समंदर मंथन / पूनम मनु
आँख में गिरी किरकिरी-सा चुभ रहा था जीवन इन दिनों, रेगिस्तानी-मन संसार के पनीले अहाते में। जिस जीवन को अच्छी शक्ल देने की कोशिश में गीली मिट्टी बन बैठी है वह । उल्लू की अपशगुनी आवाज़ से रात्रि के पहले पहर का दिल किसी अनहोनी की आशंका से काँप उठा, अम्मा के कमज़ोर कलेजे के साथ। आवाज़ की दिशा समझे बगैर ही उठ बैठी अम्मा, अपने बिस्तर पर। दीवार से टेक लगाने के बावजूद काँपता रहा शरीर। काँपती दीये की लौ के उस पार। अपनी उखड़ी साँसों को संयत करने में अम्मा को वक़्त लगा । दिल पर रखा उनका हाथ, उनके दिल की कमज़ोरी बयां कर रहा था।
वह पलंग पर लेटे-लेटे टकटकी लगाए छत की कड़ियों को घूरती रही । कितने सलीके से लगाया है, लगाने वाले ने इन्हें । इन्हें लगाने वाला ज़रूर हुनरमंद रहा होगा । बड़ी सफ़ाई से ज़रा-सी दूरी बनाते हुए भी सबको साथ-साथ रखना अवश्य जीवन के सबसे अच्छे पहलू को दर्शाता होगा। ये भी हो सकता है कि पृथ्वी के जिस भी पहले इंसान द्वारा यह स्वीकार किया गया हो कि‘हर रिश्ते में ज़रा-सा स्पेस ज़रूरी है’वो ‘इन्हीं कड़ियों के साथ’ पर गहन अद्ध्यन के बाद ही इस निष्कर्ष पर पहुंचा हो । बिना हाथ थामे साथ-साथ चलना शायद इसे ही कहते हैं।
तब दीवारों का क्या... क्या उनका वज़ूद कुछ नहीं ... या उन्हीं पर टिकी है ये कड़ियों वाली छत...? उफ... दिमाग जाने कहाँ-कहाँ दौड़ रहा था ।
पति के साथ रहने पर भी परपुरुष से सम्बंध .... उफ़ ! अम्मा के अलावा किसी और को सोचते भी घिन आती है उसे। बेशक पति नकारा, जुआरी, शराबी और उसके साथ रोज़ाना मारपीट करने वाला ही क्यूँ न हो । आख़िर है तो पति ही । ऐसे में परपुरुष से सम्बंध... छी... छी .... । ये तो गनीमत रही कि पिता की अंतिम साँसों के समय ही जुड़ा यह सम्बंध। पर ... तब भी क्या यह ज़रूरी था... ?
कोसों दूर तक की चहलकदमी करने निकले थे आज यादों के घोड़े। लगाम कसने की कोशिश हर बार नाकाम होती रही ।
दसवीं में थी वह । आज के पिता तब उनके अंकल थे । चारों ओर गली-मोहल्ले में अम्मा से उनके सम्बन्धों की चर्चा ज़ोरों पर थी। टोले की हर औरत अम्मा को देखते ही नाक-भौं सिकोड़ने लगती थी । पर आज सब उन्हीं को सलाम ठोंकते हैं ।
अंकल जी ने, अपने बच्चों और पत्नी को छोड़ कर अम्मा से कोर्ट-मैरीज की है। कम-स-कम अम्मा तो यही कहती रही हैं आज तक । तब के परपुरुष अब उनके पति के रूप में उसकी अम्मा की ज़िंदगी में शामिल हैं। हालिया पति की कमाई अच्छी है। किसी नेता के निजी सचिव हैं । उनका काफ़ी पैसा अम्मा बहुत से लोगों को ब्याज़ पर देती हैं । जिस कारण टोले की औरतें-मर्द अम्मा के सामने हाथ जोड़ते नज़र आते हैं इन दिनों।
आह हा ! पैसा भी क्या चीज़ है ज़ालिम... अच्छे-अच्छों के होश ठिकाने ला देता है । यक़ीनन हाथ का मैल होने पर भी ।
“तू भी, कोई फैसला क्यूँ नहीं लेती, मुझे देख, उस समय यदि मैंने तेरे अंकल जी का हाथ न थामा होता तो ... क्या आज हम सुखी होते ... तुम तीनों की शादियाँ क्या इतनी धूम-धाम से कर पाती मैं... ?” अम्मा उसे समझाने की जद्दोजहद में जैसे ख़ुद को तसल्ली दे रही हों ।
वह चौंक उठी। अम्मा अभी तक जाग रही थीं । सुखी ... क्या सचमुच .... ? वह उदास उनके मुखड़े को ताकती रही । उनकी आँखों में छलक आई नमी को बहुत यत्न के बाद देखने में वह कामयाब रही आज । उनकी पलकों के किनारों पर कहीं-कहीं बिखरा तेज़ाब सा दिखाई दिया उसे । जो अवश्यमेव ज़िंदगी के किसी हिस्से की वैतरणी में फिसलने की वजह से फैल गया होगा । ज़िंदगी का तल भले ही कठोर हो पर हर किसी के जीवन में एक दो वैतरणी तो ज़रूर ही होती हैं ।
ज़िंदगी की जाने कितनी अंधेरी सुरंगों को, बिना अंकल जी बनाम मौजूदा पिता के पार किया था अम्मा ने अपने तीनों बच्चों के हाथ थाम। फिर ... न जाने किस डर से डर कर थाम बैठी 33 वर्ष की उम्र में अम्मा अपने से लगभग 20 साल बड़े एक परपुरुष का हाथ। ये तो अंकल जी अच्छे थे जिन्होंने अम्मा का हाथ थामा तो फिर छोड़ा नहीं। पर फिर भी तीनों बच्चे उन्हें अंकल से अलग पिता का दर्ज़ा न दे सके। आज भी तो अंकल जी ही कहते है।
यादों के घोड़ों को थोड़ा चरने छोड़ा उसने।
“लाइट आ गई ... ” कहते दीया बुझा दिया । जो इसी दीवाली पर साहिल ने मोम भर कर बनाया था ।
“अम्मा तुम्हारी बात और थी... शायद तुम मुझसे ज़्यादा हिम्मतवाली रहीं होंगी तब ... ” वह अनमने मन से उस बात को वहीं रोक देने के इरादे से रज़ाई के अंदर सरक गई।
“ ये तू कैसी बातें करती है... तूने देखा न ... तूने क्या, मैंने क्या, सारे मोहल्ले ने देखा न ... कि कैसे अभी 3 दिन पहले इंदर तुझे मारने को कुल्हाड़ी ले आया था। रोहित और ये टोले वाले न होते तो जाने क्या हो जाता । भला क्या तुक थी इतनी सी बात पर कुल्हाड़ी लाने की....? और बात भी तो बेबात की। क्या हद है...कि कोई बेटी अपने माँ के घर एक रात ज़्यादा नहीं रुक सकती। क्या हो जाता एक रात में...? कहा था न ... तूने देखा न , मैंने ख़ुद फ़ोन कर, उसे कहा था कि बेटा, आज बाज़ार से बच्चों के कपड़े लाने में जरा देर हो गई है। कल सुबह ही भेज दूँगी रजनी और बच्चों को रोहित के साथ ।”
अम्मा लगातार बोले जा रही थीं। उनके स्वर में आक्रोश साफ़ झलक रहा था।
“इतना झगड़ालू , निकम्मा और शराबी हो गया है इंदर कि अब तेरा उसके साथ रहना बिल्कुल ठीक नहीं । कोई निर्णय तो तुझे लेना ही होगा। अभी जवान है तू। छोटे-छोटे बच्चे हैं तेरे। दोबारा शादी कर दूँगी तेरी अच्छे घर में । अब बस तू उससे तलाक़ ले ले।”
“अम्मा... ये तो शुरू से ही ऐसा है। 10 साल हो गए हमारी शादी को। जानती तो हो उसका स्वभाव... जल्दी गुस्सा होता है और जल्दी शांत भी हो जाता है।” अम्मा की बात पर वह जैसे खीज उठी थी।
“ तू बस कर ... ज़्यादा उसका पक्ष मत लिया कर ... भरपाई मैं तो ऐसे दामाद से।” अम्मा गुस्से में करवट लेकर ऊँची आवाज़ में बोलीं । शायद सोने का मन बना लिया था उन्होंने।
नवंबर की ठंड दिसंबर के अंतिम दिनों का एहसास देती रही अरमानों को। सबकुछ जमने पर भी एक क़तरा आँच का जाने कहाँ से पिघला और आँखों के कोरों को जलाता चला गया ।
गृहस्थी की गाड़ी के एक पहिए के पंक्चर होने पर, उसे निकाल फेंकना उसके हिसाब से पूरी तरह सही नहीं था । उसे रिपेयर भी किया जा सकता है उसका ऐसा मानना था ।और इसी कारण “केवल तलाक़ ही ऐसी समस्याओं से निजात पाने का एक बेहतर विकल्प है...” अम्मा की इस बात से पूरी तरह इत्तफाक नहीं रखती थी वह।
भावशून्य हो उसने भी अम्मा के विपरीत करवट ले ली ।
“अंकल जी कभी हमारे पिता नही बन सके अम्मा ... तुम्हें कैसे समझाऊँ। तुम जिसे हमारा सुख कहती हो… वह सुख कभी हमारे लिए था ही नहीं । ये सिर्फ़ तुम्हारा वहम है। चंद रुपये आज हमारी हथेली में थमाकर भी तुम उस शराबी पिता वाला मान हमारे आँचल में नहीं डाल सकतीं। जिसे इंदर, अपने मुँह को अंकल के नाम पर हल्के से बिचकाने से ही हवा में रोज़ यहाँ-वहाँ बिखेर देता है ।और मैं ठगी-सी लुटी-सी उस मान के अपमान पर अंतरात्मा तक रोती रहती हूँ... ।
मेरे विवाह के समय तो ख़ैर मेरे पिता जीवित थे। परंतु सोनिया और रोहित की शादी में हुए हंगामें तुम कैसे भूल सकती हो अम्मा... ! पंडित जी द्वारा पिता का नाम पूछने पर जब-जब भी तुमने उस शराबी पति का नाम लिया तब-तब अंकल जी रूठकर अपने कमरे में भाग जाते रहे । रिश्तेदारों के सामने 2-3 घंटे की तुम्हारी मान-मनुहार, रोने-झीकने पर भी तुम्हें शर्मिंदा करने में कोई कोर क़सर नहीं छोड़ते रहे। नाक रगड़वाने तक की कोशिश रहती उनकी ।
और रिश्तेदार ... खूब ठूँस-ठास कर पेट भरने के बाद नाक-भौं सिकोड़ते, तरह-तरह के मुँह बनाकर खुसर-पुसर करते हुए , तुम्हारे हमारे मान की चिन्दियाँ इधर-उधर बिखेर कर अपने घर चले जाते रहे। नहीं... यह सुख नहीं है अम्मा ... नहीं है । अगर है भी तो मुझे नहीं चाहिए यह सुख । इस सुख रूपी अपमान से तो इंदर का दिया अपमान ही स्वीकार है मुझे। कम-स-कम मैं ही भोग लूँगी । मेरे बच्चे तो शर्मिंदा नहीं होंगे। नहीं ... नहीं ... यह मुझे स्वीकार नहीं। ”
सुबह के पाँच बज रहे थे। उसकी असपष्ट बुदबुदाहट कमरे में किन्हीं मंत्रों के उच्चारण से उपजे जाप के होने का सा माहौल पैदा कर रही थी।
“दीदी ... दीदी ...” आरती रजनी के गालों को हौले-से थपथपाते हुए बोली।
“क्या हुआ दीदी... आप क्या बड़बड़ा रही हो... आपकी तबीयत तो ठीक है ... ?”आरती ने उसके गालों को छूआ।
“न... नहीं तो!” अपने को संभालने की कोशिश में रजनी हड़बड़ाते हुए उठ बैठी।
उसने अपने मुँह पर हाथ फेरा तो उसे इस बात का एहसास हुआ कि उसका सारा चेहरा आँसुओं से तर-ब-तर था । सिर भी दर्द से फटा जा रहा था। उसने अपना चेहरा दुपट्टे से पोंछा । तकिया, सिरहाने खड़ा कर, अपना सिर उस पर टिका कर, आहिस्ते से बोली – “अरे नहीं रे ! कुछ नहीं हुआ... कोई सपना देख रही होंगी शायद... तू घबरा मत। जा थोड़ी-सी चाय बना ला।”
“जी दीदी... ” कहते हुए आरती कमरे से निकल गई ।
आरती उसके भाई रोहित की पत्नी थी। बहुत सुघड़ और सुंदर ।
उसने सिर पर हाथ फेरा । सिर फोड़े सा दुख रहा था उसका । फिर नज़र घूमा, पास लेटी अम्मा को देखा जो खर्राटे मार कर अब भी सो रही थीं।
थोड़ी देर में अंकल जी जागेंगे और शुरू हो जाएगी अम्मा की ड्यूटी। कुछ देर यूँ ही अम्मा को देखती रही। फिर न जाने क्या सोच, वह पलंग से उठ खड़ी हुई ।
उसके मयके और ससुराल में सब पाँच बजते ही जाग जाते हैं।इसीलिए घर में जाग शुरू हो चुकी थी ।
भैयादूज वाले दिन इंदर का उसे कुल्हाड़ी लेकर मारने आना सिर्फ़ उसकी बेवकूफी थी और कुछ नहीं। वह जानती थी इंदर गुस्से में ऐसी पागलपनती करता रहता है । पर जान ही से मार डालेगा इसमें उसे शक है । यही बात बड़े झगड़े का कारण बनी जिस वजह से उसे घर से बेइज़्ज़त कर भगा दिया गया।
इस झगड़े को भी बाक़ी हुई मियां-बीवी की लड़ाइयों में जोड़ दिया गया। जिस कारण अम्मा उसे “अब तो कोई फैसला ले” की इमोशनल धमकी बार-बार दे रही थीं। हर बात, उनका हर इशारा अब बस “इंदर को छोड़” देने पर केन्द्रित था । इस बात पर ज़ोर तो वो कई सालों से डाल रही थीं। पर एक वह ही थी कि टस से मस ही न हो रही थी।
पर... अब तो कुछ करना ही होगा। वरना ऐसे कैसे कटेगी ज़िंदगी।
थोड़ी-सी ही तो ज़मीन है इंदर के पास। जिसमें लग वह अपने आपको दुनिया का सबसे व्यस्त व्यक्ति घोषित करता रहता है ।
फ़सल भी तो भगवान भरोसे ही होती है । कभी सूखे से मार डालता है वह कभी बाढ़ से । किसी भी काम-धंधे में इंदर का मन नहीं लगता ऊपर से पीने का शौक नवाबों सा। कुछ कहती तो मार-पीट पर उतर आता। अब अम्मा भी कब तक उसका ख़र्चा उठाती रहेंगी।
सही कहती हैं अम्मा कि “ मैं भी कब तक करूंगी ... कोई फैसला ले अब।”
अम्मा ने जब 16 साल की उम्र में उसकी शादी इंदर से की थी तब अम्मा ने उससे क्यूँ न कहा कि “अपने जीवन का फैसला तू ख़ुद ले।” वह सोचती अक्सर। पूछना भी चाहती। पर चुप लगा जाती। क्या हर लड़की को अपने जीवन का फैसला तब लेने का अधिकार है जब उसके हिस्से 2-3 बच्चे आ चुके हों या उसकी जवानी ढलान पर हो...? लड़के का क्या भरोसा शादी के वक़्त न पीता हो और कमाता भी अच्छा हो। शादी के 7-8 साल बाद यदि वही लड़का एकदम से विपरीत व्यवहार करने लगे तो क्या उसे छोड़ देना ही एक बेहतर विकल्प है। दिमाग है कि चीनी मिट्टी की भट्टी। कभी यह पकता रहता। कभी वह पकता रहता । न चाहते हुए भी सब विचार आपस में गुथमगुत्था हुये रहते उफ! ।
फ्रेश होकर आई तो, आरती भी उसके लिए चाय लेकर आ गई।
अम्मा उठ गई थीं। वह चुपचाप चाय पीने लगी। “ऊँह...” पहला सिप लेते ही बुरा-सा मुँह बनाया उसने। पहले ही सिप में चाय स्वादहीन लगी उसे। बाद सारी चाय पी चुकने पर भी कोई स्वाद नहीं आया । न चायपत्ती का न मिठास का। स्वाद चीजों में नहीं ज़िंदगी में होता है। अरमानों में होता है। बेस्वाद चीज़ें भी ख़ुशहाल ज़िंदगी में स्वाद दे जाती हैं। इस हक़ीक़त से बचते हुए बस इतना कह पाई, “ क्या हो गया है आजकल। हर वस्तु में मिलावट हो गयी है। किसी भी चीज़ में स्वाद नहीं।”
ज़्यादा भरे पेट भरी ज़िंदगी के स्वाद के भी अपने अलग मायने हैं । स्वाद जो जीभ के मध्य में होता है पर तमाम उम्र का सबक़ सीखा जाता है।
उगते सूरज को देखने का न मन हुआ, न हौसला। अपने सोते बच्चों के पास आकर बैठ गई।
खामोश उन्हें निहारती रही। साहिल 8 साल का हो गया है । पर अभी से सब कुछ समझने लगा है । निम्मी अभी केवल तीन साल की है । उसने प्यार से दोनों बच्चों के सिर पर हाथ फेरा। साँवला मुखड़ा पूनम हो गया।
छोटी बहन सोनिया को आज ससुराल वापस लौटना है । पिछले साल ही शादी हुई थी उसकी। भैयादूज पर वह भी आई थी। दोनों बहनों के आने में 10-15 मिनट का ही अंतर रहा होगा। उसी के कहने पर अभी तक वह मायके रुकी हुई थी। अपनी ससुराल में सुखी है वह ।
उसका मन कसैला-सा हो गया। जाने उसे कितने दिन अम्मा के घर में रहना होगा...?
अम्मा अपनी ड्यूटी बजा रही थीं। पति की सेवा में उनका दिन-रात एक टाँग पर खड़े रहना सभी बच्चों के मन में कई बार उकताहट पैदा कर जाता था । इससे बेख़बर वे अपने काम में मग्न रहतीं। माँ के होने पर भी कई बार लगता माँ उनसे ज़्यादा अंकल जी की हैं ।अंकल जी ड्यूटी चले जाते तो सभी बच्चे कुछ राहत-सी महसूस करते। जो कि अम्मा की ‘रिहाई’ से पैदा होती।
जब भी वह ससुराल में होती। अपने सास-ससुर के आपसी व्यवहार से अम्मा-अंकल जी के आपसी व्यवहार की अनचाहे तुलना कर बैठती।
वह देखती कि कैसे अपने सभी कामों में ससुर जी से भरपूर सहयोग लेने के बावजूद उन्हें निकम्मा ठहरा देतीं हैं सासु माँ । कितनी ठसक और हेकड़ी से रहती हैं वे अपने पति के साथ। हर बार उनका हुकुम बजा लाने के बाद भी कितने प्यार से मुस्कुराते हैं उसके ससुर जी अपनी पत्नी की ओर देख कर।
तब लगता अम्मा को कोई डर है जो हर हारी-बीमारी के बावजूद उन्हें अंकल जी की ड्यूटी बजाने पर मजबूर करता है। या शायद प्रेम.... अम्मा ज़रूर अंकलजी से ज़्यादा प्रेम करती होंगी ।पर सासु माँ भी तो ज़रा सी देर होने पर कितना व्याकुल हो जाती हैं अपने पति के लिए। कई बार तो वही उनके ज़्यादा प्रेम पर चुहल कर जाती है सासु माँ के साथ। फिर अम्मा.... ?
दो पाटों के बीच पिसना निसन्देह यही है । अम्मा जानती तो हैं शायद पर... स्वीकार नहीं करतीं।
“पानी गरम हो गया दीदी” आरती की आवाज़ पर अनमने मन से उठी। अपने साफ़ कपड़े बैग से निकाल, नहाने चली गई।
परिवार के सभी सदस्यों को सुबह जल्दी नहाने का हुकुम अम्मा ने बरसों पहले दिया था । जिसकी अब सबको आदत पड़ गई थी।
नहाकर निकली तो कंघा ले, घर के बाहर चली आई। घर के दोनों ओर दूर तक खाली प्लॉट पड़े थे। जिनमें काली जंगली कीकर की बड़ी-बड़ी घनी झाड़ियाँ थीं ।
ये झाड़ियाँ बहुत आकर्षित करतीं थीं उसे, बचपन से ही । जाने किस आकर्षण से बंध खिंची चली आती रही इनके बीच । बाल बनाना तो फ़क़त एक बहाना होता। जाने क्या बतिया जाती इनसे। हर बार और काली लगती काली कीकर। आँगन के खिले फूल न जाने क्यूँ कई बरसों से नहीं सुहाते उसे । उनकी मुस्कान और ख़ुशबू उसे उसकी ज़िंदगी का मखौल उड़ाते लगते । “रजनी... !!!” “हाँ अम्मा ...!!!” तंद्रा भंग होते ही भिंची-भिंची सी आवाज़ निकली उसके हलक से। “आजा ... अब बहुत देर हो गई। साहिल और निम्मी भी जाग गए हैं।” “हाँ अम्मा ... आती हूँ.... ” प्रतिउत्तर में बस इतना ही। कंघे में से सारे टूटे बाल निकाल, उनका एक गुच्छा बना, थू के साथ थमा आई अपनी सखी, काली कीकर को।
जानती थी, वह सहेज़ लेगी इन्हें भी जैसे सहेजती है अक्सर उसकी उदासी को। क्या पता उसकी उदासी को सहेजते-सहेजते ही ये कीकर काली हो गई हों ।
“क्या सोचा तूने .... ?” दोपहर के खाने के बाद, थोड़ा आराम करने की मुद्रा में पलंग पर लेटते अम्मा ने उससे पूछा।
पिछले कई दिनों से अम्मा के पास ज़्यादा देर अकेला रहने से बचती रही है वह। यही एक सवाल रटारटाया रहता है आजकल अम्मा की ज़ुबान पर । और उसकी यही ख़ामोशी उसकी आँखों में झाँक, करवट ले, अम्मा सो जाती रही हैं।
कुढ़न हो उठी है उसे अब इस सवाल से। और अम्मा के पास भी तो जैसे इस सवाल के अलावा कुछ और पूछने को बाक़ी न रहा।
मेरी कम उम्र में शादी करते वक़्त भी आपने कुछ सोचा ही होगा अम्मा । तो अब मुझसे रोज़ क्यूँ पूछती हो कि “क्या सोचा तूने ...?”
है ही क्या सोचने को। जितना सोचती हूँ अपने बच्चों का जीवन सुधारने को उतना तो करती आई हूँ। पर क्या फ़ायदा रहा सोचने का।
अब तो हद होने लगी है जब अम्मा कहती हैं “तू कहे तो इंदर पर मुकदमा कर देते हैं । बच्चों का ख़र्चा तो उठाएगा मरदूद ... ”
उफ़! अम्मा बस करो ... जानती हूँ अब तुम भी थक चुकी हो। पर सोचो अगर ख़र्चा उठाने योग्य इंदर होते तो यह नौबत ही क्यूँ आती।
अब से पहले कोई और दिन होता तो ऐसे ही खीजती रहती वह। पर आज शान्त हो अम्मा के और नज़दीक सरक आई । माँ के चेहरे को नज़र भर देख, उनकी नज़र से नज़र मिलाए एक अर्सा बीत चुका था। आज नज़र से नज़र मिलाए बैठी रही।
ज़िंदगी की रफ्तार पर नज़र रखने की कोशिश में कई बार ठोकर खाकर गिरी है वो। अब उसे अपनी रफ़्तार पर उसने अकेला छोड़ दिया है । कई महीनों से एक विचार जो उसके दिमाग में चल रहा था। वह उसकी गति से गति मिलाकर चलेगा या थककर बिखर जाएगा। इस पर विचार करना, लगभग अब उसने बंद कर दिया है।
“अम्मा, अपने बच्चे अपने दम पर पालुंगी मैं।” “क्या मतलब ...?” रजनी की बात पर अम्मा जैसे सोते से जागीं।
“मैं अपना बुटीक खोलना चाहती हूँ , साथ ही औरतों के श्रृंगार का सामान भी रखना चाहती हूँ। उनकी मूल जरूरतों का सामान भी मेरे बुटीक पर उपलब्ध होगा। अपने बच्चे अब अपने दम पर पालना चाहती हूँ मैं।” बड़े साहस के साथ बैठी थी वह अम्मा से बात करने पर ... अंतिम शब्द बड़ी मुश्किल से उसके हलक से निकले। “और इंदर... ?” अम्मा की आँखों में उपेक्षा का एक भाव उभर आया। ये न जान सकी वह कि ये भाव किसकी ख़ातिर था। इंदर के या उसके काम के ।
“मैं उसे तलाक नहीं दूँगी, मेरे बच्चों को पिता की जरूरत है अम्मा...! और... और ... ” वह आख़िरी शब्द चाहकर भी न कह पाई। उपेक्षा का भाव अब हल्के गुस्से में तब्दील हो चुका था। उनके लहज़े में उतर आई कठोरता भी स्पष्ट महसूस की उसने , “देख ... मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा, जो भी कहना है साफ़-साफ़ कह ।”
अम्मा के इस गुस्से के लहज़े से पहले ही एक सिहरन-सी उसके तन-मन में दौड़ गई थी । उफ़्फ़ ... क्या कहने जा रही थी माँ से ... “सौतेला बाप तो सौतेला ही होता है” पता नहीं अम्मा इसे किस रूप में लेतीं। हे! भगवान ... माफ़ कर उसे । उसने धीरे से अपने कानों को हाथ लगाया। माँ का दिल दुखाना सबसे बड़ा गुनाह है संसार में। इस बात पर हद दर्जे से ज़्यादा विश्वास करती है वह।
ये प्राकृतिक है कि बचपन में ही अपने पिता या माँ को खो चुके बच्चे अपने बचे सहारे के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं। पर ऐसा कोई पाठ उसने पढ़ा न था किसी किताब में।
“अम्मा, मैं इंदर से अलग घर लेकर रहूँगी। यदि वह सुधर कर मेरे साथ रहना चाहेगा तो उसका स्वागत वरना... घर में न घुसने दूँगी उसे। साहिल अब बड़ा हो रहा है। हम दोनों माँ-बेटे मिलकर सब ठीक कर लेंगे। हाँ ... इस सब में मुझे आपकी सहायता की जरूरत पड़ेगी अम्मा। मैं यहीं 2-3 किलोमीटर के दायरे में रहना चाहूंगी । आपके और रोहित के संरक्षण में। मेरी सहायता करोगी न अम्मा...?”उसने आख़िरी वाक्य को पूरा करने से पहले अम्मा का हाथ पकड़ लिया ।
बेटी की शादी कर अपने सारे फर्ज़ से मुक्ति पाने वाले तबके से माँ का कोई वास्ता न था । ‘जिस घर में डोली जाये उससे बेटी की अर्थी ही निकले’ वाली बात से भी उन्हें सदा से परहेज था। उनके इसी स्वभाव के कारण अपने मन की बात वह उन्हें बता रही थी । उसे शोषित होने या अर्थी वाली बात पर अमल करने की कोई जरूरत न थी।
“और... यदि इंदर फिर भी तेरे साथ बदतमीज़ी पर उतरा रहा तो...?”
उसकी चिंता को लेकर अम्मा की आँखों में उतर आई बेचैनी, उसे अंदर तक तिलमिलाहट से भर गई । जो तल्खी थोड़ी देर पहले अम्मा की आवाज़ में थी, वह अब उसकी आँखों में झलकने लगी ।
“जब तक उसके घर में, उसके रहम-ओ-करम पर थी अम्मा ... बस तभी तक सह रही थी मैं ...!! अब नहीं । जब मैं अपने खर्चे ख़ुद उठाऊँगी तो भला फिर मैं उसकी बदतमीजी क्यूँ सहूँगी? नहीं अम्मा उससे तुम बेफ़िक्र रहो...। ” उसकी दृढ़ता और आक्रोश उसकी आँखों में साफ़ दिख रहे थे ।
दो पल को शब्दहीनता जैसा कुछ पसर गया कमरे में, दोनों के मध्य। जाने कितनी बार पलकें उठा-गिरा अम्मा ने देखा उसके मुखड़े को । ज़िंदगी की कौन-सी नपाई तुलाई कर रही थीं उनकी नरम उँगलियाँ उसकी कठोर रेखाओं वाली सोमाल हथेली पर सोचने से परे बस वह अम्मा को टकटकी लगाए देखती रही।
“हूँ .... ” जवानी में हो न हो लाली .... बुढ़ापे में, एक साथी की ज़रूरत ज़रूर महसूस होती है । ये निकम्मा कभी न सुधरा तो, कैसे काटेगी इतनी लंबी ज़िंदगी अकेले।” एक हुंकारे से शुरू कर अम्मा ने आख़िर अपने मन की बात कह ही दी।
वह भी कदाचित इसी सवाल की प्रतीक्षा में थी ।
“मुझे दूसरी शादी में कोई दिलचस्पी नहीं है अम्मा... दूसरा भी ऐसा ही निकला तो...? सहारों की तलाश उन्हें होती है माँ, जो कमज़ोर होते हैं । मैं कमज़ोर नहीं। मेरे पास मेरे दो बच्चे हैं। मैं अकेली नहीं । फिर जीवन-मृत्यु कब अपने हाथ है । कई बार अच्छे जीवनसाथी भी तो बीच में साथ छोड़ ईश्वर के पास चले जाते हैं । मेरे साथ भी ऐसा हुआ तो.... ! एक सहाय माँ की बेटी अब असहाय नहीं रहना चाहती माँ ... नहीं रहना चाहती !” प्लीज़ कह.... उसने अम्मा के आगे हाथ जोड़ दिये।
“नहीं... ” अम्मा ने झट से उसके दोनों हाथों को अपनी दोनों मुट्ठियों में भींच, अपने दिल से लगा, चूम लिया। अम्मा की आँखों में तैरते भावुक पल से ऐसा लग रहा था कि वे ज़रूर भीतर ही भीतर किसी ऐसी आरी की तलाश में जुटी हुई हैं जिससे बीते वक़्त के उन बेरहम हिस्सों को काटकर अपनी उम्र से अलग कर दें । जिनकी वजह से आज यह दिन देखना पड़ा । उनकी ही बेटी उनके आगे हाथ जोड़े खड़ी थी। ये बहुत मुश्किल पल था शायद उनके लिए ।
सोनिया और रोहित से मशविरे के बाद ही वह इस नतीजे पर पहुँची थी। आज वह उसी दोराहे पर थी। जिस पर कभी अम्मा थीं। जिन परिस्थितियों, जिस माहौल को उन तीनों भाई-बहनों ने मिलकर जिया था, भोगा था । उसी पर विचार करना ज़रूरी था क्यूंकि आज वही स्थिति उसके अपने बच्चों के सामने थी । मन में गहरे ठहरे, बीते दिनों के अतल समंदर का मंथन वो तीनों ही मिलकर कर सकते थे । जिसमें से निकला अमृत बची ज़िंदगी को खुशहाल नहीं तो कम-स-कम जीने योग्य तो बना ही सकता था। अपने आर्थिक कष्ट को दूर करने और आने वाले बुढ़ापे के अकेलेपन से डर दूसरा विवाह करने से उसे परहेज़ था । उसके साथ-साथ उसके बच्चों का भविष्य भी जुड़ा था अतएव वह ऐसा ही कोई रास्ता चाहती थी जो उसके व उसके बच्चों के लिए हर तरह से सही हो । अभी पिछले साल ही उन्हीं के मोहल्ले के एक सौतेले पिता द्वारा किया गया एक नन्ही मासूम का यौन-शोषण उसके मानस-पटल पर अभी तक ताज़ा था। लिहाज़ा दूसरे विवाह से, बाद में उपजी, कई गंभीर समस्याओं को, वह नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहती थी ।
हर इंसान को अपनी परिस्थिति अनुसार निर्णय लेना चाहिए। इस बात को हृदय से स्वीकार करती रही है वह। अंकल जी से अम्मा की शादी केवल ‘एक गलती’ थी। इसे पूरी तरह स्वीकार नहीं किया जा सकता। उनकी परिस्थितियों का अपनी परिस्थितियों से तुलना करना भी बेमानी था । इन सब बातों को मद्देनजर रखकर ही यह फैसला लिया था उसने।
जो आज बड़ी हिम्मत कर उसने अम्मा को सुना दिया ।
जाने कितनी देर...कितनी देर वे अपनी मुट्ठी में उसके हाथों को दबाए बैठी रहीं । रेगिस्तानी अहाते में ठंडी पुरवा हवा बहती महसूस करती रही वह भी । बिना हिले-डुले। जीवन की सबसे कठिन घड़ी में सबको अपनी माँ क्यूँ याद आती हैं । जान गई थी वह । अम्मा को भी स्यात अपनी माँ याद आई हों। एक हलचल हुई । अम्मा अपनी जगह से उठीं और उसके सिर पर ममता से हाथ फिराने लगीं। उनकी ख़ामोशी और उनकी आँखों में उतरा संतोष इस बात का सबूत था कि उन्हें उनकी बेटी आज उनसे भी ज़्यादा हिम्मतवाली लगी। इसी के साथ उनकी आँखों में छलक आई नमी बहुत कुछ कहती रही । वही, जो… वो, कभी न कह पाई थीं... और वही जिसे वे आज भी ज़ब्त करने की कोशिश कर रही थीं। इसी कोशिश में उसे गले लगा वे सुबक-सुबक रोने लगीं। दुख साझा था इसलिए दोनों की आँखों से बह रहा था।