समकालीनता, समसामयिकता और आधुनिकता / अजित कुमार
अज्ञेय जी से अजितकुमार जी की बातचीत
अजितकुमार : वात्स्यायन जी, ये जो बातचीत मैं आज आपसे कर रहा हूँ उसका विशेष संदर्भ यह है कि अभी हाल में ही, साहित्य अकादमी की संवत्सर व्याख्यान योजना का प्रथम व्याख्यान आपने 'स्मृति के परिदृश्य' पर दिया है और मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यदि साहित्य अकादमी के मुखपत्र 'समकालीन भारतीय साहित्य' में समकालीनता, भारतीयता और भारतीय साहित्य के संबंध में आपके विचार प्रकाशित हों तो इस व्याख्यान से जुड़े कई पहलू साफ हो सकते हैं। दरअसल, साहित्य अकादमी की और इस पत्रिका की रीति-नीति क्या है, यह यहाँ प्रासंगिक नहीं क्योंकि मैं इस पत्रिका की ओर से नहीं बल्कि उसके लिए बातचीत कर रहा हूँ।
यह प्रश्न मेरे मन में जरूर रहा है कि समकालीनता, समसामयिकता, आधुनिकता जैसी अवधारणाओं की हिंदी में बहुत चर्चा होती रही तो इनमें कोई पारस्परिक संबंध है? या सब ये अलग-अलग चीजें हैं... इनका कोई सचमुच पारिभाषिक अर्थ हो सकता है कि नहीं? ...समकालीनता को आप किस तरह से व्याख्यायित करेंगे।
अज्ञेय : अव्वल तो मैं यह नहीं जानता कि यह काम लेखक के करने का है। ये तो पंडितों के काम हैं। क्योंकि व्याख्या करना ही पंडितों का काम है और फिर समकालीनता से ज्यादा महत्व का प्रश्न लेखक के संदर्भ में तो यह होता है, कि उसका काल-बोध कैसा है? उसी का एक पक्ष है, यह समकालीन होने का। समकालीनता की ज्यादा चिंता वे लोग करते हैं जो अधिकतर आलोचक हैं और काल को सिर्फ सामाजिक संदर्भ में देखते हैं, अनुभव के या अनुभूति के संदर्भ में नहीं देखते जबकि साहित्यकार के लिए पहला स्थान उसका है। उसकी वर्तमानता का बोध अनुभव के साथ जुड़ा हुआ है। यह नहीं कि समाज उसमें बिलकुल अप्रासंगिक होता है लेकिन समाज भी उसी के बोध में से ही जुड़ता है। तो यह जो बाद का परीक्षण है - अनुभव का समाज के आधार पर ...यह तो रचना होने के बाद भी हो सकता है। बाकी साहित्यकार में जितना उसका समय है, जहाँ तक वह अपने समाज के साथ एकतान है, वहाँ तक वह उस अर्थ में भी समकालीन होगा। लेकिन इस की चिंता वह स्वयं नहीं करता। जो वह होता है, उसका होना ज्यादा महत्व रखता है। उस होने के बारे में सोचना या कि बाहर से उसका मूल्यांकन करना चाहना, यह उसके लिए जरूरी नहीं है।
अजितकुमार : वात्स्यायन जी, कभी-कभी मन में यह बात भी उठती है कि क्या हम ऐसा कह सकते हैं कि समकालीन वह है, एक लेखक के लिए जो उसका आज का युग या समाज है और उसके पूरे अतीत तक जितनी यह ऐतिहासिक या प्रागैतिहासिक स्मृतियाँ हैं - वे सब-की-सब उसके समकालीन का हिस्सा बन जाती हैं। इसमें क्या हम लेखक और लेखक के बीच में अंतर भी कर सकते हैं कि कुछ लेखक हैं जो समसामयिक को या आज के जीवंत यथार्थ को या आज के निकट के यथार्थ को ही अपना विषय बनाते हैं और कुछ ऐसे हैं जो पूरे अतीत को भी अनुगूँजित करना जरूरी समझते हैं। इस दृष्टि से क्या हम लेखक में कोई अंतर कर सकते हैं?
अज्ञेय : हाँ, मेरा ख्याल है कुछ तो कर सकते हैं। क्योंकि अनुभव की भी बात मैंने कही तो कुछ का आग्रह इस पक्ष पर हो सकता है कि उसके स्तर पर जो है हमारे इसी जीवन के और मुख्यतया हमारे गोचर अनुभवों पर आधारित चीज है, उसी को महत्व दें और कुछ का इसके प्रति कोई यह आग्रह हो सकता है कि नहीं वह तो केवल उसकी सतह है। और उस सतह को भी, जो उसके नीचे है, उससे अलग नहीं किया जा सकता। क्योंकि एक तो उसमें अनेक प्रकार की गूँज होती है और फिर गूँज के अलावा एक चीज होती है, जिसके लिए पुराना नाम 'अनुरणन' ठीक ही था। अँग्रेजी में एक 'रेजोनेंस' है और एक 'रेवरबरेशन' है। तो इस दूसरे पक्ष को भी किसी लेखक की रचना महत्व दे सकती है और उसमें आप पाएँगे के यद्यपि उसका समय बोल रहा है और उसके स्वर में बोल रहा है लेकिन जैसे कि उसमें पूरा उस समय का समाज ही नहीं बल्कि, पूरी-की-पूरी संस्कृति का, एक जाति का अनुभव भी कहीं-न-कहीं बोल रहा है। यह अंतर जरूर कर सकते हैं।
अजितकुमार : क्या आप स्वयं अपने लेखन में भी इस दृष्टि से कोई अंतर या विकास की कोई दिशा देखना चाहेंगे? ऐसा लगता है, कम से कम हिंदी के पाठकों का और कुछ आलोचकों का भी अनुमान है कि जब अपने नए लेखन के क्षेत्र में पहल की, उस समय आपके सोच में तथाकथित आधुनिकता और समसामयिकता का आग्रह अधिक था और धीरे-धीरे, जैसे-जैसे आप और काम करते गए, वैसे-वैसे इस तरह की बात, अतीत की पहचान की, परंपरा की पहचान की या अपने स्रोतों की पड़ताल की, आपके लेखन में बढ़ती चली गई। इस विकास के बारे में या कि यह भ्रम है हमारा, इस बारे में क्या विचार है आपका?
अज्ञेय : नहीं एकदम भ्रम तो नहीं है। लेकिन यह भी ध्यान में रखिए कि जो बात जब भी कही जाती है तो वह किस समाल में, किस संदर्भ में, किस वातावरण में कही जा रही है, इसका भी महत्व होता है। इससे अलग कोई कितने गहरे अनुभव की बात कहना चाहता है। जिस समय मैंने आधुनिकता पर, नए पर, प्रयोग पर बल दिया, उस समय यह कहनेवाले लोग कहीं अधिक थे कि हमारी संस्कृति खतरे में है। वह संस्कृति है क्या, इसके बारे में सोचना भी उन्हें असह्य जान पड़ता था। संस्कृति खतरे में है, नया कुछ होगा तो हमारा पुराना सब नष्ट हो जाएगा। इसके जवाब में दूसरे पक्ष पर जोर देना आवश्यक था। यह नहीं कि पुराने का कोई महत्व नहीं है लेकिन पुराने को एक जकड़ के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा था, जिसको तोड़ना जरूरी था। अब जिस समय यह कहा जा रहा है कि कंप्यूटर के आने से तो कविता भी क्या और राष्ट्रीय आधारों पर सोचना भी क्या? इस सबका कोई अर्थ नहीं रहता। वहाँ दूसरे पक्ष पर जोर देना जरूरी है? तो यह तो सिर्फ इतना है कि किस समय, किस पक्ष पर बल कहनी जरूरी है। तो इसलिए यह जरूरी तौर पर यह नहीं सूचित करता कि सोच बदल गया लेकिन बदला भी। और उसका कारण यह है कि मेरी, जिसे मैं लंबी जातीय स्मृति भी कह रहा हूँ, उसकी समझ या कि यह लीजिए उसमें पैठ पहले से कुछ बढ़ी है। बढ़े, इसकी चिंता मुझे कुछ अधिक रही। जब से मैं लिखता रहा हूँ तब से यह कहा जा रहा है कि भारत की बात होती है, भारतीय की, भारतीय साहित्य की लेकिन जितना साहित्य तब से अब तक लिखा गया है, उसमें इस भारतीयता के विरुद्ध जानेवाली प्रवृत्तियों को तो सभी तरु से प्रोत्साहन मिला है, चाहे भाषागत चितंन के आधार पर, चाहे विदेशगत चिंतन के आधार पर। यह बात सिर्फ एक कहने की बात रह गई है कि भारतीय साहित्य एक है और अनेक भाषाओं में लिखा जाता है। बुनियादी तौर पर लोग ऐसा ही मानते हैं और ऐसा ही आचरण करते हैं कि वास्तव में भारतीय साहित्य एक नहीं है। लेकिन मैं समझता हूँ कि एक है और क्या चीज है जो उस एकता का आधार है।
अजितकुमार : वात्स्यायन जी, इससे पहले कि हम भारतीय साहित्य की थोड़ी सी और चर्चा करें, मैं यह चाहता हूँ कि भारतीयता के बारे में आपके विचार को थोड़ा-सा समझ लें। बात यह है कि इस मामले में भी ऐसा आपके पहले के दृष्टिकोण को जानने पर ऐसा लगता था कि आप भारतीय और तथाकथित अभारतीय या पश्चिमी के बीच एक तरह के संतुलन या एक तरह के तालमेल में अधिक विश्वास करते थे। एक भाषण आपका मैंने सुना था, जिसमें आपने कहा था कि वृक्ष जड़ से भी अपना भोजन ग्रहण करता है और वायु से और धूप से, जो बाहर है, उससे भी अपना भोजन लेता है। उस समय ऐसा लगता था कि आप भारतीय को अधिक महत्व देते हैं। एक तो प्रश्न यह है कि भारतीय, जिसका संधान आज के लेखक को करना महत्वपूर्ण मालूम होता है, आपको विशेष महत्वपूर्ण मालूम हो रहा है, वह क्या कोई ढाई-तीन हजार साल पहले या चार हजार साल पहले सोचा-समझा हुआ कोई अनुभव है, जिसको कि हम आज से फिर उद्घाटित कर रहे हैं, दोहरा रहे हैं या इसमें कुछ इस बीच के इतिहास से और मुगलों और अँग्रेजों से संपर्क के कारण कुछ और भी ऐसा जुड़ा गया है, जो उतना ही महत्वपूर्ण है।
अज्ञेय : ये दो-तीन प्रश्न हैं। एक तो पहले जो प्रश्न आपने वृक्षवाला सामने रखा, उसी को सामने रखते हुए कहूँ कि यह तो अब भी मानता हूँ कि वृक्ष जो पोषण ग्रहण करता है, वह जड़ से भी करता है और पत्तों से भी ग्रहण करता है। लेकिन अगर जड़ से उसको पुष्टि नहीं मिल रही है तो पत्तों से कुछ ग्रहण करने का उसका सामर्थ्य नष्ट हो जाता है। इसलिए अधिक बल तो उसी पर देना चाहिए और जड़ों से पोषण ग्रहण करता हुआ, वह स्वस्थ रहे तो पत्तियों से जो वह ग्रहण करता है उसमें भी जैसा चुनाव उसको करना चाहिए, वह करता है। नहीं तो फिर उसको पुष्टि भी मिलती है और विष भी उसको मिलता है, वह भी उसमें प्रवेश कर जाता है। ऐसा मैं नहीं मानता कि कोई संस्कृति शुद्ध संस्कृति होती है। ऐसा भी नहीं मानता कि उसका अनुभव एक बार, एक-दो-पाँच-दस हजार साल पहले हो गया और उसी की कक्षा करनी है। कोई जीवित संस्कृति लगातार बाहर से कुछ ग्रहण करती है और उसकी यह ग्रहणशीलता, उसकी जीवंतता का ही प्रमाण है, उसका खंडन नहीं है। लेकिन क्या वह ग्रहण करे और कैसे ग्रहण करके, उसका उपयोग करके - जब तक उसका यह निर्णय करने का अधिकार बना रहता है तभी तक वह वास्तव में एक जीवित संस्कृति होती है। जब वह दूसरों की शर्तों पर दूसरों की चीज ग्रहण करने को बाध्य हो जाती है तब अनुकरण करने लगती है और तब उसे जीवित संस्कृति नहीं कहा जा सकता है। पश्चिम की संस्कृति के साथ हमारा रिश्ता दन दोनों में से कौन सा है, यह आज भी विचारणीय है। बहुत कुछ हमने ग्रहण किया और उसको पचा लिया। ऐसा पचा लिया कि अब पहचानना भी मुश्किल हो जाता है कि यह चीज कहाँ से आई थी।
उदाहरण के लिए, हमारी भाषा में चालीसेक भाषाओं के शब्द हैं और यह पहचानना बड़ा मुश्किल हो जाता है कि इनमें से कौन-सा देशज है या इस मिट्टी से उपजा है और कौन-सा बाहर से आया है। बहुत-सी चीजों के भारतीय होने का आग्रह हम करते हैं। उदाहरण के लिए पोशाक का अगर विचार करने बैठें तो उसमें कोई भी चीज ऐसी नहीं होती जिसके लिए नाम तक भारतीय मूल का हो। उदाहरण के लिए हम अँग्रेजी लिबास के विरुद्ध कुरते-पाजामे की बात कर सकते हैं। कुरता शब्द तुर्की का है, पाजामा शब्द फारसी का है और इनको किसी देशी मूल की भाषा में क्या कहें, हम जानते भी नहीं।
यही बात दूसरे कई क्षेत्रों में लागू होती है। जो मैं कहना चाहता हूँ वह यह कि अभी तक मानव-जाति का जितना इतिहास हम जानते हैं, उसमें चार-पाँच ही उल्लेखनीय, बड़ी संस्कृतियाँ विकसित हुई हैं। यानी लाखों बरस के मानव-जाति के इतिहास में हजारों वर्षों की चार-पाँच परंपराएँ हैं, इनमें से एक हमारी है। ऐसा अगर है तो इस अनुभव को नकारना तो बहुत बड़ी मूर्खता होगी लेकिन यह भी मान लेना उतनी ही बड़ी मूर्खता होगी कि हमें पाँच हजार, छह हजार या दस हजार साल पहले अनुभव हो गया और केवल उसकी रक्षा करना हमारा काम है। हमें निरंतर इसकी भी परख करनी है और उसकी आज की दृष्टि से जाँच करनी है। उसमें लगातार कुछ जोड़ना भी है। लेकिन, वह हमारी पूँजी है और उसमें हमें लगातार वृद्धि करनी है।
अजितकुमार : वात्स्यायन जी, ऐसा लगता है कि आजादी मिलने से पहले, शायद किन्हीं कारणों से, सांस्कृतिक या राजनैतिक कारण भी हो सकते हैं, हम एक तरह के सांस्कृतिक संश्रव की बात अधिक करते थे और आजादी के संघर्ष के दौरान 'युनिटी इन डायवर्सिटी' एक बड़ा प्रचलित सोच का ढंग था। लेकिन हम आजाद होने के बाद शायद एक तरह के शुद्धतावाद की ओर बढ़ रहे हैं, ऐसा हमारे इधर के लेखकों के लेखन से या कई लोगों के चिंतन से लग रहा है। तो क्या इन दोनों में कोई अंतर है? क्या सचमुच ऐसा है कि हम किसी तरह के शुद्धतावाद का संधान करना चाहते हैं?
अज्ञेय : नहीं, ऐसा कौन-सा, आप कोई नाम लीजिए लेखक का समकालीनों में, जिसके बारे में यह बात सही हो...
अजितकुमार : दरअसल भारतीयता के ऊपर जो इतना अधिक आग्रह है, उस आग्रह के मूल में ही यह गंध मुझे मिलती है। वरना इस आग्रह को इतने प्रबल रूप में कहने की क्या जरूरत है? मान लीजिए कि आप जिन चार-पाँच संस्कृतियों का जिक्र करते हैं या जो कुछ भी देश-विदेश में, रूस में, अमरीका में, यूरोप में हो रहा है, उसको जिस सहज-स्वाभाविक रूप में हम पहचानते-जानते, आत्मसात करते और परखते रहे हैं, उसको लेकर क्यों इतनी फिक्र होनी चाहिए? अगर हम सचमुच उसी विचार को मान करके चल रहे हैं कि सब चीजें मिलती हैं और यह सब सहज-स्वाभाविक रूप से जीवन में...।
अज्ञेय : सवाल यही है कि अब जो हो रहा है वह कहाँ तक सहज-स्वाभाविक रूप से हो रहा है और अगर उस तरह के कोई लक्षण हैं भी, जिनका आप उल्लेख कर रहे हैं तो अगर आजादी के बाद यह अनुभव होता है कि हम हमारे अपने अनुभव जो हैं, उनमें जो संवर्धन हम कर सकते हैं, जो करना चाहिए, उसमें बाधाएँ होती हैं केवल इसलिए कि कुछ लोग, जो शासन कर रहे हैं, उनको उसकी समझ नहीं है, उनकी उतनी दृष्टि नहीं है और हमें जो दीखता है, उसको देखने से वे इसीलिए नकारते हैं कि उन्होंने एक रंगीन चश्मा लगा रखा है। तो क्यों नहीं उसका विरोध होना चाहिए?
अजितकुमार : नहीं, क्या हम इस बात को इस रूप में समझ सकते हैं कि जब हम सचमुच राजनैतिक तौर पर गुलाम थे, उस समय हमारी भीतर की आजादी हमारे पास ज्यादा थी और जब हम राजनैतिक तौर पर आजाद हो गए तो वह गुलामी कई-कई रास्तों से हमारे मन में, हमारे लेखन में प्रवेश करने लगी, जिससे कि लड़ना आज हमारे लिए जरूरी है? क्या इस तरह का कुछ आपका विचार है?
अज्ञेय : नहीं। एक घटना मैं आपको बताता हूँ। चार-पाँच वर्ष पहले मैंने कहीं एक व्याख्यान दिया। उसमें मेरी समझ में तो मैंने कुछ पुरानी ही बात दोहराई, नए संदर्भ में। लेकिन श्रोताओं में कुछ अच्छे विद्वान लोग थे, अँग्रेजी पढ़े-लिखे लोग, जिनको लगा कि मैंने कुछ नई मौलिक बातें कही हैं। सुनकर तो उन्हें अच्छा भी लगा। उनमें से एक ने मुझसे पूछा कि अपने तो बहुत-सी नई बातें कही हैं, ये अँग्रेजी में भी कहीं कही गई हैं? मैंने कहा, नहीं, अँग्रेजी में तो नहीं कही गई हैं लेकिन इसके मूल में, जो कुछ मैं मान भर चला, संस्कृत में तो उसके आधार मिल जाएँगे। तो जैसे कि उनके चेहरे पर भी यह भाव दीख गया कि अगर अँग्रेजी में यह बात नहीं कही गई हैं तो शायद उतनी मौलिक नहीं है, जितनी उन्हें जान पड़ी। अब इसमें जो अंतर्विरोध निहित है उस पर आप विचार कीजिए कि अगर तो यह बात पहले अँग्रेजी में कही गई है तब तो उसे वे मौलिक मान सकते हैं और अगर मौलिक है तब वह ग्राह्य नहीं होगी जब तक कहीं उनको उसकी जड़ अँग्रेजी में न मिल जाए। ऐसा आज का सारा जो सरकारी तंत्र है, उसका चिंतन इसी ढंग का है और यह सारे देश के लिए यहाँ पर इसके लिए जो एक जकड़बंदी है, इसको भी काटना जरूरी है।
अजितकुमार : सरकारी तंत्र में हम इसे अँग्रेजियत ही कह सकते हैं, और भी किसी अन्य अच्छे शब्द के अभाव में। तो सरकारी तंत्र में या सरकारी सोच में तो यह अँग्रेजियत बढ़ी है। क्या आप समझते हैं कि हमारे सामाजिक जीवन में, व्यापक सामाजिक जीवन में भी, जैसा कि बहुत बार कहा जाता है, इस तरह की अँग्रेजीयत बढ़ी है, हमारे युवकों में हिंदी के लेखकों के विरोध में बहुत-से लोग यह तर्क देते हैं कि खुद तो वे हिंदी का समर्थन करते हैं लेकिन अपनी तमाम संतानों को पब्लिक स्कूलों में पढ़ने के लिए भेजते हैं। यह सचमुच देखने में एक बात आई है। तो इस सबके बावजूद, मुझे फिर भी नहीं लगता कि हम अपने चरित्र को, स्वभाव को या अपनी जातीय पहचान को छोड़कर किसी दूसरी पहचान को धीरे-धीरे और अधिक अंगीकार कर रहे हैं। भीतर से तो मैं यही महसूस करता हूँ कि हम उन चीजों का अपने हित में उपयोग कर रहे हैं, अपने ढंग से उसका लाभ उठाने की कोशिश कर रहे हैं और गुलामी के दिनों में जिन चीजों से हम वंचित रहे, उनसे हम वंचित नहीं रहना चाहते। हम अपने बोध को ही बढ़ रहे हैं। पर क्या आप ऐसा महसूस करते हैं, बाज लोग ऐसा कहते भी हैं कि आजाद होने के बाद, अँग्रेजीपन, अँग्रेजियत और अँग्रेजी रहन-सहन या उन मूल्यों का विकास इस देश में हुआ।
अज्ञेय : मैं समझता हूँ कि अलग-अलग क्षेत्रों में दोनों ही बातें सही हैं। बहुत-सी सुविधाएँ या सहूलियतें जो पहले नहीं मिलती थीं, अब मिल सकती हैं और उनका उपभोग या उपयोग किया जा रहा है, यह बात भी सही है। लेकिन दूसरी तरफ यह भी सही है कि समझ का जैसा विकास होना चाहिए, वह नहीं हो रहा है और उसके कारण यही हैं कि नकल करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। जो बाहर से आया, वह इसीलिए अच्छा है कि वह बाहर से आया, ऐसी धारणा बहुत-से लोगों की है।
अजितकुमार : यह बात क्या हम भारतीय साहित्य के बारे में भी कह सकते हैं? देखिए, मुझे ऐसा लगता है कि एक समय अँग्रेजी के कवियों का - जैसे इलियट, येट्स वैगरह का हमारे न केवल हिंदी के बल्कि समूचे भारतीय लेखन पर ज्यादा प्रभाव था और कुछ अन्य रोमांटिक कवियों का भी बहुत अधिक प्रभाव था। इधर के भारतीय साहित्य पर ऐसा प्रभाव मुझे कम दीख रहा है। और कम-से-कम चिंतन और सृजन के स्तर पर मुझे ऐसा लगता है कि एक तरह की स्वाधीनता भारतीय लेखक में अधिक बढ़ी है।
अज्ञेय : स्वाधीनता बढ़ी है या कि दूसरे क्षेत्रों से दूसरी तरह के चिंतन का प्रभाव है?
अजितकुमार : हम इसको इस तरह से क्यों न समझे कि हम अपनी जमीन पर खड़े रहकर अन्य क्षेत्रों में, अन्य प्रदेशों में, अन्य देशों में, अन्य भाषाओं में जो कुछ भी अच्छा सोचा-समझा जाना गया है, उसका लाभ उठा करके अपने को और अधिक समृद्ध बनाने की दिशा में प्रवृत्त होना चाहते हैं।
अज्ञेय : ऐसा नहीं हो रहा है यह मैं नहीं कह रहा। ऐसा भी हो रहा है लेकिन पहले चूँकि सब उच्चतर शिक्षा अँग्रेजी के माध्यम से होती थी इसलिए अँग्रेजी के जो अच्छे कवि थे, उनका प्रभाव आना था, वह तो शिक्षा का ही एक अंग था और वह दीखता भी था। अब अँग्रेजी की वैसी शिक्षा इस देश में नहीं होती। अच्छा है या बुरा है, इसको अलग छोड़ दीजिए। अँग्रेजी की शिक्षा होती है और अच्छी शिक्षा नहीं होती - सिर्फ घटिया शिक्षा होती है - यह दुख की बात है। पहले अच्छी शिक्षा भी होती थी, अब उसके बदले क्या होता है, इस पर अगर विचार करें तो यह प्रभाव अब नहीं दीखते, यह तो हम कह सकते हैं। लेकिन इसके बदले दूसरे साहित्यिक प्रभाव दीखते हैं, वैसा भी नहीं है और यह भी नहीं कह सकते कि संस्कृत या कि इस देश का जो अच्छा पुराना साहित्य था, उसकी तरफ भी कोई ध्यान बढ़ा है। ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। तो साहित्य का प्रभाव, किसी भी साहित्य का, कम दीखता है क्योंकि दृष्टि ही साहित्य की तरफ से हटकर दूसरी तरह के प्रभावों की ओर गई है, जो अच्छे भी हैं और बुरे भी।
अजितकुमार : इन प्रभावों का या जिन दूसरे प्रभावों का उल्लेख आप कर रहे हैं इनको हम क्या टेक्नोलॉजी या उपभोगवाद जैसे विवरणों से जान सकते हैं, क्या इनकी ओर उनका संकेत है?
अज्ञेय : इनकी भी और राजनीति की भी। राजनैतिक चिंताधारा या मतवाद का प्रभाव आज के साहित्य पर बहुत अधिक है और माना जाता है कि पहली चीज वह है, जो कि पहले स्थिति नहीं थी। और मैं आशा करता हूँ कि भविष्य में फिर नहीं रहेगी लेकिन इस समय है।
अजितकुमार : इसको थोड़ा और स्पष्ट आप करे तो यह जो राजनैतिक प्रभाव है, इसको, दो शक्तिशाली गुटों का प्रभाव हम कह सकते हैं। यानी क्या आज आप या अन्य सोच-विचार करनेवाले लेखक, एक किसी भारतीय राजनीतिक पद्धति की परिकल्पना कहते हैं जो कि गांधी की या देशी ढंग के किसी चिंतक की पद्धति हो सकती है। क्या लोकतंत्र का ऐसा कोई भारतीय रूप है, जो हमारे लेखकों, बुद्धिजीवियों को प्रेरित और आकर्षित कर रहा है?
अज्ञेय : देखिए, पद्धतियाँ विकसित करना तो साहित्यकार का या कि सर्जक का काम नहीं होता। लेकिन जिस दृष्टि पर या जिन अंतर्दृष्टियों पर, जिस कार्य-विज्ञान पर ये व्यवस्थाएँ आधारित होती हैं, वे वहाँ से भी मिल सकती हैं। तो पद्धतियाँ या व्यवस्थाएँ या कि शस्त्र रचना दूसरों का काम है। ऐसे प्रश्न उठा देना जिनके लिए नए शास्त्र की आवश्यकता जान पड़े या शस्त्रों में संशोधन की आवश्यकता जान पड़े - इसकी अपेक्षा तो आप कर सकते हैं साहित्यकार से। मेरा ख्याल है कि इस समय हमारे देश में इस तरह की बात थोड़ी-बहुत हो रही है तो उस क्षेत्र में हो रही है। राजनीति के क्षेत्र में तो कम सोचा जा रहा है, जिसे नया सोच कह सकें। और जो है, वो अधिकतर उन दो शक्ति-संगठनों में या सत्ता के केंद्रों में से आया हुआ है। अब आप देखिए कि संसार की ही जो परिकल्पना है, हममें से बहुत-से लोग तीसरी दुनिया की बात कहते हैं और अपने को तीसरी दुनिया में मानते हैं। यह पूछिए कि तीसरी दुनिया क्या होती है, दुनिया तो एक है और उसको हम नष्ट कर सकते हैं या उसको बनाने में कुछ योग दे सकते हैं। अपने को तीसरी दुनिया का अंग मान लेना पहले दो शक्ति-समूहों को अपने ऊपर और अपने से अधिक समर्थ, अपने से श्रेष्टतर कोटि में स्वीकार कर लेना है जो कि नहीं होना चाहिए। मैं तो कहता हूँ कि दुनिया एक ही है, तीसरी दुनिया का कुछ मतलब नहीं होता। बहुत से देश जिनको कि पहले हम अविकसित, उत्पीड़ित या पराधीन देश भी कहते थे अब उनको इस तरह के नाम न देकर फिर एक समूह में रख दिया जाए, जिसे तीसरी दुनिया कह दिया जाए, इसमें तो जिन्हें पहली दो दुनिया मान लेते हैं, उन्हीं का हित होगा।
अजितकुमार : क्योंकि और कोई उपाय नहीं है उनसे लड़ने का। शायद यह एक बात कही जा रही हो, तीसरी दुनिया की।
अज्ञेय : ऐसा तो नहीं है और मैं नहीं मानता। तीसरी दुनिया के नाम पर हम अपने को बहुत से ऐसे देशों के साथ जोड़ते हैं, जिनसे न तो हमें शक्ति मिलती है, न वो हमारे पक्ष के हो सकते हैं, न हमारा ही उनके लिए बहुत अधिक उपयोग हो सकता है और ऐसे भी कुछ देशों का साथ छोड़ देते हैं जिनसे कि हमें लाभ हो सके।
अजितकुमार : शायद यह राजनैतिक हो, संभव है, राजनैतिक या आर्थिक कारणों से तीसरी दुनिया की अवधारणा विकसित की जा रही हो। लेकिन हम थोड़ी देर के लिए चिंतन या सृजन के ही धरातल पर अपनी बात बढ़ाएँ तो क्या हम जिसे भारतीयता कहते हैं या भारतीय साहित्य कहते हैं, उसकी एक अपनी स्वतंत्र, स्वाधीन और विशिष्ट पहचान के मूल में आप क्या समझते हैं कि कौन-कौन-सी बातें हो सकती हैं जिनसे हम पहचान सकें कि यह भारतीय साहित्य है। एक सामान्य विवरण तो यह है कि भारतीय भाषाओं में जो लिखा है या जो लिखा जा रहा है, वह भारतीय साहित्य है। लेकिन उसके पीछे जो जीवन-मूल्य या जीवन-दृष्टि या जीवन की समझ है, उसमें क्या कुछ चीजों को हम अलग से पहचान सकते हैं?
अज्ञेय : हाँ, पहले जो मैं कह रहा था कि चार-पाँच संस्कृतियाँ ही तो उल्लेख्य हैं। जिनमें एक भारतीय संस्कृति है। हमारे सारे मानव-जाति के इतिहास में तो भारतीय साहित्य की बात अगर हम, यहाँ जो लिखा जा रहा है, भौगोलिक दृष्टि से या कि भाषिक दृष्टि से, उससे अलग या कि उससे ज्यादा गहराई में जाकर हम कोटि बनाना चाहें तो उस साहित्य को कोई भारतीय कहेंगे, जिसमें उस संस्कृति की कुछ पहचान दीखती है और जिसमें उस लंबे जातीगत अनुभव का कुछ उपयोग भी काम कर रहा दीखता है, जो संस्कृति से जुड़ा हुआ है। उसका विचार करेंगे तो यह सवाल जरूर बनेगा कि जिसे हम भारतीय संस्कृति कह रहे हैं, क्या चीजें थी जो उसे दूसरी संस्कृतियों से अलग करती थीं और सामान्यतया तो ऐसा किया जा सकता है कि पुरानी संस्कृति की क्या विशेषताएँ थीं, उसकी दृष्टि में इन चीजों का जो महत्व था या उसका जो विश्व-दर्शन था, उसमें मानव का और उसका अपना स्थान क्या था और सभ्यता में क्या था? उदाहरण के लिए पश्चिम की जो सभ्यता है, जिसका आधार एक तरफ यूनानी और दूसरी तरफ हिब्रू संस्कृतियाँ रहीं, उसमें मानव और प्रकृति का एक बुनियादी विरोध का रिश्ता है, बाकी प्रकृति की रचना स्रष्टा ने की, मानव में उपयोग के लिए। यानी मनुष्य को बनाया और फिर उसके द्वारा खाए जाने के लिए बाकी दुनिया को बनाया। यह मूलतः भारतीय दृष्टि से एक अग्राह्य रिश्ता है। और यहाँ पर इससे ठीक उलटे एक बुनियादी एकता से आरंभ किया गया कि सृष्टि में जो कुछ है, वह एक है और उसकी एकता में, उसके सामंजस्य में ही, उसका विकास और उसकी उन्नति होती है। मनुष्य प्रकृति के विरुद्ध नहीं है बल्कि प्राणि - मात्र एक दूसरे के सहारे जीता है, एक-दूसरे को पूरा करता हुआ जीता है और प्राणि - जगत ही नहीं, जो जड़ जगत है वह और जो जीव जगत है, दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं और एक ही उन्नति में दूसरे की उन्नति है। यह बिलकुल दूसरी दृष्टि है और आगे जिस तरह का विकास होता है, उसमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि हमारा भारतीय संस्कृति का अवदान सारे संसार के लिए यह था कि इस दृष्टि से सृष्टि मात्र को देखा जा सकता है और देखा जाना चाहिए। अगर आप इसे काटते भी हैं तो पहले इसे देखकर काटना चाहिए।
अजितकुमार : हम इस समय देख रहे हैं कि सारी दुनिया में परिमंडल की रक्षा की और प्रदूषण को मिटाने की बात हो रही है और शायद दुनिया के तथाकथित आधुनिक देश इस नतीजे तक अपने अनुभवों के कारण पहुँचे हैं। इस पर हम कह सकते हैं कि यहाँ, भारत में यह बहुत पहले ही सोच लिया गया था। लेकिन आज - 'इन्वायरमेंट' की चर्चा तो सारी दुनिया में हो रही है। तो ये दो अलग-अलग तरीके हुए या कि भारत की दृष्टि को उन्होंने अब अपना लिया है - हम ऐसा कहने के लिए प्रेरित होंगे?
अज्ञेय : नहीं, यह तो नहीं करेंगे जहाँ इस का नया सोच है जिसकी ओर आप इशारा कर रहे हैं वहाँ कुछ ऐसे लोग भी हैं जो यह पहचानते हैं कि यह भारत की दृष्टि रही और एक बार फिर एक नया कुतूहल भारत के चिंतन के बारे भी जागा है। आधुनिक यूरोप में, अमरीका में ऐसी चेतना है कि भारत ने इस तरह की बातें सोची थीं, विश्व को देखने की एक दूसरी दृष्टि दी थी जिसकी आज प्रासंगिकता है, जिसका महत्व है, ऐसा सोचनेवाले लोग हैं। यह नहीं कि यह हमने पहले देख लिया थ...
अजितकुमार : अच्छा, क्या हम यह कह सकते हैं कि वे जब इस नतीजे तक आज पहुँच रहे हैं तो उनके पीछे उनका व्यवहारिक, वैज्ञानिक प्रश्न पिताजी से मिला हुआ सोच या अनुभव है और उसके पीछे एक श्रृंखला है, जिस कारण उन्होंने पहले अपनी दुनिया को मिटाया और खराब किया और उसके बाद फिर उसको बनाने के लिए अब उसी खराबी को देखकर प्रबुद्ध हो रहे हैं। तो यह अलग-अलग पथों से एक जगह पहुँचना नहीं हुआ क्या?
अज्ञेय : नहीं, यह केवल तर्क की परंपरा नहीं है। बहुत कुछ आतंक भी उसमें है या कि पराजय का भाव भी है कि हम जिस रास्ते से जा रहे थे उससे एक अंधी गली में पहुँच गए। अब आगे इधर तो रास्ता नहीं है। एक व्याकुलता है। यह तो आप कह सकते हैं कि यह अनुभव में से निकली है, वहाँ तक ठीक है लेकिन यह तर्क-परंपरा से ही पाई गई है, ऐसा नहीं है। व्याकुलता पहले आई है, पराजय का भाव पहले आया है और इसका उपाय सोचें यह उसके बाद में आया है। यह नहीं है कि दूसरे रास्ते से आप उसी परिणाम तक पहुँच रहे हैं। दूसरे रास्ते से उस परिणाम पर पहुँचते हैं तो वह परिणाम भी दूसरा हो जाता है क्योंकि वह अनुभव अलग-अलग और दूसरे प्रकार का है।
अजितकुमार : शायद हम यह कह सकते हैं कि भारतीय सोच में, अपने ढंग से चलने के कारण प्रकृति के साथ घुल-मिल जाने और आत्मीयता और समरसता अनुभव करने की वृत्ति थी। जबकी वहाँ अगर संकट के रूप में यह चीज सामने आ रही है तो सारे समय उपायों की खोज का और उससे अलग रहकर भी और उससे अपने को 'मैनेज' करने का ज्यादा भाव है बनिस्वत इसके कि उसके साथ एकमेक होने का। क्या यह नहीं लगता आपको?
अज्ञेय : यह भी है।
अजितकुमार : यह तो एक पहलू हुआ जिससे हम भारतीय पहचान को समझ सकते हैं। क्या कोई और बिंदु भी आप सुझाना चाहेंगे जो कि इसको केंद्रित करे।
अज्ञेय : काल का बोध है। भारत में काल की अवधारणा अलग प्रकार से हुई और उसमें भी एक समय ऐसा हुआ, जब उन्नीसवीं सदी में 'क्वांटम' सिद्धांत भौतिकी क्षेत्र में प्रकट हुआ और मनोविश्लेषण की बातें हुई और मन में चेतन और अवचेतन की बातें हुईं तब वहाँ भी कुछ प्रश्न उठे जो यहाँ उठाए जा चुके थे और जिनका पहले यहाँ उठाए गए होना तथ्य है। लेकिन पहले उठाए जाने के बाद उनको सामने रखकर उस तरह की वैज्ञानिक प्रगति यहाँ पर चाहे जिस कारण से शिथिल हो गई थी और वहाँ पर हुई। काल की जो अवधारणा यहाँ हुई थी, जिसके आधार पर हम सदियों तक जिए भी, उसने भी हमें एक अलग प्रकार का अनुभव दिया जिससे कि हम इतिहास को भी उसी दृष्टि से नहीं देखते जिस दृष्टि से पश्चिम देखता आया है और देखता है। और इसमें भी इसकी भी संभावनाएँ हैं जो कि चुक नहीं गई हैं। यह संभव है, कभी-कभी यह सूक्ष्म मात्रा में होता भी है कि पश्चिम भी इस दृष्टि से विचार करता है कि भारत ऐसा सोचता था कि उसने सोच का दूसरा आधार दिया था और शायद उससे भी कुछ हमें मिल सकता है। हम भी सोच सकते हैं कि पश्चिम ने सोचने का एक दूसरा आधार हमें दिया है और उससे भी हमें लाभ होता है, और ऐसा हम कर भी रहे हैं। इस आदान-प्रदान का मैं विरोधी नहीं हूँ, यह तो मैंने पहले भी कहा लेकिन यह भी कहा कि उसमें अपने अनुभव को नकारकर दूसरे के अनुभव को स्वीकार करने की जो कोशिश है, वह धनात्मक या रचनात्मक नहीं होती।
अजितकुमार : जिस आदान-प्रदान का जिक्र आप कर रहे हैं, उसमें, मान लीजिए, प्रदान की ही बात हम अभी करें तो आजादी के संघर्ष के दौरान कुछ जीवन-मूल्य जैसे शांति, अहिंसा, सत्याग्रह आदि-आदि भारतीय जीवन-मूल्य या भारतीय सोच के तरीके की तरह विकसित हुए। क्या इधर हमारे भारतीय लेखन में इसके अलावा कोई और चीजें ऐसी हैं, जिनको हम मून्य के स्तर पर पहचान सकें? दृष्टि के ही स्तर पर नहीं, मूल्य के स्तर पर भी हम पहचान सकें और कह सकें कि यह विश्व संस्कृति को या विश्व-बोध को हमारा प्रदान है, हमारा दिया है या हम यह राह दिखा सकते हैं, और लेखन में जिसकी पड़ताल हो रही है।
अज्ञेय : संस्कृति के या जातिगत अनुभवों की जो बात मैं कहता हूँ - मूल्य दृष्टि तो उसी में से विकसित होती है। वैसी दृष्टि अगर है तो फिर उस पर आधारित अलग मूल्य भी हैं और साहित्य में बहुत-सा ऐसा है, जो पश्चिम से प्रभावित है। पश्चिम विधाओं को मानकर उनके ही विकास का प्रयत्न यहाँ भी होता है। विकास का या कि उनके सिर्फ अंगीकार का। लेकिन अब अगर उपन्यास की विधा को लें जो एक दृष्टि से कह सकते है कि नई विधा है और पश्चिम से आई हुई विधा है। (यद्यपि कथा कहने का रिवाज तो यहाँ भी था, सारी दुनिया में, सभी देशों में था) लेकिन उपन्यास की विधा को वहाँ से लें और कालबोध - भारतीय कालबोध - को उसके साथ जोड़ें तो उपन्यास में कैसा रूपांतर यहाँ होता है, मेरा ख्याल है कि ऐसी कुछ चिंता तो यहाँ दिखी और वैसी रचनाएँ होंगी। उपन्यास के क्षेत्र में यह एक नई चीज होगी।
अजितकुमार : यह बात मैं इसलिए और भी आपसे जानना चाहता हूँ क्योंकि बहुत समय तक, कौन जाने आज भी, भारतीय साहित्य या प्रतिनिधि भारतीय साहित्य के नाम पर पश्चिम में केवल ऐसी ही रचनाओं के प्रति कुतूहल बना रहा जिनमें पालकी का या मदारी का या देशी विवाह का या महाराजाओं का या इसी तरह की चीजों का वर्णन हो। इन्हीं को भारतीय समझ करके एक अजीब सरलीकृत ढंग से पिछड़े हुए समाज की कुतूहल की चीजों के रूप में सामने आती रहीं, इसी रूप में देखा गया और कम से कम मुझे यह दृष्टि या भारतीयता की यह समझ संतुष्ट नहीं करती और उसके पीछे मन होता है कि हम किन्हीं अन्य गहरी चीजों की ओर जाएँ और उनके माध्यम से भारतीयता की पहचान करें। मान लीजिए, उदाहरण के लिए एक बात यह है, एक मुहावरा ही है, 'सादा जीवन उच्च विचार' तो क्या हम कह सकते हैं कि यह हमारे सोच के मूल में इस तरह की चीज है और इधर आजादी के बाद, जो यहाँ सुविधाएँ आईं हैं, जो साधन बढ़े हैं उनसे एक अजीब तरह का गड्डमड्ड हमारे जीवन में हो गया है। मैं अपने बचपन की याद करता हूँ तो मुझे लगता है, चाहे विपन्न हों चाहे संपन्न, सबका जीवन लगभग एक तरह का होता था। और इधर जीवन-पद्धति का अंतर बहुत देखने में आया है। कुछ लोग धीरे-धीरे उच्च मध्यवर्गीय ढंग से रहने लगे हैं, जबकि अधिकांश देश एक निम्नवर्गीय धरातल पर जीवन को जी रहा है। इस बात को लेकर हमारे लेखकीय सोच में क्या उथल-पुथल है या क्या-कुछ हो रहा है?
अज्ञेय : आपने जिन बातों की ओर इशारा किया, ऐसा नहीं है कि यह केवल भारतीय चिंतन का अंग था। ईसाई चिंतन में भी ये चीजें थीं, कुछ पहले छोड़ दी गई, जब उपभोग की सभ्यता का विकास हुआ तब ये चीजें उसमें छोड़ दी गईं। नहीं तो 'सिंपिल लिविंग हाई थिंकिंग' उनका भी था और जिसको कुछ साधन मिले भी हैं, उनका उसको दिखावा नहीं करना चाहिए, जितने सादे ढंग से दूसरे जीते हैं। ये सब चीजें वहाँ भी थी, लेकिन पीछे छूट गईं। तो ऐसा नहीं कह सकते कि ये बुनियादी तौर पर भारतीय चिंतन की चीजें हैं। इनका अलग से विचार हो सकता है कि क्या इनका महत्व आज भी है या नहीं है। लेकिन दूसरी सभ्यताओं और संस्कृतियों में भी ये रहीं। लेकिन कुछ चीजें हैं जो कि वहाँ नहीं रहीं। जिनका उल्लेख मैंने किया।
अजितकुमार : ऐसे ही मान लीजिए एक दूसरा भी सूत्र है, 'सत्यं शिवं सुंदरम्' जिसके बारे में हम जानते हैं कि ये विचार पश्चिम में पहले आया है, कोई शुद्ध भारतीय विचार नहीं है। तो क्या इस तरह के जो उदाहरण हमें मिलते हैं और कुछ विशेष उदाहरण आपने काल के संबंध में या प्रकृति के प्रति भारतीय प्रतिक्रिया के संबंध में दिए, उन सबको मिलाकर, क्या हम नहीं कह सकते कि मनुष्य जीवन का जो भी सर्वश्रेष्ठ है, उत्तम है - वह प्रायः सभी विकसित संस्कृतियों में हो चुका है, उसमें कहीं कोई विशेष अंतर नहीं मिलता। समानांतर रूप में ये चीजें समूची दुनिया में मिलती हैं और कोई एक जाति या एक संस्कृति या एक देश इन सबके ऊपर, इनमें से किसी एक के ऊपर अपना एकाधिकार नहीं कह सकता। ऐसा नहीं है क्या?
अज्ञेय : नहीं। जैसे हम जिसको... जैसे जीव को, जैसे जंतु को मनुष्य कहते हैं - उसकी संसार में कई जातियाँ हैं, उसके कई चेहरे हैं। कुछ चीजें हैं, जिनके आधार पर हम इन तरह-तरह के प्राणियों को मनुष्य की कोटि में रखते हैं। उनमें सभ्यता के, रहने के ढंग के, भाषा के विकास के बहुत अंतर हैं। तो इन दोनों चीजों को ध्यान में अगर रखें - इन भिन्नताओं को और उन समानताओं को, जिनके आधार पर इन सबको इनसान मानते हैं तो कहना होगा कि कई तरह के अनुभव, कई तरह की दृष्टियाँ भी विकसित हुईं। उनमें आदान-प्रदान हो, यह तो अच्छा है, होता आया है - यह अनिवार्य है। उससे सभी कि दृष्टियाँ और सभी के आत्म-बिंब भी बदले हैं, यह भी ठीक है और अच्छा ही है। लेकिन सबने समान रूप से वही-वही चीजें देखीं - यह तो बहुत सरलीकरण हो जाता है। यह भी है कि ये प्रभाव, एक जगह की उपलब्धि के प्रभाव, दूसरी जगह कैसे पहुँचते हैं, जब कि कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं हैं, कोई संचार-साधन उनके बीच में नहीं है - इसका जवाब हम नहीं जानते। लेकिन ये पहुँचते हैं और यह मानव नामक प्राणी में ही हो, ऐसा नहीं है। दूसरे जंतुओं में भी देखा गया है। दक्षिण अमरीका में बंदरों की एक जाति में कोई नए उपलब्धि बंदर हैं जिनसे दक्षिणी अमरीका के बंदरों का कोई संपर्क या संबंध नहीं है। उनमें भी वे परिवर्तन अपने आप आ जाते हैं। यानी कह सकते हैं कि जातिगत मन का या ज्ञान का एक स्तर है, एक-दूसरे का संस्पर्श उसको मिलता है। कैसे मिलता है, यह हम नहीं जानते। लेकिन वैज्ञानिक ने यह देखा है कि एक जगह अगर एक परिवर्तन हो जाता है या ला दिया जाता है तो वही दूसरी जगह ग्रहण हो जाता है। इस दृष्टि से भी कह सकते हैं कि मनुष्य में भी, उसकी सभ्यताओं में भी, इस तरह का आदान-प्रदान हुआ होगा, जिसके कोई प्रत्यक्ष सूत्र या कि संचार की प्रणालियाँ हमें नहीं मिलतीं।
अजितकुमार : मेरा ख्याल है कि यह आत्म-मोह नहीं है लेकिन फिर भी हम यह सोचते हैं कि भारतवर्ष एक ऐसा देश रहा है - बहुत बड़ा दोष भी है - जहाँ इस तरह के सम्मिश्रण या संश्रव या आदान-प्रदान की सुविधाएँ बहुत अधिक रही हैं। नाना जातियाँ, नाना धर्म, नाना भाषाएँ यहाँ पर आईं और घुल-मिलकर हजारों वर्षों से यहाँ पर रहती रहीं। तो किसी एक चीज को हम भारतीय कह सकें, ऐसा शायद मुश्किल हो गया है। उसका बिलकुल उलटा भी यहाँ पर मिलता है। यानी कोई एक चीज कही गई, उसका खंडन भी, उसका प्रतिपक्ष भी यहाँ पर है। तो वे तमाम चीजें मिलकर यह संदेह भी होता है कि हमारे जीवन में इसके कारण अंतर्विरोध बढ़े, छद्म भी बढ़ा, कुछ उलझन भी बढ़ी। लेकिन इसमें से दृष्टि कहाँ से मिल सकती है? यह जो तमाम पद्धतियाँ और मान्यताएँ और विचारधाराएँ रहीं हैं, इनमें से क्या है जिसको कि हम भारतीय कहें। अगर इसको या तो इस घोलमेल को, मेल-जोल को ही हम भारतीय कहें ?
अज्ञेय : नहीं, घालमेल ही की बात सामने न रखें। एक बुनियादी अंतर यह सामने लाएँ। एक तरफ ऐसा सोचना या यह मानना है कि अगर एक बात सच है तो उससे उलटी बात सच नहीं हो सकती। और दूसरी तरफ यह संभावना है कि अगर कुछ भी एक सच होता है तो उससे उलटा भी सच हो सकता है। यह एक बुनियादी अंतर है। और अगर यह कहें कि दूसरी संभावना को सामने लाना भी भारत का एक अवदान रहा और उससे घालमेल भी हो सकता है लेकिन उससे एक दूसरा परिणाम भी निकलता है कि दूसरे विचार के प्रति और इसलिए दूसरे की जीवन-परिपाटी के प्रति एक सहनशीलता भी प्रकट होती है। और वह सहनशीलता एक मूल्य के रूप में प्रकट होती है और वह मूल्य भारत का दिया हुआ मूल्य है। तो यह तर्क भी दिया जा सकता हैं कि दूसरे के विचार को सहना एक मूल्य है, अपने विचार को बनाए रखते हुए, अपने से भिन्न सोच को भी महत्व देना, यह भारत के स्वभाव में अभी तक है।
अजितकुमार : अभी तक तो हम अँग्रेजी के माध्यम से तमाम साहित्यों को समझने के अभ्यस्त रहे थे, लेकिन अब धीरे-धीरे हिंदी के माध्यम से मुझे लगता है कि न केवल अन्य भाषाओं का - भारतीय भाषाओं का, बल्कि विदेशी भाषाओं का साहित्य भी उपलब्ध हो रहा है। तो जो कुछ भी ऐसा साहित्य आया है, उसमें क्या इस उलझाव को मिटानेवाली कोई प्रवृत्तियाँ आप देख रहे हैं?
अज्ञेय : मैं समझता हूँ ये हैं और खोजी जानी चाहिए और खोजने पर मिलती हैं। अभी तक हमने इस दिशा में प्रयत्न नहीं किया क्योंकि साहित्य में क्या देखना, क्या खोजना चाहिए, इसकी शिक्षा-दीक्षा भी पश्चिमी ढंग की होती है और हम अपने साहित्य में वही खोजने के अभ्यस्त होते हैं या कि बना दिए जाते हैं और उतना ही खोजना आवश्यक समझते हैं जो कि पश्चिम के साहित्य में है। जबकि वह बिलकुल जरूरी नहीं है। यह नहीं है कि उसकी पहचान हमें न हो, अगर वह है। लेकिन उतना ही हमको देखना है, और कुछ देखने-समझने के लिए हो ही नहीं सकता, यह बहुत बड़ी भूल है।
अजितकुमार : हमारे भारतीय साहित्य में जिसका कि बहुत कुछ आज हम हिंदी के माध्यम से जान-पढ़ पा रहे हैं, उसमें हम किस चीज को महत्व दें? एक तो उसका अपनी जड़ों की और अपने पहचान की तलाश करना, यह महत्वपूर्ण है या कलात्मक या साहित्यिक मूल्य या मानदंड, जो दुनिया के तमाम देशों में विकसित किए गए हैं, उनकी दृष्टि से उन्नत और विकसित होना? या इन दोनों में कोई अंतर्विरोध नहीं है?
अज्ञेय : नहीं, इन दोनों में कोई विरोध है, ऐसा तो मैं नहीं मानता। ये समांतर प्रश्न हैं और कहीं-कहीं तो समांतर भी नहीं हैं, एक ही प्रश्न के पहलू हो जाते हैं। जैसे मूल्य दृष्टि की बात है तो सौंदर्य-दृष्टि भी एक मूल्य-दृष्टि ही है। उसमें पश्चिमी चिंतन से भी सौंदर्य शास्त्र के अवदान से कुछ नया आया भी और कुछ यहाँ भी पहले का सोचने का ढंग था - दोनों को सामने रखना चाहिए। लेकिन सौंदर्य भी एक साहित्यिक मूल्य है, उसको नाम भी दूसरा दिया जा सकता है या लक्षणों में अलग-अलग कुछ अलग लक्षणों की पहचान हो सकती है। इनमें से बहुत से तो समान ही हैं। मैं समझता हूँ कि यह भी एक समकालीन प्रवृत्ति है - इन दोनों को एक-दूसरे के विरोध में रखकर देखना। मैं तो नहीं मानता कि ऐसा कोई विरोध है।
अजितकुमार : विरोध न भी हो लेकिन कई बार डर तो लगता है कि कुछ लेखक हैं जो अपने को भारतीय संस्कृति के प्रवक्ता के रूप में या कुछ उसके ठेकेदार के रूप में भी प्रस्तुत करते रहे हैं पर उनमें कोई कलात्मक और गंभीर सेवेदनशील दृष्टि नहीं दिखाई देती है। पर यदि वे दावा करें कि केवल इस कारण कि उन्होंने जातीय जीवन का चित्रण किया है, उनको मान-महत्व मिले... इस बात का डर तो रहता ही है।
अज्ञेय : यह तो वैसा ही है जैसे कि कुछ आधुनिकता के भी ठेकेदार रहे हैं या कि नए-से नए पश्चिमी या आधुनिक या वैज्ञानिक चिंतन का दावा करनेवाले लोग भी रहे हैं। आपका सवाल जो है, वह क्या विवेकवान पाठक की पूरी उपेक्षा नहीं कर रहा है? क्या हम जो साहित्य पढ़ते हैं, जिसको अच्छा या बुरा समझते हैं, वैसा केवल इसलिए करते हैं कि किसी आलोचक ने हमें बता दिया कि किसको अच्छा मानना है, किसको नहीं मानना है या कि हमारा अपना विवेक भी काम करता है। मुझे तो यह दीखता है, खासकर इस अपने पिछले पचास वर्ष के अनुभव में कि आलोचकों की बात से पाठक बहुत अधिक प्रभावित नहीं हुआ है। वह अपने विवेक का स्वतंत्र इस्तेमाल करता रहा है। और इसीलिए करता रहा है कि आलोचकों में बहुत कम ऐसे रहे, जिन्होंने वह काम किया कि ऐसे मानदंड प्रस्तुत करें जिनके आधार पर पाठक स्वयं निर्णय कर सके। उन्होंने कोशिश यही की बने-बनाए निर्णय पाठक को दे दिए जाएँ और पाठक ने उन्हें नहीं स्वीकार किया। मैं तो यह भी समझता हूँ कि यह पाठक के स्वास्थ्य का एक लक्षण है कि उसने ऐसा नहीं किया।
अजितकुमार : आप कह रहे तो ठीक हैं लेकिन कई बार मन में यह बात उठती है न कि कहाँ पर हम किसी चीज को अतिरंजित करते-से प्रतीत होते हैं, कहाँ पर हमारा यह साहित्यिक विवेक इस रूप में मिले कि हम जान सकें कि अति हो रही है, चाहे वह कलात्मकता-आधुनिकता के दायरे में अति हो, चाहे वह भारतीयता की पड़ताल के बारे में अति हो। ऐसा कभी-कभी लगता तो है। पर वह कौन-सा समझ का बिंदु है, जिसे हम उचित परिप्रेक्ष में रख सकते हैं?
अज्ञेय : देखिए, एक तो अति नहीं होती तो फिर स्वास्थ्य में सहनशीलता की भी कमी आ जाती है। अगर हमारा वायुमंडल हमेशा उतना ही गरम या ठंडा, उतनी ही नमी लिए रहे तो फिर हमारे शरीर में यह सामर्थ्य नहीं रहता कि अधिक गर्मी या अधिक ठंड या कि वर्षा हम सह सकें। तो अगर अति होती ही है कभी और पूरे समाज का, पाठक-समाज का स्वास्थ्य ऐसा है कि वह विवेक करता हुआ, जो त्याज्य है, उसको छोड़ता चलता है तो क्या बुराई है? होने दीजिए अति भी? अति होने की संभावना, अति करने का अधिकार तो बना रहना चाहिए।
अजितकुमार : आप ठीक कहते हैं और शायद उसी अति में से ही, जो संतुलित है, उसकी पहचान भी उभरती है। साहित्य की प्रक्रिया यही है कि हम उस अति का निषेध कर, जो स्वस्थ है और संतुलित है, उसको पहचानें। इससे जुड़ा एक और प्रश्न मेरे मन में उठ रहा है... आप देश-विदेश में घूमे हैं, रहे हैं। आपने देश-विदेश का साहित्य पढ़ा है, जाना है। उसके संदर्भ में, भारतीय साहित्य जो आज लिखा जा रहा है हमारी भाषाओं में, उसकी रुचि-प्रकृति, उसके स्तर के संबंध में आपकी क्या धारणा है?
अज्ञेय : दो जवाब इसके होते हैं। एक तो आप आत्यंतिक रूप से पूछें कि वह अच्छा, बहुत अच्छा या बहुत प्रभावशाली है या नहीं। तो मैं कहूँगा नहीं। अगर आप यह पूछें कि दूसरों की तुलना में कैसा है तो मैं कहूँगा कि लगभग वैसा ही है। और भी सभी देशों में बहुत कुछ रद्दी लिखा जा रहा है और अच्छे चिरस्मरणीय साहित्यकार इने-गिने ही प्रकट हुए हैं संसार की किसी भी भाषा में। यहाँ भी स्थिति उससे बहुत बुरी तो नहीं है तो कुछ संतोष की बात भी नहीं है। अच्छा, और अच्छा मिलना चाहिए लेकिन है नहीं इस समय।
अजितकुमार : मोटे तौर से मैं जिन तीन-चार क्षेत्रों में आपके लेखन को या सामान्य रूप से भारतीय लेखन को बाँटना चाहूँगा - कविता, कथा और सोच या चिंतन। उनमें से - हमारे भारतीय साहित्य का कौन सा क्षेत्र आपको अधिक सजीव या स्पंदनशील लगता है और उल्लेखनीय है। अगर हम इस तरह का अंतर कर सकें क्योंकि ये तीन सरोकार मुझे प्रमुख मालूम होते हैं, अपने इधर के बीस-तीस वर्ष के भारतीय लेखन के।
अज्ञेय : सबसे पहले तो काव्य और उसके बाद कहानी और उसके बाद अगर क्रम ही लगाना हो तो क्रम में और भी चीजें रखी जा सकती हैं लेकिन उल्लेखनीय या स्वतंत्र रूप से उल्लेखनीय... बहुत कुछ है, ऐसा नहीं जान पड़ता। चिंतन के क्षेत्र में नया कम है। नाटक के क्षेत्र में कुछ नई बेचैनी जरूर है लेकिन अभी उसकी उपलब्धियाँ बहुत बड़ी हैं, ऐसा नहीं कह सकता।
अजितकुमार : बस बिलकुल अंतिम प्रश्न। आज के समय, भारतीय लेखन के सामने सबसे बड़ी चुनौती इस अर्थ में नहीं कि कोई मुकाबला करना है लेकिन सबसे बड़ा जो उसका सरोकार हो सकता है या जो चीज उसको उद्वेलित कर सके, वह क्या है, हमारे देश में या विश्व में?
अज्ञेय : कर सके, यह नहीं। अगर... क्या चीज है जिसको...
अजितकुमार : जो करती है --
अज्ञेय : जो चुनौती वहाँ पर और जिसे उसको पहचानना चाहिए वह यह है कि उसके पूरे समाज या उसकी संस्कृति ने मानव को क्या दिया है जिसका कि आज मानव के लिए मूल्य हो सकता है, आज भी हो सकता है, इसको देखना।
अजितकुमार : और आप यह समझते हैं कि कुछ हमारे लेखक ऐसा देख सकने में समर्थ हैं या रहे हैं!
अज्ञेय : सबसे बड़ी चुनौती यह है। बस इतना कह देना काफी है।