सभ्य होते हुए / सुकेश साहनी

Gadya Kosh से
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इमारत के बाहर बहुत से ओरांग-उंटाग बैठे हुए थे। दूर-दराज से आई बिल्लियाँ रोटी पर अपना-अपना दावा दायर करवाने के बाद अब आशा भरी नजरों से उन्हें ताक रही थीं।

अपने काम की तनख्वाह पाने वाले ओरांग ने न्यायकक्ष का ताला छूकर हाथ को ठीक उसी तरह माथे से लगाया जैसे कोई दुकानदार अपनी दुकान खोलते हुए लगाता है। पेशकार की कुर्सी पर बैैठे मझोले कद के ओरांग-उटांग ने मेज का ड्रॉअर धीरे से खींचा और आँखें बंदकर प्रार्थना करने लगा। ड्रॅार में देवी लक्ष्मी की छोटी-सी प्रतिमा क़ैद थी। वहीं खड़े छोटे से ओरांग ने अच्छी बोहनी के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते हुए पुकार लगाई, "मरियल बिल्ली बनाम मांसल बिल्ली हाज़िर हो!"

दोनों बिल्लियाँ अपने-अपने ओरांग-उटांगों के साथ हाज़िर हो गईं। तारीखें पड़ीं...गवाहियाँ हुईं...तारीखें पड़ी...ज़िरह हुई... । अंततः बिल्लियों को न्याय मिल गया। वे बहुत खुश थीं।

घर लौटने पर वे दोनों दंग रह गईं, झगड़े की जड़ रोटी तो बची ही नहीं थी।

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