समकालीनों से भिन्न (गोविंद प्रसाद) / नागार्जुन
नागार्जुन के काव्य की परख के क्रम में यह प्रश्न मेरे मन में निरंतर उठता रहा है कि मौन-महामौन के सम्मोहन में ‘बाबा’ क्यों नहीं फंसे? वे संस्कृत की परंपरा से आये थे। उन्हांेने संस्कृत में विधिवत काव्य भी रचा। बौद्ध भिक्खुओं वाला जीवन भी बिताया। इन दोनों परंपराओं में ‘मौन’ की महिमा और महात्म्य भी कुछ कम नहीं।... कुछ सोचकर ही बाबा नागार्जुन इस मौन की तरफ़ नहीं गये होंगे, मौन की डगर पर उनके चरण नहीं बढ़े। शायद स्वतंत्राता के बाद भारत का अभावग्रस्त समाज जिन विषमता और विडंबना भरी स्थितियों में संघर्ष भरे दौर से गुज़र रहा था, उसकी सही नब्ज़ पर हाथ रखने के लिए मौन के आवरण से निकलना ही जनता के कवि के लिए अपने सही दायित्व का निर्वाह लगा होगा। ऐसी विषम परिस्थितियों में ‘मौन’ ‘यथास्थितिवाद’ की देह पर एक अतिरिक्त आभूषण जैसा होता; अभिजात और जड़ सौंदर्य अभिरुचि की जड़ों को पानी देने वाला, पुष्ट करने वाला आभूषण। अज्ञेय इस मौन के, महामौन के चक्कर में क्यों फंसे, आखि़र वह कौन सा सम्मोहन था जिसकी छाया से वे आजीवन घिरे रहे? अब सोचने पर लगता है इस संदर्भ में नागार्जुन का रवैया कविता के प्रति ज़्यादा आधुनिक है। यानी आधुनिकता के प्रति उनकी समझ ज़्यादा पोढ़ी है। ‘रूप’ को संवारा उन्होंने अंतर्वस्तु से, ‘वस्तु’ की नवीनता से, तात्कालिक एवं सामयिक संदर्भों से। दोहे को ही लीजिए। एक तो दोहा कहते ही हिंदी साहित्य का मध्य काल आंखों के सामने घूमने लगता है। फिर, दोहे में नैतिकता और नीतिपरकता को परिभाषित करने का उद्यम ही प्रायः दिखायी पड़ता है। कबीर जैसों को अपवाद स्वरूप छोड़ दें तो। अस्तु। नागार्जुन दोहे के फ़ार्म को अपनाते हैं और वह भी इस आधुनिक और नयी कविता के दौर में जहां लोग गीत तक को तिलांजलि दे चुके हैं। छंद की बड़ियां पकाना भूल चुके हैं। मुक्त छंद भी बस कहने भर को, नाम मात्रा को ही रह गया है। नज़र केवल ‘रूप’ पर ही अटक कर रह गयी है। यों कहने को ‘हम निहारते रूप’ कह लो, बेशक! नागार्जुन रूप के लिए रूप का चुनाव नहीं करते। (याद कीजिए उनकी पंक्ति: ‘वस्तु है भूसा, रूप है चत्मकार’।) नैतिकता का पाठ पढ़ाने और नीति सिखाने के लिए नहीं बल्कि तत्कालीन राजनीति अर्थात् शासन की बंदूक के सामने ‘कंकालों की हूक’μजो अंततः ‘कोकिला की कूक’ की शक्ति के रूप में बदल जाती हैμसंगठित जन-शक्ति को रेखांकित करने के लिए दोहे जैसे ‘एग्जॉस्ट’ हो चुके प्राचीन फार्म में नयी अंतर्वस्तु भर कविता में नये प्राण, नया स्पंदन भर देते हैं और जन में नयी आस्था, नयी ऊर्जा और नया संचार भर देते हैं। फ़िलहाल इन पांच दोहों में से पहला और आखि़री दोहा तो हम पढ़ें:
खड़ी हो गयी चांप कर, कंकालों की हूक। नभ में विपुल विराट-सी, शासन की बंदूक। जली ठूंठ पर बैठकर, गयी कोकिला कूक। बाल न बाबा कर सकी, शासन की बंदूक। संघर्षरत सौंदर्य का, जनता के दुर्द्धर्ष सौंदर्य का कितना अनुपम और सजीव चित्राण है और वह भी मात्रा दो पंक्तियों वाले रूप-विधान में। रूप-विधान की सामर्थ्य की बात करें या अंतर्वस्तु में समायी गहरी समझ के सौंदर्य विधान की, ‘या फिर रूप-वस्तु की उस पोढ़ी समझ की जहां इन दोनों के बारे में फ़िलहाल यही कहा जा सकता है, ‘कहियत भिन्न न भिन्न’। नागार्जुन का सौंदर्यबोध उन ‘फटी बिवाइयों वाले खुरदरे पैरों’ में है जो ‘गुट्ठल घट्ठों वाले कुलिश-कठोर पैर’ हैं। अपने पैरों से तो सब चलते हैं लेकिन नागार्जुन की सौंदर्यदृष्टि इसमें है कि ये पैर गुटठल.... फटी बिवाइयों वाले पैर- वामन जिसने, तीन पगों में तीनो लोकों को नाप लिया थाμधरती का अनहद फासला नाप रहे हैं। मिथक को कैसा आधुनिक और नितांत श्रमजीवी संस्कृति की पक्षधरता से जोड़ दिया हैμ वामन के तीन पग... तीन लोक.... और रिक्शा के तीन पहिये! यह हुआ मिथक का सृजनात्मक और अद्यतन उपयोग। वामन को भी मात करने वाले हैं ये ‘खुरदरे पैर’: एक नहीं, दो नहीं, तीन-तीन चक्र कर रहे थे मात, त्रिविक्रम वामन के पुराने पैरों को रिक्शा खींचने वाले का यह चित्रा नया नहीं है बल्कि इतना देखा-भाला है और हमारी आंखें इसे देखने की इतनी अभ्यस्त हो चली हैं कि शायद हमारे लिए अब इसका कोई अर्थ नहीं रह गया। कितने संवेदनहीन और कितने अनात्मीय हो गये हैं हम। शायद इसीलिए हमें और हमारी आंखों को वहां कोई ‘सौंदर्य’ दिखायी नहीं पड़ता। लेकिन बाबा की निगाहμऐसी ही स्थितियों, ऐसे ही चित्रों और ऐसी ही जगहों में सौंदर्य तलाश कर लेती हैं सामान्यतः जहां दूर-दूर तक दूसरों को वह दिखायी नहीं देता है। बाबा को सौंदर्य दिखायी पड़ता है उन ‘फटी बिवाइयों वाले खुरदरे पैरों’ में जो ‘दूधिया निगाहों में खुब गये’। ‘दूधिया निगाहों’ में निगाहों का वर्ण विशेषण देखिये-दूधिया। कितनी शुचिता और आत्मीयता का बोध जगाता है। फिर ‘खुब गये’ में ‘खुबना’ क्रिया का चुनाव देखिये। भाषा का दम भरने वालों के पसीने छूट जायंेगे। और फिर खुबना भी किसमें, दूधिया निगाहों में। ‘खुब गये’ से कविता का आरंभ होता है। अर्थात्, ‘खुब गये’ थे ‘दूधिया निगाहों में’ जो ‘फटी बिवाइयोंवाले खुरदरे पैर’, उनकी पीड़ा कवि को इस क़दर मथती रही कि कविता के अंतिम बंध का आरंभ इस पंक्ति से होता है ‘देर तक टकराये’। कविता का आखिरी बंध यों है: देर तक टकराये उस दिन इन आंखों से वे पैर भूल नहीं पाऊंगा फटी बिवाइयां खुब गयीं दूधिया निगाहों में धंस गयी कुसुम कोमल मन में
इन पांच पंक्तियों में आयी चार क्रियाएंμटकराना, भूलना, खुबना और धंसना-इस कविता की ‘वस्तु’ और संवेदना को धनीभूत करने में कितनी बड़ी भूमिका निभाती हैं। और फिर यह भी ध्यान देने योग्य है कि अंतिम तीनों पंक्तियों का आरंभ ही इन तीनों क्रिया रूपों (‘भूला नहीं’, ‘खुब गयी’ व ‘धंस गयी’) से होता हैμ इन्हंे पंक्तियों के आरंभ में रखने का अपना एक अलग अर्थ है, महत्व है। ख़ैर, कोई सौंदर्यवादी होता तो ‘दूर तक टकराये / उस दिन इन आंखों से वे पैर’ पंक्ति में ‘उस दिन’ को बहुत संभव है ‘उस क्षण’ कहकर उस पीड़ा को ही क्षणिक बना देता; जबकि नागार्जुन ‘उस दिन’ से भी आगे जाकर ‘भूल नहीं पाऊंगा’ कहकर उस परायी पीड़ा को कितना अपना बना लेते हैं। साथ ही इतनी सघन और असहनीय भी कि उन्हें (खुरदरे पैर) ‘भूल नहीं’ पाऊंगा कहकर उस पीड़ा के अपनाव का बोध भी अपने भीतर करते हैं। यही है वह सौंदर्यबोध जो परायी पीर और नैतिकता में नहाकर कितना व्यापक और कितना अर्थवान-सारवान और कितना मार्मिक और कितना कुछ... क्या-क्या होता जाता है। अज्ञेय को ‘निजता की सुरक्षा का कवि’ कहा गया है (संदर्भ देखें, ‘आजकल’ पत्रिका में डॉविश्वनाथ त्रिपाठी का लेख)। मुक्तिबोध की कविता को ‘असुरक्षित जीवन की कविता’ μ( संदर्भः रामविलास शर्मा का लेख: नयी कविता और अस्तित्ववादः पृ. 152)। - के रूप में देखा गया है और शमशेर को तो ‘कवियों का कवि’ कह कर जनसंघर्ष से विमुखता की सांकेतिक घोषणा का पूर्वाभास दे दिया गया था। तो अब बचे केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन और नागार्जुन। तो क्या इन ‘शेषों’ को और इनमें भी नागार्जुन को निजता की सुरक्षा के सम्मुख जनता की सुरक्षा का कवि कहा जाना चाहिए। उन्हें जन-संघर्ष के लिए अपने काव्य की अलख जगाने वाले ऐसे कवि के रूप में देखा जाना चाहिए जहां संघर्ष ही जन का, जनगण का सौंदर्य बनकर अंततः जीवन के सौंदर्य का पर्याय बन जाता है। यही है वह सौंदर्य जो जन-जन में ऊर्जा भर जाता है, ‘प्रतिहिंसा ही स्थायीभाव है मेरे कवि का’ का अर्थ-मर्म वस्तुतः कवि के उद्गाता रूप में, कविता की इस अंतिम पंक्ति में आकर उद्घाटित होता है, ‘जन-जन में जो ऊर्जा भर दे, मैं उद्गाता हूं उस रवि का।’ रससिद्ध हों न हों वे छंदसिद्ध अवश्य हैं और व्यंग्यसिद्ध भी। ... और तो और वाणी विदग्ध भी। कविता में स्वरसिद्ध होना इस सब के अलावा और क्या होता है।¹ मो.: 09999428212