समकालीन ग़ज़ल में स्त्री / भावना

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शायरी यानी जज्बात का सुंदर रूप। पाकीजगी में लिपटे शब्द। रूह से निकल कर रूह तक पहुंचने वाली शब्दों की ऊर्जा। यूं कहे एक ऐसा आईना, जिसमें इहलोक से परलोक तक के तत्वों की विभिन्न मुद्राओं में तस्वीरें। शायरी के बारे में फैज अहमद फैज कहते हैं कि "अच्छी शायरी करने के लिए तकलीफ और गम ज़रूरी है। तकलीफ़ों से ही शायरी में ज़िन्दगी की असलियत आ पाती है। अच्छी शायरी वह है, जो कला के निकष पर ही नहीं, ज़िन्दगी की कसौटी पर भी खरी उतरे" । फैज ने जिस तकलीफ व जीवन की कसौटी की बात की है, वह स्त्री जीवन का महत्त्वूपर्ण हिस्सा है। हम चाहे जितना भी स्त्री-विमर्श की बात करें, लेकिन समाज स्त्रियों की जो हालत बहुत ज़्यादा नहीं बदली है। समकालीन ग़ज़लकार शेरों के माध्यम से लगातार स्त्री-जीवन को चित्रित कर रहे हैं। इसका कारण है कि जितनी पीड़ाएँ स्त्री के हिस्से हैं, उतनी पीड़ाओं को सहना, वह भी पूरी जीवटता के साथ किसी और के बस की बात नहीं। स्त्री का दमन उसके जन्म के साथ ही शुरू हो जाता है। चार-पांच फीसदी उच्च वर्गों की बात छोड़ दें तो निम्न मध्यम व निम्न वर्ग की स्थिति अब तक वैसी ही बनी हुई है।

बेटियाँ जन्म के साथ ही भेदभाव की शिकार होने लगती हैं। कहाँ जाना है ...कहाँ नहीं जाना... क्या करना है... क्या नहीं करना... किससे मिलना है ...किससे नहीं मिलना ...सब कुछ परिवार के मुखिया द्वारा ही निर्देशित होता है, वहीं बेटों को उड़ने के लिए पूरा आसमान दिया जाता है। यह स्त्री की जिजीविषा ही है कि इतनी बंदिशों के बावजूद वह शारीरिक श्रम से लेकर मानसिक श्रम में किसी से पीछे नहीं। गांव में घूंघट काढ़े, बोझा ढोती औरतें हों या बड़े-बड़े अपार्टमेंट में बच्चों को पीठ पर बांधे ईंट ढोती औरतें, विद्यालय में पढ़ाती शिक्षिका हों या घरों को संवारती गृहणियाँ। हर मोर्चे पर वे अपना सर्वश्रेष्ठ देने को तैयार खड़ी मिलती हैं। नारी का जीवन विसंगतियों और विडंबनाओं से भरा पड़ा है, जिसमें उन्हें आत्मसंघर्ष के साथ सामाजिक संघर्ष भी करने पड़ते हैं। गजलकारों ने स्त्रियों की पीड़ाओं, उनके संघर्ष और जिजीविषा को कितना और किस हद तक रेखांकित किया है, इस पर गौर करने की ज़रूरत है। कहना न होगा कि ग़ज़ल मुख्य रूप से प्रेमिका से बातचीत का विषय रही है। देखना है कि क्या स्त्री जीवन सिर्फ़ उसकी कंचन काया तक सीमित है। कहने की ज़रूरत नहीं कि स्त्री-पुरुष की ही तरह एक स्वस्थ शरीर के साथ स्वस्थ मस्तिष्क भी रखती है। वह भी वैचारिक रूप से पुरुष के मुकाबले कहीं से कम नहीं। इसका उदाहरण पूर्व में मंडन मिश्र की पत्नी भारती से लेकर कल्पना चावला और अभी की ऑल इंडिया टॉपर बिहार की तेजस्वी बाला कल्पना के उदाहरण लिए जा सकते हैं। गज़ल जैसी कठिन विधा में महिला ग़ज़लकारों ने अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज की है। प्रश्न यह उठता है कि क्या महिला के जीवन का सही चित्रण महिला गजलकारों द्वारा ही बेहतर ढंग से हो सकता है या कोई पुरूष गज़लकार भी उसे उतनी ही बारीक़ी से व्यक्त करने में सक्षम है? यह सच है कि चोट जिसे लगती है उसे ही दर्द का एहसास ज़्यादा होता है। पर, यह भी सच है कि संवेदनशील लोग किसी के दर्द को अपना दर्द समझ लेते हैं। हम सभी सिनेमा और सीरियल देखते, उन पात्रों से इतना जुड़ जाते हैं कि उनके आंसुओं के साथ हमारी आंखें भी बरसने से खुद को रोक नहीं पातीं। कहानी से जुड़ने के बाद हमारी संवेदना इतनी पिघल जाती है तो रिश्तेदारों, परिचितों, शुभचिंतकों या किसी के साथ घटने वाली घटनाएँ हमें क्यों आंदोलित नहीं कर सकतीं? किसी भी घटना को शिद्दत से महसूस करने के लिए महिला या पुरूष को खुद पर गुजरा होना ही ज़रूरी नहीं, बल्कि संवेदना के स्तर पर जुड़ने की ज़रूरत होती है। कविता संवेदना की परिकाष्ठा ही तो है। हम यहाँ समकालीन ग़ज़ल में स्त्री-जीवन के विभिन्न पहलुओं को ग़ज़लकारों के शेरों के माध्यम से बताने की कोशिश कर रहे हैं।

महिला सशक्तिकरण की आज खूब बातें की जा रही हैं। सशक्तिकरण का तात्पर्य किसी व्यक्ति की वैसी क्षमता से है, जिसमें उसको अपने जीवन से जुड़े सभी निर्णय लेने की योग्यता आ जाए ताकि, वह अपने जीवन के बारे में स्वयं निर्णय ले सके. पर, अब तक कितनी प्रतिशत महिलाएँ परिवार और समाज के बंधनों से मुक्त होकर अपने निर्णय स्वयं लेने में सक्षम हैं। कहना न होगा कि भारतीय संविधान में पुरुषों की तरह महिलाओं को बराबर के अधिकार देने के कानूनी प्रावधानों के बावजूद स्थिति बहुत संतोषप्रद नहीं है। देश की आधी आबादी महिलाएँ हैं। जब तक महिलाएँ सशक्त नहीं होंगी देश पूरी तरह शक्तिशाली नहीं हो सकता। स्त्री की दशा व्यक्त करते प्रसिद्ध ग़जलकार रामकुमार कृषक का यह शेर दृष्टव्य है। शेर देखें-

बीत गई सदियों पर सदियाँ
गुमसुम ठौर-लिए बैठी हो

वहीं महिला ग़ज़लकार भी अपने हक के लिए आवाज उठाने से नहीं चूकतीं। भारत की आधी आबादी की आवाज मुखर करते हुए मीनाक्षी जिजीविषा कहती हैं-

अब तो दो तुम उसको जायज हक उसका
घर की तख्ती के इस पत्थर से आगे

स्त्री ने भले ही अपने 'पर' अभी पूरी तरह नहीं खोले हों। पर, उसने सपने अवश्य देखने शुरू कर दिए हैं। कहते हैं, सफलता की प्रथम सीढ़ी सपना ही होता है। सपना देखेंगे तो आज या कल साकार अवश्य होगा बस दृढ़ निश्चय के साथ आगे बढ़ने की ज़रूरत है। विनीता गुप्ता कहती हैं-

डिबिया में है धूप का टुकड़ा वक्त पड़ेगा खोलूंगी
आसमान जब घर आएगा मैं अपने 'पर' तोलूंगी

'मां' स्त्री का सबसे बड़ा और पूजनीय रूप है। कहते हैं कि हम ईश्वर को नहीं देख सकते इसलिए वह माँ के रूप में हमारे साथ होते हैं। माँ जो हमेशा दुख सहती है पर, अपने बच्चों के दामन को सुख की बूंदों से भर देती है। अपना दुख किसी से नहीं कहती। सब कुछ पी जाती है अपने भीतर आसुओं के साथ। पर, उफ तक नहीं करती। माँ का यही रूप प्रसिद्ध गीतकार व गजलकार दिनेश प्रभात जी के शेरों में भी देखा जा सकता है-

पड़ी हुई टूटी खटिया पर, लकवा ग्रस्त अपाहिज मां
कभी रोग हावी है माँ पर, कभी रोग पर काबिज मां

वहीं 'मां' के संदर्भ में समर्थ युवा कवयित्री सोनरूपा विशाल का यह शेर देखें कि-

कितनी बार उसे देखा था मैंने ऐसे रूप में भी
होठों पर मुस्कान लिए है आंखों में लाचारी मां

वहीं माँ पर चर्चित ग़ज़लकार मालिनी गौतम का यह शेर भी क़ाबिलेगौर है-

जिसे दुनिया में आने से ही पहले मार देते तुम
गलाकर जिस्म अपना वह तुम्हें दुनिया में लाती है

ऐसे ही छवि को ध्यान में रखते हुए छोटी बहर में अद्भुत शेयर कहने वाले सुप्रसिद्ध गज़लकार विज्ञान व्रत जी का एक शेर देखें-

एक नदी की धार है नारी
किश्ती और पतवार है नारी

मां कई रूपों में हमारे साथ होती है। कभी वह अपने पुत्र के नौकरी लगने पर आह्लादित होती है तो कभी बिटिया के बड़ी होने पर उसकी विवाह की चिंता पर व्यथित। सुप्रसिद्ध गज़लकार जहीर कुरैशी के ये शेर देखें-

मां के चेहरे पर सुख था अलग
पुत्र जब नौकरी पर गया

या

सशंकित माँ की बानी हो रही है
बड़ी बिटिया सयानी हो रही है

स्त्री सिर्फ़ छुईमुई ही नहीं है, ज़रूरत पड़ने पर वह लक्ष्मीबाई, हाड़ा रानी और इंदिरा गांधी भी है। उसके कोमल हाथ सिर्फ़ मेहंदी से ही नहीं रच सकते अपितु अपने परिवार के पालन-पोषण के लिए खुरपी और हसुआ उठा लेते हैं। गांव की निम्न वर्ग महिलाएँ खाये-पीये अघाये अभिजात्य वर्ग की औरतों की तरह हाथ में मेहंदी और पैर में महावर लगा कोठियों में ताश के पत्ते नहीं खेलतीं बल्कि घूंघट से चेहरे को ढके, सिर पर बोझा लिए आरी-डरेर पर चलती हैं। स्वभाविक है, अनिरुद्ध सिन्हा जैसे प्रसिद्ध संवेदनशील गज़लकार इनके श्रम को भीतर तक महसूस करते हैं। शेर देखें-

रंग मेहंदी के पैरों से छूटे नही
शर्म का आचरण रोटियाँ खा गईं

दहेज आज भी नारी जीवन की सबसे बड़ी समस्या है। दहेज के इस महादानव का नाश जब तक नहीं होगा, तब तक समानता का सपना अधूरा ही रहेगा। आज भी कई कस्बों और शहरों में स्त्रियाँ दहेज की खातिर जिंदा जला दी जाती हैं। स्वाभाविक है दिनेश प्रभात जैसा संवेदनशील गज़लकार इस स्थिति को देखकर कैसे मौन रह सकता है? शेर देखें-

वहाँ तुम नारियों को पूजने की बात करते हो
जहाँ जिंदा जलाने की प्रथाएँ साथ चलती हैं

डाॅ रमा सिंह का यह शेर स्त्री को वस्तु की तरह इस्तेमाल पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। शेर देखें-

कह रहा इतिहास औ अनुभव भी कहता है 'रमा'
हो कोई भी युग लगी है द्रौपदी ही दांव पर

स्त्री होना यानी कि देवी होना है। देवी होना यानी कि हमेशा देना ही देना ...लेना कुछ नहीं। स्त्री उम्र भर देती ही तो है। कभी उसे पाकीजगी साबित करने के लिए अग्नि-परीक्षा देनी होती है तो कभी धरती में समा जाना होता है। कभी वह वस्तुओं की तरह बांटी जाती है तो कभी 14 वर्षों तक प्रतीक्षारत रहती है। समाज की यह विडंबना कल भी थी और आज भी है। उसे हमेशा शक की निगाह से देखा जाता है। यह परिस्थिति किसी भी संवेदनशील रचनाकार के लिए असह्य होती है। सुप्रसिद्ध गज़लकार बी ।आर विप्लवी का यह शेर देखें-

यहाँ शोलों से सीता को परखने की रवायत है
कहाँ पाकीज़गी का रास्ता ले जायेगा हमको

आजकल स्त्री को अपनी इज्जत बचाते हुए जीवन-यापन करना बहुत ही मुश्किल हो गया है। कुछ लोग इसे मानसिक रोगियों या पोर्न फ़िल्मों का कमाल मानते हैं। वजह जो भी हो पर आलम यही है कि कौन ...कहाँ दामिनी बन जाए, कब उसके ज़िन्दगी और इज्जत दोनों को सजा सुना दी जाए, खबर ही नहीं। सुप्रसिद्ध ग़ज़लकार ओमप्रकाश यती कहते हैं-

हंसी खामोश हो जाती खुशी खतरे में पड़ती है
यहाँ हर रोज कोई दामिनी खतरे में पड़ती है

यह ज़रूरी नहीं कि स्त्री का शोषण सिर्फ़ बाहर के लोग ही करते हैं। कई बार स्त्री अपने पति के द्वारा भी खूब शोषित होते देखी जाती है। ओमप्रकाश यती का ये शेर देखें-

हो रही शादियों के बहाने बहुत
भेड़ियों के हवाले बहन-बेटियाँ

वहीं प्रसिद्ध गज़लकार ममता किरण का यह शेर देखें-

पूरी तरह से खिल भी न पाई थी जो कली
कुछ वहशियों के हाथ कुचलकर वह मर गई

वहीं प्रसिद्ध गजलकार अशोक अंजुम बलात्कार जैसी घिनौनी वारदात पर कहते हैं-

नोचे हैं पंख किसने हर ओर सनसनी है
आए जो होश में तो खोले जबान चिड़िया

वहीं सुप्रसिद्ध गज़लकार वशिष्ठ अनूप का यह शेर भी द्रष्टव्य है-

बहू-बेटियों से ज़िना कर रहे जो
सरे-आम फांसी ही उनकी सजा है

कभी हमारे देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि "लोगों को जगाने के लिए" महिलाओं का जागृत होना ज़रूरी है। उनके आगे बढ़ने से परिवार आगे बढ़ता है, गांव आगे बढ़ता है और राष्ट्र विकास की ओर उन्मुख होता है। लैंगिक भेदभाव के कारण ही अक्सर सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक अंतर पनपता है। आज भी कई पिछड़े क्षेत्रों में अशिक्षा, असुरक्षा और गरीबी की वजह से कम उम्र में विवाह और बच्चे का प्रश्न कायम है।

महिलाओं की समस्याओं का उचित समाधान करने के लिए महिला आरक्षण बिल 108 वां संविधान संशोधन जो संसद में महिलाओं की 33%हिस्सेदारी सुरक्षित करता है, पास होना ज़रूरी है। तभी, महिलाएँ सभी क्षेत्रों में सक्रिय और सकारात्मक भूमिका निभा सकती हैं। समकालीन वरिष्ठ और युवा ग़ज़लकारों ने स्त्री जीवन को संपूर्णता से व्यक्त करने की कोशिश की है। युवा गज़लकार के । पी अनमोल अलग कहन और अलहदा अंदाज के लिए जाने जाते हैं। उनके शेर देखें-

बगल में डालकर थैला ये बच्ची
नहीं पढ़ने कमाने जा रही है

या

राखी करेगी मांग किसी दिन कलाई से
थोपा न जाए बहनों पर भाई का फैसला

स्वभाविक है भाई-बहन दोनों को बराबर का हक चाहिए, जिसमें दोनों को खेलने व पढ़ने के लिए जमीन और आसमान हो।

आज की ग़ज़लें केवल स्त्री की समस्याओं की ओर ही इशारा नहीं कर रही, बल्कि जीवन में हो रहे बदलावों को भी शिद्दत से महसूस करती है। जमाना बदल गया है'लिव-इन' रिलेशनशिप पर न्यायालय की मुहर लग गई है। स्त्रियाँ अगर चाहे तो 'सरोगेट मदर' की मदद से माँ बन सकती हैं। 'तीन तलाक' पर भी प्रतिबंध लग चुका है। ऐसी स्थिति में प्रसिद्ध गज़लकार राम मेश्राम का ये शेर देखें-

अब पीठ पर 'लीव इन' का ठप्पा है अदालत का
औरत की रिहाई की आजाद सुबह क्या है

स्त्री के जीवन में जो खुलापन या बदलाव महसूस होता है वह महज मुट्ठी भर स्त्रियों के हिस्से ही आया है। आज भी अधिकांश स्त्रियाँ परिवार के छोटे-बड़े कामों के लिए खुद निर्णय नहीं ले सकतीं। आज भी स्त्रियों पर तेजाब फेंका जाता है। उन्हें डायन बता नग्न घुमाया जाता है। सच्चाई यह है कि स्त्री आज भी पुत्र के न जनने पर निर्वंश या बांझ के लांछन से प्रताड़ित होती हैं। पुरुष प्रधान समाज को देखकर प्रसिद्ध छंदशास्त्री व गज़लकार दरवेश भारती कहते हैं-

नेकी और खिदमत में जिसका है नहीं कोई जवाब
क्यों उसी औरत की खातिर बन गई दुनिया अजाब

हर अंधकार उजाला लेकर आता है। रात के बाद दिन का आना तय है। वह दिन दूर नहीं जब बच्चियों के खेलने के लिए सिर्फ़ आंगन नहीं बड़ी जमीन होगी। वह भी लड़कों की तरह हर क्षेत्र में अपना मुकाम बना रही है और बनाएंगी। अशोक मिज़ाज का ये शेर देखें-

दुआएँ मांगी है बच्ची ने खेलने के लिए
खुदा करे कि समुंदर जमीन हो जाए

तमाम ग़ज़लकारों के शेरों के अवलोकन के बाद यह पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि समकालीन हिन्दी गज़ल में स्त्री-जीवन को बड़ी शिद्दत से दर्शाया गया है। परन्तु अब भी बहुत-सी बातें की जानी शेष है। गज़ल के अनुशासन में रहते हुए स्त्री-जीवन के संघर्ष और उसके परिवर्तन को दर्शाना आसान नहीं है। कुल मिलाकर स्थिति संतोष जनक है। समकालीन हिन्दी गज़ल के गज़लकार अपने समय-समाज की तमाम विसंगतियों को एक चैलेंज के रूप में लेते हुए बेहतरीन सर्जन की ओर अग्रसर हैं। आज की स्त्री अपनी मंजिल जानती है, उसे रास्ते की दुश्वारियों का भी भय नहीं है। इस बाबत मैं अपना ही शेर उद्धृत करना चाहूंगी-

मुझे घर से निकलना आ गया है
कठिन राहों पर चलना आ गया है