाते हैं। आपस में टकराव और लम्बे-लम्बे भाषण... गोश्त के क़ोरमे में डूबी हाथ की अंगुलियाँ, दाढ़ियाँ और दिमाग, बिल्डिंग्स पर बिल्डिंग्स खड़ी करने वाले, दंगों के हवाले से अरब देशों से... डॉलर्स का कारोबार करने वाले... अपनी-अपनी दुकान चलवाने वाले और दाढ़ियों में खतरनाक तिनके पालने वाले... उसने क़दम-क़दम पर ऐसे तमाम दाढ़ी वालों को देखा था... जो ऐसे मौकों पर अपने कौम के अन्धे बन्दों को राइफ़लों की नोंक पर आगे करके, एयरकंडीशन कमरों में बंद होकर डॉलर्स गिना करते थे... सैयद वहाबुद्दीन से लेकर नायब इमाम पेशावरी तक... ये तो बुलडोजर हैं... कच्ची रेत पर इमारतें खड़ी करने वाले... टके में फतवे बेचने वाले... टके में कुरान और हदीस का सौदा करने वाले... आमतौर पर छोटे शहरों में यही नाबीना (अंधे), काला चश्मा लगाये माहिर रूहानियात' क़ौम के हीरो कहलाते हैं... परन्तु...।
उसने तो क़रीब से देखा था, उन लोगों को... बहुत करीब से... उनसे मिला था... उन्हें जाँचा था, परखा था, देखा था... उनकी बातें भी सुनी थीं... और उनकी कहानियाँ भी सुनी थीं...।
कहानियाँ... इमर्जेन्सी का समय... शाही मस्जिद के हुजरे में बैठा इमाम पेशावरी... नसबंदी के सरकारी आन्दोलन को लेकर जनता में जबर्दस्त गुस्से की लहर चल पड़ी है... प्राइम मिनिस्टर हाऊस से एक आदमी आता है... हुजरे में बैठा इमाम किसी नई बिल्डिंग, सोसाइटी या इमारत की ठेकेदारी के दाम तै कर रहा है... वह ताली बजा कर कमरे खाली करवाता है... काला चश्मा आँख पर बराबर करता है... प्राइम मिनिस्टर हाऊस से आये बन्दे के लिये सम्मान में उठता है... क़रीब बैठाता है... और पूछता है... हुक्म... हम तो हुक्म के पत्ते हैं साहब? दो टूक सवाल उधर से होता है... काम आप करेंगे... रकम जो चाहे आप तै करें।
काले चश्मे के अन्दर की आँखें सामने वाले व्यक्ति को टटोलती हैं... जो वही कुछ है। जो कुर्बानी से दो-चार रोज पहले जामा-मस्जिद की सीढ़ियों पर, या ऐसी तमाम जगहों पर जहाँ कुर्बानी के जानवर बेचे और खरीदे जा रहे हों..., ये दृश्य आप आसानी से देख सकते हैं, एक कसाई है... और एक ग्राहक... और एक कुर्बानी का जानवर है... जिसका सौदा हो रहा है... काले चश्मे के अन्दर की आँखें कुचलती हैं... करना क्या होगा? मुसलमानों को नसबंदी के लाभ बताने हैं। आवाज ठहर-ठहर कर उठती है... रेत की तरह... शीत लहर की तरह... समझ रहे हैं ना आप... कुरान और हदीस की रौशनी में... समझ रहे हैं ना आप... मुस्कुराहट आपकी क़ौम वाले आप ही की आवाज़ समझते हैं... तो मैं प्राइम मिनिस्टर को यहाँ बुला दूँ... काम आपको करना है और दाम आप तै करेंगे...।
आदमी चला जाता है...।
आदमी आता है... जाता है...।
और फ़तवे बेचने में खर्च ही क्या होता है... ये इमाम के पीछे अंधे होकर नमाज पढ़ने वाली लाखों, करोड़ों की जमाअतें... भला इंकार का दम किस में है... ये सब हलाल होने वाले जानवर ही तो हैं... आदमी आता है और जाता है... सरकारें आती हैं और जाती हैं... फ़तवों का क्या है... ये तो पैसों के अनुसार बनाये और बेचे जाते हैं...।
ऐसी कितनी ही घटनाएँ... कितनी ही कहानियाँ... उस हम्माम में कौन है, जिसे वह नहीं जानता, नहीं पहचानता... सब एक ही थाली के चट्टे-बट्टे... वह सब की नब्ज-नब्ज से परिचित है... इसलिए वह उन से नफ़रत करता है कि उसका वार चल जाये तो वह उन्हें पागल कुत्तों की तरह शूट कर दे--धाँय!
परन्तु नहीं... वह कुत्तों को शूट कर सकता है... सिर्फ सैयद वहाबुद्दीन और इमाम पेशावरी तो नहीं है... यहाँ, यहाँ बच्चा ठाकुर जैसे जोकर हैं, करतब बाज हैं, धक्के हैं, वहीं कछुओं की चालों वाले और गीलानियों की भी एक बड़ी जमाअत है... सब सौदेबाज़ और अपने-अपने मकरो फरेब की मुँह मांगी कीमत वसूल करते हुए... हलवाई, नानबाई और बाँसुरई बिगुल रौशनी जैसे लोग, आलोक सिंघल जैसे तिलकधारी... जो एक शब्द ढंग से बोलना नहीं जानते। परन्तु बेचते रहते हैं... दो टके में मन्दिर और मस्जिद। नानबाई जैसे लोग, जो हलवाई की रथयात्राओं पर चुप्पी साधे रहते हैं, कविताएँ लिखते हैं... और दोनों ओर से लड्डू बटोरने के उस्ताद हैं। बुराई भी करो और अच्छे भी बने रहो... प्राइम मिनिस्टर तक जिन की कविताओं के संग्रह का संचालन करते हैं और अपना गुरु मानते हैं परन्तु... अन्दर की बात है... लोग बताते हैं कि उनकी जांघियाओं के रंग भगवा हैं...।
नानबाई... प्रकट में मासूम दिखने वाला ये कोई राजनीतिज्ञ उसे इस शताब्दी का सबसे बड़ा जालसाज नजर आया था। ऐसे लोग..., उसका मानना था कि जो अन्दर से कुछ और बाहर से कुछ होते हैं, उनसे ज्यादा खतरनाक तो दो-मुँहा साँप भी नहीं होते। वास्तव में नानबाई का मासूम बने रहना उसे कभी पंसद नहीं आया। जिस पार्टी की नींव भी भोले-भाले इंसानों के कत्ल-ओ-खून पर रखी गई हो, उस पार्टी से किसी भी तौर पर जुड़े हुए लोग इसकी नज़र में हमेशा से नापसंदीदा रहे... ये नानबाई तो ख़ास तौर पर। उसे लगता, कविताएँ लिखकर यह व्यक्ति अन्दर के अपराधी व्यक्ति को छुपाने का असफल प्रयास करता है... कम से कम अपनी नजर में... कोई सी भी कविता लिखकर ये व्यक्ति आइने में अपना चेहरा अवश्य देखता होगा... कि सफ़ेदपोशी की कोशिश में वह कितना सफल हुआ और अपने आप पर परदा डालने की प्रक्रिया में उसे कितनी सफलता मिली।
हलवाई, बाँसुरी बिगुल रौशनी और आलोक सिंघल जैसे लोगों से उसे उसी तरह कोई ज़्यादा शिकायतें नहीं थीं, जैसे किसी बच्चे से... शरारती बच्चे से, जिसके बारे में अन्दाजा हो कि उसकी उछल-कूद कोई न कोई रंग तो दिखाएगी ही। ये लोग, उनकी बातें उसे बच्चों से ज्यादा कभी नहीं लगी... हाँ, ये सच है कि बचकानी होने के बावजूद उन में साँप की फुंकार भी शामिल रही। परन्तु नानबाई की तरह नहीं कि अन्दर कुछ और बाहर कुछ वाला मामला रहा हो। ये ग़लत रहे तो उन्होंने कभी स्वयं को ढकने या छुपाने का प्रयास भी नहीं किया... जैसे उस कार्टूनिस्ट जोकर बच्चा ठाकुर ने, जो प्रायः गिद्ध सेना के हवाले से बार-बार उल्टे सीधे बयान देकर अपने दुबले-पतले शरीर में उनकी प्रक्रिया के तौर पर पम्प से हवा भरने का काम करता था... और हमेशा ही बचकाने फ़तवे लागू किया करता था। ये सब लोग...यानी देश के हाशिये पर जमा जोकरों की ये चौकड़ी अधिकतर उसके अन्दर सोये राक्षस को जगा देती...।
देखते क्या हो मार डालो... इन सबको...।
इन दो मुँह वाले साँपों को...।
ये जो आए दिन रथ-यात्राएँ निकालते हैं...।
और इनकी खूनी रथ-यात्राएँ मासूम इंसान बदन से होकर गुजरती हैं...।
और ग़जब तो ये... कि ये इन यात्राओं का कारण भी प्रस्तुत करते हैं...।
ये... जो बचपन से जहर में डूबे शब्द पढ़ने के आदी रहे हैं... फिर चाहे वह पवन लाल फिराना बन जायें, या कुश्मा बनराज, नील गाव भाखडे हों, या जलियान सिंह, शंकर आचार्य हो या बदसूरत लाल हटुवा, नलकानी हों या गाजगरे विंधिया, माधुरी साधवी हों या चिम्मा भारती, विनोद महाजन हों या गुण्डा नाथ मण्डे... या वेद प्रकाश मोहली हों या ख़ाली-ख़ाली तख्त हों...।
शायद ये सब इस सेकूलर देश में ही चलता है जहाँ क़ातिल नेता कहलाते हैं... साँपों को दूध पिलाकर पाला जाता है... जहाँ साम्प्रदायिकता की कोख से जन्मी पार्टी, जनता की पार्टी कहलाती है, हुकूमत बनाती है... ओ ताश के बावन पत्तों को छितरा कर जोकर अपनी मनमानी और कार्यों पर खुश होता रहता है...।
शायद इस गणतन्त्र देश का यही नसीब है...।
कहाँ खो गये...? थापड़ उससे पूछ रहा है।
नहीं...कहीं नहीं।
थापड़ के चेहरे पर अर्थपूर्ण हँसी है। सोचने के लिये इस समय ने और इस समय के नेताओं ने अब मौका ही कहाँ छोड़ा है। अरशद पाशा, देश की बरबादी के बारे में सोचोगे तो फिर उन कुत्तों के बारे में भी गौर करना होगा, जिनके शरीर में पिल्लू (कीड़े) लग गये हैं... या जो अस्वस्थ बन कर सड़कों-चौराहों पर घूम रहे हों... इस देश का नसीब सुधारने का बस एक रास्ता है... इन तमाम पिल्लू लगे नेताओं को किसी खुले सड़क पर जमा करो और शूट कर दो।
वह हँसा। ज्यादा सोचो मत... आज रात याद है ना, उसने ठहाका लगाया... मेरे जज्बाती दोस्त... यह रात तुम भूल नहीं पाओगे...।
यह उन्हीं दिनों की घटना है, जब देश में सूर्य-ग्रहण की घटना ने खलबली मचा दी थी।