समकालीन कविता का समाजशास्त्र / रवि रंजन

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

“कविता आदमी के भीतर से निकली एक गहरी पुकार है. उसी से उपासना पद्धतियाँ निकलीं, भजन और धर्मों के तत्त्व भी. कवि ने प्रकृति की लीलाओं का सामना किया और प्राम्भिक युगों में अपने व्यवसाय की सुरक्षा के लिए खुद को पुरोहित कहा. ठीक इसी तरह – आज का सामाजिक कवि भी – पुरोहितों की प्राचीनतम व्यवस्था का सदस्य है. पुराने ज़माने में उसने अन्धकार से संधियां की थीं – अब उसे प्रकाश की व्याख्या करनी होगी." ---पाब्लो नेरुदा.

किसी कविता की समकालीनता को जाँचने-परखने का एक निकष यह हो सकता है कि इस बात की पड़ताल की जाए कि कवि और उसकी कविता अपने पाठकों को यह बोध कराने में समर्थ हैं या नहीं कि वे कैसे माहौल में जी रहे हैं। जयशंकर प्रसाद ने कहीं लिखा है कि समझदारी आने पर यौवन चला जाता है। सौभाग्यवश समकालीन कविता के क्षेत्र में सक्रिय अनेक युवा कवियों एवं कवयित्रियों में ज्यादातर इस सीमा तक समझदार नहीं हो गए हैं कि वे कविता में संवेदनहीनता की हद तक नपे-तुले वक्तव्य देने में माहिर हो जाएँ। दूसरे शब्दों में कहें तो हमारे समय व समाज में बहुत कुछ ऊलजलूल होने के बावजूद उन्होंने सोचना फिजूल नहीं मान लिया है। इसलिए वे अपने समय के अनेकानेक अन्तर्विरोधों से रचनात्मक मुठभेड़ के लिए तत्पर हैं।

समकालीन कवियों की इस रचनात्मक तत्परता में जो चीज सबसे ज्यादा मानीखेज है, वह है- निर्मम आलोचना, जो प्रवृत्ति की दृष्टि से रेडिकल या मूलगामी है। स्पष्ट ही ‘मूलगामी’ का अर्थ होता है चीजों की जड़ तक जाना और चूँकि मनुष्य के लिए मूल मनुष्य ही है, इसलिए हमारे समय के तमाम सजग कवि मनुष्य की मुक्ति को दृष्टिपथ में रखते हुए रचनात्मक भावबोध के धरातल पर सारे संसार एवं अपने समाज की आलोचना करने के साथ-साथ आवश्यकतानुसार आत्मालोचन भी कर रहे हैं :

‘और मुक्ति के लिए छटपटाता मेरा मन
वामपंथी राजनीति के तीन शिविरों में भटकता है
और हर शिविर से
मुक्ति का एक दस्तावेज लेकर लौटता है
और अब-
शिविर दर शिविर भटकने के बाद
कुछ ऐसा हो गया है
कि मुझसे मेरा बहुत कुछ खो गया है’

- कुमार विकल

यहाँ स्मरणीय है कि दूसरों की आलोचना करने में एक तरह की शहादत का आकर्षण हुआ करता है, जबकि अपने समाज व समुदाय तथा अपनी आलोचना करना कई बार दूसरों की आलोचना करने से ज्यादा मुश्किल काम होता है। जब यह काम कविता की बुनियादी रचनात्मक शर्त पर करना हो, तो, मुश्किल और बढ़ जाती है।

इस दृष्टि से हमारे समय में रची जा रही कविताओं में निहित सांस्कृतिक चेतना की पड़ताल करने पर स्पष्ट होता है कि पुरानी पीढ़ी के बरअक्स नयी पीढ़ी के कवियों व कवयित्रियों की काव्यानुभूति की संस्कृति में यथेष्ट परिवर्तन हुआ है। जब यहाँ आज के कवियों की काव्यानुभूति की संस्कृति में परिवर्तन की बात कही जा रही है तो इसके अन्तर्गत रचनाकारों के यथार्थबोध, उनका अनुभवलोक तथा कविता की वैधानिक एवं भाषिक संरचना में आए परिवर्तन जैसी कई बातें शामिल हैं। हमारे समय के कई रचनाकार अपनी ही बिरादरी के उन उखड़े हुए लोगों की खबर ले रहे हैं जो इतिहास से फरार होकर देशकाल निरपेक्ष सुन्दर(?) कविताओं का उत्पादन करते रहे हैं। कात्यायनी ने ‘दिल्ली पर एक कविता’ में लिखा है :

दिल्ली पर एक कविता लिखी
दिल्ली में रहते हुए
एक ने,
दूसरे ने दिल्ली बिना देखे ही,
कौन था असंभव, दुर्दान्त
कवि
हमारे समय का
एक महान जादुई यथार्थवादी ?

इस सत्य का दूसरा पहलू केदारनाथ सिंह के काव्य संग्रह ‘उत्तर-कबीर तथा अन्य कविताएँ ’ की कई कविताओं से गुजरते हुए उजागर होता है जिनमें, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह के शब्दों में, “गाँव-कस्बे से आए शहरी मध्यवर्ग के पाठक अपने को नये सिरे से पढ़ सकते हैं-यथार्थ के बारे में अपना ही बदला-बदला-सा रूख समझने के लिए। वे अंतर्बाह्र की रग-रग भली भाँति देख-परख भी सकते हैं। विस्थापन, पुनर्वास और प्रवास ने इस शहराती मध्यवर्ग को अपने ही लोगों से कितना बेगाना बना दिया है।……आदिम अरण्य जीवन और आसन्नभूत के ठेठ देहाती ग्राम्य जीवन की घुली-मिली एकाकार स्मृतियाँ केदारनाथ सिंह की कविताओं में नया आकार धारण कर रही हैं। इन स्मृतियों से हहराकर बहते जीवन-प्रपात के प्रतिलोम के रूप में आधुनिक महानगर के कृत्रिम जटिल संसार की द्वंद्वात्मक चित्रमयता जहाँ-जहाँ सामाजिक संदर्भांे के साहचर्य के साथ आती है, वहाँ उनकी कविताओं का प्रभाव बड़ा गहरा होता है।” (आधुनिक हिन्दी साहित्य : विवाद और विवेचना, पृ. 265) गाँव आने पर कविता में शहरी मध्यवर्ग के आत्मपरायापन को आत्मालोचन की शैली में जिस प्रकार अभिव्यक्ति दी गई है, वह काव्यानुभूति की ईमानदारी एवं प्रामाणिकता का जीवंत दस्तावेज है :

अब तो आ गया हूँ
पर क्या करूँ मैं
एक बूढ़े पक्षी की तरह लौट-लौट कर
मैं क्यों चला आता हूँ बार-बार?
क्या करूँ मैं क्या करूँ कि लगे
कि मैं इन्हीं में से हूँ
इन्हीं का हूँ
कि यही हैं मेरे लोग
जिनका मैं दम भरता हूँ कविता में
और यही तो मुझे कभी नहीं पढ़ेंगे
छू लूँ किसी को?
लिपट जाऊँ किसी से?
मिलूँ पर किस तरह मिलूँ
कि बस मैं ही मिलूँ?
और दिल्ली न आये बीच में?

इस काव्यानुभूति की संस्कृति का एक अन्य सशक्त पहलू अरुण कमल की ‘उर्वर प्रदेश’ कविता में महसूस किया जा सकता है :

‘मैं जब लौटा तो देखा
पोटली में बँधे हुए बूँटों ने
फेंके हैं अंकुर।

दो दिनों बाद आज लौटा हूँ वापस
अजीब गंध है घर में
किताबों कपड़ों और निर्जन हवा की फेंटी हुई गंध

पड़ी है चारों ओर धुल की एक पर्त्त
और जकडा है जग में बासी जल

जीवन की कितनी यात्राएँ करता रहा यह निर्जन मकान
मेरे साथ
तट पर स्थिर, पर गतियों से भरा
सहता जल का समस्त कोलाहल ...
सूख गए हैं नीम के दातौन
और पोटली में बँधे हुए बूँटों ने फेंके हैं अंकुर
निर्जन घर में जीवन की जड़ों को
पोसते रहे हैं ये अंकुर

खोलता हूँ खिड़की
और चारों ओर से दौरती है हवा
मानों इसी इंतज़ार में खड़ी थी पल्लों से सट के
पूरे घर को जल भरी तसली-सा हिलाती
मुझसे बाहर मुझसे अनजान
जारी है जीवन की यात्रा अनवरत
बदल रहा है संसार

आज मैं लौटा हूँ अपने घर
दो दिनों बाद आज घूमती पृथ्वी के अक्ष पर
फैला है सामने निर्जन प्रांत का उर्वर प्रदेश
सामने है पोखर अपनी छाती पर
जलकुम्भियों का घना संसार भरे ।

यदि यह कविता किसी को अबूझ प्रतीत हो तो उसे पुन: कवि-आलोचक अरुण कमल के पास जाना चाहिए जिनका कहना है कि “कविता में कथित से अधिक महत्त्वपूर्ण होता है अभिप्रेत. एकतारे का बजता हुआ तांत यदि कथित है तो उसका कंपन अभिप्रेत या व्यंजित. कवि भी स्वर को पकड़ता है और पाठक को भी चाहिए कि वह उस स्वर को पकड़े. प्रत्येक भाव-दशा का अपना संगीत, अपनी लय, यानी अपना स्वर होता है. इस स्वर का अंकन, पुनर्लेपन तथा पुनर्रेखन – यही तो कविता का सम्पूर्ण चक्र है, कवि से पाठक तक. .... कविता हमें तब दुरूह मालूम पडती है जब हम उसकी स्वर-लिपि को ठीक-ठीक नहीं पढ़ पाते. कविता की स्वर लिपि ही उसका वास्तविक या आभ्यांतरिक पाठ है. ..कविता निर्बलों का बल है. कविता उसका पक्ष है जिसका कोई नहीं, जो सबसे कमजोर,सबसे असहाय है, जिस पर बाकी सबका बोझ है.” (गोलमेज, पृ. 213). कहना न होगा कि हमारे समय में तेज़ी से बदलते सामाजिक यथार्थ के मद्देनज़र आशा भरे अवसाद से लबरेज अरुण कमल की कविता ‘इस नए इलाके में’ उनकी ‘उर्वर प्रदेश’ के मुकाबले अद्यतन समकालीन प्रतीत होती है.

अरुण कमल कविता रचने के लिए ऐसी प्राविधि के इस्तेमाल को जरूरी मानते हैं जिससे अधिक से अधिक को कम से कम में कहा जा सके. उनकी एक कविता का शीर्षक उधार ले कर कहें तो वह ‘पुतली में संसार’ को समाए हुए हो. अपने एक अन्य वक्तव्य में वे कहते हैं कि ‘कविता सम्पूर्ण जीवन की कविता हो, ऐसा ही मैंने सोचा और चाहा. भाषा भी एक तरह की नहीं, सब तरह की हो – मेरे भिक्षा-पात्र में हर घर का अन्न हो.’ इसीलिए उन्होंने खरी बोली हिन्दी के कविता लिखते हुए भोजपुरी के अनेक शब्दों को ज्यों का त्यों उठाया. ‘उन मुहावरों को, उन स्वर-भंगिमाओं को, यहाँ तक कि साँस की भाप की आवाज़ को भी.’ यह बात उनकी कविता की अंतर्वस्तु एवं रूप, दोनों के सन्दर्भ में सच है. इतिहास-बोध से लैस एक सजग एवं संवेदनशील शब्दकर्मी के रूप में संसार की साहित्यिक-सांस्कृतिक विरासत के घुलावटी रसायन से अनुग्रहित उनके निजी स्वर की धार से समकालीन हिन्दी कविता समृद्ध हुई है  :

अपना क्या है इस जीवन में सब तो लिया उधार
सारा लोहा उन लोगों का अपनी केवल धार .

हमारे समय के रचनाकारों की काव्यानुभूति की संस्कृति में आए परिवर्तन का एक महत्त्वपूर्ण फलाफल हमें वहाँ दिखाई देता है जहाँ अपनी जड़ों की खोज में भाषिक संरचना की दृष्टि से तत्समप्रधान-सी हो गई हिन्दी कविता धीरे-धीरे लोकोन्मुख हो रही है। कविता की श्रेष्ठता के लिए यदि आज भी कोई अकबर इलाहाबादी के शब्दों में ‘अपना कहा वे आप समझें या खुदा समझे’ को ही अपना आदर्श मानता हो या विलियम ऑम्पसन कथित ‘सेवन टाइप्स ऑफ एम्बीग्युटी’ को बतौर कसौटी इस्तेमाल करने पर आमादा हो, तो, ऐसे महानुभावों को याद दिलाना जरुरी होगा कि कुछ रचनाकार भाषिक सुरूचि के नाम पर पाठक के साथ कई बार छल भी किया करते हैं। गौरतलब है कि हमारे समय की वास्तविकता पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा नृशंस, जटिल और नाटकीय है, जिसको बेनकाब करने में समर्थ काव्यभाषा का पारदर्शी होना निहायत जरुरी है। प्रसंगात् राजेश जोशी ने अपनी एक कविता में लिखा है :

निश्छल और नंगी ऐसी हो भाषा
लुकाया न जा सके जिसके भीतर कुछ भी
अपना दर्प, न दूसरों का छल
अपनी दुर्बलता, न दुश्मन का बल
छिपे नहीं जिसमें चरित्र की कालिख
छिपे नहीं आत्मा का खोट !

वाल्टर वेन्यामिन ने कवि कर्म को अपने समय की सक्रिय बराबरी में लाने हेतु जिस ‘तात्कालिक भाषा’ के रचनात्मक इस्तेमाल की वकालत की है उसे उनके ही शब्दों में ‘किताबों की सार्वभौमिक शक्ल के बजाय सक्रिय समाजों में अपने प्रभावों के अनुकूल छद्म-रहित रूपाकारों में पालना-पोसना होता है- पर्चों में, ब्रााश्योर में, छोटे-छोटे अखबारी लेखों में और नारों की तख्तियों में।’ बेन्यामिन के अनुसार ऐसा करना इसलिए जरूरी है क्योंकि ‘सच्ची साहित्यिक गतिविधियाँ कोई साहित्यिक ढाँचे से प्रेरणा ग्रहण नहीं कर सकतीं। वह तो उसकी जीवन- रहित अभिव्यक्ति मात्र हैं। साहित्य का महत्त्वपूर्ण प्रभाव, सिर्फ लेखन और कर्म -कर्म और लेखन की नियमित अदला-बदली से ही संभव है।’ स्मरणीय है कि हिन्दी में बहुत पहले संभवत: रामचन्द्र शुक्ल पर मोनोग्राफ तैयार करने के क्रम में मलयज ने अपनी मनोवांछित कविता की तस्वीर पेश करते हुए लिखा था : “भाषा के भीतर जो अनुभूति है, भाषा के बाहर वही कर्म है। कविता इन दोनों की संधि पर है। कविता सच्ची बनती है भाषा के भीतर की अनुभूति से और बड़ी बनती है भाषा के बाहर के कर्म से। बौने जीवन से बड़ी कविता नहीं पैदा होती। पर जीवन बौना कर्म की असिद्धि से नहीं, कर्म-क्षेत्र की विविधता का अनुसंधान न करने से बनता है।” तात्पर्य यह कि कवि के जीवनानुभवों का दायरा जितना बड़ा होगा, उसकी काव्यानुभूति की संस्कृति में भी उतनी ही व्यापकता और गहराई होगी। आज यदि तेलुगुभाषी समुदाय का लगभग हर सदस्य कवि ज्वालामुखी, निखिलेश्वर एवं वरवर राव के शब्द और कर्म से बहुत दूर तक वाकिफ है तो स्पष्ट ही इसकी एक बड़ी वजह वेन्यामिन द्वारा कथित ‘लेखन और कर्म - कर्म और लेखन की नियमित अदला-बदली है।’ जबकि हिन्दी मेंे कुछेक अपवादों को छोड़कर शब्द और कर्म का एकमात्र मतलब शब्दकर्म है। यहाँ ‘अतिक्रमण’ भी शब्दकर्म की परिधि में ही घटित होता है। परिणामत: हिन्दी कविता की मुख्यधारा के कवियों की काव्यानुभूति की संस्कृति में हाल के दशकों में आया अपेक्षित बदलाव बहुत हद तक सच्चा होने के बावजूद कोई दूरगामी प्रभाव पैदा नहीं कर सका है। आज यदि हमारे युवा छात्र मित्रों के बीच दलित साहित्य व स्त्रीवादी साहित्य ज्यादा पसंद किया जा रहा है तो कहीं न कहीं इसकी एक वजह इनके रचनाकारों की सामाजिक सक्रियता भी है। स्त्री रचनाकारों के ‘ऐक्टिविस्ट’ होने की जरूरत पर बल देते हुए कात्यायनी ने कहा है : “मेरी पक्की धारणा है कि स्त्री-लेखन में भी स्त्री-जीवन की वास्तविक सच्चाईयाँ और चुनौतियाँ तभी आ सकती हैं जब हम अपने सामाजिक सरोकारों के हिसाब से किसी न किसी रूप में ‘ऐक्टिविस्ट’ हों और साथ ही घर-गृहस्थी से लेकर सड़क-अॉफिस-दफ्तर तक, अपने अधिकारों के प्रति जागरूक और अपनी मान्यताओं के प्रति ईमानदार औरत के रूप में लगातार ‘एसर्ट’ करने का - अपनी उपस्थिति दर्ज कराने का, जोखिम उठाती रहती हों और उसका खामियाजा भुगतती रहती हों। यह हमारे जीवन के हर जाग्रत क्षण में जारी रहने वाला संघर्ष हो, जो अविराम है, और जिससे एक स्त्री यदि थकती है तो मुक्ति के अपने स्वप्नों को ‘विजन’ को और प्रोजेक्ट को खो देती है।…..मैं जोर देकर कहना चाहूँगी कि स्त्री-लेखक के ‘ऐक्टिविस्ट’ होने की दरकार है, तभी वह बदलते उत्पादन संबंधों, सामाजिक संबंधों और आत्मिक जगत का साक्षात्कार कर सकेगी, वर्तमान की कोख में छिपे भविष्य की भी पहचान कर सकेगी, और ऊपरी सच्चाई की परतों को भेदकर सारभूत यथार्थ तक पहुँच सकेगी।” (पहल-67)

कहना न होगा कि व्यापक और गहरी सामाजिक-ऐतिहासिक चिंता से उत्पन्न तथा प्रखर राजनैतिक चेतना से लैस समकालीन दलित व स्त्री-कविता में भारतीय समाज की मूलगामी आलोचना-दृष्टि की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति रेखांकन के योग्य है। सामाजिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों में सक्रिय सुविधा में जीते हुए दुविधा की भाषा बोलने वाले महारथियों के विभिन्न असुविधाजनक सवालों पर काष्ठमौन की मुद्रा के मद्देनजर इन ‘ऐक्टिविस्ट’ कवियों की बौखलाहट स्वाभाविक है, जिसके चलते इनकी कविताओं में प्रश्नाकुलता के साथ ही विद्रोह की आकांक्षा का सार्थक मूर्तन हुआ है :

1

यज्ञों में पशुओं की बलि चढ़ाना
किस संस्कृति का प्रतीक है
मैं नहीं जानता
शायद आप जानते हों !

चूहड़े या डोम की आत्मा
ब्राहृ का अंश क्यों नहीं है
मैं नहीं जानता शायद आप जानते हों

- ओमप्रकाश वाल्मीकि

2

ऐसा किया जाए कि……
एक साजिश रची जाय
बारूदी सुरंगे बिछाकर
उड़ा दी जाय
चुप्पी की दुनिया।

- कात्यायनी

हिन्दी कविता के ‘उर्वर प्रदेश’ में पैदा हुए ये गिनचुने अंकुर अकेले भाड़ फोड़ सकेंगे, इसको लेकर कोई भविष्यवाणी तत्काल असंभव है।

हिन्दी कविता के क्षेत्र में एक्टिविस्ट रचनाकारों की गुणात्मक अनिवार्यता के बावजूद सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्रांतिकारी, दलित व स्त्री-मुक्ति आंदोलनों की कोख से जो बड़ी संख्या में कविताएँ जन्म ले रही हैं, उनमें संख्या या परिमाण की दृष्टि से कितनी कविताओं में रचनात्मकता है और कितनी प्रचारात्मक हैं। जार्ज लुकाच ने माक्र्सवादी शब्दकर्मियों को सचेत करते हुए लिखा है कि- ‘मार्क्सवाद चिंतन का हिमालय है, लेकिन हिमालय के शिखर पर खड़े किसी खरगोश को यह न समझना चाहिए कि वह घाटी के हाथी से ऊँचा है।’ यह बात अन्य विचारधाराओं व आन्दोलनों के संदर्भ में भी उसी तरह सच है जिस हद तक माक्र्सवाद के संदर्भ में। इसके साथ ही अतिरिक्त राजनैतिक चेतना से लैस होने का दावा करने वाले लेखकों को यू.आर.अनंतमूर्ति के एक वक्तव्य पर भी गौर करना चाहिए : “”

रोमिला थापर का मानना है कि ‘संस्कृति सामाजिक प्रक्रिया में रचित और अर्जित प्रतीकों की एक व्यवस्था है और इस व्यवस्था की निरंतरता से परंपरा का निर्माण होता है।’ इसी मान्यता से जुड़ी उनकी एक और स्थापना रेखांकनीय है कि ‘परंपरा विशुद्ध औेर मूल रूप में हमारे सामने कतई नहीं आती।’ वह विभिन्न व्याख्याओं से प्रभावित होती हुई अतीत से वर्तमान में आती है।’ इसलिए बहुत जरूरी है कि कलाकृतियों में अभिव्यक्त परंपरागत सांस्कृतिक मूल्यों पर ऐतिहासिक संदर्भ में विचार किया जाए। चूँकि किसी जाति की संस्कृति का गहरा रिश्ता उसमें सौन्दर्यबोध के विकसित होने की मौलिक चेष्टा से होता है, अत: समकालीन हिन्दी कविता के संदर्भ में काव्यानुभूति की संस्कृति के बदलते आयामों की निशानदेही करने के दरम्यान यह भी देखना जरूरी है कि सौन्दर्यबोध के धरातल पर उसमें कहाँ और कि रुप में रचनात्मक प्रतिरोध के संभावनाशील व सार्थक बिन्दु मौजूद हैं और कहाँ इतिहास से फरार नकली क्रांतिकारिता व यथास्थितिवाद की अभिव्यक्ति हुई है। इस फर्क को बच्चों के बारे में रचित कुछ कविताओं के माध्यम से भलीभाँति समझा जा सकता है :

‘बच्चों के बारे में बनायी गयी ढेर सारी योजनाएँ
ढेर सारी कविताएँ लिखी गयीं बच्चों के बारे में
बच्चों के लिए खोले गये ढेर सारे स्कूल
ढेर सारी किताबें बाँटी गयी बच्चों के बारे में

बच्चे बड़े हुए
जहाँ थे
वहाँ से उठ खड़े हुए बच्चे
बच्चों में से कुछ बच्चे
हुए बनिया, हाकिम और दलाल
हुए मालामाल और खुशहाल

बाकी बच्चों ने
सड़क पर कंकड कूटा
दुकानों में प्यालियाँ धोयीं
साफ किया टट्टी घर
खाये तमाचे
बाजार में बिके कौड़ियों के मोल
गटर में गिर पड़े

बच्चों में से कुछ बच्चों ने
आगे चलकर फिर बनायीं योजनाएँ
बच्चों के बारे में
कविताएँ लिखीं
स्कूल खोले
किताबें बाँटी
बच्चों के लिए।

- गोरख पाण्डेय

यह तथ्य है कि नयी महाजनी सभ्यता के इस दौर में वित्तीय पूँजीवाद, बाजारवाद एवं भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया के तहत बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा विभिन्न प्रकार की उपभोक्ता सामग्री का आविष्कार कर तथा उन्हें लोगों की आवश्यकता का जनक बनाकर आज जो अंधाधुंध मुनाफा कमाया जा रहा है उन पर किसी न किसी रूप में विकासशील व अविकसित देशों के मासूम बच्चों के नन्हें-नाजुक हाथों के खूनी धब्बे अवश्य मौजूद हैं। गोरख की इस कविता में बच्चों के अतीत और वर्तमान की चिंता के साथ-साथ उनकी भविष्योन्मुखता को लेकर भी आकांक्षा की अभिव्यक्ति हुई है, जो वस्तुत: कवि की ऐतिहासिक चेतना में उसकी रचनात्मक आकांक्षा के प्रवेश का स्वाभाविक परिणाम है। हालांकि कवि पूँजीवादी व्यवस्था की क्रूरता को वर्तमान के क्षण में पकड़ता ह,ै पर बच्चों के माध्यम से मनुष्यमात्र के अतीत, वर्तमान की प्रतीति और भविष्य के बारे में उसकी रचनात्मक आकांक्षा कविता को वयस्कता प्रदान करती है। चूँकि गोरख के लिए शब्दकर्म कभी ‘पार्ट टाइम वर्क ’ नहीं रहा, बल्कि कविता की उनके जीवन में हमेशा केन्द्रीय स्थिति रही है, इसलिए अभिव्यक्ति की धार यहाँ अत्यन्त तीक्ष्ण है, जो बहुत दूर तक मार करती है। कवि-आलोचक मलयज से शब्द उधार लेकर कहें तो गोरख पाण्डेय के लिए कविता सीधा-सादा कर्म नहीं, बल्कि कवि ने जीवन में कर्म की जो दिशाएँ खोजी हैं, उनका वह फलक है।

मौजूदा व्यवस्था में बाल-श्रम के मुद्दे को अपने खास सवालिया अंदाज में उठाते हुए राजेश जोशी लिखते हैं :

‘बच्चे काम पर जा रहे हैं
हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह
भयानक है इसे विवरण की तरह लिखा जाना
लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह
काम पर क्यों जा रहें हैं बच्चे ?’

गौरतलब है कि रचना में हर दम शोर को संगीत की तरह या सवाल को ब्यौरे की तरह लिखने से सामाजिक कलह-कोलाहल और सवाल की पेंचीदगी की मूलगामी आलोचना संभव नहीं हो पाती। साथ ही यह भी देखा गया है कि अपने समय की किसी महत्वपूर्ण समस्या की तह में गये बिना जब कवि उसका जल्दबाजी में कोई बना-बनाया हल पेश करने की ठान लेता है तो इसके दुष्परिणामस्वरूप सरसरी निगाह में बड़ी क्रांतिकारी-सी प्रतीत होनेवाली काव्यपंक्तियाँ कवि की तमाम सदिच्छा के बावजूद अन्तत: बेजान साबित होती हैं-

बच्चे एक दिन यमलोक पर धावा बोलेंगे
और छुड़ा ले आयेंगे
सब पुरखों को
वापस पृथ्वी पर
और फिर आँखे फाड़े
विस्मय से सुनते रहेंगे
एक अनन्त कहानी
सदियों तक।

- अशोक वाजपेयी

बच्चों के बारे में सहज स्वाभाविक कविता रचनेवाली मानसिकता के निरंतर क्षीण होते जाने पर चिंता व्यक्त करते हुए मैनेजर पाण्डेय ने सही लिखा है कि- “आधुनिकतावादी और अस्तित्ववादी कविता की दुनिया में बच्चों के लिए कोई जगह नहीं थी। सतही जनवादी कविता में बच्चे कविता या क्रांति के उपकरण बन गए हैं। ऐसे लोगों को कौन समझाए कि बच्चे का सहज स्वाभाविक रूप और उसकी क्रीड़ा मानव-जीवन की सबसे बड़ी कविता है।” इस संदर्भ में उन्होंने ‘लहर’ के संपादक प्रकाश जैन की ‘अबोध तुतलाहट’ कविता को बतौर उदाहरण पेश किया है :

उससे बतियाते हुए
एक अबोध तुतलाहट
मेरे ओठों पर फिसलने लगती है
खो जाता है
मेरा जाना-समझा, शब्द
और उसका अर्थ
मैं रेशू हो जाता हूँ।

ग्राम्शी ने विस्तार से समझाया है कि कैसे सामाजिक यथार्थ का चित्रण करने वाले दो लेखकों में एक उसका प्रवक्ता होता है जबकि दूसरा कलाकार। अपने समय के यथार्थ से जीवन-द्रव्य प्राप्त कर कोई रचना किस प्रकार मनुष्य की संवेदनशीलता को ही नहीं, बल्कि विचारधाराओं की दुनिया को भी समृद्ध करती हुई अन्तत: हमारे भीतर ‘सहज न्याय का बोध’ जगाती है, इसे कात्यायनी की एक कविता से गुजरकर महसूस किया जा सकता है, जिसमें चित्रण के धरातल पर यथातथ्यता और मूल्य-निर्णय के धरातल पर प्रतिबद्धता विद्यमान है :

घनी घटायें उस दिन दुख की
छायी थीं भोले मुख पर
आँखों में आँसू तैर रहे थे।
बस्ता बिना उतारे
आकर खड़ा हो गया,
रोज की तरह झूला नहीं पकड़कर आँचल।
‘सजा मिली स्कूल में मुझे आज’औेर यह
कहते-कहते लुढ़क पड़े
आँखों से दो मोती गालों पर।
‘सजा मिली? की होगी तूने कोई गलती।’
‘नहीं शोर मैं नहीं
दूसरे मचा रहे थे
मैं तो चुप था
और सभी के साथ मुझे भी खड़ा कर दिया।’

बिना किसी गलती के
जीवन में कितना कुछ सहना पड़ता है कितनों को
अभी कहाँ यह उसने जाना
जानेगा भी धीरे-धीरे

सहज न्याय का बोध
अभी तक बना हुआ है
इसलिए आहत है,
दुख से भरा हुआ है।

स्मरणीय है कि नागार्जुन यदि बीसवीं शताब्दी के बड़े कवियों में एक हैं तो केवल ‘हरिजन गाथा’ तथा ‘भोजपुर’ पर लिखी क्रांतिकारी कविताओं के कारण ही नहीं, बल्कि ‘दन्तुरित मुस्कान’ सरीखी अनेक मनोहरी कविताओं के चलते भी वे बड़े कवि हैं।

साहित्य के समाजशास्त्रीय अध्ययन में रूचि लेने वाले अध्येताओं को बताने की जरूरत नहीं है कि समाज में परिवर्तन की व्यापक प्रक्रिया में रचनाकार की दोहरी भूमिका होती है। जहाँ एक ओर वह रचना के धरातल पर वृहत्तर समाज की आशाओं व आकांक्षाओं को शब्दबद्ध करते हुए सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया को तीव्र करता है, वहीं दूसरी ओर, वह अपने समय व समाज के अच्छे-बुरे अनुभवों को इतिहास-प्रवाह में अपनी रचनाओं के माध्यम से सुरक्षित रखने में मदद करता है। समकालीन कविता की विभिन्न धाराओं-अन्तर्धाराओं के मद्देनजर यदि विचारें तो समकालीन स्त्री-लेखन के माध्यम से भी ये दोनों काम बखूबी संपन्न हो रहे हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो हमारे समय की स्त्रीवादी कविताएँ सदियों से बरकरार पितृसतात्मक व्यवस्था के दमनचक्र में पिसती लगभग आधी आबादी के विद्रोह की आकांक्षा की अभिव्यक्ति हैं। अनामिका की ‘इच्छाएँ ’ कविता में स्त्री मुक्ति की आकांक्षा के कुछ नवीन सौन्दर्यबोधात्मक आयाम देखे जा सकते हैं :

‘इच्छाओं की लय भी होती है अलग-अलग
कुछ सितार के झाले-सी अठगुन में ही
कुछ विलंबित में उठती हैं
अचानक किसी सुर से

(सृष्टि के पहले आलाप की तरह)-

और रास्ते में पड़े जंगलों के एक-एक पेड़ से पता पूछती-सी
सीधा पहुँचती है ऊँचे दिंगत में
यों ही उड़े जाते पंछी-दल के
किसी एक पंछी के
सिहरे हुए एक रोयें तक’

-अनामिका


कहना न होगा कि परंपरा द्वारा पोषित व स्थापित व्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए बंधी हुई मुट्ठी के प्रति आत्यन्तिक आकर्षण कई बार आवेश व आवेग की मुद्रा के प्रति भावुक लगाव का आकर्षण होता है और यह अतिरिक्त भावुक लगाव वैचारिकता के बजाय प्राय: ऐसे वैचारिक छद्म एवं वागाडम्बर को जन्म देता है जिससे आदमियत की पहचान धूमिल होती है। अनामिका की कविताओं में परंपरा को लेकर एक संवेदनशील आलोचनात्मक रवैया दिखाई देता है। उनमें वह सच्ची व वयस्क वैचारिकता है जो परंपरा की खोजबीन कर उसी में से रचनात्मक प्रतिरोध के सौन्दर्यबोधात्मक बिन्दु ढंूढ़ती हुई पाठक के साथ किसी तात्कालिक प्रभाव के बजाय बोध का रिश्ता कायम करती है। इसीलिए उनकी कविता की प्रकृति उन स्त्रीवादी कविताओं से नितान्त भिन्न व विशिष्ट है जिनमें आतंक की हद तक यथार्थ का इस्तेमाल करते हुए पाठक को अभिभूत करने की चेष्टा की जाती है। ठेठ राजनीतिक शब्दावली व बड़बोलापन से खुद को जाने-अनजाने बचाती हुई उनकी कविताएँ कई बार अपनी जनपदीय संस्कृति से ऊर्जा प्राप्त कर पितृसत्ता के विरुद्ध संवेदनात्मक प्रतिरोध दर्ज करने के लिए उपमेय व उपमान तलाशती हैं। सामाजिक समस्याओं को निकट से देखने-दिखाने की जो रचनात्मक आतुरता उनमें है, वह विचारों की टकराहट से पैदा हुई है। एक अर्थ में उनकी कविता की रचना-प्रक्रिया गहरे संशय से अडिग विश्वास की तरफ काव्य-यात्रा की प्रक्रिया है। ‘एक पोस्टकार्ड अनंत को’ कविता में अनामिका ने लिखा है :

यह बालू तो मेरी आँखों में है
शायद उस तट का पता जानती है
जिस पर हम गले-मिले
मिल लेंगे कभी एक दिन ऐसे
जैसे कि दुविधा से मारे हुए मन में
मिलते हैं निश्चय-अनिश्चय।

इन पंक्तियों से गुजरते हुए अनायास याद आती है महाकवि जायसी की पद्मावती और उसकी हमजोली सखियाँ, जिनसे अपनी अनिश्चय भरी व्यथा बयान करती हुई वह कहती है कि पति के आज्ञानुसार मैं वहाँ जा रही हूँ जहाँ से फिर लौटकर मिलना शायद असंभव है :

मिलहु सखी हम तहवाँ जाहीं, जहाँ जाइ फिर आवन नाहीं।।

। । ।

हम तुम्ह एक मिले संग खेला। अंत बिछोउ आनि केइँ मेला।।

। । ।

कंत चलाई का करौं आएसु जाइ न मेंटि।
पुनि हम मिलहिं कि ना मिलहि लेहु सहेली भेंटि।।

स्त्री-जीवन की समस्याओं को अनामिका ने जहाँ अमूर्तन की शैली में देखा-दिखाया है वहाँ वह उनकी रचनात्मकता की अनिवार्य मांग है। कारण यह कि आज के इस दौर का यथार्थ मध्यकालीन समाजव्यवस्था के यथार्थ की अपेक्षा कई गुणा ज्यादा

क्रू र पर अमूर्त और उलझा हुआ है, जिसे दो टूक शैली में आर-पार देखने या बयान करने की हड़बड़ी से किसी भी रचना के अकारथ हो जाने का खतरा पैदा हो सकता है। ऐसे में उनकी कविताओं में आये तमाम शब्दों(बालू, तट…..) के निश्चित और ठोस अर्थ-संदर्भ बताने की कोशिश एक जोखिम-भरा काम है। विपिन कुमार अग्रवाल की ‘अमूर्तन के पक्ष में’ शीर्षक स्वतंत्र टिप्पणी से यदि विचार-सूत्र लेकर कहें, तो, ऐसी कविताओं में “हर वर्णन कुछ सत्य है कुछ संभावना। उसमें सत्य उतना ही है जो एक घटना विशेष में प्रत्यक्ष हो जाता, शेष संभावना है और उसके सत्यापन के लिए दूसरी उपयुक्त घटना की संरचना आवश्यक है। इस दृष्टि से वस्तु या अनुभव कोई एक निश्चित पारिभाषिक इकाई नहीं है वरन, संभावनाओं का पुंज है। कौन-सी संभावना रूपायित होगी यह इस पर निर्भर करेगा कि हम कैसे उसे देखना चाहते हैं।” कविता के बारे में कहा गया है कि वह कई बार मूर्त विवरण के बजाय विस्मय में होती है। गौरतलब है कि ठोस और मूर्त विवरण एक सीमा के बाद ऊबाऊ हो जाता है जबकि अमूर्तन में संकेत से एक ही साथ बहुत सारी चीजें इंगित की जा सकती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो कला, साहित्य, संस्कृति के क्षेत्र में अमूर्तन कई बार यथार्थ के मूर्त चित्रण की तुलना में असलियत के ज्यादा नजदीक होता है। इस दृष्टि से विचार करने पर स्पष्ट है कि अनामिका की कविताओं में अपने समय के सामाजिक सत्य के साथ ही सत्य की तमाम संभावनाओं को संश्लिष्ट रूप में प्रस्तुत करने वाली वह सर्वसमावेशी प्रवृत्ति मौजूद है, जिसमें अपवर्जन के लिए कोई जगह नहीं है।

पूरनचन्द्र जोशी ने अपनी पुस्तक ‘परिवर्तन और विकास के सांस्कृतिक आयाम’ में माना है कि- ‘आज संस्कृति का प्रश्न इतना अधिक जटिल और व्यापक हो गया है कि उसे बहुमुखी दृष्टिकोण के अलावा समझ पाना कठिन है। इसलिए बहुत जरूरी है कि एक ओर संस्कृति के क्षेत्र और दूसरी ओर अर्थशास्त्र, इतिहास, तकनीकी, विज्ञान और राजनीति के क्षेत्रों के बीच सेतु निर्मित किया जाय।’ डॉ. जोशी ने जार्ज थाम्सन के संस्कृति विमर्श को भारतीय संदर्भ में रखकर लिखा है कि ‘भारत का उभरता हुए इलिट आज भी पूर्व के पतनशील सामंती मूल्यों और उत्तर-औद्योगिक पश्चिम के उभरते उपभोक्तावाद और नग्नसुखवाद की वर्णसंकर संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है।’ कवि संजय कुंदन के शब्द उधार लेकर कहें तो ‘यह सिक्को के तानाशाह होने का दौर है’ और इसमें आदमी के भीतर से आदमियत लगातार गायब होती जा रही है। ऐसे में कवि कुमार अंबुज का वह सौंदर्य-विवेक उल्लेखनीय है जिसके तहत उन्होंने नागरिक संवेदना के माध्यम से आज की ‘हिंसा की सभ्यता’ और ‘क्रूरता की संस्कृति’ का प्रतिपक्ष रचा है। ‘नागरिक पराभव’ कविता में वे लिखते हैं :

बहुत पहले से प्रारंभ करूँ तो
उससे डरता हूँ जो अत्यन्त विनम्र है
कोई भी घटना जिसे क्रोधित नहीं करती

। । ।

ठीक करना चाहता हूँ एक-एक पुरजा
मगर हर बार खोजता हूँ एक बहाना
हर बार पहले से ज्यादा ठोस और पुख्ता
मेरी निडरता को धीरे-धीरे चूस लेते हैं मेरे स्वार्थ
अब मैं एक छोटी-सी समस्या को भी-
एक बहुत डरे हुए नागरिक की तरह देखता हूँ
सबको ठीक करना मेरा काम नहीं सोचते हुए
एक चुप नागरिक की तरह हर गलत काम में शरीक होता हूँ

यह ठीक ही कहा गया है कि कविता शोरगुल के बीच मनुष्य का एकांत है और सच तो यह है कि यह निजी एकांत ही कविता के सौन्दर्य-बोध को तय करता है, जिसके लगातार विकसित होने की मौलिक चेष्टा से संस्कृति निर्मित होती है। जिस कवि के सौन्दर्यबोध का दायरा जितना व्यापक होगा उसकी कविता में जीवन-द्रव्य उतना ही अधिक होगा और विचार-दृष्टियों के प्रति उसका रवैया भी उतना ही लचीला होगा। ग्राम्शी ने भी स्वीकार किया है कि ‘कलाकार के सम्मुख एक परिदृश्य अवश्य होना चाहिए, किंतु राजनीतिज्ञ की अपेक्षा उसका परिदृश्य अनिवार्यत: कम नपा-तुला और कम निर्दिष्ट होता है और इस तरह वह कम कट्टर होता है।’

अंतिम बात यह कि समकालीन कविता में काव्यानुभूति की संस्कृति के बदलते आयाम पर कोई भी सार्थक विमर्श सौन्दर्य-बोध को दरकिनार करके असंभव है। सच तो यह है कि विचारधारात्मक आतंक के तहत किया गया ऐसा कोई भी आलोचनात्मक उद्यम कविता के साथ एक सृजन-विरोधी व्यवहार और उसकी जटिलता से मुँह चुराने का सरल उपाय होगा। यदि किसी कविता में अपने समय के यथार्थ से कवि की चेतना के विचारधारात्मक संबंध के बजाय सौन्दर्यपरक संबंध व्यक्त हो रहा हो, तो, सांस्कृतिक संघर्ष की आन्तरिक जरूरत के तहत उत्पन्न उसकी सौन्दर्यबोधी संवेदनशीलता के सामाजिक अभिप्राय एवं रचनात्मक प्रभाव की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। यह सावधानी खासतौर से उन कविताओं के पठन-पाठन के दरमियान ज्यादा जरू री है, जिनमें वर्चस्व की संस्कृति के विरूद्ध प्रतिरोध का स्वर ऊँचा होने के बजाय मद्धिम हुआ करता है। ‘संगतकार’ कविता में मंगलेश डबराल ने लिखा है :

‘और उसकी आवाज में जो हिचक साफ सुनाई देती है
या अपने स्वर को ऊँचा न उठाने की कोशिश है
उसे विफलता नहीं
उसकी मनुष्यता समझा जाना चाहिए।’