समकालीन कहानी का समाजशास्त्र / रवि रंजन
काफ्का के बारे में हुई चर्चा के दरम्यान कुछ लोगों की मान्यता थी कि वह महान लेखक नहीं है, क्योंकि उसका साहित्य 'जीने' में कोई मदद नहीं करता। यह दूसरी बात है कि ज़िन्दगी-भर काफ्का को यथार्थ-विरोधी लेखक बताने वाले जार्ज लुकाच को हंगरी के मुक्तिसंग्राम में भागीदारी के चलते जब रूसी सेना द्वारा गिरफ़्तार कर रूमानिया के क़िले में नज़रबंद कर दिया गया, तो उन्हें लगा कि काफ्का सही मायने में यथार्थवादी लेखक था।
बहरहाल, कहना यह है कि यदि किसी कहानी में मनुष्यों के माध्यम से जीवन में व्यक्त होने वाली सच्चाई मिलती है और हमें जीने में मदद करती है, तो निश्चित तौर पर यह यथार्थवादी कहानी होगी। इसके अभाव में कोई रचना विचारधारात्मक श्रेष्ठता के अपने तमाम आतंक और शिल्प व नक्काशी की दृष्टि से बेजोड़ होने के बावजूद जीवन-विरोधी हो जाने को अभिशप्त हो जाती है। स्पष्ट ही ऐसी कहनियों में मानवीय संसक्ति की खोज बेमानी है।
समकालीन हिन्दी कहानी के क्षेत्र में कई पीढ़ियों के रचनाकार एक साथ सक्रिय हैं। ऐसा पहले भी रहा है, पर आज जितनी पीढ़ियाँ एक साथ सक्रिय हैं, उतना वैविध्य शायद पहले नहीं था। कृष्णा सोबती से लेकर अखिलेश तक की रचनाशीलता के मद्देनज़र पीढ़ी की दृष्टि से भी इस दौर को समृद्ध कहा जा सकता है।
समकालीन कहानी के विकास-क्रम में इस नए दौर के प्रस्थान बिन्दु के तौर पर कुछ कहानियों को रेखांकित किया जा सकता है। इस दृष्टि से इब्रााहीम शरीफ की कहानी 'ज़मीन का आखिरी टुकड़ा', मधुकर सिंह की 'दुश्मन' और काशीनाथ सिंह की 'सदी का सबसे बड़ा आदमी' ग़ौरतलब हैं। ढेर सारी समकालीन कहानियों के बीच से कुछ कहानियों को उदाहरण के तौर पर चुनकर इन्हें नये दौर के प्रस्थान बिन्दु के रूप में रेखांकित करने के पीछे तर्क यह है कि समकालीन कहानी में यथार्थ की विजय दिखाई पड़ती है। यहाँ विजय कलात्मक शब्द नहीं है। बावजूद इसके यथार्थ की विजय कहने का तात्पर्य यह है कि आज यथार्थ-चित्रण ने नये सिरे से यह प्रमाण प्रस्तुत किया है कि इसके जरिए ही श्रेष्ठ कहानियाँ लिखी जा सकती हैं। स्मरणीय है कि यथार्थ वह वस्तुसत्ता है, जिसका अस्तित्व हमारी चेतना से बाहर है, वह हमारी चेतना पर निर्भर नहीं करता, लेकिन जो हमारी चेतना को प्रभावित करता हैं। वस्तुत: इधर नये दौर में श्रेष्ठ हिन्दी कहानी रचनाकारों की मनोदशा, उनकी मानसिक बनावट व बुनावट या उनकी अपनी मानसिक वैचारिक कल्पना के मुताबित नहीं, बल्कि हमारे समय के यथार्थ के आग्रह से प्रेरित व प्रभावित तथा प्रेमचंदीय वृत्तात्मक यथार्थवाद से मुक्त होकर लिखी जा रही है। इसी अर्थ के यह यथार्थ की विजय का दौर है।
इसका दूसरा पहलू यह है कि वैयक्तिक चित्रण के नाम पर कहानी के जिस कहानीपन को एक ज़माने में छीनने की कोशिश की गयी, वह इस दौर में बहुत प्रासंगिक नहीं रह गयी है। कहना न होगा कि वैयक्तिकता का चित्रण एक सीमा तक महत्त्वपूर्ण है और वह अपनी जगह यथार्थवादी कहानियों में भी है। क्योंकि कोई भी वाद, कथ्य जीवन प्रसंग व सामाजिक संदर्भ रचना में व्यक्ति के माध्यम से ही व्यक्त होता है। इसलिए किसी रचना में वैयक्तिकता का महत्त्व तो स्वाभाविक है, पर वह सामाजिकता की कीमत पर नहीं होना चाहिए। नामवर सिंह ने 'नयी कहानी' की चर्चा के दरम्यान चाहे उसकी जितनी भी तारीफ़ की हो, पर एक अभाव की ओर उन्होंने ध्यान दिलाया था कि उसका सामाजिक परिप्रेक्ष्य नहीं था। समकालीन कहानियों में सामाजिक परिप्रेक्ष्य व सामाजिक संघर्षशीलता स्पष्ट दिखाई पड़ती है और वह कहीं से भी कहानी पर थोपी हुई नहीं, बल्कि जीवन-प्रसंगों व संदर्भों के चित्रण के माध्यम से स्वाभाविक रूप से विकसित मालूम पड़ती है।
उपर्युक्त विमर्श के मद्देनज़र तीन कहानियों को प्रस्थान बिन्दु के तौर पर रखकर विचारने से स्पष्ट होता है कि इब्रााहीम शरीफ की कहानी 'ज़मीन का आखिरी टूकड़ा', सामाजिक प्रक्रिया में जीवन जीने के साधनों और आधार में ही नहीं, बल्कि आदमी के नज़रिए में भी परिवर्तन आ गया है, उसे स्पष्ट करती है। यह कहानी बताती है कि ज़मीन पर आधारित पारिवारिक जीवन जीने का दौर किस प्रकार खत्म हो रहा है और कैसे परिवार की ज़रूरतों के चलते ही धीरे-धीरे ज़मीन बिकती गयी तथा अन्तत: उसका आखिरी टूकड़ा भी बिक गया। इसका क्षोभ अगर किसी को है, तो सिर्फ़ माँ को है। कहानी में आये तीनों बेटों के लिए वह ज़मीन एक ऐसा अतीत है, जो आज के जीवन को चलाने में किसी भी रूप में सहायक नहीं है। वे इसे अतीत के मोह से मुक्ति के तौर पर देखते हैं।
मधुकर सिंह की कहानी 'दुश्मन' एक राजनीतिक कहानी है। ज़ाहिर है कि हमारे समय में राजनीतिक प्रक्रिया काफी जटिल होती जा रही है, जिसके पीछे एक सामाजिक जागरण भी है। कारण यह कि समाज के दबे-कुचले लोग अब जग रहे हैं तथा अपने स्वत्व के लिए सामने आ रहे हैं। 'दुश्मन' कहानी का जगेसर ऐसे ही लोगों के बीच से नेता के रूप में उभरता है और मंत्री बन जाता है। यह खबर मिलते ही उसके गाँव के दलित टोले में उत्सव का माहौल छा जाता है और लोग जगेसर को मंत्री के रूप में अपने बीच देखना चाहते हैं। इस अवसर पर एक भोज का आयोजन भी किया जाता है, पर ऐसे मौके पर मंत्रीजी की गाड़ी सवर्ण टोला की ओर मुड़ जाती है। इतना ही नहीं, गाँव के लोग जब एक जगह पर जुटते हैं, तो जगेसर जहाँ भूस्वामियों के साथ कुर्सी पर बैठता है, वहीं उसकी बिरादरी के तमाम लोगों को ज़मीन पर नीचे बैठाया जाता है। इस घटना से दलितों में अचानक एक बोध जाग्रत होता है कि जिसे उन्होंने अपना आदमी समझा था, पद प्राप्त होते ही उसका चरित्र बदल गया और अन्तत: वह दुश्मन साबित हुआ। यह वस्तुत: मधुकर सिंह की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में से एक है और इसके बाद उन्होंने संभवत: ऐसी कोई महत्त्वपूर्ण कहानी नहीं लिखी है।
काशीनाथ सिंह की कहानी 'सदी का सबसे बड़ा आदमी' एक दूसरे संदर्भ को सामने लाती है। ज़ाहिर है कि हमारे समय में यदि एक ओर बदलाव की आकांक्षा एवं प्रक्रिया तीव्र हुई है, वही दूसरी ओर अपने सुख-सुविधा व व्यक्तिगत उपलब्धि के लिए खुशामद करने की प्रवृत्ति भी बढ़ी है। जो बदलाव के विरोधी हैं, वे इस प्रवृत्ति को बढ़ावा देते रहे हैं। इस कहानी में एक पुराना रईस है, जिसने ऐलान कर रखा है कि जो अपने शरीर पर उसके पान की पीक लेगा, उसे ईनाम के तौर पर कपड़े का नया सेट दिया जाएगा। किन्तु दिलचस्प यह है कि जो लोग स्वभावत: अपने शरीर पर पीक फेंकवाने के लिए तैयार बैठे हैं, उन पर वह पीकना नहीं चाहता. उसकी दिलचस्पी अपने विरोधियों को खुशामदी बनाने में है। दूसरे शब्दों में वह अपने प्रतिरोधियों के तेज-हरण में विश्वास करता है। स्पष्ट ही हमारे समय में 'कैरियरिज्म' के तहत अपनी तरक्की के लिए खुशामदी प्रवृत्ति का जो बोलबाला दिखाई देता है, यह कहानी उसे बेनक़ाब करती है। पर इस कहानी में एक मामूली-से अधनंगे आदमी को लाया गया है, जो अचानक एक दिन उस रईस को चुनौती दे बैठता है। रईस पीक फेंक रहा है और वह खुद को इससे बचा रहा है। लगातार कई दिनों तक दोनों के बीच यह द्वन्द्व चलता है और दर्शकों में ऐसे कई झुँझलाए हुए लोग बैठे हैं, जो इनाम की खातिर अपने शरीर पर पीक लेने के लिए आतुर हैं। पर जब तक कोई फैसला न हो उन्हें मौका मिलना असंभव था। कहानी में जीत अंतत: उस भूखे-नंगे-से दिखाई देने वाले आदमी की ही होती है। वह खुद को अन्त-अन्त तक पान की पीक से बचा लेता है। कहानीकार का रचनात्मक निर्णय है कि वह इस सदी का सबसे बड़ा आदमी है। वस्तुत: जहाँ कहीं भी व्यवस्था को या समाज का स्वत्व हरण-करने वाली ताक़तों को चुनौती देने वाला कोई भी व्यक्ति बचा हुआ है, वही बदलाव की आकांक्षा वाली इस सदी का सबसे बड़ा आदमी है।
वर्तमान सामाजिक प्रक्रिया की तीन प्रवृत्तियों को व्यंजित करने वाली ये तीन कहानियाँ यद्दपि हमारे समय के युवा कहानिकारों के पहले की पीढ़ी के लेखकों द्वारा रचित हैं, पर हमारे समय की मानसिकता से इन कहानियों का गहरा सम्बन्ध है। इसलिए इन्हें इस दौर की कहानियों के प्रस्थानबिन्दु के रूप में उद्धृत करना ग़ैरवाज़िब नहीं है।
मनोज रूपड़ा की कहानी 'प्यास' मानवीय संसक्ति दृष्टि से समकालीन हिन्दी कहानी की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। कहानी की शुरूआत एक ऐसे दृश्य से हुई है, जहाँ एक लड़का गाय के 'थन' में सीधे मुँह लगाकर दूध पी रहा है। उसकी अनुभूति का वर्णन करते हुए कहानीकार ने बताया है कि पहली बार उस लड़के को आनंद की अनुभूति हुई। वस्तुत: वह एक मातृहीन बालक है, जिसे कभी माँ के स्तन से दूध पीने का मौक़ा नहीं मिला था। एक क्रिश्चियन मिशन द्वारा संचालित बच्चों की संस्था में रहते हुए उसे सब कुछ मिला, पर वहाँ भी माँ का अभाव उसे खटकता रहा। माँ का मतलब उसके लिए वह स्त्री है, जिसने स्तन पान कराया हो और इसी कमी को पूरा करने के लिए वह सीधे गाय के थन में मुँह लगाता है। मिशन के अपने अनुभव के विश्लेषन से उसे लगता है कि वहाँ सारी बातों के बावज़ूद संचालिका की रूचि बच्चों को इंसान बनाने के बजाय ईसाई बनाने में ज़्यादा है। थोड़ा बड़ा होकर वह एक दिन मिशन से निकल भागता है और मुक्ति का अनुभव करता है। चर्च के बाहर की दुनिया में अपनी क्षमता व मेहनत के बूते पर सफल होने के बावज़ूद उसके जीवन में माँ की कमी के एहसास के रूप में जो प्यास रह गयी थी, वह कालान्तर में प्रेम की तलाश के रूप में प्रकट होती है, जिसमें वह अन्तत: सफल नहीं हो पाता। इस प्रकार वह अकेलेपन की पीड़ा भोगता है। एक दिन वह समुद्र के किनारे बैठा अपने जीवन की निरर्थकता पर विचार कर रहा होता है, मानो थपकी दे रही हो। यहाँ थपकी देना बड़ा ही सांकेतिक है, क्योंकि जिस चर्च की दीवार को लाँघकर वह चला आया था, फिर उसी ओर उसका ध्यान जाता है। बाहर की दुनिया भी उसको वह चीज़ नहीं दे सकी, जिसकी उसे तलाश थी। मनुष्य की प्राकृतिक तलाश जब पूरी नहीं होती, तो उसके व्यक्तित्व में अनगढ़ता स्वाभाविक है। कथानायक के अनेकानेक व्यवहार अप्राकृतिक-से हैं---समुद्र के किनारे बैठे लोगों के ऊपर से कूदते हुए दौड़ना, अचानक किसी को पकड़कर जबरदस्ती चूम लेना आदि। प्रसंगवश 'उसने कहा था' कहानी के बारह वर्षीय बालक लहना सिंह की याद स्वाभाविक है, जो लड़की के मुँह से यह सुनते ही कि 'कुड़माई हो गई', असामान्य व्यवहार करने लगता है : “लड़के ने घर की राह ली। रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छाबड़ी वाले की दिन भर की कमाई खोई, एक कुत्ते पर पत्थर मारा और एक गोभी वाले के ठेले में दूध उँड़ेल दिया। सामने नहाकर आती हुई किसी वैष्णवी से टकराकर अंधे की उपाधि पाई, तब कहीं घर पहुँचा।” नये संदर्भ में कुछ इसी तरह का असामान्य व्यवहार 'प्यास' कहानी का नायक करता है। इस प्रकार यह कहानी अपनी परम्परा को समृद्ध करने के साथ ही भावना, चरित्र व जीवन प्रसंग के यथार्थ की दृष्टि से नयी है।
यथार्थ-चित्रण के प्रसंग में ग़ौरतलब है कि समकालीन हिन्दी कहानी का एक बड़ा हिस्सा विचारधारा व यथार्य के आतंक से मुक्ति का साहित्य है। कथा सहित्य के क्षेत्र में इस आतंक को समझाने के लिए एक बंगला कहानी 'कम्युनिस्ट परिवार' की बतौर उदाहरण चर्चा की गयी है, जिसमें वर्णन है कि कैसे दो नक्सलवादी भाईयों में से एक पर संगठन को संदेह हो गया और उसकी हत्या कर दी गयी। हत्या का फैसला जिस संगठन में किया गया था, उसमें बड़ा भाई मौज़ूद था। बाद में वह सोचता है कि केवल संदेह के आधार पर उसके भाई की हत्या कर दी गयी, उसने विरोध क्यों नहीं किया? वसतुत: उसने बुज़दिल कहे जाने के डर से वहाँ इस फैसले का विरोध नहीं किया। यह अतिक्रांतिकारिता है, जो विचारधारात्मक आतंक के चलते पैदा होती है। यथार्थ के इस आतंक से कहानी की कला को भी नुकसान पहुँचता है, क्योंकि जीवन की स्वाभाविकता, विश्वनीयता की रक्षा भी कला का अंग है।
सच तो यह है कि विचारधारा उसी हद तक रचना या आलोचना के लिए उपयोगी है, जहाँ तक वह जिन्दगी की सचाई को समझने-समझाने में हमारी मदद करती है। दूसरी बात यह कि किसी भी रचना को कुछ मुख्य सिद्धांतों में घटाकर नहीं देखा जा सकता। कारण यह कि कोई भी कलाकार पहले से सारी बातें तय करके अपने समय की वास्तविकता का चित्रण या अनुभूतियों की अभिव्यक्ति नहीं करता। जो लोग ऐसा करते हैं, उनका लेखन लुकाच की शब्दावली में कहें, तो 'स्कीमैटिक' या योजनाबद्ध हुआ करता है, जो कला की शर्त का अनुपालन नहीं करता। यही बात यथार्थ और तथाकथित यथार्थवाद के संदर्भ में भी सच है। निर्मल वर्मा ने लिखा है कि “जब कोई कहानी में यथार्थ की चर्चा करता है, तो हमेशा दुविधा होती है-वह एक पक्षी की तरह झाड़ी में छिपा रहता है। उसे वहाँ से जीवन निकाल पाना उतना ही दुर्बल है, जितना उसके बारे में निश्चित रूप से कुछ कह पाना, जब तक वह वहाँ छिपा है। अँग्रेजी में एक मुहावरा है : 'बीटिंग एबाउट द बुश'। कहानीकार सिर्फ़ सही कर सकता है-उससे अधिक कुछ करना असंभव है।...यह अभिशाप हर उस लेखक के लिए है, जो कलाकार भी है। जो सही मायने में यथार्थवादी है, उसके लिए यथार्थ हमेशा झाड़ी में छिपा रहता है।” वस्तुत: जब तक क्रांतिकारिता की मुद्रा जीवनस्थितियों से स्वाभाविक तौर पर विकसित होती हुई मुद्रा नहीं बनती, तब तक वह विश्वसनीय नहीं होती।
कहना न होगा कि समकालीन हिन्दी कहानी में आत्यन्तिक विचारधारात्मक आग्रह के चलते उत्पन्न यथार्थ के आतंक के तहत रचित 'बीच का समर' (विजयकांत), 'दुनिया की सबसे हसीन औरत' (संजीव), 'एक बनिहार का आत्म-निवेदन' (सुरेश कांटक) जैसी अनेकानेक फार्मूलाबद्ध कहानियाँ एक जमाने में लिखी गईं। 'दुनिया की सबसे हसीन औरत' कहानी में कथानायक का वक्तव्य है : “मैं निहायत पिद्दी किस्म का इंसान था, लेकिन उस वक़्त मुझमें जाने कहाँ से बला की ताक़त आ गयी थी। मेहनत, ईमान, इंसानियत, शराफत, दिलेरी जैसे शब्द, देश का इतिहास और भूगोल जैसे ज्ञान, अब तक मेरे लिए खयाली बातें थीं। लेकिन उस दिन, उस मौक़े पर उनकी हक़ीकत का जादू मेरे सिर पर चढ़कर बोल रहा था...वह एक जनून था जनून।” आकस्मिक संयोग के रूप में व्यक्त यह प्रतिरोध एक रचनाकार की प्रतिरोधात्मक सदिच्छा तो हो सकता है, पर इसमें स्वाभाविकता व विश्वसनीयता की जो कमी है, वह न केवल किसी कहानी की कलात्मकता की रक्षा के लिए ज़रूरी है, बल्कि उसके विकास और समृद्धि के लिए भी अपरिहार्य है। वस्तुत: इस कहानी में प्रतिरोध को स्वाभाविक एवं विश्वसनीय बनाने के लिए किसी दूसरे आदमी के जनूनी हस्तक्षेप के बजाय उस सब्ज़ी बेचने वाली आदिवासी औरत के भीतर ही प्रतिरोध के बिन्दु की तलाश वांछनीय थी। स्मरणीय है कि 'पूस की रात' कहानी में आँखें तरेरती हुई मुन्नी जब कहती है कि “मर-मर कर काम करो, उपज हो तो बाक़ी दे दो, चलो छुट्टी। बाक़ी चुकाने के लिए ही तो हमारा जन्म हुआ है। पेट के लिए मजूरी करो। ऐसी खेती से बाज़ आए” या हल्कू जब कहता है : “मजूरी हम करें, मजा दूसरे लूटें।” - तो उनका यह सोचना स्वाभाविक है। चूँकि यह स्वाभाविकता बहुत पहले प्रेमचन्द विकसित कर चुके थे, इसलिए समकालीन कहानिकारों को उससे लाभ उठाना चाहिए था।
'पूत! पूत! पूत! पूत!' कहानी में विचारधारात्मक मिथ्या चेतना के आतंक से मुक्त होकर संजीव ने अपने बौद्धिक पैनापन तथा संवेदनशील चौकन्नापन से जिस मानवीय सघनता को रचा है, उसमें अपने समय के यथार्थ के टकराने के लिए ज़रूरी ख़तरनाक खुलापन भी है। कारण यह कि इसमें क्रांतिकारी मुक्तिसेना तथा सामंतों को वीरसेना के बीच के अन्तस्संघर्षों को ही नहीं, बल्कि मुक्तिसेना और इस तरह के अन्य वामपंथी संघटनों के बीच अपने वर्चस्व के लिए होने वाले ख़ूनी संघर्ष और अन्तत: वीरसेना से मुक्तिसेना की पराजय की प्रक्रिया को गहराई के साथ उजागर किया गया है। कथानायक की स्पष्ट मान्यता है कि “मुक्तिसेना उनसे (वीरसेना से) पिट रही है। क्या मतलब? मतलब अभिधा में भी है, व्यंजना में भी, मात्रा में भी, गुण में भी। ...इधर मुक्तिसेना ने भी बारात में जाते हुए, मुर्दा जलाकर आते हुए लोगों को मारा है। यानी मुक्तिसेना भी वीरसेना के प्रभाव में आ गयी है। उद्देश्य से स्खलित हुई। इस तरह मुक्तिसेना का कुंद होना ही नहीं, इसका स्खलित होना या लक्ष्यभ्रष्ट होना वीरसेना की सबसे बड़ी जीत है और मुक्तिसेना की सबसे बड़ी हार है।” इस कथन पर मुक्तिसेना के कमिस्सार की टिप्पणी है कि “जो लोग डायरेक्ट फील्ड में काम करते हैं, उनमें और जो लोग टेबुल पर बैठकर कैलकुलेट या एनलाइज करते हैं, थोड़ा फर्क तो हो ही जाता है।”
ऐसे तो इस कहानी में मानवीय सघनता आदि से अंत तक मौज़ूद है, पर वह अपने सर्वाधिक सान्द्र रूप में वहाँ दिखाई देती है, जहाँ छोटे भाई विजयमोहन की हत्या के बाद नैरेटर की विविध स्मृतियों के सहारे इसे उभारा गया है : “भाई से जुड़ा एक-एक दृश्य याद आने लगा, पिता की मौत पर सदा के लिए गुमसुम हो जाने वाला बिज्जू, वीरसेना के कमांडर की बन्दूक से मेरी प्राणरक्षा के लिए जूझता बिज्जू! क्रांतिकारी विवाह करने वाला बिज्जू, खून के दाग़ों को धोता हुआ बिज्जू, 'लौटा दो मेरा बाप, दिला दो परिवार को कोई सहारा' के तर्क से मुझे निरुत्तर करता बिज्जू, चाचा की ज़मीन पर कैम्प लगाने की ज़्यादती को खूनी आँखों से घूरता बिज्जू, मुंडित सिर लिए चुपचाप माँ की झिड़कियाँ सुनता बिज्जू और सबसे ऊपर वह दृश्य-जलती चिताएँ, चीर पहने भीगी धोतियाँ ओढ़े गाँव के लोगों की रक्षा के लिए बन्दूक साधे घंटों अकेले पहरा देता बिज्जू! -मेरा वह बहादुर भाई बिज्जू कल क़त्ल कर दिया गया।”
जिस समय में अपवादस्वरूप कुछ इलाकों को छोड़कर लगभग सारा भारतीय समाज और खास और तौर से हिन्दी समाज साम्प्रदायिकता, जातिवाद, भूस्वामियों की निजी सेनाओं के आतंक, नक्सलवादी अतिक्रांतिकारिता आदि के चक्रव्यूह में फँसा हो, उस समय में कलाकार अपवर्जन के बजाय सर्वसमावेशी होकर ही अपनी रचना को ज़्यादा से ज़्यादा विश्वसनीय बना सकता है।
मानवीय संसक्ति की पहली और आखिरी शर्त मानव जीवन है, चाहे वह एक सीमा तक विरोधाभासों से क्यों न भरा हो। जीवन में निराशा, हताशा, संत्रास, ऊब, भय ,सब कुछ खप जाता है, क्योंकि जीवन विराट है। जीवन की यह विराटता न केवल विस्मित करती है, बल्कि विश्वास का आधार भी देती है। ऐसे तो प्राय: रचनाकार विस्मय को व्याख्यायित करते हुए विश्वास की मंज़िल तक पहुँचते हैं, पर कई बार जब विस्मय बिना किसी व्याख्या के कहानीकार की सधी कलम से सीधे विश्वास में रूपान्तरिक होकर प्रस्तुत हो जाता है, तो मानवीय संसक्ति से भरपूर 'मुश्किल काम' जैसी छोटी-सी कहानी की रचना संभव होती है। वर्तमान साहित्य के कहानी महाविशेषांक में प्रकाशित असग़र वजाहत की इस कहानी में दंगे के बाद दो दादाओं की बातचीत है, जिसमें एक दादा सबसे मुश्किल काम बच्चों को मारना बताता है। कारण यह कि “बच्चों को मारते समय अपने बच्चे याद आ जाते हैं।” इस कथन में निहित मानवीय संसक्ति अलग से व्याख्या की अपेक्षा नहीं रखती।
कई बार विस्मय की व्याख्या इस क़दर केन्द्र में आ जाती है कि कहानी मात्र ब्योरा बनकर रह जाती है। बावजूद इसके यदि कहानीकार कथारूप की नैतिकता का सार्थक निर्वाह कर ले जाता है, तो वह पाठक को विस्मय से विश्वास तक अवश्य पहुँचा देता है। इस दरम्यान ब्योरा देना यदि ज़रूरी हो, तो वह कतई आपत्तिजनक नहीं हो सकता, भले ही इस वजह से कहानी शब्दों की मितव्ययिता के नज़रिए से बातूनी क्यों न लगें। यच तो यह है कि कई बार यह बातूनीपन भी लेखक की सही नीयत का सूचक होता है। संजीव की 'दुनिया की सबसे हसीन औरत' कदाचित ऐसी ही कहानी है। ऐसी कहानियों में कई बार व्याख्या इतनी प्रधान हो जाती है कि विस्मय या तो लुप्त हो जाता है या हाशिये पर फेंक दिया जाता है। किसी विचार को कहानी बना देने की महत्वाकांक्षाएँ प्राय: इसी परिणति को प्राप्त होती हैं। ऐसी कहानियों की सफलता के लिए जबरदस्त बौद्धिकता के साथ-साथ विचार को कथा में रूपांतरित करने का एक लम्बा अभ्यास अपरिहार्य है। संजीव की 'पूत! पूत! पूत! पूत!' की सफलता का एक राज़ यह भी है।
'सलाम' कहानी के रचयिता ओमप्रकाश वाल्मीकि सरीखे कुछेक अपवादों को छोड़कर ज्यादातर दलितवादी व स्त्रीवादी कहानीकारों की रचनाओं में किसी आइडिया को कहानी बनाने की ज़िद दिखाई देती है। नतीजतन कुतूहल, घटनाओं आदि की धकापेल के बावजूद ऐसी कहानियों का कथातत्व दोहराव और कई बार संवेदनशून्यता की मिसाल होता है। स्मरणीय है कि अकहानी आन्दोलन के दरम्यान ऐसी बहुत-सी कहानियाँ लिखी गई थीं और आज भी ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है। राजेन्द्र यादव की 'हासिल' व 'मरा हुआ चूहा', लवलीन की 'चक्रवात', दूधनाथ सिंह की 'नमो अंधकारम्', आबिद सूरती की 'कोरा कैनवास', मनोहरश्याम जोशी की 'ट-टा प्रोफ़ेसर' जैसी कहानियों में मानवीय सम्बन्धों के अजीबो-ग़रीब और कई बार वीभत्स रूप दिखाई देते हैं। हमारे समय में बड़ी संख्या में लिखी जा रही इन कहानियों की रूचि का संचार निर्वासित मध्यवर्गीय जीवन से हो रहा है और ये रचनाकार इस विकृत रुचि का पोषणभर कर रहे हैं। इस सन्दर्भ में माक्र्स द्वारा की गयी 'निर्वासन' की व्यख्या का स्मरण स्वाभाविक है, जिसके अनुसार निर्वासित व्यक्ति को जो पाशव-कर्म है, वही मानवीय प्रतीत होता है, क्योंकि केवल उसी वक़्त उसे अपने मनुष्य होने का एहसास हो पाता है। इसलिए ऐसी रचनाओं को पॉपुलर या घासलेटी अश्लील साहित्य के साथ गड्डमड्ड करना ठीक नहीं है।
समकालीन हिन्दी कहानीकारों में कुछ ऐसे भी हैं, जिनकी रचनाओं में विस्मय की व्याख्या करते हुए विश्वास तक पहुँचने के बजाय छद्म आधुनिकता के दबाव के तहत विस्मय से संशय व निराशा-हताशा की कलह-कोलाहलपूर्ण गलियों से होते हुए अन्तत: अविश्वास तक पहुँचने की प्रवृत्ति दिखाई देती है और कहना न होगा कि ऐसी कहानियों में मानवीय संसक्ति की खोज बेमानी है। चूँकि विस्मय से अविश्वास तक की यह यात्रा आधुनिकता की तमाम तथाकथित शर्तों---अलगाव, संत्रास, मूल्यविघटन आदि---को न सिर्फ़ पूरी करती है, बल्कि कई बार उसे महिमामंडित भी करती है, इसलिए इसके तहत रचित कहानियाँ-हमारी संवेदना को सकारात्मक रूप में समृद्ध करने के बजाय हमें डराती हैं। उदयप्रकाश की एक चर्चित कहानी 'तिरिछ' के मद्देनज़र यह बात समझी-समझायी जा सकती है। इस कहानी की विषयवस्तु है 'अमानुषिक होता जा रहा हमारा समाज'। कहानीकार इस विषयवस्तु को शिल्प-विषयक इतने सारे चमत्कारों के साथ परोसता है कि पाठक केवल स्तंभित रह सकता है। स्मरणीय है कि यही उदयप्रकाश कभी 'टेपचू' जैसी कहानी भी लिखते थे, जिसके बारे में खुद उन्होंने स्वीकारा है कि “टेपचू जब सन् 1980 में प्रकाशित हुई थी, तो करीब तीन सौ पत्र आए थे, जिनमें से एक पत्र राँची के किसी मोटर वक्र्स में काम करने वाले एक नौजवान सिख का भी था, जिसमें लिखा था कि अगर यह कहानी उसने न पढ़ ली होती, तो अगले दिन वह आत्महत्या कर लेता।” सवाल उठाना वाजिब है कि अगर वह सिख नौजवान 'तिरिछ' पढ़ लेता, तो क्या आत्महत्या से उसका बचना संभव हो पाता। वस्तुत: उदयप्रकाश के समूचे रचना संसार को यदि एक शब्द में बाँधा जाए, तो वह होगा-'डर'। इस 'डर' की सच्चाई में कोई संदेह नहीं है, पर मानवीय संसक्ति से दूर-दूर तक उसका कोई रिश्ता नहीं है। उनके एक कहानी-संग्रह में 'डर' शीर्षक से संगृहीत कहानी द्रष्टव्य है : “वह डर गया है। क्योंकि जहाँ उसे जाना है, वहाँ उसके पैरों के निशान पहले से ही बने हुए हैं।” प्रश्न यह है कि यह कहानी ही क्यों है? कविता क्यों नहीं है? प्रश्न इसलिए भी कि उदयप्रकाश जैसे सुविख्यात कहानीकार ने इसे अपने संग्रह में कहानी के रूप में छपवाया है। स्पष्ट ही इस 'डर' को छुपाने के बजाय स्वीकार करके इससे पार पाया जा सकता था, डर का प्रतिरोध किया जा सकता था, जादुई यथार्थवाद के कमंद के सहारे 'टेपचू' बनकर इसे जीता या जीया जा सकता था, पर दुर्भाग्यवश 'टेपचू' अब 'और अंत में प्रार्थना' का वाकणकर या 'पाल गोमरा का स्कूटर' का नायक बन गया है। 'पाल गोमरा का स्कूटर' के नायक को लगता है कि “बड़ी-बड़ी संस्थाओं, उद्योग समूहों, सरकारी विभागों ने सब कुछ अधिग्रहित कर लिया है और अब उनके जैसे कवि सामने फ्लिट पीने या गले में फंदा लगाने के अलावा और कोई दूसरा विकल्प नहीं है।” इस कहनी के अंत में कथानायक की विक्षिप्तता की रस ले-लेकर चर्चा की गयी है। रचना के धरातल पर मनुष्य होने के अर्थबोध के निर्वाचन को यदि किसी कृति की श्रेष्ठता की कसौटी माना जाए, तो 'टेपचू' आज भी उदयप्रकाश की सर्वश्रेष्ठ और हिन्दी की समकालीन श्रेष्ठ कहानियों में से एक है, जो न केवल अपनी जिजीविषा से पाठक को विस्मित करती है, बल्कि जीवन के प्रति विश्वास भी जगाती है।
समकालीन हिन्दी कहानी में मानवीय संसक्ति को रेखांकित करते वक़्त याद रखना ज़रूरी है कि कई बार महान रचना का सामाजिक परिप्रेक्ष्य अत्यन्त प्रच्छन्न होता है। नतीजतन कुछ रचनाएँ पूरी तरह समझ में आने के पूर्व महसूस होती हैं। स्पष्ट ही यह गहरे तादात्म्य की स्थिति हुआ करती है, जिसके तहत कहानी की अन्तर्वस्तु सम्पूर्णता के साथ पाठकीय संवेदना का हिस्सा बनकर उसे अपना भागीदार बना लेती है और कालान्तर में रचनानुभव के साथ यही भागीदारी पाठक की चेतना व चिंतन में सकारात्मक परिवर्तन का कारण बनती है। इस प्रकार कहानी की रचना से लेकर उसके अभिग्रहण का वृत्त पूरा होता है.