सब सीमाब सुनहरे / अनघ शर्मा
किसी समय, किसी देश, किसी देशकाल में कभी भी किसी परछाईं का रंग रूप उजला नहीं हुआ। न किसी औरत के सर पर न ही किसी आदमी के कन्धों पर कभी कोई परछाईं टिक सकी है। शाम होते-होते हर परछाईं, हर भ्रम को पैरों से नीचे उतर ही आना है।
रशीद
तुम्हारी चिट्ठी तो समय पर मिल गयी थी, पर ड्राफ्ट थोड़ा देर से मिला तो तुम्हें थोड़ा रुक अब ख़बर भेज रही हूँ। आजकल बड़ी बेचैनी रहती है जैसे अंदर-अंदर कुछ चल रहा हो। ख़ैर यूँ भी ग़ौर से देखो तो हमारे आस पास हमारे व्यक्तित्व में जाने कितने-कितने ढूह टीले उग आये हैं ... रेत की फिसलन भरी छोटी-छोटी पहाड़ियां जिन पर पाँव धरो तो अंदर धंस जाओ, भंवर के गोल छल्ले जो दिखने में तो बड़े अच्छे चमकीले लगते हैं पर जब अपने अंदर खींचने लगते हैं तब उनकी जटिलता का अनुभव होता है। साहिर की एक नज़्म सुना कर सआदत ने मुझे बड़े गहरे तक छू लिया था, आज उसी छुअन की सिरहन काटनी पड़ रही है। छूने की, स्पर्श की जो अनुभूति होती है न रशीद वह भी कई दफ़ा बड़ी काली अँधेरी होती है। यहाँ इस मंदिर के अँधेरे गर्भगृह के सामने हल्की रोशनी वाले कमरे में बैठ कर तुम्हें चिट्ठी लिखते समय मुझे बार-बार पीछे मुड़ कर देखना पड़ रहा है। दो-दो लोग अपनी-अपनी कंटीली विवशता में बंधे दीखते हैं मुझे। वहाँ अपने बिस्तर पर अपने अब गया तब गया जैसे छूटते हुए जीवन को थामे छोटी नानी हैं, और यहाँ तुम्हें चिट्ठी लिखती मैं। सआदत चौबे की तो बस परछाईंयाँ ही परछाईंयाँ है यहाँ कभी इस कोने तो कभी उस कोने। तुमने जो पैसे भेजे थे नानी के लिए वह मैंने धर्मशाला के कमरे के लिए दान दे दिए हैं। कमरा पूरा हो जाये और ये बिना किसी परेशानी के अपनी गति को पाएं तो मैं भी दीक्षा लूँ सत्रह साल हो गए खुद को सौंपे हुए. समय मिले तो हमसे मिलने आ जाना। हाल के महीनों में अगर जल्दी आओगे मिलने तो शायद छोटी नानी को देख पाओ और मुझे भी, वरना एक बार दीक्षा में गयी हुईं औरतें बाहर के लोगों से मिल नहीं सकती।
जानकी
1
हवा बीच हवा एक परिंदा गोते खा रहा था। कभी तेज हिचकोले खाता बड़ी तेजी से नीचे आता तो कभी ऐन ज़मीन के ऊपर से वापस लौट जाता। बड़ी देर तक करतब करने के बाद थक हार के परिंदा जब मंदिर की घंटी पर बैठा तो हवा में एक रुनझुन लहक गयी और दोपहर का सन्नाटा मानो एक पल को अंगड़ाई ले कुछ बोल गया हो। आवाज़ से चौंक कर वह पलटी. उसने परिंदे को देखा और परिंदे ने उसे। दोनों ही हैरान थे। वह सोच रही थी, कैसा अजब परिंदा है? आज से पहले कभी देखा ही नहीं, और परिंदा सोच था कि ये वही जानकी है। कितनी बदल गयी है। बाल कानों तक कटवा दिए है और टखनों तक जाने कैसी साड़ी लपेट रखी है। उल्टे हाथ की कलाई में कभी एक कंगन हुआ करता था। जाने कहाँ गया? अब तो दोनों कलाईयाँ कोरी हैं। शिव मंदिर की पुजारनें इतनी नीरस, रूखी क्यों होती हैं? उसने सोचा। शिव, शिव, शिव, शिव करता हुआ परिंदा दोपहर की चुप्पी तोड़ता हुआ दूर रखे शिवलिंग पर चढ़े बेलपत्रों पर जा कर चोंच मारने लगा। वह उठी, आँगन के एक कोने में झाड़ू फ़ेंक आँगन के दूसरे कोने में बने शिवलिंग की तरफ़ बढ़ गयी। उसे अपनी तरफ आता देख परिंदा एक झटके से उठा और दोपहर के धूसर आसमान में गायब हो गया।
लम्बी सीधी ढलानों-सा फ़िसलता हुआ दिन, शाम के पत्थरों से निकलता हुआ रात की देहरी पर खड़ा हो जाता है। रात भी ऐसी जैसे गुड़हल के फूल में ओस पलभर ही में चुक जाये।
ये दस बाई आठ का कमरा ही अब उसका घर था। सब काम निबटा कर जब वह कमरे में पहुंची तो रात घिर आई थी। दूर परदेस का पंछी अब उसकी खिड़की के आस पास मंडरा रहा था। उसने बत्ती जलाई, एक आले में रखी शिव की मूर्ति को धूप के धुएं से ज़रा और चिकट कर पूजा का उपक्रम पूरा किया। फिर बेले में दलीया और ज़रा दूध डाल एक कोने में खाने बैठ गयी, परिंदा खिड़की के कुछ और पास आ गया। कुछ देर चक्कर काटने के बाद वह वहीँ किनारे पर बैठ गया। वह उठी एक ब्रेड का टुकड़ा खिड़की पर रख आई और वापस आ कर ज़मीन पर बिछे बिस्तर पर लेट गयी। इसी कमरे में दायीं तरफ़ एक लोहे का पलंग पड़ा रहता था। उस पर सोती थीं छोटी नानी। जैसे तूताखामेन के मकबरे में सुनते हैं अनगिनत रहस्य बंद हैं ठीक वैसे ही इस कमरे में जानकी और छोटी नानी के मन में जाने कितने-कितने रहस्य बंद थे। कितनी इच्छायें कितने राज़ अपने साथ ले गयी होंगी छोटी नानी।
उसने मुहँ तक चादर खींची और करवट बदल कर लेट गयी। दिन भर की थकान ने नींद को फ़ौरन ही उसकी चौखट तक ला कर छोड़ दिया। दूरदराज़ के भटके, थके मुसाफ़िर क़िरदार एक-एक करके उसके पायतें आ बैठने लगे, जाने कब कृष्ण की तरह उसकी आखें खुलें और सामने बैठे अर्जुन पर पड़ जाएं। किरदारों की भीड़ में जो सबसे पहला चेहरा उसे दीखा वह रशीद का था।
"आप चाहें आसमान में वृश्चिक ढूंढें या सुरैया, इस ख़ोज से इन तारों-सितारों पर कुछ फ़र्क नहीं पड़ता। ये आपकी सहूलियत के लिए नीचे नहीं झुक आते हैं। हाँ अगर दूरबीन न हो तो शर्तिया खोजने वाले की आखें फूट जाती हैं। ज़िंदगी एक ब्लाइंड फोल्ड है जानकी और जिसमें के दूरबीन इक्का-दुक्का हाथों को ही मिल पाती है। तुम्हारे हाथों में कोई दूरबीन नहीं है और आखों पर भी काला चश्मा चढ़ा रखा है तुमने जानकी। जो अपना ही घर छोड़ कर भाग गया हो। अपंने पीछे एक औरत को लावारिस छोड़ गया हो, उसके पीछे अपना वक़्त ज़ाया क्यूँ कर रही हो। जानकी किसी ग़मगुसार का हाथ हाथों में होना, किसी ख़ैरख़्वाह का साथ ज़िंदगी के लिए बहुत ज़रूरी है।"
"मुझे कुछ समझ नहीं आया रशीद।" वह इतना ही बोली।
"ग़मगुसार कहो या ख़ैरख़्वाह मतलब तो साथ निभाने वाले ही से है।"
चाय का प्याला होठों तक ला वापस रख दिया जानकी ने। एक पल रुकी मानो गले में फंसी आवाज़ को धकेल कर बाहर ला रही हो।
"रशीद हम लोग बहुत अलग हैं और यूँ भी अभी तक मैं खुद श्योर नहीं हूँ कि मेरे और सआदत के बीच क्या था? क्या नहीं?"
"सआदत भी तो मेरे ही मजहब का हुआ।"
"नहीं! सआदत तो उसका पेन नेम है। असली नाम तो मोंटी चौबे है। फिर कौन जाने कभी हमारे बीच बात बने भी या नहीं।"
"क्यूँ?"
"वो राम को पूजते हैं और हमारे यहाँ रावण का मान है। वह देवताओं की फ़ोटोज़ लगाते हैं अपने दरवाज़ों पर, हम बलि की। हमारे तो मान के देवता भी अलग-अलग हैं। जिनका हम मान मानते हैं उन्हें वह लोग दूसरी आँखों से देखते हैं। हम सब की लाइफ़ कई शैडोज़ से घिरी है, इतने अंधेरों में रौशनी का आना-जाना मुश्किल लगता है अभी तो। यूँ भी तुमने कहा ज़िंदगी ब्लाइंड फोल्ड है तो मैं आँखों पर बंधे इस फोल्ड को खोलने की कोशिश में हूँ, देखो आँख खुले तो क्या मिले? उजाला-अँधेरा।"
"तुम वापस पॉन्डिचेरी क्यूँ नहीं चली जातीं?"
"वहां जाने से पहले तो चिदंबरम जाउंगी।"
"किस लिए?"
"बताया तो था तुम्हें।"
"अभी भी तुम्हारे दिमाग में मंदिर जाने का फ़ितूर बसा हुआ है।"
"अभी तो मेरे दिमाग में आगरा जाने का फ़ितूर है। एक बार उस लेडी से मिलना चाहती हूँ। ज़रा जाने का अरेंजमेंट करवा दो यार।"
2
रशीद
यहाँ इस शहर में एक बहुत अजीब चीज़ है। चालीस एकड़ में बने मंदिर से लगभग आधे से ज़्यादा शहर दो हिस्सों में बंटा हुआ है। लोग आने जाने को मंदिर का परिसर ही इस्तेमाल करते हैं। अपने-अपने जूते-चप्पल मंदिर के एक तरफ़ उतारते हैं और दूसरी तरफ़ जा के पहनते हैं। मैंने यहाँ तमाम सूट-बूट पहने लोग भी देखे हैं जो बड़ी श्रद्धा से सर झुकाये एक हाथ में अपने कामकाजी सामान दूसरे में अपने पाँव की चीज़ें पकड़े सुबह-शाम गुज़रते हैं। यूँ तो ये शिव मंदिर है वह भी नटराज स्वरुप का। देवी पार्वती के सिवाकामी (शिव की कामना करने वाली) रूप की भी यहाँ पूजा होती है। इनके मंदिर की छत पर कितनी-कितनी आकृतियाँ उकेरी गयी हैं, जिन्हें बिना लेटे देखा नहीं जा सकता और यहाँ गोविन्द राज पेरुमल की भी बड़ी मान्यता है, गोविन्दराज पेरुमल यानी विष्णु। इन लेटे हुए विष्णु की दोनों वक़्त आरती इनकी दोनों पत्नियों के साथ की जाती है। एक तो लक्ष्मी है और दूसरी हैं हाँडल। हाँडल यूँ तो छठी शताब्दी में कृष्ण भक्ति, विष्णु भक्ति की प्रचारक थीं जिन्हें बाद की लोक मान्यताओं में विष्णु की पत्नी माना गया है, ठीक वैसे ही जैसे तुम्हारे यहाँ मध्यकाल में मीराबाई को माना गया है। ख़ैर ये तो शहर और मेरे ठिकाने की बात हुई. ये बताओ सआदत का कुछ पता चला क्या?। वैसे छोटी नानी का अब मन लगने लगा है यहाँ। जल्दी चिठ्ठी भेजना मुझे इंतज़ार रहेगा।
जानकी
परिंदे की चहचहाट ने उसे बड़ी सुबह ही उठा दिया। थकान अभी जानकी की बाहों से निकली भी नहीं थी की जाने किस दरार से सरक कर धूप अंदर सीधे उसके बिस्तर तक चली आई. इधर-उधर करवट बदल कर वह उठी और कमरे की एक मात्र एक हाथ बड़ी खिड़की खोल दी। कौन जाने ये आले नुमा खिड़की पल्लव वंश, चोला वंश, या पांडे वंश के समय बनी हो। हवा का झोंका उस तक आया उसे छुआ और वापस लौट गया।
"पुरवा हो या पछवा एक उम्र के बाद घुटनों को कोई भी हवा माफ़िक़ नहीं बैठती, तब आदमी को बिन हवा जीने की आदत डालनी चाहिए. कुछ लम्बे-लम्बे क़तरे साँस के खींच के गहरे उतार लेने चाहिए और फिर बाकी बची उमर इस उम्मीद से काटनी चाहिए कि ये चंद क़तरे ही ज़िंदगी की लग्ज़िश बनाये रखने में क़ामयाब होंगे जानकी"
खिड़की पर खड़ी जानकी के मन में छोटी नानी की ये बातें बार-बार गूँज रहीं थीं। वह बार-बार सोचती जाने साँस के कितने क़तरे खींचे होंगे छोटी नानी ने जीने के लिए और उसको कितने की ज़रुरत पड़ेगी। अगर अफ़ीम चाट कर साँस खींचे तो साँस का स्टॉक कुछ परसेंट ज़्यादा हो पाये। छोटी नानी कितनी जल्दी चली गयीं, न जाने वाली उम्र में ही। बस पंद्रह बरस ही तो बड़ी थीं उससे। उसने पलट कर अपने को शीशे में देखा कितनी बूढ़ी लगने लगी थी वो, सैंतालिस-अड़तालीस ऐसी तो कोई उम्र नहीं होती बूढ़ी लगने की। ख़ैर औरतें यूँ भी जल्दी ही बड़ी लगने लगती हैं। उसने ख़्याल को झटका और घुटनों की माफ़िक़ हवा के लिए खिड़की का दूसरा पल्ला भी खोल दिया।
शाम का आसमान अजब नारंगी से रंग में डूबा हुआ था। वहाँ अक्सर ऐसे नारंगी बादल ज़रा देर बरस के खाली हो जाते थे। वह दोनों मंदिर की सीढ़ियों पर बैठी थीं। आसमान धीरे-धीरे अँधेरे से गहराता जा रहा था। बस एक कोना कहीं अभी भी हल्का पीला बचा रह गया था।
"आपको कभी अपने घर की याद नहीं आती नानी?"
"नहीं"
"कभी भी नहीं? ऐसे हरे-हरे खेत, पानी के पोखर, डूबती-उभरती कमल की पत्तियां, धुला हुआ पीला आसमान।"
"पीला रंग मुझे कभी पसंद नहीं आया जानकी।"
"ओह! कितना तो सुंदर होता है पीला रंग, चमकदार, सुनहरा, सोने सा, धूप सा।"
"धूप होना बहुत मुश्किल काम होता है। एक तो सारी उमर एक ही जगह खड़े रहना होता है। एक घूमते हुए पिंड के उजाले-अँधेरे दोनों का दारोमदार आपके कंधे पर होता है। आप भले ही से जलिये, सुलगिये, प्यासे मरिये पर आप धूप हैं तो आपको उस घूमते हुए पिंड पर जीवन बनाये रखने के लिए न जाने कितना-कितना पानी इकठ्ठा करना होगा, बरसाना होगा। तुम धूप बनना छोड़ो जानकी। कब तक मोंटी के लिये छायाओं का इंतज़ाम करती रहोगी।"
"अब मोंटी है ही कहाँ नानी।"
"तभी तो कह रही हूँ की खाली सड़क पर किसके लिए दीप-ज्योति जलाये फिर रही हो। अग्निहोत्र की परंपरा भी महाभारत के बाद खत्म हो गयी और वह भी कुण्ड में अग्नि रखते थे अपने भीतर नहीं।"
"ये महादेव भी तो सुलगते रहते हैं नानी।"
"अजी ख़ैर मनाओ काहे सुलगते हैं। ये तो भस्म लगाते हैं नेचुरोपैथी की तरह, जलता तो कोई और है। जलने वाली तो एक बार कुण्ड में उतरी तो ख़ाक हुई जानो।"
"शिव मंदिर में बैठ कर ऐसी बातें कर रही हो आप?"
"साँच को आँच नहीं। शिव को ऊष्मा बनाए रखने न जाने कितने-कितने सूर्य चाहिए. तुम मोंटी के लिए सूर्य न बनो। जाओ इन मंदिर संन्यास के झंझट से बाहर निकलो। जानती हो जानकी प्रेम, कलुष, पाप और प्रायश्चित जीवन में एक बार ज़रूर आपको ईश्वर के द्वार पर ला कर खड़ा कर देते हैं या अंजान निर्जन में। इन चारों में ही बुखार-सी गर्मी रहती है जो सीधे आप के सर जा लगती है। सन्निपात में सुनते हैं या तो वजन बढ़ जाता है या घट ही जाता है या बाल बहुत बढ़ जाते हैं या बिलकुल ही झड़ जाते हैं। कहते हैं एक बार जब पार्वती शिव को पाने के लिए तपस्या कर रहीं थीं तो उनकी माँ उन्हें देखने आयीं। क्या देखती हैं कि लड़की मारे बुखार के तप रही है। नाड़ी देखी तो लक्षण सन्निपात के थे। अंट-शंट जाने क्या बडबडा रहीं थीं। बाल बढ़ के इतने लम्बे हो गए थे की पत्थर की शिला से ढलक के दूर तक फैल गए थे। माँ ने बाल काढ़े, बांधे और फिर अपने साथ लाये फलाहार के थाल खोल दिए. पार्वती ने हाथ हिला कर मना कर दिया। माँ को कुछ समझ नहीं आया, क्या कहा ये सुन भी नहीं पायीं? कान पार्वती के मुंह के पास तक लायीं तो फुसफुसाहट में इतना ही सुन सकीं 'पर्णा' । एक धक्का-सा लगा रानी मैना को। मारे प्यार के चक्कर में फँस के लड़की अब फलाहार भी छोड़ बैठी। पत्ते खा के दिन बिता रही है। पिछली बार जब आयीं थीं तो बता रही थी की किसी साधु को अपना अन्न दान कर दिया था और साधु महाराज ने राजी ख़ुशी सब समेटा और अन्नपूर्णा नाम का झुनझुना थमा गये। तो लाली ये होते हैं मुहब्बत के झमेले। आदमी चिंदिया के आपकी थाली की रोटी भी उठा ले और आप मारी मुफ़्त में अन्नपूर्णा सुन के इतराओ."
"शिव मंदिर में बैठ कर शिव की ही बुराई."
"बुराई थोड़े सच्ची बात की है।"
"तो फिर शिव की पूजा क्यों करती हो आप?"
"कुछ अपनी ख़ुशी के लिए और ज़्यादा तुम्हारी के लिए."
"पाप पड़ेगा।"
"पड़ने दो, भगवान् की शरण में हैं तो उतर भी जाएगा। अच्छा बातें छोड़ो अब, मैं ज़रा जाप कर लूँ तुम तब तक सामान रख रखा के फ्री हो लो फिर आरती सुन के चाय पीने चलेंगे।"
चाय की दुकान तक जाने के लिए पहले मंदिर का बड़ा प्रांगण पार करना पड़ता था और फिर एक लम्बी सड़क। दोनों औरतें हर आठ-दस दिन में एक बार बाहर आती थीं।
इस समय सड़क पर हल्की-हल्की बूँदें पड़ रहीं थीं। एक हाथ में बीस का नोट दबाये दूसरे में छाता पकड़े जानकी पीछे चल रही थी और आगे-आगे छोटी नानी। सड़क पार कर के एक बस से बाल-बाल बचते हुए छोटी नानी चाय की दुकान में घुसीं। बस वाले को एक गाली दे के वह वहीं पास पड़ी बेंच पर इस बात की परवाह किये बिना धम्म से बैठ कि मिट्टी-पानी की मिलीजुली नाली उन्हीं के पाँव पखार के बह रही है। दो चाय-दो टोस्ट का आर्डर दे कर वह जानकी से मुख़ातिब हुईं।
"ज़रा भी चल-फिर लो तो थकान हो जाती है अब हमें। पर सोचते हैं कि हफ़्ते-दस दिन में इतना भी नहीं चले तो घुटने जाम हो जायेंगे, और इसकी चाय इतनी अच्छी है कि आने का लालच भी नहीं छूटता।"
चाय के छोटे से ग्लास को हाथों बीच कुछ देर दबा के जानकी ने दोनों हाथ अपने गालों पर फेर लिए.
"हम भी अपने छुटपन में खूब करते थे ऐसा जानकी जब ठण्ड लगती थी। ज़रा हाथ तापे और झट गालों पर लगा लिए. हाय! हमारी धोती खराब हो गयी। बताओ ऐसा तो पानी नहीं पड़ा की कीच की गंगा-जमुना बह जायें।"
"तो आप यहाँ बाहर ही क्यों बैठ गयीं? अंदर कितनी जगह तो खाली है।" वह बोली।
"अरे चल-चल के थक गए थे।"
"हूँ, उस दिन नीनू आया था न अंदर तो बता रहा था कि पीछे जो आठ-नौ दुकानों का एक मार्केट हुआ करता था न अब उसी को तोड़ताड़ कर एक बड़ा शो-रूम बन रहा है गाड़ियों का। ये सारी रेत उसी मलबे की होगी। यूँ भी खंडहर-सी हो गयीं थीं सब दुकानें।"
"सच ही है खंडहर की ईंट छैनी-हथोड़े से तोड़-तोड़ के नीवं में भर दी जाती है ताकि नई इमारत बन सके. हर खंडहर के पर्दों के ठीक पीछे एक बड़ी सुंदर इमारत छुपी होती है। ये इस बात की सब से बड़ी गवाही है कि सिर्फ़ बसंत के पेट से पतझड़ नहीं जन्म लेता, पतझड़ के गर्भ से भी बसंत का पहला फूल खिल सकता है जानकी। हाँ पर ये हर फूल हर पत्ते का अपना ख़ुद का निर्णय होता है कि वह पतझड़ से जन्म लेगा या बसंत से।"
"निर्णय लेने की आज़ादी कहाँ है नानी? ये तो स्थिति के हाथ होते हैं जो आपको खांचे-खांचे घुमाये फिरते हैं और जब थक जाते हैं तो जो खांचा सबसे पास हुआ उसी में छोड़ देते हैं। हम ख़ुद क्या चुन सकते हैं?"
"तुम चुन सकती हो अपने लिए आज़ादी।"
"आज़ादी का कोई ऐसा बड़ा उत्साह तो नहीं हमें। जी को ही बहलाये रखना है बस।"
"जी का बहलना बड़ा मुश्किल काम है और जो जी को भा जाये वह ज़रूरी तो नहीं की जीने के लिए माक़ूल हो जानकी।"
"जी को भाया हुआ ही तो आखिर तक साथ जाता है नानी।"
"तो बताओ कहाँ है मोंटी? कहीं है तुम्हारे साथ? एक बात जानती हो।"
"क्या?"
"कि जी को जाने कैसे-कैसे भरम ले डूबते हैं। तुम्हारी बात ठीक है कि खांचे-खांचे घूमना अपने हाथ में नहीं। पर जी की बिगडैल इच्छाओं के चलते किसी ग़लत खांचे में आ बैठना तो सरासर मूर्खता की बात है। जो इस जी के लायक ही नहीं उसके लिए जी क्यूँ कुढ़ाना जानकी? समय रहते-रहते सोच लो अपने बारे में जानकी।"
3
टिटहरी की तेज आवाज़ ने दिन ही में उसे कंपा दिया। चलती बस में ठंडी हवा से उसे गले के आस-पास पानी की अनुभूति हुई मानो किसी ने बर्फ़ का एक टुकड़ा घिस के बिना पोंछे ही छोड़ दिया हो। उसने हाथ लगा कर देखा तो सच ही में गले के आस-पास पसीना आ रखा था। उसने हाथ बढ़ा खुले बालों से बंधी फूलों की पतली डोरी तोड़ कर चलती बस से फ़ेंक दी। जानकी अम्मन वुड वर्क्स की जानकी ने सीट पर सर टिका दिया और आँखें बंद कर सआदत चौबे के बारे में सोचना शुरू कर दिया। बंद आँखों में रौशनी के फ़्लैश से चमक जाते थे पर चित्र कोई भी सामने नहीं आता था। वह बार-बार अपनी आँखें खोलती-बंद करती पर मजाल थी की एक बार भी उसे सआदत का चेहरा दीखा हो।
"तुम हेलन ऑफ़ ट्रॉय हो, जिसने सब पा कर सब खो दिया और चाह कर भी कुछ पाया नहीं।" महीनों से सोते-जागते कोई उसके पास आ कर उसके कानों में ये फुसफुसाता और छू हो जाता। तंग आ कर उसने अपनी आँखें खोल दी और बस के सहारे-सहारे भागते रास्ते को देखना शुरू कर दिया।
उसने तंग गलियों के बारे में तो सुना था पर इस शहर आगरा की कुछ गलियां तो तंग के अलावा बड़ी चुस्त भी हैं। तंग गलियों से तो एक बारगी निकला जा सकता है पर ऐसी चुस्त गलियों को कोई कैसे पार करे। मकान हर दम ऐसे लगते हैं जैसे उनके ऊपरी माले जैसे एक दूसरे से सर मिलाने को झुके जा रहे हों। जगमगाती कपड़ों की दुकानें, बिजली के तारों से बिजली पा रहीं हैं। उन तारों के बेतरतीब झुण्ड को जा-ब-जा सर के ऊपर देख जानकी को चक्कर से आ गए. ख़ुद को थोड़ा संभाल फुव्वारे बाज़ार के अब गिरा तब गिरा की स्थिति में खड़े एक मकान को जानकी ने देखा। तारों के बेतहाशा फैले झुंड के पीछे उसने देखा मैले पड़ चुके अक्षरों में चौबे निवास लिखा था। नाम के ऊपर ही एक टाइल पर स्वास्तिक का निशान बना था जिसका रंग कभी चटक नारंगी रहा होगा जो आज उड़-उड़ के धूसर पड़ चुका था। उसी के बगल में एक और टाइल लगा था जिस पर गणेश जी का चित्र था जो अब जाने कितने सालों की मिट्टी से अटा पड़ा था। दूर कहीं किसी मंदिर की घंटी बजी...जैसे जानकी को याद दिला रही हो कि वह ख़ुद को दक्षिण के मंदिर में समर्पित कर चुकी है। अगर सआदत जल्दी ही नहीं लौटा तो उसे चले जाना होगा वहां, जहाँ कुछ समय बाद संस्कार होगा। ये लम्बे-लम्बे बाल आठ अंगुल तक काट दिए जायेंगे। चटक रंग की जगह काली या हरी किनारी की धोती टखनों तक पहननी पड़ेगी। हवा के सहारे एक गंध उसको छू कर गुज़र गयी। ओह! किसी ने अपनी रसोई में मूली छोंकी है। ज़रा झिझक कर उसने घंटी बजाई. बार-बार घंटी बजाने के बाद किसीने छज्जे से झाँका, तेज धूप में जानकी ठीक से देख नहीं पाई, बस एक साया-सा सरक के गुज़र गया।
थोड़ी देर बाद दरवाज़ा खुला। जानकी ने उन्हें पहली बार देखा और पहली झलक ही में उन्हें पहचान लिया। आदमी अपने भीतर कोई बड़ी उत्कंठा लिए किसी के दरवाज़े तक पहुंचे तो अक्सर ही ढूंढने वाले को बिना परिचय के पहचान लेता है।
"जी कहिये?"
"मैं जानकी हूँ, दिल्ली से आई हूँ। आप छोटी नानी हैं न?"
उन्होंने त्योरियों पर बल डाला और फिर अनचाहे मेहमान को मुस्कुरा के देखा।
"आप पहले अंदर तो आइये, पूरा परिचय क्या यहीं धूप में ही देंगी मुझे?"
" मेरे पीछे-पीछे ऊपर चली आइये ऊपर रहती हूँ मैं। पर सोच रही हूँ अब नीचे शिफ्ट हो जाऊं। बार-बार ऊपर-नीचे आने-जाने में थकान हो जाती है।
"आप अकेली रहती हैं यहाँ?"
"हाँ।"
अब तक दोनों सीढ़ियाँ पार कर के एक कमरे में पहुँच चुकी थीं।
"देखा चार सीढ़ी चढने में ही सांस फूल गयी।"
"तो आप नीचे ही रहिये फिर।" तख़्त पर बैठते हुए जानकी ने उनसे कहा।
उसकी बात अनसुनी कर के वह बोलीं तुम आराम से बैठो मैं पानी ले कर आती हूँ। जब तक वह पानी ले कर वापस आयीं जानकी पूरे कमरे का मुआयना कर चुकी थी।
कमरा छोटा था पर व्यवस्थित था। एक अजब से हरे रंग में पुता हुआ था जो न पिस्ता ही था न तोतई. एक लम्बी अलमारी में प्लास्टिक की पट्टी बिछी हुई थी जिसके एक कोने में फटी जिल्द की आठ-दस कानून किताबें रखी हुई थीं, दूसरे कोने में एक बड़े फ्रेम में मढ़ी हुई शिव की मूर्ति थी जिसके पास शिवपुराण रखा हुआ था। सामने के आले में एक छोटा हाथ शीशा था जिसके बगल में एक ढिमरी और माचिस पड़ी हुई थी। कमरे में आमने-सामने दो खिड़कियाँ थीं एक अन्दर आँगन की ओर खुलती थी और दूसरी बाहर छज्जे की तरफ़। ये दूसरी खिड़की बड़ी थी जिस पर बाहर की तरफ़ से कूलर लगाया गया था, जिसने खिड़की का आधा हिस्सा घेर रखा था। खिड़की का दूसरा पल्ला बंद था जिसे खोलने पर नीचे बाज़ार की चलती-फिरती सड़क साफ़ देखि जा सकती थी।
4
रात के जाने कौन पहर जानकी की आँख खुली। कमरे में हल्का उजाला तो था पर इतना भी नहीं की आँख खुले और सब साफ़ नज़र आ जाये। उसने सरहाने रखे ग्लास से पानी पिया और दुबारा लेट गयी। अब तक उनींदी आँखे हलके उजाले में देखने के क़ाबिल हो चुकी थीं। सामने खिड़की के पल्ले से सट कर एक छाया खड़ी थी, जिसकी साड़ी का पल्ला बारबार कूलर की हवा से उड़ रहा था। इतनी रात गए ये यहाँ क्यों खड़ी हैं? सोच कर घडी भर को उसने अपने सीने की धड़कन गले के ऊपरी हिस्से में सुनी। फिर डर को क़ाबू कर जानकी उनके पास जा कर खड़ी हो गयी।
"अरे! तुम जग क्यूँ गयीं?"
"पानी पीने उठी थी फिर आपको यहाँ देखा तो।"
"चाय पियोगी? बना लाऊँ अगर तुम्हारा मन कर रहा हो तो।"
"नहीं! रहने दीजिये इतनी रात को कौन चाय पीता है?"
"मोंटी पीता था।" बेसाख्ता उनके मुँह से मोंटी का नाम निकल गया।
एक चुप में दोनों ने एक-दूसरे को देखा और फिर बाहर सड़क पर आँखें टिका दीं। गली के कोने पर एक कपड़ों की दुकान थी। जिसकी निऑन लाइट वाले बोर्ड के ठीक नीचे किन्हीं डॉ।शेख़ के दावाखाने का इश्तिहार चिपका हुआ था। उससे कुछ दूर दो-तीन कुत्ते आड़े-टेड़े एक दूसरे से चिपके सो रहे थे। अचानक उन्होंने जानकी की तरफ़ एक सवाल उछाल दिया।
"यूँ तो तुम मोंटी की खोज-ख़बर लेने नहीं आयीं होंगी यहाँ? जिसने तीन साल से पलट कर नहीं देखा। कोई खोज-ख़बर नहीं ली। कहाँ गया? किस कारण गया? कब लौटेगा? ये भी कौन जाने? उसकी उम्मीद ही छोड़ो। ये हम में से कौन जाने की किस की साइकोलॉजी कब किस चीज़ से गवर्न हो, हाँ पर ये सुना है कभी-कभी अपनी ननिहाल ख़बर कर दिया करता था।"
"अपनी ननिहाल?"
"हाँ उसकी असली ननिहाल। मैं उसकी सगी नानी नहीं हूँ।"
" तो फिर आप कौन है उसकी?
"नानी।"
"मतलब।"
उन्होंने इस बात का कोई उत्तर नहीं दिया। बल्कि अपना प्रश्न फिर दोहरा दिया।
"तुमने बताया नहीं तुम यहाँ किसलिए, किस कारण इतनी दूर आई हो?"
"आई तो आपसे ही मिलने हूँ। मन में एक बात है सालों से। उसी सिलसिले में मिलना था आपसे। सोचा था पूछ कर जवाब मिल जायेगा तो मन को चैन पड़ जायेगा।"
"ऐसी क्या बात है? जिसके लिए तुम्हें मुझसे सवाल-जवाब करने की ज़रूरत पड़ गयी, जबकि आज पहली बार ही मिले हैं हम। खैर चलो पूछो क्या पूछना है?"
उसने थूक निगला। गले की सूखी दीवारों पर चिपकी आवाज़ को बाहर निकाला ही था कि बत्ती चली गयी। एकदम कमरा गले-गले पूरे अँधेरे में डूब गया। अपनी पसीने से तर हथेलियाँ पोंछ जानकी ने झट अँधेरे का हाथ पकड़ लिया। इतने कद्दावर साथी का हाथ, हाथ में आते ही अब तक जो आवाज़ सूख चली थी फिर खुल कर गले में लहलहा उठी।
"जी मुझे पूछना था कि?"
"कि क्या? क्या पूछना था? पूछो।"
"जी, जी, के मोंटी आपसे इतना इन्फ्लुएंस रहता था। हर वक़्त आपकी बातें। आप लोगों का सम्बन्ध? आप इतनी यंग हैं कि ..., दस ही साल तो बड़ी हैं बस आप उससे।"
ऐसा सवाल मारे घबड़ा के अँधेरे ने जानकी का हाथ छोड़ दिया। चंद्रमा पश्चिम की तरफ़ दो इंच और सरक खिड़की के मुहाने तक आ गया। किसे देखे? जानकी को या उन्हें। किसे सुने? जानकी को या उन्हें।
उन्होंने जानकी को देखा और बोलीं।
" उधर कोने में एक फोल्डिंग चेयर रखी है। ले आओ, कब तक ऐसे यहाँ खड़ी रहोगी। जानकी वहीं ज़मीन पर पालथी मार बैठ गयी तो उन्होंने कहना शुरू किया।
"सन तेंतीस में मेरे दादा अकाल के बाद अपने बचे परिवार को जिसमें मेरे पिता, मेरी बुआ और मैं ही रह गए थे। इन सब को लेकर बंगाल से जालौन चले आये। जालौन ऐसा कोई बड़ा शहर नहीं था। शहर तो क्या तब तो कस्बा भी नहीं था। खैर-खैर करके इस नयी जगह रहना शुरू कर दिया। पर न खाने-पीने का साधन न ही रहने का कोई हिसाब। शुरू में एक रैन-बसेरा टाइप जगह हमारा घर बनी, फिर उसके बाद कभी यहाँ रहे, कभी वहाँ रहे। यूँ हमने शुरूआती दो-तीन साल इस तरह गुज़ारे। हमारे यहाँ लड़कियों का डोमेस्टिक हेल्प की तरह अलग-अलग शहरों में जाना बड़ा पुराना चलन है। लडकियां जाने कब-कब से यूँ ही अपना घर, अपना देस, अपने बच्चे छोड़ अंजान-परायों के यहाँ जा कर रोटी कमाती रहीं हैं। सो मेरी बुआ पहले यहाँ आगरा सी.पी. के बहनोई के घर काम करने भेज दी गयीं। बाद में उन्ही के मार्फ़त मुझे यहाँ सी.पी. के घर उनके पांच साल के धेवते की आया के काम पर भेज दिया गया। इस मकान में वह ही दोनों थे। मोंटी के पेरेंट्स कैसे खत्म हुए न कभी सी.पी. ने बताया न मैंने कुरेद-कुरेद कर पूछना ज़रूरी समझा। मोंटी पांच साल का था तब और मैं पन्द्रह की थी। भाइयों जैसा था, बेटे जैसे था मेरे लिए. पर था तो मालिकों का बच्चा अपना कैसे हो जाता। नौकर कितना ही चाहें, लाड लड़ाएं पर फ़र्क तो रह ही जाता है। खैर से ये फ़र्क भी मिटा दिया गया। मेरे दादा ने सी.पी. से मेरी शादी करा दी। मुझे मालूम है ज़रूर इसके लिए मेरे घरवालों को पैसे दिए गए होंगे, पर कितना ये मुझे आज तक नहीं पता चल पाया।"
जानकी सारा किस्सा दम साधे इतनी तन्मयता से सुन रही थी कि उन्हें बीच-बात में उसे टोकना पड़ा।
"ऐ सो गयीं क्या?"
"नहीं तो! फिर क्या हुआ?"
"हुआ तो ये कि कई बार ऐसी जवान लडकियां माल-टाल ले कर भाग जाती थीं। मेरी बुआ भी किसी साड़ी बेचने वाले के साथ निकल गयीं थीं। लाख ढूंढने पर भी कोई पता नहीं चला। और थीं भी कितनी बड़ी, मुझसे से तीन साल बड़ी थी। उन्नीस की थीं उस वक़्त। सो उनके जाने के बाद सबने अपने-अपने असासे-पूँजी सुरक्षित कर ली। मेरे घरवालों ने कहा कि एक बेटी के जाने के बाद दूसरी का ठौर ठिकाना पक्का होना बड़ा ज़रूरी है। सी.पी. ने कहा कि मोंटी के लिए उनके बाद कोई अपना होना चाहिए. अपना चाहिए था तो उसकी ददिहाल छोड़ आते। भरा-पूरा घर था मोंटी के पिता का। सबने अपने-अपने वर्शन बना रखे हैं इस किस्से के पर मेरी तईं ये ह्यूमन ट्रैफिकिंग का मामला है। पैसे के लेन-देन पर बड़ी उमर के आदमी को शादी के नाम पर लड़की बेच देना। और तुम्हारी बात का जवाब ये की मोंटी सी.पी. का धेवता था तो मेरे लिए भी धेवता ही था। अलावा इसके न उन्नीस न इक्कीस।"
बाहर ओस पड़ रही थी। उदास चंद्रमा बार-बार यही सोचता हुआ न जाने किधर खिसक रहा था।
"कि मेरी तईं ये ह्यूमन ट्रैफिकिंग का मामला है।"
"चलो तुम अब सो जाओ. बत्ती भी आने वाली होगी। अगर सुबह जल्दी उठ गयीं तो मनकामेश्वर के दर्शन कराने ले चलूँगी।"
5
"तुम्हारा मायका कहाँ हैं?"
"पोंडिचेरी।"
"अच्छा! कौन-कौन है तुम्हारे मायके में?"
"कोई भी नहीं। पिता थे, कई साल हुए खत्म हो गए. माँ ने बहुत पहले, मेरे बचपन ही में अलग हो कर दूसरी शादी कर ली थी। सो अब उनसे कोई मेलजोल नहीं है।"
"ओह! तो तुम्हारा रहना-सहना, खाना-खर्चा?"
"मेरे पिता की कुड्डालोर में लकड़ी की दुकान थी, रेडीमेड दरवाजों की। बाद में चाचा देखभाल करते रहे हैं उसकी तो पढाई-लिखाई के लिए वहीं से पैसा आ जाता था।"
"ये कुड्डालोर कहाँ है?"
"पोंडिचेरी के पास है। वहीं उसी जिले में चिदम्बरम करके एक जगह है जहाँ के शिव मंदिर में समर्पित कर दिया है ख़ुद को मैंने।"
" हें ...! एक लम्बा भौंचक्का-सा स्वर उनके मुंह से अनायास ही निकल गया।
"हाँ एक बार इसका कहीं पता चल जाये तो ठीक वरना तो जाना ही पड़ेगा।"
"क्यूँ ऐसा भी क्या हुआ कि ज़रा कोई खाली कोना दीखा तो उसी में सरक लीं? उन्नतीस-तीस साल की लड़की हो। ज़माना भर सामने खुला पड़ा है। पढ़ी-लिखी हो आप अपनी राह बनाओ."
"राह बनाई तो थी पर साथी बीच राह ही गायब हो गया।" उसने कहा।
रात अभी बीती नहीं थी। किसी छत से एक ओस पगी धुंधली आवाज़ तैरती हुई चली आई. जाने कहीं कोई लड़की गाना गा रही थी या कोई ट्रांजिस्टर ही बज रहा था।
उन्होंने अचानक बड़ी धीमी आवाज़ में बोलना शुरू कर दिया जैसे आवाज़ को अँधेरे में संभल-संभल कर चलने की हिदायत दे रहीं हों।
"जानकी मैंने इसी मकान की इसी खिड़की पर खड़े हो जाने कितनी-कितनी लड़कियों को सब्जी वालों से सौ-सौ ग्राम कचनार की कली के लिए मोलभाव करते सुना है। ये वही लडकियां है जिन्हें तुम अक्सर रातों में छत पर टहलते हुए" "सैयां एक कली कचनार की जाओ तुमपे अपने बालों की उधार की" "गाते भी सुन सकती हो। रात को गाये जाने वाले मुहब्बत के गीत और दिन में चूल्हे में पकने वाली चीज़ों में ज़मीन-आसमान-सा अंतर होता है। एक ही चीज़ से जीवन बहलाना बहुत मुश्किल होता है। समझदार लोग बाज़दफ़ा बालों से कलियाँ निकाल सामने जीवन की तरफ़ भी देखते हैं।"
"जीवन तो दो लोगों का एक ही संगठन में बीतने का नाम है।"
"सच्ची बात। फिर भी दुनिया का कोई भी शीराज़ा, कोई भी संगठन कभी पक्का नहीं हो सकता ... उसे टूटना ही होता है। समय अलग-अलग समय में बनाये गए शीराज़े-संगठन को समय-समय पर तोड़ता रहता है, और फिर उस टूटे मलबे से नया कुछ बनता है। बनाने-बिगाड़ने के मामले में समय बड़ा शातिर है जानकी।"
"फिर भी किसी का साथ जीवन में ऊष्मा भर देता है, उजाला भर देता है, चमक भर देता है, सब कुछ सुनहरा कर देता है।" जानकी ने कहा।
"ज़री, सुनहरा, चमकीला पीला कैसा गहरा रंग है न। सब में दीवानगी की हद तक भरा हुआ है जो नकार देता है बाकी रंगों को अपनी चमक से ... पर सबमें अलग चाँदी की छाँव वाला सफ़ेद या सीमाब (पारे) का रंग बड़ी ढिठाई से कुछ अलग जब कलछाँव-सा जब चमकता है तो उसके सामने सुनहरे की कोई बिसात नहीं। पारा जब टूट कर गिरता है तो छोटी-छोटी न टूटने वाली बूंदों में बदल जाता है जानकी। ये बूँदें ढरकती-सरकती रहती हैं, टूटती हैं फिर एक दूसरे में मिल जाती हैं और आगे के सफ़र को बढ़ जाती हैं। अपनी कद-काठी में ये रंग ऐसे लगता है जैसे किसी रेलिंग पर झुकी धूल भरी बेल का ताज़ा खिला सफ़ेद फूल हो। रात की चाँदी की रंगत-सा ये पारा सोने की चमक से कई-कई गुना सुंदर है। सियाह-सफ़ेद के हाशिये पर खड़ा पारा ही बुखार नापने के काम आता है। ज़री नहीं, सोना नहीं। जो तुम्हारा बुखार हर सके उसे तलाशो किसी और को नहीं।"
कई बार बीच की बर्फ़ पिघलने के लिए दो बात ही बहुत होती हैं। धूप की पहली किरण जब कमरे में आई तब उन दोनों को पता चला की रात तो कब की बीत गयी। पर रात जानकी के मन के सब पूर्वाग्रहों को मिटा के बीती थी। आसमानी हवेली के रात के चौकीदार ने ठोक-बजा कर जब तसल्ली कर ली की अब उन दोनों को मोंटी नाम के पुल की ज़रूरत नहीं रहीं तो आसमान का कारोबार सूरज के हाथों सौंप उसने विदा ली।
उन्होंने पल्ले से गले के पास आया पसीना पोंछा और पास पड़ी कुर्सी पर बैठ गयीं। घंटों खिड़की के सहारे खड़े-खड़े उनके पाँव अकड़ गए थे।
"तुम अब थोड़ी देर सो लो उठोगी तो मंदिर ले चलूँगी दिखाने।"
"आप चालिये मेरे साथ मंदिर। आपका जीवन भर ध्यान रखूंगी। जो जिम्मेवारी मोंटी नहीं निभा पाया वह मैं उठाना चाहती हूँ अब।"
"कहाँ?"
वो कमरे से बाहर जाते-जाते ठिठक गयीं और जानकी को हंस के देखा।
"चिदम्बरम।"
" यूँ तो मैं किसी के लिए कोई जिम्मेवारी नहीं की किसी को आगे बढ़ कर उठाना पड़े। साहचर्य और जिम्मेवारी दो अलग-अलग रास्ते हैं। सम्बन्ध की मजबूती उसके साहचर्य में होती है न की उसे जिम्मेवारी मानने में। सबको अपना-अपना बोझ ख़ुद ही उठाना पड़ता है और जानकी जीवन बड़ा भारी पहाड़ है। इसे उठा कर चलने वाले को कभी-कभी बीच-बीच में रुक कर तलवों पर कडवा तेल और पानी मिला कर लगाते रहना चाहिए. एक तो थकान मिटती है और छाले भी नहीं पड़ते। बिन छालों के पैरों से चलोगी तो दूर तक चल पाओगी और कन्धों के बोझ को भी संभाल पाओगी। मोंटी तुम्हारे जीवन का छाला है, इसे निकालो और कोई रूई का फाहा धरो।
6
छाँव के बड़े-बड़े टुकड़े आसमान के धुंधलके में अठखेलियाँ कर रहे थे। ये बारिश का मौसम था। ज़रा धूप हुई और शाम तक बरसात। पियाऊ के एक कोने खड़े हो कर कुछ लड़कियां पानी पड़े खुरदरे फ़र्श पर एडियाँ घिस-घिस कर पाँव साफ़ कर रहीं थीं। पियाऊ के पीछे ही एक छोटे तालाब था जिस के पास धर्मशाला बनाने का काम बड़ी तेजी से पूरा किया जा रहा था। इसीमें एक कमरे का निर्माण जानकी उनके नाम से करवा रही थी। धर्मशाला के लम्बे-लम्बे बरामदों मिट्टी और कागज़ की लुगदी से बनी शिव की बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ रखी हुईं थीं। जिसपे धूल की एक चादर यूँ चिपकी हुई थी मानो किसी ने ठण्ड से बचाने के लिए उन्हें शाल उढ़ा दिया हो।
"चलिए ज़रा देख आयें कमरे का कितना काम हुआ है। मिस्त्री कह रहा था आज फ़र्श बैठायेगा।" जानकी ने उन्हें खटोले से उठाते हुए कहा।
"चलो।"
अचानक चलते-चलते वह ठिठक गयीं।
"उधर देखो जानकी, वो बच्चियां जो कुछ देर पहले पियाऊ पर पैर साफ़ कर रहीं थीं, देखो यहाँ क्या कर रही हैं?"
जानकी ने पलट कर देखा। बरामदे के दूसरे छोर पर लडकियां कपड़ों के बड़े-बड़े टुकड़ों से शिव की मूर्तियाँ साफ़ कर रहीं थीं।
"सफाई ही तो कर रहीं हैं। साफ़ करके अभी अंदर रख देंगी वरना अभी बारिश हुई तो ये सब कीच-सी हो जायेंगी। इसमें नया क्या?"
"नया ये की समय की धूल किसी को नहीं छोडती। यहाँ तक की ईश्वर कहे जाने वाले तत्व को भी अपने अंदर समेट लेती है। इस लिए मौके-बेमौके झाड़-पोंछ बहुत ज़रूरी है। और एक तुम हो की मार अतीत की गर्द लपेटे घूम रही हो।"
चलिए छोड़िये ना ये सब, जानकी ने ज़रा उकता के कहा।
"कमरे का काम देख लें पहले फिर आप के डॉक्टर के भी चलना है। फिर लौट के पूजा भी करनी है मुझे।"
"कैसी पूजा?"
"चंद्रग्रहण है आज। लौट के देव पूजने होंगे न।"
"बड़ी व्यर्थ बातें करती हो तुम कभी-कभी जानकी।" उन्होंने कहा।
"मुझे कभी-कभी हंसी आती है आपकी बातों पे।" वह बोली।
"हंसी तो हंसी होती है लाली चाहे होंठों बीच रह जाये या आँखों की किनोर तक फैल जाए. और जिन योग्यताओं, पूजाओं की तुम बात करती हो उन्हीं के नीचे जाने कितने-कितने ज़हर के नाले-परनाले खुले हुए हैं। जिस चंद्रमा को जानकी तुम अर्घ्य चढ़ा-चढ़ा के बौराये जाती हो। उसी से कहते हैं सत्ताईस बहनें बियाह दी गयीं थीं। इसे ऐसे मत देखना की दक्ष को एक बड़ा ही होनहार लड़का मिला बेटियाँ बियाहने को। क्षय का मरीज़ था न वो। इसे ऐसे देखना की साठ बेटियों के साधन संपन्न बाप ने कतई अपने जूते भी नहीं घिसे और एक ही की बाड़ में बाँध दी बेटियां। सिर्फ़ सर ही काटना ही नहीं ऑनर किलिंग कई और भी तरीके की होती है। रशीद के बारे में क्या सोचा तुमने?" बेनागा तुम्हें चिठ्ठी भेजता है। मेरा खर्चा भेजता है। "
"क्या सोचूं? मोंटी के बाद कुछ सोचने का मन नहीं करता। और न ही कोई ऐसा है जो आँखों को जंच जाये।"
"आँख का काम देखना भर होता है जानकी। इनके नीले, हरे, भूरे, काले या गोल, सपाट, या कमानीदार होने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता। इनका काम बस आपके दिमाग में एक उल्टा दृश्य बनाना है, जिसे बाद में ये आपको साफ़-सीधा दिखा सकें। अलावा इसके और कुछ नहीं। हर ज़िन्दगी एक ख़ास मक़सद के लिए होती है इसे यूँ ही किसी फ़ज़ूल रूमानियत के लिए बर्बाद नहीं करते। रूमानियत बस थोड़ी ही देर साथ देती है जो दूर तक हाथ पकड़ के साथ चले झट उसकी हथेली थाम लेनी चाहिए."
"हम्म्म्मम्म्म्म"
"यूँ अपना आप ख़ुद नहीं मिटाते जानकी। किसी कहानी की नायिका होना प्रोटोग्निस्ट होना ये कब कहता है कि आप लीक और लोक दोनों को तोड़ ही न सकें।"
बारिश की बूँदें अब पड़ कर थम चुकी थीं पर हवा में नमी और ठण्ड अभी भी घुली हुई थी। आसमान में अँधेरा गहरा गया था। सड़क किनारे क़तार में लगे गुलमोहर पानी की मार से फूल बिखेर कर अब खड़े-खड़े हांफ रहे थे।
7
समंदर की तेज लहरों का शोर उसका ध्यान भटकाने की व्यर्थ कोशिशों में कभी बड़ी तेजी से उसकी तरफ़ बढ़ता कभी पीछे लौट जाता। ये उसका अपना शहर था पर पिछले सत्रह सालों में इतना बदल गया था। और बदला भी था तो इतना की अब जानकी उसका कोई भी रेशा पहचानने में समर्थ नहीं थी। तागे-तागे रेशे-रेशे की बुनावट-बनावट उसकी समझ से कोसों परे थी। पिछले इक्कीस-बाईस दिन से वह यूँ ही भटक रही थी। कभी अस्पताल तो कभी लॉज। घंटों यूँ ही समंदर के सामने बैठे-बैठे वह भूल ही गयी थी कि यहाँ क्यों आई थी? पानी की उड़ती छीटें डूबते सूरज के सामने प्रिज्म बना रहीं थीं। एक धुंधला-सा इन्द्रधनुष जानकी के सामने बनता तो कभी मिट जाता। कभी-कभी रंग सामने होते हैं पर नज़र पकड़ नहीं पाती उन्हें। छोटी नानी जानकी के जीवन का ऐसा ही इन्द्रधनुष थीं जिन्हें जानकी मंदिर में त्यागे गए रंगों की सफ़ेद चादर के पार कभी देख ही नहीं पाई. वह जैसे एक दिन उसके साथ चली आईं वैसे ही उसे छोड़ भी गयीं।
"ज़िंदगी फ़तहजंग नाम के एक बहुत बड़े हाथी का नाम है। इसकी हौद पर बैठे सवार को कभी न कभी नीचे उतरना ही पड़ता है। और एक बार जो भी उतरा वह कभी वापस नहीं चढ़ पाया।"
मामूली से घुटने का ऑपरेशन ऐसा बिगड़ा की उनकी किडनी ले बैठा। उन्नीस दिन डायलायसिस पर रह कर उन्होंने जानकी से आँखें फेर लीं।
"शुक्र है अस्पताल सरकारी था वरना वह इतना महंगा ईलाज कैसे करा पाती?" उसने सोचा।
उसने हाथ बटुए में से दो छोटी-छोटी पुडिया निकालीं। इनमें छोटी नानी की राख थी। सिवाय इन दो पुड़ियों के जानकी अस्पताल से कुछ वापस नहीं लाई थी। उसने एक पुडिया खोली और समंदर में बहा दी। दूसरी वापस बटुए में रख ली और सोचा कि जा कर नटराज के पैरों में चढ़ा देगी। जो अनंत से भस्म लगा रहे हों क्या इस चुटकी भर राख को न स्वीकार करेंगे। उसने खुले बालों का जूड़ा लपेटा और सड़क पर उतर आई.
समय अपने दोनों किनारों पर फैले अनंत विस्तार को देखता है। दायें-बायें पैर के अंगूठे को देखता है। सोचता है कल ही तो किसी पर काले रंग का धागा बांधा था दीख नहीं रहा। खैर कोई बात नहीं ये धागा मंदिर में समर्पित स्त्रियों के बालों को बट के बनाया जाता है, मिल ही जायेगा। गर्दन झुका बादलों के परदे के पार दूर देखता है। सुदूर एक शिव मंदिर में सीमेंट के लाल-भूरे ज्यामिति वाले पत्थर पर कोई औरत उकडू हो कर बैठी था।
तेज हवाओं के साथ सिवाकासी के मंदिर से आती शिव-शिव की आवाज़ उस तक भी पहुँच रही थी। यूँ तो मंदिर पार्वती का है पर जाप शिव का ही होता है। नटराज के इस मंदिर में कोई उनसे ऊपर नहीं है। नाईन बाल काटने को कब से इंतज़ार में बैठी हुई थी उसे ध्यान ही नहीं था। उसकी नज़र सामने धर्मशाला के एक कमरे पर लगे पत्थर पर टिकी थी। जिस पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था।
"श्रीमती दुलारी चौबे की याद में।"
उन्हें अब किसी सम्बन्ध, उपनाम की ज़रूरत नहीं उसने सोचा।
छोटी नानी को गए सवा महीने से ऊपर हो गया था। रशीद की कोई चिठ्ठी नहीं आई थी इधर और सआदत के बारे में अब उसने सोचना ही छोड़ दिया था।
"आप शुरू कीजिये और कानों तक ही काटिए बाल, जैसे लड़कों के होते हैं।"
नाईन ने ज्यों ही कैंची चलाई, एक तेज ढरकती बूँद कहीं दूर किसी चाय की केतली पर जा गिरी और वापस मौसम की नमी में खो गयी। मंदिर से दूर गली के मुहाने पर कोई लड़का अभी टेम्पो से उतर कर खड़ा भी नहीं हो पाया था कि झमाझम पानी उसे भिगो गया। अंदर उसके समर्पण संस्कार शुरू हो गए थे। कोई पुजारी किसी कोने में बैठा पंचाक्षर स्रोत गुनगुना रहा था।
" नागेन्द्र हाराय त्रिलोचनाय भस्मांग रागाय महेश्वराय
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय तस्मे न काराय नम: शिवाय"
बाल कटाने के बाद उसने सर धोया और अपने कमरे में चली गयी।
लड़का धीरे-धीरे मंदिर की ओर बढ़ा चला जा रहा था। मंदिर के दरवाज़े के ऐन सामने वह रुका। फिर अचानक मुड़ कर कुछ दुकान पीछे जा खड़ा हुआ और बोला। एक स्टीम टी दीजिये ज़रा।
मंदिर से अब तक शिव, शिव, शिव, शिव की आवाज़ आ रही थी।