सभ्य संसार का भावी धर्म / रामचन्द्र शुक्ल
यह कहना कि दुनिया इस समय एक बड़े व्यापक विप्लव के युग में होकर गुजर रही है केवल एक स्वयंसिद्ध सत्य को दुहराना होगा। संसार के किसी भी हिस्से के एक अखबार को उठाकर पढ़ जाइए, आप यह अनुभव करेंगे कि चारों ओर अशांति विराज रही है। लोग एक दूसरे को दोष देने में तत्चित् हैं। गरीब अमीरों की विलासप्रियता को कोसते हैं, अमीर गरीबों के बढ़े दिमाग और बुरे बर्ताव की शिकायत करते हैं; स्वतंत्र विचार वालों की उच्छृंखलता पर बड़े-बूढ़े, प्राचीनताप्रिय लोग कुढ़े बैठे हैं और अतीत के उपासक, पंडे-पुजारियों में श्रद्धा रखने वाले की धर्मान्धाता और लकीर की फकीरी से उदार चित्त और स्वतंत्र विचार वाले युवक हैरान हैं; स्त्रियों की आजादी पुरुषों को अखर रही है और स्त्रियाँ पुरुषों के स्वार्थीपन और चरित्रहीनता से ऊब गई हैं। साम्राज्यवाद का भीषण रूप परतंत्र जातियों के जीवन को नष्ट-भ्रष्ट किए डालता है और साथ ही हिंसात्मक विप्लवकारियों के अदूरदर्शी उद्योग समाज के जीवन में एक नए रोग का बीज बो रहे हैं। राजनीतिक और सामाजिक सुधार के जो प्रयत्न किए जाते हैं उनकी असफलता का दोष साधारण जनता नेताओं और राजनीति के खिलाड़ियों के मत्थे मढ़ती है और राजनीतिक लोग कहते हैं कि सारा दोष जनसमाज का है जिसमें यथेष्ट मात्रा में त्याग नहीं, सहनशीलता नहीं और नेताओं के आदेशों पर चलने का उत्साह नहीं है।
कुछ लोग जो स्वभाव से ही निराशावादी हैं, इन सारी बातों को सुनकर घबराकर कहेंगे, 'हटाओ यह पचड़ा, दुनिया ऐसे ही चलती है, कलियुग तो है ही।' परन्तु दुनिया में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो युग के नाम से सन्तुष्ट नहीं होते बल्कि युग के स्वभाव को समझने की चेष्टा करते हैं। जिनका विश्वास है कि मानव-स्वभाव में मानवीय दुर्बलताओं के साथ-साथ मानवोचित उन्नतिशीलता भी मौजूद है और तमाम कठिनाइयों के होते हुए भी कभी न कभी मनुष्य उन सब पर विजय प्राप्त करेगा ही। ऐसे लोगों में इस समय इस बात की खास तलाश है कि इस वर्तमान अस्तव्यस्त अवस्था का अंत कैसे होगा। इन तमाम घटनाओं का रुख किस ओर है। इन्हीं लोगों का एक दल यह समझता है कि इस व्यापक विप्लव का प्रभाव संसार के धार्मिक जीवन पर भी पड़ेगा और उसमें एक गहरा परिवर्तन होगा। उनका ख्याल है कि जहाँ संसार में, लोगों में विरोधी दलों के प्रति अविश्वास बढ़ता जाता है; वहाँ साथ ही संसार की वर्तमान अवस्था का एक लक्षण यह भी है कि संसार भर के सभी देशों की दलित जातियों में एक प्रकार की पारस्परिक सहानुभूति भी है। मजदूर, अराजकतावादी, स्त्रियाँ, स्काउट्स, काली जातियाँ सभी अपने संगठनों को अंतर्जातीय रूप देना चाहती हैं और भौगोलिक हदो की अवहेलना करके पारस्परिक सहयोग करने के लिए तैयार हैं। 'संघे शक्ति: कलौयुगे' के सिद्धांत को लोग चरितार्थ करके दिखा रहे हैं। रेल, तार, छापेखाने और अखबारों ने दुनिया को इतना तंग और सन्निक्ट कर दिया है कि एक दूसरे के आदर्शों को अब थोड़ी-सी चेष्टा करने पर सहज ही समझ सकते हैं। इन सभी बातों को वे आशावादी निरीक्षक संसार के धार्मिक जीवन के लिए शुभ लक्षण समझते हैं। यद्यपि वे इस बात से भी अपरिचित नहीं हैं कि इन सब बातों के होते हुए भी संसार के वर्तमान संगठित धर्म के अधिकारी, चाहे वे ईसाई पादरी हों अथवा हिन्दू पंडित, मुसलमान मुल्ला या बौद्ध भिक्षु, अपने पुराने ढंग पर ही चले जाते हैं, नई आकांक्षाओं और नए उत्साह से लाभ नहीं उठाते, और उन्नतिशील उदार व्यक्तियों को उच्छृंखल कहकर अपने-अपने मंडल से निकालने पर उद्यत हो जाते हैं। पुरोहितों, पुजारियों और पंडितों की इस अदूरदर्शिता पर खेद प्रकट करते हुए भी आशावादी घबराते नहीं, बल्कि इसे भी परिवर्तन का एक प्रामाणिक लक्षण ही समझते हैं, क्योंकि वे कहते हैं कि धार्मिक संस्थाओं की यह कट्टरता भी इस बात की सूचना देती है कि एक धार्मिक युग का अंत हो रहा है और दूसरे का जन्म।
वर्तमान धार्मिक जीवन के परिवर्तन और एक नवीन धर्म के निर्माण में विश्वास करने वाले केवल वे ही नहीं हैं जो अधिकांश धार्मिक चर्चा में ही लगे रहते हैं अथवा जिनमें भावुकता अधिक है और चिन्तनशीलता कम है। इस तरह की जागृति के संबंध में अभी हाल में कई ग्रंथ अंग्रेजी में बड़े-बड़े विचारशील विद्वानों की लेखनी से प्रकाशित हुए हैं। इन ग्रंथो में से दो ग्रंथो ने विशेष आदर प्राप्त किया है, एक तो डीन इन्ज (Dean Inge) द्वारा अनुमोदित 'The Coming Renaissance' (भावी जागृति) और दूसरा डॉ. मिसेज राइज डेविड कृत ‘Old Creeds and New Needs’ (प्राचीन मत और नवीन आवश्यकताएँ)। पहले ग्रंथ में इंग्लैंड के 10-12 विद्वानों ने, जिनमें इतिहास, दर्शन, विज्ञान और समाजशास्त्र सभी के विशेषज्ञ हैं, अपने-अपने दृष्टिकोण से यह भाव प्रकट किया है कि संसार एक व्यापक जागृति के अत्यन्त सन्निकट है। इस ग्रंथ की आलोचना करते हुए लन्दन के टाइम्स सरीखे वर्तमान के समर्थक (Conservative) पत्र ने लिखा था कि ऐसी निराशापूर्ण अवस्था के होते हुए भी इन विद्वानों का जागृति में विश्वास करना तनिक आश्चर्यजनक है, यद्यपि यह सत्य है कि ऐसी आशा लोग सभी युगों में आवश्यकता के ही कारण करते आए हैं लेकिन उनकी सम्भावनाओं के सहारे। टाइम्स ने यह भी लिखा है कि, 'ज़ब यहूदी लोग रोमन साम्राज्य के पंजे में बेतरह फँसे हुए थे तभी उनमें मसीहा (उद्धारक) के आगमन की आशा अत्यन्त बलवती हो उठी थी।' इस संबंध में यह लिख देना अप्रासंगिक न होगा कि गत वर्ष भारत हितैषी मिस्टर जार्ज लैन्सबरी ने (जो पार्लामेंट में मजदूर दल के प्रमुख पुरुषों में से हैं) डेली हेराल्ड के एक लेख में लिखा था कि क्या यह संभव नहीं कि जिस प्रकार विशाल रोमन साम्राज्य से दबी हुई प्राचीन यहूदी जाति के प्रचारक को भगवान क्राइस्ट ने रोमन साम्राज्य पर आध्यात्मिक विजय प्राप्त (करने में मदद) की थी, वैसे ही ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत प्राचीन भारतीय जाति एक ऐसा उपदेशक उत्पन्न करे जो वर्तमान संसार का धार्मिक उद्धारक सिद्ध हो! अस्तु, डॉक्टर राइज डेविड की पुस्तक में पारसी, बौद्ध, ईसाई, इस्लाम, पॉटिविज़म (कौम्टे का समाजवाद), बहाई, ब्राह्म समाज आदि कई प्रचलित धर्मो की आलोचना की गई है। आलोचना खंडन-मंडन की दृष्टि से ही नहीं वरन वर्तमान काल के विचारों के झुकाव से उन धर्मो की शिक्षाओं का मिलान करते हुए लिखी गई है। सभी धर्मो की अपने समय के लिए तत्कालीन उपयोगिता स्वीकार करते हुए वर्तमान काल की आवश्यकताओं के लिए, उन्हें अपर्याप्त बताया है और साथ ही लेखक ने लिखा है, “ऐसा जान पड़ता है कि सभी काल में यह घटनाक्रम बता रहा है कि जब-जब लोगों ने एक सहायक, एक संदेश की आवश्यकता प्रतीत की है, तब-तब यह सहायक और संदेश उन्हें मिला है।”
ऊपर कुछ विचारशील विद्वानों के मत का दिग्दर्शन कराया गया है। यहाँ यह भी लिख देना उचित होगा कि नवयुग निर्माण की आशा का प्रमाण लोग हिन्दू, मुस्लिम, बौद्ध और ईसाई आदि सभी धर्मो के पवित्र ग्रंथो के सहारे भी देते हैं। इस विचार के लोगों की अनेक संस्थाएँ भी हैं, उनमें से सबसे प्रसिद्ध और व्यापक संस्था है, 'पूर्व तारा संघ' (Order of the star in the East) जिसका घनिष्ठ संबंध सुप्रसिद्ध विदुषी मिसेज बेसेंट से है, यद्यपि इसके अध्यक्ष और नेता हैं एक भारतीय सज्जन श्री जे. कृष्णमूर्ति। इस संस्था का प्रचार सारे सभ्य संसार में है और इसमें 70,000 (सत्तर हजार) से अधिक सदस्य हो चुके हैं। भारत के सुप्रसिद्ध विद्वान और देशभक्त तपस्वी अरविंद भी एक साधक मंडल अपने चारों ओर एकत्र कर रहे हैं जो संसार के धार्मिक जीवन में एक गहरा परिवर्तन पैदा करना चाहता है। इसी मंडल के एक प्रमुख सदस्य श्री पाल रिशार का ख्याल है कि संसार को धार्मिक पथ पर अग्रसर करने के लिए न केवल एक उपदेशक प्रकट होगा, बल्कि कई बड़े-बड़े तपस्वी और प्रत्यक्ष ज्ञानी लोग भी प्रकट होंगे और यही साधक संघ वर्तमान दुरावस्था को दूर करेगा। कहना न होगा, इस सिद्ध साधक संघ में मोशिए रिशार के विचारानुसार श्रीयुत अरविंद घोष का भी एक उच्च स्थान होगा।
इस तरह वर्तमान भयावह अवस्था के (को) दूर करने में लोग एक नए धार्मिक संदेश से सहायता पाने की आशा करते हैं। हमें केवल यह देखना रह गया कि यह भावी धर्म किस ओर को झुकता हुआ होगा? इस प्रश्न के उत्तर की ओर ऊपर लिखे गए सिंहावलोकन में बहुत कुछ संकेत किया जा चुका है। यहाँ हम उसे स्पष्ट शब्दों में किन्तु संक्षेप में ही दुहराएँगे। वर्तमान युग के ढंग को देखते हुए और साथ ही गत दो-तीन सहस्र वर्षों के भीतर मिले हुए धार्मिक संदेशो को ध्यान में रखते हुए यह विचार प्रकट किए जाते हैं। जिस तरह बौद्ध और ईसाई धर्मो ने अपने समय की वंश-प्रतिष्ठा के भीषण स्वरूप का प्रबल विरोध करके सभी को धार्मिक अधिकार दिया था उसी तरह भावी धर्म रंग और राष्ट्र के अभिमान का विरोधी होगा। न केवल पड़ोसी और पीड़ित को प्यार करने की यह शिक्षा देगा बल्कि परदेशी और परतंत्रों के प्रति अनुराग पैदा कराएगा। यह संदेश किसी जाति अथवा देश में सन्निहित न होकर वर्तमानकालिक रेल, तार और वायुयान के सहारे-संसारव्यापी होगा। इसमें ईश्वरोपासना को एक नया स्वरूप दिया जाएगा जिसके अनुसार ईश्वरभक्त लोग मानव जाति के रूप में ही भगवान को प्यार करना सीखेंगे। सेवा-धर्म की महिमा बढ़ेगी और बच्चों की शिक्षा और पालन पर अधिक जोर दिया जाएगा। राजभक्ति एक नया रूप धारण करेगी जिसके अनुसार लोग 'राजा' की भक्ति से 'राज्य' की भक्ति को अधिक महत्व देंगे। भिन्न-भिन्न प्रचलित धर्म नष्ट न होकर अधिक उदार हो जाएगा और इन धर्मो के नाम और रूप की रक्षा करते हुए भी लोग इस नए विश्व प्रेमी धर्म की दीक्षा लेंगे।
इस भावी धर्म के रुख को पहचानने के लिए वर्तमान प्रचलित धर्मो की उन शाखाओं के आदर्शो, साधानों और उपदेशों के अधययन करने की आवश्यकता है, जिन्होंने प्रचलित संगठित धर्मो के अधिकारियों के विरुद्ध बगावत करके अपना संगठन किया है, यथा हिन्दुओं में आर्य समाज, ब्राह्मसमाज, राधास्वामी संघ, देव समाज आदि, मुसलमानों में बहाई, कादियानी आदि, ईसाइयों में क्रिश्चियनसायंज्ञ, निऊथौट, निऊथियोलाजी आदि। इन्हीं संस्थाओं में यह अंकुर मौजूद है जो आनेवाली जागृति की विपुल वर्षा से उग कर फले-फूलेंगे।
(प्रताप, अगस्त-सितम्बर, 1924 विशेषांक)